एक अभूतपूर्व घटना

एक अभूतपूर्व घटना

गुजरात में आगाखानीमत-जैसा एक और मत भी कभी बड़ा प्रभाव रखता था। इसे ‘सत्पन्थ’ कहते थे। इसका अतीत तो कुछ और ही था, परन्तु आगे चलकर चतुर मुसलमानों के कारण सहस्रों अज्ञानी व मूर्ख हिन्दू अपने मत से च्युत होकर ‘कलमा’ पढ़ने लग गये और हिन्दू होते हुए भी निकाह करवाते थे। आज आर्यसमाज के इतिहासकारों को भी यह तथ्य ज्ञात नहीं कि किन दिलजले आर्यवीरों के प्रयास से सहस्रों सत्पंथी धर्मभ्रष्ट हिन्दुओं की शुद्धि हुई। इन शुद्ध होनेवालों में कितने ही प्रज़्यात क्षत्रिय, पटेल व सुशिक्षित गुजराती हिन्दू थे। हिन्दूसमाज आर्यसमाज के इस उपकारको कतई भूल चुका है।

सत्पन्थ एक इरानी ने चलाया था। उसका नाम इराणाशाह था। उसने अहमदाबाद के निकट पीराणा में एक वेद-पीठ स्थापित की।

इराणाशाह के एक मुसलमान चेले ने इस वेद-पीठ को दरगाह बनाकर यज्ञोपवीत उतार-उतार कर पीराणा की दरगाह (वेदपीठ) में जमा करवाता रहा। यह दुःखदायी, परन्तु रोचक इतिहास कभी

फिर लिखेंगे। इसी सत्पन्थ में भुज कच्छ के एक सज्जन खेतसी भाई थे। इन खेतसी भाई ने अपने ग्राम के एक युवक शिवगुण भाई को सत्पन्थ में प्रविष्ट किया। शिवगुण भाई काम-धन्धे की खोज में कराची गये।

खेतसी भाई भी वहीं थे। कराची में एक गुजराती आर्ययुवक पहुँचा। यह था धर्मवीर नारायणजी भाई पटेल। इस धर्मवीर को मुसलमान जान से मार डालने की धमकियाँ देते रहते थे। सत्यपन्थ की जड़ें उखाड़ने में इनका विशेष उद्योग रहा। इन नारायण भाई ने कराची में आर्य युवकों की एक परिषद् बुलाई। परिषद में युवक ही अधिक थे। नारायण जी ने उन्हें सत्पन्थ छोड़ने व वैदिक धर्म ग्रहण करने की प्रेरणा दी। शिवगुण भाई ने समझा वेद धर्म में भी किसी मूर्ज़ि की ही

पूजा होती होगी। शिवगुण भाई ने सत्पन्थ छोड़ दिया, परन्तु किसी को बताया नहीं। ऐसा करने पर इनको वहाँ धन्धा न मिलता। खेतसी भाई को भी न बताया।

जब सत्पन्थी लोगों को पता चला तो शिवगुण भाई के ग्राम के व इतर गुजराती बन्धुओं ने इसका बड़ा प्रबल बहिष्कार किया। नारायण भाई को शिवगुण भाई ने पाँच रुपया दान दिया था। इसके कारण भी विपदा आई। खेतसी भाई ने कराची में ही सैयद मुराद अली पीराणावाले को पाँच रुपया दान दिया, उसे तो पाप न माना गया। अपनी बरादरी के युवकों के सुधार के लिए दिया गया दान चूँकि एक वेदाभिमानी नारायणजी भाई पटेल को दिया गया इसलिए सत्पन्थी कलमा पढ़नेवाले, निकाह करवानेवाले पटेलों ने शिवगुण भाई और उनकी पत्नी का कराची में जीना दूभर कर दिया।

शिवगुण भाई कराची छोड़ने पर विवश हुए। यह करुण कहानी बहुत लज़्बी हैं। इसी कहानी की अगली कड़ी हम यहाँ देना चाहते हैं। शिवगुण भाई अपने ग्राम लुडवा आये। कुछ समय बाद उनका सत्पन्थी गुरु खेतसी भाई भी कराची से लुडवा पहुँचा। एक दिन शिवगुण भाई से पूछा कि तुम अब किस मत में हो? खीजकर शिवगुण भाई ने कहा-‘किसी भी मत में जाऊँ तुज़्हें ज़्या?’

खेतसी भाई ने बड़े प्रेम से कहा-‘वेदधर्म ग्रहण करके आर्य बन जाओ।’ शिवगुण भाई बोले-‘‘बस कर बाबा, पहले सत्पन्थी बनाया, अब आर्य और वेदधर्मी बनाने लगा है।’’ खेतसी के पास पैसा था। शिवगुणजी से मित्रता थी। शिवगुणजी ने विपज़ि का सामना करते हुए अपनी पत्नी तथा पुत्र को तो ग्राम में छोड़ा। खेतसी भाई से तीन सौ रुपया ऋण लेकर पूर्वी अफ्रीका जाने

का निश्चय किया। ग्राम से बज़्बई पहुँचे। पारपत्र बनवाया, टिकट लिया। नैरोबी चल पड़े। खेतसी भी बज़्बई पहुँचे। उसने भी टिकट लिया। उसी जहाज में नैरोबी चल पड़े। शिवगुण भाई ने पूछा-

‘आप कैसे जा रहे हो?’ उसने कहा, घूमने-फिरने चलेंगे। अफ्रीका जाकर खेतसी भाई शिवगुणजी को छोड़कर कहीं निकल गये। खेतसी की न जान, न पहचान, न भाषा-ज्ञान, चल पड़े और अगले दिन शिवगुण भाई से कहा चलो कहीं चलें। शिवगुण भाई को समाज मन्दिर ले-गये। पहले दिन वे आर्यसमाज मन्दिर का ही पता करने गये थे। उन्हें पता था कि नैरोबी में आर्यसमाज है। खेतसी कराची रहते हुए सुशीला भवन समाज मन्दिर के सदस्य बन गये थे। शिवगुण

भाई समाज मन्दिर के कार्यक्रम को देखकर पहले तो कुछ सन्देह में पड़े फिर जब वहाँ कन्याओं के भजन सुने और महात्मा बद्रीनाथजी, संस्थापक नैरोबी समाज और संस्थापक गुरु विरजानन्द स्मारक करतारपुर के भजन सुने तो मुग्ध हो गये। शिवगुण भाई के मन से मुसलमानी भाव तो निकल चुके थे।

आर्य सन्तान होने का अभिमान नारायण भाई ने कराची में जगा दिया था। उन दिनों अफ्रीका के नैरोबी नगर में पंजाब से एक वानप्रस्थी गये थे। निरन्तर एक मास उनकी कथा सुनकर आपके

मन में वैदिक धर्म के प्रति दृढ़ आस्था पैदा हो गई। आपने वेदानुसार जीवन बिताने का व्रत लिया। खेतसी भाई ने शिवगुण भाई में यह परिवर्तन देखा। एक मास पश्चात् ज़ेतसी भाई ने स्वदेश लौटने का कार्यक्रम बनाया। शिवगुण भाई ने कहा-‘अभी तो मैंने कुछ कमाया नहीं। पैसे नहीं दे सकता। आप कुछ और ठहरें मैं कुछ कमाकर आपके तीन सौ चुका दूँ।’

खेतसी भाई का उज़र आर्यसमाज के इतिहास में एक स्वर्णिम घटना समझा जाएगा। आपने कहा-‘‘मेरा रुपया अब आ गया। मैं तो तुज़्हें आर्यसमाज से जोड़ने के लिए ही अफ्रीका आया

था और कोई काम नहीं था। मेरा लक्ष्य पूरा हो गया। मेरा मन गद्गद है, अब मैं जाता हूँ।’’

यह आर्यसमाज के इतिहास की अभूतपूर्व घटना है कि एक आर्यपुरुष दूसरे साथी को आर्यसमाज का मन्दिर दिखाने व आर्यसमाज में लाने के लिए अफ्रीका तक चला जाता है। वीर विप्र रक्तसाक्षी पण्डित लेखरामजी होते तो खेतसी भाई की लगन देखकर उसे छाती से लगा लेते। शिवगुण बापू ने भुज कच्छ में वैदिक धर्म प्रचार के लिए अहर्निश साधना करके ऐसी सफलता पाई कि आज गुजरात में आर्यों की कुल संज़्या का आधा भाग शिवगुण वेलानी पटेल की बरादरी का है। इनके तपोबल से और वेद, ईश्वर, यज्ञ व गौ के प्रति इनकी श्रद्धा के कारण उच्च शिक्षित युवक, प्रतिष्ठित देवियाँ तथा पुरुष वैदिक धर्म के प्रचार में जुट गये हैं।

आपने विक्रम संवत् 1987 में स्वदेश लौटकर अपने ग्राम में दैनिक यज्ञ चालू कर दिया। इससे सत्पन्थी पुनः भड़के। आपका प्रचण्ड बहिष्कार हुआ। आपका यज्ञोपवीत उतारने के लिए ग्रामों की पंचायत बैठी। यह एक लज़्बी कहानी है।

अटल ईश्वर-विश्वासी, यज्ञ-हवन तथा सन्ध्योपासना के नियम का दृढ़ता से पालन करनेवाले शिवगुण भाई पर तब जो विपज़ियाँ आईं उन्हें सुनकर नयन सजल हो जाते हैं। साधनहीन, परन्तु सतत साधनावाले ऋषिभक्त शिवगुण इस अग्नि-परीक्षा में पुनः विजयी हुए।

एक और घटना का उल्लेख कर इतिहास के इस पृष्ठ को हम यहीं समाप्त करते हैं। नैरोबी में सरदार पटेलजी के ग्राम करमसद के एक पटेल पुरुषोज़म भाई मोती भाई भी समाज में आते थे। चारपाँच और भी गुजराती आर्यसमाज के सभासद् थे। पुरुषोज़म भाई ने एक मास पश्चात् इन्हें कहा-‘‘तुम मेरे गुजराती भाई लगते हो, परन्तु मुझसे मिलते ही नहीं?’’ तुम कैसे आर्य बन गये? पुरुषोज़म भाई भी रेलवे में थे और महात्मा बद्रीनाथजी के सत्संग से पुरुषोज़म भाई आर्य बने।

सूपा गुरुकुल में सरदार पटेल ने एक बार कहा था-ऋषि दयानन्द मेरे गुरु थे। विट्ठल भाई पटेल भी ऋषि को अपना गुरु मानते थे। ऋषि के विचारों से अनुप्राणित होकर ये दोनों नररत्न मातृभूमि के गौरव-गगन पर सूर्य बनकर चमके।

श्री शिवगुण भाई का वैदिक धर्म अनुराग तो आर्यों के लिए प्रेरणाप्रद है ही, परन्तु खेतससी भाई जैसे लगनशील आर्य ने ऐसी अनूठी तड़प का परिचय न दिया होता तो शिवगुण बापू-सा सपूत भी आर्यसमाज को न मिल पाता।

नारायण भाई पटेल और श्री देवजी जगमाल जी जाडेजा जैसे आर्यपुरुष गुजरात में विशेषरूप से भुज कच्छ में (जो इनका क्षेत्र था) अपनी स्थायी छाप न छोड़ सके। वे दोनों विद्वान थे। आरज़्भिक आर्यपुरुष थे, परन्तु इनमें एक ही कमी थी। वे वेद धर्म, वेद धर्म की रट तो लगाते थे, परन्तु उनके अपने जीवन में वैदिक सन्ध्योपासना यज्ञ का नियम न था। यदि वे दृढ़ता से इसका पालन करते व कराते तो उन्हें विशेष सफलता मिलती। इन प्रणवीरों के भी आर्यगण ऋणी हैं। इनकी सेवा व साहित्य पर आगे कभी प्रकाश डाला जाएगा।

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