सूत्र :असाधकं तु तादर्थ्यात् २
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद १ सूत्र १ से ५२ तक की व्याख्या
याग और उनके क्रम बताने के पश्चात् यजमान के गुणों की परीक्षा की जायेगी। सबसे पहली बात यह है कि यागादि कर्मों का स्वर्गादि फल होता है। स्वर्ग किसी देश विशेष का नाम नहीं है। स्वर्ग की कामना वाले के लिये याग-कर्म का उपदेश है। अत: स्वर्गप्रधान है। याग गौण। ‘स्वर्ग कामो यजेत’ में ‘यजेत’ उद्देश्य है स्वर्गकाम का। ‘स्वर्गकाम:’ शब्द में यजमान का लक्षण दिया है। ‘सुख चाहनेवाला’ यज्ञ करे। अत: यजमान का पहला गुण तो यह है कि उसको स्वर्ग की (सुख की) इच्छा होनी चाहिये।१
यज्ञ का अधिकार केवल मनुष्यों को ही है। उन्हीं मनुष्यों को जो यज्ञ करने की योग्यता और सामथ्र्य रखते हैं। न पशु-पक्षियों को, न अयोग्य मनुष्यों को। (सू० ४-५)२
मनुष्यों में नर और नारी दोनों शामिल हैं (सू० ६-७)३ नारी को स्वर्ग की इच्छा भी होती है और उसकी सम्पत्ति भी होती है। क्योंकि विवाह के समय कहा जाता है ‘धर्मे चार्थे च कामे च नातिचरितव्या।’ अर्थात् पति को चाहिये कि धर्म, अर्थ और काम में पत्नी के अधिकारों को न लेवे अर्थात् उन कार्यों से न रोके। यत्तूच्यते धर्मादयो निर्धना इति। स्मर्यमाणमपि निर्धनत्वमन्याय्या-मेव। श्रुतिविरोधात्। तस्मादस्वातन्त्र्यमनेन प्रकारेणोच्येत, संव्यवहार प्रसिद्ध्यर्थम्। (शाबरभाष्य सूत्र १४)। जो स्मृति में कहा कि स्त्री धन नहीं रख सकती यह श्रुति विरुद्ध होने से माननीय नहीं। कहीं-कहीं स्त्री को अस्वतन्त्र केवल इसलिये कह दिया कि घर का व्यवहार ठीक चलता रहे। स्त्री का क्रय-विक्रय भी नहीं हो सकता (सू० १५)। नीचे की श्रुतियों में नारी को सम्पत्ति का अधिकार दिया है—‘पत्नी वै पारिणय्यस्येष्टे पत्यैव गतमनुमतं क्रियते’ (तै०सं० ६.२.१.१)=पत्नी घर की जायदाद की मालिक होती है। वह पति की अनुमति से उसका प्रयोग करती है। ‘जाघन्या पत्नी: संयाजयन्ति। भसद्वीर्या हि पत्नय:। भसदा वा एता: परगृहणामैश्वर्यमवरुन्धते।’ =भसत् के आधार से वह पत्नियों का यज्ञ कराते हैं। भसत्१ पत्नियों का तेज है। भसत् के द्वारा ही पत्नियां दूसरे घरों की स्वामिनी हो जाती हैं।२
पति-पत्नी दोनों को मिलकर यज्ञ करने का अधिकार है, क्योंकि घर की जायदाद साझे की है। अकेला यज्ञ न करे। लिखा है—संपत्नी पत्या सुकृतेन गच्छताम्। यज्ञस्य धुय्र्या मुक्तावभूताम्। संजानानौ विजहीतामरातीॢदवि ज्योतिरजरमारभेताम्। (तै०सं० ३.७.५.११) =सुकृत में पत्नी पति के साथ रहे। वे दोनों मिलकर यज्ञ के भार को उठावें। दोनों मिलकर शत्रुओं को नष्ट करे। वे दोनों परलोक में अजर ज्योति को प्राप्त करें। (सू० २१)३
अग्न्याधान का अधिकार अकेले पति को ही है। ‘वसन्ते ब्राह्मणोऽग्निमादधीत’ (तै०ब्रा० १.१.२.६) अर्थात् वसन्त में ब्राह्मण अग्न्याधान करे। ‘क्षौमे वसानौ अग्निं आदधीयाताम्’ इस श्रुति में ‘वसानौ’ और ‘आदधीयाताम्’ द्विवचन अवश्य हैं। परन्तु यहां केवल इतना ही तात्पर्य है कि अग्न्याधान के समय पत्नी और पति दोनों रेशम के वस्त्र धारण करें। (सूत्र २२) पति और पत्नी दोनों यज्ञ के साझीदार हैं परन्तु पति पुरुष है पत्नी स्त्री, अत: उनके कत्र्तव्य भी बंटे हुये हैं। आशीर्वाद और ब्रह्मचर्य आदि कर्म दोनों को करने चाहियें। आज्य या घी का निरीक्षण पत्नी को ही करना चाहिये। सिर मुड़ाने आदि कर्मों को पति करेगा। (सू० २४)
शूद्र को यज्ञ करने का अधिकार नहीं, क्योंकि जहां कहीं यज्ञ का उल्लेख है वहां केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का ही नाम है। जैसे वसन्त में ब्राह्मण अग्न्याधान करे, ग्रीष्म में क्षत्रिय, शरद् में वैश्य। सामगान में ब्राह्मण के साम का नाम है बार्हद्गिर, क्षत्रिय के साम का पार्थुरश्य, वैश्य के साम का राजोवाजीय। व्रत में ब्राह्मण दूध पिये, क्षत्रिय यवागू और वैश्य आमिक्षा (तै०ब्रा० १.१.२.६) (सूत्र २८) शूद्र न वेद पढ़ सकता है। न उपनयन कर सकता है। (सू० ३८)
द्रव्यहीन को तो यज्ञ का अधिकार है, क्योंकि द्रव्यहीनता का किसी के साथ नित्य सम्बन्ध नहीं है। जो जीवन रखता है वह कुछ न कुछ द्रव्य तो रखता ही है और आवश्यकता पडऩे पर द्रव्य कमाया जा सकता है। (सू० ४०)
अङ्गहीन को भी यज्ञ का अधिकार है। परन्तु ऐसे अङ्ग से विहीन न हो कि यज्ञ करने में सर्वथा अशक्य हो।१
रथकार को अग्न्याधान का अधिकार श्रुति ने विशेष रूप से दिया है यद्यपि रथकार न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य। ‘वर्षासु रथकार आदधीत।’=रथकार वर्षा में अग्न्याधान करे। (सू० ५०)
स्थपति=नाव बनाने वाले को रौद्र यज्ञ करने का अधिकार है। ‘‘कूटं दक्षिणा’’ (तै०सं० १.८.९.१) ‘कूट’ एक सिक्का होता है जो नाव बनाने वालों में ही चलता है। रौद्रयाग में स्थपति दक्षिणा के रूप में ‘कूट’ ही देता है।