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सगुण क्या निर्गुण क्या? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।

मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।

यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।

मेरे मुख से निकले ये शब्द  सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा  ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।

उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों  में जो ‘गुण’ शब्द  पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष  उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द  का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।

अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा

वेद प्रतिपादित देवहित-आयु और उसका परिमाण – डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री

ऋग्वेद का निम्नलिखित प्रसिद्ध मन्त्र है, जिसे हम स्वस्तिवाचन में पढ़ने के साथ ही यजमान आदि के दीर्घ आयुष्य, आशीर्वाद एवं शुभकामना प्रकट करने के लिए भी पढ़ते हैं-

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।

(ऋ. वेद १.८९.८)

इस मन्त्र में ‘देवहित-आयु’ की प्रार्थना की गई है। अब प्रश्न होता है कि यह देवहित-आयु क्या है तथा इसका परिणाम कितना है? यही नहीं, अपितु अनेक वेदमन्त्रों में चक्षुरादि इन्द्रियों के सबल होने के साथ ही जीवन एवं स्वास्थ्य आदि की जब कामना की जाती है तो वहाँ भी विशेषण के रूप में ‘देवहित’ शब्द  प्रयुक्त होता है। जैसे-

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ता…… पश्येम शरदः शतम्।

जीवेम शरदः शतं….. भूयश्च शरदः शतात्।

(माध्यन्दिन यजु. ३६.२४)

आचार्य सायण का अर्थः यज्ञमय जीवन :- चारों वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्य सायण ‘भद्रं कर्णेभिः’ आदि ऋग्वेदीय मन्त्र की व्याख्या में ‘देवहितं यदायुः’ इस पद का भाष्य करते हुए लिखते हैं-

‘यदायुः षोडशाधिकशत प्रमाणं विंशत्यधिकशत प्रमाणं वा’ अर्थात् ‘देवहित-आयु’ का तात्पर्य है- ११६ वर्ष की आयु अथवा १२० वर्ष की आयु।

अब प्रश्न होता है कि सायणाचार्य के इस अर्थ का आधार क्या है? ‘देवहित-आयु’ का प्रमाण ११६ या १२० वर्ष ही क्यों माना जाये? इसका उ ार हमें छान्दोग्य उपनिषद् के निम्न वाक्य से प्राप्त होता है-

पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विंशति

वर्षाणि तत्प्रातः सवनं चतुर्विशत्यक्षरा गायत्री

यानि चतुश्चत्वारिशद् वर्षाणि

तन्माध्यन्दिनं सवनं चतुश्चत्वारिशदक्षरस्त्रिष्टुप्

यान्यष्टाचत्वारिशद् वर्षाणि

तत् तृतीयं सवनम् इति।  (छान्दोग्योप. ३.१६.१.४)

अर्थात् मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक यज्ञ है। इस यज्ञमय जीवन के प्रारम्भिक २४ वर्ष प्रातः सवन है, जबकि अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है तथा अग्रिम ४८ वर्ष तृतीय सवन के रूप में समझना चाहिए। इस प्रकार इस का कुल योग ११६ वर्ष होता है।

यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सोमयाग के प्रातः, माध्यन्दिन एवं तृतीय सवन क्रमशः गायत्र, त्रैष्टुभ एवं जागत कहे जाते हैं। ये छन्द क्रमशः २४, ४४ एवं ४८ अक्षरों वाले होते हैं।

जहाँ तक १२० वर्ष का प्रश्न है, सम्भव है छान्दोग्योपनिषद् के किसी संस्करण में माध्यन्दिन सवन को भी ४८ वर्ष का स्वीकार किया गया हो।

मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्षः वैदिक ग्रन्थों में मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्ष मानी गयी है। ऐतरेय आरण्यक में लिखा है-

शतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवति। (ऐ.आर. २१२९)

अर्थात् पुरुष की सामान्य आयु एक सौ वर्ष होती है। अन्यत्र भी इसी प्रकार का भाव वैदिक ग्रन्थों में उपल      ध है-

शतायुर्वै पुरुषः शतवीर्यः (मैत्रायणी संहिता १६.४)

शतायुः पुरुषः शतेन्द्रियः (तै. संहिता २.३.११५)

माध्यन्दिन यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

अर्थात् मनुष्य कर्म करते हुए सक्रिय सबल स्वस्थ्य रहकर ही एक सौ वर्ष पर्यन्त जीवन की कामना करे। यहाँ एक सौ वर्ष से तात्पर्य औसत रूप में एक सौ वर्ष है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक सौ वर्ष से अधिक जीवन नहीं है, क्योंकि मन्त्रों में कहा भी है-

भूयश्च शरदः शतात्। (माध्यन्दिन यजु. ३६.४)

माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है-

अपि हि भूयांसि शताद् वर्षेभ्यः पुरुषो जीवति

(मा. शतपथ १९.३.१९)

सम्प्रति भारतवर्ष में औसत आयु ६५ वर्षः भारतवर्ष में इस समय मनुष्यों की आयु औसत रूप में केवल ६५ वर्ष मानी गई है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन के १९९५ के आँकड़ों के हिसाब से अमेरिका, यूरोप तथा जापान प्रभृति विकसित देशों के मनुष्यों की औसत आयु ७५ वर्ष तक मानी गयी है। इन देशों में पौष्टिक भोजन एवं आम चिकित्सा सुविधाओं की अच्छी व्यवस्था होने से ऐसा है।

अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों जैसे- सोमालिया, इथियोपिया, युगाण्डा आदि में तो औसत आयु मात्र ४० वर्ष ही मानी गई है। इन देशों में अधिक गरीबी, कुपोषण के साथ ही चिकित्सा व्यवस्था की जर्जर स्थिति होने से मृत्यु दर भी अधिक है, अतः औसत आयु बहुत कम है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभी विश्व में वेद प्रतिपादित एक सौ वर्ष की औसत आयु कहीं भी परिलक्षित नहीं हो पा रही है।

‘जरा’ ही देवहित-आयु हैः- वास्तव में पूर्ण आयुष्य अर्थात् कम-से-कम एक सौ वर्ष की आयु के साथ ही स्वस्थ निरोग रहते हुए वृद्धावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना ही ‘देवहित-आयु’ की प्राप्ति है। रोग द्वारा अल्प समय में मृत्यु या दुर्घटना आदि के द्वारा आकस्मिक-मृत्यु की प्राप्ति का अभाव तथा पूर्ण निरोग रहते हुए वृद्धावस्था को प्राप्त कर मृत्यु की प्राप्ति की स्थिति का नाम ही देवहित-आयु की प्राप्ति है। इस सम्बन्ध में वैदिक ग्रन्थों के निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

जरा वै देवहितम्-आयुः। (मैत्रायणी. १.७.५)

यही वाक्य काठक संहिता तथा कपिष्ठल कठसंहिता में भी प्राप्त होता है। जैसे-

जरा वै देवहितमायुः (काठक संहिता ९.२) तथा (कपिष्ठल कठ संहिता ८.५)

अभीष्ट आयु एवं आरोग्य प्राप्ति के लिए यज्ञः श्रीमद्भगवतगीता में लिखा है-

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक्।।

(श्रीमद्भगवद्. ३.१०)

अर्थात् यज्ञ की रचना के साथ ही प्रजापति का यह निर्देश भी हुआ कि जो मनुष्य निरन्तर यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को निरन्तर प्राप्त करता रहता है। अभीष्ट एवं यथाकाम आयु की प्राप्ति में यज्ञ सहायक होता है। अथर्ववेद में इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र द्रष्टव्य है-

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते।

यं भेषजस्य गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते।।

(अथर्ववेद १९.३८.१)

अर्थात् जो अग्नि होम में गुग्गुल का प्रयोग करता है, उसे क्षय आदि रोग नहीं होता।

चिकित्साशास्त्रों में जहाँ विविध रोगों के निवारण के लिए विविध प्रकार की औषधियों एवं उनके द्वारा चिकित्सा करते हुए रोगों से मुक्ति का उल्लेख है, वहीं इष्टियों एवं यज्ञों के सम्पादन का भी सङ्केत करते हुए इनके माध्यम से मनुष्य को निरोग होने तथा उसकी आयु में वृद्धि का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे-

प्रयुक्तया यया चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरा जितः।

तां वेदविहिताम् इष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।।

(चरक चिकित्सा स्थान ८.१२१)

जो लोग यज्ञ नहीं करते, उनका चिन्तन, मनन याज्ञिकों के समान सा िवक नहीं हो पाता तथा वे सदाचार की ओर भी उन्मुख नहीं हो पाते। दुराचारी एवं अधर्मात्मा व्यक्ति की आयु भी अल्प सम्भावित है, अतः महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा है-

अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः।

(अनुशासन पर्व….)

जबकि चरित्रवान् एवं धार्मिक याज्ञिक प्रकृति के लोगों के बारे में वे कहते हैं-

‘शतं वर्षाणि जीवति’ वे स्वस्थ, सबली एवं निरोग होकर पूर्ण एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर जरावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करते हैं। यही वेद प्रतिपादित ‘देवहित-आयु’ भी है।

दीर्घ सन्ध्या से दीर्घ आयुः मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में लिखा है कि ऋषियों ने दीर्घकाल तक दीर्घ सन्ध्या एवं गायत्री जप के द्वारा दीर्घायु प्राप्त किया-

ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

प्रज्ञां यशश्च कीर्तिच ब्रह्मवर्चसमेव च।।

(मनु. ४.९४)

अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र (१९.७१.१) से भी सङ्केत मिलता है कि गायत्री-जप से आयु, प्राण, कीर्ति आदि की प्राप्ति में वृद्धि होती है।

पञ्चमहायज्ञों में नृयज्ञ अर्थात् अतिथियज्ञ या घर में आये हुए विद्वान् सदाचार सफल अतिथि की पूजा का विधान भी ‘यज्ञ’ श     द से बोध्य है। ‘यज्ञ’ का अर्थ बहुत व्यापक है। ‘यज्ञ’ श   द पञ्चमहायज्ञों का वाचक है। इसका अर्थ केवल देवयज्ञ या अग्निहोत्र ही नहीं है। ब्रह्मयज्ञ अर्थात् सन्ध्या तथा अतिथि यज्ञ आदि भी यज्ञ में अन्तर्भूत है। इसी कारण विद्वान् अतिथि के प्रति नमन या सत्कार मात्र से तथा उनके द्वारा प्रयुक्त आशीर्वचन मात्र से भी मनुष्य की आयु की वृद्धि सम्भावित है। इसी कारण मनुस्मृति में कहा है-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

-मनुस्मृति २.११२

अस्तु! कुछ भी हो, वास्तव में ‘देवहित-आयु’ अर्थात् यज्ञमय जीवन का निर्माण करते हुए समस्त इन्द्रियों से स्वस्थ, सबल सक्रिय रहते हुए कम-से-कम ११६ वर्ष जीवन बिताकर जरावस्था द्वारा मृत्यु की प्राप्ति हो- हम इस वैदिक भावना को हृदयङ्गम कर सकते हैं। वेद ने हमें सङ्केतों में ही इसका उपदेश कर दिया है। हम वेद के इन सन्देशों को ठीक तरह से समझें तथा जीवन में क्रियान्वित करें तो निश्चय ही सार्थकता को प्राप्त कर सकते हैं। वेदमन्त्रों के उपदेश हमें जीवन की सफलता एवं उसके उद्देश्य के प्रति निरन्तर प्रेरित करते हैं।

बी-२९, आनन्द नगर, जेल रोड, रायबरेली-२२९००१ (उ.प्र.)

चलभाष– ०९४५१०७४१२३

आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून

आर्य समाजः- श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम आर्य है। जिसके कर्म अच्छे हों उसे श्रेष्ठ कहते हैं। सभ्य मनुष्यों के संगठन को समाज कहते हैं। संगठन अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर करने के लिए बनाया जाता है। आर्य समाज एक प्रजातान्त्रिक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् १८५७ ई॰ में की थी।

उद्देश्यः- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

आर्य समाज के मन्तव्य:

त्रैतवाद –आर्य समाज ईश्वर, जीव, प्रकृति इन तीनों को अनादि मानता है। किसी वस्तु के निर्माण में तीन कारणों का होना आवश्यक है।

१.उपादान कारण,             २. निमित्त कारण,         ३.साधारण कारण

१.उपादान कारणः- वस्तु के निर्माण में जो मूल तत्व है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे घड़े का निर्माण में मिट्टी और आभूषण में सोना-चान्दी आदि उपादान कारण हैं।

२.निमित्त कारणः- जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, प्रकारान्तर से दूसरे को बना दे उसे निमित्त कारण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-

क. मुख्य निमित्त कारण- परमात्मा

ख. साधारण निमित्त कारण – आत्मा

३.साधारण कारणः-निमित्त और उपादान कारण के अतिरिक्त अन्य अपेक्षित कारण साधारण कारण कहलाते हैं। जैसे घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण कुम्भकार निमित्त कारण और दण्ड, चक्रादि साधारण कारण है। वैसे ही सृष्टि निर्माण में प्रकृति साधारण कारण, ईश्वर निमित्त कारण और दिशा, आकाशादि साधारण कारण हैं।

उपादान कारण प्रकृति:- प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जिससे कार्य जगत् उत्पन्न होता है। उपादान कारण में निम्न बातें पाई जाती हैं-

१. उपादान कारण परिणामी, नित्य और जड़ होता है। चेतन कभी भी उपादान कारण नहीं हो सकता है।

२. उपादान कारण के गुण कार्य में किसी न किसी रूप में आते हैं।

३. उपादान कारण से ही कार्य बनता है और उसी में लीन भी होता है।

४. उपादान कारण असत्य, मिथ्या और अमान रूप नहीं होता।

५. उपादान बनाने से कार्य रूप में बनता है और न बनाने से नहीं बनता।

यें सभी बातें प्रकृति में पाई जाती हैं अतः प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्त्व रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्य दर्शन, जड़ और अनादि है। क्योंकि कारण का कारण नहंी होता। प्रकृति के अनादि होने में हेतु

१.अभाव से भाव उत्पन्न नहंीं होता। जगत् भाव रूप है अतः उसका कारण भी भाव रूप होना चाहिये और वह प्रकृति है।

२. जगत् कार्य रूप होने से उसका कारण प्रकृति ही उपादान कारण सिध्द होती है।

३. कार्य अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। जगत् कार्य है और उसकी विद्यमानता प्रकृति में है।

४. कार्य अपने कारण में लय को प्राप्त होता है अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति होना ही चाहिये।

५. कोई कार्य तभी सम्पन्न होता है जब उसके कारण में कार्य रूप में परिणत होने की शक्ति हो अतः प्रकृति रूपी कारण में जगत् रूप में परिणत होने की शक्ति विद्यमान रहती है।

६. किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता वह सूक्ष्म रूप हो अपने कारण में विलीन हो जाती है। प्रलयावस्था में जगत् अपने कारण प्रकृति में विद्यमान रहता है।

७. बीज के होने पर उससे अंकुर का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति ही जगत का मूल कारण होने से उसका अनादि होना सिध्द होता है।

प्रमाण-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।

                                                तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यवश्न्नन्यो अभि चाकशीति।।       ऋ॰ १/१६४/२॰)

(द्वा) ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त (समानम्‍) वैसा ही (वृक्षम्द्ध प्रलय में छिन्न भिन्न होने वाले संसार रूप वृक्ष का (परिषष्वजाते) आश्रय लिये हुए हैं। (तयोरन्यः) इनमें से जो जीव है वह इस वृक्ष रूपी संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) स्वाद लेकर खा रहा है, भोग रहा है ओर दूसरा परमात्मा (अनश्नन्) न भोगता हुआ (अभि चाकशीति) चारों ओर विराजमान हो उसे देख रहा है।

अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

                                                अजो हयेको जुषमाणोऽनुशेते जहाव्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः। (श्वेता॰उप॰ ४१५)

प्रकृति, जीव और परमात्मा ये तीनों अज अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता। प्रकृति रजोगुणयुक्त, सत्त्वगुणात्मक और कृष्ण अर्थात् तमोगुणी होने से उससे विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इसे अजन्मा जीवात्मा भोग रहा है और दूसरी अविनाशी, जन्म मरण से रहित ईश्वर जीवों द्वारा भोग्य होने के कारण इसका परित्याग अर्थात् भोग से पृथक है।

सृष्टि की उत्पत्ति में मूलतत्त्वों की गणना:-

१. एकत्ववाद एकत्ववाद का सिध्दान्त कहता है कि जड़ या चेतन तत्त्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि की उत्पत्ति चार्वाक और वर्तमान भौतिक वादियों (वैज्ञानिकों) की है।

चेतन तत्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ यह मान्यता शंकराचार्य, यहूदी, ईसाई, मुसलमानों की है। इनका कहना है कि एक ईश्वर ही अनादि तत्व है जिसने अभाव से अर्थात् अपनी माया से जीव तथा जगत् की उत्पत्ति की है।

२. द्वैतवाद द्वैतवादियों का कहना है कि मूलभूत सत्ता दो हैं चेतन जीव तथा भौतिक द्रव्य प्रकृति। यह धारणा सांख्य दर्शन की मानी जाती है।

३. त्रैतवाद इस सिध्दान्त को मानने वाले ईश्वर, जीव, प्रकृति को मूलभूत सत्ता मानते हैं रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और महर्षि दयानन्द जी इसी सिध्दान्त को मानने वाले थे।

समीक्षा:-एकत्ववादियों का मानना है कि भौतिक द्रव्य से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैसे दही और गोबर को मिला देने से उसमें कुछ समय पश्चात् बिच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। इसी भांति मदिरा बनाने के लिये कुछ पदार्थों को मिला देने से कालान्तर में उनमें गति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान समय में बैटरी का निर्माण भी तेजाब और जस्ता की प्लेट का संयोग होने पर विद्युत प्रवाहित होने लगती है। इसी भांति जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के तत्वों का संयोग होने से सृष्टि का निर्माण स्वयमेव होता है और इन तत्वों के क्षीण हो जाने पर प्रलय भी अपने आप होती है। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है।

समाधान:-यदि गोबर या दही को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें तो उसमें सूक्ष्म जीव पहले से विद्यमान दिखाई देंगे जो उचित वातावरण में बिच्छू के शरीर में परिणत हो गये। दही और गोबर को मिलाकर अनुकूल वातावरण में रखने वाली चेतन सत्ता का होना आवश्यक है।

यदि सृष्टि का बनना और बिगड़ना स्वभाव से माने तो स्वभाव से ही उत्पन्न पदार्थ का विनाश नहीं होगा। यदि विनाश को स्वाभाविक माने तो फिर उत्पत्ति नहीं होगी। दोनों अर्थात् उत्पत्ति और विनाश यदि स्वाभाविक माने जायें तो अनवस्था दोष आ जायेगा।

आज का विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की अन्तिम सत्ता आत्मा-परमात्मा न होकर ऊर्जा अर्थात् वे सूक्ष्म विद्युत तरंगे हैं जो मेंढक की गति से प्रवाहित हो रही है। ये तरंगें तीन प्रकार के विद्युत कणों से बनी हैं जिन्हें इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन कहा जाताहै।

समाधान- यदि विद्युत तरंगों का प्रवाह विच्छेद युक्त है अर्थात् मेंढक की भांति कुदान मार-मार कर प्रवाहित होता है और फिर बन्द हो जाता है तो उसके बन्द या विच्छेद होने पर उसे दोबारा गति किससे प्राप्त होती है। जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील नहीं हो सकता।

जिन परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण होता है वहां पर भी व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में न्यूट्राॅन होता है और उसके समीप ही प्रोटाॅन के कण रहते हैं। जितने प्रोटाॅन के कण होते हैं, उतने ही इलेक्ट्राॅनों की संख्या होती है। इलेक्ट्राॅन विपरीत दिशा में गतिशील रहते हैं। उनमें गति एवं निश्चित अनुपात में प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन की विद्यमानता किसी दूसरी सत्ता द्वारा ही सम्भव है। जड़ में स्वयं यह गुण नहंी आ सकता।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ परमाणु सौरमण्डल की एक छोटी इकाई का ही नमूना है। सूर्य के चारों ओर हमारी पृथ्वी सहित दूसरे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं। सूर्य भी अपनी कक्षा में गति कर रहा है। हमारी आकाश गंगा में सूर्य सदृश लाखों नक्षत्र एवं लोक लोकान्तर हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसी करोड़ों आकाशगंगाओं देखी जा चुकी हैं। इनहें कौन गति दे रहा है इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।

शंकर का अद्वैतवाद:- शंकराचार्य का मत है कि सृष्टि की मूल सत्ता केवल एक चेतन ईश्वर है। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाला बुनने के लिए तन्तु निकालती है और फिर उसे समेट भी लेती है वैसे ही ब्रह्म अपनी माया से सृष्टि की उत्पत्ति कर अपने में ही समेट लेता है। माया ब्रह्म की शक्ति है जो न सत् न ही असत् अर्थात अनिर्वचनीय है। जैसे अज्ञान के कारण रज्जु में सर्प और सीप में रजत का भ्रम हो जाता है वैसे ही यह जगत् स्वप्न के समान मिथ्या है। जैसे एक ही मूर्ख का प्रतिबिम्ब सहस्रों दर्पणों में अवभाषित हो अनेक रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ब्रह्म अनेक अन्तः करणों से युक्त हो बहुत दिखाई दे रहा है।

समाधान:-जब अकेला ब्रह्म ही था तो उससे यह जड़ संसार कैसे उत्पन्न हो गया। यदि यह ब्रह्म की माया है तो फिर ब्रह्म और माया दो हो गये। यदि माया सत् है तो एकत्व का सिध्दान्त नहीं टिकता असत् मानने पर उसकी प्रतीति कैसे होगी। यदि उसे सत् असत् दोनों ही मान लिया जाये तो परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेगा। उसे सत्असत से भिन्न अनिर्वचनीय मानना निरर्थक है। मकड़ी और उसका सूत्र निकालना दो हो गये। क्योंकि सूत्र तो मकड़ी के शरीर से निकलता है और शरीर का निर्माण प्रकृति के पदार्थों से होता है। सीप में रजत और रज्जु में सर्प का भ्रम होना भी द्वैत को सिध्द करता है। जिसका भ्रम हो रहा है वह वस्तु दूसरी है। ऐसे ही स्वप्न भी देखे सुनें विषयों से सम्बन्धित होता है और जागने पर उन पदार्थों की सत्ता समाप्त हो जाती है परन्तु संसार तो दिखाई दे रहा है।

यदि ब्रह्म अपने में से ही जगत् का निर्माण करता है तो विकार वाला हो गया और उससे निर्मित जगत् भी चेतन स्वरूप वाला होना चाहिये। जो यह कहते हैं कि खुदा ने कुन कहा और सृष्टि रचना हो गई सो अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कार्य से पहले उसके कारण का होना आवश्यक है।

द्वैतवाद:- यह पहले कहा जा चुका है कि अकेला जड़ या चेतन सृष्टि की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक चेतन उसका निमित्त कारण नहीं बने तब तक जड़ स्वयं बन या बिगड़ नहीं सकता। इसलिए सृष्टि उत्पत्ति के लिये दो सत्ताओं का मानना अनिवार्य है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति पुरूष कहां है ओर गीता ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। शरीर, मन, बुध्दि, इन्द्रियाँ क्षेत्र है और पुरूष इनका स्वामी।

सांख्य दर्शन के प्रमाण:-

संहत परार्थत्वात्।।१।१४॰।।

संहत शरीरादि पृथिव्यादि विभिन्न तत्वों के योग से निर्मित हैं ओर संघात दूसरों के लिए होता है। जैसे खट्वादि पुरूष के लिए निर्मित किये जाते हैं वैसे ही जीवात्मा के लिये यह शरीर प्राप्त हुआ है ओर वह इससे भिन्न है।

अधिष्ठानात्।।१।१४२।।

रथ तभी चलता है जब इसका चलाने वाला हो। शरीर भी एक रथ है। (आत्मानं रथं विध्दि शरीरं रथमेव च) जिसका अधिष्ठाता चेतन आत्मा है।

भोक्तृभावात् ।।१।१४३।।

संसार के सब विषय भोग्य और पुरूष उनका भोक्ता है।

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।।१।१४४।।

सब जीवों की मोक्ष अर्थात् सांसारिक दुःखों से छूटने की प्रकृति देखी जाती है। बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। यदि आत्मा नहीं है तो दुःख से छूटना कौन चाहता है?

षष्ठी व्यपदेशादपि सांख्य ६/३

मेरा शरीर, मेरा मन इत्यादि व्यवहार से शरीर से भिन्न आत्मा सिध्द होता है।

अस्त्यात्मा नास्तित्व साधनाभावात् (सांख्य ६/१)

आत्मा है क्योंकि उसके न होने में कोई प्रमाण नहीं है। जो मैं कहता हुॅं वह शरीर से पृथक चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जानना चाहिए।

अन्य प्रमाण:-

१. कोई भी मरना नहीं चाहता। यह मरने से बचने वाला चेतन आत्मा ही है जिसने अनेक जन्मों में मृत्यु दुःख का अनुभव किया है।

२. यदि जीव का पृथक अस्तित्व न माना जाये तो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का अभाव होगा। ये अवस्थायें होती है अतः जीव का अस्तित्व भी सिध्द है।

३. इच्छा, द्वेष, प्रधान, ज्ञान आदि से भी जीव प्रकृति से भिन्न सिध्द होता है।

४. जड़ का प्रकाशक, जड़ से भिन्न होता है, शरीर, इन्द्रिय, मन-बुध्दि को प्रकाश गति देने वाला जीव इससे भिन्न है।

       बालादेकर्मणायस्कमुतैकं नैव दृश्यते।

     ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।

(अथर्व॰ १॰/८/२५)

एक (जीवात्मा) बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक (प्रकृति) मानो दीखती ही नहीं। उससे भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक जो परमात्मा है वही मेरा प्रिय है।

आत्मा का परिणामः-

बालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।

                                                                             भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।

(श्वेता॰ ५/९)

बाल के अगले भाग के सौ टुकड़े कर दिये जायें, उसके सौवें भाग के भी सौ हिस्से कर दिये जायें, उस सूक्ष्म भाग के समान जीव का प्रमाण दें किन्तु उसमें सामथ्र्य बहुत है। जीव स्व, सूक्ष्म पदार्थ है जो एक परमाणु में भी रह सकता है। उसकी शक्तियाँ शरीर में प्राण, बिजली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त होकर रहती है, उनसे सब शरीर का वर्तमान जानता है।

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास)

प्रश्न: जीव शरीर में विभु है या परिच्छिन्न?

उत्तर: परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास।

आत्मा के गुण, कर्म स्वभाव

प्रश्न: जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण कर्म और स्वभाव कैसा है?

उत्तर: दोनों चेतन स्वरूप है। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि हैं। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों को देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगभूति      (न्याय द॰ १/१/१॰)

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिंगानि।।                                                 (वैशेषिक दर्शन ३/२/४)

दोनों सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों के प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न), पुरूषार्थ, बल, (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना। ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में (प्राण) को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मींचना (उन्मेष) आंख का खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तरविकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि का होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसे होने से जो हों और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप एवं सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

पुरूष बहुत्व:-

जन्मादि व्यवस्थातः पुरूष बहुत्वम् (सांख्य १.१४९)

संसार में देखा जाता है किसी का जन्म हो रहा है और किसी की मृत्यु हो रही है। जन्म-मरणादि अवस्थायें तभी सम्भव है जब अनेक जीवात्मा होंवे। इसमें प्रश्न उठता है कि मुक्ति का साधन करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जायेंगे। इसका उत्तर अगले सूत्र में दिया है-

  इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य १/१५९)

हम देख रहे हैं कि वर्तमान समय में पुरूषों का सर्वथा उच्छेद नहीं है। कोई मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर आत्मा फिर शरीर     धारण करता है। इसलिये सर्वथा उच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता। आवागमन का यह चक्र चलता ही रहता है।

त्रैतवाद:-

ईश्वर:  जिस प्रकार घड़े को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुभ्म्भकार निमित्त कारण है वैसे ही सृष्टि की उत्पत्ति में प्रकृति उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जीव साधारण निमित्त कारण है। जड़ पदार्थ में यह सामथ्र्य नहीं कि वह स्वयं योजनाबध्द हो जगत् रूप हो जाये। जीव का भी सामथ्र्य इतना नहीं कि इस विशाल सृष्टि की रचना कर सके। तब केवल ईश्वर ही रह जाता है जो निराकार, सर्व व्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने के कारण परमाणु में भी व्याप्त हो उसे गति प्रदान कर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर रहा है।

ईश्वर के कार्य:-

१. सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना।

२. सब जीवों को कर्मानुसार यथायोग्य फल देना।

गुण:-ईश्वर सगुण और निगुण दोनों है।

स्वभाव:-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है।

ईश्वर की सिध्दि:-उदयनाचार्य ने न्याय कुसुमा´जलि में ईश्वर की सिध्दि में आठ प्रमाण दिये हैं-

कार्ययोजन धृत्यादेः पद प्रत्ययतः श्रुतेः।

                                                     वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वकृदव्ययः।।

(न्याय कुसुमांजलि)

१. कार्य-सृष्टि की रचना कार्य है। अतः इसका कारण भी होना चाहिये। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता।

२. आयोजन-सृष्टि रचना के समय परमाणुओं को मिलाने में क्रिया हुई होगी। उस क्रिया का कर्ता होना चाहिये।

३. धृत्यादि-सृष्टि रचना के अनन्तर भी उसका कोई धारण करने वाला होना चाहिये।

४. पद – पद गति का वाचक है। सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों को बुना, खेती करना और अन्य लौकिक व्यवहार पहले किसी ने सिखाये होंगे क्योंकि ये नैमित्तिक कर्म हैं।

५. प्रत्यय – वेदों में ज्ञान-प्रदान करने की शक्ति मन्त्रों के माध्यम से किसने दी?

६. श्रुतेः – वेदों का ज्ञान किसने दिया?

७. वाक्य – मनुष्यों को बोलना किसने सिखाया भाषा किसने दी?

८. संख्या- यह किसको सूझा कि दो परमाणुओं से द्वयणु और तीन द्वयणु से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं।

इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिध्दि होती है।

अन्य प्रमाण

१. जीवों के किये हुये कर्म न स्वयं फल दे सकते हैं और न स्वयं जीवन ही फल की व्यवस्था अपने आप कर सकते हैं। अतः ईश्वर की सिध्दि कर्मफल के दाता के रूप में भी है।

२. जगत् में सर्वत्र नियम देखा जाता है अतः उसका नियामक भी होना चाहिये।

उत्पत्ति :-

                                                इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ॰ १॰/१२९/७

जिससे यह सृष्टि प्रकाशित हुई है।

स्थिति :-

 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् ॰ १॰/१२१/१

जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को धारण किया हुआ है।

प्रलय :-

नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मत्र्यः।

कपिर्बभस्ति तेजनम्।।(अथर्व॰ ६/४९/१द)

हे परमेश्वर! मनुष्य तेरे क्रूर स्वरूप को नहीं जानते प्रलय के समय कम्पाने वाले आप प्रकाशमान सूर्य मण्डल को खा जाते हैं जैसे प्रसूता गो अपनी झिल्ली को खा लेती है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश  के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर लिखा है-

प्रश्न-आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिध्दि किस प्रकार करते हो?

उत्तर-सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्न-ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता?

उत्तर-इन्द्रियों का विषयों के साथ जो सीधा सम्बन्ध होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध का ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा किसी गलत कार्य में प्रवृत्त होता है उस समय आत्मा के भीतर बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे कर्मों के करने में अभय, निशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है।

और जब जीवात्मा शुध्द होके शुध्दान्तकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है। तब उसको उसी समय दोनों (गुण और गुणी) प्रत्यक्ष होते हैं।

।। इत्योम्।।

‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’

soul and god

ओ३म्

जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है


मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।

 

ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।

 

जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।

 

ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ व्यवहार भानु में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं सर्वा आशा मम मित्रं भवंतुअर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘ईश्वर को क्यों जानें, जानें या न जानें?’

truth

ओ३म्

ईश्वर को क्यों जानें, जानें या जानें?’

 हमारे एक लेख ईश्वर सर्वज्ञ है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ है को गुरूकुल में शिक्षारत एक ओजस्वी युवक व हमारे मित्र ने पसन्द किया और अपनी प्रतिक्रया में कहा कि लोग ईश्वर को मानते नहीं है अतः एक लेख इस शीर्षक से लिखें कि हम ईश्वर को क्यों मानें? हमें यह सुझाव पसन्द आया और हमने इस विषय पर लिखने का उन्हें आश्वासन दिया। ईश्वर को हम मानें या न मानें, परन्तु पहले उसे जानना आवश्यक हैं। जानना क्यों है? इसलिये कि यदि हमें उससे कुछ लाभ होता या हो सकता है तो हम उससे वंचित न रहें। यदि उससे कुछ लाभ नहीं भी होता है तो फिर उसे जानकर उसको मानना छोड़ सकते हैं। प्रश्न का मूल यह भी है कि क्या ईश्वर है? इसका उत्तर है कि ईश्वर हो भी सकता है और नहीं भी। यदि नहीं है तो फिर एक प्रश्न जिसका उत्तर ढूंढना होगा वह यह है कि यदि नहीं है तो यह ब्रह्माण्ड कैसे बना, किसने बनाया व क्यों बनाया? प्राणी जगत को कौन बनाता है और इनका नियमन किसके द्वारा होता है? कोई भी क्रिया यदि होती है तो उसके कर्ता का होना अवश्यम्भावी है। यदि कर्ता न हो तो क्रिया होना सम्भव नहीं है। संसार में हम अपनी आंखों से जिन सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि पदार्थों और प्राणी जगत को देखते हैं उनका कर्ता अर्थात उन्हें बनाने वाला कोई न कोई तो अवश्य ही है। यदि नहीं है तो अपने-आप वा स्वतः तो कुछ बनेगा नहीं। संसार यथार्थतः अर्थात् सचमुच में है, यह इस बात का प्रमाण है कि संसार का कर्ता अर्थात् इसका बनाने वाला अवश्य है। उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाने के बाद उसके स्वरूप का तर्क, बुद्धि वा युक्तिसंगत ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा फिर अन्ध-विश्वास अपना काम करते हैं और हमारा जीवन अज्ञान पूर्ण कृत्यों व झूठी आस्था को समर्पित हो जाता है।

                उस स्रष्टा का स्वरूप जानने के लिए उसका पहला गुण उसकी सत्ता का होना है अतः इस कारण से वह सत्य पदार्थ कहा जाता है। रचना हमेशा चेतन तत्व द्वारा होती है, जड़ या निर्जीव तत्व के द्वारा नहीं होती, अतः स्रष्टा का एक स्वरूप या गुण उसका चेतन तत्व होना है जिसे चित्त कहा जाता है। अब कोई चेतन सत्ता जिसमें दुख व क्लेश हो, वह तो संसार को बना नहीं सकती, अतः उसका समस्त दुःखों से रहित होना और आनन्द स्वरूप होना भी सिद्ध होता है। इसके बाद हम इस ब्रह्माण्ड के स्वरूप पर ध्यान देते हैं और विचार करते हैं तो हमें यह अनन्त परिमाण वाला दिखाई देता है। रचना व रचयिता का एक स्थान पर होना आवश्यक है। हम देहरादून में बैठे हुए जहां पर हैं, वही पर कोई रचना कर सकते हैं। देहरादून में या किसी स्थान पर स्थित कोई व्यक्ति वहां से 5 या 10 किलोमीटर वा कम या ज्यादा दूरी पर कोई रचना नहीं कर सकते। अतः इस संसार को अनन्त परिमाण में देखकर ईश्वर भी अनन्त व सर्वव्यापक, सर्वदेशी सिद्ध होता है और उसका सूक्ष्मतम होना भी आवश्यक है। इस ब्रह्माण्ड को बनाने के लिए अल्प शक्ति से काम नहीं चलेगा अतः उसका सर्वशक्तिमान होना भी अपरिहार्य है। कोई भी उपयोगी रचना के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान की कमी से रचना करने पर उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता तथा रचना में दोष आ जाते हैं। जिस सत्ता से यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, मानव शरीर व अन्य प्राणी जगत बना है, वह कोई साधारण ज्ञानी नहीं है अपितु उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा है, ऐसी सत्ता वह सिद्ध होती है। अतः उसे सर्वज्ञानमय या सर्वज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार से अन्यान्य गुणों का समावेश उस सत्ता में सिद्ध होता व किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने इस सत्ता के स्वरूप को एक वाक्य में इस प्रकार से कहा है – ईश्वर सत्यचित्तआनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।

 

ईश्वर के इस स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर उसके अन्य कार्यों को भी विचार कर जान लेते हैं। ईश्वर ने प्राणी जगत को बनाया है जिसमें मनुष्य, पशु, पक्षी अर्थात् समस्त थलचर, नभचर तथा जलचर आदि सम्मिलित हैं। इन सभी प्राणियों के शरीरों में हम एक-एक जीवात्मा को पाते हैं। इन सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन तत्व जीवात्माओं को ही ईश्वर ने भिन्न-भिन्न प्राणि-शरीर प्रदान किये हैं जिनसे यह सुख व दुखों का भोग करने के साथ कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। सभी प्राणियों के सुख-दुख के जब कारणों की विवेचना करते हैं तो ज्ञात होता है कि शुभ व अशुभ, अच्छे वा बुरे तथा पुण्य वा पाप कर्मों को मनुष्य योनि में लोग करते हैं। शुभ, अच्छे व पुण्य कर्मों का फल सुख दिखाई देता है और अशुभ, बुरे वा पाप कर्मों का फल दुःख दिखाई देता है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को कर्म के फल प्रदान करने वाला तथा सभी प्राणियों को उनके शुभाशुभ कर्मों के आधार पर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियेां में जन्म देता है, यही तर्क व युक्तियों से सिद्ध होता है। यह भी ईश्वर के स्वरूप व कार्यों का एक मुख्य अंग है।

 

ईश्वर का स्वरूप विदित हो जाने के बाद हमें थोड़ा सा अपने स्वरूप पर भी विचार करना उचित प्रतीत होता है। हम सब चेतन तत्व है और हमारी सत्ता यथार्थ अर्थात् सत्य है। हमारी सत्ता काल्पनिक व अन्धकार में रस्सी को देख कर सांप की भ्रांति होने जैसी नहीं है अपितु यह पूर्णतः सत्य है व उसका अस्तित्व यथार्थ है। यह अस्तित्व अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सिद्ध होता है। कोई मनुष्य दुःख नहीं चाहता परन्तु वह इसमें विवश है। जब-जब उसे दुःख, रोगादि व दुर्घटनाओं, आर्थिक तंगी, अशिक्षा, अज्ञान आदि के कारण होता है तो उसमें वह विवश व परतन्त्र होता है। इससे यह सिद्ध होता है दुःख का कारण उसके अशुभ कर्म वा उन कर्मों के ईश्वर द्वारा दिये जाने वाले फल हैं जो वर्तमान व पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ईश्वर से उसे जीवन भर मिलते रहते हैं। इस प्रकार से जीव की सत्ता अनादि, नित्य व इसका स्वरूप सत्य व चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, आकार-रहित, अजर, अमर, जन्म-मरण-धर्मा सिद्ध होता है।

 

ईश्वर के बारे में संक्षेप में तो हम जान ही गये हैं। उसका अस्तित्व निभ्र्रान्त रूप से सिद्ध है। अब उसको माने या न मानें, इस प्रश्न पर विचार करते हैं। जो पदार्थ यथार्थ रूप में हैं उनको मानना ही ज्ञान व न मानना अज्ञान कहलाता है। ईश्वर है तो उसे तो मानना ही पड़ेगा। अब दूसरी प्रकार का मानना यह है कि हम उससे क्या कोई लाभ ले सकते हैं या स्वयं को होने वाली हानियों से बचा सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम उसका चिन्तन कर उसे अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। इस कार्य में हम सत्यार्थ प्रकाश आदि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने वाले ग्रन्थ की सहायता भी ले सकते हैं। मनुष्य को ज्ञान नैमित्तिक साधनों से प्राप्त होता है। यह ज्ञान माता-पिता-आचार्यों से भी प्राप्त होता है या फिर पुस्तकों का अध्ययन कर ज्ञान हो सकता है। माता-पिता-आचार्यों व पुस्तकों की बहुत सी या कुछ बातें अज्ञान व अविवेक पूर्ण भी हो सकती है जो कि उनकी ज्ञान की क्षमता पर निर्भर होती है जो कि सीमित है। कोई भी मनुष्य पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। ससीम व एकदेशी होने के कारण जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान प्राप्त करने वाली है। इसे ज्ञान वृद्धि के लिए माता-पिता-आचार्यों की अपेक्षा होती है जो इससे अधिक जानते हों। अतः सत्य ज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तकों का ज्ञान भी दो प्रकार का होता है। अधिकांश पुस्तके सत्य व असत्य का मिश्रण होती हैं। अनेक पुस्तकें, धार्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की, क्षुद्राशय मनुष्यों ने अपनी अज्ञानता व कुछ स्वार्थों के कारण बनाई हुई होती हैं वा हैं जिसमें सत्य के साथ असत्य मिश्रित है और ऐसी पुस्तकें विष मिश्रित अन्न या भोजन के समान हैं। प्रायः अल्पज्ञानी मनुष्यों द्वारा ही निर्मित सभी पुस्तकें हैं और सभी इसी कोटि में आती है। चार वेद यद्यपि ज्ञान की पुस्तकें हैं परन्तु यह किसी मनुष्य की रचना न होकर संसार को बनाने वाले और चलाने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की रचनायें हैं। इन पुस्तकों में निहित ज्ञान को ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार श्रेष्ठ बुद्धि व स्वस्थ शरीरधारी पुण्यात्माओं को प्रदान किया था। इन्हीं वेदों के आधार सतत वेदों का अघ्ययन, चिन्तन, उपासना करके हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदानुकूल सत्य ज्ञान की पुस्तकेों को रचा था। ऐसे ग्रन्थों में वेदों से इतर शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, निघण्टु, ज्योतिष, उपनिषद व दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं। इनमें सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित होते हैं।

 

इन पुस्तकों का अध्ययन कर सत्य-सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। इनसे यह जाना जाता है कि हम ईश्वर से जीवन में जो चाहें, वह प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए हमें अपनी प्रार्थना के अनुरूप पात्रता को प्राप्त करना होता है। संसार में धन व सम्पत्ति आवश्यक हैं। इसकी प्राप्ति के लिए मनुष्यों का स्वस्थ शरीर होना आवश्यक है। अतः स्वास्थ्यवर्धक भोजन, व्यायाम व प्राणायाम आदि करके शरीर को स्वस्थ रखना चाहिये और रोगादि होने पर उचित उपचार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त संसार के सबसे बहुमूल्य पदार्थ ईश्वर को जानकर उसकी प्राप्ति के लिए स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये।  इससे ईश्वर से मित्रता व पे्रम सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसकी अन्तिम परिणति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में होती है। यह ऐसी अवस्था होती है कि इसे प्राप्त कर कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता। मनुष्य के आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक, इन तीन कारणों से होने वाले सभी दुःखए ईश्वरोपासना एवं सदकर्मों से  दूर हो जाते हैं। जीवन पूर्णतः सुखी हो जाता है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य दूसरों का मार्गदर्शन, उपदेश व प्रवचन द्वारा तथा सरल भाषा में अज्ञान व अन्धविश्वास रहित तथा ज्ञान से पूर्ण पुस्तकें लिखकर कर सकता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। कारण यह है कि जन्म व मरण हमारे कर्मों के आश्रित हैं और जब हम कोई अशुभ कर्म करेंगे ही नही तो फिर जन्म होगा ही नहीं। यह मोक्ष की अवस्था कहलाती है। जिस प्रकार अच्छा व श्रेष्ठ कार्य करने पर माता-पिता-आचार्यों व शासन से पुरस्कार मिलता है, उसी प्रकार से उपासना की सफलता व अशुभ कर्मों का क्षय हो जाने पर पुरस्कार स्वरूप ईश्वर केे द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। यह मोक्ष ऐसा है कि इसमें जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा सुखों की पराकाष्ठा आनन्द की प्राप्ति होती है। इसकी अवधि 31 नी 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। इतनी अवधि तक जीवात्मा जन्म व मृत्यु के चक्र से छूट कर ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का उपभोग करता है। मोक्ष व उपासना के बारे में वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़कर निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

 

हमने अपने अध्ययन में पाया कि महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि महात्माओं ने वेदों एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्य स्वरूप को जाना था। उनका जीवन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के साथ वैदिक कर्तव्यों का निर्वहन अर्थात् पंच महायज्ञ आदि कर्मों को करने के साथ समाज के हितकारी परोपकारी, सेवा व समाजोन्नति तथा देशोन्नति के कार्यां में व्यतीत हुआ। यह सभी लोग प्रातः व सायं नियमित रूप से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते थे। इससे यह बात भी ज्ञात होती है कि इन महात्माओं की गुणों व कर्मों की समानता व पवित्रता के कारण ईश्वर से पूर्ण निकटता थी। समाज के हित के सभी सेवा व परोपकार आदि कार्य भी इन्होंने किये। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती तथा महात्मा हंसराज शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे और इस क्षेत्र में इन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया। पं. लेखराम ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन चरित की खोज के साथ वैदिक धर्म का प्राणपन से प्रचार किया और अगणित स्वजातीय बन्धुओं को विधर्मी होने से बचाया और अन्य मतों के बन्धुओं में वैदिक मत का प्रचार कर उन्हें वैदिक धर्म का प्रेमी व प्रशंसक बनाया। इन सभी बन्धुओं ने उपासना के द्वारा ईश्वर से अत्यन्त निकटता प्राप्त की हुई थी। महर्षि दयानन्द तो असम्प्रज्ञात समाधि को भी सिद्ध किये हुए थे। अन्य महात्मा वा महापुरूष भी असम्प्रज्ञात समाधि के अत्यन्त निकट थे जो कि मोक्ष व जीवन की पूर्ण सफलता का द्वारा व आरम्भ है। इन सभी महात्माओं ने पवित्र जीवन व्यतीत किया जो हम सभी के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है। समाज में इनका अति उच्च एवं सम्माननीय स्थान था और इनका व्यक्तिगत जीवन भी सन्तोष रूपी सुख से भरपूर था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इन जैसा जीवन ही सभी मनुष्य जीवनधारी प्राणियों का होना अभीष्ट है।

 

ईश्वर को क्यों जाने ? जाने या न जाने? का उत्तर हमें मिल चुका है। यदि हमने ईश्वर को जान लिया तो हम निश्चय ही उसे मानेगे भी अर्थात् अपने लाभों के लिए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना वेद के अनुसार करेंगे जिसका परिणाम होगा कि हम सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर सदा आनन्द में विचरण करने वाले होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। आईयें, ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने का प्रयास करें, सत्साहित्य का अध्ययन करें और अज्ञान, ढ़ोग, पाखण्ड, अन्धविश्वासों व कुरीतियों को तिलांजलि दे दें क्योंकि इनसे बन्धन पैदा होते हैं और जीवन सुख-दुख के चक्र में फंस कर असफल होता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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फोनः 09412985121

‘पुनर्जन्म व त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क व युक्तियाँ ‘

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ओ३म्

पुनर्जन्म त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क युक्तियाँ

वैदिक सनातन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ से ही मानता चला आ रहा है। इसका प्रमाण है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने प्रथम चार ऋषियों और स्त्री-पुरूषों को उत्पन्न किया। अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के चार ऋषियों को परमात्मा ने चार वेदों का ज्ञान दिया। वेदों में पुनर्जन्म का सिद्धान्त ईश्वर द्वारा बताया गया है। इसलिए इस सिद्धान्त पर शंका करने का कोई कारण नहीं है। तथापि अनेक तर्कों से इस सिद्धान्त को सिद्ध भी किया जा सकता है। वैसे सिद्धान्त कहते ही उसे हैं जो स्वयं सिद्ध हो व जिसे तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया जा सके। असिद्ध बातों को सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और भाव का अभाव नहीं हो सकता। गीता में भी इस आशय का श्लोक है कि जिस वस्तु का अस्तित्व होता है उसका अभाव अर्थात् उसका विनाश कभी नहीं होता। जो सत्ता है ही नहीं वह कभी अस्तित्व में नहीं आ सकती। ईश्वर भी अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं कर सकता। वह भाव से भाव को उत्पन्न करता है अर्थात् कारण प्रकृति से संसार बनाता है और जीवात्माओं को मनुष्यादि जन्म देता  है। सृष्टि में कारण प्रकृति व जीव का अस्तित्व नित्य व शाश्वत् है और नित्य पदार्थ सदा अविनाशी होता है।

 

आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु एक बार नागपुर के हंसापुरी आर्य समाज के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचे। वहां उनकी प्रेरणा से हुतात्मा पं. लेखराम जी की स्मृति में कुछ समय पूर्व वैदिक साहित्य की बिक्री का केन्द्र आरम्भ किया गया था। इस पुस्तक बिक्री केन्द्र में प्रा. जिज्ञासु जी की स्वसम्पादित पुस्तक कुरान वेद की ठण्डी छाओं में उपलब्ध थी। संयोगवश एक मुस्लिम युवक अपने एक हिन्दू मित्र के साथ घूमता हुआ आर्य समाज मन्दिर आ गया। इस समाज के अधिकारी श्री उमेश राठी इन युवकों को वहां मिल गये। उन्होंने इन दोनों युवकों को पुस्तक बिक्री केन्द्र कक्ष में ही बैठाया। यह मुस्लिम युतक जमायते इस्लामी की तबलीग के लिए एक वर्ष में एक मास का समय दिया करता था।

 

युवक ने वहां विद्यमान पुस्तक कुरान वेद की ठण्डी छाओं में को देखा तो उसे लेकर उसके पन्ने पलटने कर देखने लगा। उसने पुस्तक को लेने के लिए राठी जी से पुस्तक का मूल्य पूछा तो उन्होंने कहा कि यह हमारी ओर से आपको भेंट है। राठी जी ने उसे बताया कि हमारे यहां इस समय इस्लाम के एक अधिकारी विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी विद्यमान हैं। क्या वह उनसे चर्चा करना पसन्द करेगा। वह युवक इसके लिए एकदम तैयार हो गया। जिज्ञासुजी सन्ध्या कर रहे थे। उससे निवृत होकर उस मुस्लिम युवक से वार्तालाप आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा कि आप तबलीग़ करते हुए मुख्य विचार क्या देते हैं? उस युवक ने कहा-जो हज करे, नमाज़ पढ़े, रोज़ा रखे, वह सच्चा मुसलमान है। जो आवागमन को माने वह काफिर है। उसने ऐसी कुछ और बातें भी कहीं यथा मुहम्मद अल्लाह का अन्तिम नबी और कुरान उसका अन्तिम इल्हाम है, इस बात को विशेष बल देकर कहा। यह सब सुनकर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु उस युवक से बोले – क्या आपने बर्फ देखी है? उसने कहा, क्यों नहीं?, देखी है। उन्होंने पूछा बर्फ पर घूप पड़े तो क्या होगा? युवक ने उत्तर दिया कि बर्फ पिघल कर जल बन जायेगा। जिज्ञासु जी ने फिर पूछा कि उस जल पर सूर्य की किरणे पड़ने पर जल का क्या होगा? उत्तर मिला कि भाप बन जायेगी। युवक से फिर पूछा कि भाप का क्या होगा तो युवक बोला कि मेघ बनेंगे। ऐसे ही मेघ वर्षा बनकर वर्षेंगे। यह उस युवक का कथन था। अब जिज्ञासु जी ने समीक्षा करते हुए कहा कि ‘‘जड़, निर्जीव अचेतन ज्ञान शून्य ब़र्फ का तो आप आवागमन मानते हैं और ज्ञानवान चेतन जीव के पुनर्जन्म को कु़फ्र्र बता रहे हैं। यह कैसी फि़लास्फी है?’’

 

जिज्ञासु जी ने आगे कहा कि आप आवागमन को मानने वालों को काफिर बता रहे हैं और आपका सबसे बड़ा दार्शनिक डा. इकबाल सुबह से रात व रात से सुबह, सूर्य तारों का उदय व अस्त होना, दिन व रात का एक दूसरे के बाद आना मानता है। वह जीवन का अन्त नहीं मानता। हज़रत मुहम्मद की कामना, “‘मैं अल्लाह की राह में शहीद हो जाऊं, फिर जन्मूँफिर शहीद हो जाऊं …… को क्या कुफ्र ही मानेंगे? क्या यह आवागमन नहीं है?

 

जिज्ञासु जी युवक को बता रहे हैं – एक मियां मर गया। उसे कबर में दबाया गया। इसके शरीर की खाद बन गई। कबर पर उगे पौधे को अच्छी खाद मिली। कब्रस्तान के मजावर की बकरी उस पौधे के पत्ते खाखा कर पल गई। उसे कसाई ने क्रय कर लिया। उसका मांस खाखा कर एक मियां का शरीर बन गया। वह मरा तो कबर में दबाया गया। उसका शव भी खाद बन गया फिर कब्रस्तान की बकरी ने खाया और वही चक्र चल पड़ा। क्या यह आवागमन है या नहीं?’’ वह लिखते हैं कि उस युवक के पास अब कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे जो रटाया गया था वही उसने प्रकट किया। अब वह आगे क्या कहें?

 

जिज्ञासुजी ने उस युवक से एक अन्य विषय पर चर्चा आरम्भ कर कहा कि सृष्टि रचना से पूर्व क्या था? उसने कहा कि केवल अल्लाह था। उससे जिज्ञासु जी ने पूछा कि क्या आप अल्लाह को न्यायकारी, दयालु, दाता, पालक, स्रष्टा, स्वामी मानते हैं? उस युवक ने कहा – क्यों नहीं? वह अल्लाह आदिल (न्यायकारी), दयालु है और यह उसका स्वभाव है। उससे पूछा कि क्या अल्लाह के यह गुण सदा से, हमेशा से हैं? उस युवक ने कहा कि हां, अनादि काल से वह दयालु, न्यायकारी आदि है। इस पर जिज्ञासुजी ने उससे पूछा कि जब अल्लाह के अतिरिक्त कोई था ही नही तो वह दया किस पर करता था? न्याय किसे देता था? जब प्रकृति थी ही नहीं, वह देता क्या था? सृजन क्या करता था? जीव तो थे नहीं, वह पालक स्वामी किसका था? उस युवक से वार्ता के समय वहां आर्य समाज के विद्वान व अन्य लोग भी उपस्थित थे। उन्होंने जिज्ञासुजी से कहा कि आवागमन व त्रैतवाद के बारे में आपकी युक्तियां हमने प्रथम बार ही सुनी हैं। यह वर्णन आर्य समाज या किसी वैदिक ग्रन्थ में भी नहीं है।

 

इस युवक से संयोग का परिणाम यह हुआ कि प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आवागमन सहित कुछ अन्य विषयों पर नये अन्दाज से विचार प्रस्तुत किये जिनसे वैदिक मत के सिद्धान्तों की पुष्टि हुई। वैदिक मत और आर्य समाज में पुनर्जन्म अर्थात् आवागमन पर इतनी सामग्री है कि जिसे पढ़कर पुनर्जन्म संबंधी सभी शंकाओं का निराकरण हो जाता है। इस विषय पर एक शताब्दी से कुछ अधिक पहले रक्तसाक्षी, हुतात्मा शहीद पं. लेखराम जी ने एक महत्वपूर्ण तर्क प्रमाण पुरस्सर पुस्तक लिखी थी। पुस्तक लिखने से पूर्व उन्होंने विज्ञप्तियां देकर सभी मत-मतान्तर के लोगों को पुनर्जन्म विषयक अपनी शंकायें भेजने के लिए प्रेरित किया था। उन्होने सभी प्रकार की सभी शंकाओं का निराकरण व समाधान अपनी पुस्तक में किया है। वेद और गीता पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। वर्तमान में समय में कोई कुछ भी कहे व माने, परन्तु आवागमन और ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्य, अजन्मा व अविनाशी होने का त्रैतवाद का सिद्धान्त सर्वत्र व्यवहार में है। विज्ञान भी जड़ प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार करता है जो कि निभ्र्रान्त सत्य है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121 

‘महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली’-मनमोहन कुमार आर्य

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ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) आर्य समाज के संस्थापक हैं। आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई के काकडवाड़ी स्थान पर हुई थी। इसी स्थान पर संसार का सबसे पुराना आर्य समाज आज भी स्थित है। आर्य समाज की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य वेदों का प्रचार व प्रसार था तथा साथ ही वेद पर आधारित धार्मिक तथा सामाजिक क्रान्ति करना भी था जिसमें आर्य समाज आंशिक रूप से सफल हुआ है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद सभी सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर से अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न प्रथम चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनके अन्तःकरण में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुए थे। आजकल गुरू अपने शिष्यों को ज्ञान देता है और पहले से भी यही परम्परा चल रही है। वह बोल कर, व्याख्यान व उपदेश द्वारा ज्ञान देते हैं। ज्ञान प्राप्ति का दूसरा तरीका पुस्तकों का अध्ययन है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ऋषियों वा मनुष्यों को ज्ञान देना था। ईश्वर अन्तरर्यामी है अर्थात् वह हमारी आत्माओं के भीतर भी सदा-सर्वदा उपस्थित रहता है। अतः वह अपना ज्ञान आत्मा के भीतर प्ररेणा द्वारा प्रदान करता है। यह ऐसा ही है जैसे गुरू का अपने शिष्य को बोलकर उपदेश करना। गुरू की आत्मा में जो विचार आता है वह उन विचारों को अपनी वाणी को प्रेरित करता है जिससे वह बोल उठती है। शिष्य के कर्ण उसका श्रवण करके उस वाणी को अपनी आत्मा तक पहुंचाते हैं। इस उदाहरण में गुरू का आत्मा और शिष्य की आत्मायें एक दूसरे से पृथक व दूर हैं अतः उन्हें बोलना व सुनना पड़ता है। परन्तु ईश्वर हमारे बाहर भी है और भीतर भी है। अतः उसे हमें कुछ बताने के लिए बोलने की आवश्यकता नहीं है। वह जीवात्मा के अन्तःकरण में प्रेरणा द्वारा अपनी बात हमें कह देता है और हमें उसकी पूरी यथार्थ अनुभूति हो जाती है। इसी प्रकार से ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को ज्ञान दिया था।

 

वर्तमान सृष्टि में वेदोत्पत्ति की घटना को 1,96,08,53,114 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस लम्बी अवधि में वेद की भाषा संस्कृत से अनेकों भाषाओं की उत्पत्ति हो चुकी है। वर्तमान में संस्कृत का प्रचार न होने से यह भाषा कुछ लोगों तक सीमित हो गई। इसके विकारों से बनी भाषायें हिन्दी व अंग्रेजी व कुछ अन्य भाषायें हमारे देश व समाज में प्रचलित हैं। संस्कृत का अध्ययन कर वेदों के अर्थों को जाना जा सकता है। दूसरा उपाय महर्षि दयानन्द एवं उनके अनुयायी आर्य विद्वानों के हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में वेद भाष्यों का अध्ययन कर भी वेदों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर से वेदों की उत्पत्ति होने, संसार की प्राचीनतम पुस्तक होने, सब सत्य विद्याओं से युक्त होने, इनमें ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का यथार्थ वर्णन होने आदि कारणों से वेद आज व हर समय प्रासंगिक है। इस कारण वेदों का अध्ययन व अध्यापन सभी जागरूक, बुद्धिमान व विवेकी लोगों को करना परमावश्यक है अन्यथा वह इससे होने वाले लाभों से वंचित रहेंगे। वेदों से दूर जाने अर्थात् वेद ज्ञान का अध्ययन व अध्यापन बन्द होने के कारण संसार में अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए जिससे हमारे देश व मनुष्यों का पतन हुआ और हम गुलामी व अनेक दुःखों से ग्रसित हुए। महर्षि दयानन्द ने संसार में सत्य ज्ञान वेदों का प्रकाश करने और प्राणी मात्र के हित के लिए वेदों का प्रचार व प्रसार किया और वेदों का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना सभी मनुष्यों जिन्हें उन्होंनंे आर्य नाम से सम्बोधित किया, उनका परम धर्म घोषित किया।

 

अब विचार करना है कि वेदों का ज्ञान किस प्रकार से प्राप्त किया जाये। इसका उत्तर है कि जिज्ञासु या विद्यार्थी को वेदों के ज्ञानी गुरू की शरण में जाना होगा। वह बालक को अपने साथ तब तक रखेगा जब तक की शिष्य वेदादि शास्त्रों की शिक्षा पूरी न कर ले। हम जानते हैं कि जब बच्चा जन्म लेता है तो उस समय वह अध्ययन करने के लिए उपयुक्त नहीं होता। लगभग 5 वर्ष की आयु व उसके कुछ समय बाद तक वह माता-पिता से पृथक रहकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए योग्य होता है। ऐसे बालकों को उनके माता-पिता किसी निकटवर्ती गुरू के आश्रम में ले जाकर उस गुरू द्वारा बच्चों का प्रारम्भिक अध्ययन से आरम्भ कर सांगोपांग वेदों का अध्ययन करा सकते हैं। उस स्थान पर जहां बालक-बालिकाओं को वेदों का अध्ययन व अध्यापन कराया जाता है गुरूकुल कहा जाता हैं। यह गुरूकुल कहां हों, इनका स्वरूप व अध्ययन के विषय आदि क्या हों इस पर विचार करते हैं। अध्ययन करने का स्थान माता-पिता व पारिवारिक जनों से दूर होना चाहिये जहां शिष्य अपने गुरू के सान्निध्य में रह कर निर्विघ्न अपनी शारीरिक व बौद्धिक उन्नति करने के साथ अपने श्रम व तप के द्वारा गुरू की सेवा कर सके। अध्ययन करने का स्थान वा शिक्षा का केन्द्र गुरूकुल किसी शान्त वातावरण में जहां वन, पर्वत व नदी अथवा सरोवर आदि हों, होना चाहियेे। गुरू, शिष्यों व भृत्यों के आवास के लिये कुटियायें आदि उपलब्ध हों। एक गोशाला हों जिसमें गुरूकुल वासियों की आवश्यकता के अनुसार दुग्ध उपलब्ध हो। यदि अन्न आदि पदार्थों की भी व्यवस्था हों, तो अच्छा है अन्यथा फिर भिक्षा हेतु निकट के ग्राम व नगरों में जाना होगा। वर्तमान परिस्थिति के अनुसार भोजन वस्त्र आदि की भी सुव्यवस्था होनी चाहिये और पुस्तकें व अन्य आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध होनी चाहिये। यह सब सुव्यवस्था होने पर गुरूजी को पढ़ाना है व बच्चों को पढ़ना है। वेदों का ज्ञान शब्दमय होने से शब्द का ज्ञान शिष्य को गुरू से करना होता है। वेदों के शब्द रूढ़ नहीं हैं। वह सभी धातुज या यौगिक हैं। अतः घातु एवं यौगिक शब्दों के ज्ञान में सहायक पुस्तक व ग्रन्थों का होना आवश्यक है। सम्भवतः यह ग्रन्थ वर्णमाला, अष्टाध्यायी, धातु पाठ, महाभाष्य, निधण्टु व निरूक्त आदि ग्रन्थ होते हैं। गुरूजी को क्रमशः इनका व वेदार्थ में सहायक अन्य व्याकरण ग्रन्थों व शब्द कोषों का ज्ञान कराना है। गुरूकुल में अध्ययन पर कुछ आगे विचार करते हैं। हम जानते हैं कि हम वर्तमान में रहते हैं। बीता हुआ समय भूतकाल और आने वाला भविष्य काल कहलाता है। जब हम भाषा का प्रयोग करते हैं तो क्रिया पद को यथावश्यकता भूत, वर्तमान व भविष्य का ध्यान करते हुए तदानुसार संज्ञा, सर्वनाम आदि का प्रयोग करते हैं। यह व्याकरण शास्त्र के अन्तर्गत आते हैं। अतः गुरूकुल में गुरूजी को शिष्य को पहले वर्णमाला व व्याकरण शास्त्र का ज्ञान कराना होता है।  व्याकरण शास्त्र का ज्ञान हो जाने के बाद गुरूजी से प्रकीर्ण विषयों को जानकर वेद के ज्ञान में सहायक इतर अंग व उपांग ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं और उसके बाद वेदों का अध्ययन करने पर विद्या पूरी हो जाती है। विद्या पूरी होने पर शिष्य स्नातक हो जाता है। अब वह घर पर रहकर स्वाध्याय आदि करते हुए कृषि, चिकित्सा, ग्रन्थ लेखन, आचार्य व उपदेशक, पुरोहित, सैनिक, राजकर्मी, वैज्ञानिक, उद्योगकर्मी आदि विभिन्न रूपों में सेवा करके अपना जीवनयापन कर सकता है। वेद, वैदिक साहित्य एवं वेद व्याकरण का अध्ययन करने के बाद स्नातक अनेक भाषाओं को सीखकर तथा आधुनिक विज्ञान व गणित आदि विषयों का अध्ययन कर जीवन का प्रत्येक कार्य करने में समर्थ हो सकता है। यह कार्य उसको करने भी चाहिये। हम ऐसे लोगों को जानते हैं जिन्होंने गुरूकुल में अध्ययन किया और बाद में वह आईपीएस, आईएएस आदि भी बने। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचित, संस्कृत अकादमियों के निदेशक, सफल उद्योगपति आदि बने, अनेक सांसद भी बने। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण भी आर्य गुरूकुलों की देन हैं। अतः वेदों का अध्ययन कर भी जीवन में सर्वांगीण उन्नति हो सकती है, यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध है। यह उन लोगों के लिए अच्छा उदाहरण हो सकता है जो अपने बच्चों को धनोपार्जन कराने की दृष्टि से महंगी पाश्चात्य मूल्य प्रधान शिक्षा दिलाते हैं और बाद में आधुनिक शिक्षा में दीक्षित सन्तानें अपने माता-पिता आदि परिवारजनों की उपेक्षा व कर्तव्यहीता करते दिखाई देते हैं।

 

प्राचीनकाल में गुरूकुल वैदिक शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे जो महाभारत काल के बाद व्यवस्था के अभाव में धीरे धीरे निष्क्रिय हो कर समाप्त हो गये। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में गुरूकुलीय शिक्षा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में स्कूलों में शिक्षा दी जाती थी। इसका उद्देश्य शासक वर्ग अंग्रेजों का भारत के बच्चों को अंग्रेजी के संस्कार देकर उन्हें गुप्त और लुप्त रूप से वैदिक संस्कारों से दूर करना और उन्हें अंग्रेजियत और ईसाईयत के संस्कारों व परम्पराओं के निकट लाना था। स्वामी दयानन्द ने अंग्रेजों की इस गुप्त योजना को समझा था और इसके विकल्प के रूप में गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली का अपने ग्रन्थों में विधान किया जिससे अंग्रेजी शिक्षा के खतरों का मुकाबला किया जा सके। स्वामी श्रद्धानन्द महर्षि दयानन्द सरस्वती के योग्यतम् अनुयायी थे। उन्होंने गुरूकुलीय शिक्षा के महत्व को समझा था और अपना जीवन अपने गुरू की भावना के अनुसार हरिद्वार के निकट एक ग्राम कांगड़ी में सन् 1902 में गुरूकुल की स्थापना में समर्पित किया और उसको सुचारू व सुव्यवस्थित संचालित करके दुनियां में एक उदाहरण प्रस्तुत किया। स्वामी श्रद्धानन्द का यह कार्य अपने युग का एक क्रान्तिकारी कदम था। उनके द्वारा स्थापित गुरूकुल ने आज एक विश्वविद्यालय का रूप ले लिया है। आज समय के साथ देशवासियों व आर्य समाजियों का भी वेदों के प्रति वह अनन्य प्रेमभाव दृष्टिगोचर नहीं होता जो हमें महर्षि दयानन्द के साहित्य को पढ़ कर प्राप्त होता है। यहां वेद भी अन्य भाषाओं व उनके साहित्य की ही तरह एक विषय बन कर रह गये हैं और प्रायः अपना महत्व खो बैठे हैं। इसका एक कारण समाज की अंग्रेजीयत तथा आत्मगौरव, स्वधर्म व स्वसंस्कृति के अभाव की मनोदशा है। संस्कृत व वेदों का अध्ययन करने से उतनी अर्थ प्राप्ति नहीं हो पाती जितनी की अन्य विषयों को पढ़ कर होती है। नित्य प्रति ऐसे अनेक लोग सम्पर्क में आते हैं जो संस्कृत पढ़े है और पढ़ा भी रहे हैं परन्तु उनका पारिवारिक व समाजिक जीवन सन्तोषजनक नहीं है। ऐसे लोगों को देखकर लोगों में संस्कृत के प्रति उत्साह में कमी का होना स्वाभाविक है।

 

हमारे आर्य समाज के विद्वानों व नेताओं को इस समस्या पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये। सरकार व निजी प्रतिष्ठानों में आज हिन्दी, अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व है जहां संस्कृत प्रायः गौण, उपेक्षित व महत्वहीन है। वर्तमान में संस्कृत केवल धर्म संबंधी कर्मकाण्ड की भाषा बन कर रह गई है। समाज में इस मनोदशा को बदलकर संस्कृत के व्यापक उपयोग के मार्ग तलाशने होंगे। हमें लगता है कि संस्कृत पढ़े हमारे स्नताकों को हिन्दी व अंगेजी भाषा सहित आधुनिक ज्ञान, विज्ञान तथा गणित आदि विषयों का अध्ययन भी करना चाहिये जिससे वह सरकारी सेवा व अन्य व्यवसायों में अन्य अभ्यर्थियों के समान स्थान प्राप्त कर सकें जो सम्प्रति प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं।  संस्कृत के भविष्य से जुड़े एक प्रसंग का उल्लेख करना भी यहां उचित होगा। कुछ सप्ताह पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में पाणिनी कन्या महाविद्यालय, वाराणसी की विदुषी आचार्या डा. नन्दिता शास्त्री ने कहा कि संस्कृत भाषियों की संख्या दिन प्रति घट रही है। विगत जनगणना में यह 15-20 हजार ही थी। यदि यह 10 हजार या इससे कम हो जाती है तो सरकार के द्वारा संस्कृत को मिलने वाली सभी सुविधायें व संरक्षण बन्द हो जायेंगे और यह दिन संस्कृत प्रेमियों के लिए अत्यन्त दुखद होगा। स्वामी श्रद्धानन्द के बाद स्वामी दयानन्द के अनुयायियों ने स्वामी श्रद्धानन्द का अनुकरण कर अनेक गुरूकुल खोले जिनकी संख्या वर्तमान में 500 से अधिक है। यदि यह सभी गुरूकुल सुव्यवस्थित रूप से चलायें जा सकें तो यह वैदिक धर्म की रक्षा और उसके प्रचार प्रसार का सबसे बड़ा साधन सिद्ध हो सकते हैं और भविष्य में भी होंगे। वेद, वैदिक साहित्य, धर्म, संस्कृत और संस्कृति की रक्षा व देश के भावी स्वरूप की दृष्टि से में इन गुरूकुलों की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। इसका उन्नयन करना आर्य समाज का तो कार्य है ही साथ ही सरकार में वेदों को मानने वाले लोगों को वेदों की रक्षा व प्रचार के लिए प्रभावशाली योजनायें एवं कार्य करने चाहियें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ‘धर्मो एव हतो हन्ति’ की भांति धर्म रक्षा में प्रमाद करने से यह धर्म हमे ही मार देगा।

 

स्वामी श्रद्धानन्द आर्य समाज के प्रसिद्ध नेता थे। वह आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब तथा सार्वदेशिक सभा के भी प्रधान रहे। शुद्धि आन्दोलन के भी वह प्रमुख सूत्रधार रहे और सम्भवतः यही उनकी शहादत का कारण बना। स्वामी जी का देश की आजादी के आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण योगदान था। समाज सुधार के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां अनेकों हैं। हम उनके जीवन को वेदों का मूर्त रूप देखते हैं जिसमें कहीं कोई कमी हमें दिखाई नहीं देती। काश कि महर्षि दयानन्द अधिक समय तक जीवित रहते तो श्रद्धानन्द उनके सर्वप्रिय शिष्य होते। आर्य समाज व महर्षि दयानन्द की भक्ति के लिए उन्होंने घर फूँक तमाशा देखा। उनका व्यक्तित्व आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श समाज सुधारक, आदर्श नेता, आदर्श स्वतन्त्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार, लेखक, विद्वान, शिक्षा शास्त्री, धर्म गुरू, वेदभक्त, वेद सेवक, वेद पुत्र, ईश्वर पुत्र व ईश्वर के सन्देशवाहक का था। 23 दिसम्बर, 1926 को वह एक षडयन्त्र का शिकार होकर एक कातिल अब्दुल रसीद द्वारा शहीद कर दिये गये। हम समझते हैं कि उन्होंने अपने रक्त की साक्षी देकर वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं की साक्षी दी है। हम उन्हें अपनी श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हैं। जब तक सृष्टि पर मनुष्यादि प्राणी विद्यमान हैं, विवेकी देशवासी स्वामी श्रद्धानन्द जी के यश, कीर्ति, उनके कार्य और बलिदान को स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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फोनः 09412985121

‘ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण’ – मनमोहन कुमार आर्य

god and soul

ओ३म्

ईश्वर जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण


 

बच्चा जब संसार में जन्म लेता है तो वह न तो अपनी भावना को बोल कर कह सकता है और न अपने आप उठ-बैठ सकता है, चलना फिरना तो उसका कई महीनों व एक वर्ष का हो जाने पर आरम्भ होता है। माता-पिता बच्चे को बोलना सिखाते हैं, उठना-बैठना व चलना-फिरना सिखाते हैं। इस परम्परा पर दृष्टि डाले तो हम सृष्टि के आरम्भ में पहुंच जाते हैं। हमारे आदि पूर्वजों के माता पिता नहीं थे। आदि का अर्थ ही प्रारम्भ की अवस्था है। वैदिक साहित्य इसका उत्तर देता है कि आदि सृष्टि में युवा स्त्री व पुरूष पैदा हुए थे। यह सृष्टि अमैथुनी सृष्टि थी जिसका अर्थ होता कि बिना माता-पिता की सृष्टि। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हें फिर किसने जन्म दिया? इसका उत्तर है कि माता पिता के न होने से यह जन्म इस संसार को बनाने व चलाने वाले “ईश्वर” ने दिया था। अब हमारे नास्तिक बन्धु कहेंगे कि सिद्ध करो कि ईश्वर है? हम पूछते हैं कि हम मान लेते हैं कि ईश्वर नहीं है। नास्तिक बन्धु हमें बतायें और सिद्ध करें कि ईश्वर के न होने पर यह सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, गृह व उपग्रह व प्राणिजगत आदि संसार कब, किससे व कैसे बना? कौन इसे चला रहा है? इसका उत्तर न ईश्वर को न मानने वालों के पास है और न वैज्ञानिकों के पास ही। इसका उत्तर न होना ही ईश्वर के होने का प्रमाण है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त इसका कोई उत्तर है ही नहीं। कोई भी उत्पत्ति किसी न किसी उत्पत्तिकर्ता के द्वारा ही होती है। यदि उत्पत्तिकर्ता दिखाई न दें तो उसे ढूढंना चाहिये न कि उसके अस्तित्व से इनकार करना। हमारे सामने भी यह प्रश्न आया कि ईश्वर दिखाई तो देता नहीं फिर उसे क्यों माना जाये? हमने स्वयं से तर्क किया तो उत्तर मिला कि यदि रचना है तो उसका रचयिता होना आवश्यक है।

 

दूसरा प्रश्न कि यदि वह है तो दिखाई क्यों नहीं देता?  इसका उत्तर यह मिला कि अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ आंखों से दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व होता है। आजकल माइक्रोस्कोप से ऐसे जीवाणु व सूक्ष्म कीट आदि तथा रक्त के सूक्ष्म कणों को देखा जाता है जिसको हमारी आंखे देखने में अपनी असमर्थता प्रकट करती है। अतः ईश्वर सूक्ष्म है इस सम्भावना का ज्ञान इन तर्कों से होता है। अब वह सत्ता संसार में रहती कहा हैं? इसका उत्तर भी तर्क से यह प्राप्त हुआ कि यह ब्रह्माण्ड अनन्त है। इसका न कोई ओर है न छोर। ब्रह्माण्ड में अनेक सूर्य व सौर्य मण्डल होने और इनकी संख्या अनन्त होने के प्रमाण हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी बहुत ही आधुनिक दूरबीनों की सहायता व विवेचन से प्राप्त किये हैं। रचना जहां होती है वहां रचयिता का होना आवश्यक होता है। इस जानकारी पर तर्क करने से सिद्ध हुआ कि ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार, सर्वदेशी, सर्वातिसूक्ष्म व सर्वान्तर्यामी है। अब इस प्रश्न पर विचार किया गया कि ईश्वर यदि है तो वह उत्पन्न कैसे हुआ, तर्क ने उत्तर दिया कि वह अनादि, अजन्मा और नित्य है। उत्पन्न सत्ता को उत्पत्तिकर्ता चाहिये और उत्पन्न सत्ता अमर या अविनाशी या नाशरहित नहीं हो सकती। यदि ईश्वर को उत्पत्तिधर्मा मानते हैं तो उसका नाश व मृत्यु भी माननी पड़ेगी, फिर एक अन्य उससे बड़े ईश्वर को मानना होगा जिसने उस ईश्वर को उत्पन्न किया था। और इस प्रकार से मानने से अनावस्था दोष आता है जिसका समाधान एक अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अनन्त अर्थात् जन्म व मृत्यु से रहित सत्ता को मानने से होता है। और विचार किया गया तो ज्ञात हुआ है कि वह सत्य, चेतन तत्व व आनन्द स्वरूपवान होना ही सम्भव है। यदि ऐसा न होगा तो ईश्वर कुछ कर ही न सकेगा। अब ईश्वर का स्वरूप निर्धारित हो जाने पर इसको सिद्ध करना है तो इसका सरल उपाय है कि आंखे बन्द करो और इन सब तर्कों व इसके विपरीत तर्कों का चिन्तन करो तो हमारी आत्मा में सत्य ज्ञान प्रकट हो जायेगा और वह वही होता है जिसे पूर्व तर्क के आधारित किया गया है। यहां इतना बताना आवश्यक है कि ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में यही स्वरूप हमारे वेदों, वैदिक साहित्य, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णित किया गया है। हम वेदों की एक बात का यहां और वर्णन करना चाहेंगे जिसमें कहा गया है कि यह अनन्त ब्रह्माण्ड ईश्वर के सर्वव्यापक आकार का 1/3 भाग ही है। ईश्वर के इसके अतिरिक्त 2/3 भाग में भी ईश्वर अपने आनन्द स्वरूप में स्थित है। हमें लगता वहां यदि किसी की पहुंच हो सकती है तो वह मोक्ष प्राप्त करने वाली जीवात्माओं की हो सकती है।

 

अब दूसरा प्रमाण है कि सृष्टि की आदि में जब युवा स्त्री व पुरूष उत्पन्न हुए तो उनको ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान भाषा में निहित होता है अतः भाषा की भी आवश्यकता थी अन्यथा आदि स्त्री-पुरूषों का जीवन आगे चल ही नहीं सकता था। यहां फिर केवल ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है और तर्क से उत्तर मिलता है कि ज्ञान व भाषा सिखाने व देने वाला यदि कोई है तो वह सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। अब यदि ऐसा है तो उसने जो ज्ञान दिया उसका प्राचीन साहित्य में उल्लेख होना चाहिये। उसका उल्लेख प्राचीनतम ब्राह्मण ग्रन्थों, मनुस्मृति, दर्शन ग्रन्थों व उपनषिदों आदि में मिलता है। यह सब एक मत से बताते हैं कि ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद है। वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानने की परम्परा आज तक चली आ रही है। आधुनिक काल में इसका प्रमाण पुरस्सर उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने वार्तालाप, उपदेशों, शास्त्रार्थों एवं सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में दिया है जिसका अनुसंधान एवं विस्तार उनके अनुयायियों ने विगत 140 वर्षों में किया है। वेद का ज्ञान व उसकी भाषा का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष सामने आता है कि वेद कोई मानवी कृति नही हो सकती, इसका ज्ञान प्रबुद्ध अध्येता को सहज ही जाता है। यहां हम यह भी बताना चाहते हैं कि आरम्भ में मनुष्य भाषा बना नहीं सकता। यदि आपके पास एक भाषा हो तो उसमें अपभ्रंस होकर कुछ मिलती-जुलती भाषा व भाषायें तो बनाई जा सकती हैं परन्तु सर्वप्राचीन भाषा केवल ईश्वर द्वारा ही दी जाती है। यदि वह भाषा न दे तो मनुष्य कुछ भी कर ले, भाषा नहीं बना सकता। इसका उत्तर यह भी है कि जिस प्रकार शरीर के सभी अंग ईश्वर के बनाये हुए हैं। आज विज्ञान उन्नति के चरम पर पहुंच गया है पर क्या एक किसी वैज्ञानिक ने मनुष्य की एक छोटी सी आंख, नाक, कान व जिह्वा अथवा कोई अंग बना पाया है, इसका उत्तर है कि नहीं। जो ईश्वरीय रचनायें हैं वह ईश्वर ही करता है। मनुष्य वही कर सकता है जो उसके लिए सम्भव है। पहली अर्थात् सृष्टि की आदि भाषा बनाना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। हम चाहते हैं कि यदि किसी बन्धु को हमारी बात स्वीकार न करे तो वह चिन्तन करे और फिर अपने निष्कर्षों को भाषाविदों व ज्ञानविदों से शेयर करें और उनको सहमत कर लें, उसका सिद्धान्त सारी दुनियां में प्रचलित हो जायेगा। यदि आज भाषाविदों को भाषा की उत्पत्ति का निभ्र्रान्त उत्तर नहीं मिल रहा है तो इसका कारण यह है कि इसका उत्तर जो हमने पूर्व दिया है वही है और दूसरा कोई नहीं है। वैज्ञानिकों को कुछ समय बाद या भविष्य में कभी न कभी इस सिद्धान्त को सर्वसम्मति से स्वीकार करना ही होगा। यहां हम वेदों के आधार पर ईश्वर का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं जो स्वामी दयानन्द ने वेदों का गहन अध्ययन, योगाभ्यास व समाधि सिद्ध करने के बाद प्राप्त किया। वह है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, सर्वज्ञ, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के उपासना के योग्य है अन्य कोई जन्मधारी मनुष्य, महापुरूष या अवतार उपासना के योग्य नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि अजन्मा होने से वह कभी अवतार या मनुष्य के रूप में जन्म न लेता है और न ले सकता है।

 

ईश्वर के साक्षात्कार के विषय में हम यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे उपनिषदों के ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए उच्च कोटि के महापुरूष थे। मुण्डकोपनिषद् के ऋषि समाधि में ईश्वर की प्राप्ति का उल्लेख कर कहते हैं कि भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।। अर्थात् समाधि में ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था सिद्ध हो जाने पर जीवात्मा के हृदय की अविद्या-अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है और सब संशय छिन्न होकर उसके दुष्ट व पाप कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहा परमात्मा में वह योगी वा उसका जीवात्मा निवास करता है और आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।

 

मानव शरीर में ईश्वर की प्राप्ति के स्थान के विषय में समाधि को सिद्ध किए हुए महर्षि दयानन्द अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में लिखते हैं कि कण्ठ के नीचे और उदर से ऊपर तथा दोनों स्तनों के बीच में जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (अर्थात् योग रीति से उपासना करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।

 

ईश्वर को जान लेने के बाद अब जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरूप पर विचार करते हैं। जीवात्मा भी एक स्वतन्त्र सत्ता है। यह ईश्वर का अंश नहीं है। हां, इसका कुछ स्वरूप व गुण ईश्वर के समान व कुछ विपरीत है। यह सत्य, चित्त, आकार रहित, अल्पज्ञ, एकदेशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता व उसके फलों को सुख व दुःख के रूप में भोक्ता आदि स्वभाव, स्वरूप व गुणों वाला है। ईश्वर ही इसे माता-पिता के माध्यम से मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है और वृद्धावस्था व आयु पूरी होने पर मृत्यु के होने के अवसर पर शरीर से इसका सम्बन्ध विच्छेद करता है। इसको जानने व समझने के लिए भी सत्यार्थ प्रकाश एक सर्वोत्तम ग्रन्थ है जिसका सभी को अध्ययन करना चाहिये जिससे धार्मिक व आध्यात्मिक व अन्य सभी प्रकार के भ्रम व भ्रान्तियां दूर हो सकें। इस ग्रन्थ के मुकाबले में संसार में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। इसको पढ़कर ही इसकी महत्ता का अनुमान किया जा सकता है। इन्हीं विचारों को यदि स्वयं पर लागू करें तो हम यह कहेंगे कि मैं वस्तुतः एक जीवात्मा हूं। मेरा जन्म कभी नहीं हुआ है। मैं हमेशा से हूं और हमेशा रहूंगा। ईश्वर की कृपा से मुझे कर्मानुसार बार-बार जन्म मिलेगा, आयु पूरी होने पर मेरी मृत्यु हेाती रहेगी। प्रारब्ध के अनुसार अनेकानेक योनियों में मेरा जन्म होता रहेगा। मेरे अब तक असंख्य जन्म हो चुके हैं। मैं संसार में विद्यमान सभी योनियों में कई-कई बार जन्म लेकर कर्मों का भोग कर चुका हूं। मैं कई बार मोक्ष में भी रहा हूं। कई बार पूर्व में मैं ईश्वर का साक्षात्कार कर चुका हूं। अनेकानेक बार साधू-संन्यासी, योगी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी रहा हूं एवं इनसे निकृष्ट क्षूद्र प्राणी भी। यह सब कर्मों का खेल है। इसे समझना है और आसक्तियों का त्याग कर ज्ञान की वृ़िद्ध करके सत्कर्मों को करके, ईश्वर उपासना से समाधि को सिद्ध करना है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार हो सके। ऐसा करके मेरा मोक्ष हो सकेगा। मोक्ष की अवस्था ब्रह्माण्ड के सभी जीवों की सबसे अधिक उन्नत अवस्था है। सभी को इसके लिए प्रयास करने चाहिये। मत-मतान्तरों के चक्र से मुक्त होकर सत्य ज्ञान की खोज करनी चाहिये और इस प्रकार से जाने गये सत्य मार्ग पर चलना चाहिये जो उन्नति की ओर ले जाता है। यदि हम मत-मतान्तरों की अन्धविश्वासों व अविद्याजन्य कर्म व उपासना पद्धतियों में फंसे रहे तो हमारा यह मानव जीवन व्यर्थ हो जायेगा और इस जन्म के बाद अगले जन्म में हमारा भविष्य निश्चय ही दुःखद होगा। सत्य पर चल कर हमारा यह जीवन भी उन्नत होता है व भावी जीवन भी। अतः हमें सत्य को जानना और उसको धारण कर सत्य-धर्म का ही आचरण करना है। यही वास्तविक मनुष्य धर्म है। वेद धर्म का साक्षात् रूप व ग्रन्थ हैं और इनकी शिक्षाओं के अनुरूप आचरण ही समस्त मानव जाति का कर्तव्य है। हम समझते है हमारे इस लेख से ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व को न मानने वाले बन्धुओं की आस्था व मिथ्या विश्वास का समाधान होगा एवं इस संक्षिप्त विवेचन से पाठको को लाभ होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’

mrityunjay mantra

ओ३म्
‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर सत्य, चेतन, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, सर्वातिसूक्ष्म, नित्य, अनादि, अजन्मा, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आकार रहित, सूक्ष्म, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों को करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला आदि स्वरूप वाला है। संसार में एक तीसरा एवं अन्तिम पदार्थ प्रकृति है। इसकी दो अवस्थायें हैं एक कारण प्रकृति और दूसरी कार्य प्रकृति। कार्य प्रकृति यह हमारी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड है। मूल अर्थात् कारण प्रकृति भी सूक्ष्म व जड़ तत्व है जिसमें ईश्वर व जीवात्मा की तरह किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती।

जीवात्मायें अनन्त संख्या में हमारे इस ब्रह्माण्ड में हैं। इनका स्वरूप जन्म को धारण करना व मृत्यु को प्राप्त करना है। मनुष्य जीवन में यह जिन कर्मों को करता है उनमें जो क्रियमाण कर्म होते हैं उसका फल उसको इसी जन्म में मिल जाता है। कुछ संचित कर्म होते हैं जिनका फल भोगना शेष रहता है जो जीवात्मा को पुनर्जन्म प्राप्त कर अगले जन्म में भोगने होते हैं। कर्मानुसार ही जीवों को मनुष्य व इतर पशु, पक्षी आदि योनियां प्राप्त होती हैं। मनुष्य योनि कर्म व भोग योनि दोनो है तथा इतर सभी पशु व पक्षी योनियां केवल भोग योनियां है। यह पशु पक्षी योनियां एक प्रकार से ईश्वर की जेल है जिसमें अनुचित, अधर्म अथवा पाप कर्मों के फलों को भोगा जाता है।

हम, सभी स्त्री व पुरूष, अत्यन्त भाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा, दया तथा हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों अथवा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य योनि प्राप्त हुई। इसका कारण है कि मनुष्य योनि सुख विशेष से परिपूर्ण हैं तथा इसमें दुख कम हैं जबकि इतर योनियों में सुख तो हैं परन्तु सुख विशेष नहीं है और दुःख अधिक हैं। वह उन्नति नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार से मनुष्य योनि में हुआ करती है। हमें मनुष्य जन्म ईश्वर से प्राप्त हुआ है। यह क्यों प्राप्त हुआ? इसका या तो हमें ज्ञान नहीं है या हम उसे भूले हुए हैं। पहला कारण व उद्देश्य तो यह है कि हमें पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों अर्थात् अपने प्रारब्ध के अच्छे व बुरे कर्मों के फलों के अनुरूप सुख व दुःखों को भोगना है। दूसरा कारण व उद्देश्य अधिक से अधिक अच्छे कर्म यथा, ईश्वर भाक्ति अर्थात् उसकी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने के साथ यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, दान आदि पुण्य कर्मों को करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपना ज्ञान भी अधिक से अधिक बढ़ाना होगा अन्यथा न तो हम अच्छे कर्म ही कर पायेंगे जिसका कारण हमारा यह जीवन व मृत्यु के बाद का भावी जीवन भी दुःखों से पूर्ण होगा। ज्ञान की वृद्धि केवल आजकल की स्कूली शिक्षा से सम्भव नहीं है। यह यथार्थ ज्ञान व विद्या वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती हैं जिनमें जहां वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं वहीं सरलतम व अपरिहार्य ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, व्यवहारभानु, संस्कार विधि आदि भी हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से हमें अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलता है। वह क्या है, वह है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है जो विचारणीय है। यह जीवात्मा की ऐसी अवस्था है जिसमें जीवन जन्म-मरण के चक्र से छूट कर मुक्त हो जाता है। परमात्मा के सान्निध्य में रहता है और 31 नील 10 खरब व 40 अरब वर्षों (3,11,04,000 मिलियन वर्ष) की अवधि तक सुखों व आनन्द को भोगता है। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना चाहिये।

ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया और उसके माध्यम से यज्ञ-अग्निहोत्र करने की प्रेरणा और आज्ञा दी। ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है। उसकी आज्ञा का पालन करना हमारा परम कर्तव्य है। हम सब मनुष्य, स्त्री व पुरूष वा गृहस्थी, यज्ञ क्यों करें? इसलिए की इससे वायु शुद्ध होती है। शुद्ध वायु में श्वांस लेने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है, हम बीमार नहीं पड़ते और असाध्य रोगों से बचे रहते हैं। हमारे यज्ञ करने से जो वायु शुद्ध होती है उसका लाभ सभी प्राणियों को होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि यज्ञ करने से आवश्यकता व इच्छानुसार वर्षा होती है और हमारी वनस्पतियां व ओषधियां पुष्ट व अधिक प्रभावशाली होकर हमारे जीवन व स्वास्थ्य के अनुकूल होती हैं। यज्ञ करने से 3 लाभ यह भी होते हैं कि यज्ञ में उपस्थित विद्वानों जो कि देव कहलाते हैं, उनका सत्कार किया जाता है व उनके अनुभव व ज्ञान से परिपूर्ण उपदेशामृत श्रवण करने का अवसर मिलता है। यज्ञ करना एक प्रकार का उत्कृष्ट दान है। हम जो पदार्थ यज्ञ में आहुत करते हैं और जो दक्षिणा पुरोहित व विद्वानों को देते हैं उससे यज्ञ की परम्परा जारी रहती है जिससे हमें उसका पुण्य लाभ मिलता है। यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण होता है जिसमें हमारे जीवन के सुखों की प्राप्ति, धन ऐश्वर्य की वृद्धि, यश व कीर्ति की प्राप्ति, ईश्वर आज्ञा के पालन से पुण्यों की प्राप्ति जिससे प्रारब्ध बनता है और जो हमारे परजन्म में लाभ देने के साथ हमारे मोक्ष रूपी अभीष्ट व उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ हमें मोक्ष के निकट ले जाता है। हमारे आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम तथा श्री योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द भी यज्ञ करते कराते रहे हैं। महर्षि दयानन्द ने आदि ऋषि व राजा मनु का उल्लेख कर प्रत्येक गृहस्थी के लिए प्रातः सायं ईश्वरोपासना-ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र को अनिवार्य कर्तव्य बताया है। हम ऋषि-मुनियों व विद्वान पूर्वजों की सन्ततियां हैं। हमें अपने इन पूर्वजों का अनुकरण व अनुसरण करना है तभी हम उनके योग्य उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। यह सब लाभ यज्ञ व अग्निहोत्र करने से होते हैं। अन्य बातों को छोड़ते हुए अपने अनुभव के आधार पर हम यह भी कहना चाहते हैं कि यज्ञ करने से अभीष्ट की प्राप्ति व सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ यदि हम रोग मुक्ति, सुख प्राप्ति व लम्बी आयु के लिए यज्ञ करते हैं तो हमारे कर्म व भावना के अनुरूप ईश्वर से हमें हमारी प्रार्थना व पात्रता के अनुसार फल मिलता है अर्थात् हमारी सभी सात्विक इच्छायें पूरी होती हैं और प्रार्थना से भी कई बार अधिक पदार्थों की प्राप्ति होती है। इसके लिए अध्ययन व अखण्ड ईश्वर विश्वास की आवश्यकता है।

मृत्युंजय मन्त्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्। उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।’ में कहा गया है कि हम आत्मा और शरीर को बढ़ानेवाले तथा तीनों कालों, भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता परमेश्वर की प्रतिदिन अच्छी प्रकार वेद विधि से उपासना करें। जैसे लता से जुड़ा हुआ खरबूजा पककर सुगन्धित एवं मधुर स्वाद वाला होकर बेल से स्वतः छूट जाता है वैसे ही हे परमेश्वर ! हम यशस्वी जीवनवाले होकर जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आपकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करें। यह मन्त्र ईश्वर ने ही रचा है और हमें इस आशय से प्रदान किया कि हम ईश्वर से इसके द्वारा प्रार्थना करें और स्वस्थ जीवन के आयुर्वेद आदि ग्रन्थों में दिए गये सभी नियमों का पालन करते हुए ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना को करके बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त हों। हम शिक्षित बन्धुओं से अनुरोध करते हैं कि वह यज्ञ विज्ञान को जानकर उससे लाभ उठायें।
-मन मोहन कुमार आर्य
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‘ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?’

ishwar

ओ३म्

विचार व चिन्तन

ईश्वर उसकी उपासना पद्धतियांएक वा अनेक?’

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

हम संसार में देख रहे हैं कि अनेक मत-मतान्तर हैं। सभी के अपने-अपने इष्ट देव हैं। कोई उसे ईश्वर के रूप में मानता है, कोई कहता है कि वह गाड है और कुछ ने उसका नाम खुदा रखा हुआ है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही संज्ञा – माता के लिए मां, अम्मा, माता, मदर, मम्मी या अम्मी आदि नाम हैं उसी प्रकार से यह ईश्वर के अन्य-अन्य भाषाओं व उपासना पद्धतियों में ईश्वर के नाम हैं। क्या यह ईश्वर, ळवक व खुदा अलग-अलग सत्तायें हैं? कुछ ऐसे मत भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते तथा अपने मत के संस्थापकों को ही महान आत्मा मानते हैं जिनकी स्थिति प्रकारान्तर से ईश्वर के ही समान व ईश्वर की स्थानापन्न है। जहां तक सभी मतों का प्रश्न है, हमने अनुभव किया है कि सभी मतों के सामान्य अनुयायी अपनी बुद्धि का कम ही प्रयोग करते हैं। उन्हें जो भी मत के प्रवतर्कों व उसके नेताओं द्वारा कहा या बताया जाता है या जो उन्हें परम्परा से प्राप्त हो रहा है, उस पर आंखें बन्द कर विश्वास कर लेते हैं। उनकी वह आदत, कार्य व व्यवहार उनके अपने जीवन के लिए हानिकर ही सिद्ध होती है एवं इसके साथ यह देश व समाज के लिए भी अहित कर सिद्ध होती है। यहां यदि विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बुद्धि तत्व लगभग समान रूप से दिया है। इस बुद्धि तत्व का प्रयोग व उपयोग बहुत कम लोग ही करना जानते हैं। आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जो विद्या का अध्ययन धनोपार्जन के लिए करते हैं। उनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक धन का उपार्जन करना और उससे अपने व अपने परिवार के लिए सुख व सुविधा की वस्तुओं को उपलब्ध करना तथा उन सबका जी भर कर उपयोग करना। यह मानसिकता व सोच हमें बहुत ही घातक अनुभव होती है। एकमात्र धन की ही प्राप्ति में मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर उससे इतनी दूर चला जाता कि जहां से वह कभी लौटता नहीं है और उसका यह जीवन एक प्रकार से नष्ट प्रायः हो जाता है।

हम यह मानते हैं कि धन की जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है परन्तु जिस प्रकार से हर चीज की सीमा होती है उसी प्रकार से धन की भी एक सीमा है। उस सीमा से अधिक धन, धन न होकर हमारे पतन व नाश का कारण बन सकता है व बनता है। इस धन को अर्थ नहीं अपितु अनर्थ कहा जाता है। जिस प्रकार से भूख से अधिक भोजन करने पर उसका पाचन के यन्त्रों पर कुप्रभाव पड़ता है उसी प्रकार से आवश्यकता से कहीं अधिक धन का उपार्जन व संचय, जीवन व उसके उद्देश्य की प्राप्ति पर कुप्रभाव डालता है। हमारे ऋषि-मुनि-योगी साक्षात्कृतधर्मा होते थे जिन्हें अपने ज्ञान व विवेक से किसी भी क्रिया के परिणाम का पूरा ज्ञान होता था। उन्होंने एक सूत्र दिया कि जो व्यक्ति धन व काम की एषणा से युक्त है, उसे धर्म का ज्ञान नहीं होता। धर्म का सम्बन्ध हमारे दैनिक कर्तव्यों एवं आचार, विचार व व्यवहार से होता है। दैनिक कर्तव्य क्या हैं यह आज के ज्ञानी व विद्वानों तक को पता नहीं है। इन दैनिक कर्तव्यों में प्रातः उठकर शारीरिक शुद्धि करके ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान कर निज भाषा एवं वेद मन्त्रों से अर्थ सहित सर्वव्यापाक व निराकार ईश्वर प्रार्थना की जाती है। उसका धन्यवाद किया जाता है जिस प्रकार से हम अपने सांसारिक जीवन में किसी से कृतज्ञ होने पर उसका धन्यवाद करते हैं। ईश्वर ने भी हमें यह संसार बना कर दिया है। हमें माता-पिता-आचार्य-भाई-बहिन-संबंधी-मित्र-भौतिक सम्पत्ति-हमारा शरीर-स्वास्थ्य आदि न जाने क्या-क्या दिया है। इस कारण वह हम सब के धन्यवाद का पात्र है। इन्हीं सब बातों पर विचार व चिन्तन करना, ईश्वर के गुणों व उपकारों का चिन्तन व ध्यान करना ही ईश्वर की उपासना कहलाती है। इससे मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे निराभिमानता का गुण प्राप्त होता है। निराभिमानता से मनुष्य अनेक पापों से बच जाता है। दूसरा कर्तव्य यज्ञ व अग्निहोत्र का करना है। तीसरा कर्तव्य माता-पिता आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन है जिससे माता-पिता पूर्ण सन्तुष्ट हों। इसे माता-पिता की पूजा भी कह सकते हैं। इसके बाद अतिथि यज्ञ का स्थान आता है जिसमें विद्वानों व आचार्यों का पूजन अर्थात् उनका सम्मान व उनकी आवश्यकता की वस्तुएं उन्हें देकर उनको सन्तुष्ट करना होता हैं। अन्तिम मुख्य दैनिक कर्तव्य बलिवैश्वदेव यज्ञ है जिसमें मनुष्येतर सभी प्राणियों मुख्यतः पशुओं व कीट-पतंगों को भोजन कराना होता है।

हम बात कर रहे थे कि अनेकानेक मतों में अपने अपने गुरू व अपने-अपने भगवान हैं। सबकी पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। क्या वास्तव में ईश्वर भी अलग-अलग हैं व एक है? यदि एक है तो फिर सब मिलकर उसके एक सत्य स्वरूप का निर्धारण करके समान रूप से एक ही तरह से पूजा या उपासना क्यों नहीं करते? इसका उत्तर ढूढंना ही इस लेख का उद्देश्य है। ईश्वर केवल एक ही है, पहले इस पर विचार करते हैं। संसार में ईश्वर वस्तुतः एक ही है। एक से अधिक यदि ईश्वर होते तो न तो यह संसार बन सकता था और न ही चल सकता है। हम एक उदाहरण के लिए एक बड़े संयुक्त परिवार पर विचार कर सकते हैं। यदि परिवार का एक मुख्या न हो, समाज का एक प्रतिनिधि न हो, प्रान्त का एक मुख्य मंत्री न हो और देश का एक प्रधान न होकर अनेक प्रधान मंत्री हों तो क्या देश कभी चल सकता है? कदापि नहीं। आज हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, यदि सभी दलों के या एक से अधिक दलों के दो-चार या छः प्रधान मंत्री बना दें तो देश की जो हालत होगी वही एक से अधिक ईश्वर के होने पर इस संसार या ब्रह्माण्ड की होने का अनुमान आसानी से कर सकते हैं। हम पौराणिक भगवानों को देखते हैं कि पुराणों की कथाओं में उनमें परस्पर एकता न होकर कईयों में इस बात का विवाद हो जाता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा है। वैष्णव स्वयं को शैवों से श्रेष्ठ मानते हैं और शैव स्वयं को वैष्णवों से श्रेष्ठ। अतः हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है कि संसार व ब्रह्माण्ड केवल एक सर्वव्यापक, चेतन सत्ता ईश्वर स ेचल सकता है, उनके सत्ताओं से कदापि नहीं। संसार का रचयिता, संचालक, पालक व प्रलयकर्ता ईश्वर केवल एक ही सत्ता है जो पूर्ण धार्मिक और सब प्राणियों का सच्चा हितैषी है और वह माता-पिता-सच्चे आचार्य के समान सबके कल्याण की भावना से कार्य करता है।

अब उपासना पद्धतियों की चर्चा करते हैं। उपासना का अर्थ होता है पास बैठना। जैसे विद्यालय में एक कक्षा में विद्यार्थी अगल-बगल में बैठते हैं। जहां गुरू सामने बैठ या खड़ा होकर उपदेश दे रहा होता है तो वह गुरू-शिष्य एक दूसरे की उपासना कर रहे होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सबके पास पहले से ही उपस्थित व मौजूद है। उसे मिलने या प्राप्त करने के लिए कहीं आना-जाना नहीं है। हमारा मन व ध्यान सांसारिक वस्तुओं में लगा रहता है जिसका अर्थ है कि हम उन-उन सांसारिक वस्तुओं की उपासना कर रहे होते हैं। यदि हम सभी सांसारिक विषयों से अपना मन व ध्यान हटाकर ईश्वर के गुणों व उसके स्वरूप में स्थिर कर लेते हैं तो यह ईश्वर की उपासना होती है। इसके अलावा ईश्वर की किसी प्रकार से उपासना हो नहीं सकती है। योग दर्शन में महर्षि पतंजलि जी ने भी ईश्वर की उपासना का यही तरीका व विधि बताई है। ध्यान अर्थात् ईश्वर के स्वरूप वा उसके गुणों का विचार व चिन्तन ध्यान करलाता है जो लगातार करते रहने से समाधि प्राप्त कराता है। समाधि में ईश्वर के वास्तविक स्वरूप व प्रायः सभी मुख्य गुणों का साक्षात् व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः, अन्य दूसरा कोई मार्ग या उपासना पद्धति इस लक्ष्य को प्राप्त करा ही नही सकती। यही मनुष्य जीवन का और किसी जीवात्मा का परम लक्ष्य या उद्देश्य है। अतः ईश्वर की पूजा, उपासना, स्तुति व प्रार्थना आदि सभी की विधि केवल यही है और इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये व की जा सकती है। बाह्याचार आदि जो सभी मतों में दिखाई देता है वह पूर्ण उपासना न होकर आधी-अधूरी व आंशिक उपासना ही कह सकते हैं जिससे परिणाम भी आधे व अधूरे ही प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को चाहें वह किसी भी मत, धर्म, सम्प्रदाय या मजहब के ही क्यों न हों, सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय एवं वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन, स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना चाहिये। यही ईश्वर की सही उपासना पद्धति है और इसी से ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार होगा। ईश्वर केवल एक ही है और नाना भाषाओं में उसके नाना व भिन्न प्रकार के नाम यथा, ईश्वर, राम, कृष्ण, खुदा व गौड आदि शब्द उसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं। ईश्वर का मुख्य नाम केवल एक है और वह है “ओ३म्” जिसमें ईश्वर के सब गुणों का समावेश है। इस ओ३म् नाम की तुलना में ईश्वर का अन्य कोई नाम इसके समान, इससे अधिक व प्रयोजन को प्राप्त नहीं कर सकता। “ओ३म्” का अर्थ पूर्वक ध्यान व चिन्तन करने से भी उपासना होती है और इससे समयान्तर पर मन की शान्ति सहित अनेकानेक लाभ होते हैं। रोगों का शमन व स्वास्थ्य लाभ भी होता है। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। पाठकों की निष्पक्ष प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है।

मनमोहन कुमार आर्य

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