सूत्र :न चोदनापृथक्त्वात् ५५
सूत्र संख्या :55
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद २ सूत्र १ से ५७ तक की व्याख्या
(१) साधारण नियम यह है कि अङ्ग कर्मों के देश काल और देवता वही होते हैं जो मुख्य कर्म के (सू० ११-२-७)। परन्तु यदि विशेष वचन का आदेश हो तो अङ्गों का देश, काल और कर्ता मुख्य कर्म से अलग भी हो सकता है। जैसे ‘पूर्वेद्युरमावास्यायां वेदिं करोति’ अर्थात् अमावास्या के एक दिन पहले वेदी बनाता है। ‘अप्स्ववभृथेन चरन्ति’ अर्थात् अवभृथ याग को जलों में करते हैं। सौत्रामणि यज्ञ में वड़वा की दक्षिणा दी जाती है। वेदी बनाना, अवभृथ तथा सौत्रामणि ये अङ्ग कर्म होते हुये भी विशेष वचन के आधार पर इनका काल, देश तथा कत्र्ता मुख्य कर्म के काल देश और कत्र्ता से भिन्न हैं। (सू० १)
(२) अग्न्याधान में तन्त्र भाव है। अर्थात् अग्न्याधान हर यज्ञ के लिये अलग-अलग नहीं होता। एक बार किया हुआ अग्न्याधान सब यज्ञों में काम आता है। (सू० २)
(३) ज्योतिष्टोम में पशुयाग होते हैं। अग्नीषोमीय पशुयाग, सवनीय पशुयाग, अनुबन्ध पशुयाग। इन सब के लिये एक ही यूप होता है। अर्थात् यूप में तन्त्र-भाव है आवाप-भाव नहीं। (सू० ३)
स्वरु भी एक ही होगा। ‘स्वरु’ उस पहली चीपटी को कहते हैं जो यूप बनाते समय लकड़ी छीलने से निकलती है। स्वरु से पशु को चुपडऩे का काम लिया जाता है। (सू० ९)
(४) द्वादशाह के अहर्गणों में यदि किसी कर्ता को शरीर खुजलाने की आवश्यकता पड़ जाय तो ‘कृष्णविषाण’ या काले सींग से खुजलाते हैं। इस सींग को अंतिम दिन प्रतिपत्ति कर्म के रूप में ‘चाण्डाल’ में फेंक देना चाहिये। (सू० १४)
(५) राजसूय यज्ञ में एक ‘नानाबीजेष्टि’ होती है। इसमें नाना प्रकार के बीजों को कूटकर हवि तैयार की जाती है। कूटने का काम एक स्त्री करती है। उस स्त्री को ‘हविष्कृत्’ कहते हैं। उसे तीन बार बुलाना पड़ता है। जब जलों को लेने जाते हैं तो वाणी को रोक लेते हैं अर्थात् चुप रहते हैं। यह वाणी तब खोलनी चाहिये जब अंतिम बार हविष्कृत् को बुलाने का काम पूरा हो जाय। (सू० १५)
(६) इसी प्रकार अग्नीषोमीय याग में जब पुरोडाश तैयार करने वाली का आह्वान हो चुके तब वाणी को छोडऩा चाहिये। (सू० १६)
(७) सोम यागों में अग्नि-योग और अग्नि-विमोक दो कर्म किये जाते हैं। अग्नि-योग का अर्थ है अग्नि से यज्ञ का सम्बन्ध जोडऩा। यह कर्म एक आहुति द्वारा किया जाता है—‘अग्निं युनज्मि शवसा घृतेन इति जुहोति’=‘अग्निं युनज्मि शवसा घृतेन’ यह मंत्र पढक़र आहुति देता है। अग्निविमोक इससे जुड़े हुये सम्बन्ध को तोड़ता है। यह कर्म भी एक आहुति द्वारा होता है। ‘इमं स्तनं मधुमन्तं धयापाम्’ इति ‘अग्निविमोकं जुहोति’=‘इमं स्तनं मधुमन्तं धयापाम्’ इस मन्त्र को पढक़र अग्नि-विमोक की आहुति देता है।
यह अग्नि-विमोक कर्म हर प्रधान कर्म के अन्त में होना चाहिये। अहर्गण द्वादशाह में तो अग्नि-योग और अग्नि-विमोक प्रतिदिन करना पड़ता है—‘अहरहर्युनक्ति। अहरहर्विमुंचति।’ (सू० २२)
(८) द्वादशाह में उपसद के समय जो सुब्रह्मण्य का आह्वान होता है उसमें तंत्र भाव है अर्थात् वह एक ही बार होना चाहिये, दीक्षा के समान। दीक्षा और सुब्रह्मण्य देने का काल अलग-अलग है (सू० २१)। परन्तु सुत्याकाल में जो सुब्रह्मण्य का आह्वान है उसमें तंत्र भाव नहीं है। उसकी आवृत्ति बार-बार करनी पड़ती है। वचन में भी ऐसा ही दिया है—‘संस्थिते संस्थितेऽहनि आग्नीघ्रागारं प्रविश्य सुब्रह्मण्य सुब्रह्मण्यामाह्वय’ इति प्रेष्यति। (सू० २८)
(९) एक यज्ञ के देश, कर्ता तथा पात्र दूसरे यज्ञ में भी काम आ सकते हैं (सू० ३३)। परन्तु यज्ञ पात्र तो जीवन पर्यन्त हर यज्ञ में काम आने चाहियें क्योंकि परिधानीय कर्म में इनके प्रतिपत्ति कर्म का विधान है—‘आहिताग्निमग्निभिर्दहन्तियज्ञपात्रैश्च’ अर्थात् जब कोई आहिताग्नि मर जाय तो उसका अग्नियों में दाह कर्म करने के साथ यज्ञपात्रों को भी शव के साथ जला देते हैं (सू० ३४)। अग्न्याधान कर्म से ही यज्ञपात्रों को अलग रख छोडऩे का काम आरम्भ हो जाता है। उन्हीं पात्रों का आयु भर अन्य यागों में प्रयोग होता रहता है। जब तक कि मृतक के शव ककेक साथ उनका भी दाह कर्म न हो जाय। (सू० ४४)
(१०) वाजपेय याग में प्राजापत्य आहुतियों को सब सोम आहुतियों के पीछे देना चाहिये। (सू० ४६)
(११) सवनीय पुरोडाश में जब अनुयाजों का उत्कर्ष होता है तो सूक्तवाक् का भी उत्कर्ष होता है। वहां सवनीय पुरोडाश के देवता भी दिये हैं। अत: उनका भी उत्कर्ष होना चाहिये। (सू० ५४)