सूत्र :धर्मोपदेशाच्च न हि द्रव्येण सम्बन्धः४
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ३ सूत्र १ सत ४५ तक की व्याख्या
अब तक यह बताया था कि लिङ्ग के अनुसार मन्त्रों का विनियोग किस प्रकार हो। इस पाद में यह निश्चय किया है कि वाक्य के अनुसार मन्त्रों का विनियोग किस प्रकार होना चाहिए।
(१) पहली बात तो यह निश्चित थी कि जहां लिखा है कि ऋग्वेद१ और सामवेद को उच्च स्वर से पढऩा चाहिये। यजुर्वेद को उपांशु अर्थात् धीमे स्वर से, वहां तात्पर्य पूरे वेदों से है मन्त्रों के पुकार से नहीं अर्थात् पूरे यजुर्वेद को चाहे उसमें ऋचायें (पद्य) हों या यजु: (गद्य), उपांशु स्वर में पढ़ा जायगा। इसी प्रकार अन्यत्र भी। एक उदाहरण भी दिया कि अग्न्याधान में जो सामगान होता है वह यजुर्वेद सम्बन्धी होने से उपांशु स्वर में होना चाहिये। (देखो सू० ३.३.१.९)२
इसी प्रकार ज्योतिष्टोम यजुर्वेदीय कृत्य है इसलिये उसमें भी जो सामगान होगा वह उपांशु होगा। ज्योतिष्टोम के यजुर्वेदी होने की पहिचान यह है कि उसमें यजुर्वेदीय गुणों का बाहुल्य है। (सू० १०)।३
(२) कौन-सा वाक्य किस याग से सम्बन्धित है इसकी तीन पहचानें तो पहले बता दी गईं। (१) श्रुति जैसे ‘ऐन्द्रया गार्हपत्यम्’ यहां श्रुति में गार्हपत्य याग का स्पष्ट विधान है। (२) लिङ्ग जैसे ‘बर्हिर्देव सदनं दामि’। यहां ‘कुश’ का अर्थ लिङ्ग वचन से ज्ञात हुआ। (३) वाक्य से, जैसे ‘अरुणया कृणाति’ (देखो सू० ३.१.१२ पर शाबरभाष्य) परन्तु जब इन तीनों पहचानों का अभाव हो तो प्रकरण से जानना चाहिये। (४) प्रकरण जैसे ‘समिधो यजति’, ‘तनूनपातं यजति’, ‘इडोयजति’, ‘बर्हिर्यजति’, ‘स्वाहाकारं यजति’। (तै०सं० २.६.१.१) ये वाक्य दर्शपूर्ण मास के प्रकरण में दिये हैं अत: इनका विनियोग वहीं समझना चाहिये।१ इनका ज्योतिष्टोम या अग्निष्टोम से सम्बन्ध नहीं। (५) क्रम से भी पहचान होती है। जैसे—एक स्थल पर आग्नेय, उपांशुयाज और अग्नीषोमीय का एक क्रम से उल्लेख है। इसी क्रम से तीन मन्त्र भी हैं—पहला मन्त्र है—‘अग्ने रहं देव यज्यया’ इत्यादि, दूसरा मन्त्र है—‘दब्धिर्नामासि’ इत्यादि, तीसरा मन्त्र है—‘अग्नीषोमीययोरहम्’ (तै०सं० १.६.११.६, श्रौतसू० १.४.२.४) इसलिये क्रमानुसार ‘दधिर्नामासि’ यह मन्त्र उपांशुयाज में पढऩा होगा।१ (६) आख्या या नाम, जैसे जिस कर्म को ‘आध्वर्यवम्’ कहा, उसका अध्वर्यु को करना होगा।
(३) श्रुति, लिङ्ग, वाक्य, प्रकरण, स्थान (क्रम), (समाख्यान) (नाम) इन छ:२ पहचानों में जहां सन्देह को वहां पहले कहे हुओं को पिछलों की अपेक्षा अधिक बली समझना चाहिये। अर्थात् श्रुति सबसे बली है और नाम सबसे कमजोर है। श्रुति अधिक माननीय है लिङ्ग से, लिङ्ग अधिक माननीय है वाक्य से, वाक्य अधिक माननीय है प्रकरण से, प्रकरण अधिक माननीय है क्रम से, क्रम अधिक माननीय है नाम से। इनके उदाहरण देखिये।
(अ) ऐन्द्रया गार्हपत्यमुतिष्ठते। (मै०सं० ३.२.४) यहां श्रुति में ‘गार्हपत्य’ का विनियोग स्पष्ट दिया है। लिङ्ग से इन्द्र का उपस्थान प्रतीत होता है क्योंकि ‘ऐन्द्रया’ शब्द है। यहां श्रुति ने लिङ्ग का बाध कर दिया। यह विनियोग श्रुति के अनुसार ‘गार्हपत्य में ही समझना चाहिये।’ ‘ऐन्द्री’ श्रुति यह हैं—‘कदाचनस्तदीरसि, नेद्रसश्चसि दाशुषे।’ (ऋ० ८.५१.७) इस मन्त्र में ‘इन्द्र’ देवता का उपस्थान लिङ्ग द्वारा ज्ञात होता है। परन्तु मन्त्र में उपस्थान सूचक कोई शब्द नहीं। ‘ऐन्द्रय गार्हपत्यं उपतिष्ठते’ में स्पष्ट है कि गार्हपत्य उपस्थान किया जाय।
(आ) अब लिङ्ग और प्रकरण के विरोध में लिङ्ग माननीय होगा। इसका उदाहरण यह है—
(१) स्योनं ते सदनं कृणोमि घृतस्य धारया सुशेवं, कल्पयामि।
(२) तस्मिन् सीदामृते प्रतितिष्ठ व्रीहीणां मेध सुमनस्यमान:। (तै०ब्रा० ३.७.५.२.३) (मानवश्रौतसूत्र १.२.६.१९)
यहां प्रकरण है दर्शपूर्णमास का। उसमें दो काम होते हैं। कुश बिछाना और पुरोडाश रखना। इसलिये यदि प्रकरण को बड़ा समझा जाय तो ये दोनों वाक्य मिलकर दोनों कृत्यों में पढ़े जाने चाहियें। परन्तु ‘स्योनं ते सदनं कृणोमि’ इसमें ‘सदनं’ लिङ्ग है कुछ बिछाने की। अत: कुश बिछाने में पहला भाग पढऩा चाहिये। और ‘व्रीहीणां मेध’ यह पुरोडाश का लिङ्ग है अत: दूसरा भाग ‘तस्मिन्’ इति पुरोडाश के रखने में पढऩा चाहिये। लिङ्ग ने प्रकरण का बाध कर लिया।
(इ) प्रकरण से वाक्य बली है—प्रकरण का अर्थ है (प्र= प्रारम्भ, करण-क्रिया अर्थात् प्रक्रिया) विधि-आदि अर्थात् विधि के आरम्भ का वर्णन, विधि कैसे पूरी हो और विध्यन्त अर्थात् उसका नतीजा क्या हो। इसी सबके वर्णन को प्रकरण कहा है।
सूक्तवाक निगद में दो मन्त्रांश आते हैं—
(१) अग्नीषोमाविदं हविरजुषेताम्। अवीवृधेतां महो ज्यायो क्राताम्।
(२) इन्द्राग्नी इदं हविरजुषेतां महो ज्यायो क्राताम्।
(तै०ब्रा० ३.५.१०.३)
यहां वाक्य बली है अत: संख्या (१) को पूर्णमास में और संख्या (२) को दर्श-इष्टि में विनियुक्त करना चाहिये। प्रकरण को अधिक मान्यता दी जाती तो दोनों टुकड़ों को मिलाकर पढऩा पड़ता इस प्रकार—
पूर्णमास इष्टि में-‘अग्नीषोमाविदं हविरजुषेतां महो ज्यायो क्राताम् अवीवृधेतां महो ज्यायो क्राताम्।’ यहां ‘इन्द्राग्नी’ छोड़ दी जाए क्योंकि पूर्णमासी का देवता ‘इन्द्राग्नी’ नहीं है।
दर्श-इष्टि में-‘इन्द्राग्नी इदं हविरजुषेतां अवीवृद्धेतां महो ज्यायो क्रातां, अवीवृद्धेतां महो ज्यायो क्राताम्।’ यहां ‘अग्नी-षोमौ’ छोड़ दिये जायें क्योंकि दर्श-इष्टि के देवता ‘अग्नीषोमौ’ नहीं है।
वाक्य के बली होने से दोनों वाक्यों को मिलाया नहीं गया।
(ई) प्रकरण और क्रम का विरोध—राजसूय प्रकरण में कई मुख्य इष्टियों का क्रमश: विधान है। उनमें से एक को अभिषेचनीय-कर्म कहते हैं। उसमें शुन:शेप की कथा की जाती है। यदि प्रकरण को बलवान् माना जाय तो यह सभी इष्टियों का अङ्ग है। यदि क्रम को बलवान् माना जाय तो केवल अभिषेचनीय का ही। सिद्धान्त यह है कि प्रकरण बलवान् है।
(उ) क्रम और समाख्या का विरोध—पौरोडाशिक नामी काण्ड में सान्नाय्य के क्रम में शोधन का मन्त्र आता है—‘शुन्धध्वं दैव्याय कर्मणे’ (तै०सं० १.१.३.१) इस मन्त्र से पात्र धोते हैं। यदि केवल ‘नाम’ पर ही बल देते तो केवल पुरोडाश के पात्रों का ही शोधन करते। परन्तु क्रम बली होने से सान्नाय्य (दही) आदि के सभी पात्र मांजने चाहियें।
यह श्रुति, लिङ्ग, वाक्य, प्रकरण, क्रम और नाम की क्रमश: प्रथमता और बलवत्ता का नियम समस्त साहित्य में ठीक बैठता है।
(४) अब कुछ आकस्मिक विरोधों के उदाहरण लेते हैं।
(१) तिस्र एव साह्नस्योपसदो द्वादशाहीनस्य। (तै०सं० ६.२.५.१)
यहां १२ उपसद अहीन यज्ञों के हैं।१
(२) ज्योतिष्टोम के प्रकरण में दो विधि वाक्य है जिनमें प्रतिपद मन्त्र पढ़े जाने का विधान है। प्रतिपद वे मन्त्र हैं जो स्तोत्र के पहले पढ़े जाते हैं।
पहला प्रतिपद यह है—युवं हि स्थ: स्वर्यती (ऋग्वेद ९.१९.२, साम उत्तर० ६.४.३) इसको उद्धृत करके पंचविंश ब्राह्मण (६.१०.१४) में कहा है ‘इति द्वयोर्यजमानयो प्रतिपदं कुय्र्यात्’ ज्योतिष्टोम में दो या अधिक यजमान होते ही नहीं। अत: इस प्रतिपद को हटाकर ‘कुलाय’ आदि उन यज्ञों में विनियुक्त करना चाहिये जिनमें दो यजमान होते हैं।
इसी प्रकार एक और प्रतिपद है—‘एते असृगमिन्दव:।’ इत्यादि (ऋ०वे० ९.६२.१) (सामवेद उ० ४.१) इसके विषय में पंचविंश ब्राह्मण (६, ९-१३) में आदेश है। ‘इति बहुभ्यो यजमानेभ्य:।’
इस प्रतिपद को भी ज्योतिष्टोम के प्रकरण से हटाकर ‘द्विरात्र’ आदि उन यज्ञों में ले जाना चाहिये जिनमें कई यजमान होते हैं। इसको ‘द्वित्व बहुत्व न्याय’ कहते हैं (देखो सत्र ३.३.१७ ‘द्वित्व-बहुत्वयुक्तं वा चोदनात् तस्य’)।
(५) अब कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहां वाक्यों का अर्थ संदिग्ध है। जैसे ‘जाघनी’ (पशु की पूंछ) पत्नीसंयाज आहुतियों में निॢदष्ट है। यह दर्शपूर्ण मास के ही अन्तर्गत है। इसको वहां से हटाकर पशु याग (ज्योतिष्टोम) में ले जाना नहीं चाहिये।
सन्तर्दन अर्थात् सोम पीसने के पाटों का किसी खूंटी आदि से बांध देने का काम ज्योतिष्टोम के उक्थ्यादि सत्रों में ही होना चाहिये। सोम अधिक होने से उसके पीसने के लिये पाट भी सुदृढ़ होने चाहियें।
प्रवग्र्य कर्म केवल पहले ज्योतिष्टोम में न हो।
पूषा के चरु को पीसकर देना चाहिये। क्योंकि लिखा है कि पूषा के दांत नहीं होते। ‘पूषा प्रपिष्टभागो अदन्तक:’ (तै०सं० २.६.८.५)। यह ‘चरु’ केवल राजसूय यज्ञ के विकृति याग वाला ही होगा और उसी आहुति के लिये चरु पीसा जायेगा जिसमें केवल पूषा देवता है। कोई और देवता साझीदार नहीं।
यहां ‘पूषा’ देवता को बिना दांत वाला बताना केवल अर्थवाद है। क्योंकि जैमिनि आचार्य ने एक सूत्र लिखकर इसको स्पष्ट कर दिया। ‘हेतुमात्रमदन्तत्वम्’ (३.३.४५)। शबरस्वामी ने इस सूत्र पर टिप्पणी दी है ‘अर्थवाद एष:।’