सूत्र :प्रकरणशब्दसामान्याच्चोदनानामनङ्गत्वम् १
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ४ सूत्र १ से ४१ तक की व्याख्या
इस पाद में भी अङ्गी और अङ्गों का वर्णन है।
(१) जहां राजसूय यज्ञ का विधान है ‘राजसूयेन स्वाराज्य-कामो यजेत’ (तै०सं० १-८) वहीं कुछ और कृत्य भी दिये हैं। जैसे—
(अ) कुछ इष्टियां—८ कपालों का पुरोडाश अनुमति के लिये, एक कपाल का पुरोडाश निर्ऋति के लिये, आदित्य के लिये चरु, ११ कपालों का पुरोडाश अग्नि-विष्णु के लिये।
(आ) कुछ दार्विक होम हैं। वाल्मीकवपायां होम आदि।
(इ) कुछ और भी कृत्य हैं जैसे षष्ठौही गाय से जुआ खेलना, राजन्य को जीतना, शुन:शेप की कथा कहना, अभिषेक आदि।
यहां सिद्धान्त यह है कि जो याग है वे तो प्रधान कर्म हैं और जुआ खेलना आदि याग नहीं अत: वह प्रधान कर्मों के अङ्ग हैं। ये केवल अभिषेक के अङ्ग नहीं, समस्त राजसूय के अङ्ग हैं। (सू० १-४)
(२) सौम्य आदि कुछ इष्टियां उपसदों के साथ कथित हैं जैसे, पुरस्तादुपसदां सौम्येन प्रचरन्ति, अन्तरात्वाष्ट्रेण, उपरिष्टाद् वैष्णवेन। ये इष्टियां उपसदों का अङ्ग नहीं हैं। केवल उनके करने का ‘काल’ बताया है। (सू० ५-६)
(३) आमन नामक होम ‘सांग्रहायणी’ इष्टियों के अङ्ग हैं। ‘वैश्वदेवी सांग्रहायणीं निर्वपेद् ग्रामकाम:।’ ‘आमनस्यामनस्य देवा इति तिस्र आहुतीर्जुहोति।’
(तै०सं० २.३.९.३) (सू० ७)
(४) ज्योतिष्टोम में दधि-ग्रह नित्यकर्म है नैमित्तिक नहीं (सू० ८-११) देखो ‘सर्वेषां वैतद् देवानां रूपं यदेष ग्रह:’ (तै०सं० ३.५.९.१)
(५) वैश्वानर याग नित्य नहीं। यह नैमित्तिक है। क्योंकि उखा में आग न रखने पर जो हानि हुई उसके निमित्त किया जाता है। (१२&१३)
(६) छठी चित्ति नित्यकर्म नहीं, नैमित्तिक है। क्योंकि यज्ञ की समाप्ति पर बनाई जाती है। अर्थात् यह उस समय बनाई जाती है जब नींव पक्की जमी न हो।१ विधान में है कि यह यज्ञ की समाप्ति पर बनाई जाय। जब यज्ञ हो रहा हो तब नहीं।
(७) परन्तु जिस स्वरु से पशु को चुपड़ते हैं वह पशु का अंग है। यूप का नहीं (सू० २५-२८)। तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्वरु यूप से ही छीलकर बनाया जाता है परन्तु उससे काम तो पशु के चुपडऩे का लिया है।
(८) दर्शपूर्णमास में कर्मों की दो सूचियां दी हैं पहली सूची में पांच कर्म हैं। आग्नेय कर्म, अग्नीषोमीय कर्म, उपांशु याज, ऐन्द्राग्न, सान्नाय। दूसरी सूची में ६ कर्म हैं। आज्यभाग, प्रयाज-अनुयाज, पत्नीसंयाज समिष्ट यजु:, स्विष्टकृत्। यहां पहली सूची में दिये हुये आग्नेय आदि प्रधान कर्म हैं और दूसरी सूची के आज्यभाग आदि अङ्ग कर्म। (सू० २९.३८)
इसी प्रकार ज्योतिष्टोम में सोग याग प्रधान कर्म है और दक्षिणीय आदि इष्टियां उसके अङ्ग हैं। स्तोमों में त्रिवृत्, पंचदश, सप्तदश, एकविंश सामगान सम्बन्धी लयों के कारण पड़े हैं। सामगान की ये भिन्न-भिन्न विधियां हैं।१