सूत्र :संसर्गेचापिदोषः स्यात् २२
सूत्र संख्या :22
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ४ सूत्र १ से ४२ तक की व्याख्या
अध्याय १२, पाद ४
(१) जय, आशीर्वाद, स्तुति और अभिधान (बुलाने) के मन्त्रों का समुच्चय होना चाहिये। क्योंकि इनके अभिप्राय अलग-अलग हैं। (सू० २)
(२) ऐन्द्रबार्हस्पत्य यज्ञ में याज्या और अनुवाक्या मंत्रों के कई जोड़े दिये हैं। पहला जोड़ा—
याज्या:—इदं वामास्ये हवि: प्रियमिन्द्राबृहस्पती।
उक्थं मदश्च शस्यते। (ऋ० ४.४९.१)
अनुवाक्या:—
बृहस्पतिर्न: परिपातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरा दधायो:।
इन्द्र: पुरस्तादुत मध्यतो न: सखा सखिभ्यो वरिव: कृणोतु।
(ऋ० १०.४२.११)
इन जोड़ों में से एक कोई विकल्प से लेना चाहिये। समुच्चय का नियम लागू नहीं होगा। (सू० ३)
(३) सोम खरीदने के लिये जो बकरी, सोना आदि कई चीजें दी हैं उनका समुच्चय होगा। अर्थात् वे सब चीजें दी जायेंगी। (सू० ६)। ‘अजया क्रीणाति।’ ‘हिरण्येन क्रीणाति।’
(४) अग्न्याधेय में दक्षिणाओं के कई विधान हैं। एक दे, छ: दे, बारह दे। यहां विकल्प है, समुच्चय नहीं। (सू० ९)
(५) अग्न्याधान के सम्बन्ध में एक ‘उख्या’ अग्नि होती है। ‘सन्तापेनाग्निं जनयति’ (गर्मी से अग्नि को उत्पन्न करता है)। इसी प्रकरण में एक श्रुति है-‘वृक्षाग्राञ् ज्वलतो ब्रह्मवर्चसकामस्य-ऽऽहृत्यादध्यात्। भ्राष्ट्रादन्नाद्यकामस्य। वैद्युताद् वृष्टिकामस्य।’ अर्थात् जिसको ब्रह्मवर्चस की कामना हो वह जलते हुये वृक्ष के अग्रभाग से आग लावे और रक्खे। अन्नादि की कामना वाला अंगीठी से आग लावे। वृष्टि की कामना वाला बिजली की अग्नि लावे।’
ये अग्नियां उखा की नित्य अग्नि के स्थान में होती हैं। नित्य अग्नि और काम्य अग्नि का समुच्चय इष्ट नहीं है (सू० २०)। काम्य अग्नि आहवनीय अग्नि नहीं है (सू० २७)। और न इसके संस्कार होते हैं (सू० २९)। यह नित्य धारणा नहीं की जाती (सू० ३१)।
(६) सत्र और अहीन यज्ञों में कुछ ऐसे कर्म हैं जो किसी अन्य प्रयोजन से किये जाते हैं। जैसे ‘शुक्रं यजमानोऽन्वारभते’ अर्थात् यजमान शुक्र ग्रह को छूता है। अथवा ‘यजमान-संमिता-उदुम्बरी भवति’ अर्थात् उदुम्बर की लकड़ी यजमान के बराबर हो। इन यज्ञों में यजमान तो कई होते हैं। अत: इस काम को कोई एक यजमान विकल्प में कर सकता है। कोई विशेषता नहीं (सू० ३२,३३)। शुक्र का स्पर्श तो केवल गृहपति ही करेगा (सू० ३४)। परन्तु अभिषेक आदि संस्कार तो सभी यजमानों के होंगे।
(७) ऋत्विज् बनने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है (सू० ४७)।