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पादरी लालबिहारी डे से शास्त्रार्थ : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

हुगली में महर्षि का हुगली कालेज के प्राध्यापक (प्राचार्य भी

रहे) से ईसाईमत विषयक शास्त्रार्थ हुआ। ऋषि के जीवनी लेखकों

ने प्रा0 दे से उनके शास्त्रार्थ का उल्लेख किया है। श्रीदज़ ने

एतद्विषयक जो संस्मरण लिखे हैं, उन्हें हम यहाँ देते हैं।

‘‘अगले चार दिन तक हमारी परीक्षा रही, हम परीक्षा में व्यस्त

रहे, तथापि हम कम-से-कम एक बार ऋषि-दर्शन को जाया करते

थे। एक दिन हमने पण्डितजी (ऋषिजी) के पास रैवरेण्ड लाल

बिहारी दे को जो हुगली कॉलेज में प्राध्यापक थे, देखा। उनके साथ

कुछ और पादरी भी थे। वे पण्डितजी के साथ ईसाईमत की

विशेषताओं पर गर्मागर्म वादविवाद में व्यस्त थे। अल्प-आयु के

होने के कारण हम शास्त्रार्थ की युक्तियों को तो न समझ सके और

न उस शास्त्रार्थ की विशेषताओं व गज़्भीरता को अनुभव कर सके,

परन्तु एक बात का हमें विश्वास था कि श्रोताओं पर पण्डितजी की

अकाट्य युक्तियों एवं चमकते-दमकते तर्कों का जो सर्वथा मौलिक

व सहज स्वाभाविक थे, अत्यन्त उज़म प्रभाव पड़ा। लोग उनकी

वक्तृत्व कला, बाइबल सज़्बन्धी उनके विस्तृत ज्ञान से बड़े प्रभावित

हुए। जब मैं एफ0ए0 में पढ़ता था तो पादरी लालबिहारी दे ने

भी इस तथ्य की पुष्टि की थी।1

 

यह मन गढ़न्त गायत्री!: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज अपने व्याख्यानों  में

अविद्या की चर्चा करते हुए निम्न घटना सुनाया करते थे। रोहतक

जिला के रोहणा ग्राम में एक बड़े कर्मठ आर्यपुरुष हुए हैं। उनका

नाम था मास्टर अमरसिंहजी। वे कुछ समय पटवारी भी रहे। किसी

ने स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज को बताया कि मास्टरजी को एक

ऐसा गायत्री मन्त्र आता है जो वेद के विज़्यात गायत्री मन्त्र से न्यारा

  1. रावण जोगी के भेस में (उर्दू) है। स्वामीजी महाराज गवेषक थे ही। हरियाणा की प्रचार यात्रा

करते हुए जा मिले मास्टर अमरसिंह से।

मास्टरजी से निराला ‘गायत्रीमन्त्र’ पूछा तो मास्टरजी ने बताया

कि उनकी माताजी भूतों से बड़ा डरती थी। माता का संस्कार बच्चे

पर भी पड़ा। बालक को भूतों का भय बड़ा तंग करता था। इस

भयरूपी दुःख से मुक्त होने के लिए बालक अमरसिंह सबसे पूछता

रहता था कि कोई उपाय उसे बताया जाए। किसी ने उसे कहा कि

इस दुःख से बचने का एकमात्र उपाय गायत्रीमन्त्र है। पण्डितों को

यह मन्त्र आता है।

मास्टरजी जब खरखोदा मिडिल स्कूल में पढ़ते थे। वहाँ एक

ब्राह्मण अध्यापक था। बालक ने अपनी व्यथा की कथा अपने

अध्यापक को सुनाकर उनसे गायत्रीमन्त्र बताने की विनय की।

ब्राह्मण अध्यापक ने कहा कि तुम जाट हो, इसलिए तुज़्हें गायत्री

मन्त्र नहीं सिखाया जा सकता। बहुत आग्रह किया तो अध्यापक

ने कहा कि छह मास हमारे घर में हमारी सेवा करो फिर

गायत्री सिखा दूँगा।

बालक ने प्रसन्नतापूर्वक यह शर्त मान ली। छह मास जी

भरकर पण्डितजी की सेवा की। जब छह मास बीत गये तो अमरसिंह

ने गायत्री सिखाने के लिए पण्डितजी से प्रार्थना की। पण्डितजी का

कठोर हृदय अभी भी न पिघला। कुछ समय पश्चात् फिर अनुनयविनय

की। पण्डितजी की धर्मपत्नी ने भी बालक का पक्ष लिया तो

पण्डितजी ने कहा अच्छा पाँच रुपये दक्षिणा दो फिर सिखाएँगे।

बालक निर्धन था। उस युग में पाँच रुपये का मूल्य भी आज

के एक सहस्र से अधिक ही होगा। बालक कुछ झूठ बोलकर कुछ

रूठकर लड़-झगड़कर घर से पाँच रुपये ले-आया। रुपये लेकर

अगले दिन पण्डितजी ने गायत्री की दीक्षा दी।

उनका ‘गायत्रीमन्त्र’ इस प्रकार था-

‘राम कृष्ण बलदेव दामोदर श्रीमाधव मधुसूदरना।

काली-मर्दन कंस-निकन्दन देवकी-नन्दन तव शरना।

ऐते नाम जपे निज मूला जन्म-जन्म के दुःख हरना।’

बहुत समय पश्चात् आर्यपण्डित श्री शज़्भूदज़जी तथा पण्डित

बालमुकन्दजी रोहणा ग्राम में प्रचारार्थ आये तो आपने घोषणा की

कि यदि कोई ब्राह्मण गायत्री सुनाये तो एक रुपया पुरस्कार देंगे,

बनिए को दो, जाट को तीन और अन्य कोई सुनाए तो चार रुपये

देंगे। बालक अमरसिंह उठकर बोला गायत्री तो आती है, परन्तु गुरु

की आज्ञा है किसी को सुनानी नहीं। पण्डित शज़्भूदज़जी ने कहा

सुनादे, जो पाप होगा मुझे ही होगा। बालक ने अपनी ‘गायत्री’ सुना

दी।

बालक को आर्योपदेशक ने चार रुपये दिये और कुछ नहीं

कहा। बालक ने घर जाकर सारी कहानी सुना दी। अमरसिंहजी की

माता ने पण्डितों को भोजन का निमन्त्रण भेजा जो स्वीकार हुआ।

भोजन के पश्चात् चार रुपये में एक और मिलाकर उसने पाँच रुपये

पण्डितों को यह कहकर भेंट किये कि हम जाट हैं। ब्राह्मणों का

दिया नहीं लिया करते। तब आर्यप्रचारकों ने बालक अमरसिंह को

बताया कि जो तू रटे हुए है, वह गायत्री नहीं, हिन्दी का एक दोहा

है। इस मनगढ़न्त गायत्री से अमरसिंह का पिण्ड छूटा। प्रभु की

पावन वाणी का बोध हुआ। सच्चे गायत्रीमन्त्र का अमरसिंहजी ने

जाप आरज़्भ किया। अविद्या का जाल तार-तार हुआ। ऋषि दयानन्द

की कृपा से एक जाट बालक को आगे चलकर वैदिक धर्म का एक

प्रचारक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। केरल में भी एक ऐसी घटना

घटी। नरेन्द्रभूषण की पत्नी विवाह होने तक एक ब्राह्मण द्वारा रटाये

जाली गायत्रीमन्त्र का वर्षों पाठ करती रही

वेदज्ञान मति पापाँ खाय : प्रा जिज्ञासु

वेदज्ञान मति पापाँ खाय

यह राजा हीरासिंहजी नाभा के समय की घटना है। परस्पर

एक-दूसरे को अधिक समझने की दृष्टि से महाराजा ने एक शास्त्रार्थ

का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री मुंशीरामजी

लासानी ग्रन्थी ने यह पक्ष रज़्खा कि सिखमत मूलतः वेद के विरुद्ध

नहीं है। इसका मूल वेद ही है। एक ज्ञानीजी ने कहा-नहीं, सिखमत

का वेद से कोई सज़्बन्ध नहीं। श्री मुंशीरामजी ने प्रमाणों की झड़ी लगा

दी। निम्न प्रमाण भी दिया गया-

दीवा बले अँधेरा जाई, वेदपाठ मति पापाँ खाई।

इस पर प्रतिपक्ष के ज्ञानीजी ने कहा यहाँ मति का अर्थ बुद्धि नहीं

अपितु मत (नहीं) अर्थ है, अर्थात् वेद के पाठ से पाप नहीं जा

सकता अथवा वेद से पापों का निवारण नहीं होगा। बड़ा यत्न करने

पर भी वह मति का ठीक अर्थ बुद्धि न माने तब श्री मुंशीरामजी ने

कहा ‘‘भाईजी! त्वाडी तां मति मारी होई ए।’’ अर्थात् ‘भाईजी

आपकी तो बुद्धि मारी गई है।’’

इस पर विपक्षी ज्ञानीजी झट बोले, ‘‘साडी क्यों  त्वाडी मति

मारी गई ए।’’ अर्थात् हमारी नहीं, तुज़्हारी मति मारी गई है। इस पर

पं0 मुंशीराम लासानी ग्रन्थी ने कहा-‘‘बस, सत्य-असत्य का

निर्णय अब हो गया। अब तक आप नहीं मान रहे थे अब तो मान

गये कि मति का अर्थ बुद्धि है। यही मैंने मनवाना था। अब बुद्धि से

काम लो और कृत्रिम मतभेद भुलाकर मिलकर सद्ज्ञान पावन वेद

का प्रचार करो ताकि लोग अस्तिक बनें और अन्धकार व अशान्ति

दूर हो।’’

 

सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर आपत्तियाँ और  उनका उत्तर – राजेन्द्र जिज्ञासु

 

सत्यार्थ प्रकाश प्रकरण पर अदुल गनी व खलील खान ने जो आक्षेप किया है, उसका विवरण निम्न प्रकार है। पहली बात तो यह आक्षेप ही गलत है, क्योंकि ऋषि दयानन्द कुरान पढ़ना या अरबी भाषा जानते ही नहीं थे।

शाह रफी अहमद देहलवी के उर्दू अनुवाद का जो अन्य मौलवियों ने देवनागरी या हिन्दी में अनुवाद किया है, स्वामी जी ने उसी को ही ज्यों का त्यों लिया है। अनुभूमिका में साफ लिखा है, यदि कोई कहे कि यह अर्थ ठीक नहीं है, तो उसको उचित है कि मौलवी साहिबों के तर्जुमों का पहले खण्डन करे, पश्चात् इस विषय पर लिखे, क्योंकि यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिए है। दो लोगों ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदह समुल्लास का सुरा तहरीम 66 आयत 1 से 5 पर ऋषि ने दो किस्सा या कहानी है लिखा।

आक्षेपकर्ता ने यह कहानी कुरान में नहीं है, ऐसा लिखा तथा कहा- जब यह कहानी नहीं है कुरान में फिर दयानन्द ने क्यों लिखा? अतः दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। विरोध यही है।

इसका उत्तर है कि कुरान की आयतों के उतरने का कारण है जिसे शानेनुजूल कहा जाता है, अर्थात् किस बिना पर यह आयत उतरी? या किस आधार पर यह आयत उतरी ? वजह क्या थी? इसे शानेनुजूल कहा जाता है।

तो सुरा तहरीम का शाने नुजूल के सभी अनुवाद कर्त्ताओं ने कुरान के फुटनोट में लिखा है, वह अनुवाद उर्दू, हिन्दी व अंग्रेजी सब में है, और विस्तार में बुखारी शरीफ हदीस, व शाही मुस्लिम हदीस में प्रत्येक सुरा का शानेनुजूल लिखा है।

अतः इन आयतों में स्वामी जी ने दो कहानी है लिखा है, परन्तु कहानी को स्वामी जी ने उद्धृत नहीं किया, मैं उन दोनों क हानी को लिखता हूँ उमूल मोमेनीन (मुसलमानों की मातायें) अर्थात् हजरत मुहमद सःआःवःसः की सभी बीबीयाँ, सभी मुसलमानों की मातायें हैं, विधवा होने पर भी वह किसी से निकाह नहीं कर सकतीं, और न कोई मुसलमान उनसे निकाह कर सकता, क्योंकि माँ जो ठहरीं। हजरत जैनब नामी बीवी के पास हजरत साहब शहद पीने को जाया करते थे। हुजूर की सबसे कमसिन पत्नी हजरत आयशा ने एक और पत्नी हजरत हफसा दोनों ने परामर्श कर पति हजरत मुहमद साहब से कहा कि दहन मुबारक से मगाफीर की बू आती है, चुनान्चे आपने क्या खाया?

जवाब में हुजूर ने कहा- अगर शहद पीने से बू आती है, तो आइन्दा मैं शहद का इस्तेमाल नहीं करुँगा। पहली कहानी यह है, और आयत का शानेनुजूल यह है। (मैंने कसम खाली है, तुम किसी से मत कहना)

दूसरी कहानी है कि हजरत साहब ने एक काम को न करने की कसम खा लिया तो अल्लाह ने यह आयत उतारी- ऐ नबी क्यों हराम करते हो उस चीज को? जिसे अल्लाह ने हलाल किया है तुहारे लिए, अपनी बीविओं के खुशनुदियों के लिए (प्रसन्न के लिए)। हजरत हफसा के घर गए, वह मईके गई भी तो हुजूर ने मारिया, कनीज, के साथ एखतलात किया, हफसा ने दोनों को कमरे में देख लिया- हुजूर ने कसम खाली थी न करने को। तफसीर हक्कानी – पृ.125

एक बार हजरत साहब ने एक पत्नी हफसा से कहा, दूसरों से कहने को मना किया पर हजरत हफसा ने हजरत आयशा नामी पत्नी से कह दी । जिस पर अल्लाह ने पत्नियों को डाँट लगाते हुए कहा कि नबी अगर तुम लोगों को तलाक दें, तो उनकी पत्नियों की कमी नहीं, जिसे कुरान में अल्लाह ने कहा।

असा रबुहू इन तल्लाका ‘कुन्ना अई’ युब दिलाहू अजवाजन खैरम मिन कुन्ना मुसलिमातिम मुमिनातिन, कानेतातिन, तायेनातिन, सायेहातिन, सईये बातिय वा अबकरा। तहरीम – आ. 5

इन दो कहानी का ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में उल्लेख किया है, जो कुरान तथा हदीस में आयत का शानेनुजूल ही इस प्रकार है।

कुरान का अंग्रेजी अनुवादक पिक्यल व एन.जे. दाऊद, हिन्दी अनुवाद नवल किशोर ने भी लिखा है तथा उर्दू अनुवादकों ने भी लिखा है। अवश्य यह लिखना मैं युक्ति-युक्त समझता हूँ उर्दू अनुवादक ने लिखा यह किस्सा पादरियों ने अपने मन से मिला दिया है।

विचारणीय बात है कि ऋषि दयानन्द ने इसी आयत की समीक्षा में लिखा है, अल्लाह क्या ठहरा मुहमद साहब के घर व बाहर का इन्तेजाम करने वाले मुलाजिम ठहरा?

जरा सोचे तो सही कि कुरान का अल्लाह समग्र मानव मात्र का होने हेतु मानव मात्र के लिए उपदेश होना था कुरान का उपदेश।

किन्तु मानव मात्र का उपदेश तो क्या है, नबी के पति-पत्नी का घरेलू वार्तालाप ही अल्लाह का उपदेश है। समग्र कुरान में इस प्रकार अनेक घटनाएँ हैं। यहाँ तक कि नबी पत्नी बदचलन है या नहीं हैं, कुरान में अल्लाह गवाही दे रहे हैं। सुरा नूर-24 आयत 6 पर देखें।

बल्लजीना यरमूना अजवाजहुम व लम या कुल्लाहुम शुहदाऊ इल्ला अन फुसुहुम फ शहादतो अहादेहिम अरबयो शहादतिम बिल्ला हे इन्नाहू लन्स्सिादेकीन।

अब समीक्षा में ऋषि दयानन्द जी ने अपना विचार ही तो अभिव्यक्त किया है, न कि कुरान में यह क्यों लिखा है, यह पूछा?

अपने विचार अभिव्यक्त करने की छूट भारतीय संविधान में सबको है, और मानव बुद्धि परख होने हेतु किसी चीज को मानने के लिए बुद्धि का प्रयोग तो करना ही चाहिये। दयानन्द तो दोषी तब होते, जब अपनी मनमानी बातों को कुरान की आयतों के साथ मिलाते? उन्होंने तो मात्र कुरान की बातों को सामने रखा।

आक्षेप कर्ता ने सुरा कदर जो संया 97 है आयत 1 से 4 को लिखा है, तथा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप किया है, कुरान में क्या कहा वह प्रथम प्रस्तुत करता हूँ।

तहकीक नाजिल किया हमने कुरान को बीच रात कदर के, और क्या जाने तू के क्या है रात कदर की, रात कदर की बेहतर है, हजार महिने से, उतरते हैं फरिश्ते और रूह पाक अपने परवार दिगार के  हुक्म से, हजार चीजों को लेकर अपने वास्ते, सलामती है वह तुलुय हो फजर। आक्षेप कर्ता को चाहिये था, दयानन्द को गभीरता से पढ़कर कुरान में सभी प्रश्नों को जानने का प्रयत्न करना, क्योंकि दयानन्द ने जो प्रश्न किया है, कुरान से उसका जवाब कुरानविदों के पास नहीं है।

कुरान में कई जगह कहा गया कि कुरान को बरकत वाली रात में उतारा, यहाँ तक कि उल्लहा ने कसम खाकर कहा। एक रात में कुरान को उतारा, किन्तु पूरी कुरान की आयतों को दो भागों में बाँटा गया, मक्की व मदनी में, अर्थात् प्रत्येक सुरा के प्रथम में लिखा है कि यह सुरा मक्का में और यह मदीना में उतारी गई आदि। दयानन्द का कहना सही है कि समग्र कुरान एक ही बार में उतरी? या कालान्तर में? क्योंकि इसका विरोध कुरान से ही होता है।

जो पवित्र आत्मा हजरत जिब्राइल को उतरना इस आयत में माना गया जो ऋषि ने वह पवित्र आत्मा कौन है लिखा, अल्लाह तक पहुँचने में जिब्राइल को पचास हजार साल लगते हैं, तो कुरान को उतरने में कितने वर्ष लगे?

सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप कर्ताओं ने सुरा बकर-संया 2 आयत 25 से 37 तक का उल्लेख किया है।

सुरा बकर आयत 25 में लिखा- बशारत हैं उनके लिए जो नेक अमल करेंगे, अल्लाह उनको जन्नत में दाखिल करायेंगे, जिसके नीचे नहरे हैं, तरह-तरह के मेवे खाने को मिलेंगे, मेवे (फल) देखने में एक जैसा होगा पर स्वाद अलग-अलग है। खिलाने वाला कहेगा- अरे इसे खाकर देखें इसका स्वाद ही अलग है और वहाँ हुर गिलमों, पवित्र शराब तथा परिन्दों का गोश्त का कबाब भी खाने को मिलेगा, यह प्रमाण पूरी कुरान में अनेक बार आया है। यहाँ तक कि हम उमर औरतें, दिल बहलाने वाली औरतें, बड़ी-बड़ी आँख वाली जैसे मोती का अण्डा, रेशम का कपड़ा पहनकर जिससे तन दिखाई दे सोने के कंगन पहन कर सामान परिवेशन करेंगी- बहुत जगह कुरान में लिखा है।

ऋषि दयानन्द जी ने मात्र जानकारी लेनी चाही कि दुनिया में स्त्री, पुरुष जन्म लेते व मरते हैं, पर जन्नत में रहने वाली सुन्दर स्त्रियाँ अगर सदाकाल वहाँ रहती हैं? तो क्या वह एक जगह रहते -रहते ऊब नहीं जाती होंगी? जब तक कयामत की रात नहीं आवेगी, तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे?

मेरे विचारों से सत्यार्थ प्रकाश में दर्शाये गए इन्हीं प्रश्नों को तीस हजारी कोर्ट से न पूछ कर उस्मानगनी व खलील खान को चाहिये था- डॉ. मुति मुकररम से ही पूछते। अब मुति साहब ने इन लोगों को जवाब देने के बजाय सुझाव दे डाला- कोर्ट में जा कर पूछो कि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यह क्यों लिखा?

किन्तु दयानन्द ने जो कुछाी लिखा है, वह कुरान में पहले से ही मौजूद है। अगर कुरान में यह बात न होती तो ऋषि दयानन्द यह न पूछते कि उन सुन्दरी स्त्रियों का एक जगह रहने में मन में घबराहट होती या नहीं? जवाब तो कुरान विचारकों को देना चाहिये। सुरा बकर-आयत 31 से 37 में सत्यार्थ प्रकाश पर जो आरोप है, वह भी निराधार है। अल्लाह ने आदम को सभी चीजों का नाम बता दिया, और फरिश्तों से पूछा कि अगर तुम सच बोलने वाले हो, तो उन चीजों का नाम बताओ। पर वह तो सच बोलने वाले ही थे, तो कहा हम तो उतना ही जानते हैं जितना तू ने हमें सिखाया।

इतने में अल्लाह ने आदम से पूछा, तो वह सभी नाम बता दिया। फिर अल्लाह ने कहा- हम बता नहीं रहे थे तुहें? जाव इन्हें सिजदा करो।

सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ऐसे फरिश्तों को धोखा दे कर अपनी बड़ाई करनााुदा का काम हो सकता है?

इसमें दयानन्द की क्या गलती? अल्लाह ने कुरान में कहा, व अल्ला मा आदमल असमा आ कुल्लाहा सुमा अराजा हुम अललमल इकते।

दयानन्द का कहना है कि जिस फरिश्ते ने आसमानों, और जमीनों में अल्लाह की इतनी इबादत की, अल्लाह ने जिसे आबिद, जाबिद, शाकिर, सालेह, खाशेय आदि नामों की उपाधि दी, और चीजों का नाम नहीं बताया, अब उसी की लाई गई मिट्टी से आदम को बनाकर सभी नाम बताना? क्या यह अल्लाह का धोखा नहीं?

क्या यह अल्लाह का पक्षपात नहीं? मात्र दयानन्द ही क्यों, कोईाी बुद्धि परख मानव इसे दगा ही मानेगा। क्या यह अल्लाह का काम हो सकता है?

अवश्य कुरान में इसकी चर्चा और भी कई जगहों पर हैं, जैसा संया 7 अयराफ में 12 से 19 तक लिखा है, और यहाँ तो उस फरिश्ते ने अल्लाह के सामने अंगुली नचा कर कहा, काला फबिमा अगवई तनी ला अकयूदन्नालहुम सिरातकल मुस्ताकीम-गुमराह किया तू ने मुझको, मैं भी उसे गुमराह करूँगा जो तेरे सीधे रास्ते पर होगा उसे आगे से पीछे से, दाँई और बाँई से उसे गुमराह करूँगा।

अब देखें अल्लाह ने उस शैतान को रोक नहीं पाया, और कहा- जो मेरे रास्ते पर होगा उसे तू गुमराह नहीं कर पायगा। शैतान ने कहा- मैं उसे ही गुमराह करूँगा जो तेरे रास्ते पर होगा, और आदम को गुमराह कर दिखाया।

यह सभी बातें कुरान में ही मौजूद है कि अल्लाह अगर शैतान के पास निरुत्तर हो और कोई मानव अपनी अकल पर ताला डाल कर सत्य बचन महाराज कहे तो इसमें ऋषि दयानन्द की क्या गलती है?

सुरा-2 आयत 37 पर जो आक्षेप है वह देखें, अल्लाह ने कहा- आदम तुम अपने जोरू के साथ वाहिश्त में रहो जहाँ मर्जी, जो मर्जी खाब पर नाजिदीक न जाव उस दरत के गुनहगार हो जावगे, और निकाल दिये जावगे यहाँ से- व कुलना या आदमुस्कुन अनता व जाब जुकल जन्नाता आदि

अब ऋषि दयानन्द ने जो लिखा- देखिये, खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने को दिया और फिर उसे कहा निकलो, क्या खुदा नहीं जानता था कि आदम मेरा आदेश का उल्लंघन कर उसी फल को खायेगा, जिसे मैंने मना किया? स्वामी जी ने आगे लिखा कि जिस वृक्ष के फल को आदम को खाने से मना किया, आखिर अल्लाह ने उसे बनाया किसके लिए था? यह सभी प्रश्न तो दयानन्द का है, पर उल्टा दयानन्द के अनुयाइयों से पूछा जा रहा है कि दयानन्द ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा? यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।

जहाँ तक अल्लाह की अल्पज्ञता की बात है, वह तो कुरान से ही सिद्ध हो रही है, अल्लाह को पता नहीं था कि शैतान आदम को बहका देगा तथा शैतान हमारे हुकम का ताबेदार नहीं रहेगा आदि। दूसरी बात है कि अल्लाह ने आदम को बताया कि शैतान तुहारा खुला दुश्मन है, उसके बहकावे में मत आना।

और इधर शैतान को वर दे दिया कयामत के दिन तक जिन्दा रहने का, हर मानव के नस, नाड़ी तक पहुँचने का, व सीधे रास्ते पर चलने वालों को गुमराह (पथभ्रष्ट) करने का, अल्लाह ने ही मुहल्लत दी। ऋषि दयानन्द को इसीलिए लिखना पड़ा- यह काम अल्लाह का नहीं, और न ही यह उसकी ग्रन्थ की हो सकती है।

यहाँ अल्लाह ने चोर को चोरी करने व गृहस्थ को सतर्क रहने वाली बात की है। इसका प्रमाण भी कुरान के दो स्थानों पर मौजूद है, जैसा-सुरा इमरान आयत 54 तथा अनफाल-आ030- व मकारू व मकाराल्लाहू बल्लाहू खैरुल मारेकीन।

अर्थ- मकर करते हैं वह, और मकर करता हूँ मैं, और मैं अच्छा मकर करने वाला हूँ। ध्यान देने योग्य बात है कि मकर का अर्थ है धोखा और अल्लाह से अच्छा धोखा करने वाला कोई नहीं, जो अल्लाह खुद कर रहे हैं अपनी कलाम में, अब अल्लाह व अल्लाह की कलाम की दशा क्या होगी? ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में यही तो जानकारी इस्लाम के शिक्षाविदों से लेना चाह रहे हैं। अब प्रश्नों का जवाब देने के बजाय कोई कहे कि सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा,उसका तो ईश्वर ही मालिक है। एक बात और भी जानने की है, ऊपर लिख आया हूँ शानेनुजूल को, कि आयत उतारने का कारण क्या है। इसका मतलब भी यह निकला- अल्लाह सर्वज्ञ नहीं है, जो ऋषि ने अनभिज्ञ लिखा है। अगर कारण नहीं होता, तो अल्लाह आयत नहीं उतरते। कारण हो सकता है, यह ज्ञान कारण से पहले अल्लाह को नहीं था।

कुरान में ही अल्लाह ने कहा- ला तकर बुस्सलाता व अनतुम सुकाराआ। अर्थ- न पढ़ो नमाज जब कि तुम शराब की नशे में हो।

अर्थात् शराब पीकर नमाज नही पढ़नी चाहिये।

अब इसका शाने नुजूल देखें, एक सहाबी (मुहमद साहब का साथी) शराब पीकर नमाज पढ़ा रहे थे, नशे की दशा में कुरान की आयतों को पढ़ने का क्रम भंग किया, तो दूसरे ने हजरत से शिकायत की, तो अल्लाह ने यह आयात जिब्राइल के माध्यम से उतारी।

यह आयत उतरते ही सभी अरबवासी जो घर-घर शराब बनाते थे, सब ने शराब बहादी नालाओं में शराब बहने लगा, आदि।

इससे यह पता चला कि शराब पीने से नशा होता है, यह ज्ञान अल्लाह को नहीं था वरना शराब तो प्रथम से ही हराम होना था? अगर वह सहाबी कुरान पढ़ने का क्रम नशा में भंग न करते, तो अल्लाह को यह आयत उतारना ही नहीं पड़ता।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यही तर्क पूर्ण बातें की हैं, अगर कोई अक्ल में दखल न दे, या अक्ल में ताला डालना चाहे तो ऋषि दयानन्द की क्या गलती है? दयानन्द ने साफ कहा है कि हठ और दुराग्रह को छोड़ मानव मात्र का भलाई जिससे हो, सत्य के खातिर काम करना चाहिये, मानव बुद्धि परख होने हेतु प्रत्येक कार्य को बुद्धि से करना चाहिये, क्योंकि इसी का ही नाम मानवता है। सुरा 2 आयत 87 को अगर ध्यान से पढ़ते तो शायद आक्षेप न कर पाते, क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानन्द ने कुरान में कही गई बातों को ज्ञान विरुद्ध तथा सृष्टि नियम विरुद्ध सिद्ध किया है। हजरत मूसा को अल्लाह ने अगर किताब दी, उसमें क्या कमी थी जो पुनः ईसा को अलग किताब देनी पड़ी? उससे पहले दाऊद को भी किताब दी थी, उसमें कौन-सी बातों को अल्लाह कहना भूल गये थे, जो अन्तिम में कुरान के रूप में हजरत मुहमद को अल्लाह ने दिया?

अल्लाह का ज्ञान पूर्ण है अथवा अधूरा? क्योंकि परमात्मा का ज्ञान पूर्ण होना आवश्यक है और सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वभौमिक होना चाहिये। कुरान इसमें खरा नहीं उतरता। हजरत मूसा ने मौजिजा दिखाया और नबिओं ने भी मौजिजा दिखाया, मौजिजा का अर्थ है चमत्कार। अगर चमत्कार तब होते थे, तो अब क्यों नहीं?

अगर चमत्कार से हजरत मरियम कुँवारी अवस्था में हजरत ईसा को जन्म देना मान लिया जाय, तो क्या सृष्टि नियम विरुद्ध नहीं होगा? कोई मेडिकल साइंस का जानने वाला इसे सही ठहरा सकता है? इसे अल्लाह ने सुरा अबिया-आयत-88 में क्या कहा, देखें- वल्लाति अहसनत फरजहा फनाफखना फीहा मिर रूहिना वज अलनाहा वबनहा

– कि अल्लाह ने मरियम के शर्मगाह (गुप्तइन्द्रियों) में फूँक मार दिया और मरियम गर्भवती हो गई।

कोई भी बुद्धिमान इस बात को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वरीय कार्य कैसे मान सकते हैं? ऋषि दयानन्द ने लिखा है, भोले-भाले लोगों को बहकाया गया है।

अगर ऋषि दयानन्द अपने कार्यकाल में इस पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश को न लिखते, तो आर्य जाति को बचने का रास्ता बन्द था। सारा भारत कुरान का मानने वाला बन जाता, या बलात् बना दिया जाता। दयानन्द का बहुत बड़ा उपकार है इस पुस्तक को लिखने का।

गुरुदत्त विद्यार्थी ने कहा- अगर सारी सपत्ति बेचकर भी सत्यार्थ प्रकाश खरीदना पढ़े तो भी इसका मूल्य कम है। मैं इसे अवश्य खरीदता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

महात्मा हंसराज के तीन कथनः : राजेन्द्र जिज्ञासु

महात्मा हंसराज के तीन कथनःमहात्मा हंसराज के व्यायानों व लेखों में मुझे तीन अनमोल मोती मिले। आपने कहा कि एक बार ला. सांईदास ऋषि का ऐश्वरवाद, उसकी ही उपासना पर व्यायान सुनकर भीड़ के साथ जब बाहर निकले तो एक ब्रह्म समाजी नेता ने भाषण सुनकर कहा कि मेरा तो अब तक सारा ही जीवन निरर्थक गया। मैंने जड़पूजा-मूर्तिपूजा का ऐसा खण्डन कभी नहीं किया, जैसा आज निर्भीक स्वामी दयानन्द ने किया है। वहाँ महात्मा जी ने इस ब्रह्म समाजी नेता का नाम नहीं दिया। मेरा मत है कि यह ला. काशीराम जी प्रधान पंजाब ब्रह्मसमाज  हो सकते हैं। वह महर्षि की निडरता, विद्वत्ता व अटल ईश्वर विश्वास की बहुत प्रशंसा किया करते थे।

दूसरा कथन जो मुझे प्रेरणाप्रद लगता है, वह यह है कि महात्मा जी हजरत मुहमद की एक हदीस सुनाकर आर्यों के  खरेपन की पहचान बताया करते थे। किसी ने मुहमद जी से पूछा कि आपकी सबसे प्यारी बीवी कौन है? प्रश्नकर्त्ता समझता था कि पैगबर को हजरत आयशा (जो सबसे छोटी थी) से अत्यधिक प्रेम है सो यह उसी का नाम लेंगे, परन्तु रसूल अल्लाह ने हजरत खदीजा का नाम लिया और कहा कि वह उस समय मुझ पर ईमान लाई, जब मुझे कोई नहीं जानता मानता था।

यह हदीस सुनाकर महात्मा जी कहा करते थे- धर्मप्रचार- ऋषि के मिशन के लिए कौन कष्ट झेलता व समय देता है? जो ऋषि मिशन का दीवाना है, वही महात्मा जी की दृष्टि में बड़ा व आदरणीय है।

महात्मा जी का तीसरा प्रिय कथन मेरे लिये यह है कि हम यह चाहते हैं कि मेरा तो पाँवाी गीला न हो, परन्तु देश जाति का बेड़ा पार हो जाये।

आओ! हम सब सोचें कि हम भी क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आते। वैदिक धर्म पर जब वार हो तो उत्तर दूसरे दें। वेद पर, ऋषि पर प्रहार हो या अंधविश्वासों से लड़ना हो- मर्तिपूजकों से, ईसाइयों से, मुसलमानों से, रजनीश आदि नास्तिकों,ाोगवादियों व गुरुडम वाले तिलक कण्ठीधारी बाबाओं से, जातिवादी तत्त्वों पर लिखने बोलने के लिए कोई और आगे आये, परन्तु मैं अपने पद से चिपका रहूँ। कितने वर्षों तक आप प्रधान व मन्त्री रहे- यह कोई इतिहास नहीं। इतिहास दुःख कष्ट झेलने को कहते हैं। कभी किसी से टक्कर ली? कभी कोई अभियोग चला? भारत सरकार ने निजाम की जीवनी दिल्ली से छापी। उसको महिमा मण्डित किया, फिर श्रद्धाराम की आड़ में ऋषि की निन्दा की। आपके मुख पर टेप लगी है। आप कुछ बोलने का साहस ही न कर पाये। उत्तर में दो पक्तियाँ तो लिख देते। भारत सरकार को एक रोष भरा पत्र तो लिख सकते थे। संघर्ष करना जिनके बस की बात नहीं, जो घर में ही कलह जगाने के लिए बेचैन रहते हैं, उनकी करनी व कथनी से इतिहास नहीं बन सकता। ऐसे लोग रिपोर्ट का पेट तो भर सकते हैं, परन्तु इतिहास ऐसे लोगों को कूड़ेदान में फेंक देता है। इतिहास पं. लेखराम, श्याम भाई, भक्त फूलसिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण सिंह व पं. रुचिराम ही रच सकते हैं। इतिहास निर्माता तो स्वामी चिदानन्द अनुभवानन्द जी थे, जिन्हें पद प्रेमियों ने बिसार दिया है।

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः- दिल्ली के करोलबाग क्षेत्र के एक माननीय, सुयोग्य और अनुभवी आर्य पुरुष ने योगी श्री सच्चिदानन्द व आदित्यपाल कपनी द्वारा प्रचारित ‘योगी का आत्म चरित’ पुस्तक में वर्णित सामग्री पर चलभाष पर कुछ चर्चा की। आपने कहा,‘‘मुझे तड़प झड़प’ पढ़े बिना चैन नहीं आता’’। सन् 1857 के विप्लव में महर्षि के भाग लेने पर प्रकाश डालने को आपने कहा।

मेरा निवेदन है कि मेरठ से इस विषय की उत्तम पुस्तक का नया संस्करण छप चुका है। स्वामी पूर्णनन्द जी महाराज ने इसमें दूध का दूध, पानी का पानी कर दिया है। मैं भी श्री दीनबन्धु, सच्चिदानन्द महाराज व आदित्यपाल सिंह के एतद्विषयक दुष्प्रचार को एक षड्यन्त्र मानता हूँ। आप निम्न बिन्दुओं पर विचार करेंः-

  1. 1. ऋषि जी ने यह तथाकथित सामग्री अपने किसी भक्त, शिष्य वैदिक धर्मी को क्यों न दिखाई या लिखवाई?
  2. 2. ऋषि ने ठाकुर मुकन्दसिंह व भोपाल सिंह जी को अपने साहित्य के प्रसार के लिए कोर्ट में मुखतार बनाया। परोपकारिणी सभा का प्रधान महाराणा सज्जनसिंह जी को बनाया । इन्हें तो अपनी तीस वर्ष की घटनाओं का एक भी पृष्ठ न लिखवाया। इसका कारण क्या है?
  3. 3. ऋषि दयानन्द सरीखे दूरदर्शी ने एक ही को यह कहानी क्यों न लिखवाई? चार को क्यों लिखवाई? गोपनीयता क्या चार को लिखवाने से रह सकती थी?
  4. 4. इन चार ब्रह्मचारियों का ऋषि के नाम कभी कोई पत्र किसी ने देखा? क्या ऋषि ने इन्हें कभी कोई पत्र लिखा?
  5. 5. इन बगले भक्तों में से बंगाल से ऋषि की सेवा के लिए क्या कोई अजमेर पहुँचा?
  6. 6. महर्षि के दाहकर्म में ब्रह्म समाजी की इस चौकड़ी में से अजमेर किसी ने दर्शन दिये क्या?
  7. 7. ऋषि के मुख से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की बहुत प्रशंसा व बड़ाई इन धोखाधड़ी करने वालों ने करवाई है। इतिहास प्रदूषित करने वाले इन नवीन पुराणकारों को इतना भी तो पता नहीं कि कोलकाता की पौराणिकों की जिस सभी ने दक्षिणा लेकर ऋषि के विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी थी, उस व्यवस्था पर ईश्वरचन्द्र जी विद्यासागर तथा गो-मांस भक्षण के प्रचारक राजेन्द्र लाल मित्र के भी हस्ताक्षर थे।
  8. 8. ऋषि जब लँगोटधारी थे, वस्त्र नहीं पहनते थे, तब शरीर पर मिट्टी रमाते थे। इसी अवस्था में एक बार छलेसर पधारे। छलेसर वालों ने एक मूल्यवान् पशमीना बिछाकर उस पर बैठने की विनती की तो ऋषि ने कहा- यह ठीक नहीं। आपका मूल्यवान् पशमीना गन्दा हो जायेगा। उन्होंने अनुरोध करके वहीं बैठने पर बाध्य किया। छलेसर के ठाकुरों की सेवा के लिये ऋषि ने कभी गुणकीर्तन क्यों न किया? कोई आदर्श संन्यासी तिरस्कार से क्रुद्ध होकर किसी को कोसता नहीं और सत्कार पाकर किसी का भाट बनकर उनके गीत नहीं गाया करता। कोलकाता में कोई अपने यहाँ ठहराने को तैयार नहीं था। क्या ऋषि ने उन्हें कोसा? कहीं भी किसी से ऐसी किसी घटना की ऋषि ने कभी भी चर्चा नहीं की। ब्रह्म समाजियों ने बंगाल में की गई सेवाओं पर ऋषि के मुख से जो प्रशंसा करवाई है- यह ऋषि के चरित्र हनन का षड्यन्त्र है।
  9. 9. महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के तेहरवें समुल्लास में बाइबल की दो आयतों की समीक्षाओं में दार्शनिक विवेचन के साथ सूली व साम्राज्य, विदेशी शासकों की न्यायपालिका व लूट खसूट पर कड़ा प्रहार करके इतिहास रचा है। भारत में अंग्रेजों के न्यायालयों व शोषण पर ऐसी तीखी आलोचना करने वाले प्रथम विचारक व देशभक्त नेता ऋषि दयानन्द थे। महर्षि की अज्ञात जीवनी का ढोल पीटने वालों के ज्ञात इतिहास से ऋषि की निडरता की इन दो समीक्षाओं के महत्त्व का पता ही न चला। इन पर न कभी कुछ लिखा व कहा गया।
  10. 10. महर्षि जब जालंधर पधारे, तब भी विदेशी न्यायपालिका द्वारा गोरों के विदेशी के साथ भेदभाव पर कड़ा प्रहार किया।3 भारतीय की हत्या के दोषी गोरे अपराधी को दोषमुक्त करने पर ऋषि के हृदय की पीड़ा का इन्हें पता ही न चला। पं. लेखराम धन्य थे, जिन्होंने साहस करके यह घटना दे दी। फिर केवल लक्ष्मण जी ने यह प्रसंग लिखा। न जाने अन्य लेखकों ने इसे क्यों न दिया?
  11. 11. ऋषि की प्रतिष्ठा के लिए ऐसी सच्ची घटनायें क्या कम हैं? उन्हें महिमा मण्डित करने के लिए असत्य की, झूठे इतिहास की आवश्यकता नहीं है।

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवाले एक निष्ठावान् आर्य विद्वान्

थे। ‘प्रभुभक्त दयानन्द’ जैसी उत्तम  कृति उनकी ऋषिभक्ति व

आतिथ्य  भाव का एक सुन्दर उदाहरण है। अजमेर के कई पौराणिक

परिवार अपने यहाँ संस्कारों के अवसर पर आपको बुलाया करते

थे। एक धनी पौराणिक परिवार में वे प्रायः आमन्त्रित किये जाते थे।

उन्हें उस घर में चार आने दक्षिणा मिला करती थी। कुछ वर्षों के

पश्चात् दक्षिणा चार से बढ़ाकर आठ आने कर दी गई।

एक बार उस घर में कोई संस्कार करवाकर आचार्य प्रवर लौटे

तो पुत्रों श्री वेदरत्न, देवरत्न आदि ने पूछा-क्या  दक्षिणा मिली?

आचार्यजी ने कहा-आठ आना।

बच्चों ने कहा-आप ऐसे घरों में जाते ही ज़्यों हैं? उन्हें क्या

कमी है?

वैदिक धर्म का दीवाना आर्यसमाज का मूर्धन्य विद्वान् तपःपूत

भद्रसेन बोला-चलो, वैदिकरीति से संस्कार हो जाता है अन्यथा

वह पौराणिक पुरोहितों को बुलवालेंगे। जिन विभूतियों के हृदय में

ऋषि मिशन के लिए ऐसे सुन्दर भाव थे, उन्हीं की सतत साधना से

वैदिक धर्म का प्रचार हुआ है और आगे भी उन्हीं का अनुसरण

करने से कुछ बनेगा।

 

ऋषि की एक ओर दिग्विजयःराजेन्द्र जिज्ञासु

सर सैयद अहमद खाँ को ऋषि का भक्त प्रशंसक बताकर उनका गुणगान कराना भी एक फैशन-सा हो गया । श्री रामगोपाल का पठनीय ग्रन्थ ‘इण्डियन मुस्लिम’ पढ़ें। सर सैयद का गुणकीर्तन करने से न तो देश का हित हो रहा है और न ऋषि मिशन को लाभ मिल रहा है। लाभ तो अलगाववादी तत्त्वों को मिल रहा है। हमारे विचार में सर सैयद ने ऋषि की संगत का लाभ उठाकर इस्लाम को लाभान्वित किया है। उस दिग्विजय पर हमारे विचारकों-प्रचारकों को बोलना चाहिये। हमारे पुराने विद्वानों व शास्त्रार्थ महारथियों ने 50-60 वर्ष पूर्व जितनी खोज कर दी, सो कर दी। अब इस विषय में क्या हो रहा है, ये सब जानते हैं। मैंने इस विषय में अब तक जो लिखा है उससे आगे कुछ और निवेदन किया जाता है। यह महर्षि का पुण्यप्रताप है कि सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को यह सुझाया व समझायाः-

  1. 1. कुरान मजीद में बदर इत्यादि के युद्धों में फरिश्तों की सहायता का वर्णन मिलता है। इससे उन युद्धों में फरिश्तों का आना सिद्ध नहीं होता।
  2. 2. हजरत ईसा की बिना पिता के उत्पत्ति किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होती।
  3. 3. नबी पर जो वही (ईश्वरीय ज्ञान-आयतें) नाजिल होती है, वह किसी सन्देशवाहक (फरिशता) के द्वारा नहीं उतरती। यह उसके हृदय में उतरती है।
  4. 4. कुरान से जिन्नों की सत्ता, उनमें भी नर व नारी का होना तथा आगे से उत्पन्न होना सिद्ध नहीं होता। जिन्न मनुष्य को हानि पहुँचा सकते हैं-ऐसी बातें जो कुरान में वर्णित हैं, सृष्टि नियम विरुद्ध हैं। कुरान के भाष्यकारों ने यहूदियों का अनुकरण करके ऐसी व्यायायें की हैं।
  5. 5. कुरान में पैगबर के किसी भी चमत्कार का उल्लेख नहीं मिलता। चमत्कार नबूअत की युक्ति नहीं हो सकती।

पाठकों को बता दें कि कुरान के एक भाष्यकार ने कुरान में आये ‘जिन्न’ शद के बहुवचन ‘जिन्नात’ का कतई कुछ भी अर्थ नहीं दिया। सर सैयद ने इनका अग्नि से उत्पन्न होना तो झुठलाया ही है, साथ ही इनमें नर व नारी का होना भी नहीं माना। इस्लामी विचारधारा में सर सैयद की सोच ने जो हड़कप मचाया, यह महर्षि दयानन्द की बहुत बड़ी दिग्विजय है।

यह भी स्मरण रहे कि कुरान में अल्लाह द्वारा धरती व आकाश को छह दिन में बनाने का उल्लेख मिलता है। सर सैयद ने इसका प्रयोजन भी यहूदियों के मत का प्रतिवाद करना ही बताया है।2 प्रश्न यह है कि सर सैयद को भी यह तभी सूझा, जब महर्षि ने ईसाई मत की इस मान्यता का खण्डन किया ।

सर सैयद ने भले ही सीधे वैदिक धर्म को ग्रहण नहीं किया, उसने कुरान को एवं इस्लाम को वैदिक विचारधारा के  रंग में रंग दिया।

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखःराजेन्द्र जिज्ञासु

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखः- आर्य समाज के निष्ठावान् कार्यकर्त्ताओं, उपदेशकों, प्रचारकों व संन्यासियों से हम एक बार फिर सानुरोध यह निवेदन करेंगे कि ‘समाचार प्रचार’ की बजाय सैद्धान्तिक प्रचार पर शक्ति लगाकर संगठन को सुदृढ़ करें। समाज में जन शक्ति होगी तो राजनीति वाले पूछेंगे। राजनेता वोट व नोट की शक्ति को महत्त्व देंगे। बिना शक्ति के राजनेताओं का पिछलग्गू बनना पड़ता है। आर्य समाज को अपने मूलभूत सिद्धान्तों की विश्वव्यापी दिग्विजय और मौलिकता के साथ-साथ अपने स्वर्णिम इतिहास को प्रतिष्ठापूर्वक प्रचारित करने पर अपनी शक्ति लगानी चाहिये।

‘परोपकारी’ के पाठकों को यह जानकारी दी जा चुकी है कि भारत सरकार ने पं. श्रद्धाराम फिलौरी की एक जीवनी छापी है। इसमें बिना सोचे-विचारे ऋषि दयानन्द पर निराधार प्रहार किये गये हैं। ‘इतिहास की साक्षी’ नाम की पुस्तक छपवाकर सभा ने पं. श्रद्धाराम के शदों में ऋषि की महानता व महिमा तो दर्शा ही दी है। साथ ही पं. श्रद्धाराम के साथी पं. गोपाल शास्त्री जमू एवं पं. भानुदत्त जी के ऋषि के प्रति उद्गार विचार भी दे दिये हैं।

यहाँ एक तथ्य का अनावरण करना आवश्यक व उपयोगी रहेगा। हम सबको पूरे दलबल से इसे प्रचारित करना होगा। परोपकारी में प्रकाशित काशी शास्त्रार्थ पर प्रतिक्रिया देते हुए एक सुयोग्य सज्जन ने एक प्रश्न पूछा तो उसे बताया गया कि इस घटना के 12 वर्ष पश्चात् देश के मूर्धन्य सैंकड़ों विद्वानों का जमघट वेद से मूर्तिपूजा का एक भी प्रमाण न दे सका। इससे बड़ी ऋषि की विजय और क्या होगी?

सत सभा लाहौर के प्रधान संस्कृतज्ञ पं. भानुदत्त मूर्तिपूजा के पक्ष में नहीं थे। पं. श्रद्धाराम आदि पण्डितों के दबाव में इन्होंने ऋषि का विरोध करने के लिए नवगठित मूर्तिपूजकों की सभा का सचिव बनना स्वीकार कर लिया। प्रतिमा पूजन के पक्ष में व्यायान भी दिये।

जब कलकत्ता की सन्मार्ग संदर्शिनी सभा ने महर्षि को बुलाये बिना और उनका पक्ष सुने बिना उनके विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी तब पं. भानुदत्त जी ने बड़ी निडरता से महर्षि के पक्ष में एक स्मरणीय लेख दिया। इनकी आत्मा देश भर के दक्षिणा लोभी पण्डितों की इस धाँधली को सहन न कर सकी।

श्री पं. भानुदत्त जी का कड़ा व खरा लेख कलकत्ता के ही एक पत्र में उक्त सभा के 19 दिन पश्चात् प्रकाशित हुआ था। आपने लिखा, ‘‘हा नारायण! यह क्या हो रहा है? एक पुरुष है और 100 ओर से उसे घसीटता है (अर्थात् घसीटा जाता है)। राजा राममोहन राय उठे, उसके बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर आये, फिर केशवचन्द्र सेन आये, और उनके बाद स्वामी दयानन्द जाहिर हो रहे हैं। सपादक महाशय! जब यह दशा हमारे देश की है, तो फिर बिना तर्क और वादियों के ग्रन्थ देखे घर में ही फैसला कर देना किसी प्रकार से योग्य नहीं प्रतीत होता, और न तो इससे वादियों के मत का खण्डन और साधारण समाज की सन्तुष्टि ही हो सकती है। सब यही कहेंगे कि सब कोई अपने-अपने घर में अपनी स्त्री का नाम ‘महारानी’ रख सकते हैं। अवतार आदि के मानने वालों तथा वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा के स्थापन करने वालों को पूछो कि कभी दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ और ‘वेदभाष्य’ का प्रत्यक्ष विचार भी किया है? ………….प्रिय भ्राता! यदि कोई मन में दोख न करे तो ऐसी सभा के वादियों को इस बात के कहने का स्थान मिलता कि सरस्वती जी (ऋषि दयानन्द) के समुख होकर शास्त्रार्थ कोई नहीं करता, अपने-अपने घरों में जो-जो चाहे ध्रुपद गाते हैं।’’1

जिस पं. भानुदत्त को ऋषि के मन्तव्यों के खण्डन के लिए आगे किया गया, वही खुलकर लिख रहा है कि महर्षि के सामने खड़े होने का किसी में साहस ही नहीं। ऋषि जीवन के ऐसे-ऐसे प्रेरक प्रसंग तो वक्ता भजनोपदेशक सुनाते नहीं। ऋषि की वैचारिक मौलिकता व दिग्विजय की चर्चा नहीं होती। अज्ञात जीवनी की कपोल कल्पित कहानियाँ सुनाकर जनता को भ्रमित किया जाता है।

मनुष्यों को खाने को नहीं मिलता : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

यह युग ज्ञान और जनसँख्या  के विस्फोट का युग है। कोई भी

समस्या हो जनसँख्या की दुहाई देकर राजनेता टालमटोल कर देते

हैं।

1967 ई0 में गो-रक्षा के लिए सत्याग्रह चला। यह एक कटु

सत्य है कि इस सत्याग्रह को कुछ कुर्सी-भक्तों ने अपने राजनैतिक

स्वार्थों के लिए प्रयुक्त किया। उन दिनों हमारे कालेज के एक

प्राध्यापक ने अपने एक सहकारी प्राध्यापक से कहा कि मनुष्यों को

तो खाने को नहीं मिलता, पशुओं का क्या  करें?

1868 में, मैं केरल की प्रचार-यात्रा पर गया तो महाराष्ट्र व

मैसूर से भी होता गया। गुंजोटी औराद में मुझे ज़ी कहा गया कि

इधर गुरुकुल कांगड़ी के एक पुराने स्नातक भी यही प्रचार करते हैं।

मुझे इस प्रश्न का उत्तर  देने को कहा गया। जो उत्तर  मैंने महाराष्ट्र में

दिया। वही अपने प्राध्यापक बन्धु को दिया था।

मनुष्यों की जनसंज़्या में वृद्धि हो रही है यह एक सत्य है,

जिसे हम मानते हैं। मनुष्यों के लिए कुछ पैदा करोगे तो ईश्वर मूक

पशुओं के लिए तो उससे भी पहले पैदा करता है। गेहूँ पैदा करो

अथवा मक्की अथवा चावल, आप गन्ना की कृषि करें या चने की या

बाजरा, जवारी की, पृथिवी से जब बीज पैदा होगा तो पौधे का वह

भाग जो पहले उगेगा वही पशुओं ने खाना है। मनुष्य के लिए

दाना तो बहुत समय के पश्चात् पककर तैयार होता है।

वैसे भी स्मरण रखो कि मांस एक उज़ेजक भोजन है। मांस

खानेवाले अधिक अन्न खाते हैं। अन्न की समस्या इन्हीं की उत्पन्न

की हुई है। घी, दूध, दही आदि का सेवन करनेवाले रोटी बहुत कम

खाते हैं। मज़्खन निकली छाछ का प्रयोग करनेवाला भी अन्न

थोड़ा खाता है। इस वैज्ञानिक तथ्य से सब सुपरिचित हैं, अतः

मनुष्यों के खाने की समस्या की आड़ में पशु की हत्या के कुकृत्य

का पक्ष लेना दुराग्रह ही तो है।