सूत्र :लिङ्गविशेषनिर्देशात्समा-नविधानेष्वनैन्द्राणाममन्त्रत्वम् २९
सूत्र संख्या :29
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद २ सूत्र १ से ४५ तक की व्याख्या :
इस पाद में उन मन्त्रों पर विचार किया गया है जो यज्ञों में विनियोग के रूप में दिये गये हैं ये मन्त्र उन यज्ञों के शेष हैं।
मन्त्रों के दो प्रकार के अर्थ होते हैं। एक ‘मुख्य’ अर्थ जो शब्दों के सीधे अर्थों से, बिना अन्य की सहायता के निकलते हैं। दूसरे ‘जघन्य’ या निचले। इनको ‘गौण’ भी कहते हैं। यह अर्थ किसी उपपद आदि के द्वारा जाने जाते हैं। ‘मुख’ से ‘मुख्य’ बनता है। ‘जंघा’ से ‘जघन्य’। ‘गुण’ से ‘गौण’।
मोटा सिद्धान्त यह है कि विनियोग में आये हुये मंत्रों का मुख्य अर्थ लेना चाहिये। ‘गौण’ या ‘जघन्य’ नहीं। इसके उदाहरण यह हैं—
(१) ‘बॢहर्देवसदनं दामि’=मैं कुश को काटता हूं, जो देवों के बैठने का स्थान है। यहां बर्हि का मुख्य अर्थ कुश है। (सू० ३.२.१.२) यही लेना चाहिये।
(२) यदि श्रुति में अन्यथा नियोग दिया हो तो श्रुति के द्वारा कथित अर्थ लिया जाय। मुख्य अर्थ छोड़ दिया जाय, क्योंकि श्रुति के समक्ष किसी की ननु नच नहीं चलती। जैसे ‘निवेशन: संगमनो वसूनाम्’ इत्यैन्द्रिया गार्हपत्यमुपतिष्ठते। (मै०सं० ३.२.४)। ‘निवेशन:’ इति मन्त्र ऐन्द्री अर्थात् ‘इन्द्र’ सम्बन्धी है। परन्तु श्रुति ने यह आदेश दिया कि इस मन्त्र से गार्हपत्य अग्नि का उपस्थान करो। यहां विनियोग में मुख्य अर्थ का त्याग कर दिया गया। (सू० ३.२.३४)
(३) मुख्य अर्थ लेना ‘उत्सर्ग’ है। भिन्न अर्थ लेना ‘अपवाद’ है। अब प्रश्न यह रहता है कि कहां अपवाद है और कहां उत्सर्ग। एक उदाहरण यह है—
‘हविष्कृत् एहि’ इति त्रिरवघ्नन्नाह्वयति।’ (‘हविष्कृत् एहि’ त्रि: अवघ्नन् आह्वयति)। यहां प्रश्न यह है कि ‘हविष्कृत् एहि’ इस मन्त्र का क्या अर्थ लिया जाय? और ‘अवघ्नन्’ का क्या अर्थ? ‘हविष्कृत्’ का अर्थ है हवि को बनानेवाली। अर्थात् यजमान की पत्नी इसलिये ‘हविष्कृत् एहि’ का अर्थ हुआ ‘हे पत्नी, तू आ।’ यजमान यह मन्त्र पढक़र पत्नी को बुलाता है। ‘अवघ्नन्’ के दो अर्थ हो सकते हैं। हाथ पर हाथ मारकर आवाज करना, जैसे जब किसी को दूर से बुलाते हैं तो हथेली पर हथेली मारते हैं। दूसरा अर्थ होता है ‘धान कूटना।’ यहां ‘अवघ्नन्’ शतृ प्रत्यय है जो लक्षण और हेतु के अर्थ में आता है। ‘‘लक्षणहेत्वो: क्रियाया:’’ (पाणिनि सू० ३.३१.२६)। अत: यहां मुख्य अर्थ ही लेना चाहिये। अर्थात् तीन बार हथेली मारकर यह कहकर बुलाता है—‘हे पत्नी, तू आ।’ (देखो सू० ३.२.५-९)
(४) इसी प्रकार ‘उत्तिष्ठन्नत्वाह। अग्नीदग्नीन् विहर’ (तै०सं० ६.१.४.४) का सीधा अर्थ है उठकर आदेश देता है कि हे अग्नीद, अग्नियों को ठीक कर तथा ‘व्रतं कृणुतेति वाचं विसृजति’ (तै०सं० ६.१.४.४) का अर्थ यह है कि व्रत करो ऐसा कहता है। यहां मुख्य अर्थ में ही विनियोग है। (देखो सू० ३.२.१०)
(५) ‘सूक्तवाकेन प्रस्तरं प्रहरति’ (तै०ब्रा० ३.४.१.१) ‘इदं द्यावापृथिवी भद्रमभूत्’ इत्यादि मन्त्र को ‘सूक्तवाक’ कहते हैं। यहां तात्पर्य यह कि इस सूक्तवाक को पढक़र प्रस्तर होम करते हैं। क्योंकि सूक्तवाक को यज्या कहा है। (यया इज्यते सा याज्या) प्रस्तर कुश का प्रहरण या आग में फेंकना भी यज्ञ है। अत: इस सूक्त का विनियोग उसी प्रस्तर-प्रहरण यज्ञ में हुआ है। (देखो सू० ११-१५)
(६) ‘सूक्तवाक’ में कई मन्त्र हैं। उनके अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं। अत: जो मन्त्र पूर्णमास का अर्थ देते हैं उनको पूर्णमास में पढऩा चाहिये। जो दर्श-इष्टि का अर्थ देते हैं उनको दर्श इष्टि में। बिना अर्थ समझे समस्त सूक्तवाक दोनों जगह नहीं पढऩा चाहिये।१
(७) यदि काम्य-इष्टियों की एक सूची हो और याज्या अनुवाक्या मन्त्रों की एक सूची हो तो लिङ्ग-क्रम-समाख्या (नाम) से पता लगा लेना चाहिये कि कौन-सी याज्या अनुवाक्या किस काम्य-इष्टि में विनियुक्त है। जैसे एक सूची याज्यानुवाक्या की है—
(अ) इन्द्राग्नी रोचना दिव:—(ऋ० ३.१२.९) यह याज्या है प्रवर्षणिभ्य: इति (मै०सं० ४.१०.४) यह अनुवाक्या है।
(आ) इन्द्राग्नी नवतिं पुरो-इति—(ऋ० ३.१२.६) यह याज्या है। श्लथद्वृत्रं-इति (मै०सं० ४.१२.५) यह अनुवाक्या है।
इसी प्रकार काम्येष्टियों की सूची है—
(क) ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेद् यस्य संजाता व्यायु:।
(ख) ऐन्द्राग्नमेकादक्षकपालं निर्वपेद् भ्रातृव्यान्।
(ग) अग्नये वैश्वानराय द्वादश कपालं निर्वपेद् रुक्काम:।
(घ) अग्नये वैश्वानराय द्वादश कपालं निर्वपेत् सपत्नम-भिद्रोष्यन्।
यहां लिङ्ग क्रम और समाख्या तीनों मिलकर यह निर्णय करेंगे कि कौन-सी याज्या और अनुवाक्या किस काम्य-इष्टि में नियुक्त होनी चाहिये। न तो केवल ‘लिङ्ग’ और ‘क्रम’ से ही काम चलेगा, न केवल ‘समाख्या’ या नाम से।
(८) आग्नेय्या आग्नीध्रमुपतिष्ठते, ऐन्द्रया सद:। वैष्णव्या हविर्धानम्।
इसका अर्थ है कि आग्नेयी ऋचा पढक़र आग्नीध्र के पास जावे, ऐन्द्री ऋचा पढक़र सदस में और वैष्णवी ऋचा पढक़र हविर्धान में।
वेद में अग्नि देवता वाली (आग्नेयी) ऋचायें बहुत हैं। इसी प्रकार इन्द्रवाली, इसी प्रकार विष्णुवाली। परन्तु यहां केवल वही एक ऋचा पढऩी चाहिये जो प्रकरण में दी है। सब नहीं। यहां लिङ्ग और प्रकरण दोनों का समान आदर करना है। जो ऋचा प्रकरण में दी है उसका लिङ्ग है आग्नेयी होना। अन्य आग्नेयी ऋचायें लिङ्ग ठीक होते हुये भी प्रकरण के अनुकूल न होगी अत: ग्राह्य नहीं। इसी प्रकार अन्यों पर भी यही नियम लागू होगा। (देखो सू० ३.२.२०-२३)
(९) (अ) भक्षो हि मा विश दीर्घायुत्वाय शंतनुत्वाय, रायस्पोषाय वर्चसे, सुप्रास्त्वाय।
(आ) एहि वसो पुरोवसो प्रियो मे हृदोऽस्यश्विनोस्त्वा बाहुभ्यां सध्यासम् (स्ड्डद्दद्ध4ह्यड्डद्व)।
(इ) नृचक्षं त्वा देव सोम सुचक्षसा अवख्येषम्।
(ई) हिन्व मे गोत्रा हरिवो गणान्मे मा वितीतृष:।
(उ) शिवो मे सप्तर्षोनुपतिष्ठस्व मा मेऽवाङ् नाभिमतिगा:।
(ऊ) मन्द्रमभिभूति: केतुर्यज्ञानां वाग् जुषाणा सोमस्य तृप्यतु। वसुमद्गणस्य रुद्रवद् गणस्य आदित्यवद्गणस्य सोम देव ते मतिविद: प्रात: सवनस्य माध्यन्दिनस्य सवनस्य तृतीयसवनस्य गायत्रच्छन्दसस्त्रिष्टुप् छन्दसो जगच्छन्द-सोऽग्निष्टुत इन्द्र पीतस्य नराशंस पीतस्य पितृपीतस्य मधुमत उपहूतस्योपहूतो भक्षयामि इत्यादि। (तै०सं० ३.२.५.१.३)
यह पूरा ‘भक्षानुवाक’ कहलाता है। परन्तु इसके कई भाग हैं और उनके अलग-अलग लिङ्ग हैं। उन लिङ्गों के अनुसार उनका विनियोग है। जैसे ‘एहि’ से लेकर ‘सध्यासम्’ तक ‘आ’ भाग ‘ग्रहण’ करने के लिये है। सध्यासम् ‘सधि हिंसायाम्’ धातु से बनता है। परन्तु इसके पहले ‘बाहुभ्यां’ शब्द आया है। बाहु करण हैं। ‘बाहुभ्यां सध्यासम्’ का अर्थ हुआ दोनों बाहों से ग्रहण करता हूं।
‘नृचक्षं’ से लेकर ‘अवख्येषम्’ तक ‘इ’ भाग दर्शन अर्थात् देखने के अर्थ में है। जो चीज खाने के लिये ली जाय उसे भली भांति देख लेना चाहिये।
‘हिन्व’ से लेकर ‘अतिगा:’ तक ‘ई’ और ‘उ’ भाग मिलकर सम्यग्-जरण अर्थात् पचाने के अर्थ में हैं। ‘ऊ’ भाग ‘मन्द्रमभिभूति’ से लेकर ‘भक्षयामि’ तक पूरा एक मंत्र है (दो नहीं) और इसका विनियोग भक्षण अर्थ में है।
यहां यह प्रश्न उठता है कि यह ‘ऊ’ भाग पूरा मन्त्र तो इन्द्र के लिये जो सोमाहुति दी जाती है उसी के शेष भक्ष में पढ़ा जासकता है। जो हवियां अन्य देवताओं के लिये दी जाती हैं उनके शेष भक्ष के साथ कोई मन्त्र पढ़ा जाना चाहिये या नहीं क्योंकि श्रुति में कोई मन्त्र नहीं दिया। इसका निर्णय इस प्रकार है कि मन्त्र तो यही है और यह सभी देवताओं के शेष भक्षों के साथ पढ़ा जायेगा। कुछ लोगों का कहना था कि ‘ऊह’ के साथ पढऩा चाहिये अर्थात् जहां देवता ‘मित्रावरुण’ है वहां ‘इन्द्रपीतस्य’ के स्थान में ‘मित्रावरुण पीतस्य’ ऐसा बोलेंगे। परन्तु आचार्य जैमिनि की अन्तिम सम्मति यह है कि ऊह भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि ‘इन्द्रपीतस्य’ यह ‘सोमस्य’ का विशेषण नहीं। ‘प्रात: सवनस्य’ का विशेषण है। अत: भक्ष-शेष का सम्बन्ध सभी देवताओं से है केवल ‘इन्द्र’ से नहीं।
सारांश यह है कि मन्त्रों का विनियोग लिङ्ग के अनुसार होना चाहिये।