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Meemansa दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :गुणाभिधानात्सर्वार्थमभिधानम् १०
सूत्र संख्या :10

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद ७ सूत्र १ से ५१ तक की व्याख्या इस पाद में यह निर्णय किया गया है कि अमुक चीजें और उनका धर्म मुख्य यज्ञ से सम्बन्ध रखते हैं या उसके अङ्गों से या दोनों से। (१) बॢह और वेदी तथा इनके सम्बन्धी धर्म (कृत्य) दर्शपूर्ण मास और उनके अङ्ग सभी से सम्बन्धित है। इन दो वाक्यों पर विचार कीजिये—(अ) ‘वेद्यां हवींषि आसादयति’ (आ) ‘स वै ध्रुवामेवाग्रेऽभिघारयति ततो हि प्रथमावाज्यभागौ यक्षन् भवति।’ वेदी में हवियों का रखना और आज्यभाग आहुतियों का देना यह बताता है कि आज्यभाग तो दर्शपूर्ण मास के अङ्ग हैं। अत: बॢह और वेदी का सम्बन्ध मुख्य याग से भी है और उसके अङ्गों से भी। (देखो सू० १-५) (२) परन्तु ऊपर के नियम के विरुद्ध यजमान के संस्कार जैसे बाल मुड़ाना, दूध ही पीकर रहना, तप करना आदि केवल प्रधान यज्ञ से ही सम्बन्ध रखते हैं क्योंकि फल तो मुख्य याग का होता है, अङ्गों का नहीं, वह तो मुख्य याग के सहकारी हैं। (देखो सूत्र ६) (३) सोमिक वेदी मुख्य याग (अर्थात् ज्योतिष्टोम) और उसके अङ्ग सभी के काम आते हैं, उसके विषय में श्रुति हैं—षट्त्रिंशत् प्रक्रमा प्राची, चतुर्विंशितिरग्रेण त्रिंशज्जघनेन इयति शक्ष्यामहे। (तै०सं० ६.२.४.५)। पूर्व की ओर ३६ पग, २४ पग आगे फिर तीस पग पीछे। यह सोमिक वेदी का परिणाम है अर्थात् सोम याग के सदस, हविर्धान आदि सब कामों के लिये इतनी बड़ी वेदी चाहिये। इसी प्रकार एक और आदेश है—‘‘चतुर्होत्रा पौर्णमासी-मभिमृशेत्, पञ्चहोत्रा अमावास्यायाम्।’’ (मै०सं० १.९.१) अर्थात् चतुर्होत्र वाला मंत्र पढक़र पौर्णमास इष्टि की हवियों का अभिमर्शन करे (छुये) और पंचहोत्रवाला मंत्र पढक़र अमावास्या इष्टि की हवियों का। यहां भी मुख्य याग की हवियों, और अंगों की हवियों दोनों का अभिमर्शन करना चाहिये। (सू० ७-१०) (४) परन्तु दीक्षा और दक्षिणा का सम्बन्ध केवल प्रधान याग से ही है, अंगों से नहीं। लिखा है—‘तिस्रो दीक्षा:’=तीन दीक्षायें होती हैं। ‘तस्य द्वादश शतं दक्षिणा:’=उसकी १२०० दक्षिणा है। ‘दीक्षा: सोमस्य, दक्षिणा: सोमस्य’ अर्थात् यह दीक्षा और दक्षिणा सोमयाग की ही है। सोमयाग का अंग जो निरूढपशु याग है उसमें अलग दीक्षा होगी। देखिये—‘‘अध्वर्यो यत्-पशुनाऽयाक्षीरथ का अस्य दीक्षेति। यत् षड्ढोतारं जुहोति साऽस्य दीक्षा।’’ अध्वर्यु से पूछा गया कि हे अध्वर्यु तुमने जो निरूढ पशुयाग किया उसकी दीक्षा क्या थी? उसने उत्तर दिया कि षड्होत्र मंत्र से जो आहुति दी वही इसकी दीक्षा है। अर्थात् पशुयाग के अंग में पहली दीक्षा काम नहीं आई, दूसरी दीक्षा लेनी पड़ी। (सू० ११-१२) (५) अन्तर्वेदी यूप का अंग नहीं है। यूप को गाडऩे के लिये गड्ढा खोदते हैं। आधा भूमि में गाड़ते हैं। आधा बाहर निकला रहता है। इसको नापना पड़ता है कि बीचों बीच का स्थान कौन-सा है। नापने के लिये एक नियम है कि आधा भाग यूप का वेदी के भीतर रहे। आधा बाहर यह केवल नापने की जगह बताता है। इससे वेदी को यूप का अंग नहीं माना जा सकता। वस्तुत: वेदी तो समस्त ज्योतिष्टोम और उसके अंगों के लिये बनाई गई है, यूप नापने के लिये नहीं। इस नापने के विषय में जो वचन है अर्थात् वज्रो वै यूप:। यदन्तर्वेदिमिनुयात् तन्निर्दहेत्। ‘‘यदि बहिर्वेदि अनवरुद्ध: स्यात्। अद्र्धमन्तर्वेदि मिनोति, अद्र्धं बहिर्वेदि, अवरुद्ध भवति, न निर्दहति।’’ यह वचन यह सिद्ध नहीं करता कि वेदी यूप का अंग है। (सू० १३, १४) जैसे वेदी केवल यूप नापने का स्थान मात्र है। इसी प्रकार हविर्धान में जो सामिधेनी मन्त्र पढ़े जाते हैं वहां भी हविर्धान सामिधेनियों का अंग नहीं। केवल मन्त्र पढऩे का स्थान है। हविर्धान तो सोम रखने के लिये है। यह नीचे लिखे वाक्यों के परस्पर समन्वय से विदित होगा—(१) ‘‘उत यत् सुन्वन्ति सामिधेनीस्तदन्वाहु:।’’ अर्थात् सोमरस निकालने के समय सामिधेनियों का पाठ होता है। (२) ‘‘दक्षिणे हविर्धाने सोममा-सादयति।’’ अर्थात् दक्षिण हविर्धान में सोम को रख देते हैं। (३) ‘अपरेण वेदिम्’ (वेदी की दूसरी ओर)। इस वाक्य में भी देश अर्थात् जगह ही बताई गई है। अर्थात् उस वेदी की दूसरी ओर जहां सोमरस निकाला जायेगा। (सू० १५-१७) (६) यह केवल यजमान ही नहीं कर सकता। यज्ञ में बहुत से काम होते हैं। अकेला यजमान कैसे करेगा। अत: वह दक्षिणा अर्थात् पारिश्रमिक देकर १६ ऋत्विजों का प्रक्रय करता है। चार ऋत्विज् मुख्य हैं और १२ अर्थात् तीन-तीन हर एक से सहायक। पहला—अध्वर्यु जो यजुर्वेद के आदेशानुसार कार्य विभाजन करता और प्रबन्ध करता है। दूसरा—प्रतिप्रस्थाता मन्थि आहुति देता है। तीसरा—नेष्टा पत्नी को लाता है। चौथा—उन्नेता चमसे को उठाता है। यह तीन ‘अध्वर्यु’ के सहायक हैं। पांचवां—उद्गाता समस्त सामगान का अधिनायक है। उसके तीन सहायक हैं। छठा—प्रस्तोता प्रस्तुत करता है। सातवां—प्रतिहर्ता ले जाता है। आठवां—ब्रह्मण्य, सुब्रह्मण्य स्तोत्र गाता है। नवां—होता-प्रातरनुवाक आदि शास्त्र का पाठ करता है। उसके तीन सहायक हैं। दसवां—मैत्रावरुण-प्रेरणा करता है। ग्यारहवां—अच्छावाक यज्ञ करता है। बारहवां—ग्रावस्तुत ग्रावस्तोत्र गाता है। तेरहवां—ब्रह्मा चौदहवां—ब्रह्मणाच्छंसी पन्द्रहवां—अग्नीध्र सोलहवां—पोता सत्रहवां—यजमान स्वयम्। इनको दीक्षा देने का यह नियम है— अध्वर्युर्गृहपतिं दीक्षयित्वा ब्रह्माणं दीक्षयति। तत उद्गातारं, ततो होतारम् ततस्तं प्रतिप्रस्थाता दीक्षयि-त्वाऽर्धिनो दीक्षयति, ब्राह्मणाच्छासिनं ब्रह्मण:, प्रस्तोतार-मुद्गातु:, मैत्रावरुणं होतु:। ततस्तं नेष्टा दीक्षयित्वा तृतीयिनो दीक्षयति आग्नीध्रं ब्रह्मण:, प्रतिहर्तारमुद्गातु:, अच्छावाकं होतु:। ततस्तमुन्नेता दीक्षयित्वा पादिनो दीक्षयति, पोतारं ब्रह्मण:, सुब्रह्मण्यमुद्गातु:, ग्रावस्तुतं होतु:। ततस्तमन्यो ब्राह्मणो दीक्षयति, ब्रह्मचारी वाऽऽचार्यप्रेषित:। (भाष्य सू० ३.७.३७) अध्वर्यु पहले गृहपति अर्थात् यजमान को दीक्षित करता है। फिर ब्रह्मा को, फिर उद्गाता को, फिर होता को। ये चार अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता को, फिर होता को। ये चार अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता और होता पूरी दक्षिणा के अधिकारी हैं। प्रतिप्रस्थाता अध्वर्यु को दीक्षा देकर प्रथम सहायकों को दीक्षा देता है। इनको आधी दक्षिणा दी जाती है। इसलिये इनका नाम अर्धी है। ब्रह्मा के प्रथम सहायक को ब्राह्मणाच्छंसी कहते हैं। उद्गाता के प्रथम सहायक को प्रस्तोता। होता के प्रथम सहायक को मैत्रावरुण। इस प्रकार चार अर्धी हुये प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मच्छंसी, प्रस्तोता और मैत्रावरुण। नेष्टा प्रतिप्रस्थाता को दीक्षा देकर द्वितीय सहायकों को दीक्षा देता है। उनको ‘तृतीयी’ कहते हैं क्योंकि उनको तिहाई दक्षिणा दी जाती है। ब्रह्मा के द्वितीय सहायक अग्नीध्र को,उद्गाता के द्वितीय सहायक प्रतिहर्ता को और होता के द्वितीय सहायक अच्छावाक् को। इस प्रकार चार तृतीयी ये हुये नेष्टा, अग्नीध्र, प्रतिहर्ता और अच्छावाक्। उन्नेता नेष्टा को दीक्षित करके तृतीय सहायकों को दीक्षा देता है। उनको ‘पादी’ कहते हैं। क्योंकि उनको एक पाद अर्थात् चौथाई दक्षिणा दी जाती है। ब्रह्मा के तृतीय सहायक पोता को, उद्गाता के तृतीय सहायक सुब्रह्मण्य को, होता के तृतीय सहायक ग्रावस्तुत को। इस प्रकार चार ‘पादी’ हुये उन्नेता, पोता, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत। (सब मिलाकर सोलह हुये। यजमान १७वां)। उन्नेता को दीक्षा कोई दूसरा ब्राह्मण या आचार्य द्वारा भेजा हुआ कोई ब्रह्मचारी देता है। यजमान केवल उत्सर्ग करता है, अर्थात् वह ऋत्विजों को दक्षिणा देकर उनकी सेवाओं को क्रय या प्रक्रय करता है। यही ऋत्विज् होते हैं। अन्य काम करनेवालों को ऋत्विज् नहीं कहते क्योंकि वरण इन्हीं का होता है और दक्षिणा इन्हीं को दी जाती है। (देखो सू० २२) शमिता१ और उपगा भी इन्हीं १७ में से होते हैं। शमिता पशु का वध करता है। यह काम यजमान भी कर सकता है चाहे यजमान ब्राह्मण हो चाहे न हो। (सू० २८) ‘उपगा’ उपगान करता है। अध्वर्यु उपगान नहीं कर सकता। कोई अन्य ऋत्विज् करेगा। (सू० ३०) गृहपति सबका स्वामी है। यज्ञ उसी के लिये है। अन्य उसके सहायक हैं। (सू० ३९) इन १७ के अतिरिक्त ‘चमसाध्वर्यु’ होते हैं जो चमसों को लेकर एक पंक्ति बांधकर चलते हैं। (सू० २७) सोम बेचने वाला भी ऋत्विजों से अलग ही होता है। (सू० ३१) ऋत्विजों के काम अलग-अलग शास्त्र में बांट दिये गये हैं। उन्हीं के अनुसार कार्य होता है। जैसे ‘होतु: प्रातरनुवाकमनुब्रुवत उप-श्रुणुयात्।’ यहां प्रातरनुवाक कहना होता का काम है। ‘उद्गीथ उद्गातृणां, ऋच: प्रणव: उक्थशंसिनां, प्रतिहारो अध्वर्यूणाम्।’ उद्गीथ पढऩा उद्गाता का काम है। ऋचा और प्रणव पढऩा उक्थशंसियों का। प्रतिहार काम है अध्वर्यु लोगों का, परन्तु कहीं-कहीं विशेष कारण से विशेष ऋत्विजों से अन्य काम भी लेना होता है। जैसे ‘योवाऽध्वर्यो: स्वंवेद स्ववानेव भवति। एतद्वाध्वर्यो: स्वं यदाऽश्रावयति’ (तै०सं० ३.१.२.३) अर्थात् यह अध्वर्यु की अपनी बात है कि वह आग्नीध्र के द्वारा ‘होता’ से ‘अश्रावय’ कर्म करावे। इसी प्रकार जब कई काम एक साथ हो रहे हों और नियत ऋत्विजों को अवकाश न हो तो उस दशा में दूसरों से काम ले लिया जाय। जैसे ‘तस्मान् मैत्रावरुण: प्रेष्यति चानु चाऽऽहृ’ इति (तै०ब्रा० ३.१२.९.५)। प्रेष्य कर्म अध्वर्यु का था क्योंकि वह ‘आध्वर्यव’ कर्म के अन्तर्गत है परन्तु करना पड़ा मैत्रावरुण को। इसी प्रकार पुरोनुवाक ‘होत्र’ कर्म है। ‘होता’ को करना चाहिये था। परन्तु करना पड़ा मैत्रावरुण को। जहां ‘प्रेष्य’ और पुरोनुवाक् अलग-अलग होंगे वहां मैत्रावरुण इन कामों को न करेगा (सू० ४४)। श्रुति में ‘च’ इसी समुच्चय का बोधक है। चमसाऽध्वर्यु होम कर्म करना तो अध्वर्यु को चाहिये परन्तु जब अध्वर्यु अशक्त हो और जब उसी कर्म को दूसरे करते हैं तो अध्वर्यु के सादृश्य के कारण उनका नाम भी चमसाध्वर्यु हो जाता है। ‘श्येन याग’ औद्गात्र कर्म है अर्थात् सामवेदीय। अत: उद्गाता को ही करना चाहिये। उसके अन्तर्गत कांटा छेदने का काम भी उद्गाता ही करेगा। क्योंकि लिखा है ‘श्येने कण्टकैर्वितुदन्ति’ ‘उद्गातारो वितोत्स्यन्ति।’ वाजपेय याग ‘आध्वर्यव’ या यजुर्वेदीय कर्म है उसको अध्वर्यु करेगा, उषंपुट अर्पण करने का काम भी अध्वर्यु को ही करना है। लिखा है ‘उषंपुटैरर्पयन्ति’ (श०ब्रा० ५.२.१.१६) (सूत्र ५१)