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Meemansa दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :श्रुतिलक्षणमानुपूर्व्यंतत्प्रमाणत्वात् १
सूत्र संख्या :1

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद १ सूत्र १ से ३५ तक की व्याख्या अध्याय २, ३, ४ में बताया गया है कि कौन-कौन कर्म करने चाहियें। अध्याय ५ में बताया गया है कि कौन-कौन कर्म किस ‘क्रम’ से करने चाहियें। चौथे अध्याय में यह बताया गया है कि प्रयोजक कर्म कौन हैं अप्रयोजक कौन? क्रम का नियम छ: बातों के आश्रित है, श्रुति, अर्थ, पाठ, प्रवृत्ति, काण्ड और मुख्य। यहां हर एक का वर्णन किया जायेगा। इन छहों बातों का महत्त्व इसी क्रम से है। अर्थात् सबसे बलवती श्रुति, फिर उनकी बलवत्ता उसी क्रम से घटती जाती है। (१) सबसे पहले जहां तक सम्भव हो कार्यों को उसी क्रम से करे जैसे श्रुति में वॢणत हैं। जैसे दीक्षा देने का क्रम बताया है ‘अध्वर्यु गृहपतिं दीक्षयित्वा ब्रह्माणं दीक्षयति’ इत्यादि। (देखो सूत्र ३.७.३७ तथा ५.१.१) (२) परन्तु कहीं-कहीं श्रुति का क्रम व्यवहार्य नहीं है। अत: अर्थ के अनुसार क्रम लेना होगा। या यों कहना चाहिये कि श्रुति में जिस क्रम से कार्यों का वर्णन है वहां श्रुति का उद्देश्य केवल कार्यों की गिनती कराना है न कि क्रम पर बल देना। व्यवहार में जो ठीक बैठे वही क्रम ठीक है। ‘अर्थ’ को देखना आवश्यक है। यहां ५ उदाहरण दिये जाते हैं— (क) बालक के जन्म पर लिखा है कि दक्षिणा दे, हाथ से उठावे और नथनों में सांस फूंके (जाते वरं ददाति, जातमञ्जलिना गृöाति, जातमभिप्राणिति) यहां पहले सांस फूंकना चाहिये, फिर हाथ से उठाना चाहिए और फिर दक्षिणा देने का काम अन्त में होना चाहिये। (ख) कहीं-कहीं चीजों का विमोक (छोडऩा) पहले दिया है उद्योग अर्थात् काम में लाना पीछे। इस क्रम को भी बदलना पड़ेगा। क्योंकि चीज को पहले काम में लाते हैं फिर उसको त्यागते हैं। जैसे प्रणीता जलों को हटाने का पहले उल्लेख है प्रयोग का पीछे। नीचे के वाक्यों में अग्नि का विमोक पहले है, प्रयोग पीछे। ‘इमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयायामित्याज्यपूर्णं स्रुचं जुहोत्येष वा अग्नेॢवमोक’। ‘अग्निं युनज्मि शवसा घृतेनेति जुहोति, अग्निमेवैतेन युनक्ति।’ यह संभव ही नहीं। अत: यह क्रम बदलना ही है। (ग) इसी प्रकार श्रुति में याज्य पहले दिये हैं अनुवाक्य पीछे। अनुवाक्य पहले होने चाहिये, क्योंकि उनमें देवता का विधान है। बिना देवता का निश्चय किये हुये याज्य का प्रयोग हो ही नहीं सकता। (घ) इसी प्रकार श्रुति में अग्निहोत्र करने का उल्लेख पहले है, चावल पकाने का पीछे। यह भी क्रम बदलना है। चावल पहले पकेगा, तब यज्ञ होगा। (ङ) कहीं-कहीं प्रैष और प्रैषार्थ का क्रम बदलना चाहिये क्योंकि पहले किसी काम के करने की आज्ञा दी जाती है फिर उसका पालन होता है। (सू० २) (३) कहीं-कहीं कोई नियम है ही नहीं। जैसे दर्शपूर्णमास इष्टियों में यजमान को ‘प्रयाजानुमंत्रण’ आदि कई काम करने पड़ते हैं जो भिन्न-भिन्न शाखाओं में भिन्न रूप से दिये हैं। जैसे ‘वसन्तमृतूनां प्रीणयामि’ इत्यादि (तै०सं० १.६.२.३) या ‘एको मम’ इत्यादि (श०ब्रा० १.५.४.११) (सू० ३)। (४) एक याग में अंगों का जिस क्रम से विधान है उसी क्रम से उनका अनुष्ठान होना चाहिये। जैसे दर्शपूर्णमास में ‘समिधो यजति, तनूनपातं यजति, इडो यजति, बॢहर्यजति, स्वाहाकारं यजति’ (तै०सं० २.६.१.१)। यहां यद्यपि क्रम से अनुष्ठान करने का कथन नहीं है। तथापि यही क्रम होना चाहिये। श्रुति का तात्पर्य है क्रमबद्धता। यही कारण है कि जहां क्रम का उलटफेर करना होता है वहां विशेषता से उस उलटफेर का विधान स्पष्ट शब्दों में कर दिया जाता है। जैसे व्यत्यस्तमृतव्या उपदधाति (तै०सं० ५.३.१.१) यहां ऋतव्य ईंटों को उलटे क्रम से रखने का विधान कर दिया। ‘व्यत्यस्तं षोडशिनं शंसति’ (तै०सं० ७.१.५.४.) यहां षोडशी शस्त्र को उलटकर पढऩे का विधान कर दिया। आश्विनो दशमो गृह्यते, तं तृतीयं जुहोति। अर्थात् यद्यपि आश्विन ग्रह दसवां है परन्तु उसकी आहुति तीसरे नम्बर पर दी जाती है। इत्यादि (सू० ४-७) (५) कहीं-कहीं स्थान भी क्रम का निर्णायक होता है। जैसे (तै०सं० २.४.२.७) में कहा है कि प्रजा की कामना वाला २१ मंत्रों वाले अतिरात्रसामगान द्वारा यज्ञ करे, ओज की कामना वाला २७ मन्त्रों वाले अतिरात्रसाम से और प्रतिष्ठा वाला ३३ मन्त्रों से। मन्त्रों की इन संख्याओं की पूॢत के लिये कुछ ऋचायें मिलानी पड़ती हैं। (देखो आगे आने वाला सू० १०.५.२६)। इन ऋचाओं का क्रम वही होना चाहिए जो मूल वेद में है। (६) जो क्रम मुख्य कर्म में है वही उसके अंगों में भी होगा। ‘सारस्वतौ भवत:। एतद् वै दैव्यं मिथुनम्।’ (तै०सं० २.४.६.१) (दो सारस्वत याग होते हैं। उनके दो देवता हैं एक सरस्वती, दूसरा सरस्वान्)। प्रश्न यह था कि सरस्वती की आहुतियां पहले दी जायं या सरस्वान् की। याज्यानुवाक्य (तै०सं० १.८.२२.१) में दिया है ‘प्रणो देवी सरस्वती।’ यहां सरस्वती पहले कही गई है। अत: पहले सरस्वती की आहुतियां दी जानी चाहियें (सू० १४)। परन्तु साक्षात् श्रुति के आदेश से अन्यथा भी हो सकता है, क्योंकि श्रुति सबसे प्रबल है। इसका एक उदाहरण दर्शपूर्णमास के अग्निषोमीय और उपांशु यज्ञों के प्रसंग में मिलता है। अग्निषोमीय में पुरोडाश दिया जाता है और उपांशु में आज्य। मुख्यता की अपेक्षा से उपांशु का आज्य कर्म पहले होना चाहिये परन्तु श्रुति में पहले पुरोडाश बनाने की औषधियों का कथन है फिर आज्य का। अत: यही क्रम माननीय है। (सू० १५) (७) यदि ब्राह्मणों और मन्त्रों में विरोध हो, तो मंत्र अधिक माननीय हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थ में आग्नेय को अग्नीषोमीय याग के पीछे कहा है। परन्तु मंत्रों में आग्नेय पहले है अत: वैसा ही करना चाहिये, ब्राह्मण ग्रन्थ क्रम नहीं बताता। केवल विधान करता है। (सू० १६) (८) चोदक नियम प्रयोग वचन से बली है। यदि प्रयोग वचन में दिया क्रम और हो और चोदक नियम से भिन्न क्रम निकलता हो तो चोदक नियम के आधार पर जो क्रम अनुमानित होता है वही माननीय होगा। चोदक नियम यह है कि प्रकृति-याग के धर्मों का विकृति याग में अतिदेश होना चाहिये। प्रयोग वचन में दिया है—‘आग्ना-वैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेत्। सरस्वती आज्यभागा स्यात्। बार्हस्पत्यश्चरु:’ (तै०सं० २.२.९.१)। यहां सरस्वती के आज्य का पहले कथन है और बृहस्पति के चरु का पीछे। परन्तु बृहस्पति यज्ञ का प्रकृति यज्ञ है आग्नेय यज्ञ जिसमें चरु दिया जाता है। सरस्वती का प्रकृति याग है उपांशु जिसमें आज्य दिया जाता है। चरु पहले बनना चाहिए। (देखे सू० १५)। इसलिये चरु पहले होगा और आज्य पीछे। (सू० १७-१८) (९) साकमेधीय न्याय—यह आवश्यक नहीं कि प्रकृति-याग के सभी धर्मों को विकृति में अतिदेश हो। जैसे काल। इसका उदाहरण भाष्यकार ने यह दिया है—चातुर्मास्य याग में साकमेध इष्टि तीसरा पर्व है। उसके तीन अवयव हैं—(१) अग्नये अनीकवते प्रातरष्टकपाल:, (२) मरुद्भय: संतापनेभ्यो मध्यन्दिने चरु:, (३) मरुद्भ्यो गृहमेधिभ्य: सर्वासां दुग्धे सायमोदनम्। (तै०सं० १.८.४.१) यह साकमेधी इष्टि एक दिन में होनी चाहिये। यद्यपि प्रकृति-याग दो दिन में होता है। इस को साकमेधीय-न्याय कहते हैं। यह तो सभी समझ सकते हैं कि प्रकृति-याग के काल का विकृति याग में अतिदेश होना असम्भव है। यदि कहा जाय कि पुत्र को पिता के समान आचरण करना चाहिये तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं लिया जासकता कि जिस तिथि को उसके पिता ने कोई पुनीत कर्म किया हो उसी तिथि को पुत्र भी वह पुनीत कर्म करे। (सू० १९-२२) (१०) तदादि-तदन्त न्याय—जिन कर्मों को आदि में करना है उनको और उनके सम्बन्धी कर्मों को आदि में करना होगा। जो पीछे करने हैं उनको और उनके सम्बन्धी कर्मों को पीछे करना होगा चाहे प्रयोग वचन में उसका क्रम कुछ भी क्यों न ही। लौकिक दृष्टान्त यों समझिये कि यदि कारणवश किसी विशेष मेहमान को सहभोज के पहले खिलाना पड़ जाय तो उसके मोटर ड्राइवर को भी पहले ही खिलाना पड़ेगा, क्योंकि ड्राइवर मेहमान का अङ्ग है।१ (११) जिन कर्मों का कालनियत है उनके अङ्गों का क्रम प्रवृत्ति अर्थात् सुविधा के आधार पर निश्चित होगा। जो कर्म पहले किये जायेंगे उनके अङ्ग भी उनके अङ्गी कर्मों के साथ हो चुकेंगे तब दूसरा काम हाथ में लिया जायेगा। (सू० २५-२६) (१२) यूपकर्मन्याय—यह ‘तदादितदन्त न्याय’ का अपवाद है। जैसे यूप की लकड़ी को औपवस्थ के पश्चात् काटना चाहिये था परन्तु विशेष आदेश से उसे दीक्षा के समय काटते हैं—‘दीक्षासु यूपं छिनत्ति’ (सू० २७) (१३) जो कर्म दूसरे कर्म के साथ प्रयोजक-प्रयोजन सम्बन्ध नहीं रखता, केवल प्रासाङ्गिक है उसके अपकर्ष का प्रश्न नहीं उठता। जैसे ज्योतिष्टोम के प्रकृति याग में अनुयाजों के पश्चात् दक्षिणाग्नि में दो होमों का विधान है। एक का नाम है ‘पिष्टलेप होम’। इसमें सिल आदि बर्तनों में जो आटा लग जाता है उसको छुड़ाकर और जुहू में लिये हुये घृत के साथ मिलाकर दक्षिणाग्नि में आहुति देते हैं। दूसरा होम है ‘फलीकरण होम’। उसमें तण्डुलों के कणों को घी में मिलाकर आहुति दी जाती है। अनुयाजों के उत्कर्ष के साथ इन होमों का उत्कर्ष नहीं होगा। क्योंकि यह होम अनुयाजों के प्रयोजक नहीं। केवल प्रसङ्गवश उनका कथन हो गया है (सू० २८) (१४) जो कर्म समकक्ष है। कोई किसी का प्रकृति या विकृति नहीं, (जैसे दर्श और पूर्णमास), वहां यदि किसी एक कर्म का अपकर्ष हो तो दूसरे कर्म का भी अपकर्ष नहीं होगा। जैसे अभिवासन (पुरोडाश को गर्म राख से ढक देना) दर्श और पूर्णमास दोनों में दूसरे दिन होता है। परन्तु दर्श में वेदी बनाने का काम पहले दिन होना चाहिये। परन्तु अभिवासन को दूसरे दिन ही करेंगे। उसका अपकर्ष न होगा (सू० २९)। इसी प्रकार यदि सवनों का उत्कर्ष हो गया तो अग्निहोत्र का भी अपकर्ष न होना चाहिये (सू० ३०-३३)। क्योंकि सवनों और अग्निहोत्र का सम्बन्ध नहीं। (१५) उक्थ्य और षोडशी का सम्बन्ध है। अत: यदि किसी कारण से उक्थ्य का उत्कर्ष करना पड़ा तो उसी के साथ षोडशी का भी उत्कर्ष अवश्य होगा।