तस्मिन्स्वपिति तु स्वस्थे कर्मात्मानः शरीरिणः । स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिं ऋच्छति । । १

(सुस्थे) सृष्टि – कर्म से निवृत्त हुए (तस्मिन् स्वपिति तु) उस परमात्मा के सोने पर (कर्मात्मानः) कर्मों – श्वास – प्रश्वास, चलना – सोना आदि कर्मों में लगे रहने का स्वभाव है जिनका, ऐसे (शरीरिणः) देहधारी जीव भी (स्वकर्मभ्यः, निवर्तन्ते) अपने – अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं (च) और (मनः) ‘महत्’ तत्त्व (ग्लानिम्) उदासीनता – सब कार्य – व्यापारों से विरत होने की अवस्था को या अपने कारण में लीन होने की अवस्था को (ऋच्छति) प्राप्त करता है ।

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