दो इस्लाम: डॉक्टर गुलाम जिलानी बर्क

islam

यह १९१८ का जिकर है .

मैं  कबला वालिद साहब के हमरा अमृतसर गया . में एक छोटे से गाँव का रहने वाला जहाँ न बुलंद ईमारत न मुसफ्फा सड़क न कारें न बिजली के कमके  न उस वजह की दुकानें देख कर दंग रह गया . लाखों के सामान से सजी हुई दुकानें और बोर्ड पर कहीं रामभेजा संतराम लिखा है कहीं दुनी चन्द अग्रवाल कहीं संत  संघबल और कहीं सादी लाल फ़कीर चन्द. हाल बाजार के इस सिरे से उस सिरे तक किसी मुसलमान की कोई दूकान नजर नहीं आयी . हाँ मुसलमान जरुर नज़र आये . कोई बोझ उठा रहा था . कोई गधे लाड रहा था . कोई माल गोदाम से बैल गाडी पर  हिन्दू का सामान लाद रहा था . कोई किसी टाल  पर लकड़ियाँ चीर रहा था और कोई भीख मांग रहा था . गैर मुस्लमान कारों और फटनून पर जा रहे थे  और मुसलमान अडाई मन बोझ के नीचे दबा हुआ मुश्किल से कदम उठा रहा था. हिन्दुओं के चेहरों पर रौनक बशाशत और चमक थी और मुसलमान का चेहरा फक मशकत फिक्र और छुर्रियों की वजह से अफर्शर्दों और मुश्क्शुदा.

मेने वालिद साहब से पूछा : “क्या मुसलमान हर जगह इस तरह की जिन्दगी बसर कर रहे हैं ?”

वालिद साहब : हाँ

मैं : अल्लाह ने मुसलमानों को भी हिन्दुओं की तरह दो हाथ दो पैर और एक सर अता किया है . तो फिर क्या वजह है कि हिन्दू तो जिन्दगी के मजे लूट  रहे हैं और मुसलमान हर जगह जीवन से बदतर जिन्दगी बसर कर रहे हैं .

वालिद साहब : यह दुनिया मुर्दार  से ज्यादा नजक  है और इसके मुतालाशी कुत्तों से ज्यादा नापाक अल्लाह ने यह मुर्दार हिन्दुओं के हवाले कर दिया है और जन्नत हमें दे दी है कहो कौन फायदे में रहा ?हम या वो

मैं : अगर दुनिया वाकई मुर्दार है तो आप तिजारत क्यूँ करते हैं? और माल तिजारत   खरीदने के लिए अमृतसर तक क्यों आये ? एक तरफ दीन्वी साजो सामान खरीदकर मुनाफा कमाना और दूसरी तरफ और दूसरी तरफ इसे मुर्दार करार देना अजीब किस्म की मुन्तक  है .

वालिद साहब : बेटा ! बुजुर्गों से बहस करना सही आदत मंदी नहीं .जो कुछ मैंने  तुम्हें बताया है वह एक हदीस का तर्जुमा है रसूल अल्लाह अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ने फरमाया था .” यह दुनिया एक मुर्दार है और और उसके मतलाशी कुत्ते.

हदीस का नाम सुनकर  में डर गया और बहस बंद कर दी . सफर से वापस आकर मैंने गाँव के मुल्ला से अपनी शुभहात का इजहार किया . उसने भी वही जवाब दिया . मेरे दिल में इस मुद्दे को हल करने की तड़प पैदा हो गयी लेकिन मेरे कलब व नजर  वंजर पर तकलीद  के पहरे  बैठे हुए थे इल्म कम था और फहम महदूद . इस लिए मेरा मामला  ज्यादा उलझता गया .

में मुसलसल चौदह बरस तक हसूल  इल्म के लिए मुकत्लिफ अल्माओं व सूफियों के हाल रहा . दरस निजामी की तकमील की . सैकड़ों वाजों  के वाज  सुने . बीसों दीनी किताबें पढी. और बाल आखिर  कर मुझे यकीन  हो गयी     की इस्लाम रातज का   मह्सल यह है :

१.       फरेज खास यानी  तोहीद  का इकरार और सलौय  जक्वा सोम और हज की वजह अबरी

२.       अजान के बाद अदब से बाद कलमा शरीफ पढना

३.       मुक्लिफ रसूम मसलाई जुम्मारत चह्लीन ग्यारवीं वगैरहा का बाकीदगी से अदा करना

४.       कुरान  की इबारत पढना

५.       अल्लाह के जिकर  को सबसे बड़ा अमल समझना

६.       कुरान  और दरूद  के ख़तम कराना

७.       उछल उछल कर हुव हक़ दिर्द करना

८.       निजात के लिए किसी मर्शद की वहियत  करना

९.       मुर्दों से मुरादें मांगना

१०.    मजारों  पर सजदे करना

११.    गलीज  लिबास को पैगम्बरी लिबास समझना

१२.     सड़कों और बाजारों में सबके सामने ढीला करना

१३.    तावीजों  और मंत्रों को मुश्किल कशा  समझना

१४.    आन्हाजरत साहब को आलिमी अल्गैब नेज हाजिर नाजिर करार देना

१५.    किसी बीमारी या मुश्किल से निजात हासिल करने के लिए मौलवी जी की ज्याफत करना

१६.    गुनाह बक्श्ने के लिए कव्वाली सुनना

१७.    हर गैर मुस्लिम को नापाक सज्जन  समझाना

१८.    इमाम अबू खायीफ की फिकर पर ईमान लाना

१९.    साहीसत्य को वही समझना

२०.    सिर्फ कलमा पढ़ कर बहिश्त में पहुँच जाना

२१.    हर मुश्किल का इलाज़ अमल और मेहनत से नहीं बल्कि दुआओं से करना मशा सोते वकत या दुआ पढो ख्वाजा खिजर की जियारत होगी .जागो तो बिस्मिल्लाह करो करो हूरें तुम्हारा मन लगाएंगी  जिसकी सारी जिन्दगी के गुनाह माफ़ हो जायेंगे .इस्लाम के दस लाख हज का शवाब मिलेगा सात आसमानों और सात जमीनों जितना शबाब  हासिल करना वगैरहा वगैरहा .

जब अल्मा ए करम के फैज से में ताल्मीयत  इस्लामी पढ़ पुरी तरह हावी हो गया तो यह हकीकत भी मुझ वाजह हो गयी कि खुदा हमारा रसूल हमारा फरिश्ते हमारे जन्नत हमारी हूरें हमारी जमीन हमारी और आसमान हमारा अल गरज सब कुछ के मालिक हम हैं.और बाकी  कौमें इस दुनिया में झक मारने के लिए आयी हैं . इनकी दौलत ऐशो आराम चन्द दिन का ही है वह बहुत जल्द जहन्नम के पस्त  तरीन तबके में औंधे फेंक दिए जायेंगे . और हम वाजिरेफत के सूट पहनकर  सर्दी बहारों में हूरों के साथ मजे लूटेंगे .

ज़माना गुजरता गया : अंगरेजी पढ़ने के बाद नजर में आलिम जदीदा का मुताला किया कल्ब  पैदा हो गयी . अकवामी  की तारीख पढी तो मुझे मालुम हुआ कि मुसलमानों की एक एक सवा ढाई सल्तनत  मिट चुकी है . हैरत हुयी कि जब अल्लाह हमारा और सिर्फ हमारा था तो उसने यह खिलाफत अवासिया का वारिस हला  को जैसे काफिर को क्यों बनाया . हस्पानीया  के इस्लामी तख़्त पर फिरंगियों  को क्यूँ बिठाया . मुगलों का ताज अल्जबथ के सिर  पर क्यूँ  रखवाया? बुलगारी हंगरी रोमानिया सर्विया पोलेंड  क्रीमिया युक्रेन यूनान और बुल्गारिया से  हमारे आसार क्यूँ मिटा दिए गए ?  फ़्रांस से भीख में दो गोशान हमें क्यूँ निकला? ट्यूनीशिया  अज्जजाज और लीबिया से हमें क्यूँ रुखसत किया ?

में रफह हैरत के लिए म्ख्ताफ़ अल्माओं के यहाँ गया . लेकिन कामयाबी नहीं हुयी ? मैने इस मसले पर पांच सात बरस तक गैर  फिकर किया . लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका .

बद किस्मती से यह वह दौर था जब में इस्लाम से सख्त  दिल बर्दाश्त हो चुका था और सालों  साल से तलावत अल्लाह तरक कर रखी  थी ?

एक दिन शहर को बेदार  हुआ ऊपर टाक में कुरआन शुगला  रखा था रुगला उठा लिया खोला और  पहली आयत जो सामने आयी वह यह थी  :

“ क्या यह लोग देखते नहीं की हम इनसे पहले कितनी इक्वाम ओ तबाह कर चुके हें हमने आहें वह शानो शौकत अदा की थी जो तुम्हें नसीब नहीं हुयी .हम  इनके खेतों पर झमझम बारिशें बरसाते थें और उनके बार्वात साफ़ पानी की नहरें बहती थीं लेकिन जब उन्होंने हमारी राहें छोड़ दीं तो हमने उन्हें तबाह कर दिया और उनका वारिश किसी और कौम को बना दिया .

मेरी आखें खुल गयीं अंधी तकलीद  की वह तरीक घटायें जो दिमागी माहौल पर महीत  थी यक बयक  छटने लगीं और अल्लाह की संत ज्यादा के तमाम गोशे बेहिजाब होने लगे मेने कुरान में ज्याब्जा  यह लिखा हुआ देखा की यह दुनिया दारु  अलम है यहाँ सिर्फ अमल से बेड़े पार होते हैं हर अमल की जजा दस मगरूर है जिसे न कोई दुआ टाल सकती है औरयहाँ सिर्फ अपनी कोशिशें ही कामयाब आती हैं

कुरान

मैं सारा कुरान पढ़ गया और कहीं भी महज दुआ तावीज का कोई सिलह नहीं देखा . कहीं भी जबानी खुशामद का उजर जम्दीन हूरें और हजों  की शकल में न पाया यहाँ मेरे कानों ने सिर्फ तलवारों की झनकार सूनी और मेरी आँखों ने गाजियों केवह झुरमुट देखे जो शहादत की लाजवाब दौलत  हासिल करने के लिए जंग के भडकते हुए शोलों में कूद रहे थे

वह दीवाने देखे जो आजम हिम्मत का आलम  हाथ में लिए मायी  हयात की तरफ ब अंदाज   तूफ़ान बढ़ रहे थे और वह परवाने  देखे जो किसी के जमाल जहाँ  अप्रोज पर रह रह  के कुर्बान हो रहे थे मैनें  सोचा की हदीस व कुरान की बताई हुयी राहों में इतना फर्क क्यूँ ?

ये हदीस की तारीखी पढी तो मुन्कफिक  हुआ की कहीं तो अदाएं इस्लाम  ने इस्लाम ने तौहीन इस्लाम के लिए और कहीं हमारे लिए मुल्ला ने  कुरान के ठीक सुनाने  वाले इस्लाम से बचने की खातिर तगरीबन चौदह लाख अह्दीस वजह कर रखा है . जहाँ एक एक दुआ का मिहल लाख लाख सिलाह  दिया हुआ है .

इस इन्ग्शाफ़ के बाद मुझे लेकिन हो गया कि मुसलमान हर जगह महज इसी लिए जलील हो रहा है की इसने कुरान के अमल मेहनत और हयीबत वाले इस्लाम को तरक कर रखा है वो उदराद व अविया के नशे में मस्त हैं . और इसकी  जिन्दगी का तमाम तर सपरा च्चंद रियायों और चन्द तावीजें हिएँ और बस और साथ ही यकीन हो गया की इस्लाम दो  हैं . एक कुरान का इस्लाम जिसकी तरफ अल्लाह बुला रहा है .और दूसरा वजजह  हदीस का इस्लाम जिसकी तबतीख पर हमारे अस्सी लाख मुल्लाओं का जोर है

आइये !जरा इस हदीस इस्लाम पर एक तागीदी नजर डालें

बर्क

कीमिलपुर  25  Sep 1949

One thought on “दो इस्लाम: डॉक्टर गुलाम जिलानी बर्क”

  1. Islaam ki mazloomiyat ka bahut behtreen jayza liya hai janaab ne. dimaagh roshan ho gaya bahut bahut shukriya
    aise hi hadees ke bare me roshani dalen

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