सूत्र :अन्यायश्चानेकशब्दत्वम् २६
सूत्र संख्या :26
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ३ सूत्र ३५ तक की व्याख्या :
इस पाद का सार यह है—
(१) स्मृतियां भी प्रामाणिक हैं। क्योंकि इनको ऋषियों ने वेद के आधार पर रचा है। जहां उन मन्त्रों का पता न चले जिनके आधार पर स्मृतियां बनाई गई हैं, वहां समझ लेना चाहिये कि कोई न कोई वेद-वचन रहा होगा।
(२) जहां श्रुति और स्मृति में विरोध हो वहां श्रुति को ही मानना चाहिये। यह बहुधा होता है कि लोभी और स्वार्थी लोग स्मृतियां गढ़ देते हैं। उनको नहीं मानना चाहिये।१
(३) जो स्मृति-वाक्य प्रत्यक्ष अनुभव के अनुकूल हैं। उनको मानना चाहिये।
(४) कुछ ऐसे भी कर्म हैं जिनको शिष्ट पुरुषों ने अपनी ओर से कहा है जैसे ‘अमुक कृत्य आचमन करके करे।’ ‘अमुक काम यज्ञोपवीत धारण करके करे। ऐसे कर्मों को मान लेना चाहिये, क्योंकि उपदेश करनेवालों का स्वार्थ नहीं है और इनका विरोध वेदमन्त्र भी नहीं करते।२
(५) कभी-कभी एक शब्द के कई अर्थ होते हैं जैसे ‘यव’ शब्द का अर्थ ‘जौ’ भी है और प्रियङ्गु (पीपल भी)। ‘वराह’ का अर्थ सुअर भी है और काली चिडिय़ा भी। वेतस का अर्थ बेत भी है और जामन भी, यदि ये शब्द यज्ञ विधि के प्रकरण के जा जायें तो कौन-सा अर्थ लेना चाहिये। जैमिनि ने इसका यह निर्णय किया है कि शास्त्रज्ञ लोगों ने जो अर्थ किया वही मानना चाहिये।३
(६) कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका प्रयोग म्लेच्छ भाषाओं में होता है। वहीं से ये शब्द संस्कृत साहित्य में भी आ गये हैं। जैसे पिक, नेम, सत, ताम रस! प्रश्न यह है कि क्या इनको भी संस्कृत धातुओं से सिद्ध करके उनका अर्थ निकालना चाहिये। जैमिनि आचार्य का मत यह है कि ऐसे शब्दों का वही अर्थ लिया जाय जो म्लेच्छ भाषाओं में प्रसिद्ध है। धात्वर्थ लगाकर खींचातानी नहीं करनी चाहिये।१
(७) कल्पसूत्र प्रामाणिक नहीं हैं। उनमें बहुत-सी अनर्गल बातें हैं। ‘‘श्रुतिविरुद्धवचनान्न सत्यवाच:=’’ श्रुति के विरुद्ध होने से कल्पसूत्र माननीय नहीं।२
कुमारिल भट्ट ने इसका यह अर्थ किया है कि जो कल्पसूत्र श्रुति के विरुद्ध हैं जैसे जैनियों आदि के, वही अमाननीय हैं। कल्पसूत्र स्वत: प्रमाण नहीं, परत: प्रमाण हैं।३
(८) वेद के विधिवचन सब के लिये समान हैं। ‘सर्वधर्मता विधेन्र्याय्या=’ विधि में देश या काल की संकुचित व्यवस्था नहीं होती। जो कत्र्तव्य है वह सभी देशों में और कालों में कत्र्तव्य है।४
(९) शुद्ध शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। जिससे परम्परा न बिगड़े।
(१०) शब्द व्यक्तिवाचक नहीं, आकृति वाचक होते हैं। जैसे कहा ‘‘श्येनचितं चिन्वीत।’’ इसका अर्थ है श्येन की आकृति की वेदी बनाओ। यहां ‘श्येन’ शब्द आकृति सूचक है। व्यक्तिसूचक नहीं।५ वे आकृति के द्वारा व्यक्ति का भी बोध कराते हैं। जैसे ‘‘छ: गायें दान में दो।’’ यहां ‘गाय’ आकृति या जाति का बोधक है। केवल उसकी संख्या बताई गई है।
(११) जहां तक संभव हो शब्द का मुख्य अर्थ लेना चाहिये, गौण नहीं।