सूत्र :क्वचिद्विधानान्नेतिचेत् ६७
सूत्र संख्या :67
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद १ सूत्र १ से ७२ तक की व्याख्या
(१) १०वें अध्याय में बाध और समुच्चय की व्याख्या की गई। बाध का लौकिक दृष्टान्त यह है कि यदि वैद्य कहे कि साबूदाना खाना चाहिये। तो साबूदाना रोटी का बाध कर देता है। अर्थात् रोटी न खानी चाहिये साबूदाना खाना चाहिये। परन्तु यदि साधारण भोज में कहा जाय कि पापड़ परोस दो तो इसका अर्थ यह है कि पापड़ पूरी का बाध नहीं करता। समुच्चय करता है। अर्थात् पूरी तो खानी ही है। इसके साथ पापड़ भी खाना है। यज्ञसम्बन्धी दृष्टान्त यथास्थान मिलेंगे।
११वें अध्याय में तंत्र और ‘आवाप’ की व्याख्या है। यदि एक ही कर्म बहुतों का उपकारक होता है तो उसे तंत्र कहते हैं, जैसे बीच में रक्खा हुआ दीपक सब लोगों का उपकारक होता है। या सड़ की लालटेन, परन्तु जो कर्म अलग अलग करने पड़े उनको ‘आवाप’ कहते हैं। जैसे चंदन तो सबको अलग-अलग लगाना पड़ेगा।
तंत्र और आवाप दोनों के दृष्टान्त दर्शपूर्ण मास इष्टियों में मिलते हैं। वस्तुत: इन इष्टियों में अग्न्याधान आदि छ: स्वतंत्र कर्म हैं। उन सबको मिलाकर ही दर्शपूर्णमास कहलाते हैं। इन सब का ‘तंत्र’ के नियम से एक ही फल मिलता है अर्थात् स्वर्ग की प्राप्ति। वे सब कर्म ‘मिलकर’ फल देते हैं (सू० १-१९)। अत: प्रयाज आदि सहायक कृत्य बार-बार नहीं करने पड़ते (सू० ३०)। परन्तु इन्हीं इष्टियों में ‘आवाप’ का भी दृष्टान्त है। दर्श-इष्टि अमावस्या को होती है, पौर्णमास इष्टि ठीक १५ दिन पीछे पूर्णिमा को। उसमें चावल कूटने आदि के जो कई कृत्य हैं उन में तंत्र लागू नहीं। ‘आवाप’ लगता है। अर्थात् ये कर्म अलग-अलग करने पड़ते हैं। काम्य कर्म जो विशेष कामना से किये जाते हैं उनको तो बार-बार ही करना चाहिये। (सू० २४)
(२) जो कर्म अदृष्ट-फल की कामना से किये जाते हैं उनको एक बार ही करना चाहिये जैसे प्रयाज आदि। इनसे अपूर्व बनता है (सू० ३०)।
(३) ‘वसन्ताय कपिंजलानालभते’ इस वाक्य में ‘कपिंजलान्’ बहुवचन है। अत: इसका अर्थ है ‘तीन’। इसका नाम है ‘कपिंजल न्याय’ अर्थात् बहुवचन से ‘तीन’ का अर्थ लेना। (सू० ४४)
(४) सान्नाय बनाने के लिये जो गायें दुही जाती हैं उनके विषय में लिखा है—
‘वाग्यतस्तिस्रो दोहयित्वा विसृष्टवागनन्वारभ्योत्तरा दोहयति’=वाणी को रोक कर तीन गायों को दुहता है। फिर वाणी छोडक़र उन गायों को न छुये, पिछली गायों को दुहे। यहां ‘उत्तरा गा:’ का अर्थ है शेष सब गायें जो यजमान की अपनी हैं।
(५) दर्शपूर्णमास आदि यज्ञों में यद्यपि ‘आग्नेय’ आदि प्रधान कर्म पृथक्-पृथक् होते हैं तथापि उनके अंग कर्म ‘आधार’ आदि साझे में होते हैं। अर्थात् तंत्र नियम लागू होता है। (सू० ६१)