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उपनिषदों में संन्यासयोग

उपनिषदों में संन्यासयोग

डॉ. सुमनशर्मा…..

उपनिषद् ऋषियों की महामेधा से प्रसूत ज्ञान की वह दिव्यराशि है, जो काल से अनवच्छिन्न है। उपनिषद् शब्द ‘उप’ व ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक ‘सद्’ धातु में ‘क्विप्’ प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है। ‘सद्’ धातु विशरण, गति व अवसादन तीनों अर्थों में प्रयुक्त होती है। कठोपनिषद् भाष्यानुसार विशरण अर्थात् विनाश करना। ये अविद्यादि संसार बीज का विनाश करती है, इसलिए उपनिषदें कही जाती हैं। उपनिषदों की विषय-वस्तु मुख्य रूप से तो आध्यात्मिक एवं दार्शनिक है, किन्तु इसमें नीति, व्यवहार और सांसारिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा नहीं की गई है। उपनिषदों में प्राप्त समस्त योग ज्ञान पर विचार करने का उपक्रम किया जाए तो अत्यन्त विस्तृत होने के कारण अपने लक्ष्य से भटकने का भय है। अतः हंस की रीति से संक्षिप्तीकरण के द्वारा संन्यासयोग

विषय का प्रस्तुतीकरण ही समीचीन है।

संन्यास शब्द की व्युत्पत्ति एवं स्वरूप

संन्यास शब्द का मुख्यार्थ त्याग करना है। आयु के अन्तिम चरण में गृह, पुत्रादि का परित्याग करके सीमित परिवेश से निकलकर असीमित व्यकितत्व को स्वीकार करने वाला पुरुष लोक में संन्यासी कहलाता है। काषायवस्त्र, दण्ड, कमण्डलुआदि का धारण तथा जटी तथा मुण्डी हो जाना तो केवल संन्यास के सूचक चिन्ह मात्र है। यह संन्यास और संन्यासी न रूढ़िलभ्यार्थ है, किन्तु मोक्ष शास्त्रों में परिनिर्दष्ट और परिकल्पित जिस संन्यास को मोक्ष द्वार के रूप में स्वीकृत किया गया है, उस संन्यास के अर्थ को समझने के लिए उसमें व्युत्पत्ति लभ्यार्थ का ज्ञान होना आवश्यक है।

‘संन्यास’ शब्द के साथ जब ‘योग’ शब्द का संयोग हो जाता है तो ‘संन्यासयोग’ का अर्थ और जटिल एवं व्यापक हो जाता है। संन्यास दो प्रकार का होता है- आश्रम संन्यास और भावना संन्यास। संन्यासयोग का सम्बन्ध् दूसरे अर्थ से है। सर्वकर्म परित्याग, सर्भ, वैभव, परावैराग्य और पूर्ण गुण वैतृष्ण्य इसके अनिवार्य तत्त्व है। यही मोक्ष का द्वार है। यही अर्थ उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है।

असु क्षेपणे

‘सम्’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘असु क्षेपणे’ धातु से निर्मित ‘आस्’ में जोड़कर संन्यास शब्द बनता है जिसका अर्थ है सम्यग्रूपेण, निश्शेषरूपेण च सर्वकर्मणां क्षेपणं परित्यागः अर्थात् अच्छी प्रकार निरशेष रूप से समस्त कर्मों का क्षेपण अर्थात् परित्याग करना संन्यास है। लोक में प्रायः यही अर्थ गृहीत किया गया है। यह अर्थ निःसन्देह रमणीय है किन्तु संन्यास योग से जो व्यापक अर्थ ध्वनित हो रहा है उसका प्रकाशन केवल एक धातु से सम्भव नहीं है। इसके लिए ‘अस् भूवि’ तथा ‘आस् उपवेशने’ का अर्थ ही ग्रहण करना होगा।

अस् भूवि

‘अस्’ धातु ‘होना’ अर्थ में प्रयुक्त होती है। ‘सम्’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘अस् भूवि’ धातु से भी संन्यास शब्द की व्युत्पत्ति होती है, जिसका अर्थ है सम्यक रूप से निश्शेष अर्थात् सर्व हो जाना, सबकुछ हो जाना। सबकुछ

तो परमेश्वर ही हो सकता है। परमेश्वर की प्राप्ति अथवा परमेश्वर हो जाना ही संन्यास का लक्ष्य है। ‘सर्व’ और ‘शर्व’ परमेश्वर के वाचक है। जीव भाव का परित्याग करके ब्रह्मभाव अथवा सर्वभाव को प्राप्त करना ही जीव लक्ष्य है। यह लक्ष्य संन्यास से ही प्राप्त होता है। यह अर्थ ‘अस् भूवि’ धातु से ही ध्वनित हो सकता है। इस अर्थ को छोड़कर संन्यास शब्द का अर्थपूर्ण नहीं हो सकता।

आस् उपवेशने

उपर्युक्त दो धातुओं के अतिरिक्त ‘आस् उपवेशने’ धातु से भी संन्यास शब्द की निष्पत्ति होती है। उपवेशन का अर्थ है निकट बैठना। संन्यास का अर्थ हुआ सम्यक रूप से और सम्पूर्ण रूप से परमेश्वर के निकट बैठना, उसकी शरण में जाना, सर्वतोभाव से निज को परमेश्वर के चरणों में समर्पित कर देना।यही अर्थ ‘आस् उपवेशने’ धातु से अभिव्यक्त होता है। इस धातुलभ्य अर्थ के बिना भी संन्यास का अर्थपूर्ण नहीं होता।

स्वामी दयानन्द के अनुसार ब्रह्म और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात् स्थित और जिससे दुष्ट

कर्मों का त्याग किया जाए वह संन्यास कहा गया है।

उपर्युक्त अर्थों का परिशीलन करके यह ध्यातव्य है कि संन्यासाश्रम और संन्यासयोग में पर्याप्त अन्तर है। संन्यासाश्रम उक्त संन्यासयोग का साधन या पूर्वभूमि तो हो सकता है, स्वरूप नहीं हो सकता। संन्यासयोग एक भावना है जो निरन्तर कर्मलिप्त रहकर भी कर्मों से विरक्त होने की एक आध्यात्मिक प्रक्रीया है। यह निज सदन में बैठकर भी सम्पन्न हो सकती है और निर्जन अरण्य में भी। यदि भावना का सम्बन्ध न हो तो निजसदन और निर्जन अरण्य तुल्यरूप से व्यर्थ है। लक्ष्य तो मोक्ष प्राप्त है। चाहे वह सदन से प्राप्त हो या अरण्य में। कहा गया है कि जो पुरुष मैं और मेरा और ममत्वाभिमान से शून्य होकर विषय भोगों से लिप्त हो चुका है, वह अपने घर में रहता हुआ भी कर्मों से बद्ध नहीं होता-

ममताभिमान शून्यो विषयेषु पराघ्मुख पुरुषः।

तिष्ठन्नपि निज सदने न बध्यते कर्मभिः क्वापि।।

संन्यास और त्रिविध् एषणाएँ

संन्यासमार्ग पर आरूढ़ होने के अभिलाषी पुरुष को बाल्य और पाण्डित्य दोनों का सम्यक रूप से सम्पादन करके त्रिविधि एषणाओं से नितान्त मुक्ति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। बाल्य एवं पाण्डित्य दोनों ही एषणामुक्ति के प्रधान साधन हैं। बाल्य का अर्थ है बलबत्ता और पाण्डित्यार्थ है नित्यानित्य वस्तु विवेक। संन्यास के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की आवश्यकता पग-पग पर होती है। संन्यासमार्ग पर आरूढ़ होनेवाले संन्यासी के हृदय में पृथ्वी की सहिष्णुता, हिमालय की उन्नतता तथा समुद्र की गम्भीरता होनी चाहिए। ऐसा होना ही पुत्रौषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा रूप महान् सत्रुओं का घर्षण कर सकता है। अन्यथा ये तीनों बीच में ही रोक कर संन्यास के पथिक को मार्गभ्रष्ट कर सकती है। बृहदारण्यकोपनिषद् में ‘बाल्य’ शब्द से अभिहित किया गया है। इन त्रिविधि एषणाओं में मानसिक दुर्बलता सदा ही काम करती है। एषणा तो एक ही है। जो पुत्रौषणा है वही वित्तैषणा है और वित्तैषणा ही लोकैषणा है। पुत्राप्राप्ति हेतु ही मनुष्य अनेक विवाह करता है। फिर भी उसे पुत्राप्राप्त नहीं होता तो स्वयं को हृतभाग्य समझता है।

कर्म के साधनभूत गौ, गृह, रत्नादि को प्राप्त करने की इच्छा वित्तैषणा कहलाती है।पुरुष सोचता है कि चित्त का संग्रह करके विवाह करूंगा उससे पुत्र होगा, पुत्र से पितृलोभ की प्राप्ति होगी अथवा वित्त के द्वारा यज्ञादि का सम्पादन करके देवलोक को प्राप्त करूंगा। इस प्रकार लौकिकवित्त और दैववित्त से पितृलोक और देवलोक को जीतने की इच्छा वित्तैषणा कहलाती है। धैर्यवान् और विद्यावान् पुरुष ही बड़े प्रयत्न से इससे बच पाते है। तृतीय एषणा लोकैषणा है। यश की लिप्सा लोकैषणा कहलाती है।वस्तुतः यह पुत्रौषणा एवं वित्तैषणा से भिन्न

नहीं हैं। पुरुष का स्वभाव है कि वह सदैव यही चाहता है कि उसका कोई अपमान न करे, बुराई न करे, उसके

पुत्र-वित्त आदि का नाश न करे। इसी की प्राप्ति हेतु वह पुत्र एवं वित्त का संग्रह करता है। त्रिविध् एषणाओं

से मुक्त होकर ही सर्वसमर्थ संन्यासीयोगी कहलाता है। याज्ञवल्क्योपनिषद्द्भमें कहा गया है कि संन्यासी को वित्तैषणा से इतना दूर रहना चाहिए कि अपने वस्त्रों से भी मोह न हो,यदि वस्त्राछिन्न हो जाएं तो दिशाओं को ही वस्त्र समझे। लोकैषणाओं से इस प्रकार दूर भागे कि किसी से नमस्कार की इच्छा भी न करे। ऐसे संन्यासी को ही लोग प्रणाम करते है वही प्रणाम के योग्य भी होता है।

निष्कर्षतः संन्यासयोग सभी प्रकार के योगों से भिन्न है। अन्य योग जहाँ किसी-न-किसी क्रीया में प्रवृत्त करते है, वहाँ संन्यासयोग निवृत्ति को ही प्रमुखता देता है।सभी प्रकार की अनियमितताओं से निकलकर संन्यासयोग के साधक को स्वातंत्रय की अनुभूति होती है। यहाँ तक कि संध्यावदन, अग्निहोत्रादि नित्यकर्मों की अनिवार्यता भी इससे समाप्त हो जाती है। यद्यपि संन्यासयोग में भावनाओं का बन्धन रहता है, किन्तु वह बन्धन मुख्य बन्धनो को काटने वाला है। भौतिक नियमों के बन्धन को श्लथ करके संन्यासीयोगी निज-निर्मित मानसिक भावनाओं से ही स्वयं को बांधता है- नमे, नायम्, त्वमेव सर्वम्, सर्व नश्वरम् आदि की भावना इसमें प्रधान होती है।

संस्कृत-विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय,

दिल्ली-०७

 

जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में

जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में

श्रीविकास आर्य…..

प्राणीजगत् के प्रारम्भकाल से ही मानव जाति, वंश, गौत्र, धर्म, भाषा, क्षेत्रादि के अवलम्ब से उन्मत्त होकर प्रतिकूल-प्राणी के प्राणान्त को आतुर रहा है इस प्रकार तथा कथित सृष्टि-विज्ञानी हमें बोध् कराते रहते हैं। वास्तविकता जो भी हो पर इतना तो सर्वथा स्पष्ट है कि वेदवाणी अथवा भारतीय संस्कृतवाघ्मय के ज्ञान-रूपी अथाह समुद्र से विकसितशेमुषी ऋषि-मुनि निरन्तर उज्ज्वल एवं अमूल्य सूक्तियां (शुक्ता)  सचित कर के समस्त संसार को काल-क्रम से सर्वविध् सौख्य से आप्लावित करते रहे हैं।

उपह्नरे गिरीणां सर्घैंमे च नदीनाम्।

धिया विप्रोजायत।।

अतः आज भी सुप्रज्ञावान् साधकों को करबद्ध प्रणामाजलि समर्पित करके पौनः पुन्येन हमारी संस्कृति समस्त देव-पुरुषों का आह्वान् करती है कि वे वेदों का आलोडन कर नव-नवनीत विनिर्मित करें।

दशा विनिन्द्या पुरुषो न निन्द्य

आभाणकानुासर यदि विचारें, तो पाएंगें कि वर्तमान परिस्थितियां (दशा) नासूर हो चली हैं। विश्वव्यापी सकलसंसारहितैषिणी संस्कृति व सभ्यता संकुचन की पराकाष्ठा पार कर रही है, नित नूतन नये-नवेले आक्रान्ता नेता नजर आने लगे हैं।

किसी भी वस्तु या तथ्य का विवेचन अथवा गुण-दोष का निर्धरण दो मानदण्डों के आधर पर सम्भव है। प्रथम आप्त पुरुषों द्वारा विरचित विपुल शास्त्रा एवं द्वितीय विधि-सम्मतलोक-व्यवहार, इनमें भी प्रगतिवादी सर्वदा लोक-व्यवहार-गौरव को आदर प्रदान करता है। क्योंकि सांसारिक परिवर्तन प्रतिक्षण हो रहा है और क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः।

वर्तमान हिन्दू समाज में छत्तीस बिरादरी अर्थात् ३६ के लगभग जातियों की गणना तो उत्तर भारत के दिल्ली क्षेत्र के आस-पास अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। वस्तुतः यह समस्या मध्यकालीन परिस्थितियों से प्रार्दुभूत है, अथवा यूँ कहिये कि आज हमारे समक्ष जो इतिहास उपलब्ध् है वह अंग्रेजों, मुगलों व वामपंथी आदि वैदेशिक आक्रान्ताओं द्वारा प्रदत्त है और वह समाज के तथाकथित सभ्य-नागरिकों ने विश्वस्त बनाकर प्रस्तुत कर दिया है जिसके फलस्वरूप आज नाना जातियाँ ब्राह्मण, जाट, कुर्मी, कायस्थ,यादव, चमारादि विश्वसनीय सामाजिक-विघटन के तत्त्व बन कर राष्ट्र की अवनति के द्योतक हो चले हैं।

हिन्दू चमार जाति एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास पुस्तक के लेखक डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने कर्नल टाड के सन्दर्भ से लिखा है कि महाभारत के अनुशासन पर्व में इस जाति का उल्लेख हैं। महाभारत में ऐसा विवरण अनुशासन पर्व में तो छोड़िये किसी भी पर्व में नहीं मिलता है। लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस तथ्य को घोटकर (याद करके) परीक्षा ही नहीं अपितु सामाजिक व्यवहार में भी प्रयोग करने लगते हैं, ध्क्किार है ऐसे पाठक एवं लेखकों को।

हमारी वैदिक-सनातन परम्परा में वर्तमानस्वरूपी जाति का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, हाँ वर्ण-व्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था, गोत्र, धर्म, भाषा एवं क्षेत्रादि विषयों का व्यवस्थित व व्यावहारिक प्रयोग विशदरूप में अवश्यमेव पदे-पदे दृष्टव्य है।

सृष्टि के आदि में दिव्य-ज्ञान वेद का आविर्भाव हुआ था। शास्त्रा प्रमाणानुसार-

अनादिनिध्ना नित्या, वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा।

आदौ वेदमयी दिव्या, यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।।

इस प्रकार वेद पुरुष से सृष्टि-सन्तति की उत्पत्ति को इस रूपक से सरल ढंग से समझा जा सकता है कि-

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः।

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।

अर्थात् महातेजस्वी परमेश ने सृष्टि के संचालन निमित्त मुख, बाहु, जंघा एवं चरण के सदृश उत्पन्न वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र का क्रमशः उत्पन्न होना कर्मसिद्धान्त रूप सिद्ध है। अर्थात् जन्मना

जायते शूद्रः, कर्मणा द्द्विजोच्यते  इस प्रकार जन्म से तो सभी प्राणी शूद्रत्व से विद्यमान होते हैं लेकिन

कर्म द्वारा द्विजत्वादि प्राप्त किया जा सकता है और फिर उसी कर्मानुसार कुल एवं गौत्रादि का उत्पन्न

होना पाया जाता है। उसमें भी पुनः परिवर्तन गुण कर्मानुसार अवश्यंभावी है।

धर्म का मूल भी मनुस्मृत्तिकार ने वेद ही कहा है यथा-

वेदोखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।

आचारश्चैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।

और भी

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विध्ं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।

प्रथम श्लोक में सम्पूर्ण वेद एवं वेदज्ञों की स्मृत्ति एवं धर्मिकों का आचार और स्वयं की सन्तुष्टि आदि तथा द्वितीय श्लोक में वर्णित है कि-वेद, स्मृत्ति, सदाचार और स्वरुचि के अनुसार वर्तना ये चार धर्म के प्रकार हैं। अतः धरणार्द् धर्म इत्याहुः आदि धर्म की शास्त्रोक्त हितकारी परिभाषाओं के अनुसार धर्म को जानना एवं मानना चाहिए।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की दुर्गति हो रखी है। नाना मत-मजहबों, सम्प्रदायों ने जो विकृत विकराल-स्वरूप धारण कर लिया है उससे सम्पूर्ण संसार को खतरा है। इसका एक ज्वलन्त उदाहरण आतंकवाद प्रत्यक्ष है।

भाषा के प्रश्न का जहाँ तक विचार है उसमें भी संस्कृत-भाषा निर्विवाद रूप में पश्चिमापश्चिमादि सर्वदिक् विद्वानों के मतानुसार जननी-भाषा स्वरूप में स्वीकृत है। भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंश है भावाभिव्यक्ति। संस्कृत भाषा में क्रम-विन्यास वैशिष्ट्य विशेष रूप में द्रष्टव्य है अर्थात् संस्कृत में भावाभिव्यक्ति की महत्त्वपूर्ण-इकाई वाक्य में शब्दों को किसी भी क्रम में उपन्यस्त कीजिए परिणाम सर्वथा भावेन अपेक्षित ही प्राप्त होगा- देवः शास्त्रम पठति अथवा शास्त्रां देवः पठति वा पठति शास्त्रां देवः किसी भी विध में ऐच्छिक शब्दों का क्रम रखिए अभीष्ट परिणति प्राप्त होगी और इसी विशेषता के कारण अमेरिकी अनुसन्धान केन्द्र नासा ने संस्कृत भाषा का संवरण कर लिया है जो अन्तरिक्ष में उपग्रह आदि के सम्प्रेषण में भाषायी संकेत का आधार होने से अतीव उपयोगी सिद्ध हुआ है तथा हम इसकी औपचारिक व अनिवार्य विषय की जंग में ही संलिप्त हैं।

इस क्षेत्र पर यदि विचार करें तो पाएंगें की जो क्षेत्र सुरम्यवातावरणानुकूल अर्थात् जहाँ का जलवायु श्रेष्ठ हो, आरोग्यप्रद हो वही स्थान श्रेष्ठ मानना एवं जानना चाहिए, वैसे तो जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी मान्यतानुसार जन्मभूमि भी सर्वश्रेष्ठ है।

निष्कर्षरूप में उपर्युक्त विषयों का पूर्ण-विवेक के साथ प्राणीमात्रा के हित में व्यवहार करना ही उद्देश्य है अर्थात्

सर्वेभवन्तुसुखिनः सर्वेसन्तुनिरामयाः अलमतिविस्तरेण।

सम्पादक,

हरियाणा संस्कृत अकादमी,

पचकूला, हरियाणा।

क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?

क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?

श्री कृष्णकान्त वैदिक…..

वर्णाश्रम का इतिहास

चारों वेदों में कहीं भी वर्ण पद का उल्लेख नहीं मिलता है। सर्वप्रथम वर्ण पद भगवद्गीता में पाया गया है, जो निम्न प्रकार हैः-

‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ (४/१३)

श्लोक के इस अंश में परमेश्वर द्वारा गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों की सृष्टि किया जाना बताया गया है। यदि हम महाभारतकाल में उपलब्ध वर्णव्यवस्था का अध्ययन करें तो पाते हैं कि उस समय भी जाति के आधार पर ही वर्णव्यवस्था थी।गुण और कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था उस समय भी स्थापित नहीं की जा सकती थी। इस विषय में श्रीवसन्तकुमार चट्टोपाध्याय एम. ए. का कहना है- ‘‘ यदि किसी व्यक्ति की जाति उसकी वृत्ति वा कर्म पर निर्भर होती तो द्रोणचार्य क्षत्रिय कहलाते क्योंकि उनका व्यवसाय युद्ध करना था। पर वे जन्म के कारण ही ब्राहमण थे। उधर द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा में कोई भी गुण-कर्म ब्राहमण जैसे न थे। क्रूर स्वभाव था। कर्म क्षत्रिय का करते थे। पांडवों के शिविर मे द्रौपदी के पुत्रों का वध करने पर जब वे पकड़े गए तो उन्हें ब्राहमण मान कर मृत्युदण्ड नहीं दिया गया, केवल उनका सिर मूडकर निष्कासित कर दिए गए थे। युधिष्ठर ब्राहमण स्वभाव के थे। जघन्य अपराधी को भी क्षमा कर देते थे। भीम तो जरा सी बात पर युद्ध को तैयार हो जाते थे। यदि गुणों को वर्णों का कारण माना जाता तो दोनों का पृथक्-पृथक् वर्ण मानना चाहिए था। पर थे दोनों क्षत्रिय ही। कर्म से वर्ण परिवर्तन कब हुआ ?’’ उक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि महाभारत काल में जन्मना जाति व्यवस्था लागू थी। गीता के अनुसार वर्णाश्रम धर्म का पालन करने में लाभ और परिवर्तन से हानि- गीता में कहा गया है-

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः (१८/५४)

अर्थात् अपने ही वर्णधर्म के पालन में मनुष्य की उन्नति होती है । गीता में ही कहा गया है-

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। (३/३५)

अर्थात् सुन्दर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुण रहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठतर है अपने (वर्णाश्रम)

धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरों का धर्म भययुक्त या हानिकारक है। गीता में ही अन्यत्र कहा गया है –संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। (१/४२) अर्थात् वर्ण-संकरता कुल नष्ट करने वालों को और कुल दोनों

को निश्चय से नरक में ले जाती है। इस श्लोक के अगले श्लोक में कहा गया है-

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।। (१/४३)

अर्थात् कुल का हनन करनेवाले लोगों के वर्ण-संकरता उत्पन्न करने वाले इन दोषों के कारण जाति-धर्म तथा सदा से चले आ रहे कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं- न समाज की परम्पराएं बनी रहती हैं, नकुल की परम्पराएं बनी रहती हैं। महाभारत काल में यदि वर्ण और जातिभेद जन्म से नहीं था तो गीता में कुल धर्म और

जाति धर्म की बात कहां से आ गई ?

वर्ण व्यवस्था का विधान स्मृतियों, विशेष रूप से मनुस्मृति में है।

जन्मजात वर्णव्यवस्था से हानियां

१. जन्म से वर्ण मानने से एक वर्णवाले मनुष्य के लिए दूसरे वर्ण में प्रवेश के द्वार सदा के लिए बन्द कर

दिए जाते हैं।

२. मनुष्यों में जात्याभिमान उत्पन्न होता है और वे बिना गुण व योग्यता के भी अपने को अन्यों से श्रेष्ठ

समझने लगते हैं।

३. जात्याभिमान के कारण समाज में द्वेष और घृणा उत्पन्न होती है।

४. शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार और भक्ति से भगवान् को प्राप्त कर सकता है, परन्तु कभी शूद्र से

ब्राहमण नहीं बन सकता है।

जाति व्यवस्था का संक्षिप्त इतिहास

जैसा कि उपरोक्त रूप से उल्लिखित किया गया है कि महाभारत काल में भी वर्णव्यवस्था न होकर जाति व्यवस्था लागू थी। महाभारत के बाद तो गुण-कर्म का आधारपूर्ण रूप से विलुप्त हो गया। मनु ने ऐसे

ब्राहमणों का वर्णन किया है जो पतित, नास्तिक और नपुंसक थे। (मनुं २/१५०) अब गुण-कर्म की कसौटी को तिरोहित कर दिए जाने के बाद वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर ही किया जाने लगा। उसके बाद तो ऊँच-नीच का भेद और भी बढ़ने लगा। सूत्र ग्रन्थों की रचना के समय तो उन्हें अत्यन्तहीन और नीच समझा

जाने लगा था। गौतम धर्मसूत्र (१२-४) के अनुसार यदि ‘‘शूद्र वेद मंत्र का उच्चारण करे तो उसकी जीभ काट

देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे तो उसका शरीर चीर डालना चाहिए।’’ बुद्ध के प्रादुर्भाव के समय तक भारत के सामाजिक संगठन का रूप अत्यन्त विकृत हो गया था। बौद्ध साहित्य में इसी कारण से वर्णभेद की कटु आलोचना की गई है। जैन धर्म के प्रवर्त्तक वर्धमान महावीर भी इस व्यवस्था के कटु आलोचक थे। बौद्ध और जैन धर्म के प्रवर्त्तकों ने इन बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया परन्तु उन्हें सीमित सफलता ही प्राप्त हो

सकी थी। बुद्ध ने अपने समय में वर्तमान जन्मना जाति व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई और जन्म के आधार पर किसी को उच्च या नीच नहीं माना परन्तु जन्मना जाति व्यवस्था पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और जातिव्यवस्था पहले की तुलना में अधिक विकृत हो गई। महर्षि पतंजलि (२०० ईं० पूं०) के समय तक जाति व्यवस्था का स्वरूप और अधिक विकृत हो चुका था। पतंजलि ने शूद्रों के महाभाष्य (२/४/१०) में दो

भेद किए हैं- ‘‘ एक अबहिकृत और दूसरे बहिकृत। तक्षा और अयस्कार आदि जो द्विजों के बर्तन छू सकते

थे, अबहिकृत या अनिरवसित जो द्विजों के पात्र नहीं छू सकते थे, चाण्डाल और मृतप आदि निरवसित या बहिकृत शूद्र थे।’’ समय के साथ-साथ वर्णभेद अत्यन्त संकीर्ण और कठोर हो गया।

जातीय भेदभाव को मिटाने के प्रयास

समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जातीय भेदभाव को मिटाने और समाज में समानता लाने के प्रयत्न किए। इन महापुरुषों का कहना था कि अच्छे गुण, कर्म, सदाचार और भक्ति से मनुष्य ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है। गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर अपने प्रयासों में आंशिक रूप से ही सफल हो पाए थे। अन्य महापुरुषों में रामानन्द, चैतन्य, नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। ये सन्त महात्मा भी हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान नहीं कर सके थे। उन्नीसवीं शती के पूर्वाद्ध में इस देश में नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इस समय पर समाज सुधार के क्षेत्र में ब्राहमसमाज, थियोसोफिकल-सोसाइटी और प्रार्थना समाज ने मुख्य रूप से ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान करने का प्रयास किया।

प्रार्थनासमाज जिसकी स्थापना १८६७ में हुई थी के लोग जाति-प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देते थे और बाल-विवाह निषेध का प्रचार करते थे। ये लोग कुरीतियों के विरोध में घोर आन्दोलन

करते थे तथा सुधार चाहते थे परन्तु व्यवहार में, इनके हिन्दू समाज के कर्मकाण्डों में उलझे होने के कारण

सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इनका प्रभाव नगण्य रहा। इसी प्रकार ब्राहमसमाज और थियोसोफिकल-सोसाइटी

भी जाति-प्रथा उन्मूलन के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रगति नहीं कर पाए थे। ऐसे समय पर ऊँच-नीच और

छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान करने और वर्णाधारित समाज की स्थापना हेतु उन्नीसवीं शती में

महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित संगठन आर्य समाज ने इस क्षेत्र में पदार्पण किया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज द्वारा किए गए प्रयास

महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज गुण, कर्म और स्वभाव से वर्णव्यवस्था स्वीकार करता है, जन्म से नहीं। इसका आधार यजुर्वेद का यह प्रसिद्ध मंत्र है-

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।। (३१/११)

पौराणिकों द्वारा उक्त मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार किया गया है-

ब्राहमण परमात्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय उसकी बाहों से, वैश्य जंघाओं से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए।

महर्षि दयानन्द ने अपने कालजयीग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उक्त मंत्र के सम्बन्ध में निम्नप्रकार व्याख्या की है-

व्याख्या– इस मंत्र का जो तुमने अर्थ किया है वह ठीक नहीं, क्योंकि यहां पुरुष अर्थात् निराकार, व्यापक परमात्मा की अनुकृत्ति है।जब वह निराकार है तो उसके मुखादि अंग नहीं हो सकते, जो मुखादि अंग वाला हो तो वह पुरुष अर्थात् व्यापक नहीं।और जो व्यापक नहीं वह सर्वशक्तिमान् जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, प्रलयकर्त्ता, जीवों के पुण्य-पापों को जान के व्यवस्था करने हारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्यु रहित आदि विशेषण वाला नहीं हो सकता, इसलिए इसका अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्णव्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह ब्राहमण (बाहू) बाहुर्वैबलम्; (५/४/१/१) बाहुर्वैवीर्यम्; (६/३/२/३५) शतपथब्राहमण। बल-वीर्य का नाम बाहु है, वह जिसमें अधिक हो सो (राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरू) कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम ऊरू है, जो सब पदार्थों ओर सब देशों में जावे-आवे, प्रवेश करे वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है। अन्यत्र शतपथ-ब्राहमणादि में भी इस मंत्र का ऐसा ही अर्थ किया है।

महर्षि ने न केवल गुण, कर्म और स्वभाव से वर्णव्यवस्था स्वीकार की अपितु मनुस्मृति के निम्न श्लोक को उवरित करते हुए यह भी कहा कि जो शूद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म और स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय, वैसे ही जो ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके समान गुण, कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाय, वैसे क्षत्रिय वा वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राहमण, ब्राहमणी वा शूद्र के समान होने से ब्राहमण और शूद्र भी हो जाता है, अर्थात चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। मनुं (१०/६५)

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यह प्रतिपादित किया कि सब बालक और बालिकाओं को शिक्षा का समान अवसर दिया जाना चाहिए। चाहे वे किसी भी वर्ण या कुल में उत्पन्न हुए हों। स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षित करने का उन्होंने प्रबल समर्थन किया। उन्होंने कहा कि सब मनुष्यों को वेदादि शास्त्र पढ़ने का अधिकार है और

अपने कथन के समर्थन में यजुर्वेद का निम्न मन्त्र प्रस्तुत कियाः-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

ब्रहमराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।। (२६/२)

महर्षि का यह मानना था कि जन्म से सब शूद्र होते हैं, शिक्षा और संस्कार से ही द्विज बनते हैं। आर्यसमाज

का इतिहास, प्रथम भाग-पृष्ठ-४४५ (प्रधान सम्पादक- डां सत्यकेतु विद्यालंकार) पर महर्षि के विचार निम्न

प्रकार वर्णित हैं-

‘‘ महर्षि ने प्रतिपादित यह किया, कि विद्या सबके लिए है और सबको ज्ञान प्राप्ति का एक समान अवसर दिया जाना चाहिए, और शिक्षा की समाप्ति पर ही यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि अपनी योग्यता और गुणों के कारण कौन व्यक्ति किस वर्ण में होने के योग्य है। जब वर्ण निर्धारित हो जाए, तो सबको उनके वर्णों के अनुरूप कार्य भी दिया जाना चहिए। ’’

महर्षि अपने जीवन में सदैव जन्मना जातीय व्यवस्था के उन्मूलन और छुआछूत दूर करने के लिए संघर्षरत रहे और उनके द्वारा स्थापित संगठन आर्य समाज ने भी उन्नीसवीं शती के अन्तिम वर्षों और बीसवीं शती

के कुछ वर्षों तक सामाजिक कुरीतियों और विषमताओं के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन किया जिसके फलस्वरूप

जातीय विषमता में काफी गिरावट भी हुई परन्तु धीरे- धीरे आर्यसमाज का यह आन्दोलन शिथिल पड़ने लगा

और आज तो यह स्थिति आ चुकी है कि यह महारोग आर्यसमाज के किसी एजेन्डा में भी नहीं है। इसका

कारण आर्यसमाज के केन्द्रीय और प्रान्तीय संगठनों का आपसी फूट या अन्य कारणों से कमजोर हो जाना या

समाज के प्रति संवेदनहीन हो जाना भी हो सकता है।जहां कहीं इस दिशा में कोई कार्य हो रहा है, वह कतिपय आर्यजनों या श्रेष्ठ आर्यसमाजों के निजी प्रयासों से ही कार्य किया जा रहा है। वेद प्रचारिणी सभा नागपुर का

नाम एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में रखा जा सकता है जो समय-समय पर सम्मेलन/गोष्ठियों और प्रचार कार्य करके महर्षि के मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। आज तो स्थिति यह लगती है कि आर्यसमाज के अधिकांश सदस्य भी जातीयता के घेरो से बाहर नहीं निकले प्रतीत होते हैं क्योंकि महर्षि द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर चलता हुआ शायद ही कोई दिखाई दे।आर्यसमाज ने दलित व पिछड़े समाज से जो व्यक्ति विद्वान् या पुरोहित के रूप में बनाए थे, उन्हें स्वयं के विवाह के लिए और उनकी सन्तानों के विवाह के लिए भी समस्याओं का सामना करना पडा़ क्योंकि आर्य या तथाकथित आर्य तो अपने जन्मना जातीय कुलों में ही विवाहादि करते हैं। पौराणिक लोगों से तो कभी भी यह अपेक्षा नहीं थी कि वे निम्नवर्ण से उच्च वर्ण में किसी को प्रोन्नत होता हुआ देख सकेंगे। आर्यों ने भी कभी वर्णों के उच्चीकरण में कोई सहायक भूमिका नहीं निभाई। यदि वर्णों का निर्धारण समावर्त्तन संस्कार के समय ही किया जाना होता है और महर्षि ने स्वयं ऐसा विधान भी किया है, जैसे कि उपराक्त रूप से वर्णित किया गया है तो आर्य समाज के संगठन के गुरुकुलों में तो कम से कम महर्षि के निर्देशों के अनुरूप शिक्षापूर्ण करनेवाले विद्यार्थियों को क्रमशः ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का घोषित किया जाना चाहिए। मनुस्मृति का विधान हजारों वर्ष से चला आ रहा है जिसे महिमा मण्डित करने में और जिसका औचित्य सिद्ध करने में हमारे आर्यसमाज के विद्वानों ने भी हजारों पृष्ठ का लेकर दिए परन्तु व्यवहार के धरातल पर वे एक भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं जिसे आधुनिक समय में किसी को गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य घोषित किया गया हो। ऐसे में गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर हमारे द्वारा मानी जा रही यह व्यवस्था हाथी के दिखावटी दांतों के सदृश ही मानी जायेगी क्योंकि खाने के दांत भिन्नहैं। महर्षि स्वयं वर्णव्यवस्था के वर्तमान स्वरूप से दुःखी थे। उन्होंने जन्म मूलक वर्ण व्यवस्था पर कुल्हाड़ा चलाया। बाद में जब उन्होंने अनुभव किया कि जन्म हो कर्म से, यह वर्णव्यवस्था समाज के लिए घोर हानिकारक है तो उन्होंने साफ कह दिया -‘‘यह

वर्णव्यवस्था तो आर्यों के लिए मरणव्यवस्था बन गई है। देखें इस डाकिन से कब पीछा छूटता है।’’ (अन्तर्राष्टीय आर्य समाज स्मारिका, पृष्ठं ६४) महर्षि के उक्त कथन के परिप्रेक्ष्य में यह विचार करना आवश्यक है कि क्या मनुस्मृति पर आधारित वर्णव्यवस्था आज के समय में व्यावहारिक है?

मनुस्मृति पर आधारित वर्णव्यवस्था की व्यावहारिक प्रासंगिकता

१. गुण कर्मों से किसी का वर्ण निश्चित करना अति दुष्कर कार्य है क्योंकि किसी मनुष्य के गुण तो उसे एक वर्ण का बताते हैं परन्तु कर्म दूसरे अन्य वर्ण के होते हैं। आधुनिक समय में यह भी होता है कि एक व्यक्ति कृषि कार्य करता है और विद्यालय में या निजी स्तर पर घर पर ही बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने का व्यवसाय भी करता है। एक व्यक्ति सैनिक है और सेना में पुरोहित का भी कार्य करता है।भारत के कई सेना के जनरल, नौ-सेना के एडमिरल और वायु सेना के अध्यक्ष ऐसे हुए हैं जिन्होंने ब्राहमणों के घर जन्म लिया, जीवन भर सेना में कार्यरत रहने के बाद भी वे क्षत्रिय नहीं हुए और ब्राहमण ही कहलाए। यही स्थिति अन्य सैनिकों की भी रहती है। जीवनभर कृषि कार्य करने वाले ब्राहमण-जन्मना कभी वैश्य नहीं हो पाए। ऐसी दशा में वर्ण कैसे निश्चित होगा? फिर इस बात का भी कोई भरोसा नहीं है कि वर्तमान गुण, कर्म या व्यवसाय आजीवन वैसे ही बने रहेंगे, इनमें कोई परिवर्तन नहीं होगा। यदि ये बदल गए तो वर्ण भी परिवर्तित करना पड़ेगा। साथ ही दो या दो से अधिक भिन्न-भिन्न व्यवसाय करने वालों का वर्ण कैसे निर्धारित किया जायेगा?

२. संसार में २२० से अधिक देश हैं जिनमें से भारत, नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि में जहां हिन्दू निवास करते हैं जाति व्यवस्था है, अन्य देशों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, फिर भी वहां बुद्धिजीवियों का कार्य, देश की रक्षा का कार्य, वाणिज्य व कृषि और सेवाकार्य सुचारू ढंग से चलता है। वहाँ पर कोई जातीय वैमनस्य या उसका कोई कारण भी नहीं है।केवल भारत में ही मनुष्यों को विभाजित करने वाले इस विधान का क्या औचित्य है ?

३. भारत में प्रजातंत्र है और इस प्रजातंत्रीय व्यवस्था में मनुष्यों के जीवन को जीने के लिए अधिकार और

कर्तव्य संविधान में दिए गए हैं। संविधान मनुष्यों को समान अधिकार देता है। ऐसे में भी गुण, कर्म और

स्वभाव के आधार पर उन्हें विभाजित करना विधि अनुकूल नहीं है। हिन्दुओं में दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों की जनसंख्यां प्रतिशत से अधिक है, ऐसे में आर्यसमाज द्वारा मनुस्मृति की इस व्यवस्था को मानने के कारण अधिकांश हिन्दू आर्य समाज के अन्य गुणों को जानते और मानते हुए भी इसकी ओर आकर्षित नहीं होते , इसके विपरीत इसकी निन्दा करने पर उतारू हो जाते हैं।

महर्षि को यदि और अधिक जीवनकाल मिला होता और वे अपने उक्त निष्कर्ष पर पुनः मनन करते तो क्या फिर भी मनुस्मृति आधारित वर्णव्यवस्था लागू करने का परामर्श देते, यह विचारणीय है।समस्त आर्यजनों से

निवेदन है कि कृपया महर्षि के जीवन के उक्त निष्कर्ष और लेख में प्रस्तुत बिन्दुओं के आधार पर विचार करें

कि क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था व्यावहारिक है?

देहरादून (उ.ख.)

वर्ण-चेतना

 

वर्ण-चेतना

डॉ. अमिता आर्या…..

वर्ण व्यवस्था के प्रति हमारी वर्तमान समझ और- इसके केन्द्रीय उद्देश्यों में अब बहुत बड़ा अन्तर पैदा हो चुका है। यद्यपि इस व्यवस्था को हम अभी भी बहुत सहजता से जी रहे हैं, बल्कि सारा विश्व जी रहा है। फिर भी अधिकांश लोग इसका विरोध करते हैं। दुर्भाग्य से वर्ण व्यवस्था के सही स्वरूप की जानकारी का अभाव इसका कारण है। हमें वर्णों के प्रति अपनी समझ अर्थात्चेतना को परिष्कृत करना होगा । इसके बाह्य और आभ्यन्तर दोनों स्वरूपों को समझने के पश्चात् ही हमें इस महान् व्यवस्था की पूर्णता का भान होगा और इसे लागू करने की आवश्यकता अनुभव होगी।वस्तुतः हमारी समस्या ये है कि इस शब्द को सुनते ही हम अपने वर्तमान समाज, जिसमें विभिन्न वर्ण सदैव विद्यमान रहते हैं, उसे छोड़कर किसी दूसरे ही लोक में पहुच जाते हैं। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम पर हमारे मस्तिष्क में कुछ पूर्व निर्धारित ऐतिहासिक व पौराणिक

आकृतिया जीवन्त होने लगती हैं, माथे पर शिकन पड़ने लगती है। अतः स्पष्ट है कि समस्या तो है, लेकिन वो हमारी समझ में है, वर्ण व्यवस्था में नहीं। शास्त्रों में कहा है- ‘वर्णो वृणोतेः भाव यह है कि जिसके जैसे गुण कर्म हों, वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिए। हम अपने समाज के किसी भी क्षेत्र से जुड़े प्रतिष्ठान को देखें। क्या उनमें कार्यरत सभी व्यक्ति समान अधिकार और वेतन के भोगी हैं ? क्या उनमें पद विभाजन नहीं है ? अधिकारों का बंटवारा नहीं है ? शासन, प्रशासन, सेना, आन्तरिक सुरक्षा बल, चिकित्सकीय संस्थान,

आर्थिक संस्थान, न्यायिक संस्थान इत्यादि में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं को एक से अधिकार प्राप्त हैं ? सर्वथा नहीं हैं। लेकिन इस भेद-विधान को देखकर किसी के मन में प्रश्न नहीं उठता, किसी के माथे की त्यौरियां नहीं चढ़तीं और हम इसे नितान्त सहज मानकर व्यवहार करते हैं। ये वर्ण-व्यवस्था है और इसपर आश्चर्य करने की आवश्यकता भी नहीं है।

वर्तमान जाति-व्यवस्था का विरोध तो ठीक है परन्तु वर्ण एक भिन्न संस्थान है। यह किसी को बिना मूल्य के कदापि नहीं मिलता। इसे अर्जित करना पड़ता है। जैसे डॉक्टर के घर उत्पन्न हुआ व्यक्ति व्यवसायगत विशेषज्ञता हासिल किये बिना डॉक्टर नहीं बन सकता। वैसे ही ब्राहमण का पुत्र बिना विद्वत्ता अर्जित किए ब्राहमण नहीं कहला सकता। वर्णव्यवस्था की दौड़ शून्य बिन्दु से आरम्भ होती है। अगर इससे आगे जाना है तो दौड़ना पड़ेगा। बैठे-बैठे तो केवल शूद्रत्व उपलब्ध है। इसकी और भी बड़ी विशेषता यह है कि ये दौड़ प्रतियोगिता नहीं है। दौड़ पूरी करने वाला हर प्रतिभागी उच्चवर्ण का अधिकारी है। जितना दौड़ेंगे, जब भी दौडेंगे उतना उसी समय प्राप्त होता जायेगा। इसलिए इस व्यवस्था में किसी के अधिकार को छीनने जैसी तो अवधारणा ही नहीं है। परन्तु दुर्भाग्य से कालान्तर में वर्ण व्यक्ति की अर्जित विशेषताओं का परिचायक नहीं रहा। परिणामस्वरूप एक न्यायपूर्ण व्यवस्था अन्यायपूर्ण होती चली गई। इसकी अत्यन्त प्रगतिशीलता भयानक जड़ता में परिवर्तित हो गई और फिर हमने उसे त्यागना ही उचित समझा। हम वर्ण वाचक शब्दों का प्रयोग चाहे न करें, फिर भी ये वर्ण गुण-कर्म के अनुसार समाज में सदैव विद्यमान रहते ही हैं। किन्तु एक संगठित संस्था के रूप में मान्यता प्राप्त न होने से ऐसे वर्ण विभाजन का कोई लाभ नहीं है। अपितु सबसे बड़ी हानि यह है कि अपने-अपने स्तर के अनुकूल मर्यादाओं और नियमों का पालन करने के लिए स्मृतिआदि शास्त्रों में जो अनुशासन बनाया गया था वो वर्ण-व्यवस्था की अनुपस्थिति में अप्रासंगिक हो गया है। अलग-अलग समूहों के लिए- उल्लिखित अलग अलग शास्त्रीय नियम यथासामर्थ्य उनके स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। ये नियम उच्च अधिकारों के साथ-साथ वर्णों को उच्च कर्त्तव्यों से बांधते हैं। अधिकारों को कर्त्तव्यों पर

अधिमान देने की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति से हम सभी परिचित हैं। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए

कोई अंकुश तो होना ही चाहिए। केवल नैतिक उपदेशों से काम नहीं चलेगा। ‘दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः’   ये एक सार्वकालिक सत्य है। लेकिन सूक्ष्म व्यक्तिगत कर्त्तव्यों की अवहेलना को रोकने के लिए अगर राज्य दण्ड-व्यवस्था को हाथ में ले तो कुछ अव्यावहारिक ही लगता है। मूल कर्त्तव्यों की अवहेलना को संविधान में

दण्डनीय अपराधों से पृथक रखना इसी असहजता को दर्शाता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि राज्य अपने

नागरिकों को कर्त्तव्य परायण बनाना चाहता है। परन्तु उसके लिए बाध्यता का प्रावधान नहीं कर पा रहा। ऐसे

में समस्या यह है कि इससे कर्त्तव्यों की प्रेरणा प्रभावशाली नहीं बन पाएगी। प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में इसका

समाधान उपलब्ध है। इसके लिए हमें सोवियत संघ से सीखने की आवश्यकता नहीं थी। वर्ण क्रम से निर्धारित

आचार संहिता वे मौलिक कर्त्तव्य हैं जिनके पालनार्थ नागरिकों को बाध्य करने के लिए एक व्यावहारिक

दण्ड-व्यवस्था विद्यमान है क्योंकि इनके उल्लंघन पर दण्ड देने का दायित्व मुख्यतया राज्य का नहीं अपितु

समाज का है। इसका दण्ड देने का अपना प्रकार है। ये आपको जेल में तो नहीं डालेगी परन्तु निश्चितकालिक

बहिष्कार और अधिकारों की कटौती आदि से नियन्त्रित अवश्य करेगी, जिसमें एक बार अपराध करने के बाद

सुधरना मना नहीं है। यहा जितनी शीघ्र अपराधी अपने शुद्ध आचरण से समाज के विश्वास को जीत लेगा उतनी ही शीघ्रता से वो अपने खोए अधिकारों को फिर से प्राप्त कर लेगा। यह एक उत्तम दण्ड-व्यवस्था है, जहा प्रताड़ना तो है परन्तु अपराधी का समय दिशाहीन कैद में व्यर्थ नष्ट नहीं होता। यह एक ऐसा कारागार है जिसकी चाबी जेलर के नहीं बल्कि अपराधी के हाथ में है। वो जब चाहे स्वयं को परिष्कृत कर प्रतिबन्धों

से मुक्त हो समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो सकता है। ये काल्पनिक बातें नहीं हैं, यथार्थ हैं। नियमों का उल्लंघन हो जाने पर अलग-अलग वर्णों द्वारा करने योग्य प्रायश्चित्तीय विधानों का विशाल जखीरा

सामाजिक आत्मानुशासन प्रणाली की व्यापक विद्यमानता का प्रमाण है। ऐसी सुलझी हुई दण्ड-व्यवस्था समाज

और व्यक्ति दोनों के लिए हितकर है। इस प्रकार से समूह के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करने का सर्वोत्तम उपाय है वर्ण-व्यवस्था। बस आवश्यकता इस बात की है कि हम इस व्यवस्था को इसके मूलरूप में स्वीकार करें, विकृत रूप में नहीं। वह मूलरूप जिस में वर्णों की दीक्षा पात्रता के आधार पर दी जाए, जन्म के आधार पर नहीं। जहा एक वर्ण दूसरे वर्ण का शोषक न हो।जहा सामाजिक भ्रातृभाव और संवेदना किसी भी प्रकार से बाधित न हो। ऐसा तभी सम्भव है जब हम ये समझ पाएं कि कोई भी व्यवस्था इंसानियत से बड़ी नहीं होती। व्यवस्थाएं मानव धर्म को निभाने का संसाधन हैं। हाथ के लिए हथियार बनते हैं, हथियारों के लिए हाथ नहीं। इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था समाज में समभाव बनाए रखने के लिए बनी है। उसकी एकता को भंग करने के लिए नहीं, ना ही मानव-मानव में भेद उत्पन्न करने के लिए। महर्षि दयानन्दजी ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए ऋगवेदादिभाष्यभूमिका में वर्णाश्रम विषय की शुरुआत जिस संवेदनशीलता के साथ की है वो दुर्लभ है- ‘प्रथम मनुष्य जाति सबकी एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है। ….. मनुष्य जाति के ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं। वेद रीति से इनके दो भेद हैं– एक आर्य और दूसरा दस्यु। …. वे चार भेद गुण कर्मों से किए गये हैं।

अपने बाह्य स्वरूप में विभेदनकारी दिखते हुए भी अन्ततोगत्वा यह एक समावेशी व्यवस्था है। यहा शूद्र को मुख्य समाज से काटकर अलग नहीं फेंका गया है अपितु उसे भी चारों वर्णों में से एक के रूप में चिन्हीत

किया गया है। इस प्रकार से वो उसी समाज का एक भाग है जिसका अंग बाकी तीनों वर्ण हैं। ये सभी वर्ण

अन्तः सम्बन्धित व एक दूसरे पर आश्रित हैं। सभी को सभी की आवश्यकता है। यजुर्वेद के पुरुष सूक्त में इन

चारों वर्णों को एक ही अवयव संस्थान के अभिन्न अंगों के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिए इनमें

छुआ-छूत और ऊँच-नीच जैसी तुच्छ भावना के लिए स्थान नहीं है। वर्ण व्यवस्था के इस विशुद्ध स्वरूप से

असहमत नहीं हुआ जा सकता। इस विषय में तो सम्यक् जानकारी का अभाव ही प्रतिरोध को उत्पन्न कर सकता है। कालान्तर में प्रविष्ट हुई विकृतियों को यदि इस व्यवस्था से अलग कर दिया जाये तो यह व्यवस्था सर्वथा निरापद है। इस व्यवस्था के पुनः प्रचलन का सबसे बड़ा लाभ यही होगा कि समाज के भय से स्ववर्णानुकूल आचरण के लिए बाध्य हुआ व्यक्ति क्षुद्रताओं को पीछे छोड़कर अपने और राष्ट के कल्याण के लिए प्रस्तुत रहेगा। इससे राज्य पर पड़ने वाला अनुशासनात्मक व्यवस्था सम्बन्धी बोझ हल्का होगा। अच्छे नागरिक प्रशासन के कार्य को सुगम बनाते हैं और निरंकुश नागरिक प्रशासन का सिरदर्द बनते हैं। वर्णों की यह ठोस सामाजिक व्यवस्था राज्य को अच्छे नागरिक प्रदान करती है।

प्राचीनकाल में वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की पात्रता के आधार पर करने की प्रथा थी। इसके निर्धारण का क्या प्रकार था ये भी जानना आवश्यक है। वस्तुतः मानव समाज में चार

समस्याएँ सदा विद्यमान रहती हैं- अज्ञान, अन्याय, अभाव और आलस्य। शिक्षा समाप्ति तक गुरु ये पहचान जाता था कि उसका कौन सा शिष्य किस समस्या का समाधान बन सकता है। इसलिए जो अज्ञान को मिटा सके वो ब्राहमण, जो अन्याय को समाप्त कर सके वो क्षत्रिय, जो अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हो वह वैश्य और जो इन सब में कुशल न होकर शारीरिक सक्रीयता में बढ़कर होता है वह शूद्र। इस प्रकार से वर्णों की दीक्षा दी जाती थी। यह तो हुई वर्णव्यवस्था की बाह्य जानकारी। अब हमें इसके आन्तरिक पहलू को भी समझना चाहिए। अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार वर्णों की दीक्षा ग्रहण करने के साथ ही व्यक्ति की पुरुषार्थ चतुष्टय की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। वस्तुतः पुरुष अपने अर्थ को अथवा अपनी सार्थकता को जिसमें ढूंढता है वही उसका पुरुषार्थ है। व्यावसायिक स्तर पर हम जिस भी वर्ण से सम्बन्ध रखते हों लेकिन अपनी चेतना में किस वर्ण को साकार कर रहे हैं ये इसका दूसरा पक्ष है। जो मात्र देह की चेतना में जीता है वह शूद्र है।

कामनाओं का उपभोग ही संसार का परमतत्व है, इससे परे कुछ है ही नहीं जो ये मान कर जीते हैं वो काम के पुरुषार्थ को चुनते हैं। अतः शिक्षित होते हुए भी वे चेतना के स्तर पर शूद्रत्व में ही वास कर रहे हैं। जो अकुशल श्रमिक है वो तो व्यवसाय के स्तर पर शूद्र है, परन्तु शिक्षित व्यक्ति यदि काम को अपना पुरुषार्थ चुनेगा तो चेतना में शूद्र बनता जाएगा। इसी प्रकार अर्थोपलब्धि जिसका पुरुषार्थ बन जाता है, वह वैश्य कहाता है। क्षत्रिय का पुरुषार्थ धर्म है। वह संकल्पवान् है। धर्म के लिए वह मर मिटेगा। जहा अन्याय का प्रसंग आयेगा वहां सर्वस्व स्वाहा कर देगा। ब्राहमण धर्म, अर्थ और काम तीनों से ऊँपर उठकर मोक्ष को अपना पुरुषार्थ मानता है। यहा धर्म से ऊँपर उठने का अर्थ धर्म की अवमानना नहीं है, इसका आशय है कि अब वह स्वभावतः ही धर्म में वास कर रहा है। काम, अर्थ और धर्म इन तीनों से आगे की यात्रा है मोक्ष। मोक्ष में संस्कारों के साथ प्रवेश नहीं कर सकते। जो संस्कार सहायक थे उनकी सीढ़ी से भी मुक्त होना होता है। बुद्धि भी हमें आबद्ध कर ही रही थी चाहे धर्म से ही सही, अतः उसका परित्याग भी आवश्यक है। तभी मोक्ष घटित होगा। हम किसी भी वर्ण के किसी भी आश्रम से सम्बन्ध रखते हों फिर भी मानव जीवन का चरम गन्तव्य मोक्ष ही है। इस विषय में वेदादिशास्त्रों में अनेक प्रमाण हैं। उन्हीं के सार को वानप्रस्थ और संन्यास के प्रसंग में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने इस प्रकार कहा है- the stature of man is not be reduced to the requirements of the society. Man is much more than the custodian of its culture or protector of his country or producer of its wealth. इससे भी आगे उसकी नियति है। हमारी

सामाजिक दक्षता हमारी आध्यात्मिक नियति का गन्तव्य नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए शूद्रत्व की

चेतना से ऊँपर उठते हुए ब्राहमण की चेतना तक पहुचने का प्रयास करना चाहिए। सारे वर्ण अपने-अपने काम

करते हुए भी ब्राहमण की चेतना में जीने का अभ्यास कर सकते हैं। कर्म यदि यज्ञमय हो जाए तो शूद्र का कर्म भी ब्राहमण के कर्म के समान पावन बन जाता है। वहीं ब्राहमण का कर्म निम्न चेतना के साथ किया जाए तो वह कर्म पावन होते हुए भी शूद्र के समान हो जाता है। ब्राहमण और क्षत्रिय जब अपनी सेवा को अर्थ की लिप्सा से बेचते हैं तो वैश्य चेतना से युक्त हो जाते हैं। जबकि सामाजिक हित की भावना से व्यापार करता हुआ वैश्य उत्कृष्ट वर्ण की चेतना को प्राप्त कर लेता है। महर्षि मनु ने भी शूद्रादि की उत्कृष्ट वर्ण प्राप्ति का उल्लेख कर वर्णव्यवस्था के अन्दर निहित उन्नति की सम्भावनाओं पर बल दिया है। वर्ण चेतना का उत्तरोत्तर विकास ही वो सोपान है जिसके माध्यम से एक शूद्र भी ब्राहमणत्व को धारण कर सकता है।

वस्तुतः यह एक ऐसी व्यवस्था है जो अपार सम्भावनाओं को अपार अवसर उपलब्ध कराती है, एक ऐसा यन्त्र है जो अंकुश से आजादी, सामूहिक परार्थ से व्यक्तिगत स्वार्थ, अनेकता से एकता, त्याग से प्राप्ति सुख के रस को निचोड़ लाता है। हमें समझना चाहिए कि एक ऐसी संस्था जो विभिन्न विरोधाभासी तत्वों को परस्पर

गूंथकर शान्तिमय सहअस्तित्व प्रदान कर सकती है क्या वो व्यवस्था अनेक समानताओं से युक्त एक मानव जाति को सद्भावनामय परिवेश प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं रखती होगी ? क्या हो गया है हमारे विश्वास को ? एक सुपरीक्षित प्राचीन व्यवस्था के प्रति इतने आश्वस्त तो हो ही सकते हैं हम।

– श्रीमद्दयानन्द कन्या गुरुकुल महाविद्यालय,

चोटीपुरा, अमरोहा (उ. प्र.)

 

वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था

वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था

आचार्य योगेन्द्र याज्ञिक….

आश्रम शब्द आड़  उपसर्ग पूर्वक श्रमु तपसि- खोदे च धातु से घज प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है मानव का वह जीवन क्रम जिसमें ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, धर्म तथा मुक्ति आदि के लिए मर्यादा पूर्वक निरन्तर श्रम किया जाए वह आश्रम कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘‘आश्राम्यन्ति अस्मिन् इति आश्रमः’’ ऐसा जीवन जिसमें व्यक्ति खूब श्रम करता है। आश्रम को आश्रम इसलिए कहते हैं कि आश्रम्यन्त्येषु श्रेयोर्थिनः पुरुषा इत्याश्रमाः अर्थात् इनमें श्रेयस् के इच्छुक पुरुष खूब श्रम करते हैं। महर्षि दयानन्द आश्रम के विषय में आर्योद्देश्य रत्नमाला में कहते हैं- जिसमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुणों का ग्रहण और श्रेष्ठ काम किये उनको आश्रम कहते हैं।

आश्रमों की संख्या१. महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखा- आश्रमा अपि चत्वारः सन्ति,

ब्रहमचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ-सन्यासभेदात् आश्रम चार हैं ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। मनु ने भी मनुस्मृति में कहा चत्वारश्चाश्रमाःपृथक् लोक में चार पृथक-पृथक आश्रम हैं। जाबोलोपनिषद् में भी कहा है ब्रहमचर्य समाप्य गृही भवेत्  गृही भूत्वा वनी भवेत् बनी भूत्वा प्रव्रजेत् अर्थात् ब्रह्मचर्य को पूर्ण करके गृहस्थी बने फिर वनी होवे उसके पश्चात् परिव्रजाक बने। अन्य आपस्तम्ब, गौतमधर्मसूत्र वशिष्ठधर्मसूत्रादि में भी आश्रमों की संख्या चार ही मानी गई हैं।

आश्रमों का उद्देश्यमहर्षि दयानन्द जी ऋगवेदादि-भाष्यभूमिका में कहते हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन

चारों पदार्थों की प्राप्ति के लिए इन चार आश्रमों का सेवन करना सब मनुष्यों को उचित हैं। १. ब्रहमचर्याश्रम-

आश्रमों की दृष्टि से यह प्रथम है। ब्रहमचर्याश्रम के सम्बन्ध में ऋषि लिखते हैं – ‘‘विद्या पढ़ने सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रहमचर्य (आश्रम है)”। ब्रहमचर्याश्रम में सद्विद्यादि शुभ गुणों का ग्रहण

करना, जितेन्द्रियता से आत्मशक्ति का विकास करना, शारीरिक बल वृद्धि के साथ-साथ विद्या पढना तथा सुशिक्षा ग्रहण करना। यह आश्रम समस्त आश्रमों की नीव हैं। इसकी सुदृढ़ता पर ही जीवन रूपी भवन की

भित्ति सुदृढ़ होती है।

ब्रहमचारी शब्द ब्रहम तथा चारी इन दो पढ़ो से मिलकर बना है। ब्रहम पढ़ बृहवृहि वृद्धो धातु से निष्पन्न होता हैं जिसका अर्थ बड़ा या महान् है। शरीर में वीर्य, ज्ञान में वेद तथा तत्वों में परमेश्वर सबसे बडा है। चारी शब्द चर गतिभक्षणयोः धातु से णिनी प्रत्यय लगने से बनता है। गति के तीन अर्थ है ज्ञान, ब्रहम की प्राप्ति में प्रयत्नशील व्यक्ति। इस ब्रहमचारी शब्द की बहुत से विद्वानों ने अलग-अलग व्युत्पति की हैं यथा ब्रहमचर्यं चरतीति ब्रहमचारी आदि, परन्तु महर्षि दयानन्द कहते हैं- ब्रह्माणि वेदे चरितु शीलं यस्य स ब्रहमचारी।

ब्रहमचर्याश्रम वह अवस्था है जिसमें मनुष्य ज्ञान, बल, भक्ति, यश, तप, स्वाध्याय, को जोड़ने का काम करता है।

. गृहस्थाश्रम- आश्रमों की दृष्टि से ये दूसरे स्थान पर है इसके विषय में दयानन्द जी कहते हैं- सब प्रकार के

उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ। सारे शास्त्रकारों ने ग्रहस्थाश्रम की प्रशंसा की है। गौतम धर्म सूत्र ने तो कहा है- गृहस्थ सब आश्रमो का मूल है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ‘‘ इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रहमचर्य, वानप्रस्थ, और सन्यासाश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहस्थाश्रम की निंदा करता है वही

निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है।’’ परन्तु शास्त्रों ने, ऋषियों ने उसी गृहस्थाश्रमी की

प्रशंसा की है, जो नियमित ब्रहमचर्य के पालनपूर्वक विद्याध्ययन के उपरान्त गुण, कर्म, स्वभाव मिलाकर

विवाह करके किया जाता है पर आज गुण कर्म स्वभाव तो नही मिलाते बल्कि तो बाल, माल, खाल मिलाते हैं। इसलिए स्वर्गाश्रम गृहस्थाश्रम दुःखों का आश्रम बनता चला जा रहा है। सन्तान उत्पत्ति करना विद्यादि

सद्व्यवहारों को सिद्ध करना धन का संचय करना गृहस्थ के करणीय कर्म हैं।

. वानप्रस्थ- वानप्रस्थ उसे कहते हैं-

गृहस्थस्तु यदापश्येद् वलिपलितमात्मनः।

अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।।

(मनु. ६.२)

अर्थात् गृहस्थ जब देखे कि शिर के बाल श्वेत हो गये हैं तथा मुख पर झुर्रियां आ गई एवं पुत्र का भी पुत्र हो गया तब गृहस्थ के कार्यों से उपरत होकर आत्मोन्नति के लिए घर छोड़कर वन को प्रस्थान करे। सामान्यतया मानव जीवन सौ वर्ष का माना गया है आश्रम क्रम से उसके चार विभाग किये गये जो २५-२५ वर्ष के होते हैं।

इस क्रम से वानप्रस्थं ५० वर्ष की अवस्था के उपरान्त ही है। ऋषि दयानन्द लिखते हैं- विचार, ध्यान, विज्ञान, तपश्चर्या करने के लिए वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए। वानप्रस्थ के लिए गिरिशयाय’’ शब्द का प्रयोग किया जाता हैं इसकी व्याख्या करते हुए, ऋषि दयानन्द कहते हैं- यो गिरिषु पर्वतेषु श्रितः सन् शते तस्मै

वानप्रस्थाय अर्थात् जो वन के समीप वास वाला।

आज समाज में वानप्रस्थ की परम्परा समाप्त

होने के कारण वृद्धत्व की समस्या बनी हुई है क्योंकि एक छत के नीचे दो बाप नहीं रह सकते। इस समस्या

का एक मात्र समाधान वानप्रस्थ ही है इसीलिए पहले नियम था आठ वर्ष वाले घर में नही रहें। आठ वर्ष वाले

गुरुकुल पढ़ने जाये और साठ वर्ष पढ़ाने लगें क्योंकि इनका ज्ञान अनुभवात्मक हो चुका होता है। इस वानप्रस्थाश्रम को समाज में स्थान देने का हमें प्रयत्न करना चाहिए।

  1. संन्यास-

सन्यास शब्द सम्+न्यास से बना है यहां सम् का अर्थ सम्यक्तया और न्यास का अर्थ त्याग अथवा स्थिर

होना। ऋषि दयानन्द कहते हैं- सम्यत्र्नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यत्र्न्यस्यन्ति दुखानि कर्माणि येन स

सन्यासः। सम्यत्र्न्यस्यन्ति अधर्माचरणानि येन वा सम्यत्र् नित्यं सत्कर्मस्वास्त उपविशति स्थिरीभवति येन स सन्यासः अर्थात् अधर्माचरण, दुष्टकर्मो का त्याग तथा ब्रहम एवं सत्कर्मों में स्थिर होने का नाम सन्यास है। प्राणी मात्र के उपकार के लिए वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार करना, धर्म व्यवहार का ग्रहण करना, दुष्ट व्यवहार का त्याग और सबके संदेह का निवारण करना ही सन्यास के मुख्य कर्त्तव्य हैं। मैत्रेम्युपनिषद में कहा है कि आत्मा, परमात्मा के मिलन का नाम सन्यास है। संस्कारविधि में ऋषि दयानन्द कहते हैं- सन्यास संस्कार उसको कहते हैं कि जो मोहादि आवरण पक्षपात छोड के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकारर्थ विचरे ज्ञान और वैराग्य के बिना लिया गया सन्यास दुख का कारण बनता है। सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द जी कहते है-जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों मे सन्यास आश्रम की आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना विद्या, धर्म कभी नहीं बढ़ सकता और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि का सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है पक्षपात छोड़कर वर्तना दूसरे आश्रमों को दुस्कर है। सन्यास आश्रम में व्यक्ति लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा का त्यागकरके निःस्वार्थ भाव से समाज के उपकार का कार्य करता है। इस प्रकार चारों आश्रमों का पालन करके जीवन को मंगलमय बनायें और मोक्ष की प्राप्ति करें।

– आर्ष गुरुकुल महाविद्यालय,

नर्मदापुरम्, होशंगाबाद (म.प्र.)

महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था

 

महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था

डॉ. महेश चन्द्र ध्यानी…..

प्रकृति के नैसर्गिक गुणों के अनुसार मानव समाज में चार विभाग करके उनके कल्याण के लिए, उनकी रुचि, प्रकृति, योग्यता और अधिकार के अनुसार परमात्मा ने चारों वर्ण और आश्रमों के लिए धर्म एवं जीविकोपार्जन के मार्ग और प्रकार भिन्न-भिन्न तरह के बनाये हैं। इसी ईश्वर निर्मित व्यवस्था को ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’ कहते हैं। तदनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं वर्णेतर जाति के भिन्न-भिन्न तरह के लोगों के कल्याण के लिए उनकी योग्यता के आधार पर धर्म तथा जीविका के उपार्जन के लिए जो-जो शास्त्रीय नियम बनाये गये हैं, उन्हीं का नाम है- वर्णाश्रम-धर्म। अर्थात् वर्ण-धर्म और आश्रम-धर्म।

वर्तमान समय में बेकारी, जनसंख्या की अत्यन्त वृद्धि और व्यवसायवाद संसार के विचारकों के सामने मूह बांये खड़ा है। कोई व्यक्ति जीवन का बड़ा भाग सम्पत्ति के पैदा करने में बीता देते हैं, और कोई व्यक्ति

बेकार घूमते रहते हैं। आश्रम मर्यादा के अनुसार यदि मनुष्य समाज नियतकाल तक ही सम्पत्ति कमायें और

सांसारिक कर्म किया करें। तत्तद् कर्मो का विधान धर्म और जीविका के उपार्जन करने के लिए किया गया है।

वर्णाश्रम-व्यवस्था के अनुसार मनुष्यों के कुछ कर्म तो धर्मोपार्जन के लिए विहित है और कुछ उनके जीविकोपार्जन के लिए।

कुछ ऐसे भी कर्तव्य हैं, जिनसे कि धर्म और जीविका दोनों का ही उपार्जन होता है। जैसे कि ब्राहमण के लिए अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, और प्रतिग्रह, क्षत्रिय के लिए प्रजापालन,रास्त्र की सुरक्षा और शूद्र के लिए सेवा। इसी कारण ब्राहमण आदि चारों वर्ण तथा वर्णेतर जाति वाले लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से धर्म का

संचय करते हैं। अर्थात् लक्ष्य एक होने पर भी अर्थोपार्जन की ही भाति, धर्म के उपार्जन करने का मार्ग भी सबके लिए भिन्न-भिन्न तरह का है। उसी भिन्न ढंग का नाम वर्ण-धर्म है। वर्ण-धर्म के अनुसार अपने कर्तव्य नियमों का अनुसरण करके, अपना-अपना कर्त्तव्य करता हुआ प्रत्येक मनुष्य अनायास ही आत्म-कल्याण सम्पादन कर सकता है।

मनु ने वर्ण और आश्रम की प्रस्थापना विभिन्न रूप से की है और उन्हें वर्णाश्रम-धर्म में रक्खा है गुण,

कर्म और स्वभाव के अनुसार समाज में मनुष्य का क्या स्थान और तदनुसार उसके क्या कर्त्तव्य हैं, ये मनु के अनुसार वर्ण-धर्म है। व्यक्ति को अपने जीवन में किस प्रकार अवस्थानुसार संस्कार एवं विकास करना चाहिए, इसे मनु ने आश्रम-धर्म के अन्तर्गत रखा है।

आपत्तिकाल में मनुष्य किस प्रकार आचरण करे, इसके लिए मनु ने कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं, और उन्हें आपद धर्म के अन्तर्गत रखा है। कभी-कभी मनुष्य के सामने ऐसी समस्या उत्पन्न हो जाती है, जब

उसका सामान्य और वर्णाश्रम धर्म के पालन से कार्य नहीं चलता, और वह किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है। उन

परिस्थितियों में मनु ने आपद् धर्म पर आचरण करने का निर्देश दिया है, सामान्य परिस्थितियों में नहीं।

मनु ने वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत क्रमशः वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और आश्रम (ब्रहमचर्य,

गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) के विशिष्ट धर्मों का परिगणन कराया है। वर्ण का वर्णन मनु से पूर्व, या कहा

जाय कि सर्वप्रथम ऋगवेद के पुरुष-सूक्त में मिलता है।

मनुस्मृति में चारों वर्णों के कर्त्तव्य का सविस्तार उल्लेख करते हुए बताया गया है कि पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ

करना-कराना, दान लेना, दान देना ये छः विशेष कर्म ब्राहमणों के हैं। प्रजा के रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, और विषय से विरक्त होना क्षत्रियों के। पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य व्यापार तथा खेती करना वैश्यों का कर्त्तव्य है, और शूद्रों को भगवान ने केवल एक ही काम दिया और वह था स्वेच्छा से उपर के तीनों वर्णों की सेवा करना।

ब्रहमचर्य, महान् आश्रम गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैक्ष्यचर्य (संन्यास)- ये चार आश्रम हैं। चौथे आश्रम संन्यास का अवलम्बन प्रायः ब्राहमणों द्वारा ही किया गया है। (ब्रहमचर्याश्रम में) चूड़ाकरण संस्कार और उपनयन के अनन्तर द्विजत्व को प्राप्त हो वेदाध्ययन पूर्ण करके (समावर्तन के पश्चात विवाह करके) गार्हस्थ्यआश्रम में अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न करके इन्द्रियों कों संयम में रखते हुए मनस्वी पुरुष स्त्री को साथ लेकर अथवा

बिना स्त्री के ही गृहस्थाश्रम से कृतकृत्य हो वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करे। वहा धर्मज्ञ पुरूष आरण्यक शास्त्रों का

अध्ययन करके वानप्रस्थ-धर्म का पालन करे।तत्पश्चात ब्रहमचर्य-पालन पूर्वक उस आश्रम से निकल जाय और

विधि पूर्वक संन्यास ग्रहण कर ले। इस प्रकार संन्यास लेने वाला पुरूष अविनाशी ब्रहमभाव को प्राप्त हो जाता

है। राजन्! विद्वान् ब्राह्मण को ऊर्ध्वरेता मुनियों द्वारा आचरण में लाये हुये इन्हीं साधनों का सर्वप्रथम आश्रय

लेना चाहिये। प्रजानाथ! जिसने ब्रहमचर्य का पालन किया है, उस ब्रहमचारी ब्राहमण के मन में यदि मोक्ष की

अभिलाषा जाग उठे तो उसे ब्रहमचर्य-आश्रम से ही संन्यास ग्रहण करने का उत्तम अधिकार प्राप्त हो जाता है। संन्यासी को चाहिये कि वह मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए मुनिवृत्ति से रहे। किसी वस्तु की कामना न करे। अपने लिये मठ या कुटी न बनवावे। निरन्तर घूमता रहे और जहा सूर्यास्त हो वहीं ठहर जाये।

प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाये, उसी से जीवन-निर्वाह करे। आशा-तृष्णा का सर्वथा त्याग करके सबके प्रति समान भाव रक्खे। भोगों से दूर रहे और हृदय में किसी प्रकार का विकार न आने दे। इन्हीं सब धर्मों के

कारण इस आश्रम को ‘क्षेमाश्रम’ (कल्याण प्राप्ति का स्थान) कहते हैं। इस आश्रम में आया हुआ ब्राहमण

अविनाशी ब्रहम के साथ एकता प्राप्त कर लेता है।

जीवन-निर्वाह के उद्देश्य से किये जाने वाले यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह-इन छः कर्मों से अलग रहे और किसी भी असत् कर्म में वह कभी प्रवृत न हो। अपने अधिकार का प्रदर्शन करते हुए व्यवहार न करे, द्वेष रखनेवालों का संग न करे। ब्रहमचारी के लिये यही आश्रम-धर्म अभीष्ट है।

आश्रमजिसमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुण ग्रहण और श्रेष्ठ कर्म किये जाये, उनको आश्रम कहते हैं।

सद्विद्यादि शुभगुणों का ग्रहण तथा जितेन्द्रियता से आत्मा और शरीर के बल को बढ़ाने के लिए ब्रहमचर्य,

सन्तानोत्पत्ति और विद्यादि सब व्यवहारों को सिद्ध करने के लिए गृहस्थाश्रम, सद्विचारों के लिए वानप्रस्थ तथा सर्वोपकार हेतु सन्यासाश्रम होता है। ये चार आश्रम भिन्न-भिन्न युगादि में तत्द्युगीन परिणामानुसार विभाजित होते हैं। मनुष्य की पूर्ण अवस्था के चौथाई भाग का एक आश्रम किया जा सकता है। वर्ण व गुण-कर्मों के योग से ग्रहण किया जाने वाला शब्दार्थ वर्ण का अभिहित करता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि वर्ण कहलाते हैं।

जो मनुष्य ब्रहम अर्थात् परमेश्वर और वेद का जानने वाला है। वही ब्राहमण होने के योग्य है, इन्द्रियों को

जीतने वाला पण्डित शूरतादि गुणयुक्त, श्रेष्ठवीर पुरुष क्षत्रधर्म को स्वीकार करने वाला क्षत्रिय होने योग्य है।

ऐसे ब्राहमण और क्षत्रियों के साथ न्यायपालक राजा को अनेक प्रकार से लक्ष्मी प्राप्त होती है और उसके खजाने में कभी कमी नहीं आती।

‘मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पाद उच्यते’

(मुखं किमस्यासीत्) इस पुरुष के मुख अर्थात् मुख्यगुणों से इस संसार में क्या उत्पन्न हुआ है? (किं बाहू?)

बल, वीर्य, शूरता और युद्धआदि विद्या गुणों से सम्पन्न इस संसार में कौन पदार्थ उत्पन्न हुआ है? (किमूरु)

व्यापारादि मध्यम गुणों से किस गुण की उत्पत्ति होती है। इन सभी। प्रश्नों का उत्तर भी ये हैं कि –

‘‘ब्राहमणो स्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः

ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो जायत।’’

अर्थाद इस पुरुष की आज्ञानुसार जो विद्या, सत्य, भाषणादि उत्तम गुण और श्रेष्ठ कर्मों से ब्राहमण वर्ण

उत्पन्न होता है, वह मुख्य कर्म और गुणों के सहित होने से मनुष्यों में ब्राहमण कहलाता है, और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। ऋषि, व्यापारादि तथा देशाटन, पशुपालन करना वैश्य वर्ण के कर्मों के अन्तर्गत आता है। सेवादि कर्म शूद्रकर्म को वेद पुरुष ने प्रदान किये।

सबसे उत्तम विद्या और श्रेष्ठ कर्म करनेवालों को ही ब्राहमण वर्ण का अधिकार दिया जाता है ।उससे विद्या का प्रचार-प्रसार कराना और उन लोगों को भी चाहिए कि विद्या के प्रचार में ही सदा तत्पर रहें। तथा सब कार्यों में चतुरता, शूरतापन, धीरज, वीर पुरुषों से युक्त सेना का रखना, दुष्टों को दण्ड देना और श्रेष्ठजनों का पालन करना इत्यादि गुणों को बढ़ानेवाले पुरुषों को क्षत्रिय वर्ण को अधिकार देना चाहिए । वैश्यादिवर्णों को व्यापारादि व्यवहारों में भूगोल के बीच में आने-जाने का प्रबन्ध करना और उनकी अच्छी रीति

से रक्षा करनी, जिससे धनादि पदार्थों की संसार में वृद्धि हो, मनुष्यों को सम्पूर्ण जीवन में सद्गुणों का ही प्रकाश करना चाहिए। उत्तम कर्मों से भूगोल में श्रेष्ठ कीर्ति को बढ़ाना उचित है। मनुस्मृति में भी ब्राहमणादि वर्णों के कर्म निर्धारित किये गये हैं –

‘अध्यापनमध्ययनं याजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रह९चैव ब्राहमणानामकल्पयत्।।

वर्ण विभाजन को मनु ने समाज-कल्याण का कारण माना है। डाँ राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक ‘‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’’ में वर्ण-व्यवस्था के विषय में लिखा है कि ‘‘सामाजिक पक्ष से देखने पर वर्ण-व्यवस्था मानव संगठन

का परिणाम है, किसी दैवी-विधान का रहस्य नहीं । यह वास्तविक विभेद और आदर्श एकता को ध्यान में रखते हुए समाज सुसंगठन का एक प्रयत्न है।

आश्रम-धर्म के अन्तर्गत मनु ने सामान्य मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों में बाटा है। ब्रहमचर्य, गृहस्थ,

वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। वर्णों के समान ही चारों आश्रमों के भी विशिष्ट कर्त्तव्य हैं।

भारतीय दर्शनों में धर्म-अधर्म अथवा सदाचार का विश्लेषणात्मक अध्ययन हुआ हैं प्रायः सभी दर्शनों ने धर्म के अन्तर्गत कुछ नियमों का प्रतिपादन किया है। यथा वैशेषिक दर्शन पर लिखे अपने भाष्य में प्रशस्तपाद ने धर्म को सामान्य और विशेष दो पदार्थो की भाति ही सामान्य और विशेष दो वर्गों में विभाजित किया है।

महाभारत के मतंगोपाख्यान में ब्राहमणत्व प्राप्त करने के उपायों तथा ब्राहमणत्व के परिचयात्मक प्रश्न विषयक भीष्म पितामह जी के उपदेश इस प्रकार हैं।

तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा।

ब्राहमण्यमथ चेदिच्छेत् तन्मे ब्रूहि पितामह।।

अर्थात् यदि कोई मनुष्य ब्राहमणत्व प्राप्त करने की इच्छा रखता हो तो वह उसे तपस्या, कर्म अथवा वेदों के स्वाध्यायादि किस उपाय से प्राप्त कर सकता है? युधिष्ठिर के इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म ने कहा कि क्षत्रिय आदि तीनों वर्णों के लिए ब्राहमणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि यह समस्त प्राणियों के लिए सर्वोत्तम स्थान है। बहुत सी योनियों में बार-बार जन्म लेते कभी किसी योनि में संसारी जीव ब्राहमण योनि में जन्म लेता है।

मनुष्यत्वं दुर्लभं लोके ब्राहमणत्वं तत्र सुदुर्लभम्।

प्राचीनकाल में किसी ब्राहमण के घर में मतंग नामक पुत्र हुआ, जो अन्य वर्ण के पुरुष से उत्पन्न होने पर भी ब्राहमणोचित संस्कारों के प्रभाव से उनके समान वर्ण का ही समझा जाता था।

एक दिन पिता के भेजने पर मतंग किसी यजमान का यज्ञ कराने के लिए गधों से जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर

बैठकर चला, रथ का बोझ ढ़ोते हुए एक छोटी अवस्था के गधे को उसकी माता के निकट ही मतंग ने बार-बार

चाबुक से मारकर उसकी नाक में घाव कर दिया, पर गधी ने अपने पुत्र को सान्त्वना देते हुए कहा, बेटा! शोक

न करो, तुम्हारे ऊपर ब्राहमण नहीं, चाण्डाल सवार है, क्योंकि ब्राहमण सबके प्रति मैत्री भाव रखने वाला समस्त प्राणियों को उपदेश देनेवाला आचार्य होता है, वह कैसे किसी पर प्रहार कर सकता है।

जो स्वभाव से ही पापात्मा हो, दूसरों के पुत्रों पर दया न करता हो, वह अपने इन कुकृत्यों द्वारा अपनी चाण्डाल योनि को ही सम्मान दे रहा, क्योंकि जातिगत स्वभाव ही मनोभाव पर नियन्त्रण रखता है।जो मनुष्य

वरुण, वायु, आदित्य, पर्जन्य, अग्नि, रुद्र, स्वामी कार्तिकेय, लक्ष्मी, विष्णु, ब्रहमा, वृहस्पति, चन्द्रमा, जल,

पृथ्वी और सरस्वती को सदा प्रणाम करते हैं, तपस्या ही जिनका धन है, जो वेदों के ज्ञाता तथा वेदोक्त धर्म का ही अनुसरण करते हैं, जो भोजन से पहले देवताओं की पूजा करते हैं। उन लोगों में ब्राहमणत्व स्वयं आ

जाता है, और वे सभी भद्रजन नमस्कार के योग्य हैं।

जो ब्राहमण वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न, धर्म, अर्थ और काम का सेवन करने वाले, लोलुपता से रहित और स्वभावतः पुण्यात्मा हैं।जो ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, अग्निहोत्र स्वीकार कर वेदों को धारण करते हैं। संतप्त प्राणियों में आत्मस्वरूप परमात्मा को ही सबका कारण मानने वाले हैं वे सभी ब्राहमण वन्दनीय, पूजनीय

और श्लाघनीय हैं।

प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने मनुष्य-जीवन को सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत करने के लिए एक योजना का निर्माण किया था और जिस योजना को उन्होंने शाश्वत माना है। उस योजना का उद्देश्य मनुष्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति का एवं उस समाज का अत्यन्तिक विकास एवं उत्थान था। मनुष्य जीवन की उस योजना

को वर्णाश्रम धर्म अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था के नाम से अभिहित किया जाने लगा। उस व्यवस्था को अक्षुण्य

रूप में स्थिर रखना राजा का परम कर्तव्य होता है। राज्य में व्यक्ति या व्यक्ति समूहों के निर्धारित जो-जो विशेष कर्तव्य अथवा आचरण उस योजना के अनुसार निर्धारित किये गए थे उनको उनका पालन उसी विधि से करना चाहिए। इस व्यवस्था में अस्त-व्यस्तता का होना वर्ण संकर तथा धर्म संकर कहलाता था। वर्ण संकर या धर्म संकर का रोकना राजा का परम-धर्म माना जाता है।

वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करना राजा का प्रधान कर्त्तव्य था इस विषय में कौटिल्य ने भी व्यवस्था दी है। इस विषय पर वह अर्थशास्त्र में इस प्रकार लिखते हैं- अपने-अपने धर्म (कर्त्तव्यों) का पालन स्वर्ग और मोक्ष

के लिए होता है। यदि कर्मो का लोप किया गया तो वर्ण संकरता होकर संसार में उथल-पुथल मच जायेगी।

प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। इसलिए राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्त्तव्य पालन के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की स्थापना करे। राजा को अपने राज्य में

वर्ण संकरता कभी भी नहीं होने देनी चाहिए। जो मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन करते रहता है, वह इस लोक

और परलोक दोनों में सुख प्राप्त करता है।

राजा द्वारा जब वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था कर दी जाती है तो इस प्रकार सुरक्षित हो कर जगत प्रसन्न रहता है, कभी पीड़ित नहीं होता है। दण्ड द्वारा राजा से सुरक्षित हुए चारों वर्ण और आश्रम अपने-अपने धर्म और कर्म में संलग्न रहते हैं और अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रह सज्जीवन व्यतीत कर अन्त में परमपद को

प्राप्त करते हैं।

मनु ने भी राजा के लिए यह एक महान् कर्तव्य निर्धारित किया है कि उसको अपने राज्य में वर्णाश्रम धर्म

की व्यवस्था को विधिवत् स्थापित करे। उन्होंने राजा को वर्णाश्रम धर्म का रक्षक माना है। इस विषय में उन्होंने मानवधर्मशास्त्र में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है- अपने-अपने धर्म में चलने वाले आनुपूर्व से सब वर्णों और आश्रमों की रक्षा करने वाले राजा का निर्माण ईश्वर ने किया है।

वर्णाश्रम धर्म की समुचित व्यवस्था तब तक नहीं हो सकती जब तक कि राज्य में ब्राह्य और आन्तरिक

विघ्न वाधाओं का भय बना रहता है। अतः भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजा को अपने राज्य में प्राणिमात्र की रक्षा करनी चाहिए। जो राजा अपने राज्य पर दीर्घकाल तक राज्य करने की अभिलाषा रखता हो उसके लिए प्रजा की वास्तविक रक्षा के अतिरिक्त अन्य मार्ग नहीं है, क्योंकि प्रजा की रक्षा ही प्रजा को प्रसन्न करने का मूलमन्त्र है। आन्तरिक और ब्राह्य आपत्तियों से प्रजा को निर्भय रखना राजा का प्रधान कर्तव्य समझा जाता है। इसीलिए भीष्म उस राजा को श्रेष्ठ मानते हैं जिसके राज्य में समस्तजन (मानव) निर्भय होकर इस प्रकार विचरण करते हैं, जिस प्रकार पुत्र अपने पिता के घर में निर्भयतापूर्वक विचरते हैं।

अपने राज्य की प्रजा के रक्षण सम्बन्धी राजा के कर्तव्य की ओर संकेत करते हुए भीष्म पितामह जी

कहते हैं कि प्राणिमात्र की रक्षा करना ही परम धर्म और परम दया बतलाया गया है तो राजा को अपनी समस्त प्रजा की रक्षा करनी चाहिए यही उसका सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य (धर्म) है। ऋषि, गोरक्षा और वाणिज्य से इस लोक में प्राणियों की जीविका चलती है, त्रयी विद्या से प्राणियों को ऊर्ध्व गति प्राप्त होती है, इसीलिए इस संसार में जो परिपंथी उसका विरोध करते हैं उनके नाश के निमित्त ब्रहमा ने क्षात्र की रचना की। इसलिए हे कुरुनन्दन! शत्रुओं को विजय कीजिए, प्रजापालन, अनेक दक्षिणा वाले यज्ञ और युद्ध कीजिए। जो प्रतिपालन योग्य प्राणियों का सदैव परिपालन करते है वह राजा उत्तम है और जो राजा उनकी रक्षा नहीं करते है उनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।लोक रक्षा हेतु राजा को सदैव युद्ध करते रहना चाहिए।

राजा जो प्राणियों पर दया करके उनकी रक्षा में नित्य उद्यत रहता है, धर्म जानने वाले पण्डित लोग उस

राजा (स्वामी) का परम धर्म कहते हैं। जो राजा, भय के कारण प्रजा की रक्षा न करता हुआ एक दिन में पाप

का संचय करता है, उसका भोग सहस्रो वर्षो तक भोगने पर भी बड़ी कठिनाई से पूर्ण हो पाता है। परन्तु जो राजा धर्म पूर्वक प्रजा पालन करने से एक दिन में धर्म का संचय करता है अर्थात् प्रजापालन से जो एक दिन में धर्म की धर्म की प्राप्ति होती है, उसका फल राजा स्वर्ग में दस सहस्र वर्ष तक भोगता रहता है। उत्तम प्रकार से यज्ञ करने वाला, विधिवत् वेदाध्ययन करनेवाला और उत्तम तपस्वी मनुष्य जिन उत्तम लोकों को प्राप्त करता है उन लोकों को धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करनेवाला राजा क्षण में प्राप्त कर लेता है। हे कौन्तेय! इस प्रकार समझ कर तुमको धर्म के साथ प्रयत्नपूर्वक प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। इस कार्य के करने में बड़े पुण्य की प्राप्ति होती है।

दूसरे प्रसंग में इसी विषय में इस प्रकार कहते हुए अपना मत प्रकट करते हैं- राजा के प्रजापालन से विमुख होते ही सारे अन्याय टूट पड़ते हैं, वर्ण संकरता फैल जाती है और सारे राष्ट पर दुर्भिक्ष का प्रकोप होने लगता है। भीष्म के मतानुसार राष्ट का योग-क्षेम राजा के अधीन होता है। राजा को यमराज की शंती शत्रुओं के विरुद्ध सदैव दण्ड ग्रहण करके सन्नद्ध रहना चाहिए और हर प्रकार से दस्युओं का नाश करना चाहिए । जिस राज्य में पुरोहित ब्रहमतेज से प्रजा के अदृष्ट और राजा बाहुबल से दृष्ट भय निवारण करता है उसी राज्य में सुख की प्राप्ति होती है। हे भरतनन्दन! यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता है तो राज्य में जो अधर्म उपस्थित हो जाता है, राजा उस पाप में पी चतुर्थांश का भोगी होता है।

जो मानव प्रजा रक्षण सम्बन्धी अपने कर्तव्य से च्युत होता है उसकी निन्दा करते हुए भीष्म राजा युधिष्ठिर से कहते हैं- जो बैल परिवहन में असमर्थ, जो गाय दूध नहीं देती है, जो स्त्री सन्तानोत्पत्ति में समर्थ नहीं

हो सकती, इन सबकी रक्षा करना व्यर्थ होता है, इसी प्रकार जो राजा प्रजा पालन कार्य में असमर्थ होता है,

उससे कोई अर्थ सिद्धि नहीं हो सकती है। जैसे काठ का हाथी, चमड़े का मृग, षण्डपुरुष और ऊसर क्षेत्र निष्फल

समझने चाहिए।

गीता में भी जाति और वर्ण के जो उल्लेख हैं, उनमें जन्मानुसार एवं वंशानुक्रमिक वर्ण भेद एवं जातिभेद ही देखा जाता है। गुण एवं कर्मानुसार जाति वर्ण भेद का और कोई भी प्रमाण नहीं मिलता। संकर एवं अस्पृश्य

जाति का भी उल्लेख है ही।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राहमणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

इस लोक में समाज के उच्चस्तर में स्थित ब्राहमण एवं निम्नस्तर के चाण्डाल और विभिन्न जाति के पशु-सबके प्रति ही ब्रहमविद् समदृष्टि होते हैं, यह कहा गया है।

मां हि पार्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा र्शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।

किं पुनर्बाहमणः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।।

यहा पर श्री भगवान् ने ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, पापयोनि (अन्त्यज)- सभी का उल्लेख किया है। पापयोनि शब्द से जन्मगत अस्पृश्यता ज्ञात होती है, इस पर लक्ष्य करना चाहिए। ‘चातुर्वर्ण्यम्’ के अर्थ चार वर्ण नहीं, चार वर्णों से विशिष्ट वर्णाश्रमी समाज है। इस श्लोक के बाद ही-

ब्राहमणक्षत्रियविशां र्शुद्राणां च परन्तम्।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।

एवं उसके बाद सात लोकों को पढ़ जाने पर तो इस विषय में कुछ भी सन्देह नहीं रहना चाहिये। चारों

वर्णो में प्रत्येक वर्ण (लक्ष्य करना चाहिये कि किसी एक व्यक्ति विशेष की बात नहीं हो रही है) स्वभाव (पूर्वजन्म संस्कार) –

तत्र तं बुह्सिंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

पूर्वाभ्यासेन तैनैव हियते ह्यवशोऽपि सः।।

-जात गुण के अनुसार एक-एक कर्मनिर्दिष्ट है। श्रीभगवान् के गीता प्रवचन का उपदेश्य ही था- उनके प्रतिरूप (नर-अवतार) नरोत्तम अर्जुन को ब्राहमण के कर्मभैक्ष्य (श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके) ग्रहण करने की इच्छा से निवृतकर क्षत्रिय के कर्म धर्मयुद्ध में प्रवृत्त कराना एवं इस उपदेशच्छल से जगत् को निष्काम कर्म योग

की महान शिक्षा देना।

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

क्षत्रिय-कुलतिलक अर्जुन का स्वधर्म क्या था? युद्ध।

‘न योत्स्य इति मन्यसे ’, ‘स्वभावजेन

(स्वभावः  क्षत्रियत्वे हेतुःपूर्वकर्मसंस्कारस्तस्मात् जातेन)

निबह्ः स्वेन कर्मणा।

मोह नष्ट होने पर अर्जुन बोले-

‘स्थितःअस्मि (युद्धाय उत्थितः अस्मि)।

करिष्ये वचनं तव।

‘सहज’ (सज्-जन्+ड) शब्द को भी लक्ष्य करना चाहिए।

भगवान् ने गीता में सांकर्य की निन्दा की है-

संकरस्य (वर्ण एवं कर्मसंकर का) च कर्ता स्याम्

उपहन्यामिमाः प्रजाः। (३/२४)

अर्जुन ने पूर्व में कहा था-

संकरो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।

यदि वर्ण और जातिभेद जन्मगत एवं वंशानुक्रमिक नहीं था तो कुल के धर्म अथवा जाति धर्म की बात कहा

से आती है? एक ही पिता के विभिन्न वर्ण के पुत्र-कन्या होने पर कौन उसे पिण्डआदि देगा? फिर तो समाज , जाति , वंश , संस्कार, विवाह, अशौच, श्राद्धआदि सभी असम्भव हो जायेगा।

संक्षिप्त आलोचना से यह निःसंदेह प्रमाणिता किया गया कि भारत में सदा से वर्ण और जाति जन्मगत थी,

कभी भी कर्मगत नहीं थी। असवर्ण विवाह (विशेषतः प्रतिलोम) निन्दित था। इसका ऐतिहासिक प्रमाण है।

प्रागैतिहासिक एवं प्राचीनतम काल से ही जन्मगत वर्णभेद प्रथा चली आ रही है। वेदों में भी जातिभेद की बहुत

प्रमाण मिलते हैं। गुण-कर्म-भेद से जाति एवं इच्छानुसार वर्ण-परिवर्तन के उदाहरण नहीं हैं, ऐस कहना अनुचित नहीं होगा।

जो पुरुष सदैव साधुओं की रक्षा करते हैं और दुष्टों का दमन करते हैं उनको राजा बनना उचित है, क्योंकि ऐसे पुरुष ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण करने में समर्थ होते हैं।

सेना का संघटन कर उसकी उचित व्यवस्था करना राजा का प्रथम कर्त्तव्य हो जाता है। भीष्म ने सेना के आठ अंग बतलाते हुए इस प्रकार राजा युधिष्ठिर से कथन किया है कि रथ, हाथी, अश्व, पैदल, भारवाहक,

नौका, चर और शिक्षक (देशिका) यह सेना के आठ भेद प्रकाश-दण्ड के भेद है। इसलिए इस आठ अंग

वाली सेना का संगठन उचित रीति से होना चाहिए। इस प्रकार उचित दण्ड विधान के द्वारा राज्य की रक्षा राजा को करनी चाहिए।  जिससे शत्रु राज्य पर आक्रमण करने का साहस न कर सके और आन्तरिक विघ्न-

बाधाए उपस्थित न हो सके।

नकुलोपाख्यान में चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन तथा धर्म की वृद्धि और पापक्षय होने के उपाय बतलाते हुए वैशम्पायन कहते हैं- कि जो ब्राहमण शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं, सन्ध्योपासना करते

हैं, पूर्णाहुति देते हैं, विधिवत् अग्निहोत्र करते हैं, बलिवैश्वदेव और अतिथियों का पूजन करते हैं, नित्य स्वाध्याय करते हैं, तथा जप-यश के परायण होते हैं, जो प्रातः-काल और सांय-काल होम करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते है, शूद्र का अन्न नहीं खाते हैं, दम्भ और मिथ्या भाषण से दूर रहते हैं, अपनी ही स्त्री से प्रेम रखते हैं तथा पणचयज्ञ और अग्निहोत्र करते रहते हैं, जिनके सब पापों को हवन की जानेवाली तीनों अग्नि या भस्म कर देती हैं। वे ब्राहमण पापरहित होकर ब्रहमलोक को प्राप्त करते हैं।

क्षत्रियोऽपि स्थितो राज्ये स्वधर्मपरिपालकः।

सम्यक् प्रजापालयिता षड्भागनिरतः सदा।।

यज्ञदानरतो धीरः स्वदारनिरतः सदा।

शास्त्रानुसारो तत्त्वज्ञः प्रजाकार्यपरायणः।

विप्रेभ्यः कामदो नित्यं भृत्यानां भरणे रतः।

सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभदम्भविवर्जितः।

क्षत्रियोऽप्युत्तमां याति गतिं देवनिषेविताम्।।

जो वैश्य कृषि और गोपालन में लगा रहता है, धर्म का अनुसंधान करता है, दान, धर्म और ब्राहमणों की सेवा में संलग्न रहता है, तथा सत्यप्रतिज्ञ, नित्य पवित्र, लोभ और दम्भ से रहित, सरल, अपनी ही स्त्री से प्रेम

रखने वाला और हिंसा-द्रोह से दूर रहनेवाला है, जो कभी भी वैश्य-धर्म का त्याग नहीं करता और देवता तथा ब्राहमणों की पूजा में लगा रहता है, वह अप्सराओं से सम्मानित होकर स्वर्गलोक के धाम को जाता है।

कृषिगोपालनिरतो धर्मान्वेषणतत्परः।

दानधर्मेऽपि निरतो विप्रशुश्रूषकस्तथा।

सत्यसंधः शुचिर्नित्यं लोभदम्भविवर्जितः।

ऋजुः स्वदारनिरतो हिंसाद्राहविवर्जितः।

वणिग्धर्माक्क मुञचन् वै देवब्राहमणपूजकः।

वैश्यः स्वर्गतिमाप्नोति पूज्यमानोऽप्सरोगणैः।।

शुद्रों में से जो सदा तीनों वर्णों की सेवा करता और विशेषतः ब्राहमणों की सेवा में दास की भाति खड़ा रहता है, जो बिना मागे ही दान देता है, सत्य और शौच का पालन करता है। गुरु और देवताओं की पूजा में प्रेम

रखता है। पर स्त्री के संसर्ग से दूर रहता है, दूसरों को कष्ट न पहुचाकर अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता

है और सब जीवों को अभय-दान कर देता है, उस शूद्र को भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।

जिस प्रकार थोड़े से शीत जल को बहुत गर्म जल में मिला दिया जाता है तो वह तत्क्षण गरम हो जाता है और उसका ठण्ड़ापन दूर हो जाता है। जब थोड़ा सा गरम जल बहुत शीतल जल में डाला जाता है तो तब वह

सबका सब तत्क्षण शैत्य को प्राप्त कर लेता है। ठीक उसी प्रकार जो पुण्य और पाप दोनों समान होते हैं, वह

थोड़े पाप-पुण्य को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। जब ये दोनों समान होते हैं, तब जिसको

गुप्त रखा जाता है, उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन किया जाता है, उसका क्षय हो जाता है। पाप को

दूसरों से कहने और उसके लिए पश्चाताप करने से प्रायः उसका नाश हो जाता है। उसी प्रकार धर्म भी अपने मुह से दूसरों के सम्मुख प्रकट करने पर नष्ट हो जाता है। छिपाने पर निःसंदेह ये दोनों ही अधिक बढ़ते हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को चाहिए कि सर्वथा उद्योग करके अपने पाप के प्रकट कर दे, उसे छिपाने की कोशिश न करे। पाप का कीर्तन पाप के नाश का कारण होता है, इसलिए हमेशा पाप को प्रकट करना और धर्म को गुप्त रखना चाहिए। नकुलोपाख्यान में ही वैशम्पायन ब्राहमण धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सारे प्राणियों के धर्म रूपी खजाने की रक्षा करने के लिए साधारण ब्राहमण भी समर्थ हैं, फिर जो नित्य सन्ध्योपासना करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या? जिसके मुख से स्वर्गवासी देवगण हविष्य का और पितर कव्य का भक्षण करते हैं, उससे बढ़कर कौन प्राणी हो सकता है? ब्राहमण जन्म से ही धर्म की सनातन मूर्ति होती है। वह धर्म के ही लिए उत्पन्न होता है और ब्रहम भाव को प्राप्त होने में समर्थ है। ब्राहमण अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। दूसरे मनुष्य ब्राहमण की दया से ही भोजन पाते हैं, अतः ब्राहमणों का कभी अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे सदा ही मुझमें भक्ति रखते हैं। जो ब्राहमण बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित मेरे गूढ़ और निष्कल स्वरूप का ज्ञान रखते हैं, उनका यत्न पूर्वक पूजन करना चाहिए। घर पर या विदेश में, दिन में या रात में मेरे भक्त ब्राहमणों की निरन्तर श्रद्धाभाव के साथ पूजा करनी चाहिए। क्योंकि ब्राहमण के समान कोई देवता नहीं है। ब्राहमण के समान कोई गुरु नहीं है, ब्राहमण से बढ़कर बन्धु नहीं है और ब्राहमण से बढ़कर कोई खजाना नहीं है। कोई तीर्थ और पुण्य भी ब्राहमण से श्रेष्ठ नहीं है। ब्राहमण से बढ़कर पवित्र कोई नहीं है, और ब्राहमण से बढ़कर पवित्र करने वाला भी कोई नहीं है। ब्राहमण से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं और ब्राहमण से उत्तम कोई गति नहीं है।

पापकर्म के कारण नरक में गिरते हुए मनुष्य का एक सुपात्र ब्राहमण भी उत्तर कर सकता है। सुपात्र ब्राहमणों में भी जो बाल्यकाल से ही अग्निहोत्र करने वाले, शूद्र के अन्न का त्याग करने वाले तथा शान्त और ईश्वर भक्त हैं और सदा भगवन् भक्ति में ही संलग्न रहते हैं तो उनको दिया हुआ दान अक्षय रहता है। मेरे भक्त

ब्राहमण को दान देकर उसकी पूजा करने, सिर झुकाने, सत्कार करने, बातचीत करने अथवा दर्शन करने से वह

मनुष्य दिव्यलोक को पहुच जाता है।

मनुष्य ब्रहमचर्य के पालन से आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, महान् यश, पुण्य और प्रेम को प्राप्त करता

है। जो गृहस्थ आश्रम में स्थित होकर अखण्ड ब्रहमचर्य का पालन करते हुए पनचयज्ञों के अनुष्ठान में

तत्पर रहते हैं, वे पृथ्वीतल पर धर्म की स्थापना करते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन सवेरे और शाम को विधिवत्

सन्ध्योपासना करते हैं, व वेदमयी नौका का सहारा लेकर इस संसार समुद्र से स्वयं भीतर जाते हैं और दूसरों को भी सहारा देते हैं। जो ब्राहमण सबको पवित्र बनाने वाली वेदमाता गायत्री देवी का जपकरता है, वह समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का दान लेने पर भी प्रतिग्रह के दोष से दुःखी नहीं होता, तथा सूर्यआदि ग्रहों में से जो उसके लिए अशुभ स्थान में रहकर अनिष्टकारक होते हैं, वे भी गायत्री जप के प्रभाव से शान्त, शुभ और कल्याणकारी फल देने वाले हो जाते हैं। जहा कहीं भी क्रुर कर्म करने वाले भयंकर विशालकाय पिशाच रहते हैं, वहा जाने पर भी वे उस ब्राहमण का अनिष्ट नहीं कर सकते हैं। वैदिक व्रतों का आचरण करने वाले पुरुष पृथ्वी पर दूसरों को पवित्र करने वाले होते हैं। राजन्! चारों वेदों में वह गायत्री श्रेष्ठ है। जो ब्राहमण न तो ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, और न ही वेदाध्ययन करते हैं, जो बुरे फलवाले कर्मों का आश्रय लेते हैं, वे नाम मात्र के ब्राहमण भी गायत्री के जप से पूज्य हो जाते हैं। फिर जो ब्राहमण प्रातः-सांय दोनों समय सन्ध्या वन्दन करते हैं, उनके लिए तो कहना ही क्या है? प्रजापति मनु का कहना है कि-

शीलमध्ययनं दानं शौचं मार्दवमार्जवम्।

तस्माद् वेदाद् विशिष्टानि मनुराह प्रजापतिः।।

अर्थात् शील, स्वाध्याय, दान, शौच, कोमलता और सरलता – ये सद्गुण ब्राहमण के लिए वेद से भी बढ़कर हैं। वर्णाश्रम धर्म का वर्णन एवं राजधर्म की श्रेष्ठता बतलाने वाले राजधर्मानुशासनपर्व में भीष्म के वचन इस प्रकार हैं-

हे राजन्! धनुष की डोरी खींचना, शत्रुओं को उजाड़ फेंकना, खेती, व्यापार और पशुपालन करना अथवा उद्देश्य से दूसरों की सेवा करना- ये ब्राहमण के लिए अत्यन्त निषिद्ध कर्म हैं। मनीषी ब्राहमण यदि गृहस्थ हो तो उसके लिए वेदों का अभ्यास और यजन-याजन आदि छः कर्म ही सेवन करने के योग्य हैं। गृहस्थ आश्रम का

उद्देश्य पूर्ण कर लेने पर ब्राहमण के लिए (वानप्रस्थी होकर) वन में निवास उत्तम माना गया है। गृहस्थ ब्राहमण दुश्चरित्र, धर्महीन, शूद्र जातीय कुलटा स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाला, चुगलखोर, नाचनेवाला, राजसेवक तथा दूसरे-दूसरे विपरीत कर्म करने वाला होता है, वह ब्राहमणत्व से गिर कर शूद्र हो जाता है।ंउपर्युक्त दुर्गुणों से युक्त ब्राहमण वेदों का स्वाध्याय करता हो या नहीं करता हो तो शूद्रों के समान ही होता है। उसे दास की भाति पंक्ति से बाहर भोजन कराना चाहिए। ये राजसेवक आदि सभी अधम ब्राहमण शूद्र के समान ही हैं। जो ब्राहमण मर्यादा शून्य, अपवित्र, क्रूर स्वभाववाला, हिंसापरायण तथा अपने धर्म और सदाचार का परित्याग करने वाला है, उसे हव्य-कव्य तथा दूसरे दान देना न देने के बराबर ही है। जों मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, सोमयाग करके सोमरस पीने वाला, सदाचारी, दयालु सब कुछ सहन करने वाला, निष्काम, सरल, मृदु, क्रूरता रहित और क्षमा शील होता है, वहीं ब्राहमण कहलाने के योग्य है। धर्मपालन की इच्छा रखने वाले सभी लोग सहायता के लिए शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय की शरण लेते हैं। वैश्य के लिए ब्याज लेने की वृत्ति, खेती और वाणिज्य के समान तथा क्षत्रिय के प्रजापालन रूपकर्म के समान ब्राहमणों के लिए वेदाभ्यासरूपी कर्म है। जो शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करके कृतार्थ हो गया हो, जिसने पुत्र उत्पन्न कर लिया हो, शौच और सदाचार की दृष्टि से जिसमें अन्य त्रैवर्णिकों की अपेक्षा बहुत कम अन्तर रह गया हो, अथवा जो मनुप्रोक्त दस धर्मों के पालन में तत्पर रहता हो, वह शूद्र यदि राजा की अनुमति प्राप्त कर ले तो उसके लिए संन्यास को छोड़कर शेष सभी आश्रम विहित हैं। पूर्वोक्त धर्मों का आचरण करने वाले शूद्र के लिए तथा वैश्य और क्षत्रिय के लिए भी भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने का भी विधान है।

गृहस्थधर्मों का त्याग कर देने पर भी क्षत्रिय को ऋषिभाव से वेदान्तश्रवण आदि संन्यास धर्मकापालन करते

हुए जीवन रक्षा के लिए ही भिक्षा का आश्रय लेना चाहिए, सेवा कराने के लिए नहीं। राजधर्म बाहुबल के

अधीन होता है। वह क्षत्रिय के लिए जगत् का श्रेष्ठतम धर्म है, उसका सेवन करनेवाले क्षत्रिय मानव मात्र की

रक्षा करते हैं। अतः तीनों वर्णों के उप-धर्मों सहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं। वह राजधर्म से ही सुरक्षित रह सकते हैं। जैसे हाथी के पदचिह्नों में सभी प्राणियों के पदचिह्न विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मों को सभी अवस्थाओं में राजधर्म के भीतर ही समाविष्ट किया जा सकता है।

 

-शोध अधिकारी

उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय,

हरिद्वार (उ.ख.) 

 

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था

ब्र. शिवदेव आर्य…..

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीनकाल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी

अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है।प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्त्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्त्तव्या कर्त्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं। हिन्दू धर्म के अन्तर्गत

आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौद्ध, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के

एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रीयाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्णधर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एक नाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए

निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण

कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएँ मान ली गईं- बौद्धिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौद्धिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौद्धिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें ब्राहमण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का

विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव

के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानव जाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें

से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, लिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चौथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिक काल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इस का संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिद्ध मन्त्र

से मिलता है।

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।

पदार्थःहे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राहमणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा

उपासक (मुखम् )मुख के तुल्य उत्तम ब्राहमण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः)

राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करने वाला (तत्)वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो |||

भावार्थःजो मनुष्य विद्या और शम दमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राहमण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य कार्य्यो को सिद्ध करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहार विद्या में प्रवीण हों वे वैश्य

और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें ||

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राहमणग्रन्थ में ब्राहमणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह

संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता। धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों

का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट

करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रहमचारी बनना चाहता हूँ। मैं किस वंश का हूँ। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रहमचारी बनना चाहता हूँ। क्या

मैं आपके यहाँ आ सकता हूँ ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूँ। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है।मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राहमण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता

। जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूँगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सनदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्णव्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋगवेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् से प्रतीति होती है कि अंग गुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौद्धिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राहमण उपदेश कार्य, समाजोत्थान आदि के कार्यों

को करनेवाले हुए। बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों

का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है।अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्यश्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुणकर्म का आधार होता है।

ब्राहमण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राहमणों के लिए कर्त्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्रा२णानामकल्पयत्।।

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राहमणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाँ अध्ययन से तात्पर्य अक्षर ज्ञान से लेकर वेद ज्ञान तक है।

ब्राहमणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….

क्षमा मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप सदाब्रहमचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार

न करके शान्ति पूर्वक धर्म पथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम् कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान सभी वेदों को सम्पूर्ण अन्गो सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रहम पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथायोग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना,

उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार कहते है कि-

ब्राहमणेन निष्कारणो धर्मः षडोगो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च

अर्थात् ब्रह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अंगो तथा उपान्गो आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भॉति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।

अर्थात् जो ब्राहमण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राहमणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएँ शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है।समाज जब बृहत रुप धारण करता है तो वहाँ कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो दुष्ट,

दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्यकर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएँ मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया

।पशुपालन, समाजकाभरणपोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा

देना वैश्य का कर्त्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राहमण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण

करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राहमण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्य प्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राहमणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्रकर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा

जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊँच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में ‘तपसे शूद्रम्’ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राहमण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर

रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्णविभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिद्धान्त है। वर्ण व्यवस्था में कार्यानुसार श्रम विभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रमविभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएँ तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्णव्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राहमण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रीया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्त्तव्य निश्चित किया गया है। कर्त्तव्य से

यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्त्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस

कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदिकाल से लेकर आजतक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है,जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाँ आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई।वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे

भारतवर्ष में पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव

के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो

सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा ‘कृण्वन्तो

विश्वमार्यम्‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएँ यहाँ सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक, बौह्कि क्षमता के प्रतिरूप।

गुण कर्माश्रित वर्णव्यवस्था, है ऋषियों की देन अनूप।।

बौह्कि बल द्विजत्व का सूचक, भौतिक बल है क्षात्र प्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक, क्षम बल शुद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं, छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से, करते धरती का अभिषेक।।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण

वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण

श्री रविन्द्र कुमार

वर्ण व्यवस्था हमारी भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनम संस्कृति

है। भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत वेद है। इसीलिए अगर हम शुद्धतम भारतीय संस्कृति को समझना चाहते हैं तो हमें वेदादि शास्त्रों का पर्यालोचन अवश्य करना पडेगा। आज अनेक भारतीय संस्कृति के शत्रु लोग भारतीय संस्कृति की निन्दा करते हैं। क्योंकि वे इस परम्परा का विकास चाहते ही नहीं है। वे केवल इसे नष्ट करना ही चाहते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति भारतीय संस्कृति और सभ्यता के परिपोषक व्यक्तियों का यह धर्म बनता है कि अपनी परम्परा से प्राप्त इस संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। भारतीय संस्कृति का वर्ण और आश्रम ये

मुख्य स्तम्भ हैं। अगर हम इन दोनों को भारतीय संस्कृति से अलग कर देवें तो भारतीय संस्कृति की आत्मा नष्ट हो जायेगी।

आज समाज में चारों ओर वृद्धाश्रम, एवं वानप्रस्थाश्रमों की, भीड़ देखने को मिलती है। इसका प्रमुख कारण

समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का विकृत होना ही है। अगर ये दोनों व्यवस्थायें सुचारु चलती रहती तो फिर ये समस्या नहीं आ सकती थी। वर्णाश्रम व्यवस्था का विकृत होने का एक ओर कारण लोगों में बढता पारिवारिक मोह है। इन दोनों विकारों का कारण वैदिक परम्परा का त्याग करना है। जब से हमने वेदों का पढ़ना-पढ़ाना छ़ोड़ दिया, तब से ही समस्त परम्पराओं में विकार का आगमन हुआ है। जो लोग वर्णाश्रम व्यवस्था का खण्डन करते हैं, वे वास्तव में इसके लाभों से अपरिचित हैं। क्योंकि शास्त्रों का स्वाध्याय तो हमनें करना छ़ोड

दिया, इसीलिए शास्त्रोक्त बातें अब हमें पता ही नहीं होती हैं। स्वाध्याय कि ये बिना हम अपने अन्दर सुविचार से युक्त और लोभ क्रोध मोहादि से मुक्त नहीं हो सकते हैं।इसीलिए ऋषियों ने प्रति व्यक्ति को कुछ समय निकाल कर स्वाध्याय करने का निर्देश दिया है।जो व्यक्ति स्वाध्यायशील नहीं होगा, वह कभी भी भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकता है। वर्णाश्रम व्यवस्था को समझने के लिए अत्यन्त गूढ़ रहस्यों के ज्ञान की आवश्यकता नहीं अपितु वर्णाश्रम में प्रयुक्त शब्दों के वास्तिविक अर्थ से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था क्या है? वर्णाश्रम व्यवस्था में प्रयुक्त शब्दों पर क्रमशः शास्त्रीय विचार कर मन्थन करते है कि वास्तव में वर्णाश्रम पद्धति क्या है?

वर्ण– ‘‘वॄञ वरणे’’ (धातु, स्वादि) वॄ धातु से ‘‘कॄवॄञा’’ (उणादि. ३/१०) इस उणादि सूत्र से न प्रत्यय करने पर वर्ण शब्द बनता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जीने उणादि कोष में वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि ‘‘वृणोति व्रियते वा स वर्णः’’ अर्थात् जिसका वरण किया जाता हो वह वर्ण है। यहाँ व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था में अपने गुण कर्मानुसार वरण अर्थात् चयन किया जाता है। उसे बलपूर्वक वर्ण प्रदान नहीं किया जाता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं अपितु कर्मणा है। यह सरलता

से नहीं अपितु अहर्निश परिश्रम करके अर्जित की जाती है। इसी तात्पर्य की पुष्टि यास्काचार्य द्वारा लिखित निरुक्त शास्त्र की व्युत्पत्ति से होता है। उन्होनें लिखा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरु. २/१/४)अर्थात् वर्ण वह है

जिसका अपने गुण कर्मानुसार वरण किया जाता हो। इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती

जी ने ऋगवेदादि भाष्य भूमिका के वर्णाश्रम धर्म विषय में लिखा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रामाण्याद्

वरणीया वरीतुमर्हाः गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।’’ (ऋ. भा. भू. वर्णाश्रम) अर्थात्

व्यक्ति के गुण और कर्मों को देखकर यथा योग्य जो अधिकार प्रदान किया जाता है। वह वर्ण है।जो व्यक्ति

जिस वर्ण के गुण कर्मों को अपनाता है वह उसी वर्ण का अधिकारी बन जाता है। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि जो व्यक्ति अपने प्रमादवश अथवा गुणकर्मों के कारण शूद्र आदि निम्न वर्ण को प्राप्त हो जाता है। उसकी सन्तान को उस वर्ण का भार वहन करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि उसकी सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर उच्च वर्ण को प्राप्त हो सकती है। वर्तमान व्यवस्था इसके विपरीत है। यदि कोई बालक वाल्मीकि परिवार में जन्म ले लेता है तो वह यदि कितना भी अच्छा कर्म करे और समाज में कितनी भी उन्नति कर

लेवे, परन्तु दुर्भाग्यवश उसे उसी शूद्र वर्ण में रहना पड़ता है। जिसके कारण उसको नरक सदृश वहीं जीवन जीना पड़ता है। उसी प्रकार यदि ब्राहमण का लड़का कितना भी नीच कर्म करें, परन्तु वह सदा ब्राहमण ही रहता है। इससे समाज में इतनी गम्भीर समस्या उत्पन्न हो रही है कि व्यक्ति भारतीय संस्कृति के प्रति विद्रोही हो रहा है। हिन्दू धर्म को छोड़कर व्यक्ति अन्य धर्मों को स्वीकार कर रहा हैं। जहाँ उच्च

या निम्न जैसी कोई भेदभाव की समस्या नहीं है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि बौद्ध और जैन धर्म की उत्पत्ति वर्णव्यवस्था के विकार का ही परिणाम है। अगर वर्तमान में यहीं परम्परा चलती रही और हमने अपने धर्म के उच्च या निम्न के भेदभाव को समाप्त नहीं किया तो भारतीय संस्कृति और सन्तान वैदिक धर्म का ह्रास होता चला जायेगा।

ब्राहमण

ब्राहमण शब्द ब्रहमन् शब्द से बना है। पाणिनि के व्याकरणानुसार ‘‘तदधीते तद्वेद’’ (अष्टा. ४/२/५९) सूत्र से ब्रहमन् शब्द से अण् करने पर ब्राहमण शब्द बनता है। ब्रहमन् शब्द के अनेक अर्थ है। ब्रहम शब्द वेद, बल,

परमेश्वर, ज्ञान इत्यादि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जिसके कारण ब्राहमण शब्द की व्युत्पत्ति विद्वान् लोग करते हैं कि‘‘ ब्रहमणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि-उत्तमगुणयुक्तः पुरुषः’’ अर्थात् वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में सदा निरत रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राहमण कहलाता है। ब्राहमण ग्रन्थों के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन प्रसनगवश पाया जाता है। ‘‘आग्नेयो ब्राहमणः ’’ (ताण्ड्य. १५/४/८), आग्नेयो हि ब्राहमणः (काठ. २९/१०) अर्थात् यज्ञ एवं अग्निहोत्र से सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् यज्ञ को करने वाला व्यक्ति ब्राहमण होता है। ‘‘ब्राहमणो व्रतभृत्’’ (तै0 सं0 १/६/७/२), व्रतस्य रूपं यत् सत्यम् (शत. २/८/२/४) अर्थात् ब्राह्मण श्रेष्ठ संकल्पों को धारण करने वाला होता है। सत्य बोलना भी व्रत का ही एक रूप है।उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ब्राहमण वह जो वेदादिशास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन तथा ईश्वर की उपासना में आसक्त रहता हो। वर्तमान में यह परम्परा विलुप्त हो चुकी है। आज जन्मना वर्ण व्यवस्था ने समाज को विनष्ट कर दिया है।

क्षत्रिय

‘‘क्षणु हिंसायाम्’’ (धातु., तादि.)से क्त प्रत्यय करने पर क्षत शब्द बनता है। क्षत शब्द के उप पद में रहते हुए ‘‘त्रैङ् पालने रक्षणे च’’ (भवादि., धातु) से क्षत्र शब्द बनता है। ‘क्षत्राद् घः’ (अष्टा. ४/१/१३८) सूत्र से घ प्रत्यय होने पर क्षत्रिय शब्द बनता है। जिसका अर्थ है कि जो हिंसा से प्रजा की रक्षा करता हो, उसे क्षत्रिय कहते हैं। आक्रमण आदि से जो समाज को बचाता हो, उसे क्षत्रिय कहते हैं। इस ऐतरेय ब्राहमण में कहा है कि ‘‘क्षत्रं राजन्यः’’ (८/२/व३/४)। शतपथ में कहा है कि ‘‘क्षत्रस्य वा एतद् रुप यद् राजन्यः’’ (१३/१/५/३) अर्थात् जो प्रजा का रक्षक होता है, वही क्षत्रिय है। कुछ विद्वान् यहाँ यह आशंका कर सकते है कि अपत्यार्थ में होती है। परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि वंश जन्म से तो माना जाता ही है, साथ ही वह विद्या से भी माना जाता है।

अष्टाध्यायी मेघ ‘‘संख्यावंश्येन’’ (२/१/१९) सूत्र में भी जन्म विद्या से माना है। अतः उपर्युक्त विश्लेषण से

यह स्पष्ट है कि क्षत्रिय प्रशासन सम्बन्धी कार्य कर समाज की सुरक्षा करता है।

वैश्य

‘‘विशः’’ यह शब्द निघण्टु (२/३) में मनुष्य का वाचक है। इस शब्द से भावार्थ में यत व स्वार्थ में अण् करने पर वैश्य शब्द बनता है। वैश्य शब्द की व्युत्पत्ति विद्वान् लोग इस प्रकार करते हैं। कि ‘‘यो यत्र तत्र व्यवहारविद्यासु प्रविशतिसः वैश्यः ’’ अर्थात् जो व्यापार आदि कार्यों के कारण अनेक स्थलों पर भ्रमण करता है। वह वैश्य कहलाता है। स्वामी दयानन्द जी यजुर्वेद (३१/१) में वैश्य शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि

व्यवहार विद्या में जो कुशल होता है, उसे वैश्य कहते हैं। यहाँ व्यवहार विद्या से तात्पर्य व्यापार से है। ब्राहमण ग्रन्थों में भी कहा है कि‘‘ एतद् वै वैश्यस्य समृद्धम यत् पशवः’’ (ताण्डय. १४/४/६) ‘‘तस्माद्

बहुपशुर्वैश्वदेवो हिजायते वैश्यः’’ (ताण्डय. ६/१/१०)अर्थात् पशुपालनादि से ही वैश्य की समृद्धि होती है।

इससे स्पष्ट है कि पशुपालन आदि वैश्य का कर्तव्य है।

शूद्र– ‘‘शुच शोके’’ (धातु. भ्वादि.) इस धातु से ‘‘शुचेर्दश्च’’ (उणा. २/१९) इस सूत्र से रक् प्रत्यय करने पर शुद्र शब्द बनता है। धातु के अर्थ से ही स्पष्ट है कि जिसकी स्थिति दयनीय अथवा शोचनीय हो उसे शूद्र कहते हैं। अथवा जिसके भरण पोषण की चिंता स्वामी के द्वारा की जाति हो उसे भी शूद्र कहते है। तैतिरीय ब्रहमण में भी कहा है कि असतो वा एष सम्भृतो यत् शूद्रः (३/२/३/९) अर्थात् अज्ञान या अविद्या के कारण जिसकी जीवन स्थिति निम्न हो, वह शूद्र कहलाता है। मनु ने शूद्रों के प्रति अत्यन्त आदर भाव व्यक्त किया है। मनु ने मनुस्मृति में अनेक स्थलों पर ‘‘शुचिः’’ एवं ‘‘उत्कृष्टशुश्रुषुः’’ अर्थात् पवित्र और उत्कृष्ट सेवक कहा है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कोई भी सेवक अपवित्र कैसे हो सकता है? शूद्र जन्म से नहीं अपितु कर्म से माना जाता है द्विज शब्द का अर्थ है ‘‘द्विः जायते इति द्विजः’’ अर्थात् जो दो बार जन्म लेता हो वह द्विज

कहलाता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विज कहलाते हैं। जबकि मनु शूद्र के लिए कहते हैं कि ‘‘चतुर्थ

एकजातिस्तु शूद्रः’’ (मनु. ९/३३५)अर्थात् शूद्र का एक ही जन्म होता है इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्ति जन्मना

नहीं कर्मणा शूद्र होता है।शूद्रों के लिए जैसी उत्तम व्यवस्था वैदिक परम्परा में है वैसी सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र

नहीं मिल सकती है। क्योंकि यहाँ शूद्र को भी ब्राहमण तथा ब्राहमण को भी शूद्र बनने का निर्देश है।शतपथ में

स्पष्ट कहा है कि ‘‘ तपो वै शूद्रः’’ (१३/६/२/१०) अर्थात् जो श्रम से अपना जीवन निर्वाह करता हो, वह शूद्र है। वेद में शूद्रों को समान अधिकार प्रदान किया है।उन्हें हीन या निकृष्ट नहीं माना है। ‘‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’’ (यजु. २६/२) मे स्पष्टतः निर्देश है कि वेदवाणी सुनने का अधिकार जहाँ द्विजों को है वहीं शूद्रों को भी प्राप्त है।

वर्तमान में अनेक मतावलम्बी शूद्रों को निकृष्ट मानते हुए उन्हें वेदादि पढ़ने का अधिकार नहीं देते हैं।उन्हें यह विचारना चाहिए कि ईश्वर के द्वारा प्रदान की गयी प्रत्येक वस्तु पर सबका समान अधिकार है।सूर्य की किरणें अथवा चन्द्रमा की रश्मियाँ, वायु का वेग अथवा वर्षा की बूँदे कभी भी यह नहीं देखती है कि यह ब्राहमण का घर है अथवा शूद्र का। वह हर जगह समान मात्रा में जाती है।इसीलिए वर्ण व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को समझ उस पर आचरण करने की भी आवश्यकता है, अन्यथा, समाज अधोगति की ओर ही बढ़ता रहेगा।

-सहायकाचार्य,

श्रीभगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय,

(भारत सरकार की आदर्श योजना के अन्तर्गत)

हरिद्वार (उ.ख.)

दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि

दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि

डॉ ज्वलंत कुमार

प्राचीन भारतीय समाज वर्णाश्रम-व्यवस्था पर-आधारित था।वर्ण चार हैं-ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वस्तुतः किसी भी समाज के मनुष्यों को इन चार वर्णों में विभक्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति पठन-पाठन, अनुसन्धान तथा धर्म-मार्ग का अनुपालन करने के लिए लोगों को प्रेरित करने का कार्य करें, उसे ब्राहमण कहा जा सकता है। समाज में शान्ति-व्यवस्था, प्रशासन तथा देश को शत्रुओं से रक्षित रखना क्षत्रिय का कार्य है। कृषि, पशुपालन, उद्योग एवं व्यापार का कार्य करने वाला वैश्यवर्ग है। जो उपर्युक्त तीनों प्रकार के कार्यों को करने की क्षमता न रखता हो, उसे तीनों वर्णों की सेवा परिश्रमपूर्वक करनी चाहिए। यह वर्ग शूद्र नाम से अभिहित किया जा सकता है। अत्यन्त प्राचीनकाल में आर्यों की वर्ण-व्यवस्था इसी नियम पर आधारित थी।

वर्ण का निर्धारण उस व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर किया जाता था। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता, तप-त्याग, धर्माचरण तथा विद्वत्ता के कारण ब्राहमण पद को प्राप्त कर सकता था। यदि ब्राहमण और क्षत्रिय अन्य लोगों की अपेक्षा ऊँचे माने जाते थे, तो उसका कारण केवल यह था कि उनके कार्यों की सम्पन्नता के लिए उत्कृष्ट प्रकार की योग्यता आवश्यक थी। सम्पूर्ण आर्य जनता एक है, यह भावना प्राचीनकाल में भली-भाँति विद्यमान थीं। जन्म के कारण किसी को न ऊँचा माना जाता था और न नीचा। शिक्षा का सबको समान अवसर था। वेद पढ़ने एवं यज्ञ करने का सबको समान अवसर था। वेद पढ़ने एवं

यज्ञ करने का सबको समान अधिकार है, यह विचार तब भली-भाँति बद्धमूल था।

पर महाभारत युद्ध के पश्चात् इस दशा में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो गया। वर्ण भेद का आधार गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर जन्म होने लगा और ब्राहमणों की स्थिति अन्य वर्णों की तुलना में ऊँची मानी जाने लगी । ऊँच-नीच का भेद भी पूरी तरह विकसित हो गया। सूत्र ग्रन्थों की रचना के समय तक तो यह दशा आ गई थी कि शूद्रों को अत्यन्त हीन व नीच समझा जाने लगा था। एक ही अपराध करने पर विविध वर्णों के

व्यक्तियों के लिए विभिन्न दण्डों का विधान था। गोतम धर्मसूत्र के अनुसार ब्राहमण का अपमान करने पर क्षत्रिय पर १०० कार्षापण जुर्माना किया जाता था। पर यदि ब्राहमण क्षत्रिय का अपमान करे, तो उसपर केवलं ५० कार्षापण जुर्माना किया जाता था। ब्राहमण द्वारा वैश्य को अपमानित करने पर केवल २५ कार्षापण दण्ड का विधान था। शूद्रों की स्थिति दासों के सदृश थी। गोतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि उच्चवर्णों के लोगों के जो जूते, वस्त्र आदि जीर्ण-शीर्ण हो जाएं उन्हें शूद्रों के प्रयोग के लिए दे दिया जाए और उनके भोजन पात्रों में जो जूठन बच जाए शूद्र उसके द्वारा ही अपनी क्षुधा शान्त कर ले। यही बात मनुस्मृति में भी कही गई है। शुद्रों की हीनतम स्थिति का अनुमान इस दण्ड नियम से लगाया जा सकता है कि ‘‘बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, उल्लू और कौए की हत्या में जितना पाप होता है, उतना ही शूद्र की हत्या में होता है।’’ शूद्र यदि वेद को सुन ले तो उसके कानों में पिंघला हुआ सीसा और राख डाल देना चाहिए । यदि ‘‘शूद्र वेद-मन्त्र का उच्चारण करे तो उसकी जीभ कटवा देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे तो उसका शरीर चीर डालना चाहिए’’

किसी भी प्रकार की विद्या शिल्पशिक्षा प्राप्त न कर सकने के कारण शूद्रों के लिए यही एकमात्र मार्ग रह जाता था कि वे उच्चवर्ग के घरों में उनकी सेवा का काम करें या खेतों में अनपढ़ मजदूर की भाँति कार्य कर

अपना जीवन बिताएँ।

बुद्ध के प्रादुर्भाव तक (ईं० पूं० छठी शताब्दी) भारत के सामाजिक संघटन का रूप अत्यन्त विकृत हो चुका था। इसी कारण बौद्ध साहित्य में वर्ण भेद की कटु आलोचना की गई है। जन्म के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया गया है और सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध आवाज उठाई गई है बुद्ध का कथन था कि जन्म से न कोई ब्राहमण है, न चाण्डाल। कर्म के आधार पर ही किसी को ब्राहमण या चाण्डाल मानना उचित है। जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर ने भी जन्म की तुलना में गुण-कर्म को ही मनुष्यों की सामाजिक स्थिति का निर्धारक प्रतिपादित किया था। बौद्ध और जैन धर्मों ने भारत के सामाजिक जीवन की बुराइयों को दूर करने में कुछ अंश तक सफलता अवश्य प्राप्त की। कौटिलीय अर्थशास्त्र की रचना चौथी शती ईं० पूर्व में हुई थी। उसके अनुशीलन से प्रतीत होता है कि बौद्ध और जैन नेताओं के प्रयत्न से उसकाल तक शूद्रों की स्थिति में सुधार अवश्य हो गया था। परन्तु चौथी शती ईस्वी पूर्व में भी ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चारों वर्णों के लोगों की स्थिति समान नहीं हो पाई थी। न्यायालयों द्वारा अपराधियों को दण्ड देते हुए तथा बाद में शपथ दिलाते हुए वर्ण की दृष्टि से भेद भाव किया जाता था।

बौद्ध और जैन धर्मो के उत्कर्ष के युग में भी सनातन वैदिक धर्म का लोप नहीं हो पाया था। भारत के अनेक प्रदेशों में वह फूलता-फलता रहा, यद्यपि उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन होता गया और वेदों में आस्था न

रखने वाले इन नये सम्प्रदायों (बौद्धो तथा जैनों) से वह अप्रभावित नहीं रह सका। मौर्य वंश के पतन के पश्चात् शुंग वंश के शासनकाल में प्राचीन वैदिक धर्म में नई शक्ति का संचार होना आरम्भ हुआ और गुप्तयुग में वह एक बार फिर भारत का प्रधान धर्म बन गया।शुंग काल में जिस वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हुआ, वह प्राचीन आर्यधर्म से अनेक अंशों में भिन्न था। यह भिन्नता केवल पूजा-विधि में ही नहीं थी।

सामाजिक व्यवस्था में भी अब अनेक ऐसे परिवर्तन हुए जो प्राचीन समाज से बहुत भिन्न थे। जैसा कि लिखा जा चुका है कि आर्यो का प्राचीन सामाजिक संघटन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। छठी शती ईं० पूर्व से पहले ही वर्ण-व्यवस्था में बहुत विकृतियाँ आ चुकी थीं और ब्राहमण, क्षत्रिय आदि वर्णों का आधार गुण, कर्म, स्वभाव के स्थान पर जन्म को माना जाने लगा था। बुद्ध ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई थी और उनके अनुयायी जन्म कारण किसी को ऊँच या नीच नहीं मानते थे। होना तो यह चाहिए था कि बौद्ध धर्म के प्रभाव से सनातन आर्यधर्म (जिसका कि अब परिवर्तित रूप में पुनरुत्थान हुआ था) के सामाजिक संगठन में भी ऊँच-नीच का कोई भेद न रहता। पर ऐसा हुआ नहीं। बौद्ध धर्म के प्रभाव से सनातन आर्य धर्म मे मूर्तिपूजा का अवश्य प्रवेश हुआ, पर सामाजिक संगठन को वह प्रभावित नहीं कर सका। वर्ण-व्यवस्था का रूप अब पहले की तुलना में भी अधिक विकृत हो गया।

महर्षि पतनजलि (२०० ईं०पूं०) शुंग काल में हुए थे। यही वह समय था जब बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रीया होकर प्राचीन धर्म का पुनरुत्थान प्रारम्भ हुआ था। उनके महाभाष्य में अनेक ऐसे संकेत विद्यमान हैं जिनसे यह भली-भाँति जाना जा सकता है कि प्राचीन धर्म में पुनरुत्थान के इस काल में वर्णव्यवस्था का स्वरूप

क्या था और उसमें शूद्रों की स्थिति किस प्रकार की थी। पतनजलि ने ‘जाति ब्राहमण’ संज्ञा ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त की थी, जो ब्राहमण वर्ण के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे। पतंजलि ने शूद्रों के दो भेद किये हैं-‘‘ एक अबहिष्कृत और दूसरा बहिष्कृत या अनिरवसित हैं। जो द्विजों के पात्रादि नहीं छू सकते थे, वें चाण्डाल और मृतप आदि निरवासित या बहिष्कृत शूद्र हैं।’’ दोनों प्रकार के शूद्रों को यह अधिकार नहीं था कि वे वानप्रस्थ तथा संन्यासी बन सकें। उनका उपनयन-संस्कार भी नहीं होता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति ने इस काल में जो रूप प्राप्त किया, उसके अनुसार ब्राहमण के अतिरिक्त अन्य वर्णों के लोग न वेदों को अध्ययन कर सकते हैं, न यज्ञ कर सकते हैं और न दान ग्रहण कर सकते हैं। उनके लिए यही पर्याप्त था कि वे देवताओं का स्मरण कर उनके प्रति नमस्कार निवेदन कर दें। महा कवि भास विरचित ‘‘प्रतिमा नाटक’’ में उल्लिखित प्रसंग के अनुसार शूद्र देवार्चन के समय वेद मन्त्रों का उच्चारण किए बिना ही देवताओं को प्रणाम करते थे। शूद्रों को अस्पृश्य माना जाता था। इसलिए लोग शूद्रों का सान्निध्य स्वीकार नहीं करते थे। भास काल ईं०पूं० चतुर्थ शताब्दी माना जाता है।शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिक’ (ईस्वी पूर्वं० २००) में ‘अधिकरणिक शकार’ (शूद्रा स्त्री से उत्पन्न) से कहता कि तुम मूर्ख होकर वेदार्थों का उच्चारण करते हो तथापि तेरी जिहवा नहीं गिरी। इस युग में वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत ने जो प्रवर्वितरूप प्राप्त किया, उसके अनुसार भी शूद्रों की निम्न स्थिति का पता चलता है। राक्षसियों के प्रति सीता का कथन है कि- ‘‘ जैसे द्विज शूद्रों को

वेदमन्त्र नहीं देते, उसी प्रकार मैं अपना अनुराग किसी को नहीं दूँगी।’’ बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड में विशेषतः

शूद्रों के अध्ययन एवं भजन का निषेध है। उन्हें तप करने तथा स्वर्ग प्राप्त करने से वंचित बताया गया है।

महाभारत के अनुसार भी कोई शूद्र विद्याध्ययनके निमित्त आचार्य के आश्रम में प्रविष्ट नहीं हो सकता था। विदुर ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि वे शूद्र होने के कारण शिक्षा प्रदान करने के अधिकारी नहीं हैं। इसी प्रकार शूद्रों के यजनादि का निषेध भी प्राप्त होता है। महाकवि कालिदास (ईं पूं प्रथम शताब्दी) विरचित रघुवंश में शूद्र तपस्वी के तप कर्म को अनाचार कह कर उसके वध की प्रशंसा की गई है। इस स्थल को उदधरीत कर

भगवतशरण उपाध्याय का कहना है कि कालिदास का दृष्टिकोण यथार्थ में ब्राहमणत्व परायण है और वे जान बूझकर रामायण द्वारा की गई शूद्र की निन्दा को दुहराते हैं, जिसने प्रचलित वर्ण-व्यवस्था की सुरक्षा की धमकी दी थी। दूसरी सदी ईस्वी पूर्व में चातुर्वर्ण्य का जो स्वरूप विकसित होना प्रारम्भ हुआ था, गुप्त युग तथा मध्यकाल में भी वह प्रायः इसी प्रकार कायम रहा। यही कारण है कि ईंपूर्व चौथी शताब्दी से १२वीं

शताब्दी ईवी तक के संस्कृत महाकवियों की रचनाओं (नाटकों तथा काव्यों) में शूद्रों की निम्नदशा का ही उल्लेख है। क्रमशः शूद्रों के लिए दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर हो गई। उदाहरणार्थ ‘‘यदि शूद्र द्विजातियों को कड़ी अर्थात् चुभनेवाली बात कहे तो उसकी जीभ काट डालनी चाहिए। यदि द्रोह पूर्वक कठोर वचन कहे तो जलती हुई दश अंगुल लम्बी लोहे की शलाखा मुख में डाल देनी चाहिए। यदि अहंकार से ब्राहमण को धर्मोपदेश करे तो राजा तपा हुआ तेल उसके मुँह और कान में डलवा दें। यदि उच्च जातियों के साथ एक आसन पर बैठने की कोशिश करे तो उसकी कमर दाग कर उसे देश से निकाल दे अथवा उसके एक चूतड़ को कतरवा दे। यही नहीं शूद्र द्विज स्त्री से समागम करे तो दण्ड के रूप में राजा उसकी लिंगेन्द्रिय को कटवा दे और उसका धन छीन लेवे। यदि वह अपनी रक्षा करता हो तो उसका वध करा दे। मनु अनुसार ब्राहमण जाति की कन्या से समागम करने वाले शूद्र वध के योग्य हैं ब्राहमणी के साथ गमन करने वाले शूद्र को आग में फेंक देना चाहिए। शूद्र के प्रति यह अन्याय उस समय बहुत अखरने लगता है, जब हम स्मृतिकारों द्वारा एक ही प्रकार

के अपराध के लिए शूद्र को बहुत कठोर और ब्राहमण के साथ समागम करने वाली कन्या को कुछ भी दण्ड न दे। शूद्र स्त्री के साथ व्यभिचार करे, उसे प्राण दण्ड दिया जाए।

समय के साथ-साथ भारत में वर्णभेद अधिकाधिक संकीर्ण व कठोर होता गया। यह तो अब सम्भव ही नहीं रहा था कि गुणों और कर्मो के आधार पर नीच वर्ण में उत्पन्न कोई व्यक्ति ऊँच वर्ण प्राप्त कर सके। किसी विदेशी और विधर्मी व्यक्ति का अपने समाज का अंग बन सकना असम्भव होता जा रहा था। चौथी शती ईस्वी पूर्व से ईसा की सातवीं शती तक यवन, शक, कुषाण, हूणआदि अनेक जातियाँ भारत में प्रविष्ट हुईं

और गुण, कर्म के अनुसार उन्हें भारत के चातुर्वर्ण्य में स्थान प्रदान कर दिया गया। पर सामाजिक संकीर्णता में वृद्धि के कारण मध्यकाल में इस स्थिति में परिवर्तन हुआ। दशवीं शती के अन्त मे जब तुर्क लोग भारत में

प्रविष्ट हुए, तो भारतीय समाज उन्हें आत्मसात् न कर सका। अलबरूनी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि-‘‘हिन्दुओं की कट्टरता का शिकार विदेशी जातियाँ हैं।’’ तेरहवीं शती में भारत पर तुर्क-अफगानों की राजनीतिक सत्ता का आधिपत्य हुआ और कुछ ही समय में उत्तरी भारत का बड़ा भाग उनके प्रभुत्व में आ गया। इन नए ‘यवनों’ या ‘हूणों’ को भारतीय समाज का अंग नहीं बनाया जा सका और इनका एक पृथकवर्ग बन गया। इसमें वे हिन्दू या आर्य भी सम्मिलित हुए जो तुर्क अफगानों के सम्पर्क में आकर इस्लाम को अपना लेते थे। इस प्रकार भारत का समाज जहाँ हिन्दू मुस्लिम दो वर्गों में विभक्त हो गया वहाँ वर्ण भेद या जाति भेद के कारण हिन्दू समाज में ऐसा संगठन नहीं रह गया, जिसके कारण उसे एक जाति समझा जा सके। हिन्दुओं की यह बहुत बड़ी निर्बलता थी। मुसलमानों में ऊँच-नीच का वैसा भेद नहीं था, जैसा कि हिन्दुओं में था। नीच व अस्पृश्य समझे जाने वाले हिन्दू इस्लाम को अपना कर अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा बना सकते थे।हिन्दू धर्म के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी।

इस दशा में अनेक ऐसे हिन्दू नेता और धार्मिक आचार्य उत्पन्न हुए, जिन्होंनें जहाँ एक और हिन्दू धर्म की

विकृतियों को दूर कर धार्मिक सुधार का प्रयत्न किया, वहाँ साथ ही हिन्दू समाज से ऊँच-नीच का भेद भाव

हटाकर सबको सामाजिक दृष्टि से समान स्थिति प्रदान करने के पक्ष में आन्दोंलन किया। इन धार्मिक नेताओं

का कहना था कि भगवान कि दृष्टि में न कोई मनुष्य नीच है न उच्च। अपने गुण, कर्म, सदाचार व भक्ति द्वारा ही मनुष्य ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है। मध्य युग के इन धार्मिक नेताओं में रामानन्द, चैतन्य,नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। पर मध्य युग के सन्त-महात्मा हिन्दू समाज से ऊँच-नीच और छूत-अछूत के रोग का निवारण करने में असमर्थ रहे। सामाजिक दृष्टि से न रैदास ऊँची स्थिति प्राप्त कर सके न कबीर और न सेन तथा चोख मेला। रैदास के चरित्र और भक्ति से उच्च वर्णों के लोग प्रभावित अवश्य हुए, पर उन्हें वैष्णव धर्म

में ब्राहमण आचार्यो के  समकक्ष स्थिति प्राप्त नहीं हुई। रैदास के अनुयायी सजातीय लोग एक पृथक् पन्थ के रूप में परिवर्तित हो गए और हिन्दू समाज में उनकी स्थिति नीची ही मानी जाती रही। यही बात कबीर आदि अन्य सन्तों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

भारत के सामाजिक जीवन से ऊँच नीच और छूत-अछूत के भेद को दूर करने के लिए अनेक बार प्रयत्न हुए। गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर ने भी इस सम्बन्ध में अनर्थक प्रयत्न किया था और आंशिक सफलता प्राप्त की थी। उनकी अल्प सफलता का कारण यह था कि इन धर्मो की मान्यताएँ भारत की परम्पराओं के अनुकूल

नहीं था। ये न वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास करते थे, न सृष्टि के कर्त्ता, धर्त्ता और संहर्त्ता ईश्वर की सत्ता को ही स्वीकार करते थे। इसलिए ये भारतीय जनता को स्थायी व गहन रूप में अपने प्रभाव में नहीं रख सके और समाज में ऊँच-नीच आदि के भेद भाव को दूर कर सकने में भी असफल रहे। अतः ये दोनों

धार्मिक आन्दोलन भारतीय जनता के बड़े भाग को प्रभावित कर सकने मे असमर्थ रहे। मध्यकाल के सन्त

महात्मा भक्ति मार्ग के प्रतिपादक थे और भगवान् की भक्ति में ऊँच-नीच के भेद भाव को भूल जाते थे। भक्ति की सीमित मण्डली में नीच समझे जानेवाले लोगों से उन्होंने प्रेम अवश्य किया, पर सामाजिक जीवन में शूद्रों की स्थिति को परिवर्तित करने के लिए वे कुछ ठोस कार्य नहीं कर सके। इनके दिमाग में वर्ण परिवर्तन की भी बात नहीं आई। अर्थात् शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार तथा भक्ति से भी भगवान् को प्राप्त कर सकता है, परन्तु शूद्र से ब्राहमण नहीं बन सकता। श्रेष्ठगुण, कर्म, सदाचार का पालन करने वाले शूद्र जब तक ‘शूद्र’ नाम से ही कहे जाते रहेंगे, तब तक उनकी सामाजिक निम्नतम स्थिति समाप्त नहीं हो सकेगी। इस तथ्य की ओर मध्यकालीन सन्त-महात्माओं का ध्यान नहीं गया।

उन्नीसवीं शती के पूर्वाद्ध में भारत में नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इसकाल मे समाज सुधार के लिए स्थापित संस्थाओं में ब्राहमसमाज, प्रार्थनासमाज तथा थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख थे। ब्राहमसमाज का प्रभाव बंगाल में ही सीमित रहा और प्रार्थनासमाज का बम्बई में। इसके साथ ही इन संस्थाओं के प्रवर्तकों तथा संचालकों ने

सामाजिक प्रथाओं का आधार प्रायः धर्म होता है। हिन्दुओं में यदि कुछ जातियों को ऊँचा या नीचा और कुछ को अछूत माना जाता था तो उसका आधार भी धर्म को ही प्रतिपादित किया जाता था। पण्डित लोग स्मृतियों और धर्मशास्त्रों के आधार पर यह निरूपित करते थे कि ब्राहमणों की उत्कृष्ट स्थिति और शूद्रों की हीन दशा शास्त्र सम्मत है। इन बुराइयों को तभी सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है, जबकि वेद शास्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध किया जाए कि ये बातें न धर्मानुकूल हैं और न शास्त्र सम्मत। इस दिशा में महर्षि दयानन्द के

अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रयत्न नहीं किया। इसके विपरीत ब्राहमसमाज में श्रीदेवेन्द्रनाथ के समय तक वेदों की प्रमाणिकता तक से इन्कार कर दिया गया था। केशवचन्द्र सेन के प्रभाव से यज्ञोपवीत को तिलाजलि दे दी गई। क्रमशः ब्राहमसमाज पाश्चात्त्य जीवन प्रणाली पर आधारित होता गया।१८६६ ईस्वी में श्रीकेशवचन्द्र सेन ने ब्राहमसमाज से पृथक् अपना नया समाज ‘नव विधान समाज’ नाम से बनाया। फ़्रांसीसी मनीषी रोम्याँ रोलाँ ने लिखा है-‘‘ ईसा ने केशवचन्द्र सेन के अन्तःस्थल को स्पर्श किया था।उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था कि वे ईसा को ब्राहमसमाज में प्रविष्ट कराएँ। इसके साथ ही श्रीसेन उस समय बड़े जोर से उद्बुद्ध हो रही राष्ट्रिय चेतना के प्रतिकूल चल रहे थे।’ ’ इन कारणों से ‘ब्राहमसमाज’ हिन्दुओं की सामाजिक दशा में विशेष परिवर्तन नहीं ला सका और चिर स्थायी भी नहीं रह सका। १८६७ ई० में ‘प्रार्थनासमाज’ की स्थापना हुई प्रार्थनासमाज के लोग जाति-प्रथा के उच्छेद, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा के प्रबल प्रोत्साहन तथा बालविवाह-निषेध के सुधारों पर बल देते थे। इस समाज का संघठन कुछ निश्चित नियमों के आधार पर नहीं हुआ था। यह केवल ऐसे व्यक्तियों को समूह बना रहा, जो हिन्दू धर्म की अनेक कुरीतियों के विरुद्ध आन्दोलन करते थे,

हिन्दू समाज में सुधार चाहते थे किन्तु व्यवहार में हिन्दू कर्मकाण्ड व रूढ़ियों का पालन करते थे। यही कारण है कि प्रार्थनासमाज का प्रभाव सामाजिक जैसा भी बंगाल के समान बम्बई को प्रभावित न कर सका और न दीर्घजीवी हुआ। थियोसोफी के नेता १८६९ ईं० में मैडम ब्लेवेत्स्की तथा कर्नल अल्काट भारत पहुँचे। पहले इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शरण ली किन्तु भारत में फैले अन्धविश्वास को देखकर अनेक स्थानों पर चमत्कार दिखाकर लोगों का ध्यान थियोसोफी की ओर आकर्षित किया। इस प्रकार प्राचीन धर्मों की सम्पूर्ण रूढ़ियों, विश्वासों एवं क्रीयाकलापों का कथित वैज्ञानिक समर्थन इन लोगों द्वारा किया जाने लगा। ऐसी परिस्थिति में प्रचलित जातिभेद को दूर करना थियोसोफी के बलबूते की बात नहीं थी। वर्णव्यवस्था पर आधारित भारत के सामाजिक संगठन की मूलभूत बुराइयों को दूर करने के लिए जो सबसे अधिक सशक्त आन्दोलन उन्नसवीं शती में चला, वह आर्यसमाज का था और उसके प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द थे।

सर्वप्रथम भारतीय वर्णव्यवस्था में शूद्रों की हीन स्थिति के बने रहने के जो आधार धर्मशास्त्र थे, उन्हें महर्षि दयानन्द ने चुनौती दी। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर व्यवस्थित करने के वैदिक नियम को उपस्थित किया। मध्यकाल में विकसित धर्मशास्त्रों तथा धार्मिक मान्यताओं के कपोलकल्पित तथा

वेद शास्त्रादि का विरोधी बताया। धार्मिक व्यवस्था तथा उस पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के लिए उन्होनें

वेदों की प्रामाणिकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। चार वेद की संहिताओं को निर्भ्रान्त स्वतः प्रमाण तथा अन्य वैदिक आर्ष ग्रन्थों को परतः प्रमाण घोषित किया। स्मृतियों में केवल मनु की स्मृति के प्रक्षेप से रहित भाग को ही प्रामाणिक तथा शेष सभी स्मृतियों को त्याज्य, अनार्ष एवं वैदिक व्यवस्था का विरोधी निरूपित किया। स्वामी जी के अनुसार वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत आर्ष काव्य हैं और उनमें जो जन्मगत वर्णव्यवस्था के पोषक प्रमाण मिलते हैं, वे परवर्त्ती मिश्रण हैं। इन काव्यों के अतिरिक्त जितने भी संस्कृत के काव्य या नाटकादि लिखे गये उनमें वर्णित धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था वेद विरोधी होने के कारण माननीय नहीं है। इन ग्रन्थों से केवल तत्कालीन धर्म तथा समाज की स्थिति का पता लगाने में सहायता मिल सकती हैं। वेद के आधार पर धार्मिक मान्यताओं तथा समाज व्यवस्था को प्रचलित करने में इन अनार्ष ग्रन्थों की कोई उपयोगिता नहीं हैं। ‘‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयतामिति श्रुतेः’’ को उन्होंने कपोलकल्पित कहा और इसके प्रचारकों को ‘कुएँ में पड़ो’ जैसी कठोर बात कही। उन्होंने स्त्री, शूद्रादि सहित मनुष्यमात्र के लिए वेदादि शास्त्र पढ़ने का प्रमाण वेदों से उद्धरीत किया। स्वामी जी के इस महत्तवपूर्ण कार्य का औचित्य पाश्चात्त्य विद्वानों तथा सत्यव्रत सामश्रमी जैसे परम्परागत भारतीय विद्वानों ने भी स्वीकार किया। वस्तुतः वेदों में वर्णगत ऊँच-नीच की भावना का लेश भी नहीं है। ‘पंचजनाः मम होत्रं जुषध्वम्’ तथा ‘पाजजन्यः पुरोहितः’ प्रभृति वेद मन्त्रों में सभी के लिए यज्ञ-यागादि धार्मिक कृत्यों का विधान है। पज्जजनाः का अर्थ निरुक्त के अनुसार ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा पाँचवाँ निषाद है। वेदों में कहीं छूत-अछूत, स्पृश्यास्पृश्य या ऊँच-नीच की अवधारणा नहीं हैं। इसके पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। महर्षि दयानन्द तथा उनके अनुयायी विद्वानों ने इस सम्बन्ध में कई प्रमाण दिये हैं एवं उपयोगी ग्रन्थ लिखे हैं। महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज के विद्वानों को इन वचनों की शास्त्रीय प्रमाणवत्ता को लेकर परम्परावादी, रूढ़िवादी पौराणिक विद्वानों से कई शास्त्रार्थ करने पड़े हैं और कड़ा संघर्ष एवं विरोध झेलना पड़ा है। अब लगभग शास्त्रार्थ की परम्परा समाप्त हो गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सनातनी विद्वान्

अपनी कई धार्मिक मान्यताओं को वेद-प्रामाण्य के आधार पर सिद्ध करने में सक्षम नहीं रह गये हैं। अद्यतन प्रकाशित होनेवाले शोध ग्रन्थों में सनातनी ब्राहमण विद्वानों ने ही यह प्रतिपादित कर दिया है कि अति

प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था जन्म पर आधारित नहीं थी और वेदादि प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में गुण, कर्म,

स्वभाव के आधार पर ही चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था की गई थी। इन विद्वानों में प्रमुख हैं- क्षितिमोहन सेन, चिन्तामणि विनायक वैद्य, गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा, राजबलि पाण्डेय, भगवतशरण उपाध्याय तथा डाँ रामजी उपाध्याय इत्यादि।

दण्डव्यवस्था के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का सिद्धान्त मध्यकालीन स्मृतियों तथा सूत्रग्रन्थों के बिल्कुल

विपरीत है। ‘‘जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक जैसा दण्ड हो, उसी अपराध में राजा को सहस्त्र गुणा,

मन्त्री को आठ सौ गुणा तथा छोटे से छोटे (राजकीय) भृत्य को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिए। ब्राहमण को गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाइस गुणा दण्ड होना चाहिए अर्थात जिसका जितना अधिक ज्ञान और प्रतिष्ठा हो उसका अपराध में उतना ही अधिक दण्ड होना चाहिए।’’

गुणकर्मानुसार चातुर्वर्ण्य की स्थापना के लिए जो क्रीयात्मक पद्धति महर्षि ने प्रतिपादित की है उसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-(१) राजनियम तथा जाति नियम द्वारा सब बालक-बालिकाओं को आठ वर्ष की आयु हो जाने पर गुरुकुलों (आवासीय शिक्षणालयों) में भेज दिया जाए। शिक्षा सबके लिए अनिवार्य हो और एक समान, चाहे द्विज की सन्तान हो और चाहे शूद्र या अति शूद्र की। (२) गुरुकुल में सबको समान वस्त्र और समान भोजन मिले चाहे वे धनी माता-पिता की सन्तान हो और चाहे दरिद्र माता-पिता की। (३) शिक्षण काल में

विद्यार्थियों का सम्पर्क उनके माता-पिता से बिल्कुल न हो जिससे माता-पिता की आर्थिक स्थिति या वर्ण के

आधार पर उच्च या निम्न भावना उनमें न बने। (४) शिक्षण काल की समाप्ति पर आचार्यों द्वारा उनका वर्ण

गुण-कर्म-स्वभाव तथा योग्यता के आधार पर निर्धारित किया जाए। (५) गृहस्थ जीवन में पदार्पण के निमित्त

स्नातक तथा स्नातिकाओं का विवाह उनके आचार्य द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार गुण, कर्म तथा स्वभावगत

आधार पर किया जाए।

इस प्रकार गुणकर्मानुसार चातुर्वर्ण्य स्थापना का यह क्रीयात्मक मार्ग स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित किया

गया है। न इसकी ओर बुद्ध और महावीर का ध्यान भी नहीं गया, न मध्यकाल के सन्त-महात्माओं या धार्मिक तथा दार्शनिक आचार्यों का। इसकी ओर उन्नीसवीं सदी के उन सुधारकों का ध्यान भी नहीं गया जो पश्चिम से प्रेरणा लेकर भारत की सामाजिक दशा सुधारना चाहते थे। वस्तुतः भारत के इतिहास में अकेले महर्षि दयानन्द सरस्वती ही ऐसे चिन्तक हुए हैं जिन्होंने इस देश की भयंकर सामाजिक व्यवस्था की जातिगत बुराइयों की बीमारी के मूलकारणों का पता किया और उसके निवारण के लिए क्रीयात्मक और सशक्त उपाय प्रतिपादित किये।

विशेष– इस लेख में मनुस्मृति के कुछ ऐसे श्लोक भी उद्ध्रीत किये गये हैं जिन्हें ऋषि दयानन्द और आर्य समाज प्रामाणिक नहीं मानता। दलितों की हीनावस्था और उनके प्रति अन्यायपूर्ण इन श्लोकों के बावजूद आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द ‘मनुस्मृति’ को प्रामाणिक ग्रन्थ इसलिए मानता है कि मनुस्मृति में जन्मना (जाति पाँति व्यवस्था) वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध गुण-कर्म- स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था के पोषक भी प्रमाण मिलते हैं। समानकर्तृक अथवा एककर्तृक ग्रन्थ में परस्पर विरोधी मान्यताएँ नहीं होती। इसलिए भी मनुस्मृति के जाति-व्यवस्था तथा पक्षपातपूर्ण श्लोकों की अप्रामाणिकता तथा प्रक्षेपयुक्तता सिद्ध होती है। इस सन्दर्भ में ऋषि दयानन्द के जीवन का एक उल्लेखनीय प्रसन्ग इस प्रकार है-

‘‘दयानन्द ने यह भी अनुभव किया कि ब्राहमणों ने जो अपना गढ़ खड़ा कर लिया है, वही हिन्दू धर्म में घुसी बुराइयों की जड़ है। अतः उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट सत्य बोलकर इस गढ़ की जड़ों को हिला डालने का संकल्प लिया। उन्होंने केवल जन्म के आधार पर प्राप्त ब्राहमणों ने अपने अधिकारों को तर्कसंगत

बताने के लिए शास्त्रीय प्रमाण का सहारा लिया तो स्वामी जी ने स्वयं ही मनुस्मृति का प्रमाण देकर यह सिद्ध

किया कि ब्राहमण को वेदों का ज्ञान होना चाहिए और जो व्यक्ति इस स्तर तक नहीं पहुँच पाता, वह ब्राहमण कहलाने के योग्य नहीं।’’

काशी में एक दिन एक व्यक्ति ने वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का एक

श्लोग प्रस्तुत किया-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण्यकारकम्।

विद्यातपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राहमण एव सः ||

अर्थब्राहमणत्व के ३ कारक हैं- (१) विद्या, (२) तप, (३) योनि। जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या

(जन्मना) ब्राहमण तो है ही।

स्वामी जी ने इसके खण्डन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया-

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः।

यश्च विप्रोऽनधीयानऱ्यस्ते नाम बिभ्रति ||

अर्थजैसे काठ का कठपुतला हाथी और चमड़ का बनाया मृग होता है, वैसे ही बिना पढ़ा हुआ विप्र अर्थात्

ब्राहमण होता है। उक्त हाथी, मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं। (तुलनीय-संस्कारविधिः, पृं० ८४); (देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित ‘‘ स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित्र’’ भाग २ पृं ६०२, प्रथम संस्करण, १९९० विक्रमी)।

इस विषय में मनुस्मृति के अन्य प्रमाण भी द्रष्टव्य

हैं- योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवीन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ||

मनुं२/१६८

अर्थ-(१)जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्य शास्त्रों में श्रम करता है, वह जीते जी अपने पुत्र-पौत्रों (वंश) सहित

शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च

मनुं १०/१०/६४

अर्थ(१) ‘शूद्र ब्राहमण हो जाता है और ब्राहमण भी शूद्र हो जाता है’ मनु के इस वाक्य का भी विचार करना

चाहिए। (ऋषि दयानन्द-पूना प्रवचन, पृं० २०)

(२) कर्मों के द्वारा ब्राहमण शूद्र होवे और शूद्र भी ब्राहमण हो जावे। यही पुरानी रीति है। यदि ब्राहमण दुश्चरित्र, मूर्ख और धर्महीन है तो उसे शूद्र बना देना चाहिए और शूद्र यदि ज्ञानी, सच्चरित्र और धार्मिक हो तो उसे ब्राहमण पद पर प्रतिष्ठित कर देना चाहिए।(स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, भाग-१, पृं० २३१)

-अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,

रणवीर रणञजय, पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज,

अमेठी, (उ.प्र.) २२७४०५

वैदिक वर्णव्यवस्था का आधार और महर्षि दयानन्द

वैदिक वर्णव्यवस्था का आधार और महर्षि दयानन्द

डॉ. महावीर सिंह आर्य…..

र्ण व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप क्या है?- इसको न समझ पाना भी आज सर्वत्र फैली हुई उच्च और

नीच की भावना को बढ़ावा देता है। कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के नाम से ही उत्तेजित हो जाते हैं, क्योंकि

साधारणतया समाज में वर्ण शब्द जातिवाद का द्योतक माना जाने लगा है, परन्तु वास्तविकता ठीक इसके विपरीत ही है। वर्ण शब्द अपने आप में ही अपना अर्थ लिये हुए है और न ही यह वर्णव्यवस्था किसी भी धर्म या मत विशेष के साथ बंधी हुई ही है। इसका निर्देश हिन्दू के लिए ही हो, ईसाई या मुसलमान आदि के लिए नहीं?..

…ऐसी भी कोई बात नहीं है। वर्णः यह शब्द किसी ‘जाति विशेष’ का सूचक न होकर एक वर्ग विशेष का सूचकमात्र है। वह भी मानव को मानव समाज से अलग न करते हुए, उस उसके कार्यों का सूचक मात्र है। निरुक्त- वर्णो वृणोते` कहकर वर्ण का निर्वचन करता है। महर्षि दयानन्द ऋगवेदादि भाष्य भूमिका में इसका अर्थ करते हैं – ‘जो गुण कर्म को देखकर यथा योग्य वरण किये जाते हैं, वे वर्ण कहाते हैं।’स्वामी महेश्वरानन्द गिरी तथा सत्यमित्र दुबे की भी यही मान्यता है।

वर्ण तथा जाति : वर्ण तथा जाति शब्द आजकल प्रायः समान अर्थ के द्योतक प्रतीत होते हैं किन्तु मूल रूप में इन शब्दों में अन्तर है, इस विषय में आज भी मत-वैभिन्य है।

राजा फतह सिंह वर्मा (चन्द्र) पुवादा… नरेश ने वर्ण तथा जाति को एक ही माना है, वे लिखते हैं – देखो,

अल्पाच्चतरम् (अष्टा.२.२.३४) इस सूत्र के वार्तिक में वर्ण शब्द के अर्थ में ब्राहमण क्षत्रियादि जातियों के उदाहरण महाभाष्यकार पतंजलि महर्षि ने दिये हैं और ‘जातिरप्राणिनाम’ (अष्टा.-२.४.६) इत्यादि सूत्र, वार्तिक

और महाभाष्य द्वारा पाणिनि कात्यायन और पतंजलि महर्षियों ने ‘जाति’ शब्द के अर्थ में ब्राहमण, क्षत्रिय,

वैश्य और शूद्र वर्णों को उदाहरण द्वारा बतलाया है। यदि वर्ण और जाति शब्दों से एक ही प्रयोजन न होता तो महर्षि लोग ऐसा क्यों लिखते। कवि रत्नअखिलानन्द शर्मा भी जाति शब्द से वर्णों का ग्रहण करते हैं। इसके विपरीत अन्य विद्वान् वर्ण तथा जाति को पृथक् मानते हैं। तथा वर्ण का सम्बन्ध जीविका के साधन से तथा जाति का सम्बन्ध जन्म से मानते हैं। यथा- डॉ. मंगलदेव शास्त्री इस विषय में कहते हैं कि – यह ध्यान देने की बात है कि जहाँ वर्ण शब्द का सम्बन्ध इस प्रसंग में स्पष्टतया पेशा या व्यवसाय से है। तुलना करें – ‘वर्णो वृणोतेः(निरुक्त-२.३) यहाँ जाति शब्द का सम्बन्ध स्पष्टतया जन्म से है (… जननेन या जायते सा

जाति-महाभाष्य-५.३.५५) दोनों शब्दों की मौलिक दृष्टियाँ भिन्न हैं।…तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राहमण एव सः (महाभाष्य-५.४.५५)

डॉ. पी.वी. काणे का कथन है कि ‘वर्ण की धारणा वंश, संस्कृति, चरित्र (स्वभाव) एवं व्यवसाय पर मूलतः

आधारित है। हममें युक्ति की नैतिक एवं बौद्धिक योग्यता का समावेश होता है और यह स्वभाविक वर्गों की व्यवस्था का द्योतक है। स्मृतियों में भी वर्णों का आदर्श है – कर्त्तव्यों पर, समाज या वर्ग के उच्च मापदण्ड

पर बल देना, न कि जन्म से प्राप्त अधिकारों एवं विशेषाधिकारों पर बल देना। किन्तु इसके विपरीत जाति

व्यवस्था जन्म एवं आनुवांशिकता पर बल देती है और बिना कर्त्तव्यों के आचरण पर बल दिये, केवल

विशेषाधिकारों पर ही आधारित हैं। वैदिक साहित्य में जाति के आधुनिक अर्थ का प्रयोग नहीं हुआ है।

वैदिक संहिताओं में जाति शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु ‘सजात्य’ शब्द उपलब्ध होता है। जिसका

ब्राहमणत्वादि अर्थ संदिग्ध है। परवर्ती साहित्य में कहीं-कहींवर्ण के अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मिलता है। जो कदाचित व्यवसाय के आधार पर जन्म से ही जाति मानने के उपरान्त प्रचलित हुआ हो। महर्षि दयानन्द जहाँ वर्णों को चुनाव के आधार पर मानते हैं, वहाँ जाति को जन्म से मरणपर्यन्त रहने वाली मनुष्यत्व  की भाँति मानते हैं।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि कुछ विद्वान् वर्ण तथा जाति को अभिन्न मानते हैं तथा

कुछ इन्हें पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं। अतः वर्ण तथा जाति शब्द यद्यपि समानार्थक प्रतीत होते हैं किन्तु मूलरूप में इन दोनों शब्दों में अन्तर है। ‘जाति’ शब्द जहाँ ‘जनि प्रादुर्भावे’ धातु से निष्पन्न होने से जन्म अथवा योनि विशेष से सम्बन्ध रखता है वहाँ ‘वर्ण’ पद ‘वृञ वरणेधातु से निष्पन्न होने से चुनाव अर्थ को प्रकट करता है। जाति के निर्माण में वह परतन्त्र होता है तथा वर्ण के चुनाव में वह स्वतन्त्र है? यह भी स्मर्तव्यहै कि जाति मनुष्य से अतिरिक्त पशु-पक्षी आदि में भी होती है किन्तु वर्ण केवल मानव जाति में ही सम्भव है। अतः वर्ण तथा जाति शब्द मूलतः पृथक् हैं तथा इनको प्राचीन साहित्य में पृथक् ही माना है किन्तु वर्तमान समय में वर्ण शब्द प्रायःचर्चा का विषय रह गया है और उसका स्थान पूर्णतया जाति ने ले लिया है। जनगणना के समय भी वर्ण का उल्लेख न करके जाति का ही उल्लेख उपलब्ध होता है।

महर्षि दयानन्द और वर्णव्यवस्था का अधार : महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में जन्म से वर्णव्यवस्था को न

मानकर गुण-कर्म से ही वर्णव्यवस्था को स्वकीर किया है। उदाहरणार्थ-

१. वर्णाश्रम गुण कर्मों की योग्यता से मानता हूँ।

२. ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुणकर्मों से किये गये हैं (वृणो.)। इन नाम वर्ण इसलिए है कि

जिसके गुणकर्म हो, वैसा ही उनको अधिकार देना चाहिए।

३. (प्रश्न) विवाह अपने-अपने वर्ण में होना चाहिए या अन्य वर्ण में भी?

(उत्तर) अपने-अपने वर्ण में होना चाहिए परन्तु वर्ण व्यवस्था गुणकर्मों के आधार पर होनी चाहिए जन्ममात्र

से नहीं। जो पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारी, जितेन्द्रिय, मिथ्याभाषणादि दोषरहित, विद्या और धर्मप्रचार में तत्पर रहे इत्यादि गुण जिसमें हैं। वह ब्राहमण, विद्या, बल, शौर्य, न्यायकारित्वादि गुण जिसमें हो वह क्षत्रिय, क्षत्रिय और विद्वान् हो के कृषि व्यापार पशुपालन, देश भाषाओं में चतुरादि गुण जिसमें हो वह वैश्य, वैश्य और जो विद्याहीन मूर्ख हो, वह शूद्र कहावें।

४. वर्ण-जो गुणकर्मों के योग से ग्रहण किया जाता है, वह वर्ण शब्दार्थ से लिया जाता है।