सूत्र :स्वप्ननदीतरणाभिवर्षणामेध्यप्रतिमन्त्रणेषु चैवम् ५१
सूत्र संख्या :51
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ४ सूत्र १ से ५७ तक की व्याख्या :
(१) राजसूय यज्ञ में पूर्व त्रि-संयुक्त और उत्तर त्रि-संयुक्त दो अलग-अलग समुदाय हैं। इनमें आग्नावैष्णव और सोमापौष्ण आहुतियां अलग-अलग देनी चाहियें, तंत्र भाव नहीं होना चाहिये (सू० ३)। परन्तु कर्ता अर्थात् ऋत्विज् एक ही होते हैं। वही सब समुदायों को कराते हैं। यजमान पहले ही वरण करते समय कह देता है—‘अनेन मां राजसूय संज्ञकेन कर्मसमुदायेन याजयत।’ (सू० ५)
(२) राजसूय के अन्तर्गत एक ‘अवेष्टि’ यज्ञ होता है। उसके अङ्गों में तन्त्र-भाव नहीं है। वे अलग-अलग करने होते हैं। वस्तुत: ‘अवेष्टि’ यज्ञ राजसूय का भाग नहीं है। राजसूय तो केवल क्षत्रिय ही करता है—‘राजा राजसूयेन’ इति। परन्तु अवेष्टि तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों ही कर सकते हैं। (सू० १०)
(३) अग्न्याधान में जो तीन पवमान आहुतियां देनी होती हैं उनमें तन्त्र भाव नहीं होता। उनको अलग-अलग देना चाहिये। (सू० १३)
(४) द्वादशाह में दीक्षा, उपसत्, सुत्या हर एक में बारह-बारह दिन लगते हैं (सू० २२)। सुत्याकालीन अङ्ग भी अलग-अलग होने चाहियें। (सू० २३)
(५) उपसदों के काल में ‘सुब्रह्मण्य’ का आह्वान विना ‘ऊह’ के होना चाहिये (सू० २८)। अर्थात् ‘आगच्छ मघवन्’ के शब्दों में हेरफेर करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि मघवा तो इन्द्र दी है।
(६) ‘अश्वप्रतिग्रह’ इष्टि में हर पुरोडाश के लिये अलग कपाल होना चाहिये (सू० ४०)।
(७) दर्शपूर्ण मास में निर्वपण, लवण, स्तरण, आज्य ग्रहण ये क्रियायें होती हैं—
(अ) निर्वपण—‘चतुरोमुष्टीन् निर्वपति’=चार मु_ी अन्न निकालता है। इस कर्म पर जो मंत्र पढ़ा जाता है वह यह है ‘देवस्यत्वा’ इत्यादि।
(आ) लवन—अर्थात् बर्हि को काटना—इस का मंत्र है ‘बर्हिर्देवसदनं दामि’।
(इ) स्तरण—ढकना या छप्पर की तरह छाना।
इसका मन्त्र है—‘ऊर्णाम्रदसं त्वा स्तृणामि।’
(ई) आज्यग्रहण या घी निकालना—मंत्र यह है ‘धाम नामासि, शुक्रं त्वा शुक्राया धाम्ने धाम्ने’।
इन चारों कर्मों में मंत्र बार-बार पढऩे चाहियें जिससे हर द्रव्य अलग-अलग संस्कृत हो सके। यहां तंत्र भाव नहीं होना चाहिये। चार मु_ी अन्न निकालने पर चार बार मंत्र पढ़ा जाय। (सू० ४५)
परन्तु वेदी धोने या प्रोक्षण का मंत्र एक ही बार पढ़ा जायगा। यद्यपि वेदी तीन बार धोयी जाती है—‘त्रि: प्रोक्षति’। जो प्रोक्षण क्रिया का मंत्र है वह यह है ‘वेदिरसि बॢहषे त्वा’ इत्यादि (सू० ४७)
(९) ज्योतिष्टोम में अङ्ग खुजलाने का मंत्र है—‘कृषिषु स्यामकृष:’। यह मंत्र एक ही बार पढ़ा जाता है चाहे शरीर के कई अङ्गों को खुजलाना पड़े। (सू० ४९)
(१०) ज्योतिष्टोम में एक मंत्र सोने का है—‘त्वमग्ने व्रतपा असि’। एक मंत्र नदी पार करने का है ‘देवीराप:’ इति।
एक वर्षा से भीग जाने का मंत्र है—‘उन्दतीरोजो धत्ते’ इति। कोई अपवित्र वस्तु सामने आ जाय तो यह मंत्र पढऩा चाहिये-‘अबद्धं चक्षु:’।
यह मंत्र एक ही बार बोलने चाहियें। (सू० ५०)
(११) दीक्षित पुरुष कहीं प्रस्थान करे तो यह मंत्र पढ़े—‘भद्रादभिश्रेय: प्रेहि’। यह मंत्र एक ही बार बोलना चाहिये। (सू० ५१)
(१२) ज्योतिष्टोम में चार उपवर नाम के गड्ढे खोदने होते हैं। उनका मंत्र यह है ‘रक्षोहणो बलगहनो वैष्णवान् खनामि’। यह मंत्र हर गढ़े के खोदने पर बार-बार पढऩा होगा। तंत्र-भाव नहीं होगा। (सू० ५३)
(१३) हविष्कृत्-आह्वान, अधिगुप्रैष आदि के मंत्र हर अवसर पर बार-बार पढऩे होंगे। ज्योतिष्टोम में हर सवन के लिये अलग-अलग पुरोडाश होते हैं, उनको तैयार करने के लिये हविष्कृत् को हर बार बुलाना पड़ता है।