व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ३ सूत्र २९ तब की व्याख्या :
अध्याय २, पाद ३
इस पाद में कुछ वाक्यों में आये हुये उन कर्मों का निर्णय किया गया है जिनके विषय में यह सन्देह हो जाता है कि ये स्वतन्त्र कर्म हैं या किसी अन्य स्वतन्त्र कर्म के गुणविधि हैं। जैसे—
(१) ‘ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत।’ यह ज्योतिष्टोम का प्रकरण है। इसी प्रकरण में यह वाक्य है ‘यदि रथन्तरसामा सोम: स्याद् ऐन्द्रवायवाग्रान् ग्रहान् गृöीयात्। यदि बृहत्सामा, शुक्राग्रान्। यदि जगत् सामा, आग्रयणाग्रान्।’
ज्योतिष्टोम का ही नाम सोमयाग है, क्योंकि इसमें सोमलता को पीसकर सोमरस निकालते हैं और उस रस को लकड़ी के पात्रों में रखते हैं जिनको ‘ग्रह’ कहते हैं। इन ग्रहों के अलग-अलग नाम हैं। जैसे—उपांशुग्रह, अन्तर्याम ग्रह, ऐन्द्रवायव, मैत्रावरुण, आश्विन, शुक्र, मन्थी, आग्रयण, उक्थ्य, ध्रुव, ऋतुग्रह, वैश्वदेव। इन ग्रहों में से रस लेकर आहुतियां दी जाती हैं। आहुतियों के साथ सामगान होता है, किसी मंत्र को रथंतर साम में गाते हैं, किसी को बृहत्साम में, किसी को जगत् साम मेंं। यहां यह विधान किया कि जब रथंतरसाम गाया जाय तो ‘ऐन्द्रवायव’ नामक ग्रह से रस लिया जाय, जब बृहत्साम गाया जाय तो शुक्र ग्रह से।
यहां आचार्य ने यह निर्णय किया है कि यह ग्रहाग्रता ज्योतिष्टोम का ही अंग है। रथन्तर सामा सोम, बृहत्सामा सोम ये कोई इतर याग नहीं हैं। ज्योतिष्टोम के ही ये नाम हैं। क्योंकि ज्योतिष्टोम का ही प्रकरण है और ज्योतिष्टोम को ही सोम याग भी कहते हैं।
(२) राजसूय याग के अन्तर्गत एक और यज्ञ आता है जिसे ‘अवेष्टि’ कहते हैं।
राजा राजसूयेन स्वाराज्यकामो यजेत।
आग्नेयोऽष्टाकपालो हिरण्यं दक्षिणा इत्यादि।
यदि ब्राह्मणो यजेत बार्हस्पत्यं मध्ये निधायाऽऽहुति-माहुतिं हुत्वाऽभिघारयेत्, यदि राजन्य ऐन्द्रं, यदि वैश्वो वैश्वदेवम्।
यहां ‘राजसूय’ का अधिकार राजा को ही है। ब्राह्मण आदि अन्य वर्णों को नहीं। क्योंकि ‘राजा’ शब्द से ‘राज्य’ शब्द बनता है। ‘राज्य’ से ‘राजा’ नहीं बनता। जब यह निश्चित हो गया कि राजसूय का अधिकार क्षत्रिय को ही है, ब्राह्मण आदि को नहीं, तो ‘अवेष्टि’ नामक यज्ञ जिसमें ‘यदि ब्राह्मणो यजेत’, ‘यदि राजन्यो यजेत’, ‘यदि वैश्यो यजेत’ आदि शब्द हैं अलग स्वतन्त्र इष्टि ही समझी जानी चाहिये। यह राजसूय का अंग नहीं।१
दिग् व्यवस्थापन प्रयुक्तोन्मादयितृणामवजननहेतुत्वात् ‘अवेष्टि’ इति कर्मनामधेयम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.३)।
(३) ‘वसन्ते ब्राह्मणोऽग्नीनादधीत, ग्रीष्मे राजन्य:, शरदि वैश्य:।’ यहां ‘अग्न्याधान’ एक स्वतन्त्र कर्म है। किसी दूसरे याग का अंग नहीं है।१ बिना यज्ञोपवीत के किसी यज्ञ के करने का किसी को अधिकार नहीं। अत: पहले यज्ञोपवीत संस्कार में अग्न्याधान एक विशेष यज्ञ कर लिया जाता है।
(४) दाक्षायण, साकम्प्रस्थायीय, संक्रम आदि यज्ञ स्वतन्त्र यज्ञ नहीं। यह दर्शपूर्ण मास के ही अंग हैं। इनका विधान नीचे की श्रुतियों में है—
दाक्षायणयज्ञेन यजेत प्रजाकाम:, साकम्प्रस्थायीयेन यजेत पशुकाम:, संक्रम यज्ञेन यजेतान्नाद्यकाम:।
(तै०सं० २.५.४.३)
दाक्षायण शब्द में ‘अयन’ का अर्थ है यज्ञ। दक्ष कहते हैं चतुर पुरुष को। दाक्ष का अर्थ हुआ, चतुर पुरुष का चातुर्य। इस यज्ञ को दाक्षायण इसलिये कहा कि यजमान चातुर्य से तीस वर्ष का काम पन्द्रह वर्ष में ही पूरा कर लेता है। लिखा है—
‘त्रिंशतं वर्षाणि दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत। यदि दाक्षायणयाजी स्यात्। अथोऽपि पंचदशैव वर्षाणि यजेत। अत्र ह्येव सा संपद्यते। द्वे हि पौर्णमासौ यजेत, द्वे अमावास्ये, अत्र ह्येव खलु सा संपद् भवति।’
अर्थात् दर्शपूर्णमास इष्टियां तीस वर्ष तक करनी चाहियेें। यदि दाक्षायण करे तो १५ वर्ष में ही इष्टि सफलतापूर्ण हो जाती है क्योंकि दो-दो पूर्ण मास-इष्टियां हो जाती हैं दो-दो अमावस्येष्टियां।
इसी प्रकार साकम्प्रस्थायीय में छोटे-छोटे पात्रों को साथ-साथ ले जाते हैं (साकम्=साथ, प्रस्थानं=ले जाना)। इन अयनों (यज्ञों) को दर्शपूर्ण मास के अन्तर्गत ही माना गया है।२
(५) जिन वाक्यों में कर्म के साथ द्रव्य और देवता का स्पष्ट कथन दिया है। उन कर्मों को यज्ञपरक लेना चाहिये, संस्कारपरक नहीं मानना चाहिये। जैसे—
(अ) वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकाम:।
(तै०सं० २.१.१.१)
(आ) सौय्र्यं चरुं निर्वपेद् ब्रह्मवर्चसकाम:।
(तै०सं० २.३.२.३)
(इ) सोमारुद्रं चरुं निर्वपेत्। (तै०सं० २.२.१०)
यहां वायु, सूर्य और सोमा—रुद्र देवता हैं और श्वेत बकरा और चरु द्रव्य हैं, यज्ञ में यही तीन बातें होती हैं—देवता, द्रव्य और फल।१ इन द्रव्यों की आहुति भी देनी है। अत: यहां ‘आलभेत्’ और ‘निर्वपेत्’ स्वयंयज्ञ कर्म हैं, संस्कार मात्र नहीं। अर्थात् ‘आलभन’ का अर्थ होगा ‘मारकर आहुति देना।’
परन्तु जहां देवता, द्रव्य, फल आदि का कथन नहीं है और संदेह होता है कि ‘आलभन’ का क्या अर्थ लिया जाय वहां आगे के वाक्य को देखकर अर्थ लगाना चाहिये। जैसे ‘वत्समालभेत वत्सनिकान्ता हि पशव:’ (तै०सं० २.१.४) (बछड़े का आलभन करे क्योंकि पशुओं को बछड़े प्यारे होते हैं)। यहां आलभन का अर्थ है छूना या छूकर प्यार करना। यह संस्कारमात्र है। मारकर आहुति देने का अर्थ नहीं।१
इसी कोटि में कुछ अन्य शब्द भी आते हैं। जैसे—
(क) नैवारश्चरुर्भवति (तै०सं० १.३.७)। यहां ‘नीवार’ का चरु आहुति के लिये नहीं हैं। केवल ‘रखनेमात्र’ के लिये हैं।
(ख) पर्यग्निकृतं पात्नीवतमुत्सृजन्ति (तै०सं० ६.६.६) यहां कोई नया याग नहीं। केवल ‘पात्नीवत’ पशु को ‘पर्यग्नि’ कर्म करके छोड़ देते हैं। पर्यग्नि कर्म यह होता है कि फूस की आग को पशु के चारों ओर फिराकर पशु को छोड़ दिया जाता है।
(ग) नीचे के वाक्यों में ‘अदाभ्य’, ‘अंशु’ ये ग्रहों के नाम हैं। यज्ञों के नाम नहीं। जैसे—
एष वै हविषा हविर्यजते योऽदाभ्यं गृहीत्वा सोमाय यजते। (तै०सं० ३.३.४.१)
परा वा एतस्याऽऽयु: प्राण: एति योंऽशुं गृöाति।
(तै०सं० ३.३.४.१)
(देखो सूत्र २-३-१८, १९, २०)
(घ) नीचे के वाक्य में ‘अग्नि’ शब्द का अर्थ है साधारण जलाने वाली आग। किसी विशेष यज्ञ का नाम ‘अग्नि’ नहीं। वाक्य यह है—
य एवं विद्वानग्निं चिनुते।
अथाऽतोऽग्निमग्निष्टोमेनैवानुयजते। तमुक्थेन, तमति-रात्रेण, तं षोडशिना इत्यादि।
(तै०सं० ५.६.३ तथा ५.५.२.१) देखो सू० २.३.२१।
(६) ‘कुण्डपायिनामयन’ एक अलग यज्ञ है। उसके प्रकरण में जो अग्निहोत्र और दर्शपूर्णमास कर्म दिये हैं वह नित्य अग्निहोत्र या दर्शपूर्ण मास के द्योतक नहीं। उनका सम्बन्ध ‘कुण्डपायिनामयन’ से है क्योंकि उसी प्रकरण में इनका कथन है। ये श्रुतियां ये हैं-मासमग्निहोत्रं जुहोति, मासं दर्शपूर्णमासाभ्यां यजते।
(७) नीचे के वाक्यों में आग्नेय, अग्नीषोमीय और ऐन्द्राग्न ये अलग काम्य-इष्टियां हैं। और इनका फल रुच् (प्रकाश), ब्रह्मवर्चस् और प्रजा साथ-साथ दिया है। इन इष्टियों का पूर्व कथित यागों के साथ सम्बन्ध नहीं।१ वाक्य यह है—
(अ) आग्नेयमष्टाकपालं निर्वपेद् रुक्काम:।
(तै०सं० २.२.३.३)
(आ) अग्नीषोमीयमेकादशकपालं निर्वपेद् ब्रह्मवर्चस-काम:।
(तै०सं० २.३.२.५)
(इ) ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत् प्रजाकाम:।
(तै०सं० २.२.१.१)
यज्ञों की भिन्नता की ६ पहचानें दी हैं—
(१) शब्दान्तर अर्थात् शब्दों का भिन्न होना।
(२) संज्ञा अर्थात् यज्ञों के नाम भिन्न हों।
(३) गुण अर्थात् द्रव्य भिन्न हों।
(४) फल भिन्न हों।
(५) पुन: श्रुति अर्थात् दुबारा कहा हो।
(६) संख्या दी हो।
कहीं-कहीं अपवाद भी हैं। जैसे—
(१) ‘आग्नेयोऽष्टाकपाल: पुरोडाशो भवति।’
यह ‘अवेष्टि’ यज्ञ का प्रकरण है। इसके साथ कहा ‘एतयाऽन्नाद्यकामं याजयेत’। यहां ‘एतया’ शब्द ‘अवेष्टि’ के लिये ही आया है। (देखो सू० २.३.२६)।
(२) आग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां पौर्णमास्यां चाच्युतो भवति।
आग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां भवति।
यहां ‘आग्नेय:’ दो बार आया है। परन्तु यह नहीं समझना चाहिये कि अमावस्या को दो बार आग्नेय आहुति देनी होगी। दूसरी बार का वाक्य तो केवल अर्थवाद है। (देखो सू० २.३.२७-२९)।