सूत्र :उभयोस्तुविधानात् ६७
सूत्र संख्या :67
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ८ सूत्र १ से ७० तक की व्याख्या
(१) यदि किसी सामान्य कर्म का अथवा ऐसे कर्म का जिसकी प्राप्ति चोदक नियम से होती है, किसी विशेष अवस्था में निषेध कर दिया जाय तो इसको ‘पर्युदास’ कहते हैं। इसके यहां दो उदाहरण दिये हैं—पहला उदाहरण ‘महापितृयज्ञ’ का है। लिखा है कि ‘महापितृयज्ञेन यजेत प्रकृतिवत्’ अर्थात् प्रकृति-याग के समान ही महापितृ यज्ञ को करना चाहिये। प्रकृति याग में ‘होता’ का और ‘आर्षेय’ का वरण होता है। चोदक नियम से महापितृयज्ञ में भी होता और आर्षेय का वरण होना चाहिये था। परन्तु विशेष आदेश दे दिया गया कि ‘न होतारं वृणीते, नार्षेयम्’ अर्थात् ‘होता’ का वरण न हो, न आर्षेय का। यह पर्युदास है।
दूसरा उदाहरण है प्रजापति के १७ अक्षर वाला होने का। ‘आश्रावय इति चतुरक्षरम्। अस्तु श्रौषट् इति चतुरक्षरम्। यज इति द्व्यक्षरम्। ये यजामहे इति पंच-अक्षरम्। द्वयक्षरो वषट्कार। एष वै प्रजापति: सप्तदशो यज्ञेष्वन्वायत्ते’।
आश्रावय = ४ अक्षर
अस्तु श्रौषट् = ४ अक्षर
यज = २ अक्षर
ये यजामहे = ५ अक्षर
वषट् = १७ अक्षर
यहां एक विशेष वाक्य से ‘ये यजामहे’ का निषेध किया गया। ‘ततो नानुयाजेषु’ ‘ये यजामहे करोति’ अर्थात् अनुयाजों में ‘ये यजामहे’ ऐसा कहने का निषेध कर दिया गया। यह ‘पर्युदास’ है।
यहां ऐसा प्रश्न उठ सकता है कि यदि ‘ये यजामहे’ ये पांच अक्षर छोड़ दिये जायँ तो प्रजापति के १२ अक्षर ही रह जायेंगे और उसका ‘सप्तदशत्व’ नष्ट हो जायगा। इसका समाधान यह है कि यह ‘ये यजामहे’ शब्द केवल अनुयाजों में न बोले जायेंगे। सर्वत्र नहीं। ‘ये यजामहे’ बोलने का प्रतिषेध केवल अनुयाजों में ही है। अन्यत्र नहीं। (सू० १-४)
(२) जब किसी अपूर्वयाग में जो किसी-प्रकृति याग की विकृति न हो किसी कर्म का प्रतिषेध पाया जाय तो यह न तो निषेध है क्योंकि निषेध केवल प्राप्ति का ही हो सकता है और न ‘पर्युदास’ है, अपितु अर्थवाद है। जैसे ‘न तौ पशौ करोति न सोमे’ अर्थात् पशुयाग या सोमयाग में आज्यभाग आहुतियां नहीं दी जातीं। ये आहुतियां दर्शपूर्ण-मास में विहित हैं। सोमयाग और पशु याग में इनका प्रतिषेध है। (सू० ५)
(३) पहले अधिकरण में ‘न’ को पर्युदास कहा, दूसरे में अर्थवाद। यहां प्रतिषेध का उदाहरण है। विधि वाक्य बताकर वाक्यशेष में निषेध करना प्रतिषेध है। पहले कहा ‘अतिरात्रे षोडशिनं गृöाति’ अर्थात् अतिरात्र यज्ञ में षोडशी ग्रह को लेता है। फिर उसी का निषेध कर दिया ‘नातिरात्रे षोडशिनं गृöाति’। यहां विकल्प समझना चाहिये। अर्थात् षोडशी ग्रह निकालने से भी यज्ञ पूरा हो सकता है और न निकालने से भी। (सू० ६)
(४) कभी-कभी किसी कर्म का निषेध केवल इसलिये कर देते हैं कि उससे दूसरे कर्म की प्रशंसा पाई जाय। जैसे अग्निहोत्र के प्रकरण में जर्तिल-यवागू या गवोधुक् यवागू को आहुतियों के अयोग्य बताकर दूध की आहुति का विधान किया। यह अर्थवाद है (सू० ७)। जैसे ‘क्या गुड़ से मीठे अंगार?’ यहां अंगार को खाने के अयोग्य बताकर गुड़ की प्रशंसा की गई।
(५) चातुर्मास्य याग में त्र्यम्बक-आहुतियों में अभिघारण या अनभिघारण का उल्लेख केवल अर्थवाद है न विधि है, न निषेध। (सू० ८)
(६) अग्न्याधान के प्रकरण में यह श्रुति है—‘य एवं विद्वान् वारवन्तीयं गायति। य एवं विद्वान् यज्ञायज्ञियं गायति। य एवं विद्वान् वामदेव्यं गायति’। इसी प्रकरण में कहा है ‘उपवीता वा एतस्यग्नयो भवन्ति, यस्याग्निधेये ब्रह्मा साम गायति।’ यहां ‘उपवीता’ का अर्थ है ‘अचिरान् नष्टा’ या शीघ्र नष्ट हो जानेवाली। इस पिछले वाक्य से प्रतीत होता है कि ब्रह्मा को सामगान का निषेध है। परन्तु आचार्य का मत है कि यहां विकल्प समझना चाहिये (सू० ९)। क्योंकि न पर्युदास हो सकता है न निषेध।
(७) ज्योतिष्टोम के प्रकरण में आदेश है कि दीक्षित पुरुष न दान देवे, न आहुति देवे, न पकावे। यह पर्युदास है। (सू० १५)
(८) ज्योतिष्टोम में एक वत्र्मयाग होता है जिसमें मार्ग में आहुति दी जाती है—‘वत्र्मनि जुहोति।’ इस प्रकार राजसूय याग में भी एक वल्मीकवपा यज्ञ होता है जिसमें चिटोहर पर आहुति दी जाती है—‘वल्मीकवपामुपगृह्य जुहुयात्।’ यह आहुतियां ‘आहवनीय’ अग्नि में नहीं दी जायेंगी। केवल ‘वत्र्म’ और ‘वल्मीकवपा’ पर ही दी जायेंगी। अर्थात् यहां ‘बाध’ होता है, समुच्चय नहीं। अन्य आहुतियां केवल मार्ग और चिटोहरपर ही दी जायेंगी। (सू० १६)
(९) प्रकृति याग में १५ सामिधेनियां पढ़ी जाती हैं। परन्तु वैमृध, अध्वरल्पा, पशुयाग, चातुर्मास्य याग, मित्रविन्दा, त्रैधातवी और आग्रयण इष्टियों में जो विकृतियाग हैं १७ सामिधेनियां पढऩी चाहियें। (सू० १९)
(१०) दर्वीहोम में ‘स्वाहा’ का प्रयोग उन आहुतियों के साथ भी होगा जिनमें स्वाहा का उल्लेख नहीं है। (सू० २३)
(११) अग्निचयन और अतिग्राह्य की आहुतियां प्रकृति याग से चोदक नियम द्वारा विकृति में अतिदिष्ट होती हैं। (सू० २८)
(१२) दर्शपूर्णमास में जहां ‘चतुरवत्त’ आहुतियों का उल्लेख है। यह चार आहुतियां अलग नहीं हैं ३ उपस्तरण और १ अभिघारण मिलाकर चार हो जाती हैं। (सू० ३२)
(१३) उपांशु याग में भी ‘चतुरवत्त’ आहुतियों का उल्लेख है। वहां उपस्तरण और अभिघारण तो होते नहीं। अत: पुरोडाश में से ही चार भाग करके आहुतियों को ‘चतुरवत्त’ किया जायेगा। (सू० ३४)
(१४) दर्श और पौर्णमास यज्ञों में (जो सोमयाग नहीं हैं), आग्नेय और ऐन्द्राग्न का कथन अनुवाद मात्र है। इसका तात्पर्य यह है कि यह दो पुरोडाश तो असोमयाजी के लिये हैं परन्तु इनकी प्राप्ति सोमयाजी के लिये भी है। परन्तु सोमयाजी के लिये सान्नाय्य की भी प्राप्ति है। असोमयाजी केवल इन दो पुरोडाशों से ही यज्ञ करेगा अर्थात् आग्नेय और ऐन्द्राग्न से। सान्नाय्य से केवल सोमयाजी ही। इस प्रकार नीचे के वाक्य में इन दो पुरोडाशों का अनुवाद मात्र हैं—‘पुरोडाशा-भ्यामेवासोम याजिनं याजयेत्। यावदेवाग्नेयश्चैन्द्राग्नश्च।’
(सू० ४६)
(१५) उपांशु यज्ञ में जो आहुतियां दी जाती हैं उनको ध्रुवा में रक्खे हुये घी (ध्रौवाज्य) से देना चाहिये (सू० ४८)। उपांशु यज्ञ पौर्णमास-इष्टि का ही भाग है। दर्शेष्टि में उपांशु नहीं होता। इसके देवता अलग नहीं होते। विष्णु आदि (प्रजापति, अग्नीषोम) ही देवता हैं। (सू० ५७)। पौर्णमास दो होते हंन एक तो सोम के पीछे जिसमें दो पुरोडाश होते हैं। एक पुरोडाश होता है। उपांशु याग दोनों प्रकार के पौर्णमास में होना चाहिये। चाहे पुरोडाश एक हो या दो। (सू० ७०)