सूत्र :देशपृथक्त्वान्मन्त्रोव्यावर्तते ४३
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद १ सूत्र १ से ४५ सूत्र तक की व्याख्या
११वें अध्याय में तंत्र का वर्णन था। १२वें में ‘प्रसङ्ग’ का वर्णन होगा। तंत्र और प्रसङ्ग में यह भेद है कि तन्त्र तो पहले से सोचकर किया जाता है कि एक ही काम कई उपकारों का साधक होगा। जैसे सहभोज के समय बीच में दीपक रख दिया कि हर मनुष्य तक प्रकाश पहुंच सके। यह सबके साझे की चीज है और साझे का उपकार करने के लिये ही बनाई गई हैं, परन्तु प्रसङ्ग में चीज तो एक ही काम के लिये की जाती है परन्तु वह सामीप्य के कारण दूसरे उपकारों की भी साधक होती है। जैसे महल में दीपक जलाया तो केवल महल के लिये जाता है परन्तु उसका प्रकाश सडक़ पर चलने वालों का भी उपकारक होता है। यज्ञों के प्रकरण में बहुत से ऐसे कृत्य मिलेंगे जो विधान में तो एक उपकार के लिये दिये हैं परन्तु साथ ही उनसे दूसरे उपकार भी सम्पन्न हो जाते हैं। तन्त्र और प्रसङ्ग में मुख्य भेद यह है कि तन्त्र में तो अङ्ग साझे की चीज होते हैं। प्रसङ्ग में अङ्गों में साझा नहीं होता, उपकार में साझा होता है, वस्तुत: उपकारों का भी साझा नहीं है। केवल जो काम एक लाभ के लिये किया जाता है उससे दूसरा लाभ भी प्राप्त हो जाता है।
प्रसङ्ग कहां पर लागू होता है कहां पर नहीं, इसके उदाहरण दिये जाते हैं—
(१) जो प्रयाज, अनुयाज आदि कर्म अग्नीषोमीय पशु के उपकारक होते हैं उनसे ही पशु-पुरोडाश का भी उपकार हो जाता है। पशु पुरोडाश क लिये अन्य प्रयाज आदि का अनुष्ठान करना नहीं पड़ता। (सू० ३)
पशु पुरोडाश में दो आज्यभाग आहुतियाँ देनी चाहियें। (सू० ७)
यह विशेषत: कहने की आवश्यकता इसलिये हुई कि पशु याग में आज्यभाग आहुतियां नहीं दी जातीं। उनकी प्राप्ति प्रसङ्ग से नहीं, अपितु चोदक नियम से है। प्रसङ्ग ने चोदक नियम का बाध नहीं किया।
(२) सोम याग की पशु-याग आदि इष्टियों में दर्श-पूर्ण मास के लिये बनाई हुई वेदी ही प्रसङ्ग-नियम से काम में आ जाती है नई वेदी नहीं बनानी पड़ती। (सू० ९)
(३) ज्योतिष्टोम में सवनीय-पुरोडाश आदि की आहुतियाँ दर्श-पूर्णमास के पात्रों ध्रुवा आदि से ही देनी चाहियें, ग्रह, चमसा आदि से नहीं। (सू० ११)
(४) ‘कौण्डपायिनामयन’ याग में अग्निहोत्र की हवियों को प्रजाहित-अग्नि अर्थात् गार्हपत्य अग्नि में ही पकाना चाहिये। (सू०१३)
नोट—शालामुखीय अग्नि को केवल ज्योतिष्टोम के लिये श्रुति के आधार पर गार्हपत्य मान लिया गया। ‘कौण्डपायिनामयन’ में शालारुखीय को गार्हपत्य नहीं माना गया। यहां उसका नाम प्रजाहित अग्नि है। पुराने आचार्य गार्हपत्य को ‘प्राजहित’ नाम से ही पुकारते थे।
(५) प्रायणीय आदि इष्टियों में दीक्षा-जागरण अलग-अलग होना चाहिये। (सू० १७)
(६) वरुण प्राघास में दक्षिण विहार में प्रति-प्रस्थाता को मंत्र अलग बोलने चाहियें। (सू० १८)
(७) सोम याग में दक्षिणीय आदि कर्मों में अग्नि अन्वाधान की क्रिया करनी नहीं पड़ती। क्योंकि अग्नि तो पहले से ही लाई हुई वहां उपस्थित होती है। उसी से काम चल जाता है। (सू० १९)
(८) सोमयाग में प्रायणीय आदि इष्टियों में दर्श-पूर्ण मास सम्बन्धी व्रत भी नहीं लेने पड़ते। (सू० २१)
(९) सोमयाग के इष्टि-अङ्गों में अग्नि-अन्वाधान करना नहीं पड़ता। पहले रक्खी हुई अग्नि से ही काम चल जाता है। अग्नि-अन्वाधान के समय जो देवता का वरण करते हैं वह भी पहले ही हो चुकता है। अत: यह कृत्य फिर दुहराने की आवश्यकता नहीं पड़ती (सू० २४)। पत्नी संवहन भी पहले हो चुकता है। अत: यहां भी प्रसङ्ग लागू होगा। फिर दुहराने की आवश्कता नहीं। (सू० २९)
(१०) दर्शपूर्णमास यागों में वन की वस्तुओं को खाने के आदेश हैं—‘‘यदाऽऽरण्यानश्नाति तेनाऽऽरण्यानथो। इन्द्रियं वा अरण्यं। इन्द्रियमेवात्मं धत्ते।’’ इस आरण्य भोजन की प्राप्ति चोदक नियम से प्रायणीय आदि इष्टियों में भी है। परन्तु इन इष्टियों में इसका निषेध किया है। ‘पयोव्रतं ब्राह्मणस्य, यवागूराजन्यस्य, आमिक्षा वैश्यस्य।’ यह भोजन का विधान कर दिया गया। प्रसङ्ग-नियम से यही प्रायणीय आदि इष्टियों में भी काम देगा (सू० ३०)। परन्तु इन इष्टियों में इडा-भक्षण आदि शेष भक्षों का निषेध नहीं है। यह तो होना ही चाहिये (सू० ३१)। हां, अन्वाहार्य दक्षिणा नहीं होनी चाहिये (सू० ३२)। शेष भक्ष होगा परन्तु परिक्रय (पारिश्रमिक) के रूप में नहीं (सू० ३४)। होताओं का वरण भी होगा।
(११) आतिथ्या इष्टि में बॢह को काटते हैं। तो उसके साथ कुछ कृत्य भी करने होते हैं जैसे ‘प्रोक्षण’ (धोना), अग्राणां उपपातनं (नोकों को तोडक़र फेंक देना), मूलानां अवसेचनं (जड़ों में पानी देना)। यही आतिथ्या के लिये काटा हुआ बॢह उपसदों और अग्निषोमीय में भी काम आता है। परन्तु प्रोक्षणादि क्रियाओं में प्रसङ्ग नियम लागू होगा। अर्थात् बार-बार ये क्रियाएं नहीं करनी पड़ेंगी (सू० ४३)। परन्तु स्तरण मंत्र तो आतिथ्या, उपसद और अग्नीषोमीय में बार-बार पढऩा होगा। क्योंकि स्तरण-कर्म अलग-अलग है (सू० ४४)। अग्निषोमीय कर्म के लिये आतिथ्या के स्थान अर्थात् प्राग्वंश से अग्नीषोमीय के स्थान अर्थात् उत्तर वेदी तक बॢह को ले जाना पड़ता है। इसके सम्बन्ध में दो मंत्र पढ़े जाते हैं एक तो ‘संनहन’ अर्थात् पूला बांधने का मंत्र ‘पूषाते ग्रन्थिं बध्नाति’। दूसरा ‘हरण’ या ले जाने का मन्त्र, ‘बृहस्पतेर्मूध्र्ना हरामि।’ इन मन्त्रों के पाठ अलग-अलग नहीं होंगे। इनमें प्रसङ्ग नियम होगा। क्योंकि स्तरण कर्म तो अलग-अलग हैं परन्तु संनहन और हरण तो साझे की चीज हैं। (सू० ४६)।