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कुरान में नारी की दुर्दशा

कुरान में नारी का रूप

फिर मानव मात्र का अर्थ ही कुछ नहीं—संसार की जनसंख्या की आधी स्त्रियाँ हैं और किसी मत का यह दावा कि वह मानव मात्र के लिए कल्याण करने आया है इस कसौटी पर परखा जाना आवश्यक है कि वह मानव समाज के इस अर्ध भाग को सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार क्या देता है। कुरान में कुंवारा रहना मना है। बिना विवाह के कोई मनुष्य रह नहीं सकता। अल्प, व्यस्क, बच्चा तो होता ही माँ-बाप के हाथ का खिलौना है।


वयस्क होने पर मुसलमान स्त्रियों को यह आदेश है—

व करना फी बयूतिकुन्ना। —(सूरते अहज़ाब आयत 32)


यही वह आयत है जिसके आधार पर परदा प्रथा खड़ी की गई है। इससे शारीरिक, मानसिक, नैतिक व आध्यात्मिक सब प्रकार की हानियाँ होती हैं और हो रही हैं। स्वयं इस्लामी देशों में इस प्रथा के विरुद्ध कड़ा आन्दोलन किया जा रहा है। कानून बन रहे हैं जिससे परदे को अनावश्यक ही नहीं, अनूचित घोषित किया जा रहा है। परदा इस बात का प्रमाण है कि स्त्री अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखती। वह स्वतन्त्र रह नहीं सकती। विवाह से पूर्व व बाद में दोनों दशाओं में परदे का प्रतिबन्ध बना रहता है। 1

[1. अब जो कट्टरपंथी पूरे विश्व में आन्दोलन चला रहे हैं इसका अन्त क्या होता है यह आने वाले युग का इतिहास बतायेगा।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लाम में विवाह का सम्बन्ध निरस्त किया जा सकता है, परन्तु जहाँ पति जब चाहे तलाक दे सकता है और उसे किसी न्यायालय में जाने की आवश्यकता नहीं वहाँ स्त्रियों को न्यायालय में सिद्ध करना होता है कि उसे तलाक दिया जाना आवश्यक है। नारी और न्यायालय तलाक देते समय पुरुष पर केवल आवश्यक है कि वह महर (विवाह के समय निश्चित राशि) अदा कर दे। इसे कुरान की परिभाषा में अजूरहुन्ना कहा है।

फमा अस्तमतअतमाबिहि मिन्हुन्ना फ़आतूहुन्ना अजूरहुन्ना  फरी ज़तुन।

और जिनसे तुम फ़ायदा उठाओ उन्हें उनका निर्धारित किया गया महर दे दो।

तलाक से अल्लाह रुष्ट—शादी रुपयों-पैसों का रिश्ता नहीं। यह दो शरीरों का ही नहीं दो दिलों का बन्धन है जिसकी दशा शारीरिक रूप में सन्तान, परमात्मा की पवित्र सन्तान है। और आत्मिक दशा में दो आत्माओं की दो शरीरों में एकता है। इतना ही अच्छा है कि एक हदीस में फ़रमाया है कि ख़ुदा किसी बात से इतना रुष्ट नहीं होता जितना तलाक से।

सन्तान हो जाने पर किसी ने तलाक दे दिया तो? फ़रमाया है—

बल बालिदातोयुरज़िअना औलादहुन्ना हौलैने कामिलीने, लिमन अरादा अन युतिम्मरज़ाअता व अललमौलूदे लहू रिज़ कहुन्न व कि सवतहुन्ना बिल मारुफ़े।

—(सूरते बकर आयत 233)

और माँऐ दूध पिलायें अपनी सन्तानों को पूरे दो वर्ष। और यदि वह (बाप) दूध पिलाने की अवधि पूरा कराना चाहे। और बाप पर (ज़रूरी है) उनका खिलाना, पिलाना और कपड़े-लत्तों का (प्रबन्ध) रिवाज के अनुसार माँ का रिश्ता इतना ही है औलाद से, इससे बढ़कर उनकी वह क्या लगती है?

फिर बहु विवाह की आज्ञा है। कहा है—

फ़न्किहु मताबालकुम मिनन्निसाए मसना व सलास वरूब आफ़इन ख़िफ्तुम इल्ला तअदिलू फ़वाहिदतन ओमामलकत ईमानुकुम।

—(सूरते निसा आयत 3)

फिर निकाह करो जो औरतें तुम्हें अच्छी लगें। दो, तीन या चार, परन्तु यदि तुम्हें भय हो कि तुम न्याय नहीं कर सकोगे (उस दशा में) फिर एक (ही) करो जो तुम्हारे दाहिने हाथ की सम्पत्ति है। यह अधिक अच्छा है ताकि तुम सच्चे रास्ते से न उल्टा करो।

अधिक शादियों पर न्याय शर्त है। फिर कहा है—

व लन तस्ततीऊ अन तअदिलू बैनन्निसांए वलौहरसतुम।

—(सूरते निसा आयत 129)

और तुम औरतों में न्याय नहीं कर सकते चाहे तुम लालच    करो।

मुसलमान फिर भी बहुविवाह करते हैं—ऐसी दशा में तो अहले इस्लाम को एक से अधिक विवाह करने ही नहीं चाहिए, परन्तु हो रहे हैं और उनका (हानिकारक) फल भी भुगता जा रहा है।

इस हेराफेरी के द्वारा विरोध करने से तो उचित यही था कि स्पष्ट निषेध कर दिया जाता। बात यह है कि कुरान ने (अदल बिन्नसा) (स्त्रियों में न्याय) पर तो आग्रह किया है, परन्तु अदल बैना जिन्सैन (दो प्राणियों में न्याय) स्त्री व पुरुषों में न्याय को लक्ष्य नहीं बनाया है।

औरतों में न्याय का तो अर्थ यह हुआ कि मर्द शासक है औरतें उनकी कचहरी में एक पक्ष है। चाहिए था कि मर्द व औरत को परस्पर पक्ष बनाना जैसे मर्द को यह पसन्द नहीं कि उसकी स्त्री का परपुरुष से सम्बन्ध हो, वैसे ही औरत भी सौतन के डाह से जलती है।

न्याय यह है कि दोनों को एक ही विवाह पर सन्तोष करना चाहिए फिर दाहिने हाथ की सम्पत्ति, जिसके अर्थ सभी कुरान के भाष्यकारों ने बान्दियाँ किए हैं। यह दो प्राणियों में न्याय का सर्वथा विपरीत है। यह आज्ञा किसी नैतिकता के नियमानुसार उचित नहीं हो सकती।

शियाओं के मत में मुतआ (अस्थायी विवाह) भी उचित है। जो आयत हम ऊपर महर के अधिकार के दिए जाने के सम्बन्ध में प्रमाण रूप में उद्धृत कर चुके हैं।

शिया मुसलमान इस आयत से मुतआ का औचित्य ग्रहण करते हैं। सुन्नी मुसलमान भी मानते हैं कि मुहम्मद साहेब के जीवनकाल में कुछ समय तक मुतआ प्रचलित रहा बाद में निषिद्ध हुआ और मुतआ के अर्थ हैं अस्थायी विवाह। जिसका रिवाज ईरान में अब तक पाया जाता है।

विवाह और अस्थायी, फिर इस पर हलाला है, कहा है—

वत्तलाको मर्रतैने….फ़इनतल्लकहा फ़लातहिल्लु लहू मिनबादे हत्तातन्किहाज़ौजन गरहू, फ़इन तल्लकहा फ़ला जुनाहा। अलैहुमा।

—(सूरते बकर आयत 229-230)

तलाक दो बार दिया जा सकता है…….फिर यदि (तीसरी बार) दे दे तो उसे विहित (हलाल) नहीं उसे, उसके पश्चात् यहाँ तक कि वह निकाह करे दूसरे पुरुष से फिर जब वह भी तलाक दे दे तो फिर कोई दोष नहीं।

तीसरे निकाह पर कहा है—

मुतआ क्या है? इसे हम एक जाने माने मौलाना के शब्दों में बताते हैं, ‘‘It means that a man settles it, under the name of muta, with a woman not having a husband and with whom marriage is not forbidden,according to the shariat, that he will take her for a wife for a fixed period of time and on payment of a fixed amount of money, and then during that period he can legitimately have sex with her.No qazi, witness or vakil is required for it and it needs not, also be made known nor even disclosed to a third person. It can all be done clandestine manner which (we are told) is the usual practice.” Khomeini Iranian Revolution and the Shi’te faith P. 180

[इसका सारांश यह है कि कुछ राशि देकर एक निश्चित समय के लिए किसी स्त्री से जिसका पति न हो सम्भोग किया जाता है। उस काल में उसे बीवी बनाया जाता है। यह सम्बन्ध गुप्त होता है। किसी तीसरे व्यक्ति को पता तक नहीं लगने दिया जाता। इसमें कोई काज़ी, कोई साक्षी व वकील नहीं होता।    —‘जिज्ञासु’]

निकाह नहीं बन्ध सकता जब तक कि बीच में दूसरे पति से सम्भोग न हो चुके। (मूज़िहुल कुरान)।

इस हलाला पर संख्या का बन्धन नहीं जितनी बार तीसरा तलाक दिया जाएगा। उतनी ही बार पहले पति से निकाह करने के लिए हलाला आवश्यक होगा। यह कानून की बहुत बड़ी भूल है। इसकी दार्शनिक, तार्किक, सामाजिक परिणामों की कल्पना करके भी पाठक काँप उठेगा 1 ।

[1. कुर्आन व इस्लामी साहित्य के मर्मज्ञ विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवरशेख ने ‘हलाला’ पर एक लोकप्रिय पठनीय कहानी लिखकर विचारशील लोगों को झकझोर कर रख दिया है। सत्यान्वेषी पाठकों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।   —‘जिज्ञासु’]

 

लव जिहाद कारण : निवारण

कल तक सनातनी परिवार में चहकती हुई बच्ची जो आध्यात्म में डूबी रहती थी, परिवार जिसे पलकों पर बिठाए रखता था,  लड़की के अच्छे भविष्य के लिए उसकी शिक्षा में कोई कमी नहीं रखी न ही उसकी इच्छाओं का कभी हनन किया गया हो, जिसके बचपन से लेकर जीवन पर्यन्त तक के स्वप्न माता पिता ने देखे हो

और

एक दिन वह आपके घर से यह कहकर चली जाए की में अपनी इच्छा से एक मुस्लिम लड़के से विवाह कर लिया है और मेने इस्लाम कबुल कर लिया है और अब में अपने पति के संग रहने जा रही हूँ, सोचिये वह पल आपके लिए कितना हृदय विदारक होगा

ऐसी घटनाए आजकल रोजाना हो रही है रोजाना ५ १० १५ बच्चियों को बहला फुसलाकर प्यार के जाल में फसाकर धर्मान्तारण करवाया जाता है

ऐसी ही राजस्थान के जोधपुर शहर में लव जिहाद की एक घटना आजकल सुर्ख़ियों में है, सिंघवी परिवार की लडकी “पायल” उर्फ़ आरिफा ने इस्लाम कबूल कर एक मुसलमान से विवाह कर लिया

परिवार ने भरसक प्रयास किया जिससे लड़की को पुनः घर वापसी कर परिवार में लाया जा सके परन्तु लड़की ने पति के साथ जाने की इच्छा जताई और न्यायाधीश ने उसे स्वतंत्र कर दिया

इस घटना ने शहर के कई परिवारों को हिला कर रख दिया शांत सा रहने वाला जोधपुर शहर आजकल बैचेन सा है और कारण है यह लव जिहाद

अपने मासूक की बाहों में लड़कियां अपने माँ बाप की सारी परवरिश उनका लाड प्यार किनारे कर देती है !

 

क्या यह सब कुछ अचानक हो जाता है ?
नहीं !! यह सब एक षड्यंत्र के तहत होता है इस बच्ची की कहानी स्पष्ट ही इस षड्यंत्र को खोलकर रख देगी

 

एक सम्पन्न सुखी परिवार की बच्ची थी पायल जिसके सुख सुविधा में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आने दी गई आध्यात्म से जुडी हुई बच्ची थी

कुछ चीजे है जो उसके लिए घातक बनी जैसे घर वालों और बच्ची का साईं बाबा का भक्त होना, साईं बाबा के लगभग सभी भक्त सेक्युलर होते है जिन्हें हिन्दू मुस्लिम में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं दीखता यहाँ तक की साईं का दीन इस्लाम ही उसे समस्त मत मतान्तरों से श्रेष्ठ लगने लगता है, क्यूंकि साईं बाबा को प्रदर्शित ही ऐसे रूप में किया गया है -जैसे हर समय सबका मालिक एक है और उसे अल्लाह बताना, हर समय उसका मस्जिद में रहना दिखाना आदि अनेक ऐसी बाते है जो उनके भक्तों में एक प्रकार की कम्युनिष्ट भावना को जन्म देती है जो उसे इस्लाम की और घकेलने में सहायक बनती है

 

मुसलमान इसका पूरा फायदा उठाते है, इसके साथ यह भी ज्ञात हुआ की यह बच्ची जिस “फैज” के जाल में फसी है यह उसके साथ कई वर्ष पढ़ चुकी है, यहाँ परिवार की गलती यह है की कभी बच्ची के बारे में ध्यान नहीं देना की वह किसके साथ उठती बैठती है किसके साथ खेलती है बाते करती है उसकी दिनचर्या क्या है

इन सब बातों पर ध्यान नहीं देने का परिणाम भी यही होता है जो हम सभी को देखने को मिल रहा है

 

परिवार वालों को पहले संदेह भी हुआ था की लड़की का ऐसा कोई मित्र है जो मुस्लिम है परन्तु उस और पूरा ध्यान नहीं देना उनकी सबसे बड़ी गलती बनी

फिर परिवार को समय नहीं देना जैसे भाई व्यापार में और पिता अपने कार्यों में व्यस्त रहते थे जिससे बच्ची पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया

 

मुस्लिम लड़के हमेशा ऐसे ही लड़कियों को निशाना बनाते है जो सम्पन्न परिवार से हो और जिनके परिवार में बच्चों को संस्कार और परिवरिश में नहीं पाला जाता है

माता पिता का बच्चों पर ध्यान नहीं देना भी कभी कभी बच्चों के मन में हीन भावना को जन्म दे देता है जिसके चलते भी बच्चियां लव जिहाद की आसान शिकार बन जाती है

बच्चों को स्मार्ट फोन दिलाना आज फैशन बन चूका है इसके चलते भी बच्चे हाथ से निकल रहे है

जरूरत है थोड़ी सी समझदारी और सतर्कता की यदि माता पिता बच्चों की दिनचर्या उनके साथी संगियों का पूरा ध्यान दें

स्मार्ट फोन में ट्रेस करने के सॉफ्टवेर आदि का उपयोग कर बच्चों पर नजर रखे

बच्चों को छुट एक सीमा तक ही दें

बच्ची के ऐसे कृत्य करने के पीछे लगभग माता पिता की लापरवाही ही है और यह उनकी गलती की वजह से ही है आजकल माता पिता अपने बच्चों को संस्कार ही नहीं देते

सत्यार्थ प्रकाश जैसी पुस्तकें पढने नहीं देते न ही घर में रखते है, वीर वीरांगनाओं के पराक्रम पर लिखी पुस्तकें घर में नहीं रखते उन्हें किसी महापुरुष को अपना आदर्श बनाने को प्रोत्साहित नहीं करते

 

इस अभाव में आदर्श बनाते भी है तो किन्हें इन नट कलाकारों को जो स्वयं अपने शरीर को पल पल बेचते है इन भांडों को जो रात को अलग पति दिन को अलग पति बनाते है

 

फिर जब बच्चे हाथ से निकल जाते है तो आर्य समाज जैसे संगठन याद आता है जब इन्हें आर्य समाज धर्म की बात सुनाने को प्रयास करता है तो यह इन्हें बुड्ढो का काम लगता है कभी बच्चों को अपने दादा दादी के साथ धर्म शिक्षा लेने नहीं भेजते न विद्वानों को घर आमंत्रित करते है

जाते भी है तो चटनी वाले बाबाओं के पास जहाँ ठगे जाते है और विद्वानों को बदनाम करते है

जोधपुर के इस केस में बच्ची फैज नाम के लडके के जाल में फसी जो मुस्लिम तेली परिवार से सम्बन्ध रखता है परिवार अधिक सम्पन्न नहीं है ३ भाई और एक बहन है जिसका तलाक हो चुका है और वह भी अपने माँ बाप के साथ ही रह रही है, लड़के का कोई ख़ास करियर भी नहीं है, घड़ीसाज का कार्य करता है किसी दूकान पर, इसके अतिरिक्त दोनों भाई भी कोई कार्य नही करते

परिवार को जब लड़की के मुस्लिम लड़के के साथ भागने की सुचना मिली तो परिवार ने रिपोट दर्ज कराई और पता चला की लडकी ने ऐसा कृत्य कर लिया है, परिवार ने बच्ची को बहला फुसलाकर भगाने, उसका माइंडवाश करने, जबरन धर्म परिवर्तन कराने के आरोप लगाये

 

कोर्ट ने सुनवाई के बाद उसे ३ ४ दिन के लिए नारी निकेतन में भेजा दिया, परिवार ने बहुत प्रयास किये की लड़की को कैसे भी करके समझा बुझा कर घर लाया जाए

परन्तु सफल न हो पाए

अगली सुनवाई में लड़की ने अपने ससुराल जाने इच्छा जताई जिस पर कोर्ट ने उसे स्वतंत्र कर दिया

यह सब एकाएक नहीं हुआ, इसके लिए कई सालों से जाल बुना हुआ था, मुसलमानों में बहुपत्नी रखने की स्वतन्त्रता है उसी का फायदा मुसलमान यह उठाते है की शादीशुदा होने के बावजूद भी वे हिन्दू लड़कियों पर जाल बिछाते है

आवश्यकता है आज जागरूकता की आज सिंघवी परिवार की बच्ची गई है, कल गोयल की, परसों कुमावत की, अगले दिन राजपुरोहित की जायेगी परन्तु इसकी हानि सारा हिन्दू समाज भुगतेगा

गजवा ए हिन्द के मिशन में आपकी यही बच्चियां इनका साथ बटायेगी इनके लिए बच्चे पैदा करेगी उन्हें आपके सारे रीती रिवाजों और पाखंडों से अवगत कराएगी जिससे इनके बच्चे भी लव जिहाद में आसानी से सफल हो पाए

आज जिनकी बच्चियां, बहने, भतीजी, आदि है उन्हें सतर्क रहने की उनका पूर्ण ध्यान रखने की जरूरत है

ऐसी स्कूलों में न पढाये जहाँ लड़के लड़कियों को सम्मिलित पढाया जाता है, लडकियों को बाहर अकेले न भेजे अधिक जरूरत हो तो समय निर्धारित करे की इतने समय में घर वापस आना है, घर पर आने के बाद भी उसकी गतिविधियों पर ध्यान दें उसकी दिनचर्या के हर बदलाव के प्रति सतर्क रहे

 

उसकी सहेलियों के चरित्र और परिवारों की जानकारी भी रखे कई बार इनसे भी धोखा मिल जाता है मुस्लिम सहेलियाँ हिन्दू लड़कियों को आसानी से फसा लेती है

 

बच्चों के साथ मित्रों जैसा व्यवहार रखे

 

और जब भी हल्की सी भनक पड़े की बच्ची की गतिविधियाँ संदिग्ध है तो पूरी जानकारी हासिल करने का प्रयास करें

ऐसी परिस्थितियाँ पैदा न करे की बच्ची अपने आप को कैदी महसूस करने लगे और केवल बच्चियों पर ही नहीं बच्चों पर भी पूरा ध्यान दें यह कभी अपने व्यवहार में न लाये जिससे आपके प्यार में लड़का लड़की के लिए भेद जैसी बात सामने आये, बच्चों में कभी भेद न करें हर सुख सुविधा सभी को बराबर मिले इसका पूर्ण ध्यान दें

यह बिलकुल नहीं कह रहे की लड़के कभी गलती नहीं करते गलतियाँ बच्चे करते ही है इसलिए किसी भी अप्रिय घटना घटने से अच्छा है की आप सतर्क रहे बच्चों पर पूरी निगरानी रखे

आजकल ऐसी एप्लीकेशन आती है जिससे बच्चों की सोशल गतिविधियों की पूरी जानकारी आपको मिल सकती है उनका उपयोग लें

किसी एक्सपर्ट से सलाह लें !!

 

लव जिहाद केरल में नहीं जोधपुर में नहीं हर जगह पहुँच चूका है अतः इसे पढ़कर यह कहकर लापरवाह न बन जाए की अरे फलाना लड़की थी ही ऐसी हमारी बच्चियां तो संस्कारी है, क्यूंकि यह एक आग है जो कब आपके घर को राख कर देगी आपको स्वयम पता नहीं चलेगा और कल को आपका परिवार भी उन परिवारों की सूचि में हो और लोग ऐसे ही ताने कसे जैसे आप कस रहे है इससे अच्छा है सतर्क हो जाए

 

धन्यवाद

 

नमस्ते

MAHOMEDANISM IS MAINLY BASED UPON JUDAISM: Ganga Prasad

THE religion of Mahomed is based chiefly on Judaism,

and partly on Zoroastrianism on which Judaism

itself is based. The first proposition is not denied

by the Mahomedans themselves, who only claim that their

Prophet has improved upon the Jewish religion in certain

respects. A detailed comparison of the two religions would,

however, show how closely Mahomed has followed the

Jewish religion even on points of detail, and would lead to

the conclusion that there is little or .nothing important in

Mahomedanism for which the Prophet could lay claim to

originality.

We shall in this branch of our enquiry follow Dr. Sale,

whose preliminary discourse, appended to his celebrated

translation of the Koran, contains a wealth of information

on this subject.

 

SECTION 1

 

THE ORIGIN OF THE UNIVERSE OR COSMOGONY

 

The idea that this universe is the first and the last of

its kind is purely a Jewish idea, and forms a distinctive feature

of Judaism, and the two great religions founded

upon it, Viz., Christianity and Mahomedanism. Again,

the belief that this world was created out of nothing by

a fiat of the Almighty is also borrowed from Judaism. The

story of Adam and Eve being created and placed in the

garden of Eden, where they were allowed to partake of

all things except the fruit of a particular tree; of their being

I tempted by Satan in the form of a serpent to eat of that very

fruit; and of their subsequent fall from paradise is borrowed

almost literally from the Jewish scriptures.

The same may be said of the existence of a higher order

of beings than man, Viz., the angels who have pure and

subtle bodies, created of fire, and who neither eat nor drink,

nor propagate species. These angels are supposed to have

various forms and offices, and the most eminent among them

are Gabriel, Michael, Azracl and Israfil. “This whole

doctrine concerning angels,” says Dr. Sale, “Mahomed

borrowed from the Jews, Who learned the names and offices

of those beings from the Persians, as they themselves confess.

-( Talmud Hieros and Roshbhashan). “:j:

The Koran teaches the existence of also an inferior class

of beings called jin or genii’ created also of fire, but of a

grosser fabric than angels, since they eat, drink and propagate

their species and are subject to death.’ “These notions,”

says Dr. Sale, “agree almost exactly with what the Jews

write of a sort of demons called Shedim. It

SECTION 2

THE DESTRUCTION OF THE UNIVERSe AND’

THE RESURRECTION

– The Mahomedans believe in the immortality of the

soul and think that there will be a day of resurrection

when the dead will rise to receive the rewards and punishment

of their actions in life according to their merits and

demerits. The whole of this doctrine has been taken from

Judaism.

The ,Resurreclion.-According to some writers the

resurrection will be merely spiritual. The generally received

opinion, however, is that both the body and the soul will

be raised.::: It might be asked: how will the body, which

has been decomposed rise again ~ “But Mahomed has

taken care to preserve one part of the body, whatever

becomes of the rest, to serve for a basis of future edifice, or

rather a leaven for the mass which is to be joined to it.

For he taught that a man t s body was entirely consumed by

the earth, except only the bone called AI Ajb which we

name the os coceygis or rumpbone; and that as it was the

first formed in the human body, it will also remain uncorrupted

till the last day, as a seed from whence the whole

is to be renewed; and this, he said, would be effected by

a forty days’ rain which Cod would. send, and which w~uld

cover the earth 10 the height of twelve cubits, and cause the

bodies to sprout forth like plants. Herein also is Mahomed

beholden to the Jews who say the same things of the bone,

Luz excepting that what Mahomed attributes to a great rain

would be effected according to them by a dew impregnating

the dust of the earth.

Signs of the Resurrection.-The approach of the day of

resurrection will be known from certain signs which are to

precede it; for example:-

  1. The rising of the sun’in the west.

(b) The appearance of the beast Dajjal, a monster of

the most curious appearance, who would preach

the truth of Islam in Arabic language. The

beast in the Revelation (Luke, xxiii: 8) seems,

according to Dr. Sale, to be responsible for this

idea.

( c) The coming of the Mehdi.

(d). The blast of the trumpet called Sur, which will be sounded three times.

All these are more or less Jewish ideas, So is the teaching that after the Resurrection, but before Judgment the resuscitated souls will have to wait for a long time

under the burning heat of the sun which would descend to

within a few yards of their heads

The Day of Judgment .-After mankind have waited

for fixed time God will, at length, appear to judge them,

Mahomed taking the office of intercessor. Then everyone

will be examined concerning all his actions in this life.

Some say that all the limbs and parts of the body ,will be

made to confess the sins committed by each. Each person

will be given a book in which all his actions arc recorded.

These books will-be weighed in a balance to be held by

Gabriel. Those whose good actions are heavier than the

bad ones, will be sent to Heaven; and those whose evil

actions preponderate, to the Hell. This belief has been taken

in its entirety from the Jews, “The old Jewish writers,”

says Dr, Sale, “make mention as well of the books to be

produced at the last day wherein men’s actions are registered,

as of the balance wherein they shall be weighed.

 

The Jews in their turn borrowed this idea from the

Zoroastrians. Dr. Sale hints that the Old Testament seems

to have given the first notion of both (Exod., xxxii, 32-33 ;

Dan., vii, 10; Revel., xx, 12; Dan., v, 27.) but, he

admits, “what the Persian Magi believe of the’ balance’

comes nearest to the Mahomedan opinion. They hold that

on the day of Judgment two angels named Mehr and Sarush

will stand on the bridge we shall describe by and by, to

examine every person as he passes; that the former ,,,ho

represents divine mercy will hold a balance in his hand to

weigh the actions of men; that according to the report he

shall make thereof to God sentence will be pronounced, and

those ‘whose good works are found more ponderous, if they

turn the scale but by the weight of a hair, will be permitted

to pass forward to paradise; but those whose good works

shall be found light will be, by the other angel who represents

God’s justice, precipitated from the bridge into hell.”*

On the road to heaven is the bridge called by

Mahomed Al Sirai. This bridge is thrown over the abyss

of hell, and is said to be finer than a hair, and sharper than

the edge of a sword. Over this bridge the Muslims will

easily pass led by Mahomed; whereas the wicked will

soon miss their footing and fall down headlong into hell

which is gaping beneath them. The Jews likewise speak

of the bridge of hell which, according to them, is no

broader than a thread. For this idea the Jews and

the Mahomedans seem to be equally indebted to the

Zoroastrians who teach that on the last day all men will be

obliged to pass over a bridge called Pul Chinavad.

 

Paradise.-After passing the Al Sirai, the faithful will

reach paradise ‘which is situated in the seventh heaven.

The Mahomedan conception of paradise is that of a

beautiful garden, furnished with springs, fountains, and

rivers flowing with water, milk, honey and balsam, and

trees having their trunks of gold, and producing the most

delicious fruits. Above all, there will be seventy resplendent

ravishing girls called hur-ul-ayun on account of their big

black eyes. For almost. the whole of this description

Mahomed is indebted to the Jews. “The Jews constantly

describe the future mansion of the just as a delicious garden,

and make it also reach the seventh heaven ( vide Gemar

Tanith, f. 25; Biracoth, f. 34; Midrash Sabboth, f. 37).

They also say it has three gates ……… and four rivers

Flowing with milk, wine, balsam and honey.-( MiJrash,

Yalkul Shcwini).”:::

It is more than probable that the Jews themselves

borrowed this idea from the Zoroastrians, who described

the felicities of paradise in similar language. Dr. Sale

observes: “The Persian Magi had also an idea of the

future happy state of the good, very little different from

that of Mahomed. Paradise they call Bihishl, and Minu,

which signifies crystal, where they believe the righteous’

shall enjoy all manner of delights and particularly, the

company of huran-i-Bihisht or black-eyed nymphs of

paradise, the care of whom, they say, is committed to the

angel Zamiyad and hence Mahomed seems to have taken the

first hint of his paradisiacal ladies. “t

We may also quote from Nama Mihabad, one of the

later writings of the Parsis: “The lowest order of heaven

is this that its inmates will enjoy all the delights of this

world: nymphs, male and female slaves, meat and drink,

clothing and bedding, articles of furniture, and other things

which ca~not be enumerated here.”-Mihabad, 40 & 41. :::

 

Hell.-Similarly the different torments of hell, the

seY~n compartments into ,,,·hich it is said to be divided,

and the partition called Al Aira/, separating heaven from

hell, all seem to be copied from the Jews.

 

SECTION 3

GOD AND THE DEVIL

 

The Mahomedan conception of God agrees almost

exactly with the Jewish notion. And the doctrine that there

arc two powers in the world, a good and benevolent

power, viz., God, and an evil’ and malevolent power, Viz.,

Satan, is also taken from the Jews. This notion, which

seriously mars the Monotheism of the Bible and the

Koran, was certainly borrowed by the Jews from the

Zoroastrians, vrho call these (wo principles Spenla Mainyu

and A ngira M ainyu. In a later chapter we shall discuss

this question more fully, and show how this Zoroastrian

idea can be traced to a beautiful allegory in the Veda,

describing the struggle of good and evil in this world; and

how this allegory was misunderstood till in the hands of the

Jews, Christians, and Mahomedans, it degenerated into a

belief in two powers, Satan having been elevated to a

position a little below that of the Deily. This is a very

important point, and will show, in a remarkable manner,

how the stream of religious thought has flowed from the

Vedas to the Zend Avesta, and thence to the Bible and

the Koran.

 

SECTION 4

RELIGIOUS PRACTICES

We have show’n so far that the principal dogmas of the

Mahomedan religion have a Judaic origin. We shall next

show that their religious practices can’be traced to the same

source.

There are four duties incumbent upon every

Mahomedan: viz., (i) Prayer; (ii) Fasting; (iii) Zakat

or charity; and ( iv) Pilgrimage to Mecca.

(i) Prayer.-The following extract from. the Dasalir

would show to the reader that the several postures of the

followers of the Prophet at prayers have been probably’

copied from the Zoroastrians:-

II During prayer a pious and wise man should stand

ahead, and the rest should stand behind him. A man

(during prayer) should stand erect and join his hands

together; then bow down, then prostrate himself on the

ground; then again stand erect, place one of his hands on

the head, and removing it place the other hand on the

head; then raise his head and clasp his hands without

joining the thumbs, place his thumbs on his eyes, making

the fingers reach the head, then bend his head down to his

breast; then raise it; then sit on the ground; then putting

his hand on the ground and kneeling down touch the

ground with his forehead, and then with each side of the

face; then prostrate himself on the ground like a staff;

then stretch his hand till the breast touches the ,ground,

then do the same with, the thighs; then kneel down;

then squat, and place his head on his folded hands.

Such prayer is to be addressed to none but God.”:::

 

The practice among Mahomedans of saying their

prayer with their faces towards the Kabah is likewise

borrowed from the Jews who constantly pray with their

faces turned towards the temple of Jerusale~. ” The

same,” observes Dr. Sale, ” was the Kibla of Mahomed

and his followers for six or seven months (some say eighteen

months, vide Abulfed, Nit. Moh., p. 54), till he found

himself obliged to change it for the. Kabah. tt;:;

The practice of performing before prayers ablutions

with water or sand is also borrowed from the Jews and

the Persians. The. circumcision is well-known to be a

Jewish custom.

 

(ii) Fasling.-Speaking of Mahomed’s ordinances

concerning fasting, Dr. Sale traces them to those of the Jews,

and observes: “That nation, when they fast abstain not

only from eating and drinking but from women and from

anointing themselves, from daybreak until sunset ……….. :

spending the night in taking what refreshments they please,

(Gemar Yama, f. 40, etc. )”

 

(iii) Charily.-This is of two kinds, viz., ( 1 ) Zakat,

and ( 2) Sadka; and specific rules are laid down for the

giving of these alms. In these rules also Dr. Sale observes the

footsteps of the Jews, ( Vide. Prel. Dis., p. 87).

 

(iv) The Haj or Pilgrimage to Mecca . …;;.. The pilgrimage

to Mecca was not borrowed from the Jews, but was a

relic of the pagan Arabs. The temple of Mecca had long

been held in singular veneration by the Arabs, and the

Prophet considered it inexpedient to disturb the belief.

 

SECTION 5

NEGATIVE PRECEPTS

 

Among the negative precepts common to the Jews and

the Mahomedans may be mentioned abstaining from gaming ;:::

wine ; usuryt and certain kinds of prohibited meats.

Regarding prohibited meats we read in the Koran as

follows :-” Ye are forbidden to eat that which diet of

itself, and blood, and swine’ s flesh, and that on which the

name of any besides God has been invocated, and that

which hath been strangled or killed by a blow, or by a

fall, or by the horns of another beast, and that which has

been eaten by a wild beast, except what ye shall kill yourselves,

and that which, had been sacrificed to idols.”

 

In these particulars,” says Dr. Sale, ” Mahomed seems chiefly

to have imitated the Jews, by whose law, as is well-known,

all those things are for bidden, but he allowed some things

to be eaten which Moses did not. ”

 

SECTION 6

CIVIL INSTITUTIONS

 

The civil institution of the Mahomedans are founded

upon the Koran, as those of the Jews are founded on the

Pentateuch. That the former were copied from the latter

would be evident from the following!-

 

( i) Polygamy is allowed by both, but no Mussalman

may marry more than four wives at a time. U In

making the above mentioned limitation,” observes Dr. Sale

 

Mahomed was directed by the decision of the Jewish

doctors who, by way of counsel, limit the number of wives

to four ( rJide Maimon in Halachoth Ishath, c. 14), though

their law confines them not to any certain number. “:::

 

( ii) Dirvorce is an institution common to both religions.

In allowing divorce Mahomed has followed Jews. When

a woman is divorced, she must wait for three months before

she can re-marry. This period, is called iddal. At the end

of this period, if she is found with child, she must be

delivered of it before she can marry again. These rules”

says Dr. Sale, are also copied from the Jews, according to

whom a divorced woman or widow cannot marry another

man till ninety days be passed after the divorce or death

of the husband.” Dr. Sale adds: “The institutions of

Mahomed relating to the pollution of women during their

courses, the taking of slaves to wife, and the prohibiting of

marriage within certain degrees, have likewise no small

affinity with the institution of Moses.

 

SECTION 7

SOME MINOR SIMILARITIES

( 😉 The setting apart of one day in the week for

the special service of God is also an institution of the Jews

who keep Saturday sacred. THe Christians have Sunday for

their Sabbath day. Mahomed has imitated these religions

in this respect; but for the sake of distinction he has ordered

his followers to observe Friday, instead of Saturday or

Sunday. ,

 

(if) The celebrated formula of the Koran “La-Elah-illillah” (there is no God but God) is a mere paraphrase of the Zoroastrian formula, “Nest ezad magar

Yazdan.”

( iii ) It should be further noted that every chapter of the Koran (excepting only the ninth) opens with the words “Bismillah uar Rahman er Rahim,” which. exactly

correspond to the formula with which the Zoroastrians begin

their books, Viz., fI Banam Yazdan bakhshish gar dadar (in the name of the most merciful God ).

 

SECTION 8

SUMMARY

The above is sufficient to show that Mahomedanism

has borrowed almost all its doctrines and precepts mainly

from Judaism and partly from Zoroastrianism. The religion

of the Koran cannot, therefore, claim to be a new revelation,

or a special dispensation of the Will of God. Our

Mahomedan brethren will perhaps urge; “the monotheism

of the Koran is purer and better than that of Judaism and

Christianity, to speak nothing of Zoroastrianism which is not

monotheism at all, being a belief in two gods.”· Now there

can be no doubt that the Christian conception of God is’, in

several ways, superior to the Mahomedan conception. God

is represented by the Christians as a more righteous, more

merciful, more holy and more loving being than the God of

the Koran. In another way, the theism of Christianity is

certainly inferior to that of the Koran. Christianity teaches

the doctrine of Trinity which is virtually a belief in three

gods. and in this respect the Koran teaches a stricter monotheism

than Christianity. But it is difficult to understand how

Mahomedanism can claim to teach a better theism than

Judaism; because both are equally monotheistic or equally

dualistic. Both raise Satan to a position all but equal to

that of God, and thus equally mar the purity of their

monotheism. Both have the same conception of the Divine

character; and the anthropomorphic, vacillating, and

revengeful Jehovah of the Jews finds an exact counterpart

in the Allah of the Koran, who is described as an intolerant

and despotic potentate, urging his worshippers to make war

upon, and slay, the infidels.

As for Zoroastrianism, its theism is in no way inferior ,

to that of either Judaism or Mahomedanism. ” Ahurmazda ”

says the Rev. L. H. Mills, “is one of the purest conceptions

which had yet been produced,”::: and-we may add,-is

undoubtedly the prototype ~ of the God of the Koran as

well as the God of the Bible. We shall revert to this

subject in detail later on it The great value of Mahomed’s

doctrine of the unity of God lies in its being a protest against

the degenerate Christianity of his time and the polytheism

of the Arabs among whom he lived. But however superior

to the belief of his contemporaries, the theism of the Koran

can hardly be said to be superior to that of Judaism. The

claim of the Koran, therefore, to be an independent

revelation of God, on the plea of teaching a better theism

than Judaism and Zoroastrianism, to which it can be

traced, is untenable.

हदीस : चोरी की सज़ा

चोरी की सज़ा

आयशा बतलाती है-”अल्लाह के पैग़म्बर ने एक-चौथाई और उससे अधिक दीनार की चोरी करने वालों के हाथ काट डाले“ (4175)। अबू हुरैरा, पैगम्बर को यह कहते बतलाते हैं-”उस चोर पर अल्लाह की लानत है जो एक अंडा चुराता है और जिसका हाथ काट डाला जाता है। और उस चोर पर भी जो रस्सी चुराता है और उसका हाथ काट डाला जाता है“ (4185)।

 

हदीस में कुरान की पुष्टि ही की गई है। कुरान में कहा है-”और जो चोरी करे, वह मर्द हो या औरत, उसके हाथ काट डालो। यह उनके किये की सज़ा और अल्लाह की तरफ से इबरत है। और अल्लाह सबसे जबर्दस्त और साहिबे-हिकमत (बुद्धिमान) है“ (5/38)। अनुवादक दो पृष्ठ की एक लम्बी टिप्पणी देकर समझाते हैं कि ”इस्लाम द्वारा विहित सामाजिक सुरक्षा की योजना को दृष्टि में रखते हुए ही कुरान चोरी के लिए हाथ काट डालने की सज़ा निर्धारित करता है“ (टि0 2150)।

 

आयशा इसी तरह का एक और मामला बयान करती हैं। मक्का की विजय के अभियान के समय एक औरत ने कोई चोरी की। यद्यपि मुहम्मद की प्रिया उसामा बिन ज़ैद ने उसकी ओर से पैरवी की, तथापि उस औरत का हाथ काट डाला गया। आयशा कहती हैं कि ”यह एक सही प्रायश्चित था“ (4188)। अनुवादक हमें विश्वास दिलाते हैं कि इस सज़ा के बाद ”उस औरत की आत्मा में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया“ (टि0 2152)।

author : ram swarup

 

HADEES : FLOGGING COULD BE POSTPONED

FLOGGING COULD BE POSTPONED

If a woman has just delivered and there is an apprehension that flogging might kill her, she may be spared �until she is alright� (4225).

�AlI says: �O people, impose the prescribed punishment upon your slaves, those who are married and those not married, for a slave-woman belonging to Allah�s Messenger had committed adultery, and he committed me to flog her.  But she had recently given birth to a child and I was afraid that if I flogged her I might kill her.  So I mentioned that to Allah�s Messenger and he said �You have done well� � (4224).  The Prophet was a merciful man.

On the basis of this hadIs, Muslim jurists conclude that flogging can be spread over several days, depending on the physical condition of the offender; and if he is sick, the flogging can be postponed until he recovers.

author : ram swarup

हदीस : हदूद

हदूद

पन्द्रहवीं किताब में इस्लाम की दंड-संहिता, हदूद, का विवेचन है। इस पुस्तक को अहादीस कुरान अथवा सुन्ना में निरूपित दंड-विधान से संबंधित हैं। इनमें चोरी और मामूली डकैती के लिए अंगभंग की सजा, परस्त्री-गमन के लिए पत्थरों से मार डालने की सज़ा, कुमारी-गमन के लिए सौ करोड़ की सज़ा, शराब पीने के लिए भी अस्सी कोड़ों की सज़ा और इस्लाम छोड़ने पर मौत की सज़ा शामिल हैं। इस सब सज़ाओं का ज़िक्र पहले हो चुका है।

author : ram swarup

 

HADEES : A SLAVE ADULTERESS

A SLAVE ADULTERESS

A more lenient view was taken in cases of adultery involving slave-women.  A slave-woman, even if she was married, was not to be stoned to death, and if she was unmarried, she was liable to half the penalty (fifty strokes).  If a slave-girl is unprotected (unmarried) and �commits adultery, then flog her and if she commits adultery again, then flog her and then sell her even for a rope of hair� (4221).

author : ram swarup

हदीस : दियत (हर्जाना)

दियत (हर्जाना)

मुहम्मद ने रक्तपात-शोध की पुरानी अरब प्रथा को बरक़रार रखा (4166-4174)। अतएव जब एक औरत ने अपनी गर्भवती सौत को लाठी मारी और सौत का गर्भपात हो गया, तो उसके लिए मुहम्मद ने ”उस गर्भ में जो था“ उसके एवज में ”सबसे बढ़िया किस्म के एक मर्द या औरत गुलाम“ को हर्जाने के रूप में निश्चित किया। उस औरत के एक मुखर रिश्तेदार ने हर्जाना माफ़ करने की पैरवी की और तर्क दिया कि ”क्या हमें किसी ऐसे के लिए हर्ज़ाना देना चाहिए जिसने न कुछ खाया और न कोई शोर किया और जो न-कुछ के समान था।“ मुहम्मद ने उसके एतराज को ठुकरा दिया और कहा कि वह ”काफिया-बन्द मुहावरे बोल रहा है, जैसे कि रेगिस्तान के अरब बोलते रहते हैं (4170)।

author : ram swarup

HADEES : A MOSAIC PRACTICE REVIVED

A MOSAIC PRACTICE REVIVED

The punishment of stoning to death (rajm) is Mosaic.  The Old Testament prescribes it for adultery and fornication (Deuteronomy 22:19-23), and also for those who �serve other gods� (Deuteronomy 13:10).  Muhammad retained it for adultery but prescribed death by other means for crimes like apostasy.

Among the Jews themselves, by the time of Muhammad, stoning had fallen into disuse.  According to one tradition, a Jew and a Jewess who had committed adultery were brought to Muhammad.  He asked the Jews what their Torah prescribed for such offenses.  The Jews replied: �We darken their [the culprits�] faces and make them ride on a donkey with their faces turned to the opposite direction.� Muhammad said: �Bring the Torah.� The prescribed punishment was found to be stoning to death.  So �Allah�s Messenger pronounced judgment about both of them and they were stoned,� says �Abdullah, the son of �Umar.  �I was one of those who stoned them, and I saw him [the Jew] protecting her [the Jewess] with his body,� he adds (4211).

Another hadIs gives more details about the same incident.  The Jews sent the two accused to Muhammad, telling their chiefs: �Go to Muhammad; if he commands you to blacken the face and award flogging as punishment, then accept it; but if he gives verdict for stoning, then avoid it.� Muhammad was grieved at this softening of the Scriptures.  But Allah comforted him: �O Messenger, the behaviour of those who vie with one another in denying the truth should not grieve you� (QurAn 5:41).  Allah also told him that �they who do not judge in accordance with what Allah has revealed-they are indeed wrongdoers, they are the iniquitous� (5:45, 47).  The man and woman were stoned to death at Muhammad�s order, and he was happy and thanked Allah: �O Allah, I am the first to revive thy command when they had made it dead� (4214).

author : ram swarup

हदीस : मुसलमान और मृत्युदंड

मुसलमान और मृत्युदंड

एक मुसलमान को जो ”यह गवाही दे कि अल्लाह के सिवा अन्य आराध्य नहीं, और मैं (मुहम्मद) उस का रसूल हूँ“ सिर्फ़ तभी मृत्यु-दंड दिया जा सकता है, जब वह शादीशुदा होते हुए परस्त्री-गामी हो, अथवा जब उसने किसी को मार डाला हो (अनेक इस्लामी न्यायविदों के अनुसार किसी मुसलमान को मार डाला हो) अथवा यदि उसने इस्लाम का त्याग किया हो (4152-4155) अनुवादक हमें बतलाते हैं कि इस्लाम के न्यायविदों में इस बात पर लगभग सहमति है कि इस्लाम त्यागने की सजा मौत है। जो लोग ऐसी सजा को बर्बर मानते हैं, उन्हें इसके बारे में अनुवादक की मार्जना और युक्ति पढ़नी चाहिए (टि0 2132)।

author : ram swarup