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‘यात्रा व पर्यटन से देवपूजा व संगतिकरण का लाभ, देश की एकता व अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास’

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ओ३म्

यात्रा पर्यटन से देवपूजा संगतिकरण का लाभ, देश की एकता अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

जब हम किसी उद्देश्य से एक स्थान से अन्य दूरस्थ स्थान पर जाते हैं तो घर से निकल कर घर वापिस लौटने तक भ्रमण किये गये स्थानों पर जाने को हम यात्रा का नाम देते हैं। यात्रा के अनेक उद्देश्य हुआ करते हैं। जैसे बच्चे सुदूर स्थानों पर रहने वाले अपने माता-पिता, दादी-दादा व नानी-नाना के घर जाते हैं तो इसे यात्रा कहा जाता है। इसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्य से हम आवासीय स्कूलों में पढ़ते हैं तो हमारा वहां जाना व अवकाश के दिनों में घर पर आना भी एक संक्षिप्त व सीमित यात्रा की परिधि में आता है। शिक्षा पूरी होने पर व्यवसाय के लिए युवक व युवतियां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन करते हैं। लिखित परीक्षा के लिए दूर-दूर के स्थानों पर जाना पड़ता है। उत्तीर्ण होने पर साक्षात्कार के लिए भी किसी अन्य दूरस्थ स्थान पर जाना होता है। यह सब भी यात्रायें हैं। यदि हमें अपने नगर या गांव से कहीं बाहर व्यवसाय करना होता है तो सप्ताह, माह या इससे अधिक अवधि के अन्तराल पर आना-जाना होता है। विवाह यदि निवास स्थान से दूर अन्य नगरों व स्थानों पर होता है तो समय-समय पर ससुराल में जाना-आना होता है तो इसके लिए भी यात्रा करनी पड़ती है।

 

केन्द्र सरकार, सार्वजनिक प्रतिष्ठान, राज्य सरकारों व कुछ प्राइवेट सेवाओं में नियोक्ताओं की ओर से अपने कार्मिकों को वर्ष, दो वर्ष या इससे कुछ अधिक अवधि में एक या अनेक बार यात्रा सुविधा दी जाती है जिसका उपभोग कर व्यक्ति पर्यटन के प्रसिद्ध स्थानों यथा पोर्ट ब्लेयर, गोवा, कन्याकुमारी, गंगटोक, शिलांग-गुवाहाटी, अरूणाचल प्रदेश, मुम्बई, द्वारिका, सोमनाथ मन्दिर, हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी आदि स्थानों पर जाते हैं। उन्हें अपने विभाग की ओर से यात्रा का किराया मिल जाता है और परिवार के लोग कुछ होटल-धर्मशालाओं व भोजन आदि पर अपनी तरफ से व्यय करके इन स्थानों पर घूम कर मन को प्रसन्न व आनन्दित अनुभव करते हैं।  ईश्वरीय ज्ञान मानी जाने वाली सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद में एक स्थान पर आता है कि हे मनुष्यों, तुम ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को देखो, परखो व जानों, जो न कभी नष्ट होती है, न पुरानी और जीर्ण होती है। दार्षनिक सिद्धान्त भी है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की सुन्दरता, भव्यता व रचनादि विशेष गुणों को देखकर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का ज्ञान होता है। अतः यात्रा का उद्देश्य ऐसे स्थानों पर जाना होता है जो सुन्दर, सुविधापूर्ण, सुख की अनुभूति कराने वाले हों व इसके साथ वहां के लोगों के पहनावें, बोलचाल, व्यवहार, आचार व संस्कृति आदि का अनुभव कराने वाले हों।  मनुष्य को सुखद जीवन व्यतीत करने के लिए संसार में जड़ व चेतन की संगति करना अपरिहार्य है। मनुष्य का जन्म ही संगति का परिणाम है। परिवार में बच्चों की माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, ताऊ-चाचा, तायी-चाची, बुआ आदि हुआ करती हैं। इनकी संगति व सहयोग से ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास व उन्नति हुआ करती है। इसके बाद वह अपने आचार्यों व सहपाठी विद्यार्थियों की संगति करते हैं जिससे उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इसी प्रकार से वह जीवन-यात्रा में जिन-जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं उनकी संगति से भी उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इन सबसे व्यक्तित्व के निर्माण में लाभ होता है। यात्रा या पर्यटन का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से ही हो गया था। तिब्बत में लगभग 2 अरब वर्ष पहले सृष्टि की रचना सम्पन्न होने, मनुष्य व प्राणी जगत की उत्पत्ति होने के बाद लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोग चारों ओर बढ़ते या फैलते गये। नये-नये स्थानों का अनुसंधान किया गया और वहां बस्तियां बसाईं गईं। आरम्भ में कुछ व्यक्ति 10, 20 या 50 बसे होगें जो आज एक नगर या देश बन गये हैं। इस प्रकार से यात्रा का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ही हो गया था जो सतत जारी है और आज भी समर्थ व सम्पन्न लोग समय-समय पर यात्रा कर अपनी उस प्रवृत्ति को पूरा करते हैं।

 

मनुष्यों में यात्रा की प्रवृत्ति जन्मजात या ईश्वर प्रदत्त एक गुण के रूप में है। इसी प्रवृत्ति के कारण सुदूर अतीत में धार्मिक पर्यटन का उद्भव हुआ था। देश की एकता व अखण्डता के लिए भी धार्मिक पर्यटन सहायक रहा है। हमारे सनातन धर्म के बन्धुओं के तीर्थ स्थान भारत के सभी स्थानों पर हैं जिससे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम के लोग उत्तर में हरिद्वार, ऋषिकेश, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानों पर आते हैं। यहां उत्तर भारत व अन्य स्थानों के लोग दक्षिण के रामेश्वरम्, मदुरै के विशाल भव्य मीनाक्षी मन्दिर, कांचीपुरम् के शंकराचार्य मठ, पश्चिम के सोमनाथ मन्दिर, द्वारिका, दिलवाड़ा व पालिताना मन्दिरों तथा पूर्व के कामाख्या, जगन्नाथपुरी, गंगासागर आदि स्थानों पर जाते हैं जिससे पूरे देश की यात्रा और धर्म-कर्म हो जाता है। देश के सभी स्थानों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। एक विचारधारा होने से प्रेम व सहयोग की भावना उत्पन्न होती है जिससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है। अतः यात्रा बहु-प्रयोजनीय सिद्ध होती है। आजकल इन यात्राओं का एक पहलु और सामने आया है और वह है पर्यटन स्थल व प्रदेश का आर्थिक व सामाजिक विकास।  हम लोग चेन्नई में एक समुद्र तट पर गये जहां प्रतिदन सायं को मेला सा लगता था। वहां फुटपाथ पर सामान रखकर बेचने वाले सभी तमिल भाषी लोग थे परन्तु यह सब ग्राहकों से अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। ऐसा ही हमने दक्षिण भारत के त्रिवेन्द्रम, मदुरै व कन्याकुमारी आदि स्थानों पर भी पाया। हमें लगता है कि यात्राओं व पर्यटन से गुजरात के महर्षि दयानन्द का वह स्वप्न कुछ साकार हुआ सा लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरी आंखे वह दिन देखना चाहती हैं कि जब भारत के सभी स्थानों व प्रदेशों में देवनागरी अक्षरों, लिपि व हिन्दी भाषा = बोली का प्रचार होगा। यह सब कार्य पर्यटन और यात्राओं से सम्भव हुआ है। धार्मिक व पर्यटन स्थलों पर देश व विदेश से लोग आते हैं। इससे वहां होटल, वाहन व यात्रा के साधनों व इनसे जुड़े नाना छोटे-बड़े उद्योगों को बढ़ावा मिलता है और वहां का आर्थिक विकास होता है। सरकारें भी तीर्थ स्थलों व पर्यटन स्थलों के विकास के लिए सावधान हैं जिससे देश व समाज को नानाविध लाभ हो रहे हैं। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि तीर्थ स्थान का अर्थ होता है कि जहां जाने से दुःख छूट जायें। प्राचीन काल में जिन स्थानों पर बड़े-बड़े योगी, ईश्वर के उपासक, ज्ञानी, चिन्तक व विचारक रहते थे, उनके आश्रमों को तीर्थ कहा जाता था। वहां जाने से यात्री अपनी शंकाओं, समस्याओं, दुःखों, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान पाते थे। आजकल तीर्थ स्थानों पर जाने का महात्म्य तो बहुत बताया जाता है परन्तु वह किसी का आज तक पूरा हुआ या नहीं, इसका कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द व दर्शनों का कार्य-कारण cause and effect का सिद्धान्त काम करता है। इसे कर्म-फल सिद्धान्त भी कहते हैं। कोई भी पाप क्षमा नहीं किया जाता है। कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। हां, प्रायश्चित करने से भविष्य के लिए पापों में प्रवृत्ति को रोक कर उसे सद्कर्मों में प्रेरित किया जा सकता है। यदि हम केवल किसी जड़ पदार्थों से निर्मित देव मूर्तियों के दर्शन करके ही किसी बड़े फल की इच्छा करने लगें तो यह असम्भव है। दर्शन से तो केवल आंखों को लाभ हो सकता है जैसे भोजन का लाभ उठाने के लिए खाना पड़ता है, दवा को देखने से लाभ नहीं होता अपितु उसे भी नियम पूर्वक सेवन करने से लाभ होता है। मूर्तिपूजा से भी इसी प्रकार आंखों से अनुभूत क्षणिक सुख-लाभ ही होता अन्य कुछ नहीं। यदि हमारे कर्म व पाप-पुण्यों में ईश्वर के गुणों व शिक्षाओं का सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है तो उससे कदापि कोई लाभ नहीं न हुआ है न होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई कसाई तीर्थ यात्रा करे और वह अपना काम उसके बाद भी जारी रखे तो उसे इस जन्म व परजन्म में लाभ होने के स्थान पर हानि ही होती है। हां, यदि बार-बार परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाला कोई मूर्तिपूजक व तीर्थगामी विद्यार्थी किसी गुरू के पास जाकर अथवा किसी तीर्थ स्थान पर जाकर वहां विद्वानों से मिलकर अपना सुधार करे, मनोयोग से समझ कर अध्ययन करे, असत्य व मिथ्या आचरण के त्याग की प्रतिज्ञा, व्रत व संकल्प करता है तथा सत्य के ग्रहण व उसके लिए पुरूषार्थ का संकल्प कर तदानुकूल आचरण करता है तो इससे निश्चित रूप से उसे लाभ होगा।

 

यात्रा के सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारा जीवन अपने आप में एक यात्रा है। हम यहां माता-पिता के माध्यम से संसार में आते हैं, कर्म करते हैं, पूर्व व वर्तमान जीवन के कर्मों के फलों को भोगते हैं, सुख-दुख का अनुभव कर शैषव, किशोर, युवा व वृद्धावस्थाओं से गुजरते हुए मुत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मों की बची पूंजी जिसे प्रारब्ध या भाग्य कहा जाता है उसके अनुसार हमारा पुनर्जन्म होता है और फिर उस जन्म में भी प्रारब्ध का भोग व नये कर्म करके नया प्रारब्ध बना कर वहां से फिर अन्य जन्म के लिए आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जीवन की एक अनन्त यात्रा चल रही है जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है और न हि अन्त। यह बिना ओर व छोर वाली नदी है। इसमें निरन्तरता है। विज्ञान का अविनाशिता का नियम अर्थात् न कोई वस्तु बनाई जा सकती है और न हि नष्ट की जा सकती है, यहां भी लागू होता है। आत्मा न बनती है न नष्ट होती है। इसी बात को कहा जाता है कि आत्मा अजन्मा व अमर है, अनादि व अनन्त है। इस जीवन यात्रा में एक बड़ा मुकान “मोक्ष या मुक्ति” का आता है। मुक्ति सद्कर्मों व ईश्वर साक्षात्कार का परिणाम होती है। सद्कर्मों व ईश्वरोपासना से ईश्वर साक्षात्कार के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह पुरूषार्थ अर्थात् धर्म-कर्म ही मोक्ष व मुक्ति का कारण, साधन या आधार होता है। चिन्तन, मनन, अध्ययन व अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह मत, सम्प्रदाय व धर्म के नाम से माने जाने वाले सभी धर्मावलम्बी मनुष्यों के लिए एक समान ही है। संसार के सभी मत-सम्प्रदायों व धर्मों का आधार मनुष्य ही हैं, परमात्मा नहीं। परमात्मा ने तो एक ही धर्म बनाया है और वह है मानवता, मनुष्यता, सत्य का आचरण, ज्ञान पूर्वक कर्म।  सम्प्रदाय व मत विशेष की विचारधारा में अपने आपको कैद न करके इस ब्रह्माण्ड की स्वयं को एक इकाई मानना और सर्वव्यापक, सर्वोत्तम, चेतन, न्यायकारी व आनन्दस्वरूप परमात्मा को अपना नेता, आचार्य, गुरू, माता-पिता, राजा और न्यायाधीश मानना चाहिये। इससे स्वयं को भी सुख मिलेगा और संसार में भी सुख-शान्ति में वृद्धि होगी। यह जीवन यात्रा का संक्षेप में उल्लेख किया है जो कि सत्य है और इसे स्वाध्याय, विचार व चिन्तन तथा विद्वानों से शंका समाधान कर जाना व माना जा सकता है।

 

यात्रा कैसी भी हो, उसका एक उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य सुख व सकून की प्राप्ति व उपलब्धि है। जब तक संसार है, मनुष्य छोटी-बड़ी सभी प्रकार की यात्रायें करते रहेगें। हां, हमें यह प्रयास करना चाहिये कि यात्रा में जाने पर हम जहां जायें वहां के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें। वहां जो सबसे अधिक ज्ञानी व्यक्ति हों, उनसे मिले। उनके जीवन का निचोड़ जाने और उन्हें सम्मान व कुछ द्रव्य देकर तथा कृतज्ञता पूर्वक उनसे विदा लें। वहां सामान्य व सभी लोगों के सम्पर्क में आकर उन्हें अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। उनके अनुभवों से लाभ उठायें व अपने अनुभव उन्हें बतायें जिससे यात्रा का उद्देश्य भली-भांति पूरा हो सके।

मनमोहनकुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2 

देहरादून-248001

 फोनः 09412985121

वर्तमान युग में वेदों की प्रासंगिकता : शिवदेव आर्य, पौन्धा, देहरादून

veda

 

परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि का निर्माण किया तब सृष्टि में अनेकविध जड़-चेतनों का निर्माण किया। इन नाना विध जड़-चेतनों में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ है तो वह है मनुष्य। जैसे परमात्मा ने अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को बनाया है ठीक वैसे ही मनुष्यों ने भी अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के रुप में संसार का निर्माण किया है। इसीलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। मनुष्य ने जिस प्रकार के नियम और व्यवस्था की है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता  हैै कि उसने पूर्णरुप से परमात्मा की नकल की है क्योंकि परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि के नियमों के सदैव अनुकुल रहता है वैसे ही मनुष्य अपने द्वारा निर्मित समाज के नियमों में बंधा हुआ होता है। इस प्रकार हम इसके मूल को खोजे  तो हमें ज्ञात होता है कि अनुशासन में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि नियमों के सर्वदानुकुल रहता है। क्योंकि परमेश्वर अपने आपमें अनुशासित होता है। यदि परमेश्वर अनुशासित नहीं होता तो प्रतिदिन प्रलय और निर्माण करता रहता। वह १४ मनवन्तरों के इतने लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करता। जिस समय जो चाहता वहीं करता। इसी अनुशासन को हम जड़-चेतन दोनों में ही देख सकते हैं। जड़रुपी सूर्य यदि अनुशासन के अन्दर नहीं होता तो वह अपनी इच्छा से निकलता और डूबता, परन्तु ऐसा नहीं है।

इसीलिए अनुशासन की नितान्त अनिवार्यता है। इसी कारण अनुशासन के अभाव में अव्यवस्था न फैल जाये । इस प्रकार सोचकर परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के आदि में चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। इस वेद के ज्ञान से सम्पूर्ण प्राणी मात्र अनुशासन सहित अनेक विध ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करे व करावें और धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष को प्राप्त होवे।

पशुओं को अपने जन्म के पश्चात् माँ के स्तनपान करना सीखना नहीं पड़ता। पशुओं में जन्म से ही तैरने का गुण विद्यमान होता है। पशुओं की संवेदन शक्ति बहुत तीव्र होती है। इस बात को वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करते हैं। इसीलिए तो जब कोई मन्त्री या नेता आदि लोग आते हैं  उनके सेवक गण गुप्त स्फोटक पदार्थों को ढूढ़ने के लिए मशीन के साथ-साथ कुत्तों को भी लेकर आते हैं। इसप्रकार हम कह सकते है कि पशु जन्म से ही पूर्ण है। वो भोगों को भोगने के लिए इस सृष्टि पर आये हैं न कि कर्म करने के लिए। इसीलिए पशुओं को भोगयोनि की श्रेणी में रखा जाता है। अतः परमेश्वर ने वेदों का ज्ञान प्राणीमात्र के लिए प्रदान किया है।

सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि को, यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि को, सामवेद का ज्ञान आदित्य ऋषि को, अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा को प्रदान किया। इन्हीं ऋषिओं की परम्परा से वेदों का शुध्द ज्ञान आज हम को प्राप्त हो रहा है। इन चारों वेदों में प्रत्येक विषय का ज्ञान है। पुनरपि मुख्य रुप से ज्ञान, कर्म और उपासना ये तीन वेदों के विषय हैं।

माता-पिता जिस प्रकार अपनी सन्तान को कार्य करने के लिए सुख, सुविधा के लिए उसकी आवश्यकताओं  की पूर्ति करते हैं वैसे ही संसार के लोगों के लिए उस  परमेश्वर ने आवश्यक वस्तु वेद को मानव समाज को दिया। इन वेदों में वो सम्पूर्ण सामग्री है जिसे पाकर मनुष्य सुख-शान्ति व समृध्दि को पा कर अत्यन्त परमधाम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

जब हमारा जन्म होता है तब हमारी माता जी हमें बताती हैं कि अमुक व्यक्ति तुम्हारा भाई हैं, पिता हैं इत्यादि। जितना माता अपने  बच्चों से प्यार करती है, उतना और कोई कदापि नहीं कर सकता।

वेदों को भी इसीलिए वेदमाता प्रचोदयन्ताम्…..मन्त्र से माता के नाम से सम्बोधित किया जाता है। क्योंकि वेदमाता परमपिता परमेश्वर के विषय में जितना बता सकती है, उतना और दूसरा कोई नहीं बता सकता  इसलिए परमपिता परमेश्वर को अच्छी प्रकार से जानने के लिए वेद को जानना और मानना नितान्त अनिवार्य है। मानव समाज के लिए वेद की भूमिका में सबसे महत्वपूर्ण बात है आस्तिक बनना। जब व्यक्ति आस्तिक हो जायेगा तो समाज अत्यधिक उन्नति करेगा। आस्तिकता के आते ही मनुष्य अनुशासित हो जाता है। अनुशासन के अन्तर्गत ही मनुष्य नियम पूर्वक कार्य करने लगता है। आस्तिक होने का सीधा-साफ अर्थ है-परमेश्वर को सर्वव्यापक मानना। इसी से मनुष्य जब भी कोई कार्य करता है तब यही महसुस करता है कि उसे परमेश्वर देख रहा है। परन्तु वर्तमान समय में अनुशासन नहीं हैं, इसका कारण है कि हम आस्तिक नहीं है, वेद को नहीं मानते  (नास्तिको वेद निन्दकः)

इसी अनुशासन के आभाव में दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार व्याप्त हो रहा है। इन सब समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए हमें वेद की शरण में जाना पडे़गा। वेदों की महत्वपूर्ण भूमिका मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि – मेरा घर परिवार सुखी हो, समृध्दि से भरा हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पत्नी मधुरभाषी हो। इन्हीं बातों को वेद में इसप्रकार व्यक्त किया गया है –

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवान् ।।

                                                    ( अथर्व.-३/३॰/२)

अर्थात् पुत्र पिता का अनुव्रती होवे अर्थात् पिता के व्रतों को पूर्ण करने वाला हो। पुत्र माता के साथ उत्तम मन वाला हो अर्थात् माता के मन को संतुष्ट करने वाला हो। पत्नी पति के साथ मधुर एवं शान्ति युक्त बोले। इसी बात को चाणक्य ने लिखा है कि –

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।

विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्गम् इहैवहि

                                                                 (चाणक्यनीति)

मनुष्य को सुखी रखने के लिए चाणक्य जी कहते हैं कि-

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ता स पिता यस्तु पोषकः।

तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निवृत्तिः।।

पुत्र वही है जो पिता का भक्त हो और पिता  का भक्त हो और पिता वही जो पुत्र का पालन पोषण करता हो, मित्र वही जिस पर विश्वास किया जाये और पत्नी वही है जिससे सुख प्राप्त किया जाए।

इस प्रकार वेद तथा ऋषिग्रन्थ यही बताते हैं कि सुखी जीवन के लिए परिवार में परस्पर उत्तरदायित्व तथा सहयोग की भावना बनी रहे।

मानव समाज को व्यवस्थित रखने के लिए लोगों के कार्य भी व्यवस्थित होने चाहिए। इसीलिए वेद में कहा गया है-

ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद् बाहूः राजन्यः कृतः।

उरु तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत्

इस मन्त्र से सिध्द होता है कि सम्पूर्ण संसार के मनुष्यों को कर्म के आधार पर चार भागों में बाँटा गया है।

ब्राह्मण: वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना, दान लेना तथा देना करना कर्मों को करना ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है;-

अध्यापनमध्यनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिगृह´चैव ब्रह्मणनामकल्पमत्।। (मनु.-१/८८)

क्षत्रिय: प्रजा का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना एवं विषयों में आसक्त न होना आदि कर्मों को करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है।।

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रशक्ति क्षत्रियस्य समासतः।। (मनु.-१/८९)

वैश्य: पशुओं का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य-व्यापार आदि कर्मों को करना वैश्यों का परम कर्तव्य है।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। (मनु.-१/९॰)

शुद्र: उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा शुश्रूषा करना शूद्रों के कर्म हैं।

एकमेव तु शुद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। (मनु.-१/९१)

इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था समाज में होने से सुख-शान्ति का माहौल बना रहता है।

मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कर्म योनी के अन्तर्गत आता है। मनुष्यों को कार्य करने की स्वतन्त्रता है परन्तु फल भोगने की स्वतन्त्रता नहीं है। जैसे योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि-

      कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

      मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि।।

मनुष्य कर्म करने में सर्वदा स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। इसीलिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि इन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्यों को फल मिलता है। अच्छे बुरे कर्मों की पहचान के लिए कहा गया है कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ अर्थात् स्वयं को जो व्यवहार अच्छा न लगे, उसे अन्यों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। हमारी आत्मा सही गलत का सही निर्णायक है। इसीलिए जब अपनी आत्मा को कोई कार्य अच्छा न लगता हो भला वह कार्य दूसरों के लिए कैसे हितकर हो सकता है? ऐसी विचारधारा के होने से हम गलत कार्यों के करने से रुक जायेंगे।

मनुष्य का सदाचारी होना बहुत जरुरी है। सदाचारी मनुष्य ही समाज में सुखी रह सकता है और दूसरों को सुख दे सकता है। वर्तमान समाज में सदाचार की नितान्त अनिवार्यता है। इसके लिए वेद हमें उपदेश देते हुए कहता है कि-

सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यं हुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीतो पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।। (ऋग्वेद-१॰/५/६)

अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण और इन पापों के करने वालों दुष्टों का सहयोग करने का नाम सप्त मर्यादा है। इनमें से जो एक भी मर्यादा का उल्लंघन करता है अर्थात् एक भी पाप करता है, वह पापी होता है और जो धैर्य से इन हिंसादि पापों को छोड़  देता है, वह निस्संदेह जीवन का स्तम्भ ;आदर्शद्ध होता है और मोक्षभागी होता है।

उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जाहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।

सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र।। (ऋग्वेद-७/१॰४/२२)

अर्थात् गरुड़ के समान मद (घमंड), गीध के समान लोभ, कोक के समान काम, कुत्ते के समान मत्सर, उलूक के समान मोह (मूर्खता) और भेडि़या के समान क्रोध को मार भगाना अर्थात् काम, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि छह विकारों को अपने अन्तःकरण से हटा दो।

आज संसार में सत्यता का अभाव है इसी लिए कहा जाता है कि – सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्………’ सत्य बोलने के साथ-साथ मधुर भाषण होना चाहिए। अतः कहा गहा है कि-

जिह्नाया अग्रे मधु मे जिह्नामूले मधूलकम्।

     ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।   

     मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

     वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधु संदृशः।।        (अथर्ववेद-१/३४/२-३)

अर्थात् मेरी जिह्ना के अग्रभाग में मधुरता हो और जिह्ना के मूल में मधुरता हो। हे मधुरता! मेरे कर्म में तेरा वास हो और मेरे मन के अन्दर भी तू पहुँच जा। मेरा आना-जाना मधुर हो, मैं स्वयं मधुर मूर्ति बन जाऊॅ।

हमारी किसी भी इन्द्रिय से अभद्र, असभ्य व्यवहार न होवे इसके लिए वेद बारम्बार आदेश देता है –

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायुः।। (यजुर्वेद-२५/२१)

समाज में शराब पीना व जुआ खेलना एक शौक हो गया है। इन कृत्यों से समाज का निरन्तर पतन ही हो रहा है। एतदर्थ इनकी रोकथाम के लिए वेद कहता है कि –

हत्सु पीतासे युध्यन्त दुर्मदासो न सुशयाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते।।

अर्थात् दिल खोलकर शराब पीने वाले दुष्ट लोग आपस में लड़ते हैं और नंगे होकर व्यर्थ बड़बड़ाते हैं, इसीलिए शराब कदापि नहीं पीनी चाहिए।

जिसप्रकार शराब पीना बुरा है, उसी प्रकार जुआ खेलना भी बुरा है। वेद उपदेश देता है:-

जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्वस्वित्। 

ऋणावा विभ्यध्दनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति।।

अर्थात् जुआरी की स्त्री कष्टमय अवस्था के कारण दुःखी रहती है, गली-गली मारे-मारे फिरने वाले जुआरी की माता रोती रहती है,  कर्जे से लदा हुआ जुआरी स्वयं सदा डरता रहता है और धन की इच्छा से वह रात के समय दूसरों के घरों में चोरी करने के लिए पहुँचना है, इसलिए जुआ खेलना अत्यन्त बुरा है।

इसी प्रकार चोरी को भी बुरा बतलाया गया है। अतः अथर्ववेद में कहा गया है कि-

येऽमावास्यां रात्रिमुदस्थुव्र्राजमत्रिणः।

अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत्।।

अर्थात् जो मुफ्तखोरे, भूखे और भटकने वाले रात्री में बस्ती के भीतर चोरी करने और डाका डालने के लिए आते हैं, उनसे बचने के लिए राजपुरुष सबको सचेत करता है और उन्हें पकड़कर मार डालता है। इसीलिए कभी भी किसी की चोरी नहीं करनी चाहिए।

वास्तव में यह सत्य प्रतीत होता है कि हम यदि वेद के द्वारा निर्दिष्ट मार्गों का अनुसरण करने तो निश्चित ही आज समाज में फैली बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगी। इसीलिए हम सबको वेदों की प्रासंगिता को समझते हुए संगच्छध्वं संवदध्वम्’ की भावना से ओत-प्रोत होते हुए वेद के द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

वेदों की श्रेष्ठता के बारे में श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी कहते हैं कि-

वेद-वेद के मन्त्र मन्त्र में,

                मन्त्र मन्त्र की पंक्ति-पक्ति में।

                पंक्ति-पंक्ति के अक्षर स्वर में,

                दिव्य ज्ञान आलोक प्रदीप्त।।

आर्यों! वेदनिधि को पहचान कर स्वयं को वेदानुकुल बनावें और दूसरों को भी वेद मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश देवें।

 

– श्रीमद् दयानन्दार्ष-ज्योतिर्मठ-गुरुकुल,

दून-वाटिका-२, पौन्धा, देहरादून

Making of Bharat Desh

 

jagrut bharat

वेदों के अनुसार भारत  देश.

राजा द्वारा भारत देश निर्माण

गौ ,शिक्षा और राजा के आचरण, इन तीन का राष्ट्र निर्माण मे महत्व

 RV5.27

 

 ऋषि:- त्रैवृष्ण्याष्ययरुण:,पौरुकुत्सस्त्रसदस्यु:भारतोश्वमेधश्च राजान: ।

अग्नि:, 6 इन्द्राग्नी। त्रिष्टुप्, 4-6 अनुष्टुप्।

ऋषि: = 1. त्रैवृष्णा:= जिस के उपदेश तीनों  मन शरीर व आत्मा के सुखों को शक्तिशाली बनाते  हैं  

            2. त्र्यरुण:= वह तीन जो  मन शरीर व आत्मा के सुखों को प्राप्त कराते हैं

            3.पौरुकुत्स त्रसदस्य: = जो राजा सज्जनों का पालक व तीन (दुराचारी,भ्रष्ट , समाज द्रोही)

              दस्युओं को दूर करने वाला

4. राजान भारतो अश्वमेध: ;

भारतो  राजान:  – राजा जो स्वयं की यज्ञमय आदर्श जीवनशैलि  से प्रजा को भी यज्ञीय

मनोवृत्ति वाला बना कर राष्ट्र का उत्तम भरण करता है .

               अश्वमेध: – अश्व- ऊर्जा  और मेधा- यथा योग्य मनन युक्त आत्म ज्ञान को धारण करने वाली

परम बुद्धि

            इन्द्राग्नी = इन्द्राग्नि: = उत्साह और ऊर्जा से  पूर्ण सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे विजयी व्यक्ति  Have fire in their belly to be ultimate Doers

 

COWS’ role in Vision for Bharat varsh  Nation

1.    अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन: ।

त्रैवृष्णो अग्ने दशभि: सहस्रैर्वैश्वानर ष्ययरुणश्चिकेत ।।RV5.27.1

(गावा चेतिष्ठ:) गौओं से  प्राप्त उत्तम चेतना द्वारा (सत्पति: ) सज्जनों के पालन के लिए भूत  काल की उपलब्धियों के अनुभव के आधार पर  वर्तमान और भविष्य के लिए (तीनों काल )(त्रैवृष्ण:)में शरीर, मन, बुद्धि  तीनों को  शक्तिशाली बनाने वाली (असुरो मघोन:) ऐश्वर्यशाली प्राण ( जीवन शैलि ) को  (त्र्यरुण:) शरीर , मन और बुद्धि  के लिए ज्ञान ,कर्म और उपासना द्वारा  (दशभि: सहस्रैर्वैश्वानर) समस्त प्रजा की प्रवृत्तियों की  धर्म अर्थ और काम की उन्नति के लिए (अनस्वन्ता) उत्तम वाहनों से युक्त समाज, (मामहे) उपलब्ध कराओ.

Excellent cows should be ensured to build physically healthy, peaceful and high intellectual society. Current and Future planning should be based on experience of past working results, to obtain excellent Health, Mentality and Intellect in the nation to provide for a prosperous life style. Such a nation is self motivated in following the path of righteous behavior, charitable disposition and God loving conduct in their daily life.

Among other things excellent infrastructure of communication, transport should be provided.

Hundreds of well fed cows

 2.यो मे शता च विंशतिं च गोनां हरी च युक्ता सुधुरा ददाति ।

वैश्वानर सुष्टुतो वावृधानोऽग्ने यच्छ त्र्युरुणाय शर्म ।। RV 5.27.2

(वैश्वानर) धर्म अर्थ और काम को प्राप्त कराने वाली ऊर्जा और (वावृधान: अग्नि:) निरन्तर प्रगति देने वाले यज्ञ (त्र्यरुणाय) शरीर, मन और बुद्धि  के लिए सेंकड़ों गौओं और  बीसियों  उत्तम शकटों से (हरी:) जितेंद्रिय पुरुषों से –भौतिक साधनों और श्रेष्ठ समाज से  युक्त हो कर  (शर्म यच्छ) विश्व का कल्याण  प्राप्त करो

Urge for continuous strong positive motivation based activities in individuals creates a prosperous, peace loving, healthy, self disciplined sustainable society with hundreds of cows and dozens of carts loaded with green fodder for cows for a organic food, and good infrastructure base. Nation provided with such infrastructure has a society that is rich in physical resources, and  has well behaved people for welfare of the world.

Planning in Nation

3. एवा ते अग्ने सुमतिं चकानो नविष्ठाय नवमं त्रसदस्यु: ।

     यो मे गिरस्तुविजातस्य पूर्वीर्युक्तेनाभि ष्ययरुणो गृणाति ।।RV 5.27.3

तेजस्वी विद्वान प्रकृति के विधान और अनुभव से प्राप्त ज्ञान के उपदेशों की कामना करता हुआ सब वासनाओं से मुक्त समाज के निर्माण द्वारा भविष्य के लिए उत्तम नवीन समाज की  आवश्यकताओं की पूर्ती और  तीनो प्रकार तन , मन और आत्मा से सुखी समाज का निर्माण करता है और सब से ऐसी विचार धारा का सम्मान करने को कहता है.

Bright enlightened intellectual leadership seeks guidance from Nature the environment friendly and traditional empirical wisdom to build a hedonism free culture for the growing needs and aspirations of future generations. By honoring and propagating such wisdom only an ideal and happy society is evolved.

Education in Nation

 4. यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये ।

दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ।।RV 5.27.4

(राजा का दायित्व है कि ) जो विद्वद्जन (राष्ट्र की उन्नति के लिए) समाज में ऊर्जा (भौतिक और आत्मबल ) के विस्तार और सत्य असत्य के निर्णय करने मे समाज को सक्षम  करने के वेद विद्यानुसार उपदेश करते  हैं,उन को सम्माननीय पद दे  और उन का सत्कार करे.

For growth of the nation it is responsibility of King recognize, honor and promote intelligent teachers that develop the society by educating it in growth conservation of physical energies and their mental energies, with ability to discern truth from untruth.

Bulls make excellent Nation

5. यस्य मा परुषा: शतमुध्दर्षयन्त्युक्षण: ।

अश्वमेधस्य दाना: सोमा इव त्र्याशिर: ।। RV5.27.5

(यस्य मा शतम्‌ उक्षण: परुषा:) जो मेरे लिए , सेंकड़ो क्रोध  से  रहित सधे हुए वीर्य सेचन में समर्थ उत्तम वृषभ और  कठिन परिश्रम साध्य बैल, (त्रयाशिर:)   तीनों – बालक,  युवा, वृद्ध तीनों प्रजाजनों  के लिए – राष्ट्र में (अश्वमेध-ऊर्जा और मेधा)  –  तीनों  वसु (भौतिक सुख के साधन) रुद्र रोगादि से मुक्त,आदित्य सौर ऊर्जा के द्वारा, तीनों दूध,दही और अन्न  (सोमा: इव) श्रेष्ठ मानसिकता  तीन प्रकार से  शरीर को नीरोग,मन को निर्मल बुद्धि को तीव्र बनाते और (दाना:)इन दानों से  (उद्धर्ष्यन्ति ) उत्कृष्ट उल्लास का कारण बनते हैं .

Bulls that have excellent breeding soundness for providing excellent cows and oxen that are strong and mild mannered to provide power to the nation

Provide excellent health nutrition and intellect to all the three ie. infants youth and old persons with three bounties of happiness ie. Healthy environments, cheerfulness and solar energy by the three items of cows milk, curds and organic food to provide the three bounties of healthy disease free life, positive attitudes in life and sharp intellect to spread happiness all round.

6. इन्द्राग्नी शतदाव्न्यश्वमेधे सुवीर्यम् । 

क्षत्रं धारयतं बृहद् दिवि सूर्यमिवाजरम् ।।RV 5.27.6

उत्साह और ऊर्जा से  पूर्ण सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे विजयी,  योग्य मनन युक्त आत्मज्ञान  को धारण करने वाली परम बुद्धि से युक्त समाज,  असङ्ख्य पदार्थों से सूर्य के सदृश उत्तम पराक्रम तथा बलयुक्त  नाश से रहित महान राष्ट्र का निर्माण होता है.

Thus is created a Nation that is strong to protect itself from all destructive internal and external enemies, where the society consists of a prosperous, self motivated well behaved intelligent people.

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

brahmacharya

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

लेखक – श्री डॉक्टर केशवदेव शास्त्री 

भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का प्रधान अंक ब्रह्मचर्य की शिक्षा था | ब्रह्मचर्य पर ही संस्कारो का आधार था | ब्रहमचर्य पर ही योग की ऋषि सिद्धियो का दारोमदार था | समय था जब विश्वास पूर्वक ऋषि महर्षि ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासुओ को ब्रह्मचर्य के धारण करने और तदन्तर प्रश्नों के उत्तर मांगने का आदेश दिया करते थे | समय की निराली गति ने भारत वर्ष के निवासियों की वह दुर्दशा की कि जंहा नित्य प्रति लोग ब्रह्मचर्य के गीत गाते थे, वाही बाल विवाह का शिकार बन रहे है | सुश्रुत में बताया है कि यदि २५ वर्ष से न्यून आयु का पुरुष और १६ वर्ष से न्यून कि कन्या विवाह करेंगे तो प्रथम तो कुक्षि में ही गर्भ कि हानि होंगी | यदि बालक उत्पन्न हो भी जावे तो चिरकाल पर्यंत जीवेंगा नहीं और यदि जीता भी रहा तो दुर्बलेन्द्रिय होंगा |

पाठक गण ! विचारिये, आज हमारी क्या स्तिथि है ? क्या लाखो बालक बालिकाये शिशु जीवन धारण कर मर नहीं रहे और यदि जीते भी है तो करोडो नर नारी दुर्बलेन्द्रिय बन रोगों में ग्रसित दिखाई देते है | कितनी बार हम लोगो ने इन जातीय त्रुटियों पर आंसू बहाये है परन्तु निदान ही जब भूल युक्त हो तो लाभ कि आशा कैसे हो सकती है ?

वेद ने तो स्पष्ट कहा है कि :-

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम |

अंडवान ब्रह्मचर्य्येणाश्वो घासम जिघिर्षति ||

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार केवल ब्रह्मचारी पुरुष और ब्रह्मचारिणी कन्या को ही प्राप्त है |

शाकभोजी बैल और घोड़े ब्रह्मचर्य कि शक्ति द्वारा बोझ को खींचते और विजय को प्राप्त करते है | जब पशु ब्रह्मचर्य कि महिमा से कितनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति कर सकते है, इसका कोई परिमाण नहीं | वेद में तो दर्शाया है कि कोई राजा योग्य व्यक्ति बन उतमता से राज्य भी नहीं कर सकता जो पूर्ण ब्रह्मचारी न हो | यथा :-

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति |

आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिछ्ते ||

ब्रह्मचर्य और तपस्या द्वारा राजा राज्य की विशेष रीति से रक्षा करता है और आचार्य ब्रह्मचर्य द्वारा ब्रह्मचारी तथा तपस्वी होना चाइये तभी उसमे रक्षक की क्षमता उत्पन्न हो सकती है |

जो महात्मा आचार्य बनना चाहे उसे प्रथम स्वयं ब्रह्मचारी बनना उचित है | ब्रह्मचर्य की वृति से वह मेधावी बन ब्रह्मज्ञान का उपदेश कर सकता है |

ब्रह्मचर्य का किसी समय इतना प्रचार था कि इस देश में आने वाले महापुरषों ने इस शिक्षा का प्रचार सर्वत्र भूगोल में कर दिया था | आर्यो का तो ब्रह्मचर्य में यहाँ तक विश्वास था कि प्रत्येक तपस्वी ब्रह्मचर्य को धारण करता और म्रृत्यु पर विजय पाने की कामना किया करता था |

अथर्ववेद के इसी अध्याय में वर्णित है कि-

इन्द्रो  तपसा देवा मृत्यु मुपाघत |

इन्द्रो ह  ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्वराभरत ||

ब्रह्मचर्य और ताप के द्वारा देवो ने मृत्यु को नष्ट कर दिया | ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्र देवो के लिए सुख लाया है | वेद में एक सौ  वर्ष पर्यंत जीने का आदेश मिलता है | आत्मा सुखी तभी रहता है जब इन्द्रिय स्वस्थ हो जब सौ वर्ष पर्यंत वह सबल रहकर अपने अपने कर्त्तव्य का यथोचित पालन करे | क्यों कि जीवात्मा ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्रियों को सुखी बना सकता है | स्वस्थ स्त्री पुरुष ही आनंद मय जीवन का उपभोग कर सकते है |

इस प्रकार वेद में ब्रह्मचर्य कि महिमा पर अनेक वेद मंत्रो द्वारा उपदेश दिया गया है | ब्रह्मचर्य की अवधि २४, ३६, और ४८ वर्ष पुरषों के लिए और ३६, १८, और २४ वर्ष स्त्रियों के लिए बतलाया गया है |

४८ वर्ष का ब्रह्मचर्य उत्तम बताया गया है, २५ वर्ष का निकृष्ट परन्तु हम है की अपने बालक बालिकाओ को २४ और १६ वर्ष की आयु तक पहुचने ही नहीं देते कि उनके विवाहों कि चिंता करने लगते है | वेदानुसार तो वर कन्या को पारस्परिक स्वयम्वर रीति द्वारा विवाह कि आज्ञा है | आज पौराणिक संसकारो में फंसी हुई आर्य संतान वर और कन्या के अधिकार छीन माता-पिता को विवाह का अधिकार दिए बैठे है | अनपढ़ पठान ब्रह्मचर्य द्वारा हष्ट पुष्ट संतान पैदा कर सकते है परन्तु वेदों के मानने वाले आर्य दुर्बलेन्द्रिय बन अपने शरीरों को बोदा और निकम्मा बना रहे है | आवश्यकता है कि आर्य नर नारी वेद की ब्रह्मचर्य सम्बन्धी शिक्षा की और अधिक ध्यान दे और अपने अंदर विश्वास धारण करे की ब्रह्मचारी अमोघ वीर्य होता है | ऋतुगामी गृहस्थी कर संतान उत्पन्न कर सकते है | इस लिए ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी बन वह अपने शरीरों को सदृढ़, सबल और हष्ट पुष्ट रखे ताकि उनमे सभी शक्तियो  का प्रादुर्भाव हो और वह निरंतर स्वस्थ चित्त हो एक सौ वर्ष पर्यंत स्वाधीन और आनंदमय जीवन को धारण कर सखे |

परमेश्वर ने क्या दिया और क्या नहीं दिया ?

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परमेश्वर ने क्या दिया और क्या नहीं दिया ?

लेखक – स्वामी विश्वंग जी परिव्राजक , ऋषि उद्यान, अजयमेरू नगरी

मनुष्य के ज्ञान की दृष्टी से संपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है | एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को गिन नहीं सकते | मनुष्यों की दृष्टी से न गिनने की स्तिथि में असंख्य कहा जाता है | परन्तु परमेश्वर की दृष्टी से प्राणियों की संख्या सिमित है | क्यों की परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल ठीक-ठीक प्रधान करता है |

अनेक बार, अनेको लोग परमेश्वर को कोसते रहते है की “ हमे कुछ नहीं दिया, हमे क्या दिया, हमे यह नहीं दिया, हमे वो नहीं दिया “ इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमे आँखे नहीं दी, कोई कहता है हमे वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमे हाथ, पाँव, नाक, या कोई और अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमे अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमे जमीन नहीं दी | यदि एक-एक को लिखने लगे, तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बंद नहीं हो पायेंगा | जितने मनुष्य उतनी शिकायते | शिकायतों की कतार बड़ी लंबी बनेगी |

ऐसा सोच विचार रखना बहोतेक वादी के लिए सामन्य हो सकता है, परन्तु यही सोच विचार अध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत गातक होंगा | एक और परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी और परमेश्वर पर शक किया जा रहा है | यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाय की “ क्या परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेंगा की परमेश्वर न्यायकारी है | यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है, तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता | परन्तु साधनों के आभाव से ग्रस्त जनता इस बात को नहीं समझ सकती है | यह ही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले अध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है | साधनों के आभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है की साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है | और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है |

यह कैसी विडम्बना है देखिये परमेश्वर ने सारे साधन दिये है पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये | एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन है | सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शक उत्पन्न हो रहा है | ऐसी स्तिथि में साधक, साधना को साधना के रूप में समूचे पद्धति से नहीं कर पायेंगा | साधक को यह विचार करना चाइये की जितने भी साधन मिले हुए है वे मेरे कर्मो के कर्मो के आधार पर ही मिले है, और जो भी साधन नहीं मिले है, वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले है | यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदले | क्यों की समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है | इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाइये और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है | उसी स्तिथि में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शंका नहीं होंगी |

साधक को यह भी समझ लेना चाइये की परमेश्वर ने हमे जितने भी साधन दिये है, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजनों को पूर्ण कर सकते है | हा, इतना अवश्य है की समय में थोडा बहोत आगे-पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते है | सब साधन उपलब्ध है पर एक आद साधन के आभाव में हताश निराश होने की आवश्यकता नहीं है | चाहे आँख  न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, चाहे पाँव न हो, परन्तु हमारी बुद्धि कार्य कर रही है, तो बहोत है | उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते है, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य है |

हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है की हमे वह अमूल्य बुद्धि दी है, जो किसी अन्य प्राणी में देखने को नहीं मिलती है, यदि मनुष्य यह विचार न करे की “ मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया “ बल्कि यह विचार करे की जो भी परमेश्वर ने मुझ को साधन दिये, उन साधनों के प्रयोग कैसे करू, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकू | हमे जितने भी साधन मिले हुए है, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरपयोग ज्यादा हो रहा है | एक-एक साधन के दुरूपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगायाजाय तो हमे समय की कमी दिखाई देंगी और साधनों की अधिकता दिखाई देंगी | परमेश्वर ने उधार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है की उनका सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हा, जो भी साधन उपलब्ध है, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाय, तो मनुष्य को अनुभूति होंगी की साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में है | साधन कम है या अधिक है, यह बड़ी बात नहीं है, बल्कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया | साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाइये, ना की साधनों को पाने की दिशा में | परमेश्वर ने हमे क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है |

स्वतंत्रता-परतंत्रता

 

slavery

 

स्वंत्रता-परतंत्रता 

लेखक- स्वामी विष्वअंग् जी  , ऋषि उद्यान – अजयमेरू नगरी  

व्यक्तियों के अनेको सम्बन्ध होते है,जैसे माता-पिता के साथ, पति-पत्नी के साथ, सांस-बहु के साथ, श्वशुर-बहु के साथ, भाई-बहन के साथ, गुरु-शिष्य के साथ, पडोसी के साथ, व्यापारी-सेवक के साथ, समाज के साथ………….इस प्रकार अलग-अलग अन्रको सम्बन्ध है | इन संबंधो के साथ रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति चाहते या न चाहते हुए अनेको कार्य करता है | ऐसा प्रतीत होता है की सारा जीवन पराधीनता से युक्त है | फिर भी यह कहा जाता है की मनुष्य स्वतंत्र है अर्थात करने, न करने या अन्यथा करने में स्वतंत्र है | क्या हम पराधीन है या स्वाधीन है ? अर्थात परतंत्र है या स्वतंत्र है ? यद्यपि  नासमझ व्यक्ति को लगता है की हम तो परतंत्र है, परन्तु ऐसा नहीं है, क्यों की पराधीन होता है तो स्वाधीन भी तो होता है | सर्व प्रथम यह समझना चाइये की स्वाधीनता-स्वतंत्रता किसे कहते है, और पराधीनता-परतंत्रता किसे कहते है ?

जैसा की स्वतंत्रता के विषय में कहा जाता है की करने, न करने या अन्यथा करने में मनुष्य स्वतंत्र है | ठीक इसके विपरीत करने, न करने या अन्यथा करने में परतंत्र है अर्थात मनुष्य अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकता | परन्तु ऐसा बिलकुल नहीं है, क्यों की मनुष्य अपनी इच्छा से बहोत कुछ करता है | जब वह बहोत कुछ अपनी इच्छा से कर रहा होता है तब स्वतंत्र होकर ही कर रहा होता है | इससे यह पता लगता है की मनुष्य स्वतंत्र है और जब-जब वह अन्यों के आश्रित होकर करता है तब-तब वह परतंत्र होता है | परन्तु यह परतंत्र किसे व्यवस्था के लिए होता है | व्यवस्थाए अलग-अलग होती है | जिस प्रकार हमारे अलग-अलग सम्बन्ध है, तो हमारी व्यवस्थाए भी अलग-अलग होंगी | व्यवस्था को बनाये रखने के लिए मनुष्य को परतंत्र बनाना पड़ता है | इसका यह अभिप्राय नहीं है की मनुष्य परतंत्र हो गया | केवल उस व्यवस्था को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए परतंत्र हुआ है, उससे मनुष्य स्वाभाव से परतंत्र नहीं हुआ | वह व्यवस्था के लिए परतंत्र होता हुआ भी स्वतन्त्र ही रहता है | क्यों की मनुष्य का स्वभाव ही स्वतंत्र रहना है | यहाँ यह समझना चाइये की मनुष्य अपने यथार्थ ज्ञान, विवेक से व्यवस्था को इसलिए स्वीकार करता है की जिससे, उसे सुख विशेष मिलता है | उस सुख-विशेष को समझ कर जानकर अपनी इच्छा से, अपनी स्वतंत्रता से, उस व्यवास्स्था के लिए परतंत्रता को स्वीकार करता है |

यदि मनुष्य यथार्थ ज्ञान-विवेक नहीं रखता अर्थात मूर्खता-अज्ञान रूपी अविद्या से ग्रस्त रहता है, तो उसे व्यवस्था से सुख-विशेष मिलेंगा, यह बोध ही नहीं रहता, इसलिए वह व्यवस्था चाहे माता-पिता, गुरु-आचार्य, पुलिस, समझ या राष्ट्र की व्यवस्था हो, उसको भंग करता है, और दुःख विशेष को प्राप्त करता है | ऐसे-ऐसे स्थानों में मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करता है | यहाँ स्वतंत्रता का उपयोग तो कर रहे है, परन्तु उस स्वतंत्रता से मनुष्य को दुःख-विशेष प्राप्त हो रहा है | ऐसी स्वतंत्रता से दुःख ही मिलेंगा | इसलिए मनुष्य को समझना चाइये की स्वंत्रता और परतंत्रता क्या है ? अर्थात स्वतंत्रता से सुख और परतंत्रता से दुःख मिलता है ? क्या यही स्वतंत्रता या परतंत्रता है ? यदि ऐसा माना जाए तो स्वतंत्रता से सुख और दुःख दोनों मिलते है और परतंत्रता से भी सुख और दुःख दोनों मिलते है | इसलिए मनुष्य को अपनी स्वतंत्रता को समझकर-जानकार उसका सदुपयोग करना चाइये |

मनुष्य स्वतंत्रता का दुरूपयोग तब कर सकता है जब उसके पास यथार्थ ज्ञान-विवेक होंगा | यथार्थ ज्ञान वेद आदि सत्य शास्त्रों के अध्यन करने से या उनको पढ़े हुए विद्वानों के माध्यम से या और किसी भी माध्यम से जानकारी प्राप्त करने से मनुष्य को हो जाता है | यथार्थ ज्ञान से मनुष्य अपने स्वतंत्रता का सदुपयोग करता है | कहा, कब, किस परिस्थिति में स्वतंत्र रहकर सुख लिया जायेंगा और कहा, कब, किस परिस्थिति में अन्यों के आधीन परतंत्र रहकर भी सुख लिया जायेंगा, यही मनुष्य की बुद्धिमता है | यदि मनुष्य के पास बुद्धि-ज्ञान नहीं है अर्थात मूर्खता-अविद्या है, तो स्वतंत्र होता हुआ भी अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग करता हुआ सर्वत्र दुःख सागर में गोता लगाता रहेंगा | इसका यह भी अर्थ नहीं लेना चाइये की परतंत्र रहता हुआ सुख ही लेता रहेंगा हाँ ! यदि अविद्या से ग्रस्त रहकर परतंत्रता को स्वीकार करता है, तो दुःख सागर में गोता लगाता रहेंगा | परन्तु यथार्थ-ज्ञान-विद्या से युक्त रहेंगा, तो चाहे स्वतंत्र रहे चाहे परतंत्र रहे, दोनों की स्तिथियो में सदा सुखी ही रहेंगा | इसलिए विद्या-युक्त स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों ही लाभकारी है | परन्तु ध्यान रहे मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्र है, परतंत्र नहीं |

न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार

nyaya darshan

 

लेखक – पं बुद्धदेव मीरपुरी 

न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार

 

कतिपय पंडितो को यह भ्रम है कि न्यायदर्शन में परमात्मा का वर्णन नहीं है, इसलिए न्याय के प्रमाण से भी ब्रह्म कि सत्ता सिद्ध कि जाती है-

 

तत् कारितत्वादहेतु: || – ४.१.२१

 

यह ठीक है कि बिना कर्म किये परमात्मा फल नहीं देता, किन्तु कर्म करनेवाले जीवों पर ईश्वर अनुग्रह करता है | अनुग्रह या दया का अर्थ है-

 

यघथा भूतं यस्य च यदा विपाककालस्ततथा तदा विनियुक्तम |

 

जो कर्म जैसा हो और जिसका जब विपाक का काल हो, उसका फल कर्म के अनुसार उसी समय में देना, यही ईश्वर का अनुग्रह या दया है |

 

शंका– जो लोग वेद-शास्त्र को नहीं मानते उनके लिए परमात्मा के होने में क्या प्रमाण है ?

 

समाधान – सृष्टि के बनने से प्रथम प्रकृति या परमाणु में संसार कि रचना के लिए जो गति उत्पन्न होती है वह परमात्मा कि ओर से होती है, क्यों कि प्रकृति जड़ है, इसलिए उसमे ज्ञानपूर्वक गति उत्पन्न नहीं हो सकती |

 

दूसरी बात यह है कि धर्माधर्म का फल जड़ प्रकृति नहीं दे सकती, वह परमेश्वर के ही अधीन है | यदि कहो कि जीव को अपने आप कर्म का फल मिल जाता है तो यह भी ठीक नहीं, कोई भी प्राणी पाप के फल दुःख को नहीं चाहता, किन्तु सबको दुःख भोगना पड़ता है | इससे सिद्ध है कि कर्म के अनुसार दुःख का फल देनेवाला कोई दूसरा ही है, जो हमारी इच्छा न होते हुए भी हमे कष्ट में दाल देता है |

 

शंका– संसार में जो भी किसी कार्य को करता है, वह सक्रिय होता है | ऐसा कोई भी उदाहरण दिखाई नहीं देता जिससे यह सिद्ध होता हो कि कर्ता निष्क्रिय होता है, इस न्याय से यदि परमात्मा सृष्टि का कर्ता है तो उसको भी सक्रिय मानना पडेंगा, यदि सक्रिय वाही वस्तु हो सकती है जो एकदेशी हो, किन्तु परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है, इसलिए सक्रिय नहीं हो सकता और सक्रिय न होने से सृष्टि का कर्ता भी नहीं हो सकता है |

 

समाधान – इस शंका के नीचे लिखे समाधान है –

 

१.       जैसे अयस्कांतमणि स्वयं निष्क्रिय होते हुए भी लोहे में गति=क्रिया उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार ईश्वर स्वयं निष्क्रिय होते हुए भी परमाणुओ में गति उत्पन्न कर देता है |

 

२.       कुम्भकार का आत्मा मन में संयुक्त होता है तथा मन हाथ से संयुक्त होता है और हाथ डंडे से तथा डंडा चाक से संयुक्त होकर जैसे चाक में क्रिया उत्पन्न कर देता है वैसे ही परमात्मा सब वस्तुओं के अंदर विद्यमान है, अत: सम्बन्ध मात्र से प्रत्येक पदार्थ में क्रिया उत्पन्न कर देता है |

 

३.       क्रिया दो प्रकार कि होती है | एक उत्क्षेपण – उपंर फेकना, नीचे फेकना आदि तथा दूसरी आख्यातशब्द वाच्य, अर्थात अस्ति, भवति आदि सब क्रियाएँ है, अत: दूसरी स्वतंत्रता रूपी क्रिया परमात्मा में विद्यमान है | पाणिनि जी का सूत्र भी है – ‘स्वतंत्र: कर्ता ‘ अत: स्वतंत्र होने से परमात्मा का कर्ता होना सिद्ध है | परमात्मा की स्वतंत्रता यह है की वह सृष्टि के बनाने में किसी नेत्र आदि इन्द्रिय की या किसी दूसरे कर्ता की सहायता नहीं लेता |

 

४.       प्रभु में क्रिया – जनकत्व शक्ति विद्यमान है, वह सन्निधिमात्र से दूसरे पदार्थ में क्रिया उत्पन्न कर देता है, इसलिए उपनिषद में लिखा है – “ स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च “ परमात्मा में ज्ञान, बल, तथा क्रिया स्वाभाविक है |

 

शंका – जो-जो कर्ता होता है वह-वह सदैव – देहधारी होता है | अत: यदि परमात्मा सृष्टि का कर्ता है तो उसे सदेह मानना पडेंगा | यदि वह सदेह है तो हमारी भाती सुख-दुःख का भोक्ता होने से अनीश्वर ठहरेंगा |

 

समाधान – इसके उत्तर निम्न है –

 

१.       इस बात को तो पौराणिक भी मानते है की सृष्टि के बनाने से पूर्व परमात्मा निराकार-अदेहधारी था | यदि वह अदेह होता हुआ अपने देह का निर्माण कर सकता है तो अशरीर होता हुआ सृष्टि का निर्माण क्यों नहीं कर सकता ?

 

२.       यदि मान भी लेवे की उसका देह है तो भी यह आकांक्षा होती है की उसकी देह कितनी बड़ी है, यदि बड़ी माने तो मच्छर के अंडे के अंदर उसकी आँख नहीं बना सकता और सुक्ष्म माने तो इतने बड़े सूर्य को नहीं बना सकता, अत: मानना पडेंगा कि वह परमेश्वर अदेह होता हुआ भी सम्बन्ध मात्र से सृष्टि कि रचना कर देता है |

 

शंका – परमेश्वर सृष्टि कि रचना सापेक्ष – किसी साधन को लेकर करता है या निरपेक्ष बिना किसी साधन के करता है | यदि कहो साधन से करता है तो इस साधन का कर्ता न होने से कर्ता नहीं हो सकता अगर कहो बिना साधन के सृष्टि कि रचना करता है तो कर्म कि भी कोई आवश्यकता नहीं है |

 

समाधान – यह आवश्यक नहीं है कि कर्ता जिस कार्य को किसी साधन से करता है, वह साधन भी उसका बनाया हुआ हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई भी साधन कर्ता का बनाया हुआ न हो, संसार में दोनों प्रकार के उदाहरण पाए जाते है | कही तो साधनों का निर्माता न होता हुआ भी उनसे काम लेता है, जैसे- कान, नाक, आँखे, आदि हमारे बनाये हुए नहीं, फिर भी हम उनसे काम करते है और कही पर साधन भी कर्ता के बनाये हुए होते है जैसे – लुहार स्वयं अपने साधनों को बनाकर उनसे बहोत सी वस्तुओ को बनाता है वैसे ही प्रकृति आदि परमात्मा के बनाये हुए नहीं, फिर भी उनके द्वारा सृष्टि कि रचना करता है |

 

शंका – कोई भी व्यक्ति बिना किसी प्रयोजन के कार्य नहीं करता, फिर पूर्णकाम होते हुए इतनी बड़ी सृष्टि कि रचना परमात्मा ने क्यों कि ?

 

समाधान – कई कहते है कि खेल के लिए परमात्मा ने सृष्टि कि रचना कि है, किन्तु यह कथन ठीक नहीं, क्यों कि रति के लिए और दुःख को दूर करने के लिए क्रीडा कि जाती है और परमात्मा में दुःख का अभाव है, अत: खेल के लिए संसार कि रचना करना उचित नहीं | दूसरे कहते है कि अपनी विभूति बतलाने के लिए ईश्वर ने संसार कि रचना कि है यह भी ठीक नहीं, क्यों कि पूर्णकाम को क्या आवश्यकता है कि वह अपने-आप को दूसरे पर प्रकट करे | संसार कि रचना करना तथा करना परमात्मा का स्वभाव ही है |

 

शंका – ईश्वर द्रव्य है या गुण ? यदि कहो द्रव्य है तो विशेष गुणों का आश्रय होने से एक आत्मा ही सिद्ध हो जायेंगा |

 

समाधान – विशेष गुणों के होने से सब वस्तुए एक नहीं हो जाती, जैसे जीव में विशेष गुण है तथा पृथ्वी में भी, किन्तु पृथ्वी आत्मा या आत्मा पृथ्वी नहीं हो जाता |

 

|| इति ||