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Meemansa दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :विरोधिनां च तच्छ्रुतावशब्दत्वाद्विकल्पःस्यात् ६८
सूत्र संख्या :68

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद ७ सूत्र १ से ७३ तक की व्याख्या (१) ज्योतिष्टोम में जो स्विष्टकृत् आहुति दी जाती है। उसके विषय में एक विशेषता यह है कि यह आहुति इज्याशेष भागों में से न दी जायेगी। अनिज्या शेष भागों में से दी जायेगी। इज्याशेष भाग वह है जिन अङ्गों की आहुति दी जा चुकी है। अनिज्याशेष वे हैं जिनकी आहुति नहीं दी गई। स्विष्टकृत् आहुति यद्यपि प्रतिपत्ति कर्म है, फिर भी इसमें उन अङ्गों का बचा बचाया भाग न लेकर तीन विशेष अङ्गों का नाम दे दिया है। भक्ष के सम्बन्ध में भी कुछ भेद है। प्रकृति-याग में होता के लिये ‘इडा’ का विधान था। इस अग्निष्टोम पशु याग में इडा के स्थान में अध्यूघ्नी का भक्ष होगा। इस भक्ष में प्रकृति याग के विरुद्ध मैत्रावरुण का भाग होता है, केवल एक ही (सू० २१)। प्रतिप्रस्थाता का नहीं (सू० २२)। (२) चातुर्मास्य यागों के प्रकरण में ऐसी श्रुति है—‘मरुद्भयो गृहमेधिभ्य: सर्वासां दुग्धे सायमोदनम्’ और यह भी लिखा है ‘आज्यभागौ यजति’। यहां ऐसा समझना चाहिये कि ‘गृहमेधीय’ यज्ञ नया यज्ञ है विकृति नहीं और यह दो आज्यभाग आहुतियां भी इसी नये यज्ञ की हैं (सू० ३३)। स्विष्टकृत् आहुति भी होती है (सू० ३४)। परन्तु प्राशितृ आदि ऋत्विज् भक्ष नहीं करते। (सू० ३५) (३) प्रायणीय इष्टि का कार्य पहले शंयु-कर्म पर और आतिथ्य इष्टि का पहले इडा-कर्म पर समाप्त हो जाता है। (सू० ४२) (४) ज्योतिष्टोम के ६ उपसद जिन में अनुयाज और प्रयाजों का निषेध है स्वतन्त्र कर्म है। विकृति नहीं (सू० ४६)। इसी प्रकार वरुण के एक कपाल वाला अवभृथ कर्म भी ‘अपूर्व’ कर्म है, विकृति नहीं। (५) वाजपेय आदि विकृति-यागों में यूप खदिर का हो। पृष्ठ बृहत्-साम वाला हो और मध्यम जौ का होनी चाहिये। (सू० ५१) (६) जब किसी विकृति-याग में द्रव्य और देवता का उल्लेख कर दिया गया तो उसमें फिर चोदक नियम नहीं लगेगा। अर्थात् प्रकृति याग से जिस देवता या जिस द्रव्य का अतिदेश होगा उसका बाध हो जायेगा (सू० ६०)। इसी प्रकार सोम-पूषा-वाले विकृति याग में यूप को उदुम्बर लकड़ी का होना विहित है। अत: यहां विकृति याग वाले खदिर का बाध हो गया। (सू० ६३) इसी प्रकार सोम-रुद्र नामक विकृति याग में ‘व्रीहि’ के शुक्ल आदि गुण दे दिये गये हैं। अत: प्रकृति के ‘जौ’ का अतिदेश यहां नहीं होना चाहिये। (सू० ७१) (७) भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की पहचान के लिये भिन्न-भिन्न नाम हैं, कुछ तो शिखाओं के आधार पर हैं जैसे पंचशिखा वाले ‘पंचावत्त’ कहलाते हैं। कुछ आहुतियों को चार भाग करके डालते हैं। अत: उनको ‘चतुरावत्त’ कहते हैं।