दासता के 66 वर्ष तिब्बत की दासता की व्यथा कथा निर्वासित सरकार के शब्दों में

तिब्बत परिचयःतिब्बत सामान्यतः ‘विश्व की छत’ के रूप में जाना जाता है। भारत के दो तिहाई आकार से अधिक यह पश्चिम से पूर्व तक 2,500 किलोमीटर तक फैला हुआ है। इस समय विश्व भर में लगभग 60 लाख तिबती हैं।

यह ऊँची बर्फ से ढ़की चोटियों से शुरु होकर पथरीली पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। एशिया की चार महानतम नदियाँ- ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, मीकांग और मछु- तिब्बत से निकलती हैं। भारी मात्रा में खनिज और अद्वितीय प्रकार के पौधे और जंगली जानवर यहाँ पाए जाते हैं।

सातवीं शतादी में यहाँ इसके पुरातन धर्म बौन के स्थान पर बौद्ध धर्म का प्रचलन आरभ हुआ। अब यह हमारी पहचान का अविभाज्य अंग बन चुका है। लगभग प्रत्येक परिवार के घर में बौद्ध देवताओं की प्रतिमाएँ हैं। कुछ तिबती अभी भी बौन धर्म को मानते हैं और कुछ मुस्लिम और ईसाई भी हैं।

अधिकतर तिबती लोग अपना जीवन-निर्वाह पशु-पालन और कृषि से करते थे। कुछ अन्य व्यापारी और कारीगर भी थे। सरकार, मठों धनाढ्यजनों के पास जो धरती थी, उन पर कृषक किराए पर खेती करते थे। कई तिबती लोगों के पास अपनी निजी कृषि योग्य भूमि भी थी।

सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं में नारी भी पुरुष के समान उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती थी और कुछ महिलाएँ राजनीति में भी अपना प्रभाव रखती थीं। तिबतियों में एक प्राचीन कहावत है- ‘यदि वह देश में खुशहाली लाती है तो एक भिक्षुणी भी तिब्बत की शासक हो सकती है।’ यह कहावत हमारे पुरातन तिब्बत की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता की सामान्य भावना को चिह्नित करती है।

प्रबन्धकर्ता– शेवो लोसंग थारगे, तिब्बत में तिबती प्रशासन के पूर्वाधिकारी।

चीनी अधिकार से पहले तिबतःतिब्बत 2000 वर्षों से अधिक समय तक एक स्वतन्त्र देश रहा है। इसकी अपनी सरकार, नागरिक सेवाएँ, न्यायिक पद्धति, मुद्रा, सेना और पुलिस बल थे।

चीन के साथ हमारे सबन्धों को देखने के लिए बहुत पीछे जाना पड़ेगा। आठवीं शतादी में चीन की प्राचीन राजधानी ज़ियान पर तिबतियों का अधिकार था। कभी-कभी चीन का तिब्बत पर प्रभाव था और कभी-कभार दोनों ही विदेशी शासन के अधीन रहे। किसी भी प्रकार से कभी भी तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं था।

उन्नीसवीं शतादी के अन्त से अंग्रेजों और रूसी साम्राज्यों ने तिब्बत पर अपना प्रभाव जमाना चाहा। 1904 में अंग्रेजों ने तिब्बत पर आक्रमण किया। परिणाम-स्वरूप एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जिसने वास्तव में तिब्बत को एक पूर्ण स्वतन्त्र देश के रूप में स्वीकृत किया।

हमारी सरकार, गंदेन फोड़ं, सर्वप्रथम 1642 में स्थापित हुई। राजा सोंगत्वेन गापों द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुकूल हमारी सरकार की कार्य-पद्धति थी। इसके पास लौकिक और धार्मिक- दोनों अधिकार थे, जिनके मुखिया तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक नेता दलाई लामा थे। शिष्टजन और भिक्षु- दोनों ही शासन प्रबन्ध में अधिकारी थे।

13वें दलाई लामा ने हमारे देश और सरकार में सुधार लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक तार सेवा और आधुनिक सो की स्थापना की तथा तिब्बत की प्रथम अंग्रेजी पाठशाला की स्थापना का समर्थन किया।

अपने जीवन काल में 13वें दलाई लामा ने सायवाद के प्रसार से हमारे देश को होने वाले खतरे से सावधन करने के लिए घोषणा पत्र जारी किया। 1950 में 14वें दलाई लामा मात्र 15 वर्ष के थे जब उनके पूर्ववर्ती दलाई लामा की चेावनी सत्य सिद्ध हो गयी।

प्रबन्धकर्ता– रिचेन डोल्मा ठरिंग, तिबती होस फाउंडेशन मसूरी के संस्थापक।

एक पैनी दृष्टि घर की ओरः1949 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया। आक्रमण के साथ-साथ ही ऐसी नीतियाँ और कार्य आरभ हो गए जिनका लक्ष्य था तिब्बत की पहचान तथा उसकी पारपरिक जीवन पद्धति को मिटा देना। इसी कजे के परिणामस्वरूप युद्ध, भुखमरी, फाँसी तथा श्रम शिविरों का शिकार हो कर 10 लाख से ऊपर तिबती मृत्यु का ग्रास बन गए। बहुमूल्य आध्यात्मिक तथा भौतिक वस्तुऐं लूट ली गई, जला दी गई, ध्वस्त कर दी गई और वे सदा-सदा के लिये लुप्त हो गईं। तिब्बत के वन काट दिये गए और उनकी पवित्र झीलें दूषित की गई। तिब्बत एक विशाल सैनिक आधार- शिविर तथा आणविक कचरे का ढेर बन गया।

चीनी प्रवासियों को तिब्बत में बसाने की नीति ने तिबतियों को अपने ही देश में अल्पसंयक बना दिया है। अब तो तिबती संस्कृति तथा उसकी पहचान को बचाए रखना भी खतरे में है।

जबर्दस्ती कब्जे  के भय ने अनेकों तिबतियों को अपनी जन्मभूमि छोड़ कर पलायन करने पर बाध्य किया। अधिकांश शरणार्थियों को इस भयावह पलायन में पैदल हिमालय की पर्वत शृंखलाओं से जाना पड़ा और कटु स्मृतियों के सिवाय वे कुछ भी साथ न ले जा पाए।

इन्हीं स्मृतियों पर आधारित है ‘एक पैनी दृष्टि घर की ओर’। निष्कासन में रह रहे तिबती समाज के प्रतिनिध इसके 11 संग्रहाध्यक्ष हैं। राष्ट्र गाथा से गुथीं उन्होंने अपनी व्यक्तिगत कथाओं का वर्णन किया है तथा अपनी स्मृतियों को दृश्य रूप दिया है।

यह प्रदर्शनी बिबों तथा गाथाओं का एक ताना-बाना है, जिसमें एक साथ समष्टि की स्मृति- चेतना, स्मरण तथा आशाएँ बुनी गई हैं। ये गाथाऐं आपको, हर आगन्तुक को ले जाती है एक यात्रा पर, जिसमें चित्रित हैं आक्रमण की क्रूर कालिमा, विध्वंस और दमन, यह तिब्बत के गौरवमय भूत पर रोशनी डालती है तथा भविष्य की आशाओं की अभिव्यक्ति करती है।

विश्व-व्यापी तिबती संस्थाओं तथा समाज और तिब्बत के मित्रों के सहयोग से केन्द्रीय तिबती, प्रशासन द्वारा इस संग्रहालय एवं प्रदर्शनी को मूर्तरूप देना सभव हुआ।

आक्रमणः1949 में नवस्थापित चीनी लोक गणराज्य का प्रथम कार्य तिब्बत की मुक्ति था। कुछ महिनों के बाद उन्होंने आक्रमण कर दिया।

7 अक्टूबर 1950 में 40,000के लगभग चीनी सैनिकों ने देरगे, रिवोछे और सिदा की ओरस से त्रिकोणीय आक्रमण किया। 6,000 सेाी कम सैनिकों की हमारी सेना पराजित हो गयी और आक्रमणकारी छादो की ओर बढ़ गए।

छदो में तत्काल बैठक बुलाई गयी और निर्णय लिया गया कि राज्यपाल न्गाबो को छादो से भाग जाना चाहिए। हमारी सेना के पास आत्मसमर्पण के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। नगर में अफरा-तफरी मच गई और दो दिन तक शस्त्र और बारुद की आतिशबाजी चलती रही।

उधर ल्हासा में छादो का पतन एक दुःस्वप्न की भांति था। भिक्षु सैनिकों और सेना अधिकारियों द्वारा चीनी आक्रमणकारियों को रोकना असफल होगया और तिबती सरकार आक्रमण को रोकने केलिए राजनैतिक वार्तालाप का रास्ता ढूंढती रही।

23 मई 1951 को बीजिंग में चीनी सरकार के साथ बातचीत के लिए गए हुए दल को 17 सूत्री अनुबंध पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसमें तिब्बत की ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ तथा चीन में विलय की घोषणा की गई।

समस्ताम चीनी आक्रमणकारियों के लिए कूच का मैदान हो गया, वे जल्दी ही ल्हासा पहुँच गए।

प्रबन्धकर्ता– स्वर्गीय सोनम टाशी, तिबती सेना के अंग-रक्षक तथा सैन्य बल के पूर्व अधिकारी।

प्रतिरोधःचीन आधिपत्य के विरोध में आक्रमण के समय से खम और आदो में आरंभ हुआ विद्रोह 1956 तक पूर्वी तिब्बत में बड़े पैमाने के छापामार (गोरीला) युद्ध के रूप में विकसित हो गया। 1958 के प्रारभ में खम के प्रतिरोधी नेताओं ने ल्हासा में छु-शी-गंगडुक (चार नदी छह पहाड़) के नाम से गोरीला आन्दोलन का गठन किया।

16 जून 1958 को सर्वप्रथम द्रिगुथांग ल्होखा में संगठित तिबती विरोधी आन्दोलन तेन्सुंग दंगलंग मग्गर (तिब्बत के स्वयंसेवी स्वतन्त्रता सेनानी) का घ्वजारोहण हुआ। अंडुग गोपो टाशी इसके मुय सेनापति मनोनीत हुए। तिब्बत के सभी भागों से अनेक रंगरूट हमारे साथ समिलित हुए और शीघ्र ही हमारे 5,000 से अधिक सदस्य हो गए।

इसके बाद शीघ्र ही लड़ार्ई शुरु हो गयी। ञेमो में हमने सबसे बड़ी लड़ाई का सामना किया। हमारे एक हजार से कम सिपाहियों ने हमसे कहीं बड़ी चीनी सेना का सफलतापूर्वक सामना किया।

10 मार्च 1959 को ल्हासा में एक जनविद्रोह हुआ। जिसके फल-स्वरूप हजारों तिबती मारे गए। अब परम पावन दलाई लामा तिब्बत में बिल्कुल सुरक्षित नहीं थे और उन्होंने अपना देश छोड़ कर भाग जाने का निश्चय किया। हमने भारतीय सीमा तक सारे रास्ते उनके सुरक्षित निकलने के लिए पहरा दिया। यह मेरे लिए सबसे बड़ी उपलधि थी।

हमने चीनियों के साथ लगभग 103 लड़ाईयाँ लड़ीं। कुछ समय तक दक्षिणी और पूर्वी तिबती भागों पर नियंत्रण रखा पर साधनों और प्रशिक्षण के अभाव में अन्ततः हमें अपने से कहीं अधिक बड़ी चीनी फौज से परास्त होकर भागना पड़ा।

शीघ्र ही प्रतिरोधी गतिविधियाँ नेपाल में मुस्तांग से पुनः प्रारभ हुई और ये 1970 के दशक तक जारी रहीं।

प्रबन्धकर्ता– नटू नवांग- छु-शी-गंगडुक के पूर्व सदस्य और तेन्सुंग दंगलंग मग्गर के उप-सेनापति।

विनाशः- चीन के तिब्बत पर नियन्त्रण की कार्यवाही जो तिबती संस्कृति, धर्म और अन्ततः इसकी पहचान को मिटा देने वाली नीतियों को लक्ष्य करके की जा रही थी, ने बड़े पैमाने पर इसका भौतिक विनाश किया है।

तिब्बत संस्कृति और धर्म के योजना-बद्ध ध्वंस ने 6,000 से अधिक मठों और मन्दिरों का विनाश देखा। जो थोड़े बहुत आज बचे भी हैं, वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण के बजाय उनका उपयोग मात्र पर्यटकों को आकर्षित करने का केन्द्र बना है। मूल्यवान धर्मपुस्तकों और प्रतिमाओं को नष्ट किया गया है। सोना, चाँदी आदि से निर्मित प्रतिमाओं को पिघलाकर उपयोग में लाया गया है अथवा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया गया है। चीनियों ने धर्मपुस्तकों का जूते के तलें के रूप में प्रयोग किया है।

कारावास तथा पूछताछ के दौरान जो तकलीफ और शारीरिक यंत्रणा तिबतियों ने भोगी, उसकी कल्पना भी मानव की बुद्धि से परे है। लगभग 1.2 लाख तिबती श्रम शिविरों में यंत्रणा और भूख के कारण चीनी निर्दयता के क्रू र उत्पीड़न के परिणाम-स्वरूप मृत्यु को प्राप्त हुए।

अब भी तिबतियों की आत्मा का क्रूरता से विनाश किया जा रहा है। हमारे घरों पर अनाधिकृत कजा, हमारे धर्म को मिटा देने की कोशिशें तथा तिबतियों के मध्य अविश्वास और परस्पर विरोध पैदा करने के प्रयत्न तिबतियों की सोच और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को दीर्घ-कालीन नुकसान पहुँचाने का कारण बनी हैं।

चीनी सरकार द्वारा तिबती प्राकृतिक स्रोतों का दोहन, अत्यधिक वन-विनाश और अनियंत्रित शिकार ने तिब्बत के कोमल पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचाया। तिब्बत के कुछ भू-भाग को परमाणु परीक्षण और परमाणु कचरा दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। तिब्बत के पर्यावरण विनाश के प्रभाव मात्र तिब्बत के पठार पर ही नहीं अपितु चीन के साथ अन्य एशिया देशों में भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।

होरछड़ जिमे पूर्व-निदेशक, सांस्कृतिक और साहित्यिक शोधकेन्द्र नोरवूलिंका संस्थान।

पलायनः- 1959 से लगभग एक लाख तिबती पड़ोसी देशों में भाग गए। चीनी आक्रमण और कठिन परिस्थितियों के कारण अनेक रास्ते में ही काल के ग्रास बन गए। प्रतिवर्ष तिब्बत में उत्पीड़न और उपद्रव के कारण हजारों तिबती पलायन करते हैं।

1993 की शरद ऋतु में चीन का ‘पुनर्शिक्षण’ दल हमारे मठ में आया। मैंने उनके दलाई लामा को दोषी करार देने की आज्ञा को मानने से इन्कार किया और मुझे लगा कि मेरे पास यह स्थान छोड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं, मैंने भारत में आने का निश्चय किया।

कुछ सप्ताह बाद मैंने तीन अन्य तिबतियों के साथ अपनी यात्रा आरभ की। हम चीनी सैनिक बलों के मुठभेड़ से बचने के लिए ऊंचाई पर जा रहे थे। हमें भारी बर्फानी तूफान का सामना करना पड़ा, हम रास्ता भूल गए। हमारे कबल आन्धी ले गई और हिम-दंश से पीड़ित थे पर हमारे पास चलते रहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।

तीन दिनों के पश्चात् हम सिक्किम में तिबती बंजारों के शिविर तक पहुँचे। हम बुरी तरह से थक चुके थे और हमारे शरीर में तुषार के दिए घावों में भयंकर पीड़ा हो रही थी। बंजारे हमें भारतीय सेना चौकी में उपचार के लिए ले गए। मुझे अपने स्वास्थ्य से अधिक इस बात की चिन्ता थी कि कहीं चीनियों को मेरी सूचना न मिल जाए।

हमें गंगटोक अस्पताल में भरती किया गया पर मेरी हालत में कोई सुधार नहीं आया। छः महीनों के बाद मेरी टांगों और मेरी कुछ अंगलियों  को मेरी शरीर से अलग कर दिया गया।

अन्ततः हममें से दो को धर्मशाला जाने की अनुमति दे दी गयी पर अन्य दो, जिनकी शारीरिक हालत कुछ अच्छी थी, उनको वापिस तिब्बत भेज दिया गया।

जब हम धर्मशाला पहुँचे तो हमें दलाई लामा के पास साक्षात्कार के लिए ले जाया गया। वहाँ क्या हुआ, मैं कुछ याद नहीं कर सकता। मैं मात्र रो पड़ा।

प्रबन्धकर्ता– मिमार छिरिंग, तिब्बत के धारगेलींग मठ के पूर्व भिक्षु।

चीनीकरणःजबसे तिब्बत पर चीन ने अधिकार किया उनके मुय उद्देश्यों में सर्वप्रथम तिबती राष्ट्रीय पहचान, संस्कृति तथा धार्मिक विश्वासों का क्रमिक ह्रास करके तिब्बत को चीनी राष्ट्रीय राज्यों में एक-जातीय मज्जित करना है।

सर्वप्रथम चीनी नेताओं द्वारा बड़े पैमाने पर लोकतान्त्रिक सुधारों की घोषणा तिब्बत के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रभुत्व को समाप्त करने का लक्ष्य करके की गयी। सितबर 1965 में तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के निर्माण के साथ यह प्रक्रिया अपनी चरम पर पहुँच गयी।

1966 में ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ की ध्वजा तले ‘लाल पहरेदारों’ ने तिबती सयता के विशिष्ट चिह्नों को निर्मूल कर दिया, जैसे मठ और पवित्र ग्रन्थ। अपेक्षाकृत थोड़े से समय में हमारी पुरातन सयता का तीन चौथाई हिस्सा विनष्ट हो गया।

80 के दशक में जो सुधार नीतियाँ घोषित की गयीं, उन्होंने कुछ आर्थिक परिवर्तन किए परन्तु अतिसूक्ष्म धूर्त सांस्कृतिक चीनीकरण की नीति जारी रही। आज हमारा धर्म और हमारे संस्थान समाजवादीकरण की प्रवृत्ति के लिए बाध्य हैं। शिक्षा और प्रबन्धन में चीनी भाषा को प्रधानता दिया जाना जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में तिबतियों को हाशिए पर रख देता है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय यह भी है कि हमारे अपने ही देश में जनसंया का स्थानान्तरण करके तिबतियों को अल्पसंयक रूप में परिवर्तित करना हैं।

निःसन्देह हमारी सयता के लिए समय हाथ से निकलता जा रहा है। तिब्बत का प्रश्न इसके सांस्कृतिक और राजनैतिक अस्तित्व का प्रश्न है। इससे पहले कि देर हो जाए, एक सांस्कृतिक नव जागरण ही तिब्बत में और निर्वासन में इसकी गति को बरकरार रख सकता है।

प्रबन्धकर्ता : कुन्छोग चुन्डू, प्रोजेक्ट अधिकारी, योजना परिषद, केन्द्रीय तिबती प्रशासन।

मानवाधिकार हननः चीन के द्वारा तिब्बत में मानवाधिकार हनन उसके अवैध कजे के साथ शुरू होने के पश्चात् आज तक जारी है। यह वैयक्तिक मानवाधिकार के हनन के साथ-साथ तिबती लोगों के सामूहिक अधिकारों पर भी संस्थागत एवं योजना-बद्ध आक्रमण है।

22 नवबर 1989 को मैंने अपने मठ की पाँच अन्य भिक्षुणियों के साथ ल्हासा में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन में भाग लिया। हमें उसी समय गिरतार करके कारागार में भेज दिया गया।

दो महीने तक मुझसे पूछताछ जारी रही। मुझे छत से टांग दिया गया और मेरे शरीर पर सिगरेट दागे गए। मुझे धातु की तारों से बूरी तरह पीटा गया और मेरे अन्य साथियों को बिजली के छड़ी उनके आन्तरिक अंगों में ठूंसे गए थे।

तत्पश्चात् मुझे सात वर्ष की कैद का दण्ड दिया गया और द्राप्ची जेल में भेज दिया गया। वहाँ परिस्थितियाँ बहुत कठोर थीं। वहाँ कभीाी पर्याप्त खाना और मूल-भूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं थी तथा सभी कैदियों से काम करवाया जाता। अपने हिस्से के कार्य को समाप्त न करने की स्थिति में कारावास की अवधि बढ़ा दी जाती।

हमें अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं करने दिया जाता। फिर भी हमने छिप-छिप कर रोटी से जप-मालाएँ बनायीं, मिलकर प्रार्थना की और हम में से कुछ ने स्वतन्त्रता के गीतों की कैसेट भी रिकॉर्ड करवाई। उनके पकड़े जाने पर हमें सत दण्ड भी दिया गया।

जब मुझे जेल से रिहा कर दिया गया तो मुझे अपने मठ में नहीं जाने दिया गया और मेरी गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी। मेरे अधिकतर रिश्तेदार और मित्र डरके मारे मेरे साथ सबन्ध रखने से कतराने लगे, तभी मैंने भागकर भारत जाने का निश्चय कर लिया।

– भिक्षुणी रिजिंन छुत्री, तिब्बत की पूर्व-शुग्सेव भिक्षुणी-मठ से।

एक ज्वलन्त प्रश्न-तिबती आत्मदाह की ओर रुख क्यों कर रहे हैं?ः- चीनी दमन के अधीन सपूर्ण तिब्बत में सन 2008 के शान्तिपूर्ण जनविरोध के बाद लगभग सैन्य शासन लागू हो गया है। गत 60 वर्ष के चीनी दमन और सतत कठोर नीतियों के कारण तिब्बत में तिबतियों ने आत्मदाह के द्वारा विरोध शुरू किया है।

फरवरी 2009 से अप्रैल 2015 तक कुल 138 तिबतियों द्वारा आत्मदाह किया जा चुका है। जिसमें 119 लोगों का देहान्त हो चुका है और बाकी बचे लोगों के हालत का कुछ पता नहीं चल पाया है। आत्मदाह करने वाले जिनमें अधिकतम युवा या पूर्ण स्वस्थ लोग हैं। वे तिबतियों की आजादी और दलाई लामा जी की तिब्बत वापसी की माँगों की नारे लगाते हुए अपने आप को अग्नि के हवाले कर रहे हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया वा पर्यटकों से कट जाने के कारण बहुत कम लोग ही तिब्बत में हो रहे इन घटनाओं को जान पा रहे हैं।

साठ साल के चीनी अधिपत्य और शासन तिबतियों की पीड़ा को सबोधित करने में असफल रहा है। तिबतियों की मूल आजादी और संस्कृति वा पहचान का संरक्षण के जायज चाह को दमनकारी तारीकों से चुनौती दी जिनसे तिब्बत में राजनैतिक दमन, आर्थिक हशियापन, सांस्कृतिक विलयन और पर्यावरण का विनाश हुआ। अतः पारंपरिक विरोध प्रदर्शन के लिए कोई जगह ना पाने के कारण तिबतियों की पीड़ा की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए तिबतियों ने आत्मदाह को एकमात्र तरीके के रूप में देखा।

राजनैतिक दमनःतिब्बत में राजनैतिक दमन का सबसे दृष्टिगत रूप धार्मिक आस्था के स्वतन्त्रता पर कड़ा अंकुश और राष्ट्रभक्ति शिक्षा की तीव्रता है, जिसके तहत भिक्षु और भिक्षुणियों से बलपूर्वक दलाई लामा की निन्दा करवाना और चीनी सायवादी दल के प्रति निष्ठा दिलाना है।

लोकतान्त्रिक प्रबन्धक समिति जो सायवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से बना है वह तिब्बत की धार्मिक प्रतिष्ठानों की दैनिक गतिविधियों का संचालन करता है। राज्य नियन्त्रित मठ व्यवस्था बौद्ध धर्म की शिक्षा की अपेक्षा मातृभूमि चीन की प्रति वफादारी वा प्रेम को दोहराता है क्योंकि भिक्षुगण को आधा दिन पार्टी के प्रचार को याद करना पड़ता है। नवबर 2011 के बाद सभी मठों में चीनी सायवादी नेतृत्व के चित्र रखना और चीनी राष्ट्र ध्वज को लहराना अनिवार्य हो गया है तथा मठ और भिक्षुओं के कमरों पर निरन्तर रात्रि छापे पड़ते हैं।

पर्यावरण का विनाशःगत 60 वर्षों में चीनी सरकार ने तिब्बत की नाजुक पर्यावरण को नजरअंदाज कर तिब्बत में कई परियोजना और नीतियों को लागू किया है। तिब्बत में अनियन्त्रित खनन हो रहा है।

सन् 2009 से तिब्बत में खनन से सबन्धित जन विरोध की 20 घटनाएँ दर्ज हुए हैं। खनन और पर्यावरण प्रदूषण के मुद्दे आत्मदाह के मुय कारणों में रहे हैं। नवबर 2012 में छेरिड दोनडुब और कोनछोग छेरिड ने तिब्बत में यागर-थड़ में सोने की खदान के द्वार पर आत्मदाह किया। उसी तरह दो बच्चों की माँ चकमो  क्वीद भी रेवगोड में आत्मदाह से पूर्व जातीय समानता और पर्यावरण संरक्षण की आजादी के नारे लगाये। पुश्तैनी जमीन हथियाना, पवित्र स्थलों का विनाश, रोजगार अवसरों की कमी और पर्यावरण प्रदूषण के कारण तिब्बत में बहुत आक्रोश है।

आज चीनी सरकार पर्यावरण सुरक्षा और पारिस्थितिक प्रवासन के नाम पर पशुपालकों को बलपूर्वक उनकी पुश्तैनी जीवनशैली से बेदखल कर रहे हैं। उनकी सदियों पुरानी जीवन शैली से उन्हें हटा कर कंक्रीट के बने कैपों में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसके कारण गरीबी, पर्यावरण घटान और सामाजिक विघटन हो रहे हैं। आत्मदाह करने वालों में बीस से अधिक लोग पशुपालक परिवार से थे।

आर्थिक हाशियोपरः– तिब्बत की राजधानी ल्हासा के 70 फीसदी व्यवसाय चीनियों के हाथ में है।

– उच्च विद्यालय से शिक्षा प्राप्त 40 फीसदी तिबती बेरोजगार हैं।

चीनी सरकार ने विकास की नई रणनीति अपनाई जो कि आँकड़ों में बढ़त हासिल करने पर केन्द्रित है ना कि अत्पसंयकों के सशक्तिकरण और गुणवत्ता को प्राप्त करने पर। किसी विशेष अभिरुचि को लेकर केन्द्रीय सरकार की सारा निवेश शहरी उद्योग क्षेत्र को जाता है जब कि ज्यादातर तिबतियों की आजीविका ग्रामीण क्षेत्र में है।

ज्यादातर व्यापार पर चीनियों का कजा है। वे रोजगार देने में प्रवासी चीनियों को ही प्राथमिकता देते हैं जो चीनी कार्य शैली से वाकिफ है और बेशक चीनी भाषा से भी। तिब्बत में आर्थिक गतिविधि के लगभग सभी पहलुओं पर भेदभाव पाया जाता है। यहाँ तक कि तिबती और गैर तिबती कामगारों के वेतन में भी फर्क है। तिबती का क्षेत्र चीनी गणतन्त्र के सबसे गरीब क्षेत्रों में एक और तिब्बत के गरीबी का स्तर चीन के सबसे गरीब क्षेत्र से भी बदतर है।

सांस्कृतिक विलयनःतिबती संस्कृति और पृथक् तिबती पहचान को बचाए रखने में तिबती भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। तिबतियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूल जिसका उद्देश्य तिबती युवाओं में तिबती संस्कृति और भाषा को सिखाना और बढ़ावा देना है, उन पर कठोर अंकुश है। तिबती छात्रों द्वारा आधुनिक विषय की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में बेहतर रूप से कर पाने के बावजूद चीनी सरकार द्वारा पाठ्यपुस्तकों को तिबती भाषा के बजाए चीनी भाषा में पढ़ाया जा रहा है। परिणामस्वरूप तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में छात्रों को अपनी भाषा और सयता का केवल सतही ज्ञान ही उपलध हो रहा है।

बहुतायत प्रवासी चीनियों के तिब्बत में बस जाने से तिब्बत में ही तिबतियों की पहचान की संकट और बढ़ गया है।

निर्वासन में तिबती समुदायःसन् 1959, ल्हासा में तिबती राष्ट्रीय विद्रोह हुआ था और परम पावन दलाई लामा जी के निर्वासन में आते समय उनके साथ हजारों तिबती पड़ौस के देशों में पलायन कर पहुँचे। आरभ में तिबतियों को शरणार्थी शिविरों में टेंट के अन्दर रखा गया। इस प्रकार उत्तरी भारत में सड़क बनाने का कार्य दिया गया। इसके बाद भारत में रह रहे तिबती समुदाय को भारत, नेपाल तथा भूटान आदि में धीरे-धीरे लगभग 50 बस्तियों में बसाने का कार्य हुआ। परम पावन जी ने निर्वासन में आने के बाद जल्द ही तिब्बत तथा तिब्बत से बाहर रहने वालों की पहचान बनाये रखने के लिये तिबती प्रशासन तथा संसद स्थापित की।

निर्वासन में तिबती समुदाय के प्रशासन के कार्यालयों तथा संस्थानों के माध्यम से अपनी विरासत को जीवित रखने हेतु संरक्षण व संवर्द्धन में संघर्षरत है। निर्वासन में 80 से अधिक विद्यालय, साथ ही भिक्षु-भिक्षुणियों के लिये लगभग 190 मठ व विहारों का निर्माण किया गया है। केन्द्रीय तिबती प्रशासन ने अपनी अलग-अलग विभागों के माध्यम से तिबतियों के कल्याण में लगे और विश्वभर के 12 देशों के अन्दर प्रतिनिधित्व के रूप में यूरो ऑफिस स्थापित किया गया है। तिबती शरणार्थियों के वर्तमान संया मात्र 130,000 है। इनसे अधिकतर भारत, नेपाल और भूटान में हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका, सुईजरलैण्ड, केनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस इत्यादि अन्य देशों में भी काफी संया में तिबती रहते हैं।

60 के दशक के प्रारभ में, मैं एक शरणार्थी के रूप में भारत पहुँचा था। उस समय वास्तव में एक शिशु के रूप में अपने दादी के पीठ पर नेपाल के रास्ते से भारत में शरण लीया और मैं अपने बड़ों के उस समय की परेशानी व निराशा की अवस्था को नहीं जान सकता था। हालांकि परम पावन दलाई लामा जी के दर्शन और अपने बच्चे को उनके चरणों में अर्पित कर देने मात्र से ही अपने आगे की कठिनाइयों का सामना करने का उत्साह दिखाते हुये, वह अपने सड़क बनाने की कार्य के लिये गाना गाते हुये निकल जाते थे।

इसके पश्चात् धीरे-धीरे तिबती प्रशासन के कार्यालयों एवं तिबती संसद का गठन करते हुए, इतिहास में पहली बार पहला तिबती लोकतान्त्रिक संविधान का मसौदा तैयार किया गया। उसी समय पहला तिबती स्कूल भी खोला गया था। मेरे स्कूली जीवन के भी प्रारभ ऊपर धर्मशाला के तिबती नर्सरी में हुआ था।

हमारे कठिन परिस्थितियों में भारत सरकार ने अपनी कठिनाइयों के बावजूद हम तिबती शरणार्थियों को बहुत मदद की है। प्रारभ में अधिकतर तिबती उत्तरी भारत में सड़क श्रमिकों के रूप में कार्यरत थे। परन्तु जब हमें जल्द ही अहसास हुआ कि निर्वासन में हमें धर्म तथा संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये संघर्ष के क्रम में अधिक ठोस संरचना की जरूरत है। तब हमने भारत सरकार से अपनी समुदाय के लिये बस्तियों के निर्माण हेतु अनुमति के लिये अनुरोध किया था और सरकार ने भी सहयोग व स्वीकृति प्रदान की थी।

सन् 1960 में तिबती बस्तियों में पहला माइलाकुप्पे, कर्नाटक में स्थापित किया गया था। उसी क्रम में भारत, नेपाल तथा भूटान आदि में कई बस्तियों को स्थापित किया गया। शुरूआत में अधिकतर बस्तियों की स्थिति बहुत दयनीय थी, फिर भी हम धीरे-धीरे कृषि कार्य एवं अन्य आय के स्रोतों को विकसित करते गये। इसी के साथ एक के बाद एक अधिकतर बस्तियों में स्कूल और मठों को बनाया जा सका।

निर्वासन में हमें बहुत कठिन परिस्थितियों में भी अच्छी सफलता मिली है। आज यह बात यकीन के साथ कह सकते हैं कि शरणार्थी तिबती समुदाय एक प्रगतिशील समुदाय बना है। परम पावन दलाई लामा जी ने राजनीतिक सत्ता को जनता द्वारा निर्वाचित सिक्योड को पूर्णरूपेन हस्तांतरण कर, मात्र तिब्बत के आदर्श लोकतान्त्रिक प्रणाली को ही नहीं बल्कि तिब्बत के स्वशासन (स्वायत्त क्षेत्र) के बहाली के लिये मध्यम मार्ग के रास्ते पर प्रतिबद्धता ही हमारे लिये सबसे बड़ी उपलधि है।

प्रबन्धकर्ता– श्री टाशी फुन्छोग, सचिव, सूचना एवं अन्तर्राष्ट्रीय सबन्ध विभाग, केन्द्रीय तिबती प्रशासन, धर्मशाला।

वर्तमान तिबतःतिब्बत आज भी निरन्तर डराने, धमकाने तथा यातनाओं का सामना कर रहा है। जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य अपने मानवाधिकारों का प्रयोगकरते हुए राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं, उन्हें राष्ट्र को अस्थिर करने के लिये कठोर दण्ड मिलता है, जैसे कि गिरितारियाँ, यातनाएँ और कारावास।

तिब्बत के भिक्षु तथा भिक्षुणी मठों में बड़े पैमाने पर चीनी सरकार देशभक्ति पुनर्शिक्षण नामक कार्यक्रम चलाती है। इसका विरोध करने वालों को गिरतार कर लिया जाता है, कारावासों में ठोंस दिया जाता है, यातनाएँ दी जाती हैं, तथा उनके मठों से निष्कासित कर दिया जाता है।

अधिकतर तिबती बच्चों को अनुकूल शिक्षा उपलध नहीं है। सर्वोत्तम विद्यालय चीनी विद्यार्थियों के लिये आरक्षित है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित अनेक विद्यालयों में प्रायः सुविधाएँ विशेषकर नगण्य हैं। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम चीनी भाषा है और तिबतियों का उनमें प्रवेश अत्यन्त कठिन है। चीनी प्रवासियों को तिब्बत में बसने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है और अपने ही देश में हम लोग अल्पसंयक हो गए हैं। 60 लाख तिबतियों की तुलना में अब वहाँ 75 लाख चीनी हैं।

तिब्बत के विशिष्ट धर्म तथा उसकी संस्कृति को नष्ट करने के अतिरिक्त चीनी प्रवासियों की बाढ़ के कारण तिबतियों के पारपरिक रोजी-रोटी के साधनों पर बड़ा कुप्रभाव पड़ रहा है। कृषि उत्पादनों तथा तिबतियों द्वारा बनाई जाने वाली कलात्मक चीजों के मूल्य घटा दिये गए हैं तथा किसानों और व्यापारियों पर बोझिल कर थोपे गऐ हैं। अधिकांश तिबती नौकरी से वंचित रहने पर बिल्कुल असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं।

आर्थिक उदारी-करण तथा खुले बाजार की नीति से तिब्बत के प्राकृतिक साधनों पर बड़ा दबाव पड़ रहा है। चीन के हित में तिब्बत के वनों, खजिनों तथा जल-ऊर्जा संसाधनों का दोहन हो रहा है जिसके परिणाम-स्वरूप तिब्बत के कोमल पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है।

प्रबन्धकर्ता– जेद गोदम पूर्व राजनीतिक बन्दी, मियार प्रेरिंग ……. हस्पताल के चिकित्सक

तिब्बत का भविष्य– एक परिचय, परम पावन 14वें दलाई लामाः- यदि आध्यात्मिक दृष्टि से उल्लेख करें तो हमारे हिम देश तिब्बत के बारे में भगवान बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी। यह एक आशीर्वादित पुण्य भूमि है। स्वभावतः यहाँ के लोग करुणाशील तथा धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। हमारी अपने प्रति यही धारणा है और दुनिया का हमारे प्रति दृष्टिकोण भी ऐसा ही है।

सांसारिक दृष्टि से हमारे देश का बड़ा लबा इतिहास है। पुरातात्विक खोजों से पता चला है कि हमारा इतिहास छः से आठ हजार वर्ष पुराना है। तिबती लोग विश्व के सब से ऊँचे पठार के निवासी हैं।

भूत में हमारे लोग बड़ी कठिनाइयों से गुजरे परन्तु एक कौम के तौर पर जीवित रहने में हम सफल रहे हैं। न केवल तिब्बत के प्रति बल्कि किसी भी उद्देश्य के प्रति यदि तिबती लोगों को अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने का अवसर दिया जाए तो भी वे उस पर खरे उतरेंगे। हम ने अपनी संस्कृति का संरक्षण किया है। विशेषतः बौद्ध संस्कृति का जो कि तिब्बत तथा विश्व दोनों के लिए लाभदायक है। मंगोलिया तथा हिमालयी क्षेत्रों में हमारी बौद्ध संस्कृति फैली है। तिबती बौद्ध संस्कृति मंगोलिया तथा हिमालयी क्षेत्रों में प्रसारित हुई है। तिब्बत के बौद्ध धर्म को एक विश्वसनीय एवं सफल परपरा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।

बौद्ध शिक्षाओं ने तिबती लोगों के स्वभाव को प्रभावित किया है। करुणा हमारी संस्कृति का सार है। हमारे लोग दयालु तथा सरल हैं। आज के संसार में ये महत्वपूर्ण एवं अमूल्य गुण हैं। करुणा तथा दया के सार से युक्त तथा सरलता एवं नैतिकता से सबद्ध हमारी संस्कृति न केवल तिबतियों बल्कि समस्त विश्व के हित में लाभकारी होने की क्षमता रखती हैं। न केवल मानवों अपितु पशुओं के लिए भी सहृदयता हमारी संस्कृति (का अंग) है। हम अकारण ही जीवों का उपयोग, हनन तथा उनकी हानि नहीं करते। ये गुण समस्त विश्व के लिए हितकर है।

हमारी संस्कृति सन्तोष की (संस्कृति) भी है और हम प्रकृति का अत्याधिक दोहन नहीं करते। आज हम देख रहे हैं कि मनुष्य के लालच और असीम आकांक्षाओं के कारण विश्व में अत्यधिक समस्याएँ पैदा हुई हैं तथा पशु जगत् की अथाह क्षति हुई है। अतः भविष्य में तिब्बत में आर्थिक विकास का आधार होना चाहिए अहिंसा और शान्ति। जैसे कि हमारे पहाड़ों का पर्यावरण सुन्दर एवं शीतल है, वैसे ही हमें बौद्ध धर्म की करुणाचर्य्या द्वारा अपने मन को नियन्त्रित तथा शान्त बनाना चाहिए। इस प्रकार हम तिब्बत में शान्ति का वातावरण तैयार कर सकते हैं। तिब्बत के लिए अपनी पाँच-सूत्री योजना में मैंने प्रस्तावित किया था कि तिब्बत एक विसैन्यीकृत, शान्त आयारण्य बने।

भविष्य में तिब्बत का राजनीतिक ढाँचा लोकतान्त्रिक होना चाहिए। राजनीतिक प्रणलियाँ अनेक हैं परन्तु सब से व्यावहारिक प्रणाली वह है जो लोगों को सामूहिक उत्तरदायित्व प्रदान करती है और उन्हें अपने नेताओं को चुनने का अधिकार देती है। यही सर्वोत्तम एवं स्थायी राजनीतिक प्रणाली है। अतः हमें भावी तिब्बत को एक स्वतन्त्र लोकतन्त्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। यदि हम ऐसा कर पांऐ तो हमारा देश एक ऐसा देश बन जाएगा कि जहाँ मनुष्य तथा अन्य प्राणी अपने सुन्दर पर्वतीय वातावरण में शान्तिपूर्वक रह सकेंगे। इस प्रकार हम सारी दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकते हैं। यह सभव भी है और प्राप्य भी। मैं सदैव इस की कामना करता हूँ तथा एतदर्थ प्रार्थना करता हूँ।

तिब्बत के प्रश्न पर चीनी समर्थकों की संया बढ़ रही है। चीन तथा आर्य देश भारत हमारे सब से महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। इन दोनों देशों तथा तिबती सीमा स्थित हिमालयी राज्यों में तिब्बत के समर्थक विद्यमान हैं। विश्वभर में तिब्बत के समर्थकों की बड़ी संया है। यदि वे सब हमारे लक्ष्य की प्रगति में हमारी सहायता करें तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

परम पावन के तीन प्रमुख प्रतिबद्धताएँः परम पावन चौदहवें दलाई लामा जी के जीवन की तीन अपरिहार्य प्रतिबद्धताएँ इस प्रकार हैं-

  1. उन्होंने एक मानव जीवन के स्तर पर, उन मानवीय मूल्यों जैसे करुणा, क्षमा, संतोष, शील आदि आत्म-अनुशासन का विकास करना है। सभी मानव जीव समान हैं। हम साी सुख चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। ऐसे व्यक्ति जो धर्म पर विश्वास नहीं करते, वे भी अपने जीवन को और सुखी बनाने में इन मानवीय मूल्यों के महत्त्व को पहचानते हैं। इस प्रकार के मानवीय मूल्यों को परम पावन धर्म निरपेक्ष नैतिकता के नाम से सबोधित करते हैं।
  2. धार्मिक अयासी के स्तर पर, धार्मिक सौहार्द की भावना और विश्व के प्रमुख धार्मिक परपरा की आपसी समझ को बढ़ावा देना है। दार्शनिक स्तर पर अन्तर होने के बावजूद सभी प्रमुख धर्मों में अच्छे मानव बनाने की एक समान क्षमता है। अतः सभी धार्मिक परपराओं के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे एक दूसरे का समान करें तथा एक दूसरे की परपराओं के मूल्य को पहचानें। जहाँ तक एक सत्य, एक धर्म का सबन्ध है, इसका एक वैयक्तिक स्तर पर महत्त्व है। परन्तु एक विशाल समुदाय के लिये कई सत्यों, कई धर्मों की आवश्यकता है।
  3. परम पावन एक तिबती हैं तथा दलाई लामा का नाम धारण किये हैं। विशेषकर तिब्बत में तथा तिब्बत से बाहर रहने वाले तिबती लोगों द्वारा उन पर अत्यधिक विश्वास है। इसलिये उनकी प्रतिबद्धता तिब्बत की प्रश्न को लेकर है। उन पर न्यायिक संघर्ष के प्रवक्ता का उत्तरदायित्व है। बौद्ध संस्कृति, शान्ति एवं अहिंसा शिक्षा की रक्षा के लिये प्रयास करना, दमन के नीचे जीवन व्यतीत करने वो उन तिबतियों की एक स्वतन्त्र रूप में प्रतिनिधित्व करना है।

– धर्मवीर

 

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