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प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः-
अन्य मत पंथों के विद्वानों ने महर्षि दयानन्द जी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश जी तक जब कभी आर्यों के दिये किसी प्रमाण को चुनौती दी तो मुँह की खाई। अन्य-अन्य मतावलम्बी भी अपने मत के प्रमाणों का अता- पता हमारे शास्त्रार्थ महारथियों से पूछ कर स्वयं को धन्य-धन्य मानते थे। ऐसा क्यों? यह इसलिये कि प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी श्री पं. लेखराम जी स्वामी वेदानन्द जी आदि पुस्तक सामने रखकर मिलान किये बिना प्रमाण नहीं दिया करते थे। ऐसी अनेक घटनायें लेखक को स्मरण हैं। अब तो आपाधापी मची हुई है। अपनी रिसर्च की दुहाई देने वाले पं. धर्मदेव जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तकों को सामने रख कुछ लिख देते हैं। उनका नामोल्लेख भी नहीं करते। प्रमाण मिलान का तो प्रश्न ही नहीं। स्वामी वेदानन्द जी ने प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी एक अलभ्य ग्रन्थ उपलब्ध करवाने की इस सेवक को आज्ञा दी थी। यह रहा अपना इतिहास।
एक ग्रन्थ के मुद्रण दोष दूर करने बैठा। प्रायः सब महत्त्वपूर्ण प्रमाणों के पते फिर से मिलाये। बाइबिल के एक प्रमाण के अता-पता पर मुझे शंका हुई। मिलान किया तो मेरी शंका ठीक निकली। घण्टों लगाकर मैंने प्रमाण का ठीक अता-पता खोज निकाला। बात यह पता चली कि ग्रन्थ के पहले संस्करण का प्रूफ़ पढ़ने वाले अधकचरे व्यक्ति ने अता-पता ठीक न समझकर गड़बड़ कर दी। आर्य विद्वानों व लेखकों को पं. लेखराम जी, स्वामी दर्शनानन्द जी, आचार्य उदयवीर और पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय की लाज रखनी चाहिये। मुद्रण दोष उपाध्याय जी के साहित्य में भी होते रहे। उनकी व्यस्तता इसका एक कारण रही।

मेरी अमेरिका यात्रा – डॉ. धर्मवीर

मेरा विदेश जाने का यह तीसरा प्रसंग था। प्रथम यात्रा १९८४ में सिंगापुर की थी, दूसरी यात्रा श्री देवनारायण आर्य के निमन्त्रण पर हॉलैण्ड की थी। उसका विवरण ‘मेरी हॉलैण्ड यात्रा’ की डायरी के रूप में परोपकारी में प्रकाशित हुआ था। अमेरिका यात्रा का जिनको पता था, उन मित्रों का आग्रह था- मैं यात्रा विवरण अवश्य लिखूँ। इस लेखन का प्रमुख लाभ यह होता है कि पाठकों को अन्य देशों में आर्यसमाज की चल रही गतिविधियों का ज्ञान होता है, साथ ही सभा के कार्यकलाप एवं प्रगति से परिचय भी हो जाता है। मेरी इस अमेरिका यात्रा का कार्यक्रम बहुत आकस्मिक रूप से बना। बैंगलोर के डॉ. सतीश शर्मा निष्ठावान्, कर्मठ, सिद्धान्तप्रिय आर्य हैं। उनका परिचय हमारी बेटी सुयशा के कारण हुआ। दोनों की भेंट आर्य समाज के सत्संग में होती थी। सुयशा ने डॉ. सतीश शर्मा से मेरी वार्ता कराई। डॉक्टर जी अजमेर ऋषि मेले के अवसर पर पधारे, वेद गोष्ठी में अपने विचार रखे, तब से उनका मुझसे भातृवत् स्नेह है।
डॉक्टर जी की बड़ी बेटी गार्गी, जो ऑक्लाहोमा में चिकित्सा में स्नातकोत्तर का अध्ययन कर रही है, उसका विवाह ऑक्लाहोमा में डॉ. कौस्तुभ से निश्चित हुआ था। उस निमित्त डॉक्टर सतीश जी ने अपने जन्म स्थान मथुरा में, बैंगलोर में तथा अक्लाहोमा में कार्यक्रम निश्चित किया।
इसी विवाह के प्रसंग में डॉक्टर जी ने इच्छा व्यक्त की और कहा- भाई साहेब! गार्गी की और मेरी भी इच्छा है कि आप अमेरिका चलें और विवाह संस्कार का कार्यक्रम सम्पन्न करायें। आप अमेरिकन वीजा के लिये आवेदन कर दें। मेरा विचार है, आपको सरलता से वीजा मिल जायेगा, क्योंकि आपकी पुत्री अमेरिका में रहती है।
इस विचार के बाद मैंने पुत्री सुयशा आर्य और प्रिय भास्कर से चर्चा की। दोनों ने सब कार्यों की औपचारिकता शीघ्र ही पूर्ण कर दी और दूतावास में चार-पाँच फरवरी २०१६ को साक्षात्कार का समय मिल गया। मैंने दिल्ली पहुँचकर डॉ. राजवीर शास्त्री के साथ प्रथम दिन नेहरू प्लेस पहुँचकर प्राथमिक कार्यवाही पूर्ण की और अगले दिन चाणक्यपुरी स्थित अमेरिकी दूतावास में जाकर साक्षात्कार दिया। सुयशा ने साक्षात्कार की बहुत तैयारी कराई थी। यथाक्रम दो मिनट में साक्षात्कार पूर्ण हो गया। अधिकारी ने पूछा- आपके बच्चे कहाँ काम करते हैं, कब जायेंगे और सहज उत्तर दिया- आपका वीजा हो गया और पासपोर्ट रख लिया और इसके साथ ही अमेरिका की यात्रा भी निश्चित हो गई। डॉ. शर्मा जी को सूचित किया तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई।
इस विवाह के प्रसंग में डॉ. शर्मा जी ने ६ मार्च २०१६ को मथुरा में तथा ८ मार्च को बैंगलोर में विवाह पूर्व कार्यक्रम रखा था। विवाह ११ मार्च २०१६ को ऑक्लाहोमा में होना निश्चित था।
मथुरा में कार्यक्रम सम्पूर्ण वैदिक रीति से हो, उसमें बड़े व्यक्तियों के रूप में आर्य समाज के अधिक-से-अधिक विद्वान् सम्मिलित हों, उनका आशीर्वादात्मक प्रवचन हो, ऐसी डॉक्टर जी की भावना थी। इसके लिये डॉ. सतीश जी ने मुझे व ज्योत्स्ना (मेरी धर्मपत्नी) को आमन्त्रित किया। उनका आग्रह था, मैं कुछ विद्वानों के नाम दूँ और उनसे मथुरा के कार्यक्रम में पहुँचने का आग्रह करूँ। उनकी इच्छा के अनुसार मैंने प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु, डॉ. वेदपाल, डॉ. सुरेन्द्र कुमार, डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार, आचार्य सत्यजित् जी आदि का नाम सुझाया था। डॉ. सतीश शर्मा ने सबको साग्रह निमन्त्रित भी किया। इनमें से आचार्य सत्यजित् जी और प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, श्री आनन्द प्रकाश जी, श्री धरणे जी, श्री म्हेत्रे जी ने इस कार्यक्रम में उपस्थित होकर सौ.कां. गार्गी और पूरे शर्मा परिवार को आशीर्वाद प्रदान किया।
मथुरा का कार्यक्रम समाप्त कर प्रो. जिज्ञासु जी, ज्योत्स्ना तथा मैं दिल्ली लौट आये। मेरी यात्रा का प्रारम्भ दिल्ली से ९ मार्च २०१६ को था। सायंकाल पाँच बजे ज्योत्स्ना मुझे इन्दिरा गाँधी हवाई अड्डे पर पहुँचा गई।
यात्रा में उथल-पुथल न हो, कठिनाई न हो, वह भी क्या यात्रा? बस मेरी यह यात्रा असली यात्रा हो गई। पहली सूचना आई- दुबई जाने वाला वायुयान दो घण्टे देरी से जायेगा। विलम्ब के कारण दुबई से डैलस जाने वाले विमान में मुझे डॉक्टर शर्मा जी के साथ जाना था। बैंगलोर से विमान कुछ विलम्ब से चला, परन्तु हमारे विमान से पहले पहुँच गया और प्रतीक्षा करने पर भी हमारा विमान दुबई नहीं पहुँचा तो वह विमान प्रस्थान कर गया।
भारत से बाहर जाते ही मेरा दूरभाष बन्द हो गया। सम्पर्क करना सम्भव नहीं हुआ। रात्रि ढाई बजे वहाँ के समय अनुसार हमारा यान दुबई पहुँचा। अब इधर से उधर, उधर से इधर भटकना प्रारम्भ किया। भाषा की कठिनाई, अपरिचित स्थान, कभी ऊपर-कभी नीचे, कभी इस पंक्ति में, कभी उस पंक्ति में, सवेरे छः बजे खिड़की तक पहुँचा, तो उस समय कोई यान नहीं था। बाद में सूचना मिली- ह्यूस्टन होकर डैलस जाने वाला विमान ९ बजे प्रस्थान करेगा, वही ठीक है। टिकट लेकर प्रतीक्षा करता रहा। यहाँ शाकाहारी भोजन में कुछ था नहीं, जो कुछ साथ रख छोड़ा था, उसी से काम चला लिया। ९ बजे फिर विमान में सवार हुआ। निरन्तर तेरह घण्टे की यात्रा कर ह्यूस्टन पहुँचा। वहाँ दिन के तीन बज रहे थे। विदेश प्रवेश की औपचारिकता और सामान खोजने में दो घण्टे से भी अधिक समय लगा। अगली उड़ान पकड़ने के लिये द्वार तक गया तो पता लगा- विमान तो जा चुका है। फिर अधिकारी से सम्पर्क किया, वह एक हिन्दी भाषी सहृदय महिला थी। उसने बताया- वह मुझे दो टिकट देगी, पहला सात बजे की उड़ान का, उसमें स्थान न मिले तो नौ बजे की उड़ान का। हवाई अड्डा बहुत बड़ा था, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिये रेलगाड़ी की व्यवस्था थी। पहले सात बजे के लिये गया, स्थान नहीं था। फिर नौ बजे की प्रतीक्षा की। इस बीच में एक युवक नागपुर से श्री जोशी मुझे धोती-कुर्ते में देखकर मुस्कुराया तो मैंने उससे बात की और उसके दूरभाष की सहायता से सुयशा से सम्पर्क किया। वह सम्पर्क न हो पाने से बहुत चिन्तित थी। बात करके शान्ति हुई। उसने डॉ. शर्मा जी को भी सूचित कर दिया। मैं नौ बजे चलकर दस बजे डैलस पहुँचा। बाहर शीत था। हवाई अड्डे से बाहर प्रतीक्षा में एक अपरिचित महिला यात्री बैठी थी। उससे मैंने दूरभाष की सहायता माँगी, तो उसने मुझे देखकर कहा- विदेश के लिये फोन नहीं दूँगी। मैंने कहा- अमेरिका में ही करना है, तब उसने सुयशा से मेरी बात करा दी। डॉ. शर्मा जी को सूचना मिलते ही उनके मित्र श्री वर्मा जी और उनकी डॉ. पुत्री मुझे लेने हवाई अड्डे पर आये थे। उन्होंने मुझे खोज लिया और मेरे संकट का अन्त हो गया।
डॉ. वर्मा जी डॉ. शर्मा जी के मित्र हैं। इस विवाह के अवसर पर अधिकांश मित्र मण्डल शर्मा जी के रोगियों का है और जैसे जो पहले उनके मित्र बने, बाद में उनके रोगी बन गये। मैंने शर्मा जी से पूछा- आपके सब मित्र आपके रोगी ही हैं, तो वे कहने लगे- ये सब पहले मेरे रोगी बनकर आये थे, ये ही आज मित्र और सहयोगी हैं। डॉ. वर्मा और डॉ. सिंह परस्पर समाधि हैं और इनके पुत्र राजीव डैलस में रहते हैं तथा राजीव इञ्जीनियर हैं और बेटी डॉक्टर है। रात्रि में वर्मा जी के घर पर ही ठहरा। फिर ११ मार्च को प्रातः पाँच बजे घर से अपनी गाड़ियों से ओक्लाहोमा के लिये निकले और ग्याहर बजे होटल पहुँच गये। डॉ. शर्मा जी प्रतीक्षा कर रहे थे। सबसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
होटल में मुझे बैंगलोर के होटल व्यवसायी श्री चन्द्रशेखर राजू जी के साथ तीन दिन रहने का अवसर मिला। वे वेद और यज्ञ में बहुत निष्ठा रखते हैं। बैंगलोर में डॉ. सतीश शर्मा, श्री चन्द्रशेखर जी मिलकर यज्ञ पर अनुसन्धान करने में लगे हुए हैं।
स्नानादि से निवृत्त होकर सभी एक बजे विवाह स्थल पर पहुँचे। यहाँ का विशाल भवन गुजराती समाज का है। किराये पर लिया गया था। टेबल-कुर्सी लगाने से लेकर साजसज्जा तक, शेष सभी लोगों ने मिलकर कर लीं। यहाँ कर्मचारी बहुत महँगे होते हैं, उनसे काम सम्भव भी नहीं होता। घरेलू काम हो या सामाजिक, सभी काम स्वयं करने होते हैं। हॉल में कुछ लोगों ने पहले पहुँचकर व्यवस्था की, फिर जलपान कर संस्कार का कार्य प्रारम्भ किया। संस्कार की सारी सामग्री डॉ. शर्मा जी भारत से लेकर आये थे। संस्कार दो भागों में किया गया। संस्कार की सामान्य विधियाँ पहले कर ली गईं, फिर जो वर-वधू के मित्र अमेरिकन लोग थे, वे कार्यालय से साढ़े पाँच बजे के बाद पहुँचे, उनके लिये सब व्यवस्थाएँ पाणिग्रहण, लाजाहोम, सप्तपदी की प्रक्रिया बाद में की गई। मैंने विधिभाग सम्पन्न कराया, सबकी अंग्रेजी में व्याख्या डॉक्टर शर्मा जी ने की। यहाँ के लोगों को वैदिक विधि से संस्कार कैसे होता है, बताना तथा उसका महत्त्व समझाना, इस कार्यक्रम का उद्देश्य था। डॉक्टर शर्मा जी की तीनों पुत्रियाँ सुपठित हैं। श्रीमती गार्गी, जिसका संस्कार सम्पन्न किया, वह एम.बी.बी.एस कर स्नातकोत्तर का अध्ययन ओक्लाहोमा विश्वविद्यालय से कर रही हैं। उसके पति डॉ. कौस्तुभ न्यूक्लियर मेडिसिन में पीएच.डी. करके कार्यरत हैं। डॉ. शर्मा जी की दूसरी बेटी शिकागो में एवियेशन में अध्ययन कर रही है। तीसरी बेटी भारत में एम.बी.बी.एस. कर रही है।
संस्कार का कार्य सम्पन्न होने के पश्चात् भोजन हुआ, फिर नृत्य, संगीत का कार्यक्रम करके ११ बजे कार्यक्रम सम्पूर्ण हुआ। फिर सबने मिलकर सब सामान यथास्थान पहुँचाकर हॉल खाली कर दिया। वह कार्य सम्पन्न हो गया था, जिसके निमित्त से अमेरिका आना हुआ। आकर होटल में विश्राम किया।
१२ मार्च प्रातः सभी अतिथि धीरे-धीरे विदा हो रहे थे। समय मिलने पर श्री चन्द्रशेखर राजू से वेद के प्रचार-प्रसार पर बातें हुईं, उन्होंने अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों की जानकारी दी। जिनको प्रस्थान करना था, उनको विदाकर शेष लोगों का ओक्लाहोमा के दर्शनीय स्थल की यात्रा का विचार बना। सब मिलकर ओक्लाहोमा के काऊब्वाय संग्रहालय में गये। अंग्रेजों के अमेरिका में आने से पहले, यहाँ रहने वाले लोग जिनको रेड इण्डियन्स कहा जाता है, उनके जीवन व सामाजिक व्यवस्था को बताने वाला संग्रहालय है। धीरे-धीरे यहाँ के लोगों को मार दिया गया और अंग्रेजों ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। शासन की प्रारम्भिक व्यवस्थाओं का भी यहाँ आकृति बनाकर प्रदर्शन किया गया है। संग्रहालय बड़ा और दर्शनीय है। वहाँ से गार्गी के घर पर भोजन करके होटल पर लौटकर विश्राम किया।
१३ मार्च अगले दिन प्रातराश करके निकले। आज के दिन गार्गी ने अपना विश्वविद्यालय दिखाया। रोगी बच्चों के लिये नया भवन बना है, जो किसी बड़े होटल जितना और उतना ही सुन्दर बना है। विश्वविद्यालय का पुस्तकालय देखा, वह भी विशाल है। यहाँ लोग पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करते हैं। रात्रि को भट्टाचार्य जी के परिवार ने सबको भोजन पर आमन्त्रित किया, वहाँ सब भोजन पर गये। वहाँ से लौटकर होटल पर विश्राम किया।
१४ मार्च को होटल से निकल कर चन्द्रशेखर राजू को हवाई अड्डे पर विदा करने गये। आज का दिन मिलने में बीता। शर्मा जी के साथ निकलकर नगर का भ्रमण किया। सायं डॉ. शाह के घर सब भोजन पर आमन्त्रित थे। भोजन करके होटल में विश्राम किया।
१५ मार्च को प्रातः भ्रमण करते हुए प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन किया। आज तेज हवा चल रही थी। ओक्लाहोमा-अमेरिका का सूखा प्रदेश है। अन्य प्रान्तों की तुलना में बहुत हरा-भरा नहीं है। गर्मी भी भारत की भाँति बहुत अधिक होती है। इसे अमेरिका में पिछड़ा प्रदेश माना जाता है। आज लौटने का कार्यक्रम था। डॉ. गार्गी पाँच बजे चिकित्सालय से लौटीं। बड़ी गाड़ी नहीं मिल सकी, अतः कौस्तुभ के माता-पिता ओक्लाहोमा में रहे। बाकी लोगों ने डैलस के लिये प्रस्थान किया। रात्रि को दस बजे डैलस पहुँचे। भोजन करके शर्मा जी के आग्रह पर पूरे परिवार के साथ एक घण्टा धार्मिक चर्चा हुई, प्रश्नोत्तर हुए। यहाँ हम राजीव जी के यहाँ ठहरे। राजीव जी इञ्जीनियर हैं। राजीव जी के श्वसुर डॉ. वर्मा तथा पिता श्रीचन्द जी दोनों पुराने सहपाठी और मित्र हैं। दोनों केन्या में रहते हैं। दोनों डॉक्टर जी के मित्र हैं। विवाह के लिये केन्या से यहाँ आये हुए थे। रात्रि विश्राम किया।
१६ मार्च प्रातः शीघ्र उठकर प्रस्थान की तैयारी की, इतनी शीघ्रता में राजीव जी की पत्नी और गार्गी ने मिलकर भोजन तैयार करके साथ रख दिया। कौस्तुभ, राजीव जी, शर्मा जी, सब बस अड्डे तक छोड़ने आये। बस अड्डे के पास पहुँचकर राजीव जी ने हम सब को वह स्थान दिखाया, जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को गोली मारी गई थी। जिस घर से गोली मारी गई तथा जिस स्थान पर गोली लगी, सड़क पर गोली लगने के स्थान पर सफेद चिह्न बनाये गये हैं तथा जहाँ से गोली मारी गई थी, भवन की उस मंजिल को संग्रहालय बनाया गया है। बस यथासमय चली। दोनों ओर खेत-जंगल के दृश्य थे, साफ चौड़ी सड़क पर चलते हुए ११ बजे ह्यूस्टन पहुँच गया। श्री मुनीश गुलाटी जी बीमार होने पर भी अपनी पत्नी के साथ बस अड्डे पर पहुँचे, उन्हें ज्वर था। उनके साथ मार्ग में उनकी बेटी प्रिया, जो चिकित्सा विज्ञान में पढ़ती है, उसका भी एक सप्ताह का अवकाश था, उसको लेकर हम सब घर पहुँचे। गुलाटी जी का परिवार पुराना आर्य परिवार है। शुद्ध शाकाहारी है, विश्वविद्यालय में मांस बनता है, अतः उनकी बेटी वहाँ भोजन नहीं करतीं। पीने के पानी के नल के नीचे मांस धोया जाता है, अतः पानी की बोतलें भी घर से लेकर जाती हैं। यह है संस्कार का प्रभाव। भोजन के बाद विश्राम कर गुलाटी परिवार के साथ आर्य समाज ह्यूस्टन पहुँचा। प्रथम पं. सूर्यकुमार नन्द जी से भेंट हुई। उन्हें मैं गुरुकुल गौतमनगर से जानता हूँ। आर्य समाज मन्दिर विशाल तथा सुन्दर है। अमेरिका में यह सबसे समर्थ समाज माना जाता है। यहाँ के दूसरे विद्वान् डॉ. हरिश्चन्द्र हैं, वे और उनकी पत्नी कविता जी से भी पुराना परिचय है। वे अनेक बार अजमेर आते रहे हैं। यहाँ निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ७ बजे से ८ बजे तक प्रवचन तथा आधा घण्टा प्रश्नोत्तर हुए। आज के व्याख्यान का विषय था- ‘ईश्वर का सच्चा स्वरूप’। व्याख्यान के पश्चात् भोजन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ। गुलाटी जी के साथ घर विश्राम किया।
१७ मार्च को प्रातः समाचार देखे। लेखन कार्य किया। दिन में डॉ. हरिश्चन्द्र जी तथा कविता जी भेंट के लिये पधारे, उनसे आर्य समाज के प्रचार-प्रसार की चर्चा होती रही। सायंकाल आर्य समाज गये। आज का विषय था- ‘आर्य समाज का प्रचार-प्रसार कैसे हो?’ उसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए, भोजन करके घर लौटे।
१८ मार्च को प्रातःकाल का समय स्वाध्याय चर्चा में व्यतीत हुआ। दोपहर डॉ. हरिश्चन्द्र जी व कविता जी पधारे, उनके साथ मार्ग में मुनीष जी के भाई प्रवीण जी से मिलते हुए श्री जसवीर सिंह जी के घर पहुँचे। ये फरीदाबाद के पास गाँव दयापुर के निवासी हैं। आपके भाई वेदपाल जी ऋषि उद्यान के साधना शिविर में भाग ले चुके हैं। वर्षों से अमेरिका में निवास कर रहे हैं। निष्ठावान् आर्यसमाजी हैं। घर में प्रतिदिन यज्ञ करते हैं। आज सायं इनके घर पर यज्ञ किया और फिर आर्य समाज पहुँचे, आज का विषय ‘वैदिक वाङ्मय का महत्त्व’ था। उसी प्रकार शंका-समाधान हुआ, भोजन के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। आज अजमेर में ज्योत्स्ना के साथ अध्ययन करने वाली श्रीमती उषा जी अपने पति के साथ कार्यक्रम में आईं। चर्चा कर समाचार जाने, पुराना परिचय फिर नया हुआ। आप भारतीय वाणिज्य दूतावास (कॉन्स्युलेट) में कार्यरत हैं, आपके पति इञ्जीनियर हैं। आज रात्रि को जसवीरसिंह जी के घर पर ही निवास रहा।
१९ मार्च को प्रातःकाल आर्य समाज में जसवीरसिंह जी की ओर से गायत्री यज्ञ का आयोजन रखा गया था। आठ बजे से प्रथम ओम् संकीर्तन, गायत्री यज्ञ तथा गायत्री मन्त्र का अर्थ कर प्रवचन किया। इसके बाद जलपान कर शनिवार होने के कारण प्रवचन का कार्यक्रम भी यज्ञ के साथ ही रखा गया था। आज ‘उपासना का महत्त्व’ पर व्याख्यान दिया, शंका समाधान हुआ। भोजन करके जसवीर सिंह जी घर जाते हुए श्रीमती उषा जी के घर पर रुके, कुशलक्षेम की चर्चा हुई, वहाँ से घर पहुँचकर विश्राम किया। सायं जसवीर जी की बेटी, जो विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान की छात्रा है, जिसके अवकाश समाप्त हो रहे थे, उसे छात्रावास तक पहुँचाकर आये। विश्वविद्यालय बहुत भव्य बना हुआ है, घर लौटकर रात्रि विश्राम किया।
शेष भाग अगले अंक में…..

ये प्रेरक प्रसंग, यह किया और यह दिया: राजेन्द्र जिज्ञासु

ये प्रेरक प्रसंग, यह किया और यह दिया :- मार्च 2016 के वेदप्रकाश के अंक में श्री भावेश मेरजा ने मेरी दो पुस्तकों के आधार पर देशहित में स्वराज्य संग्राम में आर्यसमाज के बलिदानियों को शौर्य की 19 घटनायें या बिन्दु दिये हैं।

किन्हीं दो आर्यवीरों ने ऐसी और सामग्री देने का अनुरोध किया है। आज बहुत संक्षेप से आर्यों के साहस शौर्य की पाँच और विलक्षण घटनायें यहाँ दी जाती हैं।
1. देश के स्वराज्य संग्राम में केवल एक संन्यासी को फाँसी दण्ड सुनाया गया। वे थे महाविद्वान् स्वामी अनुभवानन्दजी महाराज। जन आन्दोलन व जन रोष के कारण फाँसी दण्ड कारागार में बदल दिया गया।

2. हैदराबाद राज्य के मुक्ति संग्राम में सबसे पहले निजामशाही ने पं. नरेन्द्र जी को कारागार में डाला अन्य नेता बाद में बन्दी बनाये गये।

3. निजाम राज्य में केवल एक क्रान्तिवीर को मनानूर के कालेपानी में एक विशेष पिंजरे में निर्वासित करके बन्दी बनाया गया।

4. स्वराज्य संग्राम में केवल एक राष्ट्रीय नेता को पिंजरे में गोराशाही ने बन्दी बनाया। वे थे हमारे पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी।

5. जब वीर भगतसिंह व उनके साथियों ने भूख हड़ताल करके अपनी माँगें रखीं तब उनके समर्थन में एक विराट् सभा की। अध्यक्षता के लिए एक बेजोड़ निर्ाीक सेनानी की देश को आवश्यकता पड़ी। राष्ट्रवासियों की दृष्टि हमारे भीमकाय संन्यासी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी पर पड़ी।

सरकार उनके उस ऐतिहासिक भाषण से हिल गई। आर्य समाज के पूजनीय नेता के उस अध्यक्षीय भाषण को क्रान्तिघोष मान कर सरकार ने केहरी को (स्वामी जी का पूर्व नाम केहर सिंह-सिंहों का सिंह था) कारागार में डाल दिया। आज देशवासी और आर्यसमाज भी यह इतिहास-गौरव गाथा भूल गया।

पाठक चाहेंगे तो ऐसी और सामग्री अगले अंकों में दी जायेगी। मेरे पश्चात् फि र कोई यह इतिहास बताने, सुनाने व लिखने वाला दिख नहीं रहा। श्री धर्मेन्द्र जिज्ञासु इस कार्य को करने में समर्थ हैं यदि……..

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

भीष्म स्वामी जी धीरता, वीरता व मौन :-
इस बार केवल एक ही प्रेरक प्रसंग दिया जाता है। नरवाना के पुराने समर्पित आर्य समाजी और मेरे विद्यार्थी श्री धर्मपाल तीन-चार वर्ष पहले मुझे गाड़ी पर चढ़ाने स्टेशन पर आये तो वहाँ कहा कि सन् 1960 में कलायत कस्बा में आर्यसमाज के उत्सव में श्री स्वामी भीष्म जी कार्यक्रम में कूदकर गड़बड़ करने वाले साधु से आपने जो टक्कर ली वह प्रसंग पूरा सुनाओ। मैंने कहा, आपको भीष्म जी की उस घटना की जानकारी कहाँ से मिली? उसने कहा, मैं भी तब वहाँ गया था।

संक्षेप से वह घटना ऐसे घटी। कलायत में आर्यसमाज तो था नहीं। आस-पास के ग्रामों से भारी संया में लोग आये। स्वामी भीष्म जी को मन्त्र मुग्ध होकर ग्रामीण श्रोता सुनते थे। वक्ता केवल एक ही था युवा राजेन्द्र जिज्ञासु। स्वामी जी के भजनों व दहाड़ को श्रोता सुन रहे थे। एकदम एक गौरवर्ण युवा लंगडा साधु जिसके वस्त्र रेशमी थे वेदी के पास आया। अपने हाथ में माईक लेकर अनाप-शनाप बोलने लगा। ऋषि के बारे में भद्दे वचन कहे। न जाने स्वामी भीष्म जी ने उसे क्यों कुछ नहीं कहा। उनकी शान्ति देखकर सब दंग थे। दयालु तो थे ही। एक झटका देते तो सूखा सड़ा साधु वहीं गिर जाता।

मुझसे रहा न गया। मैं पीछे से भीड़ चीरकर वेदी पर पहुँचा। उस बाबा से माईक छीना। मुझसे अपने लोक कवि संन्यासी भीष्म स्वामी जी का निरादर न सहा गया। उसकी भद्दी बातों व ऋषि-निन्दा का समुचित उत्तर दिया। वह नीचे उतरा। स्वामी भीष्म जी ने उसे एक भी शद न कहा। उस दिन उनकी सहनशीलता बस देखे ही बनती थी। श्रोता उनकी मीठी तीन सुनने लगे। वह मीठी तान आज भी कानों में गूञ्ज रही हैं :-

तज करके घरबार को, माता-पिता के प्यार को,
करने परोपकार को, वे भस्म रमा कर चल दिये……

वे बाबा अपने अंधविश्वासी, चेले को लेकर अपने डेरे को चल दिया। मैं भी उसे खरी-खरी सुनाता साथ हो लिया। जोश में यह भी चिन्ता थी कि यह मुझ पर वार-प्रहार करवा सक ता था। धर्मपाल जी मेरे पीछे-पीछे वहाँ तक पहुँचे, यह उन्हीं से पता चला। मृतकों में जीवन संचार करने वाले भीष्म जी के दया भाव को तो मैं जानता था, उनकी सहन शक्ति का चमत्कार तो हमने उस दिन कलायत में ही देखा। धर्मपाल जी ने उसकी याद ताजा कर दी।

पं. श्रद्धाराम फिलौरी विषयक गभीर प्रश्न :प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

पं. श्रद्धाराम फिलौरी विषयक गभीर प्रश्न :-

परोपकारी के एक इतिहास प्रेमी ने लखनऊ से प्रश्न पूछा है कि पं. श्रद्धाराम फिलौरी का ऋषि के नाम पत्र पढ़कर हम गद्गद् हैं, परन्तु पं. श्रद्धाराम ने ऋषि के विरुद्ध कोई पुस्तक व ट्रैक्ट तक नहीं लिखा, आपका यह कथन पढ़कर हम दंग रह गये। इसकी पुष्टि में कोई ठोस प्रमाण हमें दीजिये। प्रश्न बहुत गाीर व महत्त्वपूर्ण है। ऋषि की निन्दा करने वालों को मेरे कथन का प्रतिवाद करना चाहिये था। तथापि मेरा निवेदन है कि श्रद्धाराम जी के साहित्य की सूची कोई-सी देखिये। इन सूचियों में श्री कन्हैयालाल जी अलखधारी व श्री नवीन चन्द्रराय के विरुद्ध एक भी पृष्ठ नहीं लिखा गया। किसी को ऐसी कोई सूची न मिले तो फिर हमारे पास आयें। जो इसका प्रमाण माँगेंगे ठोस प्रमाण दे देंगे। सूचियाँ दिखा देंगे। हम हदीसें गढ़ने वाले नहीं हैं। इतिहास प्रदूषण को पाप मानते हैं। जिस विषय का ज्ञान न हो उसमें टाँग नहीं अड़ाते।
– वेद सदन, अबोहर-152116

ऋषि जीवन-विचारः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि जीवन-विचारः-

आर्य समाज के संगठन की तो गत कई वर्षों में बहुत हानि हुई है-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं हैं। कहीं भी चार-छः व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये मिलकर एक प्रान्तीय सभा या नई सार्वदेशिक सभा बनाने की घोषणा करके विनाश लीला आरभ कर देते हैं। इसके विपरीत ऋषि मिशन के प्रेमियों ने करवट बदलकर समाज के लिए एक शुभ लक्षण का संकेत दिया है। वैदिक धर्म पर कहीं भी वार हो, देश-विदेश केााई-बहिन झट से परोपकारिणी सभा से सपर्क करके उत्तर देने की माँग करते हैं। सभा ने कभी किसी आर्य बन्धु को निराश नहीं किया। पिछले 15-20 वर्षों के परोपकारी के अंकों का अवलोकन करने से यह पता लग जाता है कि परोपकारी एक धर्मयोद्धा के रूप में प्रत्येक वार-प्रहार का निरन्तर उत्तर देता आ रहा है।

नंगल टाउनशिप से डॉ. सरदाना जी ने, जंडयाला गुरु आर्यसमाज के मन्त्री जी ने सभा से सपर्क करके फिर इस सेवक को सूचना दी कि एक व्यक्ति ने फेसबुक पर ज्ञानी दित्तसिंह  के ऋषि दयानन्द से दो शास्त्रार्थों का ढोल पीटा है। जब सभा के विद्वानों ने पंजाब की यात्रा की थी, तब जालंधर मॉडल टाऊन समाज में भी डॉ. धर्मवीर जी के सामने ज्ञानी दित्तसिंह के एक ट्रैक्ट में ऋषि से तीन शास्त्रार्थों का उत्तर देने की माँग की थी। मैं साथ ही था। मैंने तत्काल कहा कि परोपकारी में उस पुस्तक का प्रतिवाद दो-तीन बार किया जा चुका है। लक्ष्मण जी वाले जीवन चरित्र के पृष्ठ 268,269 को देखें। यह दित्तसिंह की पुस्तक का छाया चित्र है। इसमें वह स्वयं को वेदान्ती लिखता है। वह सिख नहीं था। उस ट्रैक्ट में किसी सिख गुरु का नाम तक नहीं, न कोई गुरु ग्रन्थ का वचन है।

ऋषि से शास्त्रार्थ की सारी कहानी ही कल्पित है। तत्कालीन किसी ऋषि विरोधी ने भी दित्तसिंह से ऋषि के शास्त्रार्थ की किसी पुस्तक व पत्रिका में चर्चा नहीं की। भाई जवाहरसिंह ने ऋषि के बलिदान के पश्चात् आर्य समाज को छोड़ा । उसने भी दित्तसिंह ज्ञानी के शास्त्रार्थ का कभी कहीं उल्लेख नहीं किया। शेष आमने-सामने बैठकर जो पूछना चाहेंगे उनको और बता देंगे।

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः

ठाकुर मुकन्द सिंह जी ऋषिवर के सबसे पहले शिष्यों में से एक थे और सबसे लबे समय तक ऋषि के सपर्क में रहे। वे एक विनम्र सेवक थे। राहुल जी के पुरुषार्थ से यह तथ्य सामने आया है कि आप एक गभीर विद्वान् व कवि भी थे। आपकी पुस्तक ‘तहकीक उलहक’ के पृष्ठ 317 पर पद्य की ये पाँच पंक्तियाँ छपी हैं। इन्हें ऋषि के प्रति उनकी श्रद्धाञ्जलि समझें।

दयानन्द स्वामी का फैजान1 है, जो लिखी है मैंने यह नादिर2 किताब। मगर क्या करूँ छह बरस हो गये, कि त्यागा उन्होंने जहाने सराब3। दयानन्दी संवत हुए यह नये, इसी में मैं लिखता हूँ साले किताब4 सरे हर बरक से अयाँ साल है, दयानन्दी संवत का है यह हिसाब। सरे वाह गुरुदेव कर दीजिये, तो है दूसरा साल भी लाजवाब।

ऋषि के सबसे पहले शिष्यों में से रचित ऋषि जी पर यह पहली कविता हमारे हाथ लगी है।

जाति पाँति का विषः जातिवाद के विरुद्ध दहाड़ने वाले, दलितों के लिये घड़ियाली आँसू बहाने किसी भी दल व संस्था ने आज पर्यन्त दलितोद्धार के लिए प्राण देने वाले वीर रामचन्द्र, वीर मेघराज, भक्त फूलसिंह आदि का स्मारक बनवाया? उन्हें किसी ने कभी श्रद्धाञ्जलि दी? उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया? किसी और संस्था ने दलितों के लिए कोई बलिदान दिया? आज दलित-दलित का शोर मचाने वाले कभी दलितों के लिये पिटे या घायल हुए? राहुल केजरीवाल आज कहीं भी  पहुँच जाते हैं। जब फीरोजपुर के कारागार में नेहरू युग में सुमेर सिंह आर्य सत्याग्रही को पीट-पीट कर मारा गया, तब इन टर्राने वालों के दल व इनके पुरखा कहाँ थे? सज्जनो! देशवासियो!:-

नेहरूशाही ने दण्डा गुदा में दिया,

आप बीती यह कैसे सुनाऊँ तुहें?

आत्म हत्या व जातिवादःआत्महत्याएँ व जातिवाद की महामारियाँ फैल रही हैं। नेता लोग भाषण परोस रहे हैं। सामूहिक बलात्कार की घटनायें नित्य घटती हैं। दलों को, नेताओं को लज्जा आनी चाहिये। हिन्दू धर्म व संस्कृति के नये-नये व्यायाकार महाराष्ट्र में मन्दिर प्रवेश के लिये महिला सत्याग्रह पर आज भी वैसे ही मौन हैं, जैसे साठ वर्ष पूर्व काशी विश्वनाथ मन्दिर में दलितों के साथ प्रवेश करने पर विनोबा जी की पिटाई पर इनके बड़ों ने चुप्पी साघ ली थी। तब केवल आर्यसमाज ने भेदभाव व उस कुकृत्य की निन्दा की थी।

नारी की, कन्याओं की, संस्कृत की व संस्कृति की दुहाई देनेवाले नेता काशी जाते रहते हैं। काशी में कन्याओं के वेदाध्ययन के अधिकार की ध्वजा फहराने वाले और जाति-पाँति का विध्वंस करनेवाले पाणिनि गुरुकुल काशी की इनमें से किसने यात्रा की? इन्हें विवेकानन्द स्वामी तो याद रहते हैं, भेदभाव का दुर्ग ढहाने वाले काशी का यह गुरुकुल दिखाई ही नहीं देता। केजरीवाल भी तो गंगा स्नान का कर्मकाण्ड करके  काशी यात्रा कर आया।

पाद टिप्पणी

  1. उपकार 2. उत्तम, अद्भुत 3. नाशवान, अनित्य 4. पुस्तक लेखन का वर्ष

आर्य समाज को अपयश से बचाओः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्य समाज को अपयश से बचाओः

व्यक्तियों में भी कमियाँ हो सकती हैं और संगठन में समाज में भी दोष हो सकते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयं तो कोई साहसिक कार्य आज पर्यन्त कर नहीं सके, उन्हें समाज के संगठन के दोष गिन-गिन कर सुनाने व प्रचारित करने की बड़ी लगन लगी रहती है। श्री सत्यपाल जी आर्य,मन्त्री प्रादेशिक सभा से व कुछ अन्य सज्जनों से पता चला कि एक जन्मजात दुखिया ने अपनी एक पोथी में चुन-चुन कर ऐसे कई नाम दिये हैं, जिनकी अन्तिम वेला में समाज ने सेवा नहीं की। ऐसे विद्वानों, महात्माओं, साधुओं में श्री महात्मा आनन्द स्वामी जी का नाम भी गिनाया गया है। लिखा है कि अन्तिम वेला में वे अपनी पुत्री के घर पर जा कर मरे।

यह बड़ी घटिया सोच है। हर कोई मानेगा कि समाज की जीवन भर सेवा करने वालों की अन्तिम वेला में समाज द्वारा सेवा व रक्षा की जानी चाहिये। अपनी कोई कमी है तो वह हमें दूर करनी चाहिये। जिस दुखिया ने दस नाम गिनाये हैं, उसको ऐसे दो चार नामों का भी पता न चला, जिनकी अन्तिम वेला में श्रद्धा भक्ति से आर्यसमाज ने सेवा की। क्या महात्मा नारायण स्वामी जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की, स्वामी आत्मानन्द जी की आर्यसमाज ने श्रद्धा भक्ति से सेवा नहीं की थी? पं. माथुर शर्मा जी, स्वामी सोमानन्द जी, स्वामी सपूर्णानन्द जी, स्वामी सुव्रतानन्द जी, स्वामी भूमानन्द जी, पं. देवप्रकाश जी, मास्टर पूर्णचन्द जी आदि की स्वामी सर्वानन्द जी ने दिनरात सेवा नहीं की थी? क्या पं. नरेन्द्र जी को आर्यों ने फैं क दिया? चौ. वेदव्रत जी वानप्रस्थी ने धूरी में मेरे पास प्राण छोड़े। मैं तब अविवाहित ही था। स्वामी ज्ञानानन्द जी तो चलते-चलते चल बसे। जिस महापुरुष ने सूची बनाकर आर्यसमाज के अपयश फैलाने का यश लूटा है, उसे यह भी तो बताना चाहिये था कि उसने किस विद्वान् की, संन्यासी की कभी सेवा की?

यह झूठ है कि महात्मा आनन्द स्वामी जी को आर्यसमाज ने अन्त में नहीं पूछा। वे बेटी के घर मरने तो नहीं गये थे। यह आकस्मिक घटना थी। मैं स्वयं महात्मा जी से विनती करके आया कि कुछ समय के लिए मेरे पास आयें। कोई काम नहीं लेंगे। न कथा और न प्रवचन होगा। सेवा करेंगे। धूरी के बाबू पुरुषोत्तमलाल जी ने आग्रपूर्वक कहा कि आप मेरे पास चलें। मैं बढ़िया इलाज करवाऊँगा। चौबीस घण्टे आपकी सेवा में रहूँगा। जब तक आपकी शवयात्रा नहीं निकलेगी, मैं सब काम धंधे छोड़कर आपकी सेवा में रहूँगा।

क्या स्वामी सर्वानन्द जी महाराज, महात्मा आनन्द स्वामी की सेवा से इनकार कर देते? क्या स्वामी सत्यप्रकाश जी की दीनानाथ जी ने जी जान से सेवा नहीं की थी? कुछ ऐसे नाम भी दुखिया जी गिना देते तो औरों को सेवा करने की प्रेरणा मिलती। हमारे आशय को आर्य जन समझें। महात्मा आनन्द स्वामी जी का अवमूल्यन मत करें। उनके सेवकों की कमी नहीं थी।

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?

ओ३म्

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश व समाज सहित विश्व की सर्वांगीण उन्नति का धार्मिक व सामाजिक कार्य किया है। क्या हमारे देश और संसार के लोग उनके कार्यों को यथार्थ रूप में जानते व समझते हैं? क्या उनके कार्यों से मनुष्यों को होने वाले लाभों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान विश्व व देश के लोगों को है? जब इन व ऐसे अन्य कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश व संसार के लोग महर्षि दयानन्द, उनकी वैदिक विचारधारा और सिद्धान्तों के महत्व के प्रति अनभिज्ञ व उदासीन है। यदि वह जानते होते तो उससे लाभ उठा कर अपना कल्याण कर सकते थे। न जानने के कारण वह वैदिक विचारधारा से होने वाले लाभों से वंचित हैं और नानाविध हानियां उठा रहे हैं। अतः यह विचार करना समीचीन है कि मनुष्य महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा के सत्य यथार्थ स्वरूप को क्यों नहीं जान पाये? इस पर विचार करने पर हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि महर्षि दयानन्द के पूर्व व बाद में प्रचलित मत-मतान्तरों के आचार्यों व तथाकथित धर्मगुरुओं ने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानतावश उनका विरोध किया और उनके बारे में मिथ्या प्रचार करके अपने-अपने अनुयायियों को उनके व उनकी विचारधारा को जानने व समझने का अवसर व स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। आज भी संसार के अधिकांश लोग मत-मतान्तरों के सत्यासत्य मिश्रित विचारों व मान्यताओं से बन्धे व उसमें फंसे हुए हैं। सत्य से अनभिज्ञ वा अज्ञानी होने पर भी उनमें ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार है। रूढि़वादिता के संस्कार भी इसमें मुख्य कारण हैं। इन मतों व इनके अनुयायियों में सत्य-ज्ञान व विवेक का अभाव है जिस कारण वह भ्रमित व अज्ञान की स्थिति में होने के कारण यदि आर्यसमाज के वैदिक विचारों व सिद्धान्तों का नाम सुनते भी हैं तो उसे संसार के मत-मतान्तरों व अपने मत-सम्प्रदाय का विरोधी मानकर उससे दूरी बनाकर रखते हैं।

 

महर्षि दयानन्द का मिशन क्या था? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह संसार के धार्मिक, सामाजिक देशोन्नति संबंधी असत्य विचारधारा, मान्यताओं सिद्धान्तों को पूर्णतः दूर कर सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा था और सत्य की प्राप्ति के लिए ही वह एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक विद्वान के बाद दूसरे विद्वान की शरण में सत्य-ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते गये और उनसे उपलब्ध ज्ञान प्राप्त कर उनको प्राप्त होने वाले सभी अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते रहे। अपनी इसी धुन व उद्देश्य के कारण वह अपने समय के देश के सभी बड़े विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनकी संगति की और उनसे जो विद्या व ज्ञान प्राप्त कर सकते थे, उसे प्राप्त किया और इसके साथ हि योगी गुरुओं से योग सीख कर सफल योगी बने। उनकी विद्या की पिपासा मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में सन् 1860 से सन् 1863 तक के लगभग 3 वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्त प़द्धति से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने के साथ गुरु जी से शास्त्र चर्चा कर अपनी सभी भ्रान्तियों को दूर करने पर समाप्त हुई। वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान और योगविद्या सीखकर वह अपने सामाजिक दायित्व की भावना व गुरु की प्ररेणा से कार्य क्षेत्र में उतरे और सभी मतों के सत्यासत्य को जानकर उन्होंने विश्व में धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में असत्य व मिथ्या मान्यताओं तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए उसका खण्डन किया। प्रचलित धर्म-मत-मतान्तरों में जो सत्य था उसका उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से मण्डन वा समर्थन किया। आज यदि हम स्वामी दयानन्द आर्यसमाज के किसी विरोधी से पूंछें कि महर्षि दयानन्द ने तुम्हारे मत की किस सत्य मान्यता वा सिद्धान्त का खण्डन किया तो इसका उत्तर किसी मतमतान्तर वा उसके अनुयायी के पास नहीं है। इसका कारण ही यह है कि उन्होंने सत्य का कभी खण्डन नहीं किया। उन्होंने तो केवल असत्य मिथ्या ज्ञान का ही खण्डन किया है जो कि प्रत्येक मनुष्य का मुख्य कर्तव्य वा धर्म है। दूसरा प्रश्न अन्य मत वालों से यदि यह करें कि क्या स्वामी दयानन्द जी ने वेद संबंधी अथवा अपने किसी असत्य व मिथ्या विचार व मान्यता का प्रचार किया हो तो बतायें? इसका उत्तर भी किसी मत के विद्वान, आचार्य व अनुयायी से प्राप्त नहीं होगा। अतः यह सिद्ध तथ्य है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी किसी मत के सत्य सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया और ही असत्य मिथ्या मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने केवल असत्य का ही खण्डन और सत्य का मण्डन किया जो कि मनुष्य जाति की उन्नति के लिए सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों के आचार्यों को करना अभीष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि सत्य वेद धर्म का पालन करने से मनुष्य का जीवन अभ्युदय को प्राप्त होता है और इसके साथ वृद्धावस्था में मृत्यु होेने पर जन्ममरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त होता है।

 

यह भी विचार करना आवश्यक है कि सत्य से लाभ होता है या हानि और असत्य से भी क्या किसी को लाभ हो सकता है अथवा सदैव हानि ही होती है? वेदों के ज्ञान के आधार पर सत्य के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने एक नियम बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम संसार में सर्वमान्य नियम है। अतः सत्य से लाभ ही लाभ होता है, हानि किसी की नहीं होती। हानि तभी होगी यदि हमने कुछ गलत किया हो। अतः मिथ्याचारी व्यक्ति व मत-सम्प्रदाय के लोग ही असत्य का सहारा लेते हैं और सत्य से डरते हैं। ऐसे मिथ्या मतों, उनके अनुयायी व प्रचारकों की मान्यताओं के खण्डन के लिए महर्षि दयानन्द को दोषी नहीं कहा जा सकता। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को जहां आवश्यकता हो वहां वह असत्य का सहारा ले सकता है और जहां सत्य से लाभ हो वहीं सत्य का आचरण करे। किसी भी परिस्थिति में असत्य का आचरण अनुचित, अधर्म वा वा पाप ही कहा जाता है। अतः सत्याचरण करना ही धर्म सिद्ध होता है और असत्याचरण अधर्म। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य के धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों व अकर्तव्यों का वैदिक प्रमाणों, युक्ति व तर्क के आधार पर प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा हिन्दी में लिखा गया वैदिक धर्म का सर्वांगीण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावशाली धर्मग्रन्थ है। धर्म व इसकी मान्यताओं का संक्षिप्त रूप महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश लिखकर प्रकाशित किया है। यह स्वमन्तव्यामन्तव्य ही मनुष्यों के यथार्थ धर्म के सिद्धान्त व कर्तव्य हैं जिनका विस्तृत व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश व उनके अन्य ग्रन्थों में उपलब्घ है। स्वमन्तव्यामन्तव्य की यह सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिए धर्मपालनार्थ माननीय व आचरणीय है परन्तु अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण लोग इन सत्य मान्यताओं से अपरिचित होने के कारण इनका आचरण नहीं करते और न उनमें सत्य मन्तव्यों को जानने की सच्ची जिज्ञासा ही है। इसी कारण संसार में मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि देश व संसार में धर्म सम्बन्धी सत्य व यथार्थ ज्ञान के प्रचारकों की कमी है। यदि यह पर्याप्त संख्या में होते तो देश और विश्व का चित्र वर्तमान से कहीं अधिक उन्नत व सन्तोषप्रद होता।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 से वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रचार आरम्भ किया था जिसने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद तेज गति पकड़ी थी। इसके बाद सन् 1883 तक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया जिसमें वैदिक मत के विरोधियों व विधर्मियों से शास्त्र चर्चा, विचार विनिमय, वार्तालाप और शास्त्रार्थ सम्मिलित थे। अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद का आंशिक और पूरे यजुर्वेद का उन्होंने भाष्य किया। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने चारों वेदों का भाष्य पूर्ण किया। न केवल वेदों पर अपितु दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि पर भी भाष्य, अनुवाद, ग्रन्थ व टीकायें लिखी र्गइं। संस्कृत व्याकरण विषयक भी अनेक नये ग्रन्थों की रचना के साथ प्रायः सत्यार्थप्रकाश सहित सभी आवश्यक ग्रन्थों को अनेक भाषाओं में अनुवाद व सुसम्पादित कर प्रकाशित किया गया जिससे संस्कृत अध्ययन सहित आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनेक भाषा-भाषी लोगों के लिए सरल हो गया। एक साधारण हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकता है। यह सफलता महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज इसके विद्वानों की देश विश्व को बहुमूल्य देन है। यह सब कुछ होने पर भी आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का जो प्रभाव होना चाहिये था वह नहीं हो सका। इसके प्रमुख कारणों को हमने लेख के आरम्भ में प्रस्तुत किया है। वह यही है कि देश संसार के लोग महर्षि दयानन्द की मानवमात्र की कल्याणकारी विचारधारा उनके यथार्थ भावों को अपनेअपने अज्ञान, स्वार्थ, हठ और पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों के कारण जान नहीं सके। कुछ अन्य और कारण भी हो सकते हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने संगठन व प्रचार आदि की न्यूनताओं पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करना होगा। वेद वा धर्म प्रचार को बढ़ाना होगा और वैदिक मान्यताओं को सारगर्भित व संक्षेप में लघु पुस्तकों के माध्यम से प्रस्तुत कर उसे घर-घर पहुंचाना होगा। यदि प्रचारकों की संख्या अधिक होगी और संगठित रूप से प्रचार किया जायेगा तो सफलता अवश्य मिलेगी और मानवता का कल्याण होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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