DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :अवदानाभिघारणासादनेष्वानुपूर्व्यंप्रवृत्यापर स्यात् २
सूत्र संख्या :2

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद ४ सूत्र १ से २६ तक की व्याख्या (१) इस पाद में यह बताया गया है कि श्रुति में दिये हुये ‘क्रम’ को कितनी महत्ता देनी चाहिये और कौन-सी अवस्थाओं में उसका बाध हो सकता है— (१) यदि पाठ्यक्रम और श्रुति में अथवा पाठ्यक्रम और प्रयोजनवत्ता में विरोध हो तो श्रुति और प्रयोजनवत्ता बलवती है। पाठ्यक्रम माननीय नहीं है। क्योंकि श्रुति तो विशेष कारण को सोचकर लिखी गई। प्रयोजनवत्ता के बिना तो कोई काम होता ही नहीं। इसके दो उदाहरण हैं—(अ) ज्योतिष्टोम के सम्बन्ध में ऐन्द्र-वायू आदि १० ग्रहों का नाम आता है। उस क्रम में आश्विन-ग्रह को तीसरे नम्बर पर लिखा है परन्तु आहुति देने में उसका स्थान दसवां है। (आ) पाठक्रम में पहले आहुति देना लिखा है फिर हव्या (यवागू) बनाना। स्पष्ट है कि हव्या पहले बनेगा तभी तो आहुति दी जायेगी। (सू० १) (२) कुछ हवियों के अवदान, अभिधारण, आसादन आदि संस्कार होते हें। इन चीजों का क्रम चीजों के अनुसार ही होना चाहिये। पाठक्रम के अनुसार नहीं। जैसे दही और पुरोडाश में दही बनाने का आरम्भ तो पहले ही हो जाता है। परन्तु आहुति पहले पुरोडाश की दी जाती है। अत: अवदान, अभिधारण और आसादन कर्म भी पहले पुरोडाश के होंगे, दही के पीछे। दही का नाम पहले इसलिये दिया कि उसके लिये एक दिन पहले दूध दुहना पड़ता है। परन्तु अवदान आदि कर्म तो आहुति की सुविधा के लिये उसी समय होना चाहिये। (सू० ४) (३) इष्टि और सोमयाग में पहले पीछे का नियम नहीं है। इष्टि वह याग है जिसमें दूध, घी, चावल, जौ आदि की आहुतियां दी जाती हैं। जैसे दर्श-इष्टि, पूर्णमास-इष्टि। सोम-याग वह है जिस में सोमलता के रस का प्रयोग होता है। इनमें आगे-पीछे का कड़ा नियम नहीं है। यदि कोई अग्न्याधान करे और सोमयाग न करना चाहे तो उसे पहले इष्टि करनी होगी। परन्तु यदि सोमयाग के लिये ही अग्न्याधान किया हो तो सोमयाग उसी दिन होना चाहिये। (सू० ५-९) यह विकल्प ब्राह्मण आदि सभी के लिये है। हां, ब्राह्मण केवल पौर्णमास इष्टि की एक आहुति पीछे के लिये छोड़ सकता है। क्योंकि श्रुति में कहा है—‘‘आग्रेयो वै ब्राह्मणो देवतया। स सोमेनेष्ट्वा अग्नीषोमीयो भवति। यदेवाद: पौर्णमासं हविस्तत्र हि अनु-निर्वपेत्। तर्हि उभय-देवत्यौ भवति’’=ब्राह्मण अग्नि देवता से सम्बन्धित है। जब वह सोम याग कर लेता है तो अग्नीषोमीय हो जाता है। इसलिये यहां जो पौर्णमास-इष्टि की हवि है उसे पीछे से देवे। तभी दोनों देवताओं से युक्त होगा। यहां एक बात याद रखनी चाहिये। श्रुति में केवल पौर्णमास इष्टि है। दर्श-इष्टि नहीं। दूसरे, एक ही आहुति छोडऩी है, सब नहीं। ऐसी आहुति केवल पुरोडाश की है क्योंकि वही अग्नि और सोम दोनों से सम्बन्धित है। ‘आज्य’ का सम्बन्ध सोम से नहीं है। (सूत्र ९, ११,२१) (४) प्रकृति यागों में दो दिन लगते हैं। परन्तु ‘ऐन्द्राग्नी’ आदि विकृति-यागों में एक ही दिन लगना चाहिये। चोदक नियम दिनों पर लागू न होगा। (सू० २२) (५) सान्नाय्य का विकार है आमिक्षा और पशु का विकार है श्यामाक का पुरोडाश। ये दोनों विकार सोम-याग के पीछे होंगे। (सू० २५) और गो-याग तथा एकाह आदि सोम के विकृति याग भी दर्शपूर्णमास के बाद ही होंगे क्योंकि सोमयाग दर्शपूर्णमास के बाद ही होता है— दर्शपूर्णमासाभ्यामिष्ट्वा सोमेन यजेत। (तै०सं० २.५.६.१) (देखो सूत्र २६)

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