अकामस्य क्रिया का चिद्दृश्यते नेह कर्हि चित् । यद्यद्धि कुरुते किं चित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम्

क्यों कि यत् यत् किंचित् कुरूते जो – जो हस्त, पाद, नेत्र, मन आदि चलाये जाते हैं (तत्तत् कामस्य चेष्टितम्) वे सब कामना ही से चलते हैं । अकामस्य जो इच्छा न हो तो काचिद्क्रिया आंख का खोलना और मींचना भी न दृश्यते नहीं हो सकता ।

(स० प्र० दशम समु०)

इह इस संसार में कर्हिचित् कभी भी ।

‘‘मनुष्यों को निश्चय करना चाहिये कि निष्काम पुरूष में नेत्र का संकोच, विकास का होना भी सर्वथा असम्भव है । इससे यह सिद्ध होता है कि जो – जो कुछ भी करता है वह – वह चेष्टा कामना के बिना नहीं है ।’’

(स० प्र० तृतीय समु०)

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