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Meemansa दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :उदयनीये च तद्वत् ६८
सूत्र संख्या :68

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद २ सूत्र १ ७० तक की व्याख्या (१) दर्शपूर्णमास समुदाय का नाम है। उसमें कई प्रधान कर्म होते हैं। जैसे आग्नेय आदि। उनके अंग भी होते हैं। इसी प्रकार चातुर्मास्य-इष्टि भी समुदाय का नाम है। इसमें भी प्रधान कर्म और अंग कर्म होते हैं। इनके देश, काल और कत्र्ता में ‘तंत्र’ का नियम लागू होता है। अर्थात् सभी प्रधान कर्मों और अंग-कर्मों का देश एक ही होता है। काल एक ही और ऋत्विज् भी एक ही। वे बदलते नहीं। दर्शपूर्ण मास के देश के विषय में श्रुति है—‘समे दर्शपूर्ण-मासाभ्यां यजेत’ अर्थात् दर्शपूर्ण मास इष्टियों के लिये समतल भूमि हो। काल के विषय में श्रुति है—‘पौर्णमास्यां पौर्णमास्ययायजेत। अमावास्यायां अमावास्यया यजेत’। (पूॢणमा को पौर्णमास इष्टि करे। अमावास्या को अमावास्या-इष्टि)। कर्ता के विषय में—‘दर्शपूर्ण-मासयोर्यज्ञक्रत्वोश्चत्वार: ऋत्विज:’=दर्शपूर्ण मास में चार ऋत्विज् होते हैं। चातुर्मास्य-इष्टि के देश के विषय में—‘प्राचीन प्रवणे वैश्वदेवेन यजेत’। (भूमि पर्व की ओर ढालू होनी चाहिये)। काल के विषय में—‘वसन्ते वैश्वदेवेन यजेत’। कर्ता के विषय में ‘चातुर्मास्यानां यज्ञक्रतूनां पंचॢत्वज:’=चातुर्मास्य के ऋत्विज् पांच होते हैं (सू० १-१०)। परन्तु दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, राजसूय के जो अपने-अपने अंग हैं उनमें तंत्र भाव न होगा। वे तो अलग ही अलग करने पड़ेंगे। क्योंकि वे अपनी-अपनी इष्टि के उपकारक होते हैं। (सू० १५) (२) अध्वरकल्पा इष्टियों के प्रात: सवन, माध्यन्दिन और सायं सवन की अपेक्षा से तीन समुदाय कर दिये गये। ‘आग्नावैष्णवं प्रात: अष्टाकपालं निर्वपेत्, सारस्वतं चरुं, बार्हस्पत्यं चरुं। आग्नावैष्णवमेकादशकपालं माध्यन्दिने। सारस्वतं चरुं बार्हस्पत्यं चरुं। आग्नावैष्णवं द्वादशकपालमपराöे। सारस्वतं चरुं बार्हस्पत्य चरुम्। अस्य भ्रातृव्य: सोऽनेन सोमेन यजेत’। इनके अंगों को अलग-अलग करना होगा। इनमें परस्पर तंत्र भाव नहीं होना चाहिये। (सू० १९) (३) उन पशु गण यज्ञों में जहां देवता एक ही है वसाहोम में तंत्र भाव होना चाहिये। अर्थात् एक बार ही आहुतियां देनी होगीं। परन्तु जहां देवता भिन्न-भिन्न हैं वहां काल भेद होने से तंत्र भाव नहीं होता। वसाहोम अलग-अलग होना चाहिये। (सू० २४,२५) (४) यूपैकादशिनी इष्टि में जो यूप की आहुति दी जाती है उसमें तंत्र भाव होता है। अर्थात् एक ही बार दी हुई आहुति सबके सांझे की समझी जाती है। (सू० २७) (५) अवभृथ याग अङ्गों सहित जल में ही होगा। क्योंकि जल आहवनीय अग्नि का स्थानापन्न है। (सू० ३२) (६) वरुण प्राघास यज्ञों में दक्षिण और उत्तर दो विहार अलग-अलग बनाये जाते हैं—‘अष्टावध्वर्युरत्तरे विहारे हवींष्यासादयति। मारुतीमेव प्रति प्रस्थाता दक्षिणस्मिन्’। =उत्तर वेदी में अध्वर्यु आठ हवियां रखता है। दक्षिण वेदी में प्रति प्रस्थाता केवल मारुती हवि को रखता है। यहां जो अङ्ग कर्म हैं वे उत्तर और दक्षिण वेदी में अलग-अलग होने चाहियें। तत्र-भाव नहीं होना चाहिये। क्योंकि एक वेदी में किये अङ्गों से दूसरी वेदी में उपकार नहीं हो सकता (सू० ३५)। परन्तु दोनों विहारों में कत्र्ता एक ही होते हैं उन में तंत्र-भाग होता है एक-एक करके लीजिये। होता को यज्ञ का कत्र्ता कहते हैं। क्योंकि वह गार्हपत्य के समक्ष और आहवनीय के पीछे बैठता है और याज्य और अनुवाक्य मंत्र पढक़र अध्वर्यु को आदेश देता रहता है जैसे उस ने एक ही स्थान पर बैठे-बैठे अध्वर्यु को आदेश दिये उसी प्रकार वहीं बैठे-बैठे प्रति प्रस्थाता को भी उसके कत्र्तव्य के पालनार्थ आदेश दे सकता है। इसलिये भिन्न-भिन्न होताओं की आवश्यकता नहीं। ‘होता’ में तन्त्र भाव है अर्थात् वह दोनों के साझे की चीज है। इसी प्रकार अग्नीध्र भी ‘उत्कर’ नामक एक ही स्थान पर बैठा-बैठा ‘प्रत्याश्रावण’ मंत्रों को पढ़-पढक़र अध्वर्यु और प्रति प्रस्थाता दोनों को एक ही स्थान से आदेश दे सकता है। इसलिये अग्नीध्र भी भिन्न-भिन्न नहीं होने चाहियें। इसी प्रकार ब्रह्मा दक्षिण में बैठता है वह स्थान दोनों आहवनीयों के लिये एक ही है। उत्तर आहवनीय के भी दक्षिण में और दक्षिण आहवनीय के भी दक्षिण में। वह यहीं से बैठे-बैठे देखा करता है कि कहां क्या हो रहा है और आवश्यकतानुसार अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता को आदेश देता रहता है। एक ही ब्रह्मा तन्त्र भाव से दोनों का साझी है। अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता तो अलग-अलग होते ही हैं। क्योंकि श्रुति में उनका अलग विधान है (सू० ४५)। दक्षिणा भी एक ही है अर्थात् वृद्ध बच्चा न हो, तगड़ा हो। बैल—‘प्रवयसभृषभं दक्षिणां ददाति’ (सू० ४६)। परन्तु वरुण प्राघास में जो ‘अपराग्निक’ आहुतियां दी जाती हैं। वे अलग-अलग दी जायेंगी। जो मारुत्या अंग हैं उनको प्रतिप्रस्थाता करेगा। शेष को अध्वर्यु। (सू० ५०) (७) राजसूय में दो याग होते हैं। ‘अभिषेचनीय’ और ‘दशपेय’। ये एक-एक दिन में पूरे हो जाते हैं, इनमें तन्त्र भाव नहीं है। इनको यथासमय अलग-अलग ही करना चाहिये। (सू० ५९) (८) वरुण प्राघास में आठवाँ द्रव्य है वारुणी। अर्थात् आमिक्षा (दूध और दही जो वरुण देवता के लिये आहुति में देते हैं)। इसके साथ जौ के आटे का मेषा बनाकर उसकी आहुति भी देते हैं। इस आठवीं आहुति के पश्चात् नवीं आहुति एक कपाल पर पकाये पुरोडाश की होती है। इसके पश्चात् जमे दूध के पात्र में जो खुरचन बचा रहता है उसका नाम है निष्कास। इस निष्कास और जौ के जिस आटे से मेषा बनाया गया था उसकी बची हुई भूसी दोनेां को मिलाकर एक अवभृथ यज्ञ करते हैं। यज्ञ एक अलग कर्म है (सू० ६४)। प्रतिपत्ति कर्म नहीं। (सू० ६५) (९) ज्योतिष्टोम में प्रायणीय के निष्कास से एक उदयनीय याग किया जाता है। यह एक अलग कर्म है। (सू० ६८)