‘‘दीर्घ ब्रह्मचर्य से अध्ययनम् सांगोपांग वेदादि शास्त्रों को यथावत् पढ़ना, इज्या अग्निहोत्र आदि यज्ञों का करना दानम् सुपात्रों को विद्या, सुवर्ण आदि और प्रजा को अभयदान देना, प्रजानां रक्षणम् प्रजाओं का सब प्राकर से सर्वदा यथावत् पालन करना…….. (विषयेष्वप्रसक्तिः) विषयों में अनासक्त होके सदा जितेन्द्रिय रहना – लोभ, व्यभिचार, मद्यपानादि नशा आदि दुव्र्यसनों से पृथक् रहकर विनय सुशीलतादि शुभ कर्मों में सदा प्रवृत्त रहना’’ ।
(सं० प्र० षष्ठ समु०)
क्षत्रियस्य समासतः ये संक्षेप से क्षत्रिय के कर्म हैं ।
‘‘न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, सब प्रकार से सबका पालन दान विद्या धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना इज्या अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना अध्ययन वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़ाना और विषयों में न फंसकर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर आत्मा से बलवान् रहना ।’’
(स० प्र० चतुर्थ समु०)