DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :मिथश्चानर्थसम्बन्धः१५
सूत्र संख्या :15

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद ४ सूत्र ३० तक की व्याख्या : पिछले तीन पादों में यह बताया गया कि धर्म के विषय में श्रुति प्रमाण है। यज्ञसम्बन्धी वचन तीन कोटियों में विभक्त हैं—(१) विधि तथा निषेध, यह करो, यह न करो। (२) अर्थवाद, अनुवाद, स्तुतिवाद, निन्दावाद या गुणवाद। (३) भिन्न-भिन्न कृत्यों में विनियोग के मन्त्र। चौथे पाद में कुछ ऐसे शब्दों के अर्थों का निर्णय किया गया जिनके अर्थ संदेहात्मक हैं। उद्भिदा यजेत, बलभिदा यजेत, अभिजिता यजेत, विश्वजिता यजेत। (ताण्ड ब्राह्मण १९.७.१-२) यहां उद्भिद्, बलभिद्, अभिजित्, विश्वजित्, तृतीयान्त शब्द हैं। ‘यजेत’ का अर्थ है यज्ञ किया जाय। प्रश्न यह है कि उद्भिद्, बलभिद्, अभिजित्, विश्वजित्, यह गुण विधि हैं या कर्म नामधेय। मीमांसा की परिभाषा में ‘गुण’ वह द्रव्य या पदार्थ है जिससे यज्ञ किया जाय। कर्म-नामधेय का अर्थ है यज्ञों के विशेष नाम। प्रश्न यह है कि क्या उद्भिद् आदि कोई द्रव्य या पदार्थ हैं, जिनके द्वारा यज्ञ किया जाता है या ‘उद्भिद् यज्ञ’, ‘बलभिद् यज्ञ’, ‘अभिजित् यज्ञ’, ‘विश्वजित् यज्ञ’, यह यज्ञों के नाम हैं। अर्थात् यज्ञ कई प्रकार के होते हैं। यह उन प्रकारों के नाम हैं। जैमिनि आचार्य ने निश्चय किया है कि ये कर्मनामधेय हैं गुणविधि नहीं। इस निर्णय का एक भाषाविज्ञान सम्बन्धी हेतु है। जो न केवल वेद या ब्राह्मण वाक्यों के ही अर्थ करने में उपयोगी है अपितु सर्वत्र है। पहला नियम यह है कि वास्तविक विधि-वाक्य वही है जिसमें अपूर्व कथित विधि का विधान हो। अर्थात् उस वाक्य से पहले किसी अन्य वाक्य में उस विधि का कथन न हो चुका हो। दूसरा नियम यह है कि एक वाक्य का विधेय एक ही होना चाहिये, कई नहीं। अन्यथा वाक्य की एकवाक्यता छिन्न-भिन्न हो जायेगी। इन दो कसौटियों पर कसकर ‘उद्भिजा यजेत’ आदि वाक्यों का अर्थ निकालना है। ‘उद्भिजा यजेत’ विधिवाक्य है क्योंकि इससे पहले कहीं इस विधि का कथन नहीं हुआ। यदि पहले कहीं कथन हो चुका होता तो इस वाक्य को विधि वाक्य न कहकर अर्थवाद, अनुवाद, गुणवाद आदि कहते। अब प्रश्न यह है कि इस वाक्य का विधेय क्या है? अर्थात् क्या काम करने का आदेश है? ‘यजेत’ विधिलिङ् है अत: यही विधेय है। ‘यज्ञ करे’। ‘उद्भिजा’ तृतीयान्त है। अत: उसका सीधा अर्थ होगा ‘उद्भिज से’। अर्थात् ‘उद्भिज’ कोई पदार्थ है जिसको यज्ञ करने में प्रयुक्त करते हैं। परन्तु ऐसा अर्थ लेने में एक दोष है। वाक्य के दो विधेय हो जाते हैं एक तो यज्ञ करना, दूसरा यज्ञ में उद्भिज नामी चीज का प्रयोग करना। इससे वाक्य की एकवाक्यता भिन्न-भिन्न हो गई। इससे यह अर्थ ठीक नहीं। ‘उद्भिजा यजेत’ का अर्थ यों लीजिये। क्या करें? यज्ञ करो। कौन-सा यज्ञ? जिसका नाम उद्भिज है। यहां ‘उद्भिजा’ समानाधिकरण है।१ अर्थात् उद्भिजनाम्ना यज्ञेन कुर्यात्। ऐसा ही अन्यत्र भी लगाना चाहिये। इसी प्रकार कुछ और उदाहरण हैं— (१) चित्रया यजेत पशुकाम: (तै०सं० २.४.६.१) (२) त्रिवृद्बहिष्यवमानम्। (ताण्ड्य ब्रा० २०.१.२) (३) पंचदशान्याज्यानि (ताण्ड्य ब्रा० १९.११.२) (४) सप्तदशपृष्ठानि (ताण्ड्य ब्रा० १९.१.२) यहां चित्रा, त्रिवृत्, यज्ञों के नाम हैं। आज्य और पृष्ठ स्तोत्रों के नाम हैं। ‘आज्यै: स्तुवते’, ‘पृष्ठै: स्तुवते’ इन वाक्यों में तो स्पष्ट दिया है। इसलिये ‘चित्रा’ का अर्थ चिकबरी गाय, बकरी आदि न लेना चाहिये, न आज्य का अर्थ यहां घी है। इसी प्रकार ‘अग्निहोत्रं जुहोति स्वर्गकाम:’ (तै०सं० १.५.९) और ‘आघारमाघारयति’ (तै०सं० ६.३.७.३, तै०ब्रा० ३.३.७) में ‘अग्निहोत्र’ और ‘आघार’ यज्ञों के नाम हैं। गुण तो अन्य शास्त्रवचनों में दिये हैं।१ षड्विंश ब्राह्मण (३.८.१) में कुछ और यज्ञों के नाम हैं— (१) अथैष श्येनेन अभिचरन् यजेत। (२) अथैष संदशनेन....। (३) अथैष गवाऽभिचरन्....। यहां ‘श्येन’, ‘संदशन’, ‘गो’ ये यज्ञों के नाम हैं। ‘श्येन’ का अर्थ पक्षीविशेष नहीं, न संदशन का अर्थ ‘चिमटा’ है, न ‘गो’ का नाम ‘गाय’। कुछ सादृश्य के कारण ये नाम पड़ गये हैं। जैसे ‘श्येन’ पक्षी अपने शिकार पर टूटता है ऐसे ही यजमान अपने शत्रु पर विजय पाता है। जैसे चिमटे से किसी चीज को जकड़ लेते हैं वैसा ही यज्ञ का फल होता है। गाय पुष्टि करती है इसी प्रकार यह यज्ञ भी फल देता है।१ ‘श्येन यज्ञ’ का अर्थ यह नहीं कि यज्ञ में ‘श्येन’ पक्षी मारकर डाला हो या गोयज्ञ में गौ। ये केवल नाम पड़ गये हैं।२ ‘वाजपेय’ भी एक यज्ञ का नाम है। ‘वैश्वदेवेन यजेत।’ यह वाक्य मैत्रायणी संहिता १.१०.८, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१०.१, शतपथ ब्राह्मण ५.२.४.१ में आया है। यहां ‘वैश्वदेव’ भी एक यज्ञ का नाम है। यहां ‘सब देव’ ऐसा अर्थ नहीं लेना चाहिये। क्योंकि इसी यज्ञ के सम्बन्ध में अग्नि आदि देव तो बता दिये गये हैं। अब कुछ ऐसे शब्द लेते हैं जो गुण विधि हैं। जैसे— यदाग्नेयोऽष्टकपालोऽमावास्यां पौर्णमास्यायां चाच्युतो भवति। ( तै०सं० २.६.३.३) वहां ‘आग्नेय’ शब्द गुणविधि है। ‘अग्नि’ से ‘ठक्’ प्रत्यय करके ‘आग्नेय’ बना। इससे कर्म और गुण दोनों का ही बोध होता है। ‘आग्नेय’ का अर्थ हुआ वह पदार्थ जो अग्नि पर पकाया गया है। कुछ ऐसे शब्द हैं जो विशेषरूप से यज्ञों में प्रयुक्त होते हैं। परन्तु अन्यत्र साधारण अर्थ में भी आते हैं। जैमिनि आचार्य का मत है३ कि ऐसे शब्द जहां जैसा संयाग हो उसी अर्थ में लेने चाहियें। जैसे ‘प्रोक्षणी आसादय’ (तै०ब्रा० ३.२.९.१४)। यहां ‘प्रोक्षणी’ का अर्थ है यज्ञ के लिये लाये हुये जल। परन्तु ‘घृतं प्रोक्षणं भवति’। यहां प्रोक्षण का धात्वर्थ सींचना मात्र है। ‘निर्मन्थ’ शब्द यज्ञ की अग्नि के लिये भी आता है और साधारण अग्नि के लिये भी। जैसे ‘निर्मन्थ्यमानय। ओदनं पक्ष्याम:’ =आग लाओ, भात पकायेंगे। कुछ शब्द अर्थवाद मात्र हैं, जैसे ‘वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत पुत्रकाम:’ (तै०सं० २.२.५.३, यजुर्वेद सं० २९.६०) यहां बारह कपालों का पुरोडाश बताकर आगे यह वचन मिलता है—‘यदष्टाकपालो भवति गायत्र्यैवैनं ब्रह्मवर्चसेन पुनीत।’ यहां ‘आठ’ शब्द गुणविधि नहीं। अर्थवाद है। अर्थात् उचित पदार्थ तो १२ कपालों का पुरोडाश ही है। ‘आठ’ शब्द तो केवल स्तुतिरूप में कह दिया गया। यह अर्थवाद कहीं सीधे शब्दों में हैं कहीं आलङ्कारिक भाषा में जैसे ‘यजमान: प्रस्तर:’ (तै०सं० २.६.५), ‘यजमान एक: कपाल:’ (तै०ब्रा० १.६.३.४)। यहां ‘प्रस्तर’ अर्थात् कुश को यजमान बताया। इसी प्रकार एक कपाल के पुरोडाश को भी यजमान कहा। यहां केवल यजमान से उपमा देकर इनका महत्त्व बताया है। इसी प्रकार ‘आग्नेयो वै ब्राह्मण:’, ‘ऐन्द्रो राजन्य:’, ‘वैश्यो वैश्वदेव:’ (तै०ब्रा० २.७.२.२) यहां ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की उपमा देकर महत्ता बताई है। यह भी अर्थवाद है। इसी प्रकार ‘अपशवो वा अन्ये गोऽश्वेभ्य:’ (तै०सं० ५.२.९.४)=गाय और घोड़े से भिन्न अपशु हैं। अयज्ञो वा एष योऽसामा। (तै० सं० १.५.७.१)=वह यज्ञ नहीं जिसमें सामगान नहीं। ‘असत्र वा एतद् यदच्छन्दोम्’ (तै०सं० ७.३.८.१)=वह सत्र नहीं जिसमें छन्दोभग्न न हो। यहां अपशु, अयज्ञ, असत्र यह अर्थवाद हैं और गाय, घोड़ा, यज्ञ और सत्र की स्तुति के सूचक हैं। ‘‘सृष्टीरुपदधाति’’ (तै०सं० ५.३.४) ‘‘प्राणभृत उपदधाति’’ (तै०सं० ५.२.१०,१२) ‘‘आज्यानि उपदधाति’’ (तै०ब्रा० ५.७.२,५) यहां ‘सृष्टी:’, ‘प्राणभृत:’, ‘आज्यानि’ ये ईंटों के नाम हैं जिनसे वेदी बनती है। इन ईंटों का यह नाम इसलिये पड़ा कि भिन्न-भिन्न ईंटों के कुछ मंत्र पढ़े जाते हैं। जो मंत्र ‘सृष्टी:’ शब्द से आरम्भ होते हैं वे सृष्टि मंत्र हैं और जो ईंटें इन मंत्रों को पढक़र चिनी जाती हैं वे ‘सृष्टी:’ कहलाती हैं, इसी प्रकार ‘प्राणभृत’ और ‘आज्यानि’ भी ईंटों के नाम हैं। आक्ता: शर्करा उपदधाति। तेजो वै घृतम्। (तै०ब्रा० ३.१२.५.१२) यहां शर्करा अर्थात् कंकड़ों को भिगोकर रखने का विधान है। ‘आक्ता:’ का अर्थ है भिगोया हुआ। यह नहीं बताया कि जल से भिगोया जाय या घी से। परन्तु ‘तेजो वै घृतम्’ इस वाक्य से स्पष्ट हो गया कि घी से भिगोना चाहिये।१ स्रुवेणाद्यति। स्वधितिना अवद्यति। हस्तेनावद्यति। यहां आहुति के लिये किसी पदार्थ को अलग निकालने को आवदान (अवद्यति-कर्म) कहते हैं। कुछ चीजें स्रुवे से निकाली जाती हैं, जैसे—घी; कुछ चाकू से काटी जाती है, स्वधिति चाकू का नाम है। कुछ हाथ से। यदि ऐसा विधान हो तो जो चीज जिस कारण से निकाली जासकें उसी का अर्थ लेना चाहिये। यह बुद्धि से समझ लेना चाहिये।१

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