आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः

(श्रुत्युक्तः च स्मार्त एव) वेदों में कहा हुआ और स्मृतियों में भी कहा हुआ जो आचारः आचरण है परमः धर्मः वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है (तस्मात्) इसीलिए आत्मवान् द्विजः आत्मोन्नति चाहने वाले द्विज को चाहिए कि वह (अस्मिन्) इस श्रेष्ठाचरण में (सदा नित्यं युक्तः स्यात् )सदा निरन्तर प्रयत्नशील रहे ।

 

उपरोक्त श्लोक देकर स्वामी जी ने निम्न अर्थ दिया है –

‘‘कहने सुनने – सुनाने, पढ़ने – पढ़ाने का फल यह है कि जो वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना । इसलिये धर्माचार में सदा युक्त रहे ।’’

(स० प्र० तृतीय समु०)

‘‘जो सत्य – भाषणादि कर्मों का आचरण करना है वही वेद और स्मृति में कहा हुआ आचार है । ’’

(स० प्र० दशम समु०)

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