DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :यदिच हेतुरवतिष्ठेत निर्देशात्सामान्यादितिचेदव्यवस्थाविधीनां स्यात् ३०
सूत्र संख्या :30

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद 2, सूत्र से 53 तक की व्याख्या : पहले पाद में वेदों का अपौरुषेयत्व (ईश्वरकृतहोना, मनुष्यकृत न होना) बताकर सिद्ध किया कि वेदधर्म का मूल है क्योंकि वेद में बताया है कि ऐसा-ऐसा करना चाहिये। अब प्रश्न यह उठा कि उन वेद वाक्यों का क्या बनेगा जिसमें क्रिया करने का विधान नहीं है। क्या ऐसे वाक्य निरर्थक हैं? आचार्य जैमिनि ने ऐसे मन्त्रों के अर्थ समझने के नियम बताये हैं। ये नियम न केवल वेद वाक्यों पर ही लागू होते हैं अपितु संसार के सभी साहित्यों पर। वेदमन्त्र पांच प्रकार के हैं— (१) ‘विधि वचन’—जिन मेें सीधी रीति से किसी कर्म का करना कहा है। जैसे ‘संगच्छध्वम्’ (मिलकर रहो)। ऐसे मंत्रों पर कोई विवाद नहीं। (२) अर्थवाद (देखो सूत्र १.१८) इन मन्त्रों में विधि तो नहीं बताई परन्तु अन्य वाक्यों में बताई हुई विधि के विषय में कुछ प्रकाश डाला है। इसका अर्थ पांच प्रकार से निकाला जाता है— (१) अध्याहार द्वारा—अर्थात् दूसरे पहले कहे हुये वाक्यों में से कुछ शब्द खींचकर इस वाक्य में ले आने से अर्थ समझ में आ सकता है। जैसे राम ने रोटी खाली गोपाल ने नहीं, ‘गोपाल ने नहीं’ यह वाक्य निरर्थक-सा प्रतीत होता है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं, परन्तु यदि पिछले वाक्य से ‘खाई’ क्रिया को खींचकर इस वाक्य में मिला देवें तो ‘‘गोपाल ने रोटी नहीं खाई’’ यह वाक्या सार्थक हो गया। यहां ‘रोटी खाई’ यह शब्द वाक्य में न थे ‘अध्याहार’ कर लिये गये। (२) विपरिणाम—शब्दों में कुछ हेर-फेर कर देने से जैसे विभक्ति आदि में व्यत्यय हो जाते हैं। ‘परमे व्योमन्।’ यहां ‘व्योमन्’ के स्थान में ‘व्योम्नि’ करने से अर्थ स्पष्ट हो जाता है। (३) व्यवहित कल्पना—वाक्य में दो शब्दों के बीच में कोई और शब्द आ जाता है, उसे हटा देने से अर्थ निकल आता है। जैसे ‘सीता, राम की पत्नी, जनक की पुत्री थी’ यहां ‘राम की पत्नी’ हटा देने से ‘सीता जनक की पुत्री थी’ यह वाक्य ठीक हो जाता है। (४) व्यवधारण कल्पना—दो शब्द पास-पास आ जाते हैं, अत: उनका अर्थ समझ में नहीं आता। यदि उनको अलग-अलग कर दिया जाय तो अर्थ निकल आता है। जैसे ऊपर के वाक्य में सीता और राम साथ-साथ आये हैं अत: धोखा हो सकता है कि सीताराम कोई व्यक्ति है जिसकी पत्नी होगी। यदि सीता और राम अलग कर दिये जावें तो आशय ठीक समझ में आ जाता है। (५) गुण कल्पना—शब्दों के सीधे अर्थ न लेकर कोई लाक्षणिक अर्थ लिये जाते हैं। जैसे लाला लाजपतराय पंजाब के शेर थे। यहां शेर का अर्थ ‘शेर’ नहीं अपितु ‘बलवान्’ है। अर्थवाद के कई रूप हैं— (१) विधिवत्-निगद अर्थात् ऐसे वाक्य हैं जिनमें विधि भी है और विधि के साथ ऐसे वाक्य भी हैं जो विधि को रोचक बनाते हैं, जैसे ‘बच्चे! मुंह धोलो। चाँद-सा मुँह हो जायेगा।’ (देखो सूत्र १९-२५) यह स्तुति-सूचक होते हैं या निन्दा-सूचक। (२) हेतुवत्-निगद अर्थात् वाक्य में विधि के साथ हेतु भी हो। जैसे ‘घर के भीतर सोओ। बाहर ओस पड़ती है’, (देखो सूत्र २६-३०) (३) मंत्र-लिङ्ग। यागों में कुछ मन्त्र तोले जाते हैं। वह निरर्थक नहीं होते। उनका अर्थ समझने से यज्ञ की उपयोगिता पर प्रकाश पड़ता है। (देखो सूत्र ३१-५३) यज्ञों में जो वेदमन्त्र पढ़े जाते हैं। उनके विषय में सूत्र ३१ से सू० ५३ तक बड़ी रोचक और शिक्षाप्रद व्याख्या की गई है। प्रश्न—याग में जो मन्त्र पढ़े जाते हैं वे विवक्षितवचन हैं या अविवक्षितवचन? अर्थात् क्या मन्त्रों का अर्थ जानने से यज्ञ का फल मिलता है या केवल उच्चारण मात्र से? उत्तर—मन्त्र ‘विवक्षित-वचन’ हैं अर्थात् उनका अर्थ जानना चाहिये। प्रश्न—यदि अर्थ जानना अभिप्रेत होता तो विनियोग की क्या आवश्यकता थी? अर्थात् यह क्यों कहते कि अमुक कार्य करते समय अमुक मन्त्र पढ़ो। एक उदाहरण लो— ‘उरुप्रथा उरु प्रथस्व इति पुरोडाशं प्रथयति।’ (तै०ब्रा० ३.२.८.४)। इसका अर्थ है कि ‘उरु प्रथा उरु प्रथस्व’ मन्त्र (यजुर्वेद १.२२) को पढक़र पुरोडाश को बोले। यदि मन्त्र से ही यह अर्थ निकलता होता तो ऐसा विनियोग करने की आवश्यकता न थी। उत्तर—यह अर्थवाद है।१ एक दूसरे वाक्य को मिलाकर पढ़ो। समझ में आ जायेगा कि यहां स्तुति की गई है—‘उरु ते यज्ञपति: प्रथताम्’ (तै०ब्रा० ६.२.७) यज्ञपति ‘फले-फूले=बढ़े, उसकी उन्नति हो’। मन्त्र का अर्थ जाने बिना तो यह भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। अत: मन्त्र केवल उच्चारण के लिये नहीं है। यह गुणवाद है। प्रश्न—यह तो आपने याग और उसके फल का प्रत्यक्ष सम्बन्ध बता दिया। मन्त्रपाठ का फल तो ‘अपूर्व’ होता है। अर्थात् वह अलौकिक या परोक्ष होता है। उत्तर—यह कोई विरोध नहीं। मन्त्र पढऩे वाला अर्थ समझेगा और इससे अपूर्व बन सकेगा।२ प्रश्न—कुछ वेदमन्त्र का पूरा अर्थ नहीं देते। जैसे ‘इमामगृभ्णन् रशनामृतस्य’ ‘इत्यश्वाभिधानीमादत्ते’। (शतपथ १३.१.२.१, तैत्तिरीय सं० ५.१.२.१) यजुर्वेद २२.२ का मन्त्र है ‘इमामगृभ्णन् रशनामृतस्य।’ यह मन्त्र यदि अर्थ की विवक्षा से पढ़ा जाता तो इसका अर्थ पूरा होना चाहिये था। परन्तु मन्त्र से कुछ अर्थ समझ में नहीं आता। इसलिये ‘अश्वाभिधानीम्’ (घोड़े की रस्सी) यह जोडऩा पड़ा। इससे सिद्ध है कि मन्त्र केवल उच्चारण के लिये है। अर्थ समझने के लिये नहीं। उत्तर—आदेश कई प्रकार के होते हैं। कुमारिल ने तीन प्रकार के आदेश गिनाये हैं— विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियम: पाक्षिके सति। तत्र चान्यत्र च प्राप्ते परिसंख्येति कीत्र्यते॥ (तंत्र वाॢत्तक) अर्थात् विधि, नियम और परिसंख्या। जहां आदेश सूचक वचन से पहले विधि की बिल्कुल प्राप्ति न हो और न होने की संभावना हो वहां जो आदेशसूचक वचन कहा जाय वह शुद्ध विधि है, अर्थात् यह आदेश पहले कहीं नहीं दिया गया। सर्वथा नया है। जैसे ‘व्रीहीन् प्रोक्षति’=चावलों को धोता है। यह प्रोक्षण विधि है। जब विधि का केवल एक पक्ष (भाग) दिया हो और न दिये हुये भाग की पूॢत कर दी जाय तो इसको ‘नियम’ कहते हैं। जैसे ‘व्रीहीन् अवहन्ति’=धान कूटती है। यहां ‘कूटने’ शब्द का अर्थ तो है केवल मूसल मारना, परन्तु यह तो आदेश का एक पक्ष है, इस आदेश से यह नहीं पाया जाता कि मूसल मारने और चावल निकलने के बीच में जो क्रियायें हैं उनका निवारण कर दिया गया। अर्थात् कूटने का यह अर्थ नहीं कि चावल मत निकालो। क्योंकि कूटने की क्रिया तो चावल निकालने के प्रयोजन से ही होती है। परन्तु जहां ‘विधि वचन’ का अर्थ वहां भी लागू होता हो जहां अभीष्ट नहीं है तो आदेश को संकुचित करने और अनभीष्ट स्थान पर लागू होने से रोकने के लिये कोई ऐसा शब्द जोड़ देते हैं जिससे अभीष्ट पर ही लागू हो। अनभीष्ट पर लागू न हो, उसको परिसंख्या१ कहते हैं। ऊपर के मन्त्र में ‘रशनामृतस्य’ ऐसे शब्द हैं। रस्सी घोड़े की भी होती है और गधे की भी। जिस प्रसंग में वेदमंत्र का विनियोग हुआ है वहां केवल घोड़े की रस्सी से ही अभिप्राय है। गधे की रस्सी से नहीं, अत: गधे की रस्सी का निवारण करने लिये ‘अश्वाभिधानीम्’ ऐसा कह दिया। मन्त्रों के अर्थ जानने के लिये यह देख लेना चाहिये कि यहां विधि है या नियम या परिसंख्या। प्रश्न—कुछ ऐसे वेदमन्त्र हैं जिनका कोई अर्थ हो ही नहीं सकता। इसलिये ऐसा मानना चाहिये कि उनके उच्चारण मात्र से फल होता है। उत्तर—नहीं, आप अर्थ नहीं समझे।१ आलंकारिक अर्थ हैं। जैसे तैत्तिरीय आरण्यक १०.१०.२ में ऋग्वेद ४.५८.३ का यह मन्त्र है— चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मत्र्याष्ट्व आविवेश॥ यह देखने में निरर्थक प्रतीत होता है। परन्तु यह आलङ्कारिक भाषा है। चार सींगों का अर्थ है चार ऋत्विज् जो यज्ञ के चार सींगों के समान हैं। तीन पादों का अर्थ है तीन सवन (प्रात: सवन, मध्य सवन, सायं सवन)। दो सिर हुये ‘यजमान और उसकी पत्नी’। सात हाथ हुये सात छन्द। तीनों ओर से बंधा हुआ अर्थात् तीनों वेदों द्वारा मर्यादित। वृषभ का अर्थ है यज्ञ जो कल्याण-फल की वर्षा करता है। चिल्लाता है (रोरवीति) अर्थात् शब्द करता है। ‘महादेवो मत्र्यान् आविवेश’ का अर्थ है कि मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त होता है। एक और ऐसा ही मन्त्र है जिसके विषय में केवल ध्वनि के वैचित्र्य के कारण कुछ लोगों ने मखौल किया है। मन्त्र यह है— सृण्येव जर्भरी तूर्फरीतू नेतोशेव तुर्फरी पर्फरीका। उदत्यजेव जेमना मदेरु तामेजराय्वजरं मरायु॥ (ऋग्वेद १०.१०६.६) शबर स्वामी का कहना है कि जर्भरी, तुर्फरीतू ये निरर्थक शब्द नहीं हैं। इसी सूक्त के अन्त के मन्त्र (१०.१०६.११) में ‘अश्विनो: काममप्रा:’ ऐसे शब्द आये हैं। अर्थात् अश्विन् देवों की यथेष्ट प्रशंसा की। अत: इस मन्त्र में भी अश्विन् देवों का वर्णन है। अश्विनों को जर्भरी अर्थात् पालक कहा है (‘भृ’ धातु से जर्भरी बना)। ‘तुर्फरीतू’ का अर्थ है शत्रु के नाशक (‘त्रिफला विशरणे’ धातु से तुर्फरी या तुर्फरीतू बना)। पर्फरीकौ का अर्थ है पूरा करने वाले। (फर्वते: पूर्णार्थाद्वा)। इस मन्त्र में प्रार्थना की गई है कि आप दोनों देव ‘मे मरायु: जरायु:’ अर्थात् मरणशील जीवन को ‘अजर-अमर’ बनाइये। इसी प्रकार की अन्य शंकाओं का निवारण करके इस बात पर बल दिया गया है कि जो मन्त्र यज्ञ में पढ़े जाते हैं उनका अर्थ समझना चाहिये। केवल उच्चारण मात्र से यज्ञ के फल की प्राप्ति न होगी।

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: fwrite(): write of 34 bytes failed with errno=122 Disk quota exceeded

Filename: drivers/Session_files_driver.php

Line Number: 263

Backtrace:

A PHP Error was encountered

Severity: Warning

Message: session_write_close(): Failed to write session data using user defined save handler. (session.save_path: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/system//cache)

Filename: Unknown

Line Number: 0

Backtrace: