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आचार्य सोमदेव जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’

समाधानमहर्षि दयानन्द आर्यावर्त की उन्नति, सुख, समृद्धि का एक कारण यज्ञ को कहतेहैं। महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिखते हैं- ‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’ महर्षि ने यहाँ यज्ञ की महत्ता को प्रकट किया है। यज्ञ से रोग कैसे दूर होंगे? जब हवन की अग्नि में रोगनाशक पदार्थ डालेंगे तब रोग दूर होगें। यज्ञ में माँस आदि पदार्थ डालने से रोग दूर होकर कैसे कभी सुख की वृद्धि हो सकती है? उलटे मांसादि द्रव्य अग्नि में होम करने से तो रोग उत्पन्न हो दुःख की वृद्धि होगी। महर्षि होम से रोग दूर होना और सुख का बढ़ना देख रहे हैं। यज्ञ में मांसादि का डालना कब और क्यों हुआ वह अन्य पाठकों को दृष्टि में रखकर आगे लिखेगें। पहले आपकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। आपने जो यजुर्वेद 21 वें अध्याय के 40-42 मन्त्र उद्धृत किये हैं वह जो उन मन्त्रों का महर्षि ने भाष्य किया है सो ठीक है। इस भाष्य को देखने पर पौराणिकों जैसा भाष्य न लगकर अपितु और दृढ़ता से आर्ष भाष्य दिखता है। यहाँ पाठकों को दृष्टि में रखकर मन्त्र व उसका ऋषि भाष्य लिखते हैं।

(1) होता यक्षदाग्नि ँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाथंस्वाहा मेदसां पृथक् स्वाहा

छागमश्वियाम् स्वाहा मेषं सरस्वत्यै स्वाहाऽऋषभमिन्द्राय

…..पयः सोमः परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज।।

19.40

मन्त्रों को पूरा पदार्थ न लिखकर, जिन पर आपकी जिज्ञासा है उनका अर्थ व मन्त्रों का भावार्थ यहाँ लिखते हैं- (छागम्)  दुःख छेदन करने को (अश्वियाम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करने वालो से (स्वाहा) उत्तम रीति से (मेषम्)सेचन करने हारे को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए।

भावार्थइस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोप्मालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सबके उपकार को करते हैं वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं।

(2) होता यक्षदश्विनौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेताम्…

………मेषस्य वपाया मेदसो जुषताम् हविर्होतर्यज……..

….ऋषभस्य वपाया मेदसो जुषताम्……..   19.41

(छागस्य) बकरा, गौ, भैंस आदि पशु सबन्धी (वपाया) बीज बोने वा सूत के कपड़े आदि बनाने और (मेदसः) चिकने पदार्थ के (हविः) लेने देने योग्य व्यवहार का (जुषेताम्) सेवन करें…………(मेषस्य) मेढ़ा के (वपायाः) बीज को बढ़ाने वाली क्रिया और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) अग्नि में छोड़ने योग्य संस्कार किये हुए अन्न आदि पदार्थ (जुषताम्) सेवन करें…………(ऋषभस्य) बैल की (वपायाः) बढ़ाने वाली रीति और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) देने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करें।

भावार्थ जो मनुष्य पशुओं की संया और बल  को बढ़ाते हैं वे आपाी बलवान् होते और जो पशुओं से उत्पन्न हुए दूध और उससे उत्पन्न हुए  घी का सेवन करते वे कोमल स्वभाव वाले होते हैं और जो खेती करने आदि के लिए इन बैलों को युक्त करते हैं वे धनधान्य युक्त होते हैं।

(3)होता यक्षदश्विनौ सरस्वतीमिन्द्रम…छागैर्नमेषैर्ऋषभैः

सुता …………मधु पिवन्तु मदन्तु व्यन्तु होतर्यज।। 19.42

पदार्थ (छागैः) विनाश करने योग्य पदार्थों वा बकरा आदि पशुओं (न) जैसे तथा (मेषैः) देखने योग्य पदार्थों वा मेढ़ों (ऋषभैः) श्रेष्ठ पदार्थों वा बैलों (सुताः) जो अभिषेक को पाये हुए हों वे।

भावार्थजो संसार के पदार्थों की विद्या, सत्यवाणी और भली भांति रक्षा करने हारे राजा को पाकर पशुओं के दूध आदि पदार्थों से पुष्ट होते हैं वे अच्छे रसयुक्त अच्छे संस्कार किये हुए अन्न आदि जो सुपरीक्षित हों, उनको युक्ति के साथ खा और रसों को पी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के निमित्त अच्छा यत्न करते हैं, वे सदैव सुखी होते हैं।

यहाँ इन मन्त्रों के भाष्य और भावार्थ में कहीं भी पौराणिकता नहीं लग रही है। मन्त्रों में छाग, ऋ षभ, मेष आदि शद आये हैं, उनका महर्षि ने जो युक्त अर्थ था वह किया है। छाग का अर्थ लौकिक भाषा में बकरा होता है किन्तु महर्षि ने छाग का अर्थ दुःख छेदन किया है। मेष का अर्थ सामान्य भेड़ होता है, और महर्षि का अर्थ सेचन करने हारा है। ऐसे ही ऋषभ का सामान्य अर्थ बैल और महर्षि का अर्थ श्रेष्ठ पुरुषार्थ है। जब ऐसे पौराणिकता से परे होकर महर्षि ने वैदिक अर्थ किये हैं तब कै से कोई कह सकता है कि यह पौराणिकों जैसा भाष्य दिखता है। भेड़ बैल, बकरा आदि शद आने मात्र से पौराणिकों जैसा भाष्य नहीं हो जाता।

हाँ यदि महर्षि मन्त्र में आये हुए वपा और मेद का अर्थ चर्बी करके उसकी हवन में आहूति की बात कहते तो यह महर्षि का भाष्य अवश्य पौराणिकों वाला हो जाता किन्तु महर्षि ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा। अपितु वपा का अर्थ महर्षि बीज बढ़ाने वाली क्रिया करते हैं और मेद का अर्थ चिकना पदार्थ जो कि महर्षि ने मन्त्रों के भावार्थ में घी-दूध आदि पदार्थ लिखे हैं।

महर्षि का किया वेद भाष्य तो पौराणिकता से दूर वैदिक रीति का भाष्य है। जो पौराणिकों ने इन्हीं वेद मन्त्रों के अर्थ भेड़, बकरा, बैल आदि पशुओं के मांस को यज्ञ में डालना कर रखे थे, उनको महर्षि ने दूर कर शुद्ध भाष्य किया है। पौराणिक लोगों ने लोक प्रचलित अर्थ वेद के साथ जोड़कर भाष्य किया, जिससे इतना बड़ा अनर्थ हुआ कि संसार के जो सभी मनुष्य एक वेद मत को मानकर चल रहे थे, उसको छोड़ नये-नये मत बनाकर चलने लग गये। यह वही वेदमन्त्रों के अनर्थ करने का परिणाम था।

वपा और मेद का अर्थ चर्बी, वसा लोक में है जो कि यही अर्थ पौराणिकों ने लिया। पौराणिकों को ज्ञात नहीं की वेद में रूढ शद और अर्थों का प्रयोग नहीं है अपितु यौगिक शद और अर्थों का प्रयोग है जो कि महर्षि दयानन्द ने योगिक मानकर ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया है।

यज्ञ में मांस आदि का डालना महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्रह्मणों के आलस्य प्रमाद के कारण हुआ। महर्षि दयानन्द इस  विषय में कहते हैं- ‘‘परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या संदेह?………….।’’

जब ब्राह्मण विद्याहीन हुये तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में तो कथा ही क्या कहानी? जो परपरा से वेदादिशास्त्रों का अर्थ सहित पढ़ने का प्रचार था, वहाी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे। सो पाठ मात्र भी क्षत्रियों आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए, गुरु बन गये, तब छल-कपट-अधर्म भी उनमें बढ़ता चला।…….’’ स.प्र.स. 11।।

यज्ञ में मांसादि का कारण ब्राह्मणों का आलस्य प्रमाद व विषयासक्ति रहा है, यह मान्यता महर्षि दयानन्द की है जो युक्त है।

जब यज्ञों में अथवा यज्ञों के नाम पर पशु हिंसा का प्रचलन हुआ तो अश्वमेघ, गोमेध, नरमेध आदि यज्ञों का यथार्थ स्वरूप न रखकर उल्टा कर दिया अर्थात् अश्वमेघ यज्ञ जो चक्रवर्ती राजा करता था, इसमें इन पोप ब्राह्मणों ने घोड़े के मांस की आहुति का विधान यज्ञ कर दिया। ऐसे गोमेध जो कि गो का अर्थ इन्द्रियाँ अथवा पृथिवी था, जिसमें इन्द्रिय संयमन किया जाता था उस गोमेध यज्ञ में गाय के मांस का विधान इन तथाकथित ब्राह्मणों ने कर दिया। इसके विधान के लिए सूत्रग्रन्थों में ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रक्षेप कर दिया। यज्ञों के यथार्थ अर्थ, स्वरूप को समझकर जो पशु यज्ञ व यजमान् के उपकारक थे, उन पशुओं को मार-मारकर यज्ञकुण्डों में उनकी आहुति देने लगे। धीरे-धीरे अनाचार इतना बढ़ा कि वैदिक मन्त्रों का विनियोग यज्ञों में और उनके माध्यम से पशुहिंसा में होने लगा। जिस प्रकार के मन्त्र ऊपर दिये हैं ऐसे मन्त्रों का विनियोग ब्राह्मण वर्ग यज्ञ में पशुहिंसा के लिए करने लगे थे।

वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा विशेषण रूप में ‘अध्वर’ शद का प्रयोग सैकड़ों स्थानों पर आया है। निघण्टु में ‘ध्वृ’ धातु हिंसार्थक है। अध्वर शद में हिंसा का निषेध है अर्थात् नञ् पूवर्क ध्वृ धातु से अध्वर शद बना है। इस अध्वर शद का निर्वचन करते हुए महर्षि यास्क ने लिखा है- अध्वर इति यज्ञनाम-ध्वरहिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः। (निरुक्त-1.8)

अध्वर यज्ञ का नाम है, जिसका अर्थ हिंसा रहित है। अर्थात् जहाँ हिंसा नहीं होती वह अध्वर=यज्ञ कहलाता है। ऐेसे हिंसा रहित कर्म को भी इन पोपों ने महाहिंसा कारक बना दिया था।

मेध शद ‘मेधृ’ धातु से बना है। मेधृ– मेधाहिंसनयोः संगमे च यह धातुपाठ का सूत्र है। मेधृ धातु के बुद्धि को बढ़ाना, लोगों में एकता या प्रेम को बढ़ाना और हिंसा ये तीन अर्थ हैं। इन तीनों अर्थों में से पोप जी को हिंसा अर्थ पसन्द आया और इससे यज्ञ को भी हिंसक बना दिया। जिस धर्म और समाज में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था वहाँ यज्ञों हिंसा करना एक विडबना ही थी।

वेदों में अनेकत्र ऐसे वचन उपलध हैं जिसमें स्पष्ट ही पशु रक्षा का निर्देश है। यजुर्वेद के प्रारा में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहते हुए कहा है – ‘पशुन्पाहि’ पशु मात्र की रक्षा करो। इसी यजुर्वेद के मन्त्र 1.1 में गौ को ‘अघ्न्या’ न मारने योग्य कहा है। यजु. 6.11 में गृहस्थ को आदेश दिया है- ‘पशुंस्त्रायेथाम्’ पशुओं की रक्षा करो। 14.3 में कहा- ‘द्विपादवचतुष्पात् पाहि’ दो पैर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं की रक्षा करो। वेद में ऐसे-ऐसे निर्देश अनेक स्थलों पर हैं। जो वेद पशुओं की रक्षा करने का निर्देश देता हो उसमें पशुओं की हिंसा का अर्थ निकालना भी पशुता ही है।

महर्षि दयानन्द वेदों के अनुयायी थे। वेदों को सर्वोपरि प्रमाण मानते थे। महर्षि की वेदों के प्रति दृढ़ आस्था थी। और महर्षि ने वेदों को यथार्थ में समझा था। यथार्थरूप में वेद को समझने वाले ऋषि के वेद भाष्य में पौराणिकता कैसे हो सकती है, ऐसा होना सर्वथा असभव है। अस्तु

-ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

ऋषि के पग चिह्नों पर हमारी गुजरात यात्रा- (2) – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

राजकोट से हमने महर्षि के जन्म स्थान टंकारा के लिये प्रस्थान किया। इस यात्रा में हमने महर्षि की उस यात्रा (सन् 1875) के कुछ विशेष प्रसंगों के सिलसिले में महर्षि की देन के ऐतिहासिक महत्त्व क ो एक-एक पड़ाव पर कुछ-कुछ प्रकाश डालकर उद्घाटित किया। राजकोट के धर्मशाला चौक में महर्षि ने देश-भाषा (गुजराती) में व्यायान दिया था। इस व्यायान का विशेष प्रभाव पड़ा था। पं. लेखराम जी के इस कथन को गुजरात की धरती पर पहली बार उठाया गया। ऋषि के जीवन पर लिखने वाले किसी भी लेखक ने कभी यह नहीं बताया था कि पं. लेखराम जी ने गुजराती भाषा के लिए ‘देशभाषा’ शद का प्रयोग किया है। गुजरात की जनता को पहली बार यह जानकारी दी गई कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय विचारक सुधारक जो कभी सागर पार तो नहीं गया था परन्तु उनका चित्र सबसे पहले अमरीका के एक पत्र Sunday Magazine (सण्डे मैगज़ीन) में छपा था।

गुजरात निवासी धरती पुत्र महर्षि दयानन्द की इस विलक्षणता को जानकर गौरवान्वित हुए। टंकारा पहुँचने पर टंकारा आर्य समाज, आर्यवीर दल तथा टंकारा गुरुकुल के ब्रह्मचारियों के साथ गुजरात सभा के मन्त्री जी ने हमारा स्वागत किया। महर्षि दयानन्द स्मारक ट्रस्ट में हमें ठहराया गया। आर्य समाज टंकारा में एक कार्यक्रम रखा गया। श्रीमान् धर्मवीर जी तथा श्रीयुत् ओममुनि जी ने अपने विचार रखे। श्री पं.ाूपेन्द्र जी के भजन हुए।

मुझे कुछ कहने को कहा गया। मैंने अभी ये शद ही कहे, ‘‘कुछ वर्ष पूर्व श्रीमती जिज्ञासु महर्षि का जन्म गृह व माण्डवी देखने आईं। मैंने चलते समय उन्हें कहा, टंकारा ट्रस्ट को कुछ दान अवश्य देकर आना तथा श्री दयालमुनि जी के घर जाकर उनको मिलकर आना………।’’ मुझे महात्मा आनन्द स्वामी जी की टंकारा यात्रा की याद आ गई। महात्मा जी महर्षि जी के जन्म गृह को देखने गये तो पं. रघुवीर सिंह शास्त्री जी उनके साथ थे। जन्म-गृह के ऐतिहासिक कमरे में अपनी भावपूर्ण शैली में अपनी ऊँची आवाज में महात्मा जी ने कहा, ‘‘हे टंकारा की धरती एक और दयानन्द को जन्म देकर हमारा उद्धार कर दे। बेड़ा पार कर दे।’’ इतना कहकर उनके नयन सजल हो गये । गला रुंध गया। साथ खड़े पण्डित रघुवीर सिंह जी के नयनों से टप-टप अश्रुकण गिरने लगे।

उपरोक्त शद बोलते ही मेरी अश्रुधारा भी रोके न रुकी। महात्मा आनन्द स्वामी ने मुझे रुला दिया। जब पहली बार मैं जन्म-गृह देखने गया तबाी श्री महात्मा जी के उपरोक्त कथन को स्मरण करके मैं उस कमरे में जी भरकर रोया था। मैं अपने मनोभावों में बह गया।

जन्म गृह तो देखा ही। हम दयाल मुनि जी के दर्शनार्थ उनके घर पर भी गये। टंकारा ट्रस्ट के कार्यक्रम में केरल से यात्रा में भाग लेने आये श्रीयुत् अरुण प्रभाकर जी के स्वागत के साथ श्रीमान् राजेश जी द्वारा अनूदित महर्षि की एक पुस्तक के मलयालम संस्करण का श्री दयाल मुनि जी से विमोचन करवाया। टंकारा गुरुकुल के आचार्य श्री रामदेव जी, श्री रमेश मेहता जी के प्रभावशाली व्यायान हुए। श्री धर्मवीर जी, ओम्मुनि जी तथा इस सेवक नेाी अपने विचार व्यक्त किये। श्री नौबतरामजी, पं. लेखराज जी और भूपेन्द्र जी के मधुर भजन सुनकर सब आनन्दित हुए।

टंकारा से यात्रा गांधीधाम के लिए चल पड़ी। देर रात वहाँ पहुँचे। वहाँ के भव्य भवन व कई संस्थायें श्री वाचोनिधि जी ने दिखाई। जब गंगा-पार गुरुकुल कांगड़ी था तब महात्मा मुंशीराम की घास-फूस की झोंपड़ी राजनेताओं व साम्राज्यवादियों के बड़े-बड़े सत्ताधारियों के लिए आकर्षण का केन्द्र था। जब भव्य भवन बन गये तो सत्ता वालों को विनती करके  बुलाना पड़ता है। गुजरात में भव्य भवन तो बहुत देखने को मिले परन्तु गुजरात में लोग ऋषि के नाम को अब भी नहीं जानते। ऋषि गुजरात में जन्मे थे, यह जानकारी ग्राम-ग्राम देनी होगी। इसके लिए दर्दीला दिल व मिशनरी भाव रखने वाले समाजी चाहिएँ।

जिस ऋषि को इतिहासकारों ने, विदेशी लेखकों व पत्रकारों ने युग का सबसे बड़ा एकेश्वरवादी और पाषाण-पूजा का सबसे बड़ा विरोधी जाना व माना आज उसकी धरती गुजरात मूर्तिपूजा व बहुदेववाद की सन्देशवाहक बन रही है। यह चिन्ता का विषय है। इस चुनौती को स्वीकार करके आर्यों को आगे बढ़ना होगा।

मुन्दरा, भुज, लुडवा और नखत्राणा की यात्रा बहुत आनन्ददायक रही। यहाँ के कार्यक्रम तथा मेल मिलाप सबकी अपनी ही विशेषतायें थीं। लुडवााुज आदि गुजरात के  आर्यसमाज सुधारक, गो भक्त, यज्ञ  प्रसारक-प्रचारक शिवगुण बापू तथा धर्मवीर ेातसी भाई की कर्मभूमि रही है। इन्होंने इसे तप से सींचा। एक इतिहास बनाया हमने देखा नखत्राणा में एक ही परिवार के सगे सात भाई समाज के कर्णधार हैं। सब दैनिक यज्ञ करते हैं तथा सब के घरों में गऊ का पालन होता है। अतिथि  सेवा जो इस क्षेत्र में देखी वह अनुकरणीय है। मुन्दड़ा में हमें ऋषि-उद्यान के गुरुकुल का ब्रह्मचारी कश्यप अपने घर पर ले कर गया। परिवार सपन्न है। वेद-भक्त और ऋषि-भक्त है। इस परिवार के तीन युवा पुत्र ऋषि-उद्यान में आर्ष-ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। कश्यप के माता-पिता को नमन क रके हम सबने स्वयं को धन्य-धन्य माना। यहाँ पर एक परिवार ने अतिथि-सत्कार का चमत्कार कर दिखाया।

इन समाजों के सुपठित, सपन्न कर्णधार यदि सप्ताह में एक दिन धर्म प्रचार के लिये दें तो आर्य समाज जन-आन्दोलन बन सकता है। धर्म-प्रचार करना अब प्रचारक ों पर छोड़ दिया गया है। आर्यसमाजी धर्म-प्रचार करना भूल गये। महात्मा मुंशीराम, महात्मा नारायण स्वामी, पं. गंगा प्रसाद द्वय, ला. मुरलीधर और पं. श्यामााई सब मिशनरी थे।

भाभर छोटा सा स्थान है। यहाँ श्री धनजी भाई समाज के प्रधान हैं। आचार्य ओ3म् प्रकाश जी गुरुकुल आबू पर्वत इसी ग्राम के हैं। युवा आचार्य जी की लगन, उत्साह, कर्मण्यता व सद्व्यवहार देखकर हमें बड़ा गौरव हुआ। ऐसे निर्भीक, स्पष्टवादी, सत्यवादी आर्यों पर हम जितना भी अभिमान करें थोड़ा है। आपके पिता श्री यहाँ के समाज के एक माननीय कर्णधार हैं।

श्री आचार्य जी भाभर से बहुत पहले हमें मार्ग में भटक ने से बचाने के लिए पहुँच गये। उनके पहले पहुँचने से हम परेशानी से बच गये। अन्यत्र भी यदि कोई दिलजला ऐसे ही करता तो संयम व शक्ति का अपव्यय न होता। इस बीस दिन की प्रचार-यात्रा में श्रीमान् कमलेश जी शास्त्री तथा आचार्य ओमप्रकाश जी का सर्वाधिक व ठोस सहयोग रहा।

भाभर की गोशालायें :- गोशालायें तो इस यात्रा में कई देखीं परन्तु, गो-सेवा व गो-रक्षा में भाभर की गोशाला तो देशभर में अद्वितीय कही जा सकती हैं। यहाँ की गोशाला की तीन श्रेणियाँ । दूर-दूर से रुग्ण, घायल व अंधी गउओं को यहाँ लाया जाता है। इनकी संया आठ सहस्र से ऊपर है। कई डॉक्टर, गो-सेवक, गो-पालक दिन-रात इनकी रक्षा व उपचार में लगे रहते हैं। असाध्य रोगों से पीड़ित, घायल गउयें जब कुछ ठीक होती हैं तो उनको दूसरी गोशाला में रखा जाता है। जब पूरी रोग मुक्त हो जाती हैं तो तीसरी गोशाला में ले जाया जाता है।

ग्राम के 25-30 युवक नित्यप्रति प्रातःकाल स्वयं स्फूर्ति से इन गउओं की सेवा करने आ जाते हैं। सब निष्काम सेवा करते हैं। जब कोई यात्री बाहर से आते हैं तब भी ये युवक सहयोग व सेवा करने अपने आप आ जाते हैं। यह दृश्य देखकर हमें अपार प्रसन्नता हुई। आज के अर्थ-प्रधान युग में ऐसे युवक कहाँ मिलेंगे? न धन का लोा और न फोटो खिंचवाने की लालसा।

गुजरात में हमने कई गोशालायें देखीं। भारतीय वंश की गऊओं की रक्षा व संवर्द्धन की गो-सेवकों में सर्वत्र चिन्ता देख कर बहुत हर्ष हुआ। एक गोशाला में गो-पालन व गो-हत्या निषेध विषयक कई विद्वानों व नेताओं की सूक्तियाँ पढ़ीं । इनमें पं. नेहरु का भी एक वचन था। यह कितने  दुर्भाग्य व दुःख का विषय है कि गो-शाला व गो-रक्षा आन्दोलन के जन्मदाता महर्षि दयानन्द की गो-करु णानिधि आदि पुस्तकों में से ऋषि का एक वचन वहाँ पढ़ने को न मिला। क्या यह गुजरात के लिए लज्जाजनक नहीं है। ऐसे लगा कि गुजरात में सुनियोजित नीति से राजनेताओं ने ऋषि से दूरी बना रखी है।

गुजरात की विशाल सड़कों व स्वच्छता को देखकर (अपवाद तो सर्वत्र होता ही है) हमें बड़ा आनन्द हुआ परन्तु भाभर में भाजपा कार्यालय में एक साा में मैंने सरदार पटेल जी विषयक कई प्रश्न पूछे तो सुपठित श्रोताओं में से कोई भी मेरे द्वारा पूछे गये किसीाी प्रश्न का उत्तर न दे सका यथा –

  1. सरदार पटेल के अन्तिम भाषण का विषय क्या था?
  2. सरदार पटेल ने अन्तिम भाषण कहाँ दिया?
  3. अन्तिम भाषण किस दिन, कब दिया गया?
  4. हैदराबाद का पुलिस ऐक्शन किस दिन आरभ हुआ?
  5. मन्त्री परिषद ने किस दिन पुलिस ऐक्शन का निर्णय लिया था?

सरदार पटेल की जन्म भूमि के लोग सरदार पटेल के भक्त व नामलेवा हैं, यह गौरव की बात है परन्तु ऐसे प्रश्नो का उत्तर न दे पाना तो अशोभनीय है।

पोरबन्दर में माता कस्तूरबा विषयक एक प्रश्न मुझसे पूछा गया। मैं प्रश्न सुनकर चौंक गया। उस युवक को उत्तर तो दिया परन्तु दुःख तो हुआ कि हमारे युवक…………इस यात्रा से बहुत अनुभव प्राप्त हुआ। यात्रायें तो उपयोगी हैं परन्तु यात्रा में आठ-दस व्यक्ति से अधिक नहीं होने चाहिये। यात्रा में कुछ लगनशील तथा सूझबूझ वाले युवक अवश्य होने चाहियें ताकि उनको शोध व प्रचार का प्रशिक्षण प्राप्त हो। यात्रियों को यह आशा लेकर नहीं निकलना चाहिये कि हमारे आवास-निवास व भोजन की सर्वत्र व्यवस्था होगी ही। यात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने के लिए एक स्थानीय मार्गदर्शक होना ही चाहिये। इससे व्यर्थ की परेशानियों से बचा जा सकता है।

यात्रा दस-बारह दिन से अधिक की न हो । यात्रा का उद्देश्य अखबारी न हो, वेद-प्रचार-ऋषि सन्देश हो। भ्रूण हत्या व बेटी बचाओ यात्राओं से समाचार तो बन जाता है। इसकी ठ्ठद्गख्ह्य क्ड्डद्यह्वद्ग (समाचार महत्त्व) तो है किन्तु वैचारिक महत्त्व (क्द्बद्गख्ह्य क्ड्डद्यह्वद्ग) तो कुछ भी नहीं। वेद-प्रवचन करते हुए अन्य-अन्य कुरीतियों व बुराइयों के साथ भ्रूण हत्या के दोष व दुष्परिणाम भी जनता को हृदयङ्गम करवाये जा सकते हैं।

यात्रा में बड़े-बड़े ग्रन्थ भी हों परन्तु कुछ ऐसी पुस्तकें व ट्रैक्ट अधिक हों जो हमारे मूलभूत सिद्धान्तों की ठोस जानकारी दें । हमारी इस यात्रा में आर्य हुतात्माओं पर एक भी पुस्तक हमारे पास नहीं थी। मांसाहार, वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ईश्वर की सत्ता व स्वरूप, पुनर्जन्म, नरक क्या? स्वर्ग क्या, पञ्च-महायज्ञ, अग्निहोत्र, पाप, पुण्य, तीर्थ क्या? कर्मफल सिद्धान्त, अंधविश्वास, क्या पाप क्षमा हो सकते हैं? इत्यादि विषयों पर अच्छी-अच्छी लघु पुस्तिकायें हम लेकर जाते तो अधिक लाभ होता तथापि वैदिक पुस्तकालय के पर्याप्त साहित्य की बिक्री हुई। जो बड़े-बड़े ग्रन्थ सपन्न समाजों ने लिए- वे कोई विरला विद्वान् ही पढ़ेगा। मध्यम आकार की पुस्तकें व लघु पुस्तिकायें सब पढ़ते हैं।

जैनियों के जिस विशाल आधुनिकतम पुस्तकालय को हमने देखा उसमें आर्य विद्वानों का सहित्य तो है परन्तु बहुत थोड़ा। आचार्य उदयवीर जी की बहुत सी पुस्तकें उसमें देखकर हम हर्षित हुए। कोई दानी सभा को सहयोग करें तो आर्य विद्वानों की दो तीन सौ उत्तम कृतियाँ वहाँ पहुँचाई जा सकती हैं। पूज्य उपाध्याय जी का सहित्य वहाँ नाम-नाम को ही है। पं. लेखराम जी, देवेन्द्र बाबू जी, हरविलास जी व पं. लक्ष्मण जी लिखित ऋषि-जीवन, ऋषि का पत्र-व्यवहार, पं. इन्द्र जी का कोई उत्तम ग्रन्थ वहाँ नहीं था। स्वामी दर्शनानन्द जी का कुछ साहित्य था परन्तु, उपनिषद् प्रकाश नहीं था। गुजराती में ऋषि का वेद-भाष्य वहाँ पहुँचना चाहिये। अहमदाबाद का समाज यह कार्य जितना शीघ्र हो सके कर दे तो यश पायेगा।

स्वामी नारायण मत के गुरुकुल में सामवेद पर जो समेलन हुआ उसमें डॉ. धर्मवीर जी के विद्वत्तापूर्ण भाषण की वहाँ के प्रमुख स्वामी जी ने भी बहुत प्रशंसा की। परोपकारिणी सभा को ऐसे प्रत्येक समेलन में डॉ. वेदपाल जी आदि किसी विद्वान् को भेजना चाहिये अन्यथा हम सायणवादियों व मूर्तिपूजकों से पिछड़ जायेंगे। हमने यात्रा में यह अनुभव किया कि हिन्दू समाज के तथाकथित नेता हिन्दुओं की कुरीतियों व सामाजिक रोगों के बारे में एक भी शद कहने को तैयार नहीं। ये लोग तुलसी के पौधे भेंट करके उनको आरोपित करके हिन्दू धर्म को बचाना फैलाना चाहते हैं। विधर्मियों के प्रचार को ये लोग क्या रोक सकेंगे? जातिवाद का अजगर देश को निगलने पर तुला बैठा है।

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-151116

संसार में मनुष्यों के कर्तव्य संबंधी ज्ञान-विज्ञान का सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

कबीर दास जी ने सत्य की महिमा को बताते हुए कहा है कि सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप, जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप वस्तुतः संसार में सत्य से बढ़कर कुछ नहीं है। ईश्वर, जीव व प्रकृति सत्य हैं अर्थात् इनका संसार में अस्तित्व है। बहुत से सम्प्रदायों व स्वयं को ज्ञानी मानने वाले लोग आज भी न तो ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और न ही जीवात्मा को। ऐसी स्थिति में सत्य क्या है? इसे जानने की प्रत्येक मनुष्य को, चाहे वह किसी भी मत व सम्प्रदाय का क्यों न हो, स्वाभाविक इच्छा होती है। इच्छा रखने पर भी उसे उसके प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते तो विवश होकर वह परम्पराओं का दास बन जाता है। महर्षि दयानन्द के जीवन में भी समय आया जब उन्होंने ईश्वर, मूर्तिपूजा व मृत्यु विषयक कुछ प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा की परन्तु उन्हें कहीं से इसका समाधान नहीं मिला। इस पर उन्होंने स्वयं ही सत्य की खोज करने का निश्चय किया और कालान्तर में घोर तप व पुरुषार्थ के बाद वह अपने मिशन में सफल रहे। उनके गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा हुई कि उन्होंने जीवन में जिन सत्यों की खोज की है, उससे संसार को लाभान्वित करें तो यही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। इसी का एक परिणाम उनके द्वारा संसार संबंधी सभी सत्य मान्यताओं को बताने वाले ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन है। मानव जाति का यह परम सौभाग्य है कि आज महर्षि दयानन्द की कृपा से उसे वह सत्य ज्ञान प्राप्त है जिसके प्रति विगत लगभग पांच हजार वर्षो तक हमारे देश व विश्व के सभी लोग अनजान व भ्रमित थे। आईये, सत्यार्थ प्रकाश से जुड़े कुछ प्रश्नों को जानते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ की रचना क्यों की? इसे उन्हीं के शब्दों में जानते हैं। वह सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं कि मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ लिखने का अपना आशय स्पष्ट व प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया है। यहां उन्होंने सत्य के प्रचार प्रसार में आने वाली कठिनाईयों व समस्याओं का भी संकेत किया है। उनके समय व आजकल की धार्मिक परिस्थितियों में कुछ विशेष अन्तर नहीं आया है। आज भी सभी मत-मतान्तर अपने अपने मतों की सत्याऽसत्य मान्यताओं पर किंचित विचार व मनन न करके उसकी एक-एक पंक्ति को सत्य मानकर अन्धश्रद्धा से ग्रसित ही दिखाई देते हैं जिससे सत्याऽसत्य का निर्णय न होने में बाधायें उपस्थित हैं। इस कारण से देश व विश्व के मनुष्यों को आध्यात्मिक सुख प्राप्त न होकर उनके लोक-परलोक बिगड़ रहे हैं जिसकी चिन्ता किसी को भी नहीं है। आज का युग विज्ञान का युग है। बहुत अधिक समय तक कोई किसी को सत्य से अपरिचित व दूर नहीं रख सकता। समय आयेगा जब लोग सत्य को प्राप्त करेंगे। इसमें समय लग सकता है। सत्य अविनाशी व अमर है और असत्य अस्थिर व अन्धकार की तरह से शीघ्र नष्ट होने वाला होता है। अतः मत-मतान्तरों का असत्य भविष्य में अवश्य ही दूर होगा, यह निश्चित है।

 

सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने अनेक महत्वपूर्ण बातों का प्रकाश करते हैं। ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी होने के कारण इन पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस ग्रन्थ (सत्यार्थ प्रकाश) में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द ने पहली महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य को जानने वाला होता है। दूसरी यह कि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने के पीछे उनका उद्देश्य किसी का मन दुःखाना व हानि करना कदापि व किंचित मात्र नहीं है। और अन्त में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि मनुष्य जाति की उन्नति में सहायता के लिए वह सत्य असत्य का प्रकाश कर रहें हैं क्योंकि सत्योपदेश ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण हैं। अतः मनुष्य जाति की उन्नति के लिए ही सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन महर्षि दयानन्द ने किया था, यह उनके यहां दिए शब्दों व सत्यार्थ प्रकाश को आद्योपान्त पढ़कर सिद्ध होता है। इसकी साक्षी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि रहे हैं। यह भी निवेदन है कि आत्मा सत्य को जानते हुए भी अज्ञान रूपी पर्दें को प्रयत्न्पूर्वक न हटाने के कारण सत्य से वंचित रहता है।

 

इसके बाद महर्षि दयानन्द जगत का पूर्ण हित कैसे हो सकता है, उसकी बात करते हैं और उसका उपाय भी बताते हैं। उन्होंने मत-मतान्तरों से मनुष्यों को होने वाले सुख-दुःख की चर्चा भी की है। उनके द्वारा कहे गये यह शब्द भी अनमोल होने के कारण प्रस्तुत हैं। वह कहते हैं कि यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जोजो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्त्ते वर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि (अन्य अन्य मतों के) विद्वानों के विरोध से अविद्वानों (सामान्य जनों) में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डूबा दिया है। यहां महर्षि दयानन्द सभी मत वालों से पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धान्त को अपनाने की अपील कर रहे हैं किन्तु खेद है कि आज तक किसी ने उनकी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया।

 

सत्यार्थप्रकाश की भूमिका से ही महर्षि दयानन्द लिखित कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख करते हैं। वह कहते हैं कि इनमें से जो कोई सार्वननिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग (मतमतान्तर वाले) विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय ओर असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते। आगे वह कहते हैं कि यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। यह गीता का वचन है। इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं। ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता या पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जान कर यथेष्ट करें।’ इन पंक्तियों में उन्होंने आप्त लोगों के देश-समाज हित व परोपकार की भावना से कर्तव्य कर्म करने और ग्रन्थ के प्रयोजन पर भी एक अन्य प्रकार से अपना मत प्रकट किया है और कहा है कि इसका परिणाम अमृत के सृदश होगा। वस्तुतः जिसने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से लाभ उठाया है, उसके लिए इसका परिणाम निश्चय ही अमृत तुल्य हुआ है।

 

अपनी निष्पक्षता को बताते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा है कि यद्यपि मैं आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूं, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात कर याथातथ्य प्रकाश करता हूं, वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मत वालों के साथ भी वर्त्तता हूं। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्त्तता हूं, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तता योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बाहर हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।  

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश को 14 समुल्लासों में लिखा है। प्रथम 10 समुल्लास पूर्वार्ध के हैं जिसमें वैदिक मान्यताओं का पोषण व मण्डन है। उत्तरार्ध के 4 समुल्लासों में क्रमशः आर्यवर्त्तीय मतमतान्तरों, बौद्ध व जैन मत, ईसाईमत और मुसलमानों के मत की सत्य व असत्य मान्यताओं का सत्याऽसत्य के निर्णयार्थ खण्डन-मण्डन किया गया है। हम यह अनुभव करते हैं कि यदि महर्षि दयानन्द के समय में मत-मतान्तरों में सत्य और असत्य मान्यतायें, विचार व सिद्धान्त न होते, केवल सत्य ही सत्य होता, तो उनको खण्डन व मण्डन करने की आवश्यकता न पड़ती। उन्होंने ईश्वर की आज्ञा से असत्य के दमन दलन तथा सत्य की प्रतिष्ठा के लिए एक महान कार्य किया है जिस ओर विगत 5 हजार वर्षों में किसी का ध्यान नहीं गया था और ही उनकी योग्यता वाला मनुष्य विगत पांच हजार वर्षों में उत्पन्न ही हुआ जो इस कार्य को कर सकता। महर्षि दयानन्द की एक अनुपम देन यह है कि उन्होंने अपने समय सन् 1825-1883 में प्रचलित सभी भ्रान्तियों को मिटाकर ईश्वर, वेद, जीवात्मा, प्रकृति मनुष्य जीवन के कर्तव्यों यथा ईश्वर उपासना, पंचमहायज्ञ आदि का विस्तार से परिचय कराया जिसको लोग भूल चुके थे और अविद्याग्रस्त होकर अन्धकार में विचर रहे थे। महर्षि दयानन्द की सभी मान्यतायें एवं विचार वेद, तर्क और युक्तियों पर आधारित होने से विज्ञानसम्मत हैं। हम यह अनुमान करते हैं कि जिस प्रकार विज्ञान की पुस्तकें सारे संसार के लोगों द्वारा बिना पक्षपात के उत्सुकता से पढ़ी जाती है, उसी प्रकार से एक दिन सत्यार्थप्रकाश को विश्व में मान्यता प्राप्त होगी। यह दिन हमारे जीवन में भले ही न आये, परन्तु आयेगा अवश्य क्योंकि सत्यमेव जयते नानृतं। सत्य व असत्य के संघर्ष में सदा सर्वदा सत्य की ही विजय होती है। यह भी कहना समीचीन है कि महर्षि दयानन्द ने अपने समय में धर्म के क्षेत्र में विलुप्त सत्य विचारों व सिद्धान्तों को विश्व के सामने रखा था। वह चाहते थे कि लोग असत्य छोड़ कर सत्य का ग्रहण करें। उनके जीवन काल में उनका उद्देश्य पूरा न हो सका और आज भी नहीं हुआ है। भविष्य में यह अवश्य होगा और ईश्वर की भी इसमें विशेष भूमिका होगी। इसका कारण ईश्वर का सत्य में प्रतिष्ठित होना है। उसका कर्म फल सिद्धान्त भी सत्य और असत्य के आधार पर ही चलता है जिसमें सत्य पुरुस्कार के योग्य और असत्य दण्डनीय है। उसका यह सिद्धान्त सब मतों व सम्प्रदायों पर लागू है जिसका दिग्दर्शन हमें प्रतिदिन प्रतिक्षण होता है।  यही सिद्धान्त सत्य मत की संवृद्धि का आधार है।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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दिल्ली के दो प्राणवीरः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

तड़प-झड़प’ के प्रेमी पाठक प्रत्येक मणि में स्वर्णिम इतिहास के कुछ प्रेरक प्रसंग देने की माँग करते हैं। आज इस मणि में दिल्ली के दो प्राणवीरों की एक-एक घटना दी जाती है। दिल्ली के वर्तमान आर्यसमाज अब भूल गये कि यहाँ कभी महाशय मूलशंकर नाम के एक कर्मठ धर्मात्मा मिशनरी थे। मैंने भी उनको निकट से देखा। वह बहुत अच्छे तबला वादक और आदर्श आर्य पुरुष थे। उनके ग्राम कोटछुट्टा (पं. शान्तिप्रकाश जी का जन्म स्थान) में पौराणिक कथावाचक कृष्ण शास्त्री प्रचारार्थ पहुँचा। उसकी कथा में सनातनियों की विनती मानकर कट्टर आर्य मूलशंकर ने तबला बजाना मान लिया। कृष्ण शास्त्री को ऋषि को गाली देने का दौरा पड़ गया।

भरी सभा में मूलशंकर जी ने तबला उठाकर कृष्ण शास्त्री के सिर पर दे मारा और सभा से निकल आये। ‘‘मेरे होते महर्षि दयानन्द को गाली देने की तेरी हिमत!’’ पौराणिकों ने भी कृष्ण शास्त्री को फटकार लगाई। आर्य पुरुषो! इस घटना का मूल्याङ्कन तो करिये।

पंजाब के लेखराम नगर कादियाँ के एक आर्य नेता और अद्भुत गायक हमारे पूज्य लाला हरिराम जी देहल्ली रहने लग गये। कादियाँ में मिर्जाई छह मार्च के दिन पं. लेखराम जी को कोसते हुए वहाँ के हिन्दूओं विशेष रूप से आर्यों का मन आहत किया करते थे। बाजार में खड़े होकर एक बड़े मिर्जाई मौलवी ने पं. लेखराम जी के ग्रन्थ का नाम लेकर ऋषि जी के बारे में एक गन्दी बात कही। हमारे प्रेरणा स्रोत साहस के अंगारे लाला हरिराम ने भरे बाजार में स्टूल पर खड़े मियाँ की दाढ़ी कसकर पकड़कर खींचते हुए कहा, ‘‘बता पं. लेखराम ने कहाँ यह लिखा है?’’ तब कादियाँ में हिन्दू सिख मुट्ठी भर थे। मिर्जाइयों का प्रचण्ड बहुमत था। उनका उस क्षेत्र में बहुत आतंक था।

‘कलम आज उनकी जय बोल।’

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

परमात्मा का शरीर कब बना? किससे बना? – राजेन्द्र जिज्ञासु

बाइबिल के प्रथम वाक्य आकाश (Heaven) को ईश्वर द्वारा बनाया गया, लिखा है और फिर आठवें वाक्य में दोबारा Heaven (आकाश) का सृजन हुआ। आकाश दो बार क्यों रचना पड़ा? पहले जो आकाश बनाया गया था, उसमें क्या दोष था? आश्चर्य है कि बहुत पठित लोग भी इस भूल-भुलैयाँ को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं।

यही नहीं बाइबिल की 26वीं आयत में आता है, ÒLet us make man in our own image.Ó अर्थात् परमात्मा ने अपनी आकृति पर मनुष्य को बनाने का मन बनाया। परन्तु अपने देह को कब और कैसे बनाया- यह बाइबिल में इस से पहले कहीं बताया ही नहीं गया।

उत्पत्ति 2-7 में पुनः God formed man of the dust of the ground.. लिखा मिलता है अर्थात् धरती की धूलि मट्टी से मनुष्य को बनाया गया। प्रश्न उठता है कि जब ईश्वर के सृदश ही मनुष्य को बनाया तो क्या फिर परमात्मा की देह भी धूलि मट्टी से निर्मित होगी। इस शंका का समाधान कैसे हो?

प्रत्येक आर्य को श्री हरिकृष्ण जी की पूना से प्रकाशित पुस्तक पढ़नी व पढ़ानी चाहिये।

श्री विशाल का प्रश्नःदिल्ली के श्री विशाल धर्मनिष्ठ व लगनशील युवक हैं। अभी अनुभवहीन हैं। उन्हें निरन्तर स्वाध्याय करके अपनी योग्यता बढ़ानी चाहिये। आप विधर्मियों को बहुत सुनते व पढ़ते हैं। उनके प्रत्येक आक्षेप का उत्तर देने की योग्यता तो समय पाकर ही आयेगी। आपने एक मुसलमान का यह आक्षेप सुनकर उसका उत्तर माँगा है कि अथर्ववेद के एक मन्त्र में, ‘‘हमारे शत्रुओं को मारने की प्रार्थना है।’’ मैं समझ गया कि किसी मियाँ ने जेहाद की वकालत में उसकी पुष्टि में वेद के मन्त्र का प्रमाण दे दिया। इससे इतना तो पता चल गया कि जेहाद को कुरान से तो न्याय संगत सिद्ध नहीं किया जा सका। जेहाद की पुष्टि में मियाँ लोग वेद को घसीट लाते हैं। कुरान का जेहाद विशुद्ध मजहबी लड़ाई व रक्तपात है। वेद में किसी भी मजहब की चर्चा नहीं, अतः वेद में मजहबी लड़ाई  (Crusade)  की गंध तक नहीं। तब मत पंथ थे ही नहीं। वेद में भले व बुरे, सज्जन व दुर्जन का तो भेद है। अन्यायी दुर्जन से लड़ाई में विजय की प्रार्थनायें हैं।

कुरान व बाइबिल दोनों हमारी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। कुरान की सूरते बकर की आयत संया 213 का प्रामाणिक अनुवाद है “Mankind was [of] one religion [before their deviation], then Allah sent the prophetes as………” अर्थात् धरती के वासियों की एक ही भाषा और एक ही वाणी थी। वह वाणी कौनसी थी? वेदवाणी ही सृष्टि के आरभ में मनुष्य धर्म था। इसी को शद प्रमाण माना जाता था। बाइबिल का घोष विश्व को सुनाना समझाना होगा, In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God.  कितने स्पष्ट शदों में घोषणा की गई है कि आदि में शब्द  (शब्द प्रमाण-वेद) था, शब्द ईश्वर के पास था और शब्द (ज्ञान) परमात्मा था। मित्रो! मत भूलिये बाइबिल में तीन बार आने वाले इस  शब्द Word का W अक्षर Capital बड़ा है। व्यक्तिवाचक जातिवाचक संज्ञाओं में धर्म ग्रन्थों का पहला अक्षर सदैव कैपिटल ही होता है। यहाँ Word संज्ञा होने से W कैपिटल है। निर्विवाद रूप से यहाँ शब्द Word वेद के लिये प्रयुक्त हुआ है। आयत का सीधा सा भाव सृष्टि के आदि में अनादि वेद का आविर्भाव हुआ। गुण-गुणी के साथ ही रहता है, सो ईश्वर का वेद ज्ञान ईश्वर के साथ था। ईश्वर ज्ञान स्वरूप माना जाता है, सो शद ज्ञान वेद का परमात्मा ब्रह्म कहा जाता है। हिन्दू समाज घर-घर में बाइबिल के इस घोष को गुञ्जा कर मार्गभ्रष्ट जाति बन्धुओं का उद्धार करे।

मैंने विशाल से कहा, अरे भाई विधर्मी से वार्ता करते हुए सदा अपना पक्ष वैज्ञानिक ढंग से रखो। प्रभु निर्मित किसी वस्तु व नियम में कुछ भी दोष आज तक नहीं पाया गया। सूर्य चाँद नये नहीं बने। मनुष्य, पशु-पक्षियों की निर्माण विधि (Design) विधि पुराना है। अग्नि, जल, वायु और सृष्टि के सब वैज्ञानिक नियम  (Laws) न घटे, न घिसे और न बढ़े, फिर ईश्वरीय ज्ञान, मानव धर्म नया (इलहाम) कैसे आ गया। यह मान्यता हठ, दुराग्रह व अन्धविश्वास है।

नन्दकिशोर जी के अनुरोध को शिरोधार्य करके मैं नये सिरे से एक ऐसी पुस्तक अवश्य लिखूँगा। मुसलमानों व ईसाइयों के साहित्य में जो वेदानुकूल नई-नई शिक्षायें व मान्यतायें मिलती है, सूझबूझ से आर्य युवकों को उनको संग्रहीत करके प्रचारित करना चाहिये।

मुर्गे क्यों बांग देते हैं? गधे क्यों रेंकते हैं ?- इस्लाम के नज़रिए में :

ईश्वर द्वारा बनायी इस सृष्टि में सभी जीव ईश्वर द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हए जीवन यापन करते हैं. जिन्हें जिव्ह्या प्रदान की है वो उसका प्रयोग अपने भावों को व्यक्त करने के लिए करते हैं . चाहे वो खुशी को व्यक्त करना चाहें या दुःख को या जीवन की अलग अलग भावनाओं और आवश्यकताओं को.

लेकिन हदीसों का अवलोकन करने पर हम इसका एक अन्य कारण भी पाते हैं :-

सहीह बुखारी हदीस नॉ ५२२ , पृष्ट संख्या ३३२

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अबू हुरैरा से रिवायत है की मुहम्मद साहब ने कहा कि जब आपको मुर्गे की बांग सुनाई दे तो अल्लाह से दुआ मांगों क्योंकि मुर्गे का बांग देना यह  प्रदर्शित करता है कि इसने फरिश्तों को देखा है . और जब तुम गधे का रेंकना सुनो तो अल्लाह से शरण की दुआ करो क्योंकि गधे का रेंकना यह प्रदर्शित करता है की गधे ने शैतान को देखता है .

यही हदीस सहीह मुल्सिम में भी है :

सहीह मुस्लिम जिल्द ४ हदीस २७२९ पृष्ठ संख्या २६५

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अबू हुरैरा ने बताया कि अल्लाह के रसूल ने कहा की जब तुम मुर्गे की बांग को सुनो तो अल्लाह से अपने लिए दुआ मांगो क्योंकि मुर्गे ने फरिश्तों को देखा है और जब तुम गधे का रेंकना सुनो तो शैतान से बचने के लिए अल्लाह से दुआ करो क्योंकि गधे ने शैतान को देखा है .

बड़ा ही नायब तर्क  है गधे के रेंकने  और मुर्गे के बांग देने का !

विज्ञान तो अभी तक फरिश्तों और  शैतान के अस्तित्व को खोजने में ही असफल रहा है.

मौलवियों को आवश्यक है कि विज्ञानं द्वारा इस तथ्य को साबित करें क्योंकि ज्ञान का प्रचार प्रसार होना सभी के हित में है.

वैसे ये शैतान है बडा ही अद्भुत पात्र क्योंकि अल्लाह को भी  शैतान की फिक्र लगी रहती है और अल्लाह के दिखाए मार्ग पर चलने वाले मुसलमान भी इसके डर से खौफजदा रहते हैं और बार बार अल्लाह से शैतान से  बचने के लिए दुआ करते रहते हैं .

ये हमारी दरख्वास्त है मौलियों आलिमों फाज़िलों  से कि इस्लाम की इस खोज को कि मुर्गे क्यों बांग देते और गधे क्यों रेंकते हैं की  हकीकत को विज्ञानं की दृष्टि में सिद्ध करें जिससे सत्य का प्रसार विश्व भर में हो .

 

अल्लाह ने ‘कुन’ कहा और …….- राजेन्द्र जिज्ञासु

एक करणीय कार्यःगुजरात यात्रा में हम लोगों ने महर्षि की गुजरात यात्रा तथा महर्षि के जीवन पर तो व्यायान दिये ही, इनके साथ सैद्धान्तिक व आध्यात्मिक व्यायान तथा प्रवचन भी देते रहे। एक नगर में महर्षि दयानन्द की वैचारिक क्रान्ति तथा विश्वव्यापी दिग्विजय पर बोलते हुए मैंने मत पन्थों के नये-नये ग्रन्थों के उद्धरण देकर ऋषि दयानन्द की दिग्विजय व अमिट छाप के प्रमाण दिये तो आदरणीय आचार्य नन्दकिशोर जी ने यात्रा की समाप्ति तक बार-बार यह अनुरोध किया कि अपनी इस नवीन खोज व चिन्तन पर कुछ लिख दें। अधिक नहीं तो 36-48 पृष्ठ की एक पुस्तक अतिशीघ्र लिखकर छपवा दें।

मैंने उनकी प्रेरणा को स्वीकार करते हुए इस करणीय कार्य को अतिशीघ्र करने को कहा। श्रीमान् आनन्द किशोर जी की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह दिन-रात धर्म प्रचार व साहित्य के लिये सोचते रहते हैं।

मैंने उस व्यायान में कहा क्या? इस पर कुछ लिखना नई पीढ़ी व पुराने आर्यों सबके लिए लाभप्रद रहेगा। उ.प्र. के गोरखपुर जनपद से भी आर्य बन्धु श्री लल्लनसिंह का एक ऐसा ही पत्र मिला है। ऋषि जी ने सृष्टि नियमों को अनादि, अटल व नित्य माना है। महर्षि ने तीन पदार्थों को अनादि व नित्य माना है। धर्म को सार्वभौमिक माना है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के विपरीत कुछ भी ऋषि को मान्य नहीं है। यह है ऋषि की मूलभूत विचारधारा जिसका आज संसार में डंका बज रहा है। आर्यसमाज महर्षि दर्शन की दिग्विजय के प्रचार को पूरी शक्ति से, ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पा रहा। मैंने कहा, इस्लाम का दृष्टिकोण यह रहा कि अल्लाह ने ‘कुन’ कहा तो सृष्टि रची गई। ‘कुन’ कहा किस से? श्रोता जब कोई था ही नहीं तो यह आदेश जड़ को दिया गया या चेतन को? बिना उपादान कारण के सब सृष्टि जब रची गई तो फिर अल्लाह अनादि काल से पालक, मालिक, न्यायकारी, दाता व स्रष्टा कैसे माना जा सकता है? कुरान  में अल्लाह के इन नामों की व्याया तो कोई करके दिखावे?

आज उपादान कारण के बिन ‘कुन’ कहकर कोई सूई, मेज, चारपाई, चाय की प्याली तो बनाकर दिखा दे। चाँद-सूरज तो भगवान् ही बना सकता है। यह हमें मान्य है परन्तु जीव अपने वाला कोई कार्य तो करके दिखा दे।

इरान, जापान, मिश्र, पाकिस्तान व अमरीका, बंगला देश के सब वैज्ञानिक यह मानते हैं कि Matter can neither be created nor it can be destroyed. अर्थात् प्रकृति को न तो कोई उत्पन्न कर सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है। बाइबिल व कुरान की किसी आयत से ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता। वहाँ तो ‘कुन’ मिलेगा अथवा। बाइबिल की पहली आयत ‘पोल’ की चर्चा करती है। बाइबिल के नये संस्करणों में VOID (पोल) का लोप हो जाना वैदिक धर्म की दिग्विजय माननी पड़ेगी।

ÒÒand the spirit of God was howering over the waters.ÓÓ  अर्थात् परमात्मा का आत्मा जलों पर मंडरा रहा था। हम बाइबिल के इस कथन पर दो प्रश्न पूछने की अनुमति माँगते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जल कहाँ से आ गये? सृजन का कार्य तो अभी आरभ ही नहीं हुआ। जलों को किसने बना दिया? जल ईश्वर द्वारा बनाने की बाइबिल में कहीं चर्चा ही नहीं। ईश्वर के अतिरिक्त प्रकृति (जल) का होना बाइबिल की पहली आयत से ही सिद्ध हो गया। फिर यह भी मानना पड़ेगा कि बाइबिल का ईश्वर यहाँ शरीरधारी नहीं। वह निराकार है। आगे बाइबिल 3-8 में हम पढ़ते हैं ÒÒThen the man and his wife heard the sound of the Lord God as he was walking in the garden in the cool of the day.ÓÓ अर्थात् तब आदम व उसकी पत्नी ने परमात्मा की आवाज सुनी। वह (परमात्मा) दिन की ठण्डी में वाटिका में सैर कर रहा था।

यहाँ परमात्मा देहधारी के रूप में उद्यान में विचरण करते हुए उन दोनों की खोज करता है। आवाजें लगाता है कि तुम कहाँ हो? परमात्मा का शरीर कब बना? किस ने बनाया? किससे बनाया? मनुष्य तो भक्ति भाव से मक्का, मदीना, काशी व यरुशलम में ईश्वर को खोजते फिरते हैं। यहाँ ईश्वर अपनी बनाई जोड़ी को खोजने निकला है। उसकी सर्वज्ञता पर ही पानी फेर दिया गया है। ऐसे-ऐसे कई प्रश्न श्री हरिकिशन जी की पूना से छपी पुस्तक ‘बाइबिल-ईश्वरीय सन्देश।’ में पाठक पढ़ें तो। हमनेाी इसके प्राक्कथन में एक प्रश्न उठाया है। अब बाइबिल में ‘उत्पत्ति’ पुस्तक में दो बार ÒHuman BeingsÓ शब्दों  का प्रयोग किया गया है अर्थात् एक जोड़ा नहीं कई जोड़े सृष्टि के आदि में बिना माता-पिता के (अमैथुनी) उत्पन्न किये गये।

क्या यह सब कुछ महर्षि दयानन्द जी की दिग्विजय नहीं है? गत 50-60 वर्षों में आर्य लेखकों की पुस्तकों की सूचियाँ बनाकर प्रचारित करने को ही शोध समझ लिया गया। पं. लेखराम जी से लेकर उपाध्याय जी पर्यन्त सैद्धान्तिक दृष्टि से बाइबिल कुरान आदि पर समीक्षा व शोध करना छूट गया। फिर भी आप इसे पं. लेखराम जी, पं. चमूपति जी की परपरा के विद्वानों की तपस्या का चमत्कार मानेंगे कि बाइबिल के भाव तो बदले सो बदले, पाठ के पाठ बदल दिये गये हैं। ऋषि की इस दिग्विजय पर श्री नन्दकिशोर जी ‘कुरान सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में’ जैसा एक ग्रन्थ मुझसे चाहते हैं। बड़ा ग्रन्थ न सही 48 पृष्ठ का ही हो जाये। उनका यह अनुरोध मुझे मान्य है।

‘वेदों का ज्ञान और समाज का पुराण वर्णित अन्ध विश्वासों का आचरण’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

सृष्टि की रचना करने के बाद से ईश्वर मनुष्यों को जन्म देता, पालन करता व उनकी सभी सुख सुविधा की व्यवस्थायें करता चला आ रहा है। हमारी यह सृष्टि लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्ष पूर्व ईश्वर के द्वारा अस्तित्व में आई है। सृष्टि को बनाकर ईश्वर ने वनस्पतियों व प्राणीजगत को बनाया और इसमें अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को उत्पन्न किया। युक्ति व तर्क से सिद्ध है कि सृष्टि के आरम्भ में जो भी प्राणी जगत की उत्पत्ति होती है वह अमैथुनी ही होती है। माता-पिता तो प्रथम अमैथुनी सृष्टि होने के बाद ही अस्तित्व में आते हैं। एक बार अमैथुनी अर्थात् माता-पिता के बिना पृथिवी माता के गर्भ अर्थात् भूमि के भीतर से वृक्ष-वनस्पतियों की उत्पत्ति की भांति मनुष्यों की उत्पत्ति होने के बाद फिर यही मनुष्य भावी सन्तानों के माता-पिता होते हैं जिनसे मैथुनी या जरायुज सृष्टि आरम्भ होती है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद जो प्रमुख समस्या होती है, वह मनुष्यों के परस्पर व्यवहार करने की होती है जिसके लिए उन्हें ज्ञान व एक भाषा की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आदि काल में ईश्वर से भिन्न अन्य कोई चेतन सत्ता नहीं होती। ईश्वर सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ अर्थात् पूर्ण ज्ञानी है, अतः उसी से मनुष्यों को भाषा व ज्ञान मिलता हैं। उसके बाद वर्तमान की मैथुनी सृष्टि की तरह हमारे ऋषि, मुनि व आचार्य भावी सन्ततियों को ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद, जिसे सृष्टि के आरम्भ से आज तक हमारे ऋषि मुनियों द्वारा अनेक कष्ट सहकर सुरक्षित रखा गया है, उस ज्ञान को अपनी सन्ततियों को पीढ़ी दर पीढ़ी देते चले जाते हैं। यहां यह जान लें कि सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक व निराकार सृष्टिकर्त्ता ईश्वर ने आदि चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा, जो कि मनुष्य थे, उन्हें क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का भाषा तथा वेद के मन्त्रों के अर्थ सहित ज्ञान दिया था और इन चारों ऋषियों ने वेदों के इस ज्ञान को अपने समकालीन व समव्यस्क ब्रह्माजी को देकर इन पांचों ऋषियों ने शेष मनुष्यों में श्रवण व उपदेश के द्वारा वेद ज्ञान को स्थापित किया था। श्रवण व उपदेश द्वारा वेदों का ज्ञान दिये जाने के कारण ही वेद श्रुति कहलाये और अब भी इन्हें यदा कदा व प्रसंगानुसार श्रुति कहते हैं। यह भी जानने के योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को युवावस्था में उत्पन्न किया था क्योंकि यदि वह ऐसा न करता तो बच्चों का बिना माता-पिता के पालन पोषण नहीं हो सकता था और यदि वृद्धावस्था में मनुष्यों को उत्पन्न करता तो उनके द्वारा सन्तानोत्पत्ति न हो सकने से यह सृष्टि आगे नहीं चल सकती थी।

 

यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को प्रदत्त ईश्वरीय ज्ञान है जिसमें सभी विद्याओं की शिक्षा दी गई है। वेद ईश्वरीय ज्ञान इसलिए भी हैं कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को व्यवहार व कर्तव्याकर्तव्य का बोध कराने के लिए ईश्वर ही एकमात्र सत्ता होती है। वह यदि वेदों का ज्ञान न दे तो मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता व भाषा की रचना तथा उसे बोलना भी नहीं सीख सकता। बिना ईश्वर की सहायता से भाषा व ज्ञान को प्राप्त व उत्पन्न करने की सामथ्र्य मनुष्यों में सृष्टि के आरम्भ में नहीं होती। एक बार ईश्वर से ज्ञान व भाषा मिल जाने पर वह देश काल परिस्थितियों के अनुसार इसमें कुछ कुछ परिवर्तन करने में समर्थ हो जाते हैं। ज्ञान व भाषा अलौकिक एवं दिव्य वस्तु वा पदार्थ है जो ईश्वर में सदा सर्वदा से अर्थात् नित्यस्वरूप से विद्यमान है और उसी को प्रत्येक सृष्टि-कल्प के आरम्भ में परमात्मा मनुष्यों को देता है। वेदों की भाषा संस्कृत, जो लौकिक संस्कृत से कुछ भिन्न है, ईश्वर की अपनी भाषा है जिसे कृपा सिन्धु ईश्वर ने अपने अमृत पुत्रों को उपहार के रूप में भेंट किया है। यह ऐसा ही है कि जैसे माता-पिता अपनी ही भाषा को अपनी सन्तानों को सिखाते हैं। मनुष्यों का कर्तव्य है कि ईश्वर से प्रदत्त इस वेद ज्ञान की रक्षा करें और उसका प्रचार व प्रसार करें जिससे संसार के किसी कोने में अज्ञान रूपी अन्धकार न रहे। सभी मनुष्य सूर्य से प्रेरणा ग्रहण करें व विचार करें कि सूर्य किस तरह से अपनी परिधि पर घूमते हुए अपने चारों ओर घूमने वाले पृथिवी व अन्य सभी ग्रहों, उपग्रहों आदि का अन्धकार दूर करता है। इसी प्रकार से विद्वान मनुष्यों को भी अपने चहुंओर विद्यमान मनुष्यों का अज्ञान दूर करना चाहिये। यह वेदों के ज्ञान का प्रचार ही सृष्टि की आदि से सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य और परम धर्म रहा है। महाभारत काल के बाद वेदाध्ययन, वेदोपदेश व वेद प्रचार में बाधायें आयीं जिससे न केवल भारत अपितु सारे विश्व में अज्ञान अन्धकार उत्पन्न हो गया। इस महाभारत युद्ध का परिणाम यह हुआ कि संसार में अज्ञान व अविद्या सहित अन्धविश्वासों की उत्पत्ति हुई। ईश्वर की महती कृपा हुई कि उसने वर्तमान कालगणना की उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द को उत्पन्न किया और उन्होंने अपूर्व उत्साह, तप व पुरूषार्थ से विलुप्त वेद ज्ञान को प्राप्त कर उसका पुनरुद्धार एवं प्रचार किया।

 

महर्षि दयानन्द द्वारा उपलब्ध कराये गये वेदज्ञान से संसार के सभी अन्धविश्वासों को दूर कर मनुष्यों को ज्ञानी व सुखी बनाया जा सकता है। यह दुःख का विषय है कि हमारे तत्कालीन पौराणिक लोगों ने महर्षि दयानन्द के वेदों के प्रचार के लोकहितकारी कार्यों में अपने स्वार्थों व अज्ञान के कारण बाधायें उपस्थित की। उन्हें अपमानित किया और उनकी जीवन लीला समाप्त करने के प्रयत्न तक किये। वह पुराणानुयायी प्रत्यक्षतः और हमारे विदेशी शासक अंग्रेज दयानन्द जी के वेदों के प्रचार व इससे ईसाई मत के प्रचार में उपस्थित बाधाओं के कारण से उनके विरोधी थे। इस कारण महर्षि दयानन्द उनके गुप्त षडयन्त्रों का शिकार हुए और उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई। उनके द्वारा किया जा रहा मानव मात्र के हित का वेद प्रचार का कार्य 30 अक्तूबर, सन् 1883 को उनकी मृत्यु के कारण अवरूद्ध हो गया था। सौभाग्य से उनके कार्यों को उनके योग्य शिष्यों ने जारी रखा और उनके प्रयत्नों व ईश्वर की कृपा से वह कार्य अब भी चल रहा है। यह देश और मानवजाति का दुर्भाग्य ही था कि वैदिक धर्मी हमारे पौराणिक भाईयों व अन्य मतों के अनुयायियों ने महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार के कार्य में उनका सहयोग नहीं किया और इसके विपरीत उनके ईश्वर प्रेरित वेद प्रचार के कार्य में बाधायें उपस्थित कीं। महर्षि दयानन्द की मृत्यु के पश्चात हमारे पौराणिक बन्धुओं ने उन्हीं अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों व मिथ्या पूजा अर्चना को जारी रखा जो महाभारत काल के वेद ज्ञान के विलुप्त होने व विपरीत परिस्थितियों में उत्पन्न हुए थे। इन्हीं वेद विरोधी लोगों के उत्तराधिकारी आजकल यत्र तत्र पुराणों की कथायें करके अपने मनोरथ, लोकैषणा व वित्तषैणा आदि को सिद्ध करते हैं जिससे अज्ञान बढ़ रहा है और मनुष्य समाज में एकता होने के सथान पर उसमें फूट पड़ रही है। वेद ज्ञान से रहित समाज के सामन्य लोग ईश्वर के सच्चे स्वरूप की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि करने के स्थान पर अपने अपने आज के तथाकथित गुरुओं की स्तुति करने, उन्हें अनापशनाप धन देने व उन्हें ही महिमा मण्डित कर रहे हैं। बहुत व अनेकों मिथ्याधर्म प्रचारकों के अनुचित कृत्य व व्यवहारों के सामने आने पर भी उनके अनुयायियों में उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति में कोई कमी नहीं आती। यह अन्धविश्वास की चरम परिणति है जिसने उन्हें ज्ञान व विवेक से शून्य बना दिया है। वेदों के प्रति इन गुरुओं व उनके भक्तों की उदासीनता ने देश व समाज तथा सत्य सनातन वैदिक धर्म, संस्कृति व सभ्यता के लिए अनेक समस्यायें पैदा कर दी हैं परन्तु उन्हें इनकी कोई चिन्ता नहीं है।

 

महर्षि दयानन्द के दिवंगत होने के बाद पुराणों की प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद की विषम सामाजिक व्यवस्था, बाल विवाह, सतीप्रथा आदि व्यवस्थायें व प्रथायें जारी रहीं। आज दिन प्रतिदन नये नये पुराणों के कथाकार उत्पन्न हो रहे हैं जो इनमें से अधिकांश अन्धविश्वासों व मिथ्याचारों का ही प्रचार करते हैं। हमारे पुराण ग्रन्थ अन्धविश्वासों व काल्पनिक मिथ्या कथाओं से भरे पड़े हैं जिनका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ व उपदेशों में किया था। इन कथाकारों को इन कथाओं को करने में ही आनन्द आता है जिससे उन्हें प्रसिद्धि व अपने भक्तों से प्रभूत द्रव्यों की प्राप्ति होती है। हमारी धर्मभीरूजनता के पैतृक संसार क्योंकि अधिकांशतः पौराणिक व मिथ्याविश्वासों से पूर्ण हैं, अतः ऐसे लोगों की दाल समाज में अच्छी तरह गल रही है। यह लोग पुराणों की कथा इसलिये करते हैं कि वेदों का अध्ययन करने में पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह पुराणों की तुलना में कठिन कार्य है। यदि वह पुराणों को छोड़कर वेदाध्ययन व वेद प्रचार करें भी तो वेदों में अन्धविश्वास न होने से इन कथाकारों के मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकते। इसलिए इन पुराणों के प्रशंसकों ने सकारण ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान वेदों को जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के साधक हैं, अपने अपने स्वार्थ व अज्ञान के कारण ठुकरा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचारों से सहमत हम इन कृत्यों को देश का दुर्भाग्य ही मानते हैं। भारत की गुलामी का मुख्य कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, वेदविरुद्ध सामाजिक व्यवस्था जिसमें बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवाओं के पुनर्विवाह को नकारना, सतीप्रथा जैसी कुरीतियां व जन्मना जाति वाद, अनुचित छुआछूत व ऐसी अनेक विसंगतियों से युक्त व्यवहार व मुख्यतम् सामाजिक व धार्मिक असंगठन के भाव थे। यही सब कुछ वर्तमान आधुनिक समय में भी हो रहा है जिसका परिणाम भविष्य में देश, जाति व धर्म के लिए भयंकर हो सकता है। आज भी यत्र तत्र हिन्दू व पौराणिक अकारण अपमानित होते रहते हैं। देश के कई भागों में हिन्दू होने के कारण ही लोगों को भारी दुख उठाने पड़े हैं फिर भी हम लोगों में एकता उत्पन्न नहीं होती जिसका कारण हमारी अज्ञानता की यह सभी बातें, अन्धविश्वास व कुरीतियां आदि हैं। यह सब हमारे इन धार्मिक पौराणिक कथाकारों के कारण ही अस्तित्व में है तथा इनका इनके निवारण में कोई योगदान नहीं हैं।

 

हमारा विश्लेषण यह है कि यदि हम वेदों को मुख्य धर्म ग्रन्थ के रूप में नहीं अपनायेंगे और वेद विरुद्ध मान्यताओं को अस्वीकार नहीं करेंगे तो धार्मिक दृष्टि से न तो हम उन्नत होंगे और न ही हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को ही प्राप्त कर सकेंगे। वेदों की शिक्षाओं को जीवन में आत्मसात कर उसका आचरण करना उन्नति का मार्ग है और इस मार्ग के विपरीत जितने भी मार्ग हैं, उनसे जीवन की यथार्थ उन्नति न हुई है और न हो सकती है। यह मानना भूल होगी कि जिसके पास अधिक धन व सुख सुविधायें हैं, वह अधिक उन्नत है। धन सम्पन्न व्यक्तियों को ईश्वरीय कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार अपने अपने पाप-पुण्यों का भोग भोगना ही होगा जिसके अन्र्तगत उन्हें परजन्मों में उचितानुचित तरीकों से कमाये धन व पात्र व्यक्तियों को दान न दिये जाने के कारण भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हमें लगता है कि परजन्मों में आजकल के सुविधाहीन मनुष्य जो अज्ञानों व अन्धविश्वासों से पृथक व वेद मार्ग के पथिक हैं, वह अधिक लाभ की स्थिति में होगें। मनुष्य को मनुष्य मननशील होने के कारण कहते हैं। भविष्य में दुःखों से बचने के लिए सभी जिज्ञासुओं को वेद एवं सत्यार्थप्रकाश आदि सद्ग्रन्थों का अध्ययन कर स्वयं सत्य वा असत्य का निर्णय करना चाहिये और असत्य का त्याग और सत्य को स्वीकार करना चाहिये क्योंकि सत्य का व्यवहार ही मनुष्य की उन्नति का प्रमुख कारण है और असत्य को मानना व आचरण करना ही पतन का मार्ग हैं। ईश्वर हमें सत्य के ग्रहण और असत्य को छोड़ने की सामथ्र्य प्रदान करें। इत्योम्।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

 देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

भारत की प्रथम धार्मिक व सामाजिक संस्था जिसने हिन्दी को धर्मभाषा के रूप में अपनाकर प्रचार किया।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आर्य समाज की स्थापना गुजरात में जन्में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल, सन्  1875 को मुम्बई नगरी में की थी। आर्यसमाज क्या है? यह एक धार्मिक संस्था है जिसका उद्देश्य धर्म, समाज व राजनीति के क्षेत्र से असत्य को दूर करना व उसके स्थान पर सत्य को स्थापित करना है। क्या धर्म, समाज व राजनीति आदि में असत्य का व्यवहार होता है? इसका उत्तर हां में हैं और हम समझते हैं कि सभी सुबुद्ध बन्धु हमारी इस धारणा व मान्यता से सहमत होंगे। यदि धर्म के क्षेत्र में असत्य की बात करें तो हमें सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान से वार्ता को आरम्भ करना होगा। सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात जब प्रथमवार मनुष्यों के रूप में युवा स्त्री व पुरूषों की उत्पत्ति ईश्वर ने की, तो उन्हें अपने दैनन्दिन व्यवहारों के लिए बोलचाल की भाषा एवं कर्तव्य व अकर्तव्य के ज्ञान की आवश्यकता थी। वह ज्ञान मनुष्यों को प्रथम पीढ़ी में प्रथम दिन ही ईश्वर ने दिया जिससे कि वह अपना समस्त व्यवहार जान सके व उसे कर सके थे। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्योत्पत्ति के प्रथम दिन ही वैदिक धर्म की स्थापना स्वयं परमात्मा ने चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वेद ज्ञान देकर की थी।

 

यह भी निर्विवाद है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक पूरे भूमण्डल पर वेद व वैदिक धर्म ही स्थापित व संचालति व आचरित रहा जो ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर पूर्ण सत्य, युक्तिपूर्ण और तर्कसंगत था। महाभारत युद्ध में हुई जान व माल की भारी क्षति के कारण देश के अध्ययन व अध्यापन का पूरा ढांचा ध्वस्त हो गया। यद्यपि धर्म तो वैदिक धर्म ही रहा परन्तु वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन व अध्यापन की समुचित व्यवस्था न होने के कारण इसमें अज्ञान, अन्धविश्वास वा मिथ्याविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायें-विषमतायें, अनेक पाखण्डों सहित संस्कृति व सभ्यता में भी विकार उत्पन्न होने लगे। अज्ञान के कारण स्वार्थ ने भी शिर उठाया और गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जो हमारे तत्कालीन वेदज्ञान से रहित व अल्पज्ञानी ब्राह्मणों द्वारा संचालित की जाती थी जिसमें उन्होंने अपने लिये सर्वाधिक अधिकार सुरक्षित कर लिये। यहां तक कहा गया कि ब्राह्मण जो कह दे, वह परम प्रमाण Word of God होता है। इसका अर्थ था की रात को यदि वह दिन व दिन को रात कहें, तो वही स्वीकार करना होगा। यह ऐसा ही था कि जैसा कि कुछ मतों में वर्तमान में भी व्यवस्था है कि जिसके अनुसार धर्म में अकल का दखल नहीं है। इस पर भी संसार में सर्वत्र वैदिक धर्म जो अनेक अन्धविश्वासों से ग्रसित था प्रचलित रहा। संसार में वैदिक धर्म के बाद दूसरा मत जो अस्तित्व में आया, उसे पारसी मत के नाम से जाना जाता है। इसके बाद भारत में बौद्धमत व जैनमतों का आविर्भाव हुआ और कालान्तर में भारत से सुदूर देेशों में ईसाईमत व इस्लाममत का प्रादुर्भाव हुआ। इन सभी मतों की भाषा संस्कृत से भिन्न, पारसी, पाली, हिब्रू, अरबी आदि थी। इसके बाद भारत में सिखमत की स्थापना भी हुई जिनका धर्म ग्रन्थ गुरू-ग्रन्थ-साहब गुरूमुखी भाषा में है। इस प्रकार से सन् 1875 तक अस्तित्व में आये किसी भी मत व सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थ की भाषा हिन्दी नहीं थी। महर्षि दयानन्द संसार के इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वैदिक धर्म में हुए विकारों व अन्धविश्वासों आदि के सुधार के लिए युक्तियों व तर्क से समलंकृत वैदिक धर्म के यथार्थ स्वरूप को अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में प्रस्तुत किया जो वर्तमान में आर्यों का धर्मग्रन्थ है। यह पहला धर्मग्रन्थ है जो हिन्दी में है तथा जिसे महर्षि दयानन्द ने आर्यभाषा अर्थात् आर्यों (गुण, कर्म व स्वभाव की दृष्टि से श्रेष्ठ मनुष्यों) की भाषा नाम दिया।

 

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की प्रथम रचना सन् 1874 के उत्तरार्ध में काशी में महर्षि दयानन्द ने की थी। इसका सन् 1883 में नया संशोधित संस्करण तैयार किया गया जिसका प्रकाशन सन् 1884 में हुआ था। यही संस्करण आज आर्यों के धर्मग्रन्थ के रूप में पूरे विश्व में प्रचलित व प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी संख्या में पौराणिक मान्यता प्रधान सनातन धर्म के लोगों ने इसे पढ़ व समझ कर तथा इसकी मान्यताओं से सहमत होकर इसे स्वीकार किया। शायद ही कोई ऐसा मत होगा जिसके अनुयायियों ने वैदिक मत को स्वीकार न किया हो। बहुत से लोग अनेक निजी कारणों से अपने मत की कमियों व खामियों को जानते हुए भी उसे छोड़ कर अन्य स्वमत से श्रेष्ठ मत को स्वीकार नहीं कर पाते परन्तु कुछ ही यह साहस कर पाते हैं। इस दृष्टि से आर्यसमाज द्वारा प्रचारित व प्रशस्त वैदिक मत संसार में अपूर्व है जिसमें समय समय पर सभी मतों के लोग सम्मिलित होते रहे हैं। सत्यार्थप्रकाश धर्मग्रन्थ हिन्दी में होने के कारण महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के सभी अनुयायियों ने तो हिन्दी सीखी ही, इसके साथ ही अन्य मतों के लोगों ने इसके गुण दोष जानने की दृष्टि भी हिन्दी सीखी जिससे एक लाभ यह हुआ कि हिन्दी का प्रचार व प्रसार हुआ। हिन्दी के प्रचार व प्रसार की दृष्टि से ही महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों, मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश, का अंग्रेजी व उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद करने की अनुमति नहीं दी थी जिसका यह प्रभाव हुआ कि देश विदेश में लोगों ने हिन्दी सीखी।  इतना ही नहीं जब महर्षि दयानन्द के जीवन काल में ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजकार्यों में भाषा के प्रयोग के लिये हण्टर कमीशन बनाया तो महर्षि दयानन्द ने हिन्दी को राजकार्यों में प्रथम भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए एक आन्दोलन किया जिसके परिणाम से देश भर में आर्यसमाज के अधिकारी व अनुयायी लोगों से बड़ी संख्या में हस्ताक्षर कराकर मेमोरेण्डम कमीशन को भेजते थे। महर्षि दयानन्द के समय में ही उनकी प्रेरणा से आर्य दर्पण, भारत सुदशा प्रवर्तक आदि अनेक हिन्दी पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया गया था जिससे हिन्दी का प्रचार देश भर में हुआ। यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द से प्रभावित उदयपुर, शाहपुरा व जोधपुर आदि रिसायतों के राजाओं ने उनकी प्रेरणा से अपने यहां हिन्दी को राजकार्यों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी। महर्षि दयानन्द ने अपना समस्त पत्रव्यवहार हिन्दी में करके उस युग में एक महान क्रान्ति को जन्म दिया था। हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्वामीजी के काशी के सत्संगों में सम्मिलित हुए थे और उन्होंने उनकी प्रशंसा की है। यह संभव है कि महर्षि दयानंद के विचारों व साहित्य का प्रभाव भारतेंदु हरिश्चंद्र जी पर पड़ा हो और वह उनके हिंदी के युग पुरुष के निर्माण में सहायक हुए हो। महर्षि दयानन्द के परलोक गमन के बाद आर्य समाज ने गुरूकुल व दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज खोले जिनमें हिन्दी को मुख्य व प्रमुख भाषा के रूप में स्थान मिला जो हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सहायक रहा। इसके साथ आर्य समाज के हिन्दी प्रेम के कारण आर्य समाज में हिन्दी के अनेक विद्वान, वेदभाष्यकार, कवि, पत्रकार, प्रोफेसर, अध्यापक आदि भी उत्पन्न हुए जिन्होंने साहित्य सृजन कर व अन्यों को शिक्षित कर हिन्दी के स्वरूप को निखारने व उसको घर घर तक पहुंचाने में बहुत योगदान किया है। आर्यसमाजों के लिए अपना समस्त कार्य हिन्दी में करना अनिवार्य होता था, रविवार के सत्संगों में विद्वानों के सभी उपदेश भी हिन्दी में ही होते थे। यह भी महत्वपूर्ण है कि महर्षि दयानन्द ने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा हिन्दी में लिखी जिसे हिन्दी की प्रथम आत्मकथा होने का गौरव प्राप्त है। इस प्रकार से आर्य समाज की छत्र छाया में देश में हिन्दी ने अपना नया प्रभावशाली स्वरूप प्राप्त करने के साथ आर्य समाज के विद्वानों ने प्रचुर हिन्दी साहित्य भी दिया है। इस दृष्टि से कोई भी धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक संस्था आर्यसमाज से समानता नहीं रखती अर्थात् आर्यसमाज का हिन्दी के प्रचार व प्रसार में सर्वोपरि योगदान रहा।

 

हम आज हिन्दी दिवस के अवसर पर गुजरात में जन्मे महर्षि दयानन्द जिनकी मातृभाषा गुजराती थी और उनके द्वारा स्थापित धार्मिक और सामाजिक संस्था आर्यसमाज के हिन्दी भाषा के लिए किए गए योगदान को स्मरण कर दोनों का वन्दन करते हैं और हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में सभी हिन्दी प्रेमियों को बधाई देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001

आयशा की हड्डी

सहीह मुस्लिम में दी गयी  एक हदीस (अध्याय -३  , हदीस संख्या ३००  , पृष्ट संख्या २२० , २२१) पढ़िए

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सारांश ये है कि आयशा ने बताया कि मासिक धर्म के समय जब मैं  पेय पदार्थ पी रही होती थी तो मैं उस बर्तन को जिसमें से  पेय पदार्थ  पी रही होती थी मुहम्मद साहब को दे दिया करती थी और वह उस जगह जिस जगह मैने मुंह लगा के पीया होता था अपना मुंह लगा कर पी लिया करते थे  और जब मासिक धर्म के समय  में मैं  हड्डी से मांस खा रही होती थी तो  उसे मुहम्मद साहब को दे दिया करती थी और वो उसी जगह जहाँ मेरा मुंह होता था अपना मुंह लगाते थे . ज़ुहैर ने पीने के बारे में कुछ नहीं बताया.

यही हदीस अहमद बिन हम्बल ज ६ स ६४ पर कुछ शब्दों के हेर फेर से दी हुयी है :

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आयशा का बयान है कि :

दस्तरख्वान पर जब आं हजरत मेरे साथ खाना खाते तो उसी हड्डी को आप भी चूसते, जिसे मैं चूसती थी और उसी प्याले में उसी जगह आप भी मुंह लगाकर पीते जिस प्याले में जहाँ पर मैं मुंह लगाती थी हालांकि में हैज़ की हालात में होती थी .

सभ्यताओं के  इतिहास व उनके महापुरुषों के  आचरण से युवक प्रेरणा ग्रहण कर  महापुरुषों के उत्तम आचरण को अपने व्यवहार में ढालते और उनके उद्देशों की पूर्ति के लिए अग्रसर होते हैं . यही उस सभ्यता एवं संकृति के उत्थान या पतन को निश्चित करता है . यदि इतिहास उत्तम है और युवक उससे प्रेरणा ग्रहण कर उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं तो उस सभ्यता का उत्थान होता है अन्यथा वह पतन के गर्त में चली जाती है .

हदीसें मुसलामानों के इतिहास का एक बड़ा स्त्रोत है . और इस स्त्रोत में सबसे ज्यादा हदीसें शायद हजरत आयेशा के माध्यम से ही हैं . लेकिन इस हदीसों को पढने से उत्तम आचरण और सभ्यता के समन्वय का अभाव ही दृष्टि गोचर होता है.

इस हदीस का हम क्या विश्लेष्ण करें मुस्लिम लेख्रक फरोग काजमी साहब ने बड़े ही प्रभावी ढंग से वर्णन किया है उसे ही पाठकों के लिए देते हैं :

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  • इस बयान के जरिये हजरत आयशा का मकसद सिर्फ ये जाहिर करना है कि रसूले खुदा आपको इस कदर चाहते थे कि उन्हें आपके थूक या हैज़ से कोई गुरेज़ नहीं था .
  • लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि आखिर आं हजरत उसी हड्डी को क्यों चूसते थे जिसे आप चूसती थी ?
  • क्या आधी हड्डी आपके और आधी हड्डी पैगम्बर के मुंह में होती थी ?
  • क्या उस हड्डी में दोनों तरफ छेद होता था कि आधा गूदा आपके हिस्से में और आधा गूदा पैगम्बर के हिस्से में आता था ?
  • या फिर चूसने का कोई और तरीका था कि जब आप उस हड्डी को चूस लेती थी, तो पैगम्बर चूसते थे ?
  • मगर आपके चूसने के बाद उसमें गोश्त गूदा या शोरबा वगैरहा तो रहता न होगा, फिर पैगम्बर क्या चूसते थे?
  • बयान में ये सराहत भी नहीं की गयी कि जिस प्याले में आयशा और पैगम्बर एक ही जगह मुंह लगाकर पीते थे उसमें क्या चीज होती थी ? पानी ………….. या कुछ और !

फरोग काजमी साहब इन हदीसों से अत्यंत विचलित प्रतीत होते हैं और कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग आयशा, जो मुसलामानों की माँ हैं, के लिए किया है उन्हें  हम यहाँ लिखना ठीक नहीं समझते .

मुस्लिम विद्वानों को चाहिए कि इतिहास में से ऐसे सन्दर्भ जो ठीक नहीं हैं पर स्पष्टीकरण दें जिससे ये किसी महापुरुष की छवि को धुमिल  करने का करना न बनें