Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

जिगर का खून दे देकर ये पौधे हमने पाले हैंःराजेन्द्र जिज्ञासु

जिगर का खून दे देकर ये पौधे हमने पाले हैंः- एक बार माननीय डॉ. धर्मवीर जी ने आज पर्यन्त आर्यों पर चलाये गये अभियोगों का इतिहास क्रमशः प्रकाशित करने की घोषणा की थी। मैंने कई आर्य विद्वानों पर चलाये गये अभियोगों पर कई अंकों में लिखा था। किसी समाज ने, किसी सज्जन ने परोपकारी को कोई जानकारी न ोजी। मैंने भी लिाना बन्द कर दिया। आर्यों पर सर्वाधिक अभियोग मिर्जाइयों ने चलाये। किस-किस की चर्चा करूँ? मैंने दसवीं की परीक्षा दी थी या कॉलेज में प्रवेश पाया ही था कि रबे कादियाँ जी (इन्द्रजीत जी के कुल के एक निडर अद्भुत वक्ता) ने गुरुद्वारा गोबिन्दगढ़ (मन्दिर के साथ) कादियाँ में मिर्जाइयों का उत्तर देने के लिए एक जलसा किया था। रब जी का और मेरा भाषण हुआ। श्री राम शरण प्रेमी आर्य कवि की पुरजोश कवितायें हुईं। मिर्जाइयों ने धर्म निरपेक्षता की आड़ में हम तीनों को जेल भिजवाना चाहा। रब जी ने सूझबूझ से डी.सी. के सामने हम तीनों का पक्ष रखा। हमारा कुछ न बिगाड़ा जा सका। मेरे पिता जी को पता ही न चला कि मेरे ऊपर केस बनने वाला है।
कादियाँ में ऐसी घटनायें प्रायः घटती रही हैं। सन् 1996 में स्वामी सपूर्णानन्द जी ने पं. लेखराम जी के बलिदान पर मेरा खोजपूर्ण ओजस्वी भाषण करवाया। तब पुलिस सक्रिय हो गई। मुझे कम से कम दो वर्ष तक जेल में भिजवाने पर मिर्जाई तुले बैठे थे। स्वामी सपूर्णानन्द जी मेरे साथ जेल जाने को तैयार बैठे थे। हम फिर बच गये।
पं. निरञ्जनदेव जी पर और रब जी पर इसी विषय का कांग्रेस ने तुष्टीकरण व वोट बैंक के लिये लबा केस चलाकर दोनों को बहुत यातनायें दीं। हमने वे भी हँसते-हँसते सहीं। पं. शान्तिप्रकाश जी पर पं. लेखराम जी के बलिदान विषयक इल्हामों की शव परीक्षा पर ऐतिहासिक केस चला था। श्री महाशय कृष्ण सरीखे नेता पण्डित जी की पेशी पर लाहौर से गुरदासपुर आते रहे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी और दीवान बद्रीदास के कुशल नेतृत्व में आर्य समाज एक बार फिर अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। पं. शान्तिप्रकाश भट्टी से कुन्दन बनकर निकले। हाईकोर्ट से पण्डित जी बड़ी शान से केस जीत गये।
हाथों में हथकड़ियाँ, पाँवों में बेड़ियाँ डाली गईं। टाँगों में घावों के कारण लहू बह रहा था, तब जेल से बाहर आने पर झंग (पश्चिमी पंजाब) में रामचन्द्र जी (स्वामी सर्वानन्द जी) ने आपकी पट्टी की। किस-किस केस व अग्नि-परीक्षा का उल्लेख किया जावे? हमने लहू देकर वाटिका को सींचा है। रक्तरंजित इतिहास रचा है।
अब इतिहास प्रदूषणकार एक उठता है, वह मिर्जाइयों की बोली बोलकर लिखता है कि मिर्जाई मत का खण्डन पं. लेखराम का उद्देश्य था, जबकि पं. लेखराम जी ने सदा आत्म रक्षा में ही लिखा। यह कोर्टों व सरकार ने माना। ईद के दिन पण्डित जी की हत्या कतई नहीं हुई। यह मिर्जाई प्रचार सर्वथा मिथ्या है। एक मिर्जाई चैनल भी सुना है कि विदेश से यही प्रचार करता चला आ रहा है। उ.प्र. के कई युवकों ने उनके दुष्प्रचार का परोपकारी में उत्तर देने के लिए उनकी सामग्री भेजी है। उनके स्वर में स्वर मिलाकर ‘आर्य सन्देश’ के 28 मार्च के अंक में ईद के दिन पण्डित जी की हत्या होना लिखा है।
पं. देवप्रकाश जी, पं. शान्तिप्रकाशजी से लेकर राजेन्द्र जिज्ञासु तक हमारे विद्वानों ने इस विषय पर सहस्र्रों पृष्ठ लिखे हैं। आर्य सन्देश ने तो यह अनर्गल लेख देकर हम सबकी हत्या करके रख दी है। हम अपनी व्यथा किसे सुनावें? हम जानते हैं, ये लोग आर्य समाज पर दया नहीं करेंगे। हम फिर भी यही कहेंगे कि कोई इन्हें समझावे। जिगर का खून दे दे कर ये पौधे हमने पाले हैं।
रही उत्तर देने की बात। इस विषय पर मेरा छः सौ पृष्ठों का ग्रन्थ आर्यवीरों ने छपने को दे दिया है। इसमें उद्धृत पुस्तकों, पत्रिकाओं के सैंकड़ों प्रमाण पढ़कर विरोधी भी दंग रह जायेंगे। इस ग्रन्थ के प्रसार में पं. लेखराम जी विषयक सब मिथ्या विषैले लेखों का उत्तर मिल जायेगा। यह अपने विषय से सबन्धित अब तक का सबसे बड़ा और प्रमाणों से परिपूर्ण ग्रन्थ है।

‘‘मेरे लिये सन्ध्योपासना करिये?: राजेन्द्र जिज्ञासु

‘‘मेरे लिये सन्ध्योपासना करिये?

एक विचित्र प्रश्न उ.प्र. से किसी ने किया है-‘‘यदि मैं किसी से अपने लिये सन्ध्योपासना गायत्री जप या यज्ञ कराऊँ तो इसका पुण्य लाभ मुझे क्यों न मिलेगा?’’
ऐसे भाई यह बतायें कि आपके लिये व्यायाम कोई करे तो लाभ किसको मिलेगा? रोगी की बजाय उसका कोई भाई बन्धु औषधि का सेवन करे तो क्या रोगी रोगमुक्त होगा? एक पौराणिक ने हैदराबाद सत्याग्रह में जाने वाले एक आर्य को बड़ी श्रद्धा से कहा, ‘‘भाई! आप जेल में मेरे लिए गायत्री जप करते रहना। मैं चाररुपये सैंकड़ा के दर से तेरे घर पर भुगतान करता रहूँगा। मुझे तू यह सूचना पहुँचा देना कि कितना जप मेरे लिये किया है? यह घटना श्री मेहता जैमिनि जी को स्वयं उस आर्य ने अबाला में सुनाई। श्री ओमप्रकाश वर्मा जी को भी इसका ज्ञान होगा। उस आर्य ने सत्याग्रह में भाग लेकर यश पाया और गायत्री जप से कमाई भी कर ली। उसे पता था कि जप से गायत्री क्रय करने वाले को कोई लाभ नहीं होगा। अब उदूसरों के लिए यज्ञ करने वाले संगठन भी मैदान में आ गए हैं और लुभावनी घोषणाएँ कर रहे हैं। पाप पुण्य, धर्म-कर्म के लेन-देन का व्यापार तो याज्ञिकों पाठियों के लिए बहुत अच्छा है, परन्तु है तो वेद विरुद्ध।’’
वेद का आदेश उपदेश हैः-‘‘स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व।’’
स्वयं कर्म कर और स्वयं फल चख। यही कल्याणी शिक्षा है।

बड़ों की सेवा के प्रेरक प्रसंगः- राजेन्द्र जिज्ञासु

बड़ों की सेवा के प्रेरक प्रसंगः-

एक जन्मजात दुःखिया के दुष्प्रचार के प्रतिवाद के लिए हमने पूज्य विद्वान् महात्माओं की आर्यों द्वारा सेवा के कई दृष्टान्त देकर लिखा था कि आर्य समाज ने महात्मा आनन्द स्वामी जी आदि को अन्तिम वेला में फेंक दिया, ये सब घृणित व मिथ्या प्रचार हैं। ऐसे प्रचारकों ने आप तो जीवन भर कभी किसी की सेवा की नहीं, सस्ते उपदेश देते हैं।

महात्मा आनन्द भिक्षु जी के पुत्र जैमिनि जी ने भक्तों से घिरे अपने पिताजी को अन्तिम दिनों में सेवा का अवसर देने का अनुरोध किया। मेरे सामने महात्मा जी पर दबाव बनाया। सेवा उनकी हो ही रही थी। मैंने ऐसे किसी व्यक्ति को पूज्य मीमांसक जी और आचार्य उदयवीर जी के अन्तिम दिनों में उनके पास फटकते नहीं देखा था। कुछ लोग पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक से श्री धर्मवीर जी, विरजानन्द जी आदि विद्वानों के मतभेद को उछालते रहे। मीमांसक जी ने अपनी अमूल्य बौद्धिक सपदा तो धर्मवीर जी को ही सौंपी। क्यों? मीमांसक जी के निधन पर केवल परोपकारिणी सभा से जुड़े विद्वान् ही रेवली पहुँचे। और सभायें भी पहुँचती तो अच्छा होता। मान्य विरजानन्द जी, श्रीमती ज्योत्स्ना ने पहुँचकर आर्य समाज की शोभा बढ़ाई। आचार्य सत्यानन्द जी वेदवागीश तथा यह सेवक भी वहाँ था। पहलेाी पता करने कई बार गये। पूज्यों को छोड़ने व फेंकने का प्रचार कोरी शरारत है।

जीव कर्म करने में स्वतन्त्र-विश्व ने मानाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

इन्हीं दिनों एक लोकप्रिय हिन्दी दैनिक में एक विचारक का इस विषय पर लेख प्रकाशित हुआ। विनीत केवल शीर्षक ही पढ़ सका। लेख कहीं रखकर खो बैठा। उस लेखक के लेख के शीर्षक का तो भाव यह था कि सृष्टि में मनुष्य को ही कर्म करने या निर्णय लेने की स्वतन्त्रता है। देखा जाये तो यह कथन एक आंशिक सत्य है। वर्षों पूर्व लेखक ने मनोविज्ञान की पुस्तकों में पढ़ा था, आप घोड़े को जल के पास तो ले जा सकते हैं, परन्तु उसे धक्के से पानी नहीं पिला सकते। प्यास होगी तो वह अपनी इच्छा से जल पियेगा। इससे सिद्ध हुआ कि जीव मात्र को निर्णय लेने की-कर्म करने की स्वतन्त्रता है।
एक समय था, जब आर्यसमाजी विद्वानों को इस विषय पर शास्त्रार्थ करने पड़ते थे। मत-पंथों के ग्रन्थों में तो सब कुछ ईश्वरेच्छा अथवा अल्लाह की मर्जी का सिद्धान्त मिलता है। रही सही कमी शैतान द्वारा पाप करवाने की मान्यता से पूरी हो जाती है।
महर्षि दयानन्द ने धार्मिक जगत् में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त रखकर इस विषय में कई शास्त्रार्थ किये। इससे पूरे विश्व में हलचल मच गई। उसी युग में ‘विकासवाद’ का भौतिक दर्शन पूरे विश्व में चर्चित हुआ। इस मत नेाी परोक्ष रूप में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता को स्वीकार किया। प्राकृतिक निर्वाचन का नियम विकासवाद का एक आधारभूत सिद्धान्त है। चुनाव करना कर्त्ता की स्वतन्त्रता को मानना है। जड़ प्रकृति तो विचार शून्य, इच्छा शून्य व क्रिया शून्य है। चेतन सत्ता ही चुनाव कर सकती है।
विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवर शेख ने यजदान (भगवान्) व शैतान के संवाद को काव्य में अत्युत्तम शैली में प्रस्तुत करते हुए महर्षि दयानन्द के एतद्विषयक दर्शन का डंका बजाया है। परोपकारी में इससे पहले भी लिखा जा चुका है कि पूरे विश्व की न्यायपालिका महर्षि के घोष ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ को स्वीकार कर रही है। अब शैतान व भगवान् को पाप (शर) व पुण्य (खैर) के लिये उत्तरदायी नहीं माना जाता। वैदिक दर्शन के विश्वव्यापी प्रभाव को समझकर आर्य समाज वेद प्रचार में पूरे दल बल से लगेगा तो यश मिलेगा। यह कार्य स्कूलों के बस का नहीं है। स्कूलों-कॅालेजों में वैदिक दर्शन को कौन जानता-मानता है?

सेवा कर्म कमाते रहेः- राजेन्द्र जिज्ञासु

सेवा कर्म कमाते रहेः- आर्य समाज के इतिहास से सेवा करने की कुछ स्वर्णिम घटनायें दी गईं। पाठकों ने कुछ ऐसे प्रेरक प्रसंग और देने का अनुरोध किया है। दिल्ली क्षेत्र के अथक व सफल प्रचारक स्वामी धर्मानन्द जी (करोलबाग वाले) जीवन की अन्तिम वेला में बहुत रुग्ण व असमर्थ हो गये। आर्य समाज शतादी महोत्सव पर मैंने श्री आचार्य विरजानन्द जी झज्जर को अपने एक दो साथियों सहित उनकी सेवा करते देखा। गर्म जल के लोटे भर-भर कर उन पर डालते जाते थे। वे हाथ हिलाने में असमर्थ थे। श्री विरजानन्द उनके शरीर को मल-मलकर स्नान करवाते मैंने देखे। कौन कहता है कि आर्य समाज अपने सपूतों व सेवकों को असमर्थ होने पर पूछता नहीं? जिन्होंने आप कभी किसी की सेवा नहीं की, वे आर्य समाज के अपयश के लिए ऐसा दुष्प्रचार करते हैं।
कुँवर सुखलाल जी आर्य समाज श्रद्धानन्द बाजार अमृतसर पधारे। तब श्री पं. सत्यपाल जी पथिक उस समाज के पुरोहित थे। ग्रीष्म ऋतु थी। मैं पूज्य कुँवर जी से मिलने व उन्हें सुनने कादियाँ से वहाँ पहुँचा। आर्य मन्दिर में प्रवेश करते ही एक हैण्ड पप हुआ करता था। कुँवर साहब हड्डियों का ढाँचा-सा थे, पर उनके कण्ठ में वही पहले-सा जादू था।
पथिक जी नल को चलाकर जल की बाल्टी भर कर बड़ी, श्रद्धा से कुँवर जी को ऐसे स्नान करवा रहे थे, जैसे कोई संस्कारी पोता दादा को मल-मल कर स्नान करवाता है। मैंने कहा, ‘‘पथिक जी, आप जल निकालें, अब मैं स्नान करवाता हूँ।’’ आपने कहा, ‘‘नहीं! आपके वस्त्र भीगेंगे। आप जल निकालकर देते जायें। स्नान मैं ही करवाऊँगा।’’ कुँवर जी के शरीर पर बर्छी, भालों व लाठियों के किये गये एक-एक घाव के निशान के बारे में पथिक जी पूछते जाते थे-यह निशान कब का है? कैसे घाव हुआ? कुँवर जी बताते जाते और हम सुन-सुनकर आनन्द रस का पान करते गये। मित्रो! सेवा करना सीखो। आपने कभी किसी पूज्य पुरुष की सेवा नहीं की तो आप यह विषैला प्रचार न किया करें कि सब आप जैसे ही हैं।

महात्मा नारायण स्वामी जी के दो ऑपरेशनः- राजेन्द्र जिज्ञासु

महात्मा नारायण स्वामी जी के दो ऑपरेशनः-

एक बार महात्मा नारायण स्वामी जी का लखनऊ में एक बड़ा ऑपरेशन हुआ। पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी व श्रद्धेय उपाध्याय जी ने प्रबल अनुरोध करके महात्मा जी से कहा-हमें पहले ऑपरेशन की तिथि बतायें। हमारे आने पर ही ऑपरेशन करवायें। महात्मा जी क ो उनकी इच्छा का सन्मान करना पड़ा।
देश विभाजन से पूर्व महात्मा जी का एक बड़ा ऑपरेशन लाहौर में हुआ था। क्या आप जानते हैं कि पूज्य महाशय कृष्ण जी के विशेष अनुरोध पर

महात्मा नारायण स्वामी जी को लाहौर में ऑपरेशन करवाना पड़ा था। तब भी उपाध्याय जी आदि अनेक नेता लाहौर जाते रहे।

क्या आप जानते हैं कि सन् 1955 में पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का एक बड़ा ऑपरेशन मुबई में हुआ था। श्री सेठ प्रताप भाई जी ने बहुत सेवा की थी। महाराज तो ईश्वर के विधि-विधान को जानकर ऑपरेशन करवाने को कतई तैयार नहीं थे, परन्तु श्री महाशय कृष्ण जी के हठ के सामने स्वामी जी को झुकना पड़ा। महाशय कृष्ण जी का कथन था कि हम महात्मा नारायण स्वामी जी को मुम्बई न दिखा सके। अब उस चूक को नहीं दोहरायेंगे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने यह कहकर महाशय जी का कहा मान लिया कि आपने कभी हमारा कहा नहीं टाला, अब आपकी यही इच्छा है तो आप मुम्बई दिखा लीजिये। आर्य समाज पर अपने पूज्य पुरुषों को अन्तिम वेला में छोड़ने का दोष देना उचित नहीं है। अपवाद हो सकते हैं। अपनी कमियों को दूर करना तो हमारा कर्त्तव्य है ही। पाठक चाहेंगे तो इस प्रकार की सेवा की पचासों घटनायें क्रमशः देता रहूँगा। यही तो सच्चा इतिहास है। मनुष्य ऐसे प्रेरक प्रसंगों से बहुत कुछ सीखता है।

उत्तर दो और उत्तर देने की कला सीखोः- राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर दो और उत्तर देने की कला सीखोः-
राधा-स्वामी सप्रदाय वाले लबे समय तक बाबा शिवदयाल से महर्षि जी के मन्त्र लेने का प्रचार करते रहे। इस कहानी को गढ़ने वाले ने एक तर्क यह दिया कि सत्यार्थ प्रकाश में उनके मत का खण्डन नहीं है। देर तक आर्य समाज में उनको ऐसा उत्तर न दिया गया जो बोलती बन्द कर दे। पं. चमूपति जी व लक्ष्मण जी की उत्तर देने की शैली का हमारा अयास छूट गया। जालंधर में चमत्कारों पर शास्त्रार्थ में ऋषि ने बाबा शिवदयाल की भी समीक्षा की-यह प्रमाण तत्काल दिया जाना चाहिये था। राधा-स्वामी मत के तीन गुरुओं की पुस्तकों में ऋषि की चर्चा है। खण्डन भी है, परन्तु मन्त्र लेने की कहानी किसी गुरु को न सूझी। जब परोपकारी में यह उत्तर दिया गया तो फिर इसका प्रतिवाद न हो सका।
सिख अब तक ज्ञानी दित्तसिंह से ऋषि के शास्त्रार्थों में पराभव का प्रचार कर रहे हैं। पंजाब में लोग उत्तर चाहते हैं। कोई सभा व लेखक डर के कारण— पं. निरञ्जनदेव जी की प्रेरणा से मैंने उत्तर देते हुए लिखा कि दित्तसिंह स्वयं को सिख नहीं, वेदान्ती लिखता है। किसी भी ऋषि विरोधी पत्र-पत्रिका ने दित्तसिंह से शास्त्रार्थ होने की घटना नहीं दी। कई लेखक उत्तर देने का जोखिम नहीं ले सकते। दिल्ली में एक ने एक ट्रैक्ट लिखकर अपना पता न देकर श्री संजीव का पता दे दिया। उसने वह कटवा दिया। कहीं मुसलमान न भड़क उठें।

इतिहास बोलता है और बोलेगाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

इतिहास बोलता है और बोलेगाः-
हमने ऊपर श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा के कंगाली पर दिये गये व्यायान का उल्लेख किया है। सभव है, किसी लेखक ने कहीं इसकी चर्चा की हो और हमें पता न लगा हो। डेढ़ घण्टा तक विद्वान् वक्ता ने इस विषय पर अपने विचार रखे। यह घटना दिसबर सन् 1887 के अन्तिम दिनों की है। परोपकारिणी सभा के उस उत्सव में भारत भर से दूर-दूर से आर्य भाई-समाजों के प्रतिनिधि आये थे। जहाँ-जहाँ ऋषि जी गये थे, वहाँ से तो विशेष रूप से भक्त श्रद्धालु अजमेर आये।

महर्षि जोधपुर में कई मास तक रहे। वहाँ भी कुछ तो ऋषि भक्त होंगे ही। कौन यह मानेगा कि जोधपुर के सब लोग पाषाण हृदय थे और किसी पर महर्षि का कतई प्रभाव न पड़ा? सन् 1887 के इस उत्सव का जो वृत्तान्त आर्यगजट आदि पत्रों में प्रकाशित हुआ, उससे तो यही पता चलता है कि जोधपुर से तब एक भी व्यक्ति अजमेर न पहुँचा। वह सामन्ती युग था। प्रतापसिंह के आतंक के कारण एक भी व्यक्ति अजमेर आने का साहस न कर सका। प्रतापसिंह की आत्मकथा में भी तो ऋषि के जोधपुर आगमन पर कोई छोटा-सा अध्याय नहीं। इतिहास बोल रहा है और बोलेगा। हम क्या कहें? क्या करें?
-वेद सदन अबोहर-152116

कासगंज समाज का ऋणी हूँ :– राजेन्द्र जिज्ञासु

कासगंज समाज का ऋणी हूँ :-
आर्यसमाज के एक ऐतिहासिक व श्रेष्ठ पत्र ‘आर्य समाचार’ उर्दू मासिक मेरठ का कोई एक अंक शोध की चिन्ता में घुलने वाले किसी व्यक्ति ने कभी देखा नहीं। इसके बिना कोई भी आर्यसमाज के साहित्य व इतिहास से क्या न्याय करेगा? श्रीराम शर्मा से टक्कर लेते समय मैं घूम-घूम कर इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अंक कहीं से खोज लाया। कुछ और भी अंक कहीं से मिल गये। तबसे स्वतः प्रेरणा से इसकी फाईलों की खोज में दूरस्थ नगरों, ग्रामों व कस्बों में गया। कुछ-कुछ सफलता मिलती गई। श्री यशपाल जी, श्री सत्येन्द्र सिंह जी व बुढाना द्वार, आर्य समाज मेरठ के समाज के मन्त्री जी की कृपा व सूझ से कई अंक पाकर मैं तृप्त हो गया। इनका भरपूर लाभ आर्यसमाज को मिल रहा है। अब कासगंज के ऐतिहासिक समाज ने श्री यशवन्तजी, अनिल आर्य जी, श्री लक्ष्मण जी और राहुलजी के पं. लेखराम वैदिक मिशन से सहयोग कर आर्य समाचार की एक बहुत महत्त्वपूर्ण फाईल सौंपकर चलभाष पर मुझ से बातचीत भी की है। वहाँ के आर्यों ने कहा है, हम आपके ऋणी हैं। आपने हमारे बड़ों की ज्ञान राशि की सुरक्षा करके इसे चिरजीवी बना दिया। इससे हम धन्य-धन्य हो गये। आर्य समाचार एक मासिक ही नहीं था। यह वीरवर लेखराम का वीर योद्धा था। पं. घासीराम जी की कोटि का आर्य नेता व विचारक इसका सपादक रहा। इसमें महर्षि के अन्तिम एक मास की घटनाओं की प्रामाणिक सामग्री पं. लेखराम जी द्वारा सबको प्राप्त हुई। वह अंक तो फिर प्रभु कृपा से मुझे ही मिला। उसी के दो महत्त्वपूर्ण पृष्ठों को स्कै निंग करवाकर परोपकारिणी सभा को सौंपे हैं।
पं. रामचन्द्र जी देहलवी तथा पं. नरेन्द्र जी के जन्मदिवस पर इन अंकों पर एक विशेष कार्य आरभ हो जायेगा। इसके प्रकाशन की व्यवस्था यही मेधावी युवक करेंगे।

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन : राजेंद्र जिज्ञासु जी

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :- इस बार केवल एक ही प्रेरक प्रसंग दिया जाता है। नरवाना के पुराने समर्पित आर्य समाजी और मेरे विद्यार्थी श्री धर्मपाल तीन-चार वर्ष पहले मुझे गाड़ी पर चढ़ाने स्टेशन पर आये तो वहाँ कहा कि सन् 1960 में कलायत कस्बा में आर्यसमाज के उत्सव में श्री स्वामी भीष्म जी कार्यक्रम में कूदकर गड़बड़ करने वाले साधु से आपने जो टक्कर ली वह प्रसंग पूरा सुनाओ। मैंने कहा, आपको भीष्म जी की उस घटना की जानकारी कहाँ से मिली? उसने कहा, मैं भी तब वहाँ गया था।
संक्षेप से वह घटना ऐसे घटी। कलायत में आर्यसमाज तो था नहीं। आस-पास के ग्रामों से भारी संख्या में लोग आये। स्वामी भीष्म जी को मन्त्र मुग्ध होकर ग्रामीण श्रोता सुनते थे। वक्ता केवल एक ही था युवा राजेन्द्र जिज्ञासु। स्वामी जी के भजनों व दहाड़ को श्रोता सुन रहे थे। एकदम एक गौरवर्ण युवा लंगडा साधु जिसके वस्त्र रेशमी थे वेदी के पास आया। अपने हाथ में माईक लेकर अनाप-शनाप बोलने लगा। ऋषि के बारे में भद्दे वचन कहे। न जाने स्वामी भीष्म जी ने उसे क्यों कुछ नहीं कहा। उनकी शान्ति देखकर सब दंग थे। दयालु तो थे ही। एक झटका देते तो सूखा सड़ा साधु वहीं गिर जाता।

मुझसे रहा न गया। मैं पीछे से भीड़ चीरकर वेदी पर पहुँचा। उस बाबा से माईक छीना। मुझसे अपने लोक कवि संन्यासी भीष्म स्वामी जी का निरादर न सहा गया। उसकी भद्दी बातों व ऋषि-निन्दा का समुचित उत्तर दिया। वह नीचे उतरा। स्वामी भीष्म जी ने उसे एक भी शब्द न कहा। उस दिन उनकी सहनशीलता बस देखे ही बनती थी। श्रोता उनकी मीठी तीन सुनने लगे। वह मीठी तान आज भी कानों में गूञ्ज रही हैं :-

तज करके घरबार को, माता-पिता के प्यार को,
करने परोपकार को, वे भस्म रमा कर चल दिये……

वे बाबा अपने अंधविश्वासी, चेले को लेकर अपने डेरे को चल दिया। मैं भी उसे खरी-खरी सुनाता साथ हो लिया। जोश में यह भी चिन्ता थी कि यह मुझ पर वार-प्रहार करवा सकता था। धर्मपाल जी मेरे पीछे-पीछे वहाँ तक पहुँचे, यह उन्हीं से पता चला। मृतकों में जीवन संचार करने वाले भीष्म जी के दया भाव को तो मैं जानता था, उनकी सहन शक्ति का चमत्कार तो हमने उस दिन कलायत में ही देखा। धर्मपाल जी ने उसकी याद ताजा कर दी।