वैदिक साहित्य और संस्कृति पर मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

वैदिक साहित्य और संस्कृति पर

मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

आज के इस सन्दर्भ में आर्य समाज को एक दुरभाग्यशाली संस्था कहा जायेगा, जिसके संस्थापक ने इसको आज विश्व में निर्णायक भूमिका निभाने का सामर्थ्य दिया था। आज वह घटनाक्रम में पटल से भी ओझल है। अंग्रेजों ने मैक्समूलर के माध्यम से इस देश की भाषा संस्कृत और संस्कृति का भरपूर नाश किया। बहुत अंशों में इस प्रयास को सफल कहा जायेगा, परन्तु ऋषि दयानन्द ने उसकी योग्यता पर टिप्पणी करते हुए कहा था- यस्मिन् देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते। जिस देश में पेड़ नहीं होते, वहाँ लोग एरण्ड को ही पेड़ समझते हैं। ऋषि ने मैक्समूलर की सभी वेद-विरोधी  धारणाओं का खण्डन करते हुए, उनकी विद्वत्ता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया था। श्याम जी कृष्ण वर्मा के माध्यम से उन्होंने कहलवाया था- मैक्समूलर जैसे विद्वान् भारत की गली-गली में मिल जाते हैं। ऋषि के समय तक यह सच भी था, परन्तु आज मैकाले और मैक्समूलर की योजना के परिणामस्वरूप इस देश में संस्कृत के विद्वान् खोजने पर भी नहीं मिल पाते। यहाँ के लोगों की दृष्टि में आज पाश्चात्य लोग ही संस्कृत के प्रामाणिक भाष्यकार बन बैठे हैं। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज को वेदाध्ययन की जो दृष्टि दी थी, उसने उस वेदाध्ययन और संस्कृत के पठन-पाठन को स्वयं से दूर कर लिया और टाई लगाकर अंग्रेजी बोलने को ही जीवन का परम लक्ष्य बना लिया तो आज उसके पास क्या सामर्थ्य है कि वह वेद और संस्कृत के विषय में अपना कोई पक्ष रख सके?

वर्तमान घटनाक्रम में 2 मार्च के वाशिंगटन पोस्ट में समाचार प्रकाशित हुआ- हारवर्ड विश्वविद्यालय की प्राचीन संस्कृत साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद की कार्य योजना पर दक्षिण पन्थी हिन्दुओं का आक्रोश। इस समाचार में घटना और उसकी प्रतिक्रिया की चर्चा की गई है। इस समाचार को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। सन् 1832 में लैटिनेंट कर्नल जोसेफ बोडेन ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की चेयर स्थापित की थी, जिसमें मैक्समूलर को संस्कृत ग्रन्थों-विशेषतः वेदों के अनुवाद का काम सौंपा गया था। उनका उद्देश्य मात्र वैदिक साहित्य एवं संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करना था। विशेष रूप से हिन्दुओं की आस्था को समाप्त करने के लिये वेदों के गलत व्याखयान करना था। इसी तरह अब सन् 2010 में इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने 5.2 मिलयन डॉलर से ‘मूर्ति क्लासिकल लाईब्रेरी ऑफ इण्डिया’ नाम से एक निधि स्थापित की है, जिसके माध्यम से प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रामाणिक रूप से अंग्रेजी अनुवाद कराके यह प्रकाशित किया जायेगा। इस क्रम में अबतक ग्रन्थमाला के नौ भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं तथा चार

भाग प्रकाशन के लिये तैयार हैं। इस कार्य में अनेक विदेशी विद्वान् लगे हुए हैं। इस कार्य में लगे हुए विद्वानों के मुखिया हैं कोलबिया विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विद्वान् शेल्डन पोलक। पोलक को इस कार्य का निर्देशन करने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है- इसको बात को जानने के लिये पोलक के विचार, कार्य शैली और उनके सबन्धों की पहचान करनी होगी। पोलक के चरित्र को समझने के जिन घटनाओं में उसकी भागीदारी है, उनको देखने से पोलक का चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 2005 में लोरिडा में अमेरिकन होटल के मालिकों द्वारा ने तत्कालीन गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को बुलाये जाने पर उस निमन्त्रण को रद्द कराने वाले लोगों में श्रीमान् पोलक ही आगे थे। 2005 में ही केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में होने वाले कार्यक्रम का विरोध करते हुए कहा गया था- हमें यह जानकर बहुत दुःख है कि 22 मार्च को समपन्न हो रहे भारतीय विद्याओं के अध्ययन हेतु यदुनन्दन अध्ययन केन्द्र के उद्घाटन हेतु नरेन्द्र मोदी, गुजरात के मुखयमन्त्री को आमन्त्रित किया गया है। हमारी दृढ़तापूर्वक प्रार्थना है कि इस आमन्त्रण को वापस ले लिया जाये। इस माँग को करने वालों में भी पोलक का नाम प्रमुख है। फिर 2009 में मेक आर्थर फाउण्डेशन द्वारा बुलाये जाने पर कहा गया- एशियाई प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में इस अवसर पर गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को सममानित करना उचित एवं पात्र व्यक्तियों को अपमानित करने जैसा होगा। इस प्रार्थना के करने वालों में पोलक अग्रणी थे। 2015 में जब मोदी प्रधानमन्त्री बन गये तो एक पत्र भारत सरकार को लिखा गया- हम विद्वान् शोधकर्त्ता और शोध छात्रों का भारत सरकार से आग्रह है कि 1,50,000 (एक लाख पचास हजार) पृष्ठ की गाँधी हत्याकाण्ड से जुड़ी सामग्री की सुरक्षा के विषय में भारत सरकार अपना पक्ष तत्काल स्पष्ट करे। इसमें भी हस्ताक्षरकर्त्तों में पोलक को चिन्ता करते हुए देखा जा सकता है।

वाशिंगटन पोस्ट के 2 मार्च के समाचार पत्र में लिखा गया है कि- पोलक का सामयवादियों से समबन्ध है। वामपन्थी लेखकों के साथ पोलक के विचार भारतीय सभयता और संस्कृति के समबन्ध में सममानजनक नहीं है। समाचार पत्र लिखता है- पोलक उन लोगों में सममिलित है जो लोग जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर समर्थन करते हैं। इस प्रकार पोलक देश की एकता, अखण्डता का सममान नहीं करता है।

इस बात से समझा जा सकता है कि शेल्डन पोलक  की विचारधारा क्या है और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य का उद्देश्य क्या है तथा उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? इस कार्य का पहला उद्देश्य वही है, जिसको मैकाले की प्रेरणा से मैक्समूलर ने पूरा किया था। इस कार्य से दो परिणाम निकले- शिक्षा के माध्यम और शिक्षा पद्धति के परिवर्तित होने से इस देश के लोग संस्कृत के पठन-पाठन से विमुख हो गये और अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर संस्कृत विद्वान् बन गये तथा उसे ही ठीक मानने लगे जो अंग्रेजी में लिखा गया है। मूल ग्रन्थ की भाषा के अभाव में ग्रन्थ को पढ़ना ही नहीं आता था तो उसे समझने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? मैक्समूलर के इसी साहित्य से इस देश के विद्वानों ने जाना कि वेद गड़रियों के गीत हैं। अंग्रेजों ने भारत के विषय में जितना अध्ययन किया, उसमें परिश्रम बहुत है, ईमानदारी बिल्कुल नहीं है। उनसे इसकी आशा करना हमारी मूर्खता होगी। इस देश पर अंग्रेजों का शासन था, हम उनके दास थे, यह कैसे समभव है कि कोई स्वामी अपने दास को अपने से श्रेष्ठ माने? उसे तो यहाँ की जनता पर शासन करना है तो वह आपके अच्छे को भी बुरा कहने का अधिकार रखता है। हमने स्वयं भूल की है कि अंग्रेज को अपना आदर्श बनाया और जैसा वह चाहता था, स्वतन्त्रता के बाद भी वही किया, जो अंग्रेजों के समय इस देश में हो रहा था। उसमें गति और विस्तार तो आया, परन्तु परिवर्तन किञ्चित् मात्र भी नहीं आया। आज परिणाम हमारे सामने है।

अंग्रेजों ने हमारे इतिहास, साहित्य और संस्कृति से बलात्कार किया है, सामान्य व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। शोध के नाम पर उसने इतिहास संस्कृति के लिये, जो अध्ययन का प्रकार अपनाया और यहाँ की प्रचलित परमपरा को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। मैक्समूलर के शोध ने इस देश के निवासियों को यहाँ का मानने से ही इन्कार कर दिया। उसने आर्य द्रविड़ के काल्पनिक सिद्धान्त को हमारे ऊपर थोपा और अपनी सत्ता व पैसे के बल पर हमें ही इस देश में विदेशी और पराया घोषित कर दिया। आजतक भी इस सिद्धान्त को प्रमाणित नहीं किया जा सका, परन्तु किसी को कहने से कौन रोक सकता है? पैसा साधन मिल जाये तो प्रचार करने में क्या बाधा है। उससे भी बड़ी बात सत्ता में बैठे लोगों को ही इस विचार के लिये सहमत कर लिया जाये तो यह विचार शासन का विचार बन जाता है, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। आज जब सारे संसार में विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, ऐसी परिस्थिति में विश्व पुस्तक मेले में एक भी संस्कृत साहित्य के पुस्तक विक्रेता का नहीं आना, संस्कृत पाठक के अभाव को दर्शाता है।

अंग्रेजों का अन्य षड़यन्त्र है- संस्कृत भाषा को मृत भाषा घोषित करना। यह कार्य बहुत सरलता से हो गया, जब सरकार ने संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया। इस देश में शासन की भाषा, संसद की भाषा, न्यायालय की भाषा, शिक्षा की भाषा, प्रशासन और व्यवहार की भाषा जब अंग्रेजी बना दी गई तो संस्कृत-हिन्दी किस खेत की मूली हैं? थोड़े से पुराने लोग जो अंग्रेजी नहीं जानते, जब तक वे जीवित हैं, हिन्दी बोलते देखे जा सकते हैं। जैसे ही अगले दस-पन्द्रह वर्ष में ये लोग मर जायेंगे, अगली आने वाली पीढ़ी गर्व से कहेगी, हमें हिन्दी नहीं आती।

अंग्रेजों ने संस्कृत को पढ़ने और उसकी व्याया करने के लिये अपने ही आधार बनाये हैं। संस्कृत में जो ग्रन्थ लिखा गया है, लेखक को उसके लिखने का क्या प्रयोजन है, इसका निर्णय भी अंग्रेज ने अपने हाथ में रखा है। पुस्तक में विचारों के श्रेष्ठता निमनता का निर्णय भी अंग्रेज उस पुस्तक को पढ़कर बतायेगा। विड़मबना यह है कि इस पुस्तक का लेखक इस देश है, भाषा इस देश की है, परमपरा इस देश की है, परन्तु इस सब को तिरस्कृत करके निर्णय का आधार स्वयं अंग्रेज का अपना बनाया हुआ है वह परमपरा से प्रचलित आधार को वह स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार कालक्रम के निर्णय में कौन-सा ग्रन्थ कब लिखा गया, यह भी वह जो कहेगा, वही माना जायेगा। कितना अच्छा न्याय है! अंग्रेज हमें बता रहा कि ऋग्वेद पहले बना या अथर्ववेद ? इसका आधार क्या है, इसका निर्णया भी वही करेगा। क्या यह बन्दर बिल्ली का न्याय नहीं है! बिल्लियों के झगड़े में न्याय तो बन्दर का ही माना जायेगा। इस पद्धति से अंग्रेज ने अपना प्रयोजन पूर्ण सिद्ध किया है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है संस्कृत एक मृत भाषा है और संस्कृति तो इस देश में कोई थी ही नहीं, जब भाषा नहीं तो विचार कहाँ से आयेंगे? अंग्रेज की संस्कृत सेवा का प्रयोजन पहले भी वही था जिसे मैकाले-मैक्समूलर ने स्थापित किया था। दुर्भाग्य तो यही है कि वही कार्य पहले बोडेन के धन से हुआ था, आज वह वह एक भारतीय नारायण मूर्त्ति के धन से हो रहा है। इस देशवासियों के लिये इससे अधिक गर्व की और क्या बात होगी!

शेल्डन पोलक के इस अनुवाद के पीछे एक ओर षड्यन्त्र है, संस्कृत ग्रन्थों का अंग्रेजी में ऐसा अनुवाद करना, जो उनके विचार से मेल खाता हो। इस अनुवाद के करने से लोगों को संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही अनुभव न हो, जैसा आज मैक्समूलर का अनुवाद पढ़ कर हम वेद समझते हैं वैसे ही पोलक का वेद-अनुवाद हमारे लिये वेद से अधिक प्रामाणिक प्रतीत होगा। इस कार्य का परिणाम होगा- शोध, अनुसन्धान, संस्कृति एवं इतिहास को जानने की भाषा संस्कृत नहीं रहेगी, उसे वह सममान नहीं मिल पायेगा, जो अंग्रेजी को मिल रहा है और अंग्रेजी का ही सममान इस देश में बढ़ जायेगा। शेल्डन पोलक की मान्यता है कि संस्कृत में तब तक शोध नहीं हो सकता, जब तक संस्कृत का विद्वान् बढ़िया अंग्रेजी नहीं जानता। जब अंग्रेजी के बिना शोध नहीं हो सकेगा, तो संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही क्या रहेगी? संस्कृत का प्रामाणिक अनुवाद शेल्डन पोलक आपकी सेवा के लिये ही तो कर रहा है। इस प्रकार संस्कृता भाषा शोध एवं अनुसन्धान की धारा से अपने-आप ही बाहर हो जायेगी।

अंग्रेज लेखक चाहे मैक्समूलर हो या पोलक, सभी संस्कृत पढ़कर यह स्थापित करना चाहते हैं कि संस्कृत तथा कथित कुलीन, दरबारी लोगों की भाषा है। राजे-रजवाड़ों को प्रसन्न करने के लिये संस्कृत में ग्रन्थों की रचना की गई। इसमें महिलाओं और दलितों का अपमान ही किया गया, उनको समान के योग्य भी नहीं माना गया, अधिकार देना तो बहुत दूर की बात है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है कि हिन्दू और हिन्दुत्व को इस देश के लोगों में भय उत्पन्न करने के लिये उपयोग में लाया जा रहा है। पोलक का उद्देश्य ईसाई, मुसलमान, दलित को हिन्दुत्व से अलग करके प्रस्तुत करना है। हिन्दुत्व को अल्पसंखयक और दलितों को दबाने वाला समुदाय बताया जाता है। शेल्डन पोलक के मत में हिन्दुत्व की बात करना संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है, वही बात ईसाई, मुसलमान करें तो यह उदारता का परिचायक है। राष्ट्र की एकता देशभक्ति की बात करना संकीर्णता है, देशद्रोह की घोषणा करना, विचारों की अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का परिचायक है। हिन्दू और इनकी भाषा का इस देश की अन्य भाषाओं और लोगों से कोई सबन्ध नहीं है और हिन्दुत्व की विचारधारा देश की बहुसंखयक विचारधारा से अलग है, यह भी उसकी मान्यता है।

शेल्डन पोलक के अनुसन्धान से आप गद्गद् हो जायेंगे। उसकी स्थापना है कि वेद बुद्ध के बाद की रचना है। मीमांसा जैसे दार्शनिक विचार बुद्ध के बाद ही संस्कृत में लिये गये हैं। रामायण का लेखन भी बुद्ध के बाद हुआ है। रामायण-महाभारत कोई इतिहास नहीं हैं, ये तो मनोरंजन के लिये लिखे गये काल्पनिक काव्य हैं। इनमें दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न के अतिरिक्त कोई आदर्श बात नहीं है। पोलक को सबसे पीड़ा देने वाली बात लगती है, संस्कृत साहित्य में आदर्श और अध्यात्म की बात करना। उसके विचार से वेद, वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत और बाद के साहित्य का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ये सब काल्पनिक बातें हैं। ये ग्रन्थ धर्म निरपेक्षता, व्यक्तिगत विचार स्वातन्त्र्य से कोई समबन्ध नहीं रखते हैं।

इन्हीं सब बातों से कुछ भारतीय विद्वानों ने इस संस्था और उसके संचालकों के विरुद्ध वाद दायर किया है, जिसमें शेल्डन पोलक को हटाने और भारत से समबद्ध कार्य को भारत से बाहर न किया जाकर, भारत में ही करने की माँग की गई है। इस विषय में विस्तार से जानकारी के लिये राजीव मल्होत्रा की पुस्तक ‘द बैटल फॉर संस्कृत’ पढ़ें, दिल्ली में सुलभ है।

इस परिस्थिति में भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास अंग्रेज तो नष्ट करेगा ही, परमपरावादी भी उसे रुढ़ि और अन्धविश्वास से बाहर नहीं निकलने देंगे। तब कौन वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति को बचाने का बीड़ा उठायेगा? आज फिर यह पंक्ति उत्तर माँग रही है-

किं करोमि क्व गच्छामि, को वेदानुद्धरिष्यति।।

– धर्मवीर

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