व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ६ सूत्र १ सत ४७ तक की व्याख्या
इस पाद में ‘अनारभ्य’ वचनों के विषय में विचार किया गया है। ‘अनारभ्य’ वचन उनको कहते हैं जो प्रकरण से अलग दिये गये हैं। यह पता नहीं चलता कि यह किस प्रकरण के वाक्य हैं पिछले पादों में वाक्य के ठीक-ठीक विनियोग की पहचान के छ: उपाय बताये गये थे। श्रुति, लिङ्ग, वाक्य, प्रकरण, स्थान या क्रम, समाख्या या नाम। यह भी बताया गया था कि जहां विरोध प्रतीत हो अर्थात् श्रुति से कोई और कृत्य प्रतीत हो, और लिङ्ग, नाम आदि से और, तो श्रुति का मान्य करना चाहिये, लिङ्ग आदि की उपेक्षा करनी चाहिये। ऊपर की छ: पहचानों में उत्तरोत्तर निर्बल है। परन्तु ‘अनारभ्य’ वचनों में इन छ: में से कोई एक भी पहचान नहीं होती। वचन अकेले असम्बद्ध से लगते हैं। आचार्य ने उन्हीं का निर्णय इस पाद में किया है।
यहां एक बात और याद रखनी चाहिये। यज्ञ दो प्रकार के हैं। एक प्रकृति-याग, दूसरे विकृति याग। प्रकृति याग वह है जिनमें अङ्गों का पूरा-पूरा विधान है। विकृति-याग वह हैं जिनमें किसी विशेष अङ्ग का विधान दिया, शेष अङ्गों को बताया नहीं। वे अंग वहीं होंगे जो प्रकृति-याग के हैं। हर प्रकृति-याग के कुछ विकृति याग होते हैं। एक लौकिक उदाहरण इस प्रकार समझना चाहिये। कल्पना कीजिये एक पिता अपने घरवालों को आदेश देता है कि ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिये। यह प्रकृति कर्म हैं। पिता हर अंग को निश्चित करता है। सत्कारपूर्वक निमन्त्रण देना, घर पर उनको प्रणाम करना, पैर धुलाना, आसन पर बिठाना, भोजन को थालियों में परोसना, भोजन में क्या-क्या होना, भोजन के पश्चात् हाथ धुलाना, फिर नमस्कार पूर्वक उनको विदा करना। इन सबको प्रकृति-याग के अंग या धर्म कहेंगे। इसी के साथ पिता यदि यह भी आदेश देवे कि श्री ब्रह्मदत्त जी को निमन्त्रण दे देना। तो श्री ब्रह्मदत्त जी का निमन्त्रण यह विकृति-याग है। पिता ने ‘निमन्त्रण देना’ केेवल इतना ही आदेश दिया, अन्य अंग नहीं बताये। इसका अर्थ यह तो है नहीं कि केवल बुलाओ, खिलाओ नहीं। वस्तुत: पिता का तात्पर्य तो यह है कि ब्राह्मणों के विषय में जितने अंग बताये गये वे सब समान रूप से ब्रह्मदत्त जी पर भी लागू होंगे, कोई छूटेगा नहीं। इसको कहते हैं प्रकृति-याग के प्रकरण से धर्मों को खींचकर विकृति के प्रकरण में ले आना। खींचकर ले आने के इस काम का नाम है ‘अतिदेश’, नियम यह है कि ‘प्रकृति के धर्मों का विकृति में अतिदेश१ होता है।’ इस नियम को ‘चोदक नियम’ कहते हैं, ‘चोदक नियम’ का संकेत शास्त्र में पदे-पदे मिलेगा। उसको समझ लेना चाहिये।
‘अनारभ्य वचनों’ में आचार्य ने यही बताया है कि अमुक वाक्य का सम्बन्ध प्रकृति याग से है या विकृतिये याग से। दर्शपूर्णमास प्रकृति याग है। इसके विकृति याग ये हैं—
‘ज्योतिष्टोम’ प्रकृति याग है। इसके विकृति याग ये हैं, अति-अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, आप्तोर्यामा।
‘राजसूय’ प्रकृति याग है। इसके विकृति याग ये हैं—वसोर्धारा, राष्ट्रभृत्, वाजसवीय, पयोव्रत इत्यादि।
यहां एक प्रश्न और उठता है। यदि एक वाक्य प्रकृति याग से सम्बद्ध है ऐसा बताया गया तो चोदक नियम से उसका अति देश विकृति-याग में भी होगा। अत: सभी अनारभ्य वाक्यों को प्रकृति-याग से सम्बन्धित क्यों मान लिया जाय। इसका उत्तर यह है कि कभी-कभी कोई धर्म विकृति-याग का विशेष होता है। वह न तो प्रकृति-याग के प्रकरण में दिया होता है न विकृति के प्रकरण से खिंचकर प्रकृति में जा सकता है। जैसे ऊपर के दृष्टान्त में कल्पना कीजिये कि ब्रह्मदत्त को कोई रोग है कि वह शक्कर नहीं खा सकता। तो उसके भोजन में शक्कर-शून्य पदार्थ देने होंगे। यह केवल ब्रह्मदत्त का धर्म है। वह अन्य ब्राह्मणों पर लागू न होगा। वह प्रकृति का धर्म नहीं, केवल विकृति का है। इसी प्रकार इस पाद में विस्तार से यह बताया गया है कि अमुक कर्म प्रकृति का धर्म है या विकृति का। अब इनके उदाहरणों को एक-एक करके लेते हैं।
(१) यस्य खादिर-स्रुचो भवति, स छन्दसामेव रसेनावद्यति, सरसा अस्य आहुतयो भवन्ति। यस्य पर्णमयी जुहूर्भवति, न सा पापे श्लोकं शृणोति। (तै०सं० ३.५.७.१)
यहां स्रुक् पात्र खदिर का हो और जुहू पलाश की लकड़ी की। यह प्रकृति-याग से सम्बन्धित है।
(२) ‘‘सप्तदश सामिधेनीरनुब्रूयात्।’’ यहां सामिधेनियों१ की १७ संख्या विकृति से सम्बन्ध रखती है, प्रकृति-याग से नहीं। प्रकृति याग में १५ सामिधेनियों का विधान है। १७ की संख्या विशेष अवस्था में है। (सू० ९)
(३) ‘‘गोदोहनेन पशुकामस्य प्रणयत्।’’=पशु की कामना वाला जल को दूध दूहने के पात्र में ले जावे।
‘‘बैल्वो ब्रह्मवर्चस् कामेन कर्तव्य:’’ (तै०सं० २.१.८.१)
(ब्रह्मवर्चस् की इच्छावाला बेल की लकड़ी का यूप बनावे) ये दोनों आदेश प्रकृति-याग (दर्शपूर्णमास) के लिये हैं, विशेष कामनाओं के कारण यह विशेषता है। (देखो सू० १०)
(४) ‘‘ब्राह्मणो वसन्ते अग्निमादधीत’’=ब्राह्मण वसन्त में अग्न्याधान करे।
इसी के सम्बन्ध में पवमान-इष्टियां दी हैं—‘‘अग्नये-पवमानाय अष्टाकपालं निर्वपेत्। अग्नये पावकाय, अग्नये शुचये।’’ यह पवमान आहुतियां अग्न्याधान का अंग हैं। अग्न्याधान पवमान-आहुतियों का अंग नहीं। पवमान आहुतियां दी ही जाती है अग्नि को जीवित रखने के लिये। क्योंकि तै०सं० १.५.७.३ में श्रुति है-‘‘जीर्यति वा एष आहित: पशुर्वदग्नि:, तदेतान्येव अग्न्याधे-यस्य हवींषि संवत्सरे निर्वपेत्। तेन वा एष न जीर्यति। तेनेनं पुनर्नवं करोति।’’=जैसे बिना खाये पशु दुबला हो जाता है इसी प्रकार यह अग्नि भी दुबला हो जाता है। पवमान हवियां इसको दुबला होने नहीं देतीं। वह नया ‘ताजा’ हो जाता है।१
अग्न्याधान का वसन्त में होना बताता है कि यह सभी कर्मों के लिये है न केवल दर्शपूर्ण मास आदि प्रकृति यागों के लिये, न केवल ‘ज्योतिष्टोम’ आदि के लिये। अपितु प्रकृति दोनों के लिये है। (देखो सूत्र ३.६.१५ तथा ३.७.३९)
(५) पवमान आहुतियां साधारण अग्नि में ही दी जाती हैं। संस्कृत अग्नि में नहीं। (देखो सूत्र १६, १७)
(६) ज्योतिष्टोम के सम्बन्ध में तीन पशुओं का उल्लेख है। अग्नीषोमीय, सवनीय और अनुबन्ध्या। इन पशुओं के सम्बन्ध में ६ उपाकरण दिये हैं—(१) दो मंत्र पढक़र पशु का स्पर्श करना वे दो मंत्र ये हैं—प्रजापतेर्यजमाना इति और इमं पशुं इति (तै०सं० ३.१.४०), (२) उपानयन, पशु को आगे ले जाना, (३) अक्षया-बन्ध: या रस्सी से बांधना, (४) यूपे नियोजनम्—यूप में बांधना, (५) विशसनम्—काटना। यहां निर्णय यह है कि ये छह उपाकरण केवल अग्नीषोमीय पशु के होंगे। अन्य दो के नहीं। (सू० १८-२७)
(७) दो बार गाय दुही जाती है। शाम को ‘सायं दोहं’ होता है। सवेरे ‘प्रात: दोह’। इनमें कुछ क्रियायें भी करनी पड़ती हैं उपाकरण जैसी, (१) शाखा हरणं—बछड़े को हांकने के लिये शाखा तोडक़र लाना, (२) गवां प्रस्थापनं—गायों को खड़ा करना, (३) प्रस्तावनं—थनों को भिगोकर दुहने के लिये तैयार करना, (४) गोदोहनम्—दुहना। यह सब उपाकरण दोनों समय होने चाहियें। (सू० २९)
(८) प्रात: सवन में १० ग्रह (पात्र) होते हैं। इनका सम्बन्ध, इन्द्र-वायु से है। इनके कुछ ग्रह-धर्म हैं। जैसे और ग्रहों१ को उठी जगह पर रक्खे, ध्रुव ग्रहों को नीची जगह पर, ग्रहों को दशापवित्रे से मांजना आदि। इन धर्मों का पालन दोपहर के सवन और सायं सवन में ही होना चाहिये। (सू० ३०)
(९) ‘ज्योतिष्टोम’ यज्ञ में अग्नीषोमीय पशु होता है। ‘‘यो दीक्षितो यदग्नीषोमीयं पशुमालभेत’’ (तै०सं० ६.१.११.६) इस पशु की रस्सी के सम्बन्ध में एक आदेश है, ‘‘त्रिवृत् भवति, दर्भमयी भवति, प्रपिष्टानां कत्र्तव्या च’’ अर्थात् यह रस्सी तिलरी हो, दर्भ की हो, अच्छी तरह पीटे हुये दर्भ की हो।’’ रस्सी के यह धर्म केवल अग्नीषोमीय पशु की रस्सी के लिये ही नहीं हैं। सवनीय आदि सभी पशुओं की रस्सी ऐसी ही होनी चाहिये। क्योंकि यद्यपि सवनीय याग प्रकृति-याग नहीं है फिर भी उसके सम्बन्ध में लिखा है ‘‘आश्विनं ग्रहं गृहीत्वा त्रिवृता यूपं परिवीय आग्नेयं सवनीयं पशुमुपाकरोति।’’ तथा ‘‘स वै आश्विनं ग्रहं गृहीत्वोपनिष्क्रम्य यूपं परिव्ययति।’’ यहां सवनीय पशु का स्पष्ट कथन है।
(१०) उपांशु ग्रह और अदाभ्य ग्रहों का उल्लेख यद्यपि ज्योतिष्टोम यज्ञ के प्रकरण में न करके उससे दूर औपक्षदानुवाक्य काण्ड में किया है तो भी ग्रहों के जो कत्र्तव्य ज्योतिष्टोम के प्रकरण में दिये हैं (रखना, मांजना आदि) वह उपांशु और अदाभ्य ग्रहों के साथ भी होने चाहियें क्योंकि यह ग्रह ज्योतिष्टोम याग के उपकारक हैं।
(११) प्रकरण से दूर भी दिये होने पर धर्मों के लागू होने का एक दूसरा उदाहरण भी है। कुछ ईंटों को वेदी में चिनने का विधान है—‘चित्रिणीरुपदधाति, वज्रिणीरुपदधाति, भूतेष्टका उपदधाति।’ चित्रिणी, वज्रिणी, भूतेष्टका यह ईंटों के नाम हैं, इनके विषय में कुछ धर्म बताये हैं जैसे ‘अखण्डामकृष्णलामिष्टकां कुर्यात् भस्मनेष्टका: संयुज्यात्’ अर्थात् ईंटें टूटी न हों, काली न हों, उन पर भस्म लगी हो। चित्रिणी, वज्रिणी आदि का कथन तो तै०सं० ५.७.६.१ में अलग है और ईंटों के अखण्डल, अकृष्णल, भस्म लिपटी होने का उल्लेख अलग अग्न्याधान के प्रकरण में है। फिर भी चित्रिणी, वज्रिणी आदि पर भी ये धर्म लागू माने जायेंगे। अर्थात् ये ईंटें भी अखण्ड, अकृष्णल और भस्मयुक्त होनी चाहियें। क्योंकि वह भी अग्न्याधान याग का अङ्ग हैं।
(१२) १०वीं और ११वीं धारा में तो उन धर्मों को बताया गया था जो दूर कथित चीजों पर भी लागू होते हैं। परन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं जहां लागू नहीं होने चाहियें। जैसे सोम खरीदते हैं तो उसके सम्बन्ध में कुछ कृत्य हैं जैसे उपावहरण (लाना), क्रय (खरीदना), अभिषव (निचोडऩा)। यदि यजमान क्षत्रिय या वैश्य हो तो सोम का प्रयोग नहीं होता। उसके स्थान में न्यग्रोध अर्थात् बरगद की कोंपलों का होता है। अत: क्रय आदि कृत्य न्यग्रोध के साथ न होंगे।
(१३) परन्तु कभी-कभी मुख्य चीज उपस्थित न होने पर उससे मन्द या उसी के कुछ समान दूसरी चीज लेकर काम चला लेते हैं। जैसे अच्छे व्रीहि न हों तो खराब ही सही, खराब भी न हों तो ‘नीवार’ चावल ही सही। इसी प्रकार सोम न मिले तो ‘पूतीक’ ही सही। इन प्रतिनिधि द्रव्यों के कूटने, पीसने आदि संस्कारों के भी वही नियम हैं, जो मुख्य द्रव्यों के। (देखो सू० ३७-४०)
(१४) शास्त्र में ज्योतिष्टोम की चार संस्थायें दी हुई हैं। अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, अतिरात्र। कहीं-कहीं सात बताई हैं, पांचवीं अत्यग्निष्टोम, छठी वाजपेय, सातवीं आप्तोर्यामा। जब अग्निष्टोम उक्थ्य और षोडशी स्तोत्रों के पीछे अग्निष्टोम यज्ञ किया जाता है तो उसी को ‘अत्यग्निष्टोम’ कहते हैं जब अत्यग्निष्टोम यज्ञ और वाजपेय स्तोत्रों के पीछे षोडशी यज्ञ किया जाता है तो उसे ‘वाजपेय’ कहते हैं। जब अतिरात्र के पीछे बारह स्तोत्र तीन बार पढ़े जाते हैं और चौथी बार तीन अतिरिक्त स्तोत्र पढ़े जाते हैं तो इसका नाम है ‘आप्तोर्यामा’। (देखो षड्दर्शन चिन्तनिका)
संस्था का अर्थ है ठहरना, किसी बड़े यज्ञ में सूक्तों का पाठ होता है। जैसे अग्निष्टोम में १२ सूक्त पढ़े जाते हैं। बारहवें सूक्त पर ठहरते हैं। अन्तिम सूक्त अग्निष्टोम है। अत: संस्था का नाम ही अग्निष्टोम संस्था है। इस प्रकार ज्योतिष्टोम में चार या सात संस्थायें हैं। ज्योतिष्टोम के कुछ धर्म भी गिनाये हैं जैसे दक्षिणीय आदि।
यहां सिद्धान्त यह है कि यह धर्म केवल अग्निष्टोम पर लागू होंगे। अन्य तीन या ६ संस्थाओं पर नहीं।१