त्वं एको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुवः । अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो

हि क्यों कि प्रभो हे भगवन्! अस्य सर्वस्य इस सब प्रलय समय ‘अचिन्त्यस्य अप्रमेस्य’ अर्थात् अविज्ञ जगत् के ‘कार्यतत्त्व’ कारण से बने स्थूल पदार्थों के तत्त्व सूक्ष्म कारण प्रकृतिमय तत्त्वादि को आप जानते हैं । तथा स्मयम्भुवः स्वयम्भू जो सनातन विधानस्य विधानरूप वेद हैं अचिन्त्यस्य जिनमें असत्य कुछ भी नहीं अथवा जिनका चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता अप्रमेयस्य जिनमें सब अर्थात् अपरिमित सत्यविद्याओं का विधान है उनमें विहित और अर्थवित् उनके अर्थों को जानने वाले एकः त्वम् केवल आप ही हैं ।

 

स्वयम्भू जो सनातन वेद हैं, जिनमें असत्य कुछ भी नहीं और जिनमें सब सत्यविद्याओं का विधान है उनके अर्थ को जानने वाले केवल आप ही हैं । (ऋ० भू० वेदविषय विचार)’’

अभिप्राय यह है कि वेद सब सत्यविद्याओं के विधान हैं, इस प्रकार वे जगत् के विधानरूप ग्रन्थ अर्थात् संविधान हैं । महर्षि लोग प्रशंसापूर्वक मनु से कह रहे हैं कि उन विधानरूप वेदों में कौन – कौन करने योग्य कत्र्तव्य अर्थात् धर्म विहित हैं, इन बातों को भलीभांति समझने वाले आप हैं, अतः हमें वर्णों और आश्रमों के धर्मों को बतलाइये । (यह श्लोक १।२ का पूरक वाक्य है । दूसरे श्लोक में जो प्रश्न किया गया था , वही इसमें प्रशंसा – कथनपूर्वक पूर्ण हुआ है ) ।।

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