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Meemansa दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :तद्वच्च शेषवचनम् १५
सूत्र संख्या :15

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद ५ सूत्र १ सत ५३ तक की व्याख्या इस पाद में शेष कर्म या प्रतिपत्ति कर्म का वर्णन है। यदि किसी चीज का अपना काम निकल चुके और कुछ बच जाय तो बचे-कुचे को किसी दूसरे उपयोग में लगा देना प्रतिपत्ति या शेष कर्म कहलाता है। जैसे जब सब लोग खा चुके और बटलोई में खिचड़ी का खुरचन बचा रहे तो उसे कुत्ते को खिला दें। यह प्रतिपत्ति कर्म या शेष कर्म है। खिचड़ी कुत्ते के लिए पकाई नहीं गई थी। जिनके लिये पकाई गई वह खा चुके। अब तो जो बचा-कुचा है उसे किसी काम में लगाना है। अत: यह प्रतिपत्तिकर्म है। यज्ञ की समाप्ति पर कई चीजें बची रहती हैं। जैसे कुश जिन पर पात्र रखते हैं अथवा जल अथवा घृत आदि जो आहुतियों के पीछे बचा रहता है। इस सब बचे-कुचे भाग का भी एक विधि से कुछ न कुछ उपयोग किया जाता है। यह प्रतिपत्ति कर्म है। इस पाद में यही विचार किया जाएगा कि कौन-सा कर्म प्रतिपत्ति कर्म है, कौन-सा नहीं। (१) ‘स्विष्टकृत्’ और ‘इडा’ आहुतियां प्रतिपत्ति कर्म हैं। उपांशु याज में जो आज्य या घृत रक्खा जाता है वह प्रतिपत्ति कर्म की आवश्यकता नहीं रखता, क्योंकि मुख्य आहुतियां देने के पश्चात् कुछ बचता ही नहीं। अत: ‘स्विष्टकृत्’ आहुति में उसका प्रयोग इष्ट नहीं है ‘शाकं प्रस्थायीय’ यज्ञ में कुछ शेष नहीं बचता। ‘सौत्रामणि यज्ञ’ में भी शेष नहीं रहता। (देखो सूत्र १-१५) (२) ‘सर्वपृष्ठ’ यज्ञ में कई कर्म अलग-अलग हैं। जैसे— इन्द्राय राथन्तराय, इन्द्राय बार्हताय, इन्द्राय वैरूपाय, इन्द्राय वैराजाय, इन्द्राय शाक्वराय। (तै०सं० २.३.७.२) इन आहुतियों में द्रव्य भी एक है और देवता भी एक है। केवल छन्दों के सामों का भेद है जैसे रथंतर, बृहत्, वैरूप, वैराग शक्वरी। पुरोडाश भी एक ही है, भिन्न नहीं। स्विष्टकृत् आहुति के लिये केवल एक ही शर्त दी गई है अर्थात् ‘उत्तराद्र्धात् स्विष्टकृते समवद्यति’ (तै०सं० २.६.६.५) अर्थात् स्विष्टकृत् की आहुति पिछले भाग में से देवे। अत: स्विष्टकृत् कर्म तो होगा एक साथ एक बार। (देखो सूत्र १७) (३) प्रतिपत्ति कर्म दो प्रकार के हैं। एक तो आहुति देकर बची-कुची चीज को अग्नि के अॢपत कर देना। दूसरे ‘भक्ष’ अर्थात् खा जाना। यहां ‘भक्ष’ के उदाहरण दिये जाते हैं—(देखो १८-५३)। (अ) ज्योतिष्टोम में ऐन्द्रवायु के ग्रह के शेष में से दो बार भक्षण हो। (सू० १७) (आ) ज्योतिष्टोम में सोमाहुतियों के शेष का भी भक्षण हो। (सू० १९-२१) यह भक्षण चमसियों को करना चाहिये। चमसी वह ऋत्विज हैं जो चमसों को पकड़े रहते हैं। इनमें उद्गाता, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत सभी को भक्षण का अधिकार है। (सू० २२-३०) (इ) सोम भक्षण के अधिकार का निमित्त वषट्कार बोलना, होम करना, सोम का रस निकालना ये सभी हैं। (सू० ३०-३५) (ई) पहला भक्षण होता को करना चाहिये। (सू० ३७-३९) (उ) बिना निमन्त्रण के सोम शेष का भक्षण कभी न करे। आज्ञा लेकर भक्षण करे। निमन्त्रण का मन्त्र यह है ‘उपह्वयस्व’ इसका उत्तर देवे ‘उपहूत:’। (ऊ) एक ही पात्र में सब सोम भक्षण करते हैं, इसको जूठा नहीं समझा जाता। सोम की यह पवित्रता मानी गई है। इसीलिये निमन्त्रण की आवश्यकता है। अपने-अपने चमस में से तो बिना आज्ञा के भी पान हो सकता था। चमसों में जो ‘होता का चमस’, ‘अध्वर्यु का चमस’ नाम है वह इसीलिये है कि उनको उनसे पीने का अधिकार है। चमस कहते ही इसलिये है कि उनसे चमस आचमन या पान किया जाता है। यजमान को भी सोम-भक्ष का अधिकार है क्योंकि वह वषट्कार करता है। (ए) यदि यजमान क्षत्रिय या वैश्य हो तो वह स्वयं यज्ञ का अधिकारी नहीं। अत: उसको सोम भक्षण के लिये नहीं देते। बरगद की कल्लियों को पीसकर दही मिलाकर फल-चमस बनाते हैं जो सोम का स्थानापन्न है। वही यजमान को पिलाते हैं। आहुतियां भी फल-चमस की ही दी जाती हैं, सोम की नहीं। असली सोम का अधिकार तो ब्राह्मण को ही है। (ऐ) ‘राजसूय’ में एक ‘दशपेय यज्ञ’ होता है। उसमें सौ ब्राह्मण दस चमसों में से सोम पान करते हैं। एक-एक चमस में दस-दस। ये ब्राह्मण ही होते हैं, क्षत्रिय नहीं होते।