श्री दुलीचन्द जी जैलदार- शुद्धि सेना के अवैतनिक सिपाही

श्री दुलीचन्द जी जैलदार

शुद्धि सेना के अवैतनिक सिपाही

-धर्मेन्द्र जिज्ञासु

समग्र क्रान्ति के सूत्रधार आर्यसमाज के आन्दोलन ने समाज के हर वर्ग के व्यक्ति को अपनी तरफ आकृष्ट किया। श्री दुलीचन्द जी जैलदार भी उन लाखों व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने अपना जीवन आर्यसमाज के आन्दोलन को भेंट कर दिया था। उनका जन्म सन् १८८९ ई. में ग्राम सुनपेड़ तहसील बल्लभगढ, हरियाणा में हुआ। पिता जी का नाम ठाकुर देवीराम था। उनकी माता गाँव-महेपा जिला बुलन्दशहर, उत्तरप्रदेश की थीं।

युवावस्था में आर्यसमाज के समाज सुधार कार्यक्रमों से आकृष्ट होकर वे निष्ठावान् आर्यसमाजी बने। उनका विवाह गाँव-रैनीजा, जिला बुलन्दशहर (उ.प्र.) की भगवानी देवी से हुआ। दो पुत्र हुए-सतपाल सिंह व राजपाल सिंह। गाँव में प्रति वर्ष आर्यसमाज के तीन-चार प्रचार कार्यक्रम करवाते थे। जैलदार जी ने हिन्दी रक्षा आन्दोलन तथा गौरक्षा आन्दोलन में सक्रिय योगदान दिया था। अपने बड़े बेटे सतपाल सिंह को अन्दोलनों में जेल भेजा जिसके कारण सब लोग उन्हें महाशय सतपाल कहने लगे थे। पलवल के निकट गुरुकुल गदपुरी की स्थापना में उनका विशेष योगदान था। वे हर वर्ष गुरुकुल के लिए अन्न संग्रह करके भिजवाते थे। यह परम्परा उनके परिवार में आज तक बनी हुई है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी के सानिध्य मेंःजैलदार जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के सान्निध्य में शुद्धि आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। बल्लभगढ़, पलवल, मेवात व आगरा में लाखों राजपूत, जाट, मेव आदि की शुद्धि में बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनके छोटे सुपुत्र राजपाल सिंह जी ने ७ फरवरी २००६ को ‘आर्यसमाज के भीष्म पितामह’ श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी को यह जानकारी दी।

‘‘मेरे पिता श्री दुलीचन्द जैलदार जी ने ही इलाके में आर्यसमाज का बीज बोया था। मेरा जन्म सन् १९२३ में हुआ था। मेरा नामकरण संस्कार पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ही करवाया था। मेरी जीभ पर सोने की अंगूठी से ‘ओ३म्’ लिखवाया था। उस समय हमारी हवेली के आंगन के बीच में पत्थर का हवनकुण्ड स्थापित किया गया था, जो आज तक मौजूद है।

पिता जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ शुद्धि का बहुत काम किया था। जल्हाका, बुड़ैना, हरसोला तथा जाटों के अनेक गाँवों की शुद्धि करवाई थी।’’

स्वामी स्वतन्त्रानन्द पुस्तकालय, हीरा मार्केट, गुरु बाजार अमृतसरः- जुलाई २०१० ई. में पदोन्नति के कारण मेरी पोस्टिंग अमृतसर में हुई। वहाँ मैं दिसम्बर २०१२ तक रहा। स्वामी स्वतन्त्रानन्द पुस्तकालय में पुरानी पुस्तकों व समाचार-पत्रों की फाइल उलटते-पुलटते मुझे जैलदार जी के बारे में दो समाचार मिले, जो इस प्रकार हैंः-

१. शुद्धि समाचार का सभा-विवरणांक-१५ मई सन् १९३० ई., वर्ष ६ संख्या ५, पृष्ठ २१७

अवैतनिक प्रचारक

वैतनिक प्रचारकों के अतिरिक्त बहुत से उपदेशक महानुभावों तथा सहायकों ने इस वर्ष सभा के प्रचार कार्य में समय-समय पर अच्छी सहायता दी है और उन्होंने सभा से किसी प्रकार का भी खर्चा यहाँ तक कि मार्ग व्यय भी प्राप्त नहीं किया है।

अवैतनिक प्रचारक महानुभावों के कुछ नाम इस प्रकार हैंः-

क्रम सं. १२ श्री चौ. दुलीचन्द जी सुनपेड़।

क्रम सं. ११ पर श्री चौ. चन्दन सिंह जी पलवल (क्रम सं. ४ पर) इस सूची में श्री पं. धुरेन्द्र शास्त्री न्यायभूषण, पटना व कुँ वर चाँदकरण जी शारदा, अजमेर (क्रम सं. ३० पर) दिए गए हैं।

२. शुद्धि समाचार-१५जून १९३० ई. (वर्ष ६ सं. ६) पृष्ठ २६६ विविध समाचार-

‘‘ता. १५ मार्च सन् १९३० ई. शनिवार को ग्राम दीघोट जिला गुडगाँवा निवासी चौ. तारासिंह नम्बरदार की २ पुत्रियों का विवाह संस्कार ग्राम अटारी तह. बल्लभगढ़ के चौ. समयसिंह के २ पुत्रों से हुआ। विवाह में श्री चौधरी दुलीचन्द सुनपेड़ निवासी, श्री चौ. कर्णसिंह जी कौरारी निवासी शामिल हुए। चौ. तारासिंह नम्बरदार की शुद्धि सन् १९२४ ई. में ‘भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा’ द्वारा की गई थी।’’

जैलदारः पंजाब राज्य जिलावार गजेटियर वॉल्यूम २ ए के पृष्ठ २०७-०८ के अनुसारः-‘‘प्रत्येक तहसील अनेक सर्कल या जैलों में विभाजित होती है, जिनका प्रभारी जैलदार होता है। जैलदार कोई सरकारी अधिकारी नहीं होता, बल्कि वह प्रायः किसी जैल में सम्मिलित किसी गांव का मुखिया या लम्बरदार होता है। उसकी नियुक्ति लम्बरदारों के समूह में से चयन द्वारा होती है। चयन इन आधारों पर किया जाता है’’:-

१. जैल में उस व्यक्ति का प्रभाव/रुतबा

२. उसका चरित्र

३. उसके स्वामित्व वाली जायदाद/जमीन का रकबा/क्षेत्र

४. राज्य/सरकार के प्रति उसके द्वारा की गई सेवायें।

एक जैल में कई गाँव भी सम्मिलित हो सकते हैं। पारितोषिक/प्रतिफल के तौर पर जैलदार को किसी गाँव के राजस्व का एक निश्चित अंश दिया जाता है।

ठाकुर श्री दुलीचन्द की सामाजिक सक्रियता के कारण ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें सन् १९३२ ई. में जैलदार नियुक्त किया। सरकार उन्हें आर्यसमाज के कार्यों से उदासीन करना चाहती थी, परन्तु वे सन् १९६५ ई. तक अत्यन्त उत्साहपूर्वक आर्यसमाज का काम करते रहे। उन्होंने अपनी सन्तान को भूत-प्रेत से न डरने, मूर्तिपूजा न करने आदि के संस्कार दिए। गाँव में शाहपुर मोड़ पर आर्यसमाज का मन्दिर बनवाया।

शुद्धि चक्र और देश का बँटवाराः सन् १९४६ ई. में शुद्धि सभा द्वारा मेवात के अनेक गाँवों की शुद्धि की गई। इधर गुडगाँवा जिला में जटौला, फतेहपुर बिल्लौच, नौगाँव, तेरहा, गिर्राज जी की परिक्रमा वाले गाँव-जतीपुरा, कनोट, बरसाना के पास देवदिया आदि में शुद्धि चक्र चला जिसमें जैलदार जी ने सक्रिय भूमिका निभाई। सन् १९४७ ई. में बँटवारे के समय जो मुसलमान यहाँ से पाकिस्तान जाना चाहते थे, जैलदार जी ने उनको सुरक्षित निकलने में मदद की। उन लोगों ने पाकिस्तान से एहसानमन्दी के पत्र भेजे थे।

श्री प्रकाशवीर शास्त्री जी व नेहरु जी के संगःजैलदार जी का सामाजिक रुतबा बहुत बढ़ गया था। श्री प्रकाशवीर शास्त्री जी ने बल्लभगढ़ से चुनाव लड़ा व जीता। इस चुनाव में जैलदार जी ने विशेष भूमिका निभाई थी। शास्त्री जी का चुनाव चिन्ह ‘शेर’ था। वे जैलदार जी को पिता जी कहते थे। आर्यसमाज के  उस समय के प्रमुख विद्वानों व संन्यासियों से उनका परिचय था। श्री रामगोपाल शाल वाले उनका बहुत आदर करते थे। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. नेहरु जी के साथ उनका एक फोटो था, जो अब उपलब्ध नहीं है। वे सन् १९५८-६० ई. में गुरुकुल काँगड़ी के उत्सव पर गए थे। आर्य समाज के बोम्बे अधिवेशन में भी भाग लिया था।

आर्यसमाज बनाम ईसाई मिशनरी केस में गवाही

पलवल निवासी तथा भुसावर राजस्थान में कन्या गुरुकुल के संस्थापक ‘संगठन पुरुष’ श्री हरीशचन्द्र शास्त्री जी के अनुसार पलवल क्षेत्र में ईसाई मिशनरी प्रचार व धर्म परिवर्तन करते थे। आर्यसमाजियों द्वारा विरोध करने पर उन्होंने केस दायर कर दिया। तब लाहौर कोर्ट में आर्यसमाजियों के पक्ष में गवाही देने श्री दुलीचन्द जैलदार जी भी गए थे। अजमेर में ऋषि मेला के अवसर पर डॉ. वेदपाल जी ने बताया था कि जैलदार जी का इलाके में बहुत प्रभाव था। एक बार ‘प्रकाश मिल’ वालों के किसी ने पैसे उधार लेकर वापस करने से मना कर दिया। जब जैलदार जी ने ही उनकी मदद की थी।

वानप्रस्थ व संन्यास

जैलदार जी ने गुरुकुल गदपुरी में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया। पहले दाढ़ी रखते थे, वानप्रस्थी बनने पर दाढ़ी कटवा दी। फिर सन् १९६२ ई. में संन्यास ले लिया तथा गुरुकुल गदपुरी में ही रहने लगे। संन्यास आश्रम में प्रवेश करते समय उनका नाम ‘सत्यानन्द सरस्वती’ रखा गया था।

मृत्यु का पूर्वाभास

उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। अपने पौत्र नरजीत से उनका विशेष स्नेह था। आर्य समाज के संस्कार उसे घुट्टी में पिलाए थे। सन् १९६९ ई. में मृत्यु से एक सप्ताह पहले गुरुकुल गदपुरी से गाँव आ गए थे। उन्होंने अपने पौत्र नरजीत को बता दिया था कि ७ मार्च को सांयकाल मैं शरीर त्यागूंगा। उन्होंने बाजार से २१ किलो हवन सामग्री, ११ किलो देशी घी, १ किलो चन्दन लकड़ी मंगवाई। रु. २१००/- गुरुकुल गदपुरी को दान भिजवाया। ६ मार्च को शाम को अपने पौत्र नरजीत को गुरुकु ल गदपुरी भेजकर वहाँ से शास्त्री जी को बुलवाया। ७ मार्च सन् १९६९ ई. को सांयकाल में वे चल बसे।

इलाके में आर्यसमाज का पतन व पुनरुद्धार

उनके मरने के पश्चात् इलाके में आर्यसमाज का काम निष्क्रिय होता चला गया। आर्यसमाज मन्दिर पर पौराणिकों के भजन कीर्तन होने लगे। उनके बड़े पुत्र सतपाल की मद्य व्यसन के कारण मृत्यु हुई। राजपाल सिंह आजीवन प्रातःकाल यज्ञ करते थे। चुनावों के चक्कर में राजनैतिक दाँव-पेंच चलते थे। फलतः आर्यसमाज समाप्त प्रायः हो गया।

सन् १९८० के दशक में आर्यवीर दल की शाखाओं के माध्यम से श्री होतीलाल आर्य व हरवीर आर्य जी ने आर्यसमाज में फिर से जीवन फूँ का। सन् १९९७ ई. में गाँव में आर्यवीर महासम्मेलन कराया गया। जिसमें जैलदार जी के परिवार ने भरपूर सहयोग दिया। नवम्बर २००० ई. में गाँव में आर्य समाज की स्थापना कराई। श्री राजपाल जी ने स्टेज पर आकर मेरी पीठ थपथपाई तथा बोले आज तुमने गाँव का नाम फिर से रोशन कर दिया। श्री राजपाल जी का निधन सितम्बर २०१० ई. में हो गया। ७ मार्च २०१३ ई. वीरवार को जैलदार जी के परिवार वालों ने श्रद्धा-दिवस मनाकर एक नयी शुरुआत करने का प्रयास किया है और अब-‘‘लहलहाती है खेती दयानन्द की’’

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