व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ३ सूत्र १ से ४४ तक की व्याख्या
(१) इस पाद में विशेषत: यह बताया है कि जहां शास्त्र में किन्हीं पठनीय मंत्रों की एक निश्चित संख्या दी है, उस संख्या की पूर्ति कैसे करनी चाहिये। उदाहरण के लिये प्रयाज ५ होते हैं। आदेश है कि अग्नीषोमीय पशुयाग में ११ प्रयाज हों। यहां ११ प्रयाजों का क्या अर्थ है? क्या पांचों प्रयाजों को ग्यारह-ग्यारह बार पढऩा चाहिये? इस प्रकार तो ५५ हो जायेंगे। यहां सिद्धान्त यह बताया कि पहले पांच प्रयाज पढ़ो, फिर पांच और जब दस हो जाय तो अन्त का प्रयाज पढक़र ११ की संख्या पूरी करदो। ११ अनुयाजों की पूॢत भी ऐसे ही करो। इसी प्रकार चातुर्मास्य के ९ प्रयाजों और ९ अनुयाजों की पूॢत होनी चाहिये। (सू० १,२)
(२) जब किन्हीं मन्त्रों को दुहराकर संख्यापूर्ति की जाती है तो इस आवृत्ति या दुहराने की दो रीतियां हैं, एक का नाम है-‘दण्डकलितवत् आवृत्ति’। यहां दण्ड का अर्थ है पैमाना (गज आदि)। जब गज से जमीन नापते हैं तो पूरा गजभर पहले नाप कर फिर जहां गज का अन्त होता है वहां से दूसरे गज का आरम्भ करते हैं। ऊपर प्रयाजों की ११ संख्या करने में दण्डकलितवत् आवृति की गई। दूसरी रीति है-‘स्वस्थानविवृद्धि:’। पहले एक मन्त्र दुहरालो, फिर दूसरा मन्त्र। अग्निवेदी में ६ उपसद बताये हैं। प्रकृति-याग में ३ उपसद बताये हैं। प्रश्न यह है कि इन तीन को ६ कैसे किया जाय। सिद्धान्त यह है कि यहां दण्डकलित विधि मत लगाओ ‘स्वस्थान-विवृद्धि’ का नियम लगाओ। क्योंकि इन उपसदों की आनुपूर्वी नियत हैं। दण्डकलित विधि लगाने से तो तीसरे उपसद के पीछे पहला उपसद आ जायेगा। यह अनुचित होगा (सू० ३)।
(३) दर्शपूर्णमास में सामिधेनी मन्त्र पढऩे होते हैं, सामिधेनी मन्त्र ११ हैं। परन्तु व्यवहार में इनकी संख्या भिन्न-भिन्न है। जैसे शतपथ ब्राह्मण (१, ३, ५, ७) में १५, (१, ३, ५, १०) और (३, १, ३, ६) में १७, (३, ३, ५, १७) में २१। १५ की संख्या पूरी करने के लिये पहली और अन्तवाली सामिधेनी ऋचा को तीन बार पढ़ते हैं। २१ की पूॢत के लिये ऋग्वेद मण्डल १० की कुछ ऋचायें जोड़ देते हैं। यह अन्त में जोडऩी चाहिये परन्तु दो, ऋचाओं को जिनका नाम धाय्या है समिध्यमानवती ऋचा (ऋग्वेद ३, २७, ४) और समिद्धवती ऋचा (ऋग्वेद ५, २८, ५) के बीच में पढऩा चाहिए। धाय्या दो ऋचायें हैं ऋग्वेद मंडल ३, सूक्त २७ की पांचवीं और छठी। यह पृथुपाजा शब्द वाली हैं और उष्णिक् और कुकुप् छन्द की हैं। (सू० ४-६)
(४) प्रकृति-याग में बहिष्पवमान मंत्र ९ होते हैं अर्थात् तीन तृच। पहले तृच का नाम है स्तोत्रिय, दूसरे का अनुरूप, तीसरे का पय्र्यास। बहिष्पवमान के विकार में अतिरिक्त मंत्र जोडक़र संख्या पूरी की जाती है। २१ करने हों तो चार तृच या १२ मन्त्र जोड़ेंगे, २७ करने हों तो ९ तृच अर्थात् १८ मन्त्र। ३३ करने हों तो ८ तृच अर्थात् २४ मंत्र। द्वादशाह में दो तृच तो स्तोत्रिय और अनुष्टुप् हैं, फिर कुछ तृच होते हैं जिनका नाम ‘वृषणवन्त’ है। इनका अन्तिम तृच ‘पर्यास’ होता है। द्वादशाह में जो मंत्र जोड़े गये वह ‘पर्यास’ के पहले जोड़े गये। परन्तु बहिष्पवमान में ‘पर्यास’ के पीछे बढ़ाया जायेगा। (सू० ९)
(५) पहले दो पवमान स्तोत्रों में कुछ साम मंत्र जोडऩे होते हैं। उनको गायत्री, बृहती, अनुष्टुप् के बीच में जोडऩा चाहिये। (सू० १४)
अब कुछ ग्रहों और इष्टिकाओं (ईंटों) के विषय में कहते हैं—
(क) औपानुवाक्य खण्ड एक अलग खण्ड है। जिसमें किसी एक याग का वर्णन नहीं है। इसमें कुछ ग्रहों (यज्ञपात्रों) का वर्णन है और कुछ इष्टकाओं का। जैसे अदाभ्य ग्रह, अंशु-ग्रह आदि। या चित्रिणी इष्टका, वज्रिणी इष्टका, भूतेष्टका। वस्तुत: यह ग्रह क्रतु या भाग का शेष हैं और इष्टका अग्निवेदी का। चित्रिणी, वज्रिणी आदि ईंटें मध्यमचिति अर्थात् बीच के परत में रखनी चाहिये। (सू० २९)
(ख) यह चित्रिणी, वज्रिणी ईंटें लोकम्पृण ईंटों के पहले रखनी चाहियें, लोकम्पृण ईंटें सबसे पीछे रक्खी जाती हैं, लोक का अर्थ है छूटा हुआ स्थान। पृण का अर्थ है ‘भरनेवाला’। लोकम्पृण ईंटों से उन छिद्रों को भरा जाता है जो ईंटें चिनने में रह जाती हैं। (सू० २०)
(ग) अग्न्याधान के कृत्य में कुछ पवमान-इष्टियां करने का विधान है। कुछ नियत कर्म हैं जैसे अग्निहोत्र, कुछ अनियमित कर्म हैं जैसे ‘इन्द्राग्नि’ इष्टि। ये सब कर्म पवमान-इष्टि के पीछे होने चाहियें। क्योंकि पवमान-इष्टियों द्वारा संस्कृत हुई अग्नि ही ‘आहवनीय’ कहलाती है। (सू० २५)
(घ) ‘अनिचित्’ पुरुष को कुछ व्रत करने होते हैं जैसे वर्षा में न दौड़े, स्त्रीगमन न करे, यह व्रत यज्ञ के अन्त तक रखने चाहियें। (सू० २६-२८)
(ङ) दक्षिणीय-इष्टि के पूरा होने पर ही ब्राह्मण ‘दीक्षित’ पद का अधिकारी हो जाता है। दण्ड, मेखला आदि की प्रतीक्षा अनावश्यक है। (सू० ३०-३१)
(च) काम्य इष्टियां विशेष कामना की पूॢत के लिये की जाती हैं। अत: उनका कोई क्रम नहीं है, इच्छायें क्रम से उत्पन्न नहीं हुआ करती। अत: काम्य इष्टियों का भी कोई क्रम नहीं। शास्त्र में जहां इन इष्टियों का क्रमपूर्वक वर्णन है जैसे (१) अग्नि-विष्णु के लिये ११ कपालों का पुरोडाश (२) गो-यज्ञ, (३) सोम-याग, (४) सौम्य इष्टियां, (५) पशु-याग, यह सब क्रम अध्ययन के लिये है, अनुष्ठान के लिये नहीं। ऐसी रीति अन्यत्र भी मिलती है। जैसे ‘सर्व स्वार’ यज्ञ के पीछे कुछ कर्म क्रमश: बताये गये हैं। वह क्रमश: प्रयोग के लिये नहीं, अपितु ज्ञान के लिये हैं। (सू० ३६)
(छ) सब यज्ञ अग्निष्टोम करने के बाद करने चाहियें। ‘एष वाव प्रथमो यज्ञानां यज्ज्योतिष्टोम:। एतेनानिष्ट्वाऽथान्येन यजेत गत्र्तपत्यमेव तज्जायते प्र वा मीयते।’=ज्योतिष्टोम यज्ञों में सबसे पहला है। जो इस यज्ञ के किए बिना दूसरा यज्ञ करेगा वह गड्ढे में गिरेगा। मर जायेगा। यहां ‘ऐतेन’ शब्द का अर्थ है अग्निष्टोम। क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है, ‘यस्य नवतिशतं स्तोत्रीया:’ (ऐतरेय ब्राह्मण ३-४१)। १९० स्तोत्र अग्निष्टोम में ही होते हैं—
३ बहिष्पवमानों में हर एक के तीन-तीन = ९ स्तोत्र
चार-चार स्तोत्र के १५ आज्य = ६० स्तोत्र
१५ दोपहर के पवमान = १५ स्तोत्र
चार-चार के १७ पृष्ठ = ६८ स्तोत्र
आर्भव पवमान = १७ स्तोत्र
यज्ञायज्ञीय स्तोत्र = २१ स्तोत्र
= १९० (सूत्र ३८)
ज्योतिष्टोम के जो विकृति-याग हैं उनको भी अग्निष्टोम के पीछे ही करना चाहिये। ज्योतिष्टोम में अग्निष्टोम आदि ६ संस्थायें होती हैं। पहली अग्निष्टोम है। शेष पांच अत्यग्निष्टोम हैं। यह हुये नम्बर एक। इनके अतिरिक्त अग्निष्टोम के विकार याग भी हैं, जैसे एकाह, अहीन सत्र आदि। यह सब अग्निष्टोम के उपरान्त ही होने चाहियें। ऊपर कहा है ‘एतेनानिष्ट्वाऽथान्येन यजेत’ यहां ‘अन्येन’ से यही सब यज्ञ अभिप्रेत हंै (सू० ४०) वह यज्ञ चाहे एक स्तोम वाले हों चाहे अनेक स्तोम वाले। (सू० ४४)