सूत्र :चोदनावाप्रकृतत्वात् १०
सूत्र संख्या :10
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद २ सूत्र २९ तक की व्याख्या :
अध्याय २, पाद २
पिछले पाद में दो प्रकार के कर्म बताये गये, प्रधान और गौण। ‘अपूर्व’ बनेगा प्रधान कर्मों का, गौण कर्मों का नहीं। क्योंकि उनका फल तो द्रव्य की उत्पत्ति या संस्कार है।
ब्राह्मणग्रन्थों में जो भिन्न-भिन्न कर्मों का आदेश है उनमें यह पहचान कैसे हो कि यह कर्म मुख्य है यह गौण! इसी की विवेचना करनी है।
पहली पहचान—जब क्रिया पद२ अलग-अलग हों तो वे सब कर्म प्रधान होंगे और उनके अपूर्व भी अलग-अलग बनेंगे। जैसे, सोमेन यजेत, दाक्षिणानि जुहोति, हिरण्यं आत्रेयाय ददाति। (शत०ब्रा० ४.३.४.२१) यहां पहला यज्ञ है, दूसरा होम है, तीसरा दान है। ये तीनों प्रधान कर्म हैं। इनके ‘अपूर्व’ अलग-अलग बनेंगे।
दूसरी पहचान—एक ही क्रिया बार-बार दुहराई जाय तो समझना चाहिये कि ये सब अलग-अलग प्रधान कर्म हैं और इनके ‘अपूर्व’ भी अलग-अलग होंगे। जैसे—समिधो यजति, तनूनपातं यजति, इडोयजति, बॢहर्यजति, स्वाहाकारं यजति (तै०सं० २.६.१.१.२) यहां ‘यजति’ क्रिया पांच बार दुहराई गई। ये पांच कर्म अलग-अलग हैं। ये पांच१ यज्ञ भिन्न-भिन्न है।
अब नीचे १३ वाक्य दिये जाते हैं जिनमें १३ कर्मों का विधान है। इनमें किसको प्रधान कर्म मानें और किसको गौण? ये कर्म हैं—
इन १३ श्रुतियों को सुगमता से समझने के लिये तीन समुदायों में बांटिये—
पहले समुदाय में ६ हैं—
(१) यदाग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां पौर्णमास्यां च अच्युतो भवति। (तै०सं० ७.६.३.३)
(२) तावब्रूतामग्नीषोमावाज्यस्यैव तौ।
(३) उपांशु पौर्णमास्यां यजन् इति।
(४) ताभ्यामेतमग्नीषोमीयमेकादशकपालं पौर्णमासे प्रायच्छत्।
(शत०ब्रा० १.६.२.१४)
(५) ऐन्द्रं दधि अमावस्यायाम्। (तै०सं० ७.५.४.१)।
(६) ऐन्द्रं पयोऽमावस्यायाम्। (तै०सं० १.२.५.६)।
अब ५ नीचे की श्रुतियां लीजिये—
(१) आघारमाघारयति।
(२) आज्यभागौ यजति।
(३) स्विष्टकृते समवद्यति।
(४) पत्नी संयाजान् यजति।
(५) समष्टि यजुर्जुहोति। (शत०ब्रा० १.९.९.२-२५)
अब दो और लीजिये—
(१) य एवं विद्वान् पौर्णमासीं यजते।
(२) य एवं विद्वान् अमावस्यां यजते। (तै०सं० १.६.९.१-२)।
यहां ऐसा सिद्धान्त निश्चित किया गया है कि पहले ६ ये दर्शपौर्णमास प्रकरण में है, अत: इनको समुदाय समझना चाहिये। ये सब मिलकर प्रधान कर्म हैं। इनका समुदाय-अपूर्व बनेगा।
बीच के पांच उपकारक हैं प्रधान याग के। इसलिये गौण कर्म है।
और पिछले (अन्तिम) दो ‘य एवं विद्वान्’ आदि प्रधान कर्मों के अनुवाद मात्र हैं। नये या भिन्न कर्म नहीं।१
इसकी पुष्टि में एक लिङ्ग वचन है—
‘चतुर्दश पौर्णमास्यामाहुतयो हूयन्ते, त्रयो दश अमावस्यायाम्।’
पौर्णमास में चौदह आहुतियां होती हैं—
५ प्रयाज, २ आज्यभाग, १ स्विष्टकृत्, ३ अनुयाज, ३ प्रधान आहुतियां=१४
अमावस्या (दर्शेष्टि) में केवल १३ आहुतियां होती हैं। क्योंकि प्रधान आहुतियां दो ही होती हैं। क्योंकि साम्नाय्य की आहुति साथ दे दी जाती है।२
तीसरी पहचान—जहां संख्या दी हो वहां समझना चाहिए कि अलग-अलग याग हैं। वाजपेयेन स्वराज्यकामो यजेत (तै०ब्रा० १.३.४.३) इसी प्रकरण में कहा—सप्तदश प्राजापत्यान् पशून् आलभते। सप्तदशो वै प्रजापति:। प्रजापते राप्त्यै श्यामा-स्तूपरा एका रूपा भवन्ति। एवमेव हि प्रजापति: समृद्ध्यै।’ यहां १७ संख्या बताती है कि १७ याग हैं और हर याग में एक-एक पशु का आलभन है।३ यह समुदाय नहीं है।
चौथी पहचान—जहां नाम अलग-अलग दिये हों, जैसे—अथैष ज्योति:। अथैष विश्वज्योति:। अथैष सर्वज्योति:। ये तीनों एक ही याग नहीं हैं। ज्योति:, विश्वज्योति:, सर्वज्योति:, ये तीन भिन्न-भिन्न यागों के भिन्न-भिन्न नाम हैं। ‘ज्योति:’ शब्द के सादृश्य से इनको एक नहीं समझना चाहिये।४
पांचवीं पहचान—जहां देवता अलग-अलग हों वे यज्ञ भी भिन्न होंगे। जैसे—
(१) तप्ते पयसि दध्यानयति सा वैश्वदेवी आमिक्षा।
(२) वाजिभ्यो वाजिनम्। (मैत्रायणी संहिता १.१०.१)।
आमिक्षा और वाजिनम् इन दो शब्दों के आजाने से यह नहीं समझना चाहिए कि आमिक्षा से छूटे हुये पानी को वाजी कहते हैं अत: यह दोनों एक ही कर्म हैं, यहां देवता अलग-अलग हैं। पहले में ‘वैश्वदेव’ देवता है, दूसरे में ‘वाजी’ अत: यह कर्म अलग-अलग हुए।१
यहां एक सिद्धान्त की बात याद रखनी चाहिये। यदि एक वाक्य में कर्म दिया हो उसका गुण (साधक सामग्री) न दिया हो और अगले वाक्य में यह गुण दिया हो तो वह गुण पहले कर्म का ही समझना चाहिये। अलग कर्म न समझना चाहिये। जैसे ‘अग्निहोत्रं जुहोति’ कहकर आगे कहा ‘दध्ना जुहोति’, ‘पयसा जुहोति’। यहां ‘अग्निहोत्रं जुहोति’ में कर्म का नाम था गुण का नहीं। यह गुण अगले दो वाक्यों में दे दिया। होम करो। किससे? दही से, दूध से। इसलिये ये अलग-अलग तीन कर्म नहीं।२
परन्तु यदि एक वाक्य में ‘कर्म’ के साथ ‘गुण’ भी दिया हो और अगले वाक्य में कोई और गुण हो तो समझना चाहिये कि वह गुण किसी और कर्म का है। जैसे पहले ‘वैश्वदेवी आमिक्षा’ में गुण (अर्थात् आमिक्षा) दे दिया गया। दूसरे वाक्य में ‘वाजिनम्’ गुण किसी भिन्न कर्म का है, ऐसा मानना चाहिये।
कहीं-कहीं ऐसा है कि वाक्य में कर्म दिया है। गुण नहीं दिया। अगले वाक्य में गुण अर्थात् द्रव्य का नाम है और साथ में फल भी है जैसे ‘दध्नेन्द्रियकामस्य जुह्यात्।’ यहां कर्म तो एक ही है। कोई भिन्न कर्म नहीं है। केवल द्रव्य के साथ फल भी दे दिया गया है। अर्थात् इन्द्रिय की कामना वाले को दही से होम करना चाहिये। (सू० २६)