सूत्र :कारणादभ्यावृत्तिः३
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद २ सूत्र १ से २३ तक की व्याख्या
पिछले पाद में पाठ के अनुसार क्रम को निश्चित करने के उदाहरण दिये थे। यहां कुछ और क्रम सम्बन्धी नियम देते हैं।
(१) कुछ कर्म परार्थानुसमयन्याय के अनुसार किये जाते हैं कुछ काण्डानुसमय-न्याय के अनुसार। परार्थानुसमय-न्याय यह है कि यदि कई पदार्थों के कई संस्कार करने हों तो पहले एक संस्कार सभी पदार्थों का कर लिया जाय, तब उसी क्रम से दूसरा संस्कार शुरू किया जाय। जैसे वाजपेय याग में १७ पशुओं का आलभन होना है। नियम यह है कि पहले एक काम सब पशुओं के साथ कर डालो तब दूसरा लो, जैसे सब को पहले नहला लो, इत्यादि। लौकिक दृष्टान्त सहभोज का है। ५० मेहमान आये। उनके हाथ धुलाना है, बिठलाना है, खाना खिलाना है और अन्त में सत्कार के साथ विदा करना है। पहले सबके हाथ धुलायेंगे, तब सबको बिठायेंगे। यह हुआ पदार्थानुसमय-न्याय। परन्तु यदि पचास रोटियां बनानी हैं तो लोई बनाने, बेलने, सेंकने आदि में काण्डानुसमय न्याय लगेगा। यज्ञ का उदाहरण है पुरोडाश बनाना। यदि सब पुरोडाश के कर्मों को एक-एक करके लेंगे तो पहला पुरोडाश सूख जाएगा। अत: उसमें काण्डानुसमय न्याय लगाना होगा। (सू० ५.२.१-२)
तीसरे प्रकार को समुदायानुसमय न्याय कहते हैं। यदि कई कर्म भिन्न-भिन्न समुदायों में विभक्त हों तो एक समुदाय के कर्मों को समाप्त करके तब दूसरा समुदाय लेवें। जैसे दर्शपूर्णमास के अन्तर्गत आग्नेय और आग्नीषोमीय यागों के पुरोडाश बनाने के लिये चार मु_ी आटा कपालों में डालना चाहिये। इसका नाम है मुष्टि-निर्वाप। इसके पश्चात् कपाल-उपधान का कर्म होता है जिसमें ११ या ८ कपाल चूल्हे पर चढ़ाये जाते हैं। यह एक दूसरा कर्म-समुदाय है। फिर अवदान समुदाय है इसी प्रकार अंजन और अभ्यंजन अर्थात् तीन बार आंख में अंजन लगाना और तीन बार उबटन करना। वपन अर्थात् तीन बार दीक्षित के बाल काटना, पावन अर्थात् सात मंत्र पढक़र मुखस्पर्श करना। यह समुदाय कर्म हैं। इनमें समुदायानुसमय न्याय से काम होना चाहिये। (सू० ५)
यहां अवदान कर्म में भाग काटने से लेकर आहुति देने तक पूरा कर्म ‘अवदान’ है केवल काटना मात्र नहीं (सू० ६)। इसी प्रकार ‘अंजन-क्रिया’ में यूप में घी चुपडऩे से लेकर रस्सी लपेटने तक पूरा कर्म आ जाता है (सू० ७)। परन्तु अवदान कर्म में भिन्न-भिन्न प्रयोजन के अवदान भिन्न-भिन्न समुदाय के हैं जैसे ‘दैवतावदान’ अर्थात् देवताओं के लिये आहुति देने के लिये भाग निकालना, सौविष्टकृतावदान या स्विष्टकृत् आहुतियों के लिये भाग निकालना, ऐडावदान अर्थात् इडा आहुतियों के लिये भाग निकालना (सू० ११)। यह कर्म उसी क्रम से करने चाहियें।
(२) अब कुछ विशेष कर्मों का इन्हीं न्यायों के अनुसार क्रम बताते हैं। जैसे—
(अ) राजसूय याग में ‘नानाबीज याग’ या बहुबीज याग होता है, उसमें कई प्रकार के बीजों को कूटकर पुरोडाश बनाया जाता है। उनके लिए अलग-अलग उलूखल नहीं चाहिये। एक से काम चल जाएगा। बारी-बारी से बीज कूटे जा सकते हैं। (सू० १५)
(आ) परन्तु अग्नीषोमीय पशुयाग में प्रयाज और अनुयाजों के पात्र अलग-अलग होने चाहियें। क्योंकि प्रयाजों में शुद्ध घी का प्रयोग होता है और अनुयाजों में पृषदाज्य अर्थात् घी और दही मिलाकर। (सू० १६)।
(इ) कृत्तिका आदि उपहोमों से नारिष्ट होम पहले हो जाना चाहिये। (सू० १७-२०)।
(उ) एक मोटा और चौड़ा सोने का आभूषण जो छाती पर लटका रहता है उसे ‘रुक्म’ कहते हैं, यज्ञानुष्ठान काल में मिट्टी की छोटी-सी अंगीठी में अङ्गारे डालकर छाती पर लटकाते हैं, यह रुक्म उस अंगीठी की जलन से रक्षा करता है, यह रुक्म दीक्षणीय-इष्टि के पीछे पहना जाता है, इसी इष्टि के पीछे यजमान के मुंडन आदि संस्कार भी होते हैं, यह संस्कार भी रुक्म-धारण से पहले हो जाने चाहियें। (सू० २३)।