सूत्र :तत्प्रधाने वातुल्यवत्प्रसंख्यानादितरस्यतदर्थत्वात् ७
सूत्र संख्या :7
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ४ सूत्र १ से ५७ तक की व्याख्या
इस पाद में यह विचार किया गया है कि श्रुति वचनों में कौन विधि है और कौन अर्थवाद।
(१) निवीतं मनुष्याणां प्राचीनावीतं पितृणामुपवीतं देवानामुपव्ययते देव लक्ष्ममेव तत्कुरुते। (तै०सं० २.५.११.१)
यह वाक्य दर्शपूर्ण मास के प्रकरण में है। परिधान या दुपट्टे को गले में डालने के तीन प्रकार हैं। ‘निवीत’१ यह है कि दुपट्टे के दोनों छोर छाती के ऊपर लटकते रहें। जैसे लोक व्यवहार में लोग गले में दुपट्टा लटका लेते हैं। ‘प्राचीनावीत’ वह है कि दाहिने कंधे से लावें और बाईं बगल से निकाल दें। ‘उपवीत’ में बायें कन्धे पर से लाकर दाईं बगल से निकाल दें। जैसे जनेऊ पहना जाता है। इस वचन में कहा कि जब मनुष्य परिधान को उपवीत या जनेऊ की भांति पहनता है तो उसमें देवत्व आजाता है।
जैमिनि आचार्य कहते हैं कि यह विधि वाक्य का नहीं है केवल अर्थवाद१ है। अर्थात् ‘उपवीत’ का विधान तो पहले हो चुका था। इसमें उपवीत की उत्तमता वॢणत हैं अर्थात् उपवीत देवत्व का चिह्न है।
(२) प्राचीं देवा अभजन्त। दक्षिणां पितर:। प्रतीचीं मनुष्या:। उदीचीमसुरा: (उदीची रुद्रा: वा)।
(तै०सं० ६.१.१.१)
यहां भी ऊपर की भांति ‘प्रतीची मनुष्या:’ यह दिशाओं का विभाग अर्थवाद ही है।
(३) (अ) यत् परुषितं तद्देवानां, यदन्तरा तन् मनुष्याणां यत् समूलं तत् पितृणाम्। (तै०ब्रा० १.६.८.६)
यहां सोम के काटने का विषय है। बीच में से काटना या जड़ से काटना ठीक नहीं। पौरुओं पर काटना ठीक होगा। अत: यह अर्थवाद है।
(आ) यो विदग्ध: स नैर्ऋत:। योऽशृत: स रौद्र:। य: शृत: स सदेवत्यम्। तस्मादविदहता श्रपमितव्यं सदेवत्वाय।
(तै०सं० २.६.३.४)
यहां पुरोडाश पकाने का विषय है। जल जाना या अधपका रहना ठीक नहीं। अच्छी तरह पक जाना ही अच्छा है। अत: ‘य: शृत: सदेवत्यम्’ यह अर्थवाद है।
(इ) यत् पूर्णं स मनुष्याणां, उपरि अद्र्धो देवानाम्। अद्र्ध: पितृणाम्। (तै०सं० १.६.८.४)
यहां ‘उपरि अद्र्धोदेवानाम्’ यह अर्थवाद है।
(ई) घृतं देवानां, मस्तु पितृणां, निष्पक्वं मनुष्याणाम्।
(तै०सं० ६.१.१.४)
शरीर पर घी मलने का विषय है। ‘घृत’ से मलना सबसे अच्छा है। म_े से या आधी पिघली हुई लौनी से मलना ठीक नहीं। इसलिये यह भी अर्थवाद है।
(४) ‘नानृतं वदेत्’ (तै०सं० २.५.५.६)। ‘झूठ न बोले’ यह आदेश केवल दर्शपूर्ण मास याग का अङ्ग है। साधारण उपदेश नहीं है जैसे स्मृतियों में हुआ करता है। इसको याग का अंग इसलिए बताया कि झूठ बोलने पर प्रायश्चित्त भी याग की ही एक क्रिया है जैसे प्रायश्चित्त की आहुति देना। स्मृति वाली झूठ बोलने की सजा का तात्पर्य यहां नहीं है।
(५) यहां दो आदेश हैं एक तीर्थ स्नान और दूसरा जंभाई आने पर एक मंत्र के पाठ द्वारा प्रायश्चित्त।
अङ्गिरसो वा इत उत्तमा: सुवर्गं लोकमायन् ते अप्सु दीक्षा-तपसी प्रावेशयन्। तीर्थेस्नाति तीर्थमेव सजातानां भवति। (तै०सं० १.२.३)।
यहां अङ्गिरसों ने स्वर्ग जाते हुये दीक्षा और तप को जलों में रख दिया। अत: तीर्थों में स्नान करना चाहिये।
तस्माद् जंजृभ्यमानोऽनुब्रूयात् मयि दक्षक्रतू इति।
(तै०सं० २.५.२.४)।
जंभाई आने पर ‘मयिदक्षक्रतू’ इति (यजु० ३८.२७) यह मंत्र प्रायश्चित्त रूप से पढऩा चाहिये।
यह दोनों कर्म यज्ञ-सम्बन्धी हैं। साधारण जीवन के स्नान या जंभाई से इनका सम्बन्ध नहीं।
(६) अब कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें निषेध कर्म हर मनुष्य के लिये हैं और हर अवस्था के लिए। अर्थात् यह कर्म कभी न करे। यह निषेध यज्ञ तक सीमित नहीं हैं।
जैसे ब्राह्मण को मारना या धमकाना नहीं चाहिये।
(अ) देवा वै शंयुं बार्हस्पत्यं अब्रुवन् हव्यं नो वह।
(तै०सं० २.६.१०.१)।
(देवों ने बृहस्पति के पुत्र शंयु से कहा ‘हमारे लिये हवि ले चलो।’ उसने कहा, ‘किं मे प्रजाया:’ (मुझे प्रजा से क्या लेना?) उन्होंने—‘यो ब्राह्मणायावगुरेत्। तं शतेन यातयात्। यो निहनत् तं सहस्रेण यातयात्। यो लोहितं करवत्, यावत: प्रस्कंद्य पांसून् संगृहणात् तावत: संवत्सरान् पितृलोकं न प्रजानीयात्।’ =जो ब्राह्मण को धमकाये उस पर सौ रुपये जुर्माना हो, जो मारे उस पर १०००, जो रक्त बहावे उसके रक्त की जितनी बूंदें गिरें उतने वर्षों तक उसे पितृलोक में जगह न मिले)।
(आ) मलवद् वाससा न संवदेत्। नास्या अन्नमद्यात्।
(तै०सं० २.५.१.६)
रजस्वला स्त्री से सम्पर्क न करे, न उसका छुआ अन्न खाये।१
ये निषेध के कर्म हैं। इसी प्रकार कुछ ऐसे हैं जिनको करना चाहिये। वह भी सभी समयों के लिये हैं केवल यज्ञ के लिये नहीं, जैसे सोना पहनना और अच्छे कपड़े पहनना। (तै०ब्रा० २.२.४.६)। (सू० २०)।
(७) जया, राष्ट्रभृत् और अभ्यातान आहुतियां वैदिक कर्म हैं, लौकिक नहीं। ये आहुतियां, अध्वर्यु काण्ड में हैं, और आहवनीय अग्नि में दी जाती हैं।
जया होम में १३ आहुतियां हैं ‘चित्तं च स्वाहा’ आदि से। राष्ट्रभृत में १२ हैं, ‘ऋताषाट्’ आदि से अभ्यातान में १८ आहुतियां हैं, ‘अग्रिभूतानां’ आदि से।
(देखो हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र १.३.९, यजु० १८-३८, तै०सं० ३.४.५.१) (सूत्र २५, २६, २७)।
(८) (अ) प्रजापति: वरुणाय अश्वमनयत्। स स्वां देवतां अच्छेत्। सपर्यदीर्यत। स एवं वारुणं चतुष्कपालम-पश्यत्। तं निरवपत्। ततो वै स वरुण पाशादमुच्यत।
(आ) यावतोऽश्वान् प्रतिगृöीयात् तावतो वारुणान् चतुष्कपालान् निर्वपेत्। (तै०सं० २.३.१२.१)
यहां ‘अनयत्’ का अर्थ है ‘दान में दिया’। ‘प्रतिगृöीयात् का अर्थ है दान में देवे’ (न कि दान में लेवे)। यहां चार कपालों पर पुरोडाश पकाकर आहुतियां देना प्रायश्चित्त है और इसका सम्बन्ध यज्ञ से है। (सूत्र २८-३३)
(९) सोमयाग वैदिक यज्ञ है, उसमें सोमपान करने के पश्चात् यदि यजमान को वमन हो जाय तो सोमेन्द्र इष्टि करके प्रायश्चित्त करना चाहिये। यह प्रायश्चित्त ऋत्विजों के वमन पर न होगा क्योंकि यज्ञ तो यजमान के कल्याण के लिये ही किया जाता है।
सोमेन्द्रं चरुं निर्वपेच्छयामाकं सोमवामिन:।१
(तै०सं० २.३.२.७) (सूत्र ३३-३६)
(१०) दर्शपूर्णमास में जो आठकपालों पर चरु पकाया जाता है उसके केवल दो भागों की आहुति दी जाती है। शेष से स्विष्टकृत् आहुति दी जाती है। स्विष्टकृत् आहुति सभी शेषों से देनी चाहिये। यदि एक से ही देनी है तो पहले शेष से। (देखो सूत्र ३७-४७)
(११) पुरोडाश के जो चार विभाग किये जाते हैं वह भक्ष के लिये। (देखो सूत्र ४८-५१)२