दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो

दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो
भक्त भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हो | आप हम सब को सब कुछ देने वाले हो | आप दाता हो | आप की दया को पाने के लिए हम सदा तरसते रहते हैं , हम सदा लालायित रहते हैं | हम पर दया करो , हम पर कृपा करो | ताकि हम आपको सरलता से पा सकें | इसलिए हे प्रभो | आप सदा मेरे बने रहो , सर्वदा सर्वत्र उपलब्ध रहो | इस बात को यजुर्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :
अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्पोस्यूर्ज्जे त्वाऽदब्धेन त्वा चक्षुषावपश्यामि।
अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुषे यजुषे॥यजु. १.३०॥
१ हे प्रभु ! मैं सदा आप का बनकर रहूँ
मानव परमपिता परमात्मा का संदेशवाहक होता है | वह उस पिता के सन्देश को ( जिसे वेद भी कहते हैं ) सदा जन – जन तक पहुंचाने का काम कारता है | इस लिए यह सन्देश वाहक इस मन्त्र के माध्यम से प्रभु से प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभो मे भव अर्थात् हे प्रभो ! आप मेरे बनिए , आप मेरे हो जाइए | मैं कभी प्रकृति के विभिन्न आकर्षणों में फंस कर उनमें लिप्त न हो जाऊं बल्कि सदा आप का ही बना रहूँ | आप की ही शरण में रहूँ | आप का ही स्तुतिगान करूँ अथवा आपका ही बन कर रहूँ |
मानव अथवा जीव प्रभु का बनकर क्यों रहना चाहता है ? वह प्रभु की शरण क्यों चाहता है ? वह प्रभु की पवित्र गोद को क्यों प्राप्त करना चाहता है | हम जानते हैं कि प्रभु सर्वशक्तिमान होने के कारण सब प्रकार के सुखों को देने वाले हैं | जब उसकी शरण मात्र में ही हमें सब सुख प्राप्त हो जाते हैं तो फिर हम उस प्रभु से दूर क्यों रहें ? जब उसकी गोद का अधिकार मात्र पाने से ही हम धन – धान्य संपन्न हो सकते हैं तो हम उस प्रभु से दूर कैसे रह सकते हैं ? इसलिए हम कभी प्रकृति के विभिन्न पदार्थों के सौदर्य में न उलझ कर , उन में न फंस कर अपना समय नष्ट न करें अपितु सदा प्रभु के बनकर उसके पास रहते हुए , उसकी गोदी को पाने का सदा यत्न करते हैं |
२. सदा प्रभु की शक्तियों को पाने का यत्न करूँ
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि धाम्ने – धाम्ने अर्थात् मैं प्रभु की एक एक शक्ति को पाने में सक्षम बनूँ | मानव की , जीव की सदा यह इच्छा रहती है कि वह शनै:- शनै: आगे बढे , निरंतर उन्नति पथ पर बढ़ता रहे | विश्व की सब सफलताएं उसके चरणों को चूमें किन्तु यह सब पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त करनी होती हैं | यह ईश्वरीय शक्तियां प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होने से ही मिला पाती हैं | इसलिए मानव के लिए आवश्यक है कि वह सदा ईश्वर की छत्रछाया में रहते हुए धीरे धीरे ईश्वर की वह सब शक्तियां , जो प्राप्त कर पाना संभव है , उन्हें प्राप्त करने का सदा प्रयास करते हुए सफलता पाता रहे |
३ मेरे कर्म यज्ञरूप हों
मानव जब ईश्वरीय शक्तियां पाने का अभिलाषी होता है तो उसे अपने आप को यज्ञरूप बनाना होता है | बिना यह रूप धारण किये अर्थात् परोपकार के यह ईश्वरीय शक्तियाँ नहीं मिल पातीं | इसलिए मन्त्र कहता है कि यजुषे – यजुषे अर्थात् मैं अपने प्रत्येक कर्म को यज्ञात्मक बनाऊं | भाव यह है कि परोपकार मेरा मुख्य ध्येय हो | दूसरों की सेवा , दूसरों की सहायता ही मेरा मुख्य कर्म हो | यह सब करने वाला ही प्रभु का सच्चा सेवक होता है , सच्चे अर्थों में प्रभु के चरणों को पाने का अधिकारी होता है | इसलिए उस प्रभु की समीपता पाने के लिए हमें यज्ञरूप बनना होगा | एसा बने बिना हम प्रभु की निकटता पाने के अधिकारी नहीं हो सकते | इस लिए हम अपने आप को यज्ञमय बनावें | न केवल स्वयं को यज्ञमय ही अनावें अपितु स्वयं ही यज्ञ बन जावें |
परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद पाने के लिए उस को प्रसन्न करना आवश्यक होता है | जब वह हम पर प्रसन्न हो जाता है तो वह अपने सब वैभव हम पर लुटाने के लिए सदा तैयार रहता है | प्रभु के पास बहुत से दिव्य – गुणों का भण्डार होता है | इन दिव्य – गुणों को पाने के लिए हम सदा लालायित रहते है | यह मंत्र भी हमें उपदेश करते हुए कह रहा है कि देवेभ्य: अर्थात् जीव मात्र की सदा यह अभिलाषा रहती है कि वह अनेक प्रकार के दिव्य-गुणों का स्वामी बनकर देवत्व के स्थान पर आसीन हो |
जीव देवत्व के पद को पाने के लिए सदा दिव्य-गुणों की प्राप्ति के लिए जूझता रहता है , लड़ता रहता है , संघर्ष करता रहता है | इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही , उसके इस पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप ही वह कुछ दिव्य – गुण प्रभु के प्राप्त आशीर्वाद से पाने में सफल हो जाता है | यदि उसे प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त न हो , यदि प्रभु की दया – दृष्टि का हाथ उसके सर पर न हो तो उसे यह कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता | इसलिए ही मन्त्र ने अपने उपदेश में कहा है के हे प्राणी ! देवेभ्य: तूं दिव्य-गुणों को धारण करने वाला बन | इसलिए ही जीव मन्त्र के इस शब्द के माध्यम से परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! मैं निरंतर दिव्यगुणों का स्वामी बनना चाहता हूँ | यह दिव्य – गुण आपकी शरण के बिना , आपके आशीर्वाद के बिना संभव नहीं हैं | मुझे आप का स्नेह चाहिए , मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए | मुझे आपकी चरण-धूली चाहिए | मैं यह सब कुछ आपका बनकर ही प्राप्त कर सकता हूँ |
मेरी इस लालसा को पूर्ण करने के लिए हे प्रभु मैं सदा आप की सेवा में रहता हूँ | सदा आपकी चरण – धूलि को पाने का प्रयास करता हूँ | इस लिए हे प्रभु ! इन दिव्य – गुणों को पाने के लिए मेरी यही अभिलाषा है , मेरी यही कामना है , मेरी यही चाहना है कि आप मेरे बनो , मेरे बने रहो | इतना ही नहीं मैं भी सदा आप का ही बना रहूँ , आपके ही चरणों में निवास करते हुए सदा आप ही के गुणों का गान करते हुए इन गुणों को ग्रहण करुं , इन गुणों को अपने जीवन में धारण करते हुए आपके इन दिव्य – गुणों को प्राप्त करने का अधिकारी बनूँ |
परमात्मा की निकटता पाने से हमारी शक्तियां विकसित होती हैं | हम दिव्य – गुणों के स्वामी बनाते हैं | इससे केवल हमारी शक्तियां ही नहीं बढ़तीं बल्कि हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञीय भावना से ओत – प्रोत हो जाता है | हमारे कर्मों में परोपकार की, प्रभु आराधना की , दूसरों की सेवा की , दूसरों की सहायता की , दीन – दु:खियों को उठाने की भावना बलवती होती है | इस प्रकार हमारा प्रत्येक कर्म पवित्र हो जाता है |
दूसरी और यदि हम प्रभु से विमुख होते हैं तो हमें इन दिव्य शक्तियों में से कुछ भी प्राप्त नहीं होता | हम यज्ञीय नहीं बन पाते | परोपकार हमारे जीवन का भाग नहीं होता | इस कारण हम सदा दु:खों में , कष्ट – क्लेशों में डूबते हुए कभी खुश – प्रसन्न नहीं हो पाते | इस विपरीत प्रभाव से बचने के लिए हमें अपने जीवन को इस मन्त्र के उपदेश के अनुरूप बनाना आवश्यक हो जाता है |
अत: हम सदा इस पयत्न में रहें कि हम उस प्रभु को पाने के लिए , उस के आशीर्वाद में रहने के लिए , उस के आदेशों का पालन करते हुए सदा यज्ञमय बनने का , सदा पुरुषार्थी बनने का , सदा दिव्य-गुणों को पाने का प्रयास करते रहें | एसा करने से ही हमें अनेक प्रकार के दिव्यगुणों की प्राप्ति होगी | इससे ही हमें अनेक प्रकार के दिव्य-गुणों की प्राप्ति के साथ हमारी शक्तियों में वृद्धि होगी तथा हमारा जीवन यज्ञमय बनेगा | हम अन्यायपूर्ण ढंग से केवल अर्थ संचय की और न जाकर पुरुषार्थ से दिव्यगुणों के अधिकारी बनेंगे |

डा. अशोक आर्य

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