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Advaitwaad Khandan Series 3 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

श्री स्वामी शंकराचार्य जी ने वेदान्त दर्षन का जो भाष्य  किया है उसके आरम्भ के भाग को चतुःसूत्री कहते है। क्योंकि यह पहले चार सूत्रों के भाश्य के अन्र्तगत है। इस चतुःसूत्री में भाश्यकार ने अपने मत की मुख्य रूप से रूपरेखा दी है। इसलिये चतुःसूत्री को समस्त षांकर-भाश्य का सार कहना चाहिये। वादराय-कृत चार सूत्रों के षब्दों से तो षांकर-मत का पता नहीं चलता। वे सूत्र ये हैंः-

(1) अथातो ब्रह्मजिज्ञासा-अब इसलिये ब्रह्म जानने की इच्छा है।

(2) जन्माद्यस्य यतः-ब्रह्म वह है जिससे जगत् का जन्म, स्थिति तथा प्रलय होती है।

(3) षास्त्रायोत्विात्-वह ब्रह्म षास्त्र की योनि है अर्थात् वेद ब्रह्म से ही आविर्भूत हुये है।

(4) तत्तु समन्वयात्-ब्रह्म-कृत जगत् और ब्रह्म-प्रदत्त वेद में परस्पर समन्वय है। अर्थात् षास्त्र में कोई चीज नही जो सृश्टि-क्रम के विरूद्ध हो। सृश्टि से षास्त्र का और षास्त्र से सृश्टि का बोध होता है। दोनों को ब्रह्म की रचना कहना चाहिये। षास्त्र को षब्द-रचना और जगत् को अर्थ-रचना।

षांकर-चतुःसूत्री को षांकर वेदान्त की भूमिका या नींव कहना चाहिये। श्री षंकराचार्य जी ने पहले इस भूमिका को दृढ़ किया है। फिर अपने मत का विषाल भवन बनाया है। इसलिये जो कोई षांकर-वेदान्त की मीमांसा करना चाहे पहले उसे चतुःसूत्री की भली भाँति मीमांसा करनी चाहिये। प्रष्न तीन हैं।

(1) क्या चतुःसूत्री मे जो प्रतिपत्तियाँ स्थापित की गई हैं वे निर्दोश हैं?

(2) क्या उनकी सिद्धि उपनिशदों से होती है?

(3)  क्या वादरायण के उन चार सूत्रों के षब्दों से यह प्रतिपत्तियाँ निकलती हैं?

ये प्रतिपत्तियाँ क्या है? उन्ही के षब्दों मे पहली प्रतिपत्ति सुनियेः-

1-पहली प्रपिपत्ति

अस्मत् प्रत्ययगोचरे विशयिणि चिदात्मके युश्मत्प्रत्यय गोचरस्यविशयस्य तद्धर्माणां चाध्यासः। तद् विपर्ययेण विशयिणस्तद्धर्माणं च विशयेऽध्यासों मिथ्येति भवितुं युक्तम्। तथाप्यन्तोन्यस्मिन्न न्योन्यात्मकतामन्योन्यधर्माष्चध्यस्तेरेतराविवेकेन, अत्यन्त विविक्तयोर्धर्मधर्मिणोर्मिथ्याज्ञानानमित्तः सत्यानृते मिथुनीकृत्य, अहमिदं ममेदमिर्ति नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।

(उपोद्घात पृश्ठ 1)

अहंभाव के द्योतक चेतन विशयी मे तुम भाव के द्योतक विशय का तथा उसके धर्मो का अध्यास मिथ्या है। और विशय मे विशयी तथा उसके धर्मो का भी अध्यास मिथ्या है। परन्तु लोक में ऐसा नैसर्गिक व्यवहार है कि विवके-षून्यता के कारण मिथ्या द्वारा एक दूसरे में एक दूसरे के धर्माे का अध्यास करके ही ‘मैं यह हूँ’, ‘यह मेरा है’ आदि आदि का प्रयोग किया जाता है। इस प्रतिपत्ति को स्पश्ट करने की आवष्यकता है। संसार में दो चीजें है। एक विशयी और दूसरा विशय। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ।’ इस व्यापार में ‘सूर्य’ विशय है और ‘मैं’ विशयी। मैं ‘अस्मत् प्रत्ययगोचर’ हूँ। ओर सूर्य ‘युश्मत्-प्रत्ययगोचर’ इसी प्रकार अन्य पदार्थो को लेना चाहिये। एक ज्ञाता और दूसरा ज्ञेय। श्री षंकराचार्य जी का कहना है कि विशयी और विशय अलग-अलग हैं। वे ‘अत्यन्त विविक्त’ है। उनमें तथा उनके धर्मो में कोई समानता नहीं। परन्तु अज्ञानवष लोग विशय में विशयी का और विशयी में विशय का अध्यास अर्थात् मिथ्या कल्पना कर लेते है। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ’ भिन्न है। मैं सूर्य नही, सूर्य मैं नहीं। सूर्य के धर्म मेरे नहीं। मेरे धर्म सूर्य धर्म नहीं। फिर मुझमें और सूर्य में ऐसा सम्बन्ध ही कैसे हो सकता हे कि मैं सूर्य को देखता हूँ। अब यदि मंै यह कहता हूँ कि मैं सूर्य को देखता हूँ तो मानों मैं अपने में सूर्य का अध्यास (मिथ्या कल्पना) कर रहा हूँ।

इस प्रतिपत्ति के अनुसार जगत् का मिथ्यात्व सिद्ध है।

श्री षंकराचार्य जी ने गौड़पादीय निम्नकारिका का इस प्रकार स्पश्टीकरण किया हैः-

अन्तः स्थानात्तु भेदानां तस्माज्जागरिते स्मृतम्।

यथा तत्र तथा स्वप्ने संवृतत्वेन मिद्यते।।

जाग्रद् दृष्यानां भावानां वैतथ्यमिवि प्रतिज्ञा। दृष्यत्वादिति हेतुः। स्वप्न दृष्य भाववदिति दृश्टान्तः।

अर्थात् जागते में जो दृष्य देखते है वे मिथ्या हैं। हेतु यह है कि वे दिखाई पड़ते है। जैसे स्वप्ने में देखी हुई चीजे मिथ्या होती हैं इस प्रकार जागते में भी जो दृष्य दिखाई पड़ते हैॅं, वे मिथ्या है।

इससे क्या परिणाम निकला? सुनियेः-

(1) तमेतमेवं लक्षणामध्यासं पण्डिता अविद्येति मन्यन्ते।

(पृश्ठ 2)

(2) न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते।

(पृश्ठ 3)

(3) तस्मादविद्यावद् विशयण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च।

(पृश्ठ 4)

अर्थात् (1) इस अध्यास को ही पण्डित लोग अविद्या कहते है।

(2) जब तक देह में आत्माभाव का अध्यास न किया जाय कोई व्यापार नहीं हो सकता।

(3) इसलिये प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा षस्त्रा अविद्यावत् विशय ही हैं।

(4) एवमयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासों मिथ्याप्रत्ययरूपः कर्तृत्वभोक्ृतत्व प्रवर्तकः सर्वलोक प्रत्यक्षः।

(पृश्ठ 4)

यह अध्यास मिथ्या है परन्तु अनादि अनन्त और नैसर्गिक है। इसी से मनुश्य की कर्तृत्व और भोक्ृतत्व में प्रवृत्ति है। यह सब लोक में प्रत्यक्ष है।

यह तो स्पश्ट ही है कि वादरायण के सूत्रों के किसी षब्द से इस प्रतिपत्ति की झलक तक नहीं मिलती। परन्तु हमारा कहना है कि इस प्रतिपत्ति की स्थापना में जो हेतु दिये है वे सब अयुक्त (गलत) है।

श्री षंकराचार्य इस हेतु से आरम्भ करते हैः-

युश्मदस्मत् प्रत्ययगोचर योर्विशय विशयिणोस्तमः प्रकाशवद् विरूद्ध स्वभावयोरितरेतभावानुपपत्तैत्तौ सिद्धायां तद्धर्माणामपि सुतरामितरेतरभावानुपपत्तिरिति।

अर्थात् जैसे अँधेरे और उजाले में परस्पर विरोध है। उसी प्रकार विशय और विशयी में भी विरोध है और उनके धर्माें में भी विरोध है। इसलिये एक दूसरे के भावों की अनुपपत्ति है।

यहाँ सब से भारी भूल है दृश्टान्त चुनने में। अन्धकार और उजाला परस्पर विरोधी हैं परन्तु विशय परस्पर विशयी नही। भिन्नता और विरोध है ऐसा ही विशय और विशयी में भी विरोध है। उजाला ओर प्रकाष मिल नहीं सकते। प्रकाश आते ही उजाला भाग जाता है परन्तु विशय आते ही विशयी नहीं भाग जाता। यह ठीक है कि मैं सूर्य नहीं। परन्तु मेरा और सूर्य का परस्पर विरोध भी नहीं है। यदि प्रकाष न हो तो अँधेरा होगा। यदि अँधेरा न हो तो उजाला होगा। अधेरा और उजाला साथ नहीं रह सकते परन्तु यदि विशयी न हो तो विशय न रहेगा और यदि विशय न हो तो विशयी न रहेगा। विशय और विशयी का परस्पर सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध अँधेरे और उजाले में नहीं हॅै। सम्बन्ध दो भिन्न वस्तुओं में ही हो सकता है। एक ही वस्तु हो तो सम्बन्ध कैसा? सम्बन्ध न अध्यास है अध्यास जन्य।

जब भूमिका की सबसे पहली ईंट ही निर्बल है तो आगे दीवार कैसे ठहरेगी?

अब अध्यास को लीजिये। अध्यास के जो लक्षण श्री षंकराचार्य जी ने किये है उन सब को हम माने लेते है, क्योंकि उनके कथनानुसार

सर्वथापि व्वन्यस्यान्यधर्मावभासतां न व्यभिचरति। (पृश्ठ 2)

अर्थात् अध्यास के विशय में कोई सिद्धान्त क्यों न ठीक हों एक बात तो सब लक्षणों में समान है अर्थात् अन्य में अन्य के धर्माे की प्रतीति। जैसे सीपी में चाँदी की प्रतीति।

परन्तु मुख्य प्रष्न तो यह है कि क्या अध्यास ‘अनादि,’ ‘अनन्त’ और ‘नैसर्गि’ है जैसे श्री षंकर स्वामी ने माना है। हमको सीपी में चाँदी की भी प्रतीति होती और सीपी की भी। सांप हमको सांप भी प्रतीत होता है और रस्सी भी। रस्सी कभी रस्सी ही दृश्ट पड़ती है और कभी सांप भी। ऐसा व्यवहार अनादि, अनन्त और नैसर्गिक क्यों माना जावे? यदि यह व्यवहार अनादि और अनन्त है तो इसका अन्त न हो सकेगा और श्री षंकराचार्य जी का यह कथन सर्वथा अनुपयुक्त होगा कि

अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्वविद्या प्रतिपत्तये सवेैवेदान्ता आरभ्यन्ते।

(पृश्ठ 4)

‘अनन्त’ का ‘प्रहाण’ कौन कर सकता है और वह भी नैसर्गिक का। अग्नि की उश्णता अनादि, अनन्त और नैसर्गिक है। इसका तिरोभाव तो हो सकता है परन्तु ‘प्रहाण’ कैसे होगा? दूसरी बात यह है कि अनादि, अनन्त और नेैसर्गिक व्यवहार मे अध्यास की सिद्धि कैसे होगी? यह रस्सी में सांप की प्रतीति अनादि, अनन्त और नैसर्गिक व्यवहार हो तो यह कैसे सिद्ध होगा कि वस्तुतः रस्सी है साँप प्रतीत हो रही है। क्योंकि जब देखा उसको साँप ही देखा। संदेह तो तब होता जब वही चीज कभी रस्सी दृश्ट पड़ती और कभी साँप। यदि एक वस्तु सदा ही साँप दिखाई पड़ती है तो न तो संदेह के लिये कोई स्थल है न कौनसी ख्याति है इसकी खोज की आवष्यकता।

श्री षंकराचार्य जी ने ‘अध्यास’ विशय में लोक के दो अनुभव दिये है। एकः

‘षुक्तिका हि रजतवदवभसते।’   (पृश्ठ 2)

सीपी चाँदी मालूम होती है। दूसरा

‘एकष्चन्द्रः सद्वितीयवत्’।  (पृश्ठ 2)

एक चाँदी के दो चाँद दिखाई पड़ते है।

क्या यह दोनों अनादि अनन्त और नैसर्गिक अध्यास के उदाहरण है? प्रायः तो सीपी सीपी ही मालूम होती है। यदि ऐसा न होता तो यह कह ही नहीं सकते थे कि वस्तुतः यह सीपी है चाँदी प्रतीत होती है। यदि चाँदी सदा दो दिखाई देते तो कौन कहता कि वस्तुतः एक है दो प्रतीत होते है। ‘सम्यक् ज्ञान’ और ‘प्रतीति’ में क्या भेद है? अनादि, अनन्त और नैसर्गिक तो सम्यक् ज्ञान ही हो सकता है अध्यास नही।

इस पर षंकर स्वामी ने बड़ा प्रबल पूर्णपक्ष उठाया है।

”कथं पुनः प्रत्यगात्मन्यविशयेऽध्यासो विशयतद्धर्माणाम्। सर्वो हि पुरोऽवस्थिते विशये विशयान्तरमध्यस्यति, युश्मत् प्रत्ययापेतस्य च प्रत्यगात्मनोऽविशयत्वं ब्रवीशि“ इति।

(पृश्ठ 2)

प्रष्न करते है कि ”अविशय में विशय का अध्यास कैसे हो सकता है? एक विशय में दूसरे विशय का अध्यास तो सभ मानते है। तुमने पहले ही कह दिया कि विशयी विशय सेे विरूद्ध है। अविशय है।“

प्रभु बड़ा स्पश्ट है और प्रबल है, इसका उत्तर सर्वथा असंगत और निर्बल है, सुनिये।

(1) पहला उत्तर –

न तावदयमेंकान्तेनाविशयः। अस्मत्प्रत्ययविशयत्वात्, अपररोक्षत्वाच्च प्रत्यगात्मप्रसिद्धेः।

(पृश्ठ 2)

आत्मा एकान्तेन (पूरा पूरा) अधिशय नहीं है ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान भी तो विशय और विशयी हो गया। ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान तो प्रत्यक्ष ही है। यदि यह बात है तो विशय और विशयी का अँधेरे उजाले का विरोध कहाँ रहा? वही विशयी भी है और विशय भी। ‘मैं हूँ’ इस बात का ज्ञान मुझको है। अर्थात् मैं ही विशय हूँ और मै ही विशयी। क्या मुझमें ‘अपनत्व’ का ज्ञान भी अध्यास कहा जायगा? यदि ऐसा हो तो अध्यास के लक्षण ”अतस्मिंस्तद्बुद्धिः“ न घट सकेंगे।

(2) दूसरा उत्तर और विचित्र है-

न चायमस्ति नियमः पुरोऽवस्थित एव विशयेविशयान्तरमध्यसितव्यमिति। अप्रत्यक्षेऽपि ह्याकाषे बालास्तलमलिनताद्यध्यस्यन्ति।      (पृश्ठ 2)

”यह नियम नही है कि जो विशय उपस्थित हो उसी में दूसरे विशय का अध्यास किया जाय। आकाष अप्रत्यज्ञ है फिर भी मूर्ख लोग उसमें रंग का अध्यास कर लेते हैं“ै।

यह दृश्टान्त सर्वथा दूशित है। जिस आकाष को मूर्ख लोग नीला नीला कहते है वह दार्षनिक आकाष तत्व व्यापक है उसको तो लोग जानते भी नहीं। और न उसका रंग नीला है। जो ‘आकाष’ तत्व व्यापक हे उसको तो लोग जानते भी नहीं। वह तो प्रत्यक्ष आकाष को ही नीला या मैला कहते हैं। एक षब्द के कई अर्थ होते है, दार्षनिक ‘आकाष’ और बोलचाल के ‘आकाष’ षब्द को एक दूसरे के अर्थ मे लेना और उसको दृश्टान्त बना कर उससे एक प्रपत्ति की स्थापना करना सर्वथा असंगत है।

यदि यह कहा जाय कि अनादित्व, अनन्त और नैसर्गिकत्व अध्यस्त उदाहरणों के लिये नहीं किन्तु आत्मा के अध्यासरूपी व्यापार के सामान्य स्वभाव के लिये है। जैसे आँख का काम है देखना। यह है नैसर्गिक। परन्तु किस विषेश वस्तु को देखना। यह दूसरी बात है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि यदि अध्यास आत्मा का अनादि, अनन्त ओर नैसर्गिक व्यापार हो तो उसका ‘प्रहाण’ कैसे हो सकेगा?

विशयी और विशय या ज्ञाता और ज्ञेय के सम्बन्ध मात्र को अन्धकार और प्रकाष से तुलना करना पहली मौलिक भूल है और उस सब को ‘अध्यास’ मानना दूसरी। वस्तुतः अन्धकार में कोई कभी प्रकाष में अन्धकार का।

श्री षंकराचार्य जी ने अध्यास के लक्षण किये हैः-

स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः।       (पृश्ठ 1)

इस लक्षण को युश्मत् प्रत्यय और अस्मत् प्रत्यय में कैसे घटा सकते हैं। पूर्वदृश्ट (पहले देखा हुआ) क्या है और ‘परत्र’ क्या? अध्यास के लिये तीन चीजें चाहिये। (1) पूर्वदृश्ट (2) उसकी स्मृति (3) परत्र। मैंने पहले वास्तविक साँप देखा-यह हुआ पूर्वदृश्ट। मुझमें उसको स्मृति रही। दूसरा रस्सी ‘परत्र’ है जिसमें पूर्व दृश्ट स्मृति के कारण साँप का अध्यास हुआ। वर्तमान जगत् को मिथ्या सिद्ध करने के लिए आवष्यक है कि पहले कभी वास्तविक देखा गया हो। फिर उसकी स्मृति रही हो और उसके लिए ‘परत्र’ भी चाहिए। यदि वास्तविक जगत् पहले देखा था तो उस जगत् को सत्य मानना पड़ेगा। या आगे चलते जाओ तो अनवस्था दोश आयेगा। सारांष यह है कि यदि ”सत्य“ और ”अनृत“ का ”मिथुनीकरण“ नैसर्गिक लोकव्यवहार है तो इसके नैसर्गिकत्व का कोई कारण होना चाहिये। यदि कहो कि नैसर्गिक तो नैसर्गिक ही हेै। इसका कारण कैस? तो इससे छुटकारे का क्या अर्थ? और नैसर्गिक व्यवहार को मिथ्या कहने का क्या अर्थ ? यदि नैसर्गिक है तो ‘सत्यानृत’ का मिथुनीकरण नहीं। और यदि मिथुनिकरण है तो नैसर्गिक नहीं। यदि जल का जलतव नैसर्गिक है तो इसमें सत्य और अनृत का मेल कैसा?

प्रबल आक्षेपों का निर्बल उत्तर देखना हो तो षांकर चतुःसूत्री में मिलेगा। प्रष्न करते है-

”कथं पुनरविद्यावद्विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि चेति“।     (पृश्ठ 2)

अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाण और षास्त्र अविद्यावत् कैसे?

बड़ा कठिन प्रष्न है। यदि प्रत्यक्ष है तो अविद्यावत् नहीं और यदि अविद्यावत् है तो प्रत्यक्ष नहीं।

इसका उत्तर सुनियेः-

(1) देहेन्द्रियादिश्वहंममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः।    (पृश्ठ 2)

(2) नहीन्द्रियाण्यनुपादाय प्रत्यक्षादिव्यवहारः संभवति।                  (पृश्ठ 2)

(3) नचाधिश्ठानमन्तनरेणोन्द्रियाणां व्यवहारत् संभवति।                   (पृश्ठ 2)

(4) नचानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद्व्याप्रियते।                पृश्ठ 3)

(5) न चैतस्मिन् सर्वस्मिन्नप्तति असंगत्यात्मनः प्रमातृत्वमुपपद्यते।          (पृश्ठ 3)

(6) न च प्रमातृत्वमन्तरेण प्रमाणप्रवृत्तिरस्ति।                  (पृश्ठ 3)

अर्थः-

(1) देह, इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ भाव नहीं है। इसलिये वह प्रमाता नहीे, जो प्रमाता नही उसकी प्रमाण में प्रवत्ति नहीं।

(2) बिना इन्द्र्रियो के प्रत्यक्षादि व्यवहार नहीं होते।

(3) बिना अधिश्ठान के इन्द्रियो का व्यवहार संभव नहीं।

(4) जिस देह में आत्मा का अध्यास न हो वह देह व्यापार नहीं कर सकती।

(5) और यदि यह सब न हो तो असंगत आत्मा प्रमाता कैसे होगा?

(6) प्रमाता के बिना प्रमाण की प्रवृत्ति कैसे होगी?

पहली तीन बाते ठीक हैं, परन्तु चैथी ठीक नहीें, और उसके द्वारा जो उत्तर दिया गया है वह भी ठीक नहीं।

यह ठीक है कि देह और इन्द्रियाँ प्रमाता नहीं हो सकतीं। परन्तु प्रमाता का साधन तो हो सकती है। इसलिये तो कहा है कि बिना इन्द्रियों के प्रत्यक्ष आदि व्यवहार नहीं हो सकते। उपकरण का अध्यास कहना भूल है। अध्यास के किसी लक्षण से इन्द्रियों का उपकरण होना अध्यास नहीं कहा जा सकता। ‘स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः’ पर विचार किजिये, और फिर उसे प्रत्यक्ष पर घटाइये। ‘पूर्वदृश्ट’ क्या है? उसकी स्मृति क्या है? और परत्र क्या है? थोड़े से विचार से पता चल जायगा कि यह कहना नितान्त अयुक्त है कि ”न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते“। यह तो कह सकते है कि बिना इन्द्रियों की सहायता के आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। अर्थात् इन्द्रियाँ उपकरण है।

यदि ‘अतस्मिस्तद्बुद्धिः’ पर विचार करें तो प्रष्न यह है कि प्रत्यक्षादि व्यवहार में क्या इन्द्रियाँ अपने को आत्मा समझती है? या आत्मा अपने को इन्द्रिय समझता है? यह तो स्पश्ट है कि इन्द्रियाँ अपने को आत्मा नहीं समझतीं। उनमें स्वयं बुद्धि ही नहीं जो अपने में किसी अन्य वस्तु की बुद्धि कर सकें। आत्मा भी अपने को इन्द्रिय नहीं समझता। यदि ऐसा होता तो अन्धे को भी रूप का अवभास होता क्योंकि आँखें न होते हुए भी वह अपने में आँखों की बुद्धि कर सकता। वस्तुतः बात यह है कि जिसको षंकर स्वामी अध्यास बताते हैं वह आत्मा द्वारा आँख का प्रयोग है। दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के दूसरे सूत्र ‘प्रवृत्तेष्च’ का भाश्य करते हुए षंकर स्वामी ने जो वर्णन किया है वह अधिक ठीक है। वह लिखते हैंः-

”न ब्रमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्दृष्यते न तस्य सेति। भवतु  तस्यैव सा। सातु चेतनाभ्दवतीति ब्रमः। तभ्दावे भावात्तदभावे चाभावात्।    (पृश्ठ 222)

यहाँ यह बताया गया है कि आत्मा ‘प्रवत्र्तक’ है, देह आदि इन्द्रियाँ ‘प्रवत्र्य’ हैं। और उनमें ‘प्रवृत्ति’ आत्मा द्वारा आती है। परन्तु यहाँ अध्यास नहीं है। इस सम्बन्ध में षंकराचार्यजी ने एक प्रबल पूर्वपक्ष खड़ा किया है ”एकत्वात् प्रवत्र्याभावे प्रवर्तकत्वानुपपत्तिरिति।“ अर्थात् षांकर मत में सब जगत् मिथ्या और केवल आत्मा ही सत्य है तो बिना ‘प्रवत्र्य’ के प्रवर्तकत्व कैसा और प्रवृत्ति कैसी? यह ऐसा प्रष्न है कि उससे अध्यासवाद का समस्त प्रासाद धराषयी हो गया है। षंकराचार्यजी ने इसका जो उत्तर दिया है वह सर्वथा खोखला है। वे कहते हैंः-

‘न। अविद्याप्रत्युपस्थापितनामरूपमायावेषवषेनासकृत् प्रत्युक्तवात्।        (पृश्ठ 223)

अर्थात् अविद्या के कारण नामरूप का मायाजाल बन जाता है।

यह प्रष्न का उत्तर नहीं है अपितु प्रष्न को और जटिल बना दिया है। यहाँ अविद्या और माया दोनों षब्द मिले-जुले प्रयुक्त किये गये है। यह उत्तर नहीं किन्तु उत्तराभास है। ऐसे उत्तर तो किसी प्रष्न के दिये जा सकते हैं। पूर्वपक्ष जैसा का तैसा उपस्थित रहता है।

अब षंकर स्वामी-प्रदत्त अध्यास के कुछ उदाहरणों की विवेचना कीजिये।

पुत्रभार्यादिशु विकलेशु सबलेशु वा अहमेव विकलःसकलो वेति वाह्यधर्मानात्मन्यध्यस्यति।

(पृश्ठ 3)

अर्थात् पुत्र भाई आदि के सुख-दुखः से आत्मा स्वंय अपने को सुखी या दुःखी मान लेता है यह अपने मे बाह्य धर्मों का अध्यास है।

(2) तथा देहधर्मान्-स्थूलोऽहं, गौरोऽहं, तिश्ठामि, गच्छामि, लघयानि चेति।  (पृश्ठ 3)

अर्थात् देह स्थूल है, गोरी है। आत्मा न स्थूल है न कृष न गौर। परन्तु जब आत्मा कहता है कि मैं स्थूल हूँ तो देह के स्थूलता धर्म का अपने में अध्यास करता है। इसी प्रकार देह चलती है न कि आत्मा।

(3) तथेन्द्रियधर्मान्-मूकः, काणः, लकीबः, बधिरः, अन्धोहमिति।

अर्थात् आत्मा काना नहीं, आँख कानी है परन्तु आत्मा कानेपन का अपने में अध्यास करता है।

(4) तथाऽन्तःकरणधर्मान् कामसंकल्पविचिकित्साध्यवसायादीन्।

अर्थात् काम संकल्प आदि अन्तःकरण के धर्म है। आत्मा अपने में उनका अध्यास करता है।

यहाँ चार उदाहरण दिये गये है। पहले उदाहरण में कुछ-कुछ अध्यास की झलक है, परन्तु यह दुःख सम्बन्ध के कारण है। यदि पुत्र के पेट में पीड़ा का अपने पेट में अध्यास कभी नहीं करता। उसको दुःख भिन्न है और पिता भिन्न। यह ”अतस्मिंस्तद्बुद्धि“ का लँगड़ा दृश्टान्त है।

‘मैं स्थूल हूँ’ का स्पश्ट अर्थ यह है कि मेरा षरीर स्थूल है। किसी को षरीर की स्थूलता में अपनी स्थूलता की बुद्धि नहीं होती। ‘मैं जाता हूँ’ यह उदाहरण तो सर्वथा अनुपयुक्त है। यदि रेल में बैठा हुआ मैं प्रयाग से काषी गया तो यह कहना कि वास्ताव में रेल मैं प्रयाग में ही बैठा रहा मैंने रेल के जाने का अपने में अध्यास कर लिया स्पश्ट तथा हास्यप्रद है। इसी प्रकार ‘अन्धोहम्’ का अर्थ यही है कि मेरे आँख नहीं। नेत्र तो अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धा हो जाता है।

यहाँ षायद आप पूछेंगे कि यदि अध्यास कोई चीज ही नही ंतो भिन्न-भिन्न ख्यातियों का प्रष्न क्यों उठा ?

हम कहते हैं कि हम अध्यास का खण्डन नहीं करते। अध्यास होता है। परन्तु वह उत्सर्ग नहीं उपवाद मात्र है। हम प्रायः रस्सी को रस्सी ही देखते हैं। कभी-कभी रस्सी में साँप की प्रतीति हो जाती है। इस प्रतीति का कारण ढूँढने के लिये ही ख्यातियों की षरण ली जाती है। इस प्रतीतियों को अपवाद मानने से समस्त जगत् मिथ्या सिद्ध नहीं होता। और यदि इनको उत्सर्ग माना जावे तो अध्यास के लक्षण नहीं बनते जैसा हम ऊपर कह चुके हैं। यदि कभी साँप का सत्यज्ञान हुआ ही नही हो रस्सी में साँप की प्रतीति भी नहीं हो सकती।

षंकराचार्यजी जगत् में समस्त व्यवहार को अध्यास परक कहते हैं यही भूल है। उन्होनें मनुश्यो के व्यापार की पषुओं के व्यापार से तुलना करके मनुश्यों को पषुओं के समान अविवेकी बताया है। परन्तु दृश्टान्त के लिये पषुओं का वह व्यवहार चुना हैं जिसको अविवेक नहीं विवके ही कहना पड़ेगा। वे लिखते हैंः-

”पष्चादिमिष्चाविषेशात्। यथा हि पष्वादयः षब्दादिभिः श्रोत्रादीनां सम्बन्धे सति षब्दादिविज्ञाने प्रतिकूले जाते ततो निवर्तनतं अनुकूले च प्रवतन्ते यथा दण्डोद्यतकृरं पुरूशमभिमुखमुपलभ्य मां हन्तुमयमिच्छतीति पलायितुमारभन्ते, हरिततृण्पूर्णपाणिमुपलभ्य तं प्रत्यभिमुखीभवन्ति, एवं पुरूशा अपि व्युत्पन्नचित्ताः क्रूरदृश्ट नाक्रोषतः खड्गोद्यतकरान् बलवत उपलभ्य ततो निवर्तन्ते, तद्विपरीतान् प्रति प्रवर्तन्ते, अतः समानः पष्चादिभिः पुरूशाणां प्रमाणप्रमेयव्यवहारः। पष्चादीनां च प्रसिद्धोऽविवेक पुरःसरः प्रत्यक्षादिव्यवहारः। तत्सामान्यदर्षनाद्व्युत्पत्तिमतामपि पुरूशाणां प्रत्यक्षादिव्यवहारस्तत्कालत् समान इति निष्चीयत।“   (पृश्ठ 3)

यहाँ श्री षंकराचार्यजी को सिद्ध करना है कि जैसे पषु मूर्ख होते हैं उसी के समान पुरूश भी मूर्ख होते है। इनकी युक्ति सुनिये। बड़ी विचित्र है। पषु यदि किसी को लकड़ी हाथ में लिये देखे तो उसकी और आता है कि कहीं मार न दे। और हरी घास हाथ में देखे तो उसकी ओर आता है। ऐसा ही व्यवहार पुरूश करते है। पषु अविवेकी है अतः पुरूश भी उसके समान व्यवहार करके अविवेकी हो गये। यहाँ पषुओं की अविवेकता दिखाने के लिये जो व्यापार चुना गया वह सर्वथा विवके सूचक है। लकड़ी से डरना और घास से प्रेम करना पषुओं के विवके सूचक द्योतक हे अविवेक का नहीं। यह तो पषुओं को बड़े अनुभव से प्राप्त हुआ है। और यदि पुरूश भी इसका अनुकरण करते है। तो विवेकी हैं अविवेकी नहीं। हाँ, यदि पषुओं के किसी विवेकषून्य व्यवहार का दृश्टान्त दिया जाता तो ठीक था। पषु भी किसी-किसी बात में भ्रान्त हो जाते हैं ओर मनुश्य भी। इससे उनके समस्त व्यवहारों को भ्रम-युक्त कहकर समस्त संसार को अविद्यावत कहना ठीक नहीं।

फिर षास्त्र को अविद्यावत् कहना तो और भी बड़ी भूल है। इन्द्र-जाल की पुस्तक और षांकर-भाश्य को किसी प्रकार भी एक कोटि में नहीं रख सके। पहली चीज नितान्त धोखा है। दूसरी में तो कहीं-कहीं भूल हो सकती है। इसी प्रकार उपनिशद् आदि भी षास्त्र है ओर उनकी कथा या व्याख्या जगत् के व्यापार के अन्तर्गत हैं। वे अविद्यावत् कैसे हो सकती है!

इस सम्बन्ध में एक बात विचारणीय है। रस्सी में साँप की ही प्रतीति क्यों होती है? हाथी की प्रतीति क्यों नहीं होती? मृगतृश्णिका में जल की ही प्रतीति क्यों होती है रेलगाड़ी की प्रतीति क्यों नहीं होती? जिस प्रकार रस्सी में साँप का अभाव है उसी प्रकार हाथी का भी अभाव है। ठूँठ को भ्रम से चोर तो समझ सकते हैं परन्तु सूरज नहीं समझ सकते।

हम यह नहीं कहते कि संसार में धोखा नहीं है। धोखा है। परन्तु उस धोखे की बुनियाद भी सत्य पर है। लोग दुध में पानी मिला देते हैं जिससे लेने वालों को पानी में दूध-बुद्धि हो जाय, परन्तु दूध में मक्खी डाल कर कोई धोखा नहीं दे सकता। क्या कारण है कि मनुश्य पानी में तो दूध-बुद्धि कर लेता है और मक्खी में नहीं। संसार की समस्त प्रकार की भ्रान्तियों को इकट्ठा करके उनके कारण का विचार कीजिये। और जता चल जायगा कि सभी प्रत्याक्षादि व्यापार अध्यास नहीं हैं और न यह ‘अविद्यावत्’ हैं। अविद्या के दो कारण होते हैंः-

इन्द्रियदोशात्संस्कारदोशाच्चाविद्या।

पहला दन्द्रिय-दोश, दूसरा संस्कार-दोश। यदि ब्रह्म ही केवल सत्य है और समस्त जगत् मिथ्या, तो न इन्द्रिय-दोश का प्रष्न उठता है न संस्कार-दोश का। न उपनिशदों के किसी वाक्य से इसकी सिद्धि होती है।

ब्रह्म की जिज्ञासा का आरम्भ अध्यास से करके श्री षंकराचार्यजी ने बादरायण के साथ न्याय नहीं किया। और न और लोगों के साथ। यदि बादरायण के जगत् और षास्त्र दानों को अविद्या मानतेे तो ब्रह्म की जिज्ञासा का उन्हीं से आरम्भ न करते जैसा कि उन्होंने दूसरे और तीसरे सूत्रों में किया है। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म के लिये यह कोई प्रषंसा की बात नहीं है कि उससे अविद्यावत् जगत् का जन्म, स्थिति अथवा प्रलय हो और उसको अविद्यावत् षास्त्र की योनि कहा जाय। षंकर स्वामी स्वयं भी तो कहतेे हैंः-

”तद्ब्रह्म सर्वज्ञं सर्वषक्ति जगदुपत्तिस्थितिलयकारणं वेदान्तषास्त्रादेवावगम्यते।“

(षां॰ भा॰ 1।1।4 आरम्भिक वाक्य)

सर्वज्ञ ब्रह्म अविद्यावत् जगत् का कारण कैसा? और अविद्यावत् षास्त्र से (चाहे वह वेद हो या वेदान्त) उसकी प्राप्ति कैसी?

दूसरी प्रतिपत्ति

(1) न च तेशां कर्तृस्वरूप प्रतिपादन परतावसीयते, ‘तत्केन कं पष्येत्’ इत्यादि क्रियाकारकफलनिराकरणश्रुतेः। (1।1।4 पृश्ठ 11)

श्रुति के वाक्यों से कत्र्ता के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं होता। अर्थात् ब्रह्म को कत्र्ता नहीं माना। वृहदारण्यक 2।4।13 में कहा है कि ‘किसको कौन देखे’। उससे क्रिया, कारक और फल तीनों का खण्डन होता है।

(2) यत् तु हेयोपादेयरहितत्वादुपदेषानर्थक्यमिति, नैप दोशः, हेयोपादेयषून्य ब्रह्मात्मतावगमादेव सर्वक्लेषग्रहाणात् पुरूशार्थसिद्धेः।  (1।1।4 पृश्ठ 11)

यदी कहो कि हेय और उपादेय के बिना उपदेष का कुछ  अर्थ नही  तो यह ठीक नहीं क्योंकि यदि यह ज्ञान हो जाय कि ब्रह्मात्मा न हेय है न उपादेय है तो इसी ज्ञान से सब क्लेष दूर हो जाते हैं और यही पुरूशार्थ की सिद्धि है।

अर्थात् श्रुति में यह उपदेष नहीं है कि यह छोड़ो और यह करो। केवल यह ज्ञान हो जाना चाहिये कि ब्रह्म न हेय है न उपादेय।

(3) न तु तथा ब्रह्मण उपासनाविविधषेशत्वंु संभवति एकत्वे हेयोपादेयषून्यतया क्रियाकारकादिद्वैतविज्ञानोपमर्दोपपत्तेः। न ह्येकत्वविज्ञानेनोन्मथितस्य द्वैतविज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति, येनोपासनाविधिषेशत्वं ब्रह्मणः प्रतिपद्येत।     (1।1।4 पृश्ठ 11)

जब द्वैत ज्ञान नश्ट हो गया तो हेय उपादेय, क्रिया, कारक आदि का प्रष्न ही नहीं रहता। उस समय ब्रह्म की उपासना भी सम्भव नही रहती। जब एक बार एकत्व का ज्ञान हो गया और द्वैत-ज्ञान नश्ट हो गया तो ब्रह्म की उपासना के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता। इससे कर्म और उपासना दोनों का खण्डन हो गया।

(4) ‘अषरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृषतः’।  (छा॰ 8।12।1) इति प्रियाप्रियस्पर्षनप्रतिशाधाच्चोदनालक्षणधर्मेकार्यत्वं मोक्षाख्यस्याषरीरत्वस्य प्रतिशिध्यत इति गम्यते।     (1।1।4 पृश्ठ 14)

षरीर रहने पर प्रिय और अप्रिय भी स्पर्ष नहीं करते। ऐसा छान्दोग्य में लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि षरीर रहित मोक्ष के लिये वेदोक्त कर्म का प्रतिशेध है।

यहाँ वेदोक्त कर्म की अवहेलना की गई है।

(5) अषरीरत्वभेव धर्मकार्यमितिचेत्र, तस्य स्वाभाविकत्वात्।           (1।1।4 पृश्ठ 14)

यदि कोई ऊपर के आक्षेप का समाधान करता हुआ कहे कि धर्म के कारण ही षरीर से छुटकारा मिलता है तो स्वाभाविक है।

(6) अतएववानुश्ठेयकर्मफलविलक्षणं मोक्षाख्यमषरीरत्वं नित्यमिति सिद्धम्।     (1।1।4 पृश्ठ 14)

इसलिये सिद्ध है कि षरीर से छुटकारा पाकर जो मोक्ष मिलता है वह अनुश्ठेय कर्म के फल से सर्वथा विलक्षण है।

(7) अब कहते हैं कि ब्रह्म की मोक्ष हैः-

इदं तु पारमार्थिकं कूटस्थनित्यं, व्योमवत्सर्वव्यापि, सर्वविक्रियारहितं, नित्यतृप्तं, निरवयवं, स्वयंज्योतिः स्वभावम्। यत्र धर्माधर्मौ सह कार्येण कालत्रयं च नोपवर्तेते। तदेतद् अषरीरत्वं मोक्षाख्यम्।    (1।1।4 पृश्ठ 14)

”यह जो पारमार्थिक कूटस्थ नित्य, आकाषवत् सर्वव्यापी, सर्वविकार रहित, नित्यतृप्त, अवयवषून्य, स्वयं ज्योति स्वभाव है जहाँ धर्म अधर्म कार्य के साथ तीनों कालों में स्पर्ष नहीं करते वही यह अषरीरत्व मोक्ष है।

यहाँ मोक्ष को नित्य और अनादि माना है क्योंकि कालत्रय अर्थात् तीनों कालों का संस्पर्ष वहाँ होता। यह स्वभाव है। यह मान कर ही षंकराचार्य जी मोक्ष के लिये कर्म का निशेध करते है।

(8) यह युक्ति (युक्ति-आभास) विचारणीय है।

अतस्तद्ब्रह्म यस्येयं जिज्ञासा प्रस्तुता, तद् यदिकत्र्तव्यषेशत्वे नोपदिष्येत, तेन च कर्तव्येन साध्यष्चेनमोक्षोऽभ्युपगम्येत, अनित्य एव स्यात्।

जिस ब्रह्म की जिज्ञासा वेदान्त दर्षन में की गई हैं। वह यदि किसी कर्तव्य विषेश का फल हो और उसी के द्वारा उसकी प्राप्ति मानी जावे तो वह ब्रह्म अनित्य हो जावे।

इस युक्ति का स्पश्टीकरण आवष्यक है। षंकरजी पहले सिद्ध कर चुके हैं कि धर्म करने से सुख होता है। सुख अनित्य होता है। मोक्ष नित्य है इसलिये उसके लिये धर्मानुश्ठान की आवष्यकता नही। यदि ब्रह्म भी कर्मानुश्ठान का फल हो तो वह अनित्य हो जायगा। अब तक तो हमने आठ उद्धरण किये है वे सब इसी बात को सिद्ध करने के लिये हैं कि पूर्व मीमांसा में जो कर्म का विधान बताया गया और वेद का सार्थत्व इसी पर आधारित किया गया वह ठीक नहीं है।

इस युक्ति में दोश निकालना कठिन भी हो तो भी किसी मनुश्य को यह युक्ति ठीक प्रतीत नहीं होती। प्रथम तो मोक्ष में और ब्रह्म में भेद है। मोक्ष जीव की अवस्था विषेश है ब्रह्म जीव नहीं। चैथे अध्याय में कई स्थानों पर मुक्त जीवों का वर्णन षंकरजी ने भी इस प्रकार किया है मानो वह मोक्ष और ब्रह्म में भेद करते हैं ‘अभाव बाहरिराह ह्येवम्’ (4।4।10) पर भाश्य करते हुए षंकरजी लिखते हैंः-

यदि मनसा षरारन्द्रियैष्च विहरेन् मनसेति विषेशणं न स्यात् तस्मादभावः षरीरेन्द्रियाणां मोक्षे।      (पृश्ठ 508)

‘मनसैतान् कामान् पष्यन् रमते’

अर्थात् मुक्त पुरूश ‘मन से’ मनोरथों को देखता हुआ रमण करता है। इस पर षंकरजी कहते हैं कि यदि षरीर और इन्द्रियों का भी साथ अभीश्ट होता तो ‘मनसा’ ऐसा न कहते। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मुक्त जीव ब्रह्म नहीं। वह तो

”मनसा एतान् कामान् पष्यन् रमते।“

 

इस सूत्र की संगति चतुःसूत्री से नहीं लगती।

परन्तु युक्ति में दोश भी है। वह स्पश्ट है।

यह ठीक है कि धर्मानुश्ठान से जो सुख जीव को होता है वह नित्य नहीं। परन्तु जिस ब्रह्म के ज्ञान से वह सुख होता है उसकी नित्यता का बोध कैसे हो सकता है। धर्मानुश्ठान से ज्ञान होगा। वह ज्ञान होता ब्रह्म का। यदि ज्ञान अनित्य हो तो ज्ञेय भी अनित्य हो ऐसा तो नियम नहीं है। ज्ञान ज्ञेय के आश्रित है ज्ञेय ज्ञान के अश्रित नहीं। ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ में जिज्ञासु जीव है। ज्ञान अनित्य हो सकता है परन्तु जिज्ञासा अर्थात् ज्ञेय तो ब्रह्म है वह अनित्य कैसे होगा? 24 का 8 गुणा 192 होता है। यह नित्य सचाई एक बालक जो इस सचाई को याद करता है कई बार भूल जाता है। वह ज्ञान अनित्य हुआ। परन्तु ज्ञान के अनित्य होने से ज्ञेय का अनित्य होना तो ठीक नहीं। यह युक्ति तो सर्वथा दोशयुक्त है। परन्तु इसको इतने वाक्यों के झुण्ड में डाल दिया गया है कि साधारणतया पढ़ने से वह दोश प्रतीत नहीं होता है। एक प्रकार की भूलभुलय्याँ हैं। जो बिना थोड़े परिश्रम के स्पश्ट नहीं हो सकती।

(9) इत्येवमाद्याः श्रुतयो ब्रह्मविद्यानन्तंर मोक्षं दर्षनन्तयो मध्ये कार्यान्तरं वारयन्ति।

(1।1।4 पृश्ठ 15)

यहाँ कुछ श्रुतियाँ देकर कहते है कि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति पर ही मोक्ष हो जाती है। बीच में कुछ और कार्य की आवष्यकता नही पड़ती ।

यह वाक्य अकेला तो कुछ हानि नहीं करता परन्तु जिस प्रसंग में इसका प्रयोग हुआ है वह अवष्य ही आपत्ति-जनक है। श्री षंकराचार्यजी का मुख्य अभिप्राय हैं धर्मानुश्ठान अर्थात् कर्माें की निःसारता दिखाना। प्रष्न यह है कि क्या धर्मानुश्ठान ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिये आवष्यक नहीं? फिर यदि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति हो गई तो क्या उसी क्षण से कत्र्तव्यों का अन्त हो गया? फिर जीव-मुक्ति सम्बनधी सूत्रों का क्या बनेगा? क्योंकि ज्ञान होते ही मोक्ष और अषरीरत्व प्राप्त हो जायगा। इनके मत में ब्रह्मविद्या प्राप्ति का अर्थ ही यह है कि जीव में जीव-बुद्धि न रहकर ब्रह्म-बुद्धि प्राप्त हो हो जावे। तृतीय अध्यास के तृतीय पाद है 9वें सूत्र ”व्याप्तरेष्च समंजसम्“ का भाश्य करते हुए श्री षंकराचार्य ने स्वयं हमारे आक्षेप की पुश्टि की है और अपने मत का विरोध। वे लिखते हैं

”मिथ्याज्ञाननिवृत्तिः पलमिति चेत्। न । पुरूशार्थाेंपयोगानवगम त्“।

(पृश्ठ 383)

अर्थात् यदि मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति ही फल हो तो पुरूशार्थ का क्या उपयोग होगा? अर्थात् मनुश्य को जब तक षरीर है अवष्य ही धर्मानुश्ठान करते रहना चाहिये।

षंकराचार्यजी का एक और हेत्वाभास सुनियेः-

न च तद्विज्ञानं कमणां प्रवर्तक भवति प्रत्युत्त कर्माण्युच्छिनत्तीत वक्ष्यति ‘उपमर्दं चं ’

(ब्र॰ सू॰ 3।4।16)

(देखो षां॰ भा॰ 6।4।8, पृश्ठ 435)

षंकराचार्यजी कहते हैं कि ब्रह्म का ज्ञान कर्मो का प्रवर्तक नहीं, किन्तु उच्छेदक है। अतः ज्ञान कर्म का साधक नहीं। यहाँ ‘कर्म’ को दो अर्थों में लिया गया है। जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु कर्म का प्रवर्तक है तो इसका अर्थ होता है कि वह कर्म करने में प्रवृत्ति कराती है। इस अर्थ में ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक नहीं। ब्रह्मज्ञानी संसार के उपकार में रत रहता है। निश्काम कर्म करता है। परन्तु जब हम कहते हैं कि ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक है तो वहाँ कर्म करने से तात्पर्य नहीं किन्तु कर्म का फल भोगने से है। ”क्षीयन्ते चास्यकर्माणि के फलभोग का बोधक है। और ”कुर्वन्नेवेह कर्माणि“ में कर्म से तात्पर्य है निश्काम कर्म करने से। इसलिये इस प्रकार की भूल भुलैयों से यह नहीं समझना चाहिये कि धर्मानुश्ठान श्रुति को अभीश्ट नहीं या धर्मानुश्ठान से ब्रह्मज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं।

(10) न चेदं ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं संपद्रूपम्।

न चाध्यास रूपम्।

नापि विषिश्टक्रियायोगनिमित्तम्।

नाप्याज्यावेक्षणादिकमवत् कर्मांगसंस्काररूपम्।

संपदादिरूपे हि ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानेऽभ्युपगभ्यमाने ‘तत्त्वमसि’

(छा॰, 6।8।7)

‘अहं ब्रह्मास्मि’         (बृ॰ 14।10)

‘अयमात्मा ब्रह्म’      (बृ॰ 2।5।19)

इत्येवमादीनां वाक्यानां ब्रह्मात्मैकत्ववस्तुप्रतिपादनपरः पदसमन्वयः पीड्येत।

तस्मान्न संपदादिरूपं ब्रह्मात्मैकत्व विज्ञानम्। (1।1।4। पृश्ठ 15,16)

षंराचार्यजी कहते है कि ”ब्रह्म और आत्मा के एक होने का ज्ञान“ जिसको मोक्ष कहते है न तो सम्पत है  अर्थात् यह किसी धर्म आदि कर्माे से प्राप्त नहीं होती। न अध्यास है। न विषिश्ट क्रियायोग से प्राप्त होती है। न किसी कर्मांग का संस्कार है। क्योंकि यदि इसको सम्पत् आदि माना जाय तो ‘मैं ब्रह्म हूँ’ आदि आदि श्रुतियों का समन्वय न हो सकेगा।

(11)अतोे न पुरूश व्यापारतत्रा ब्रह्मविद्या। कि वर्हि प्रत्यक्षादि-प्रमाणविशयवस्तुज्ञानवद्वस्तुतन्त्रा।  एवभुतस्य ब्रह्माणस्यज्ज्ञानस्य च न कयाचिक्ष्युक्त्या षक्याः काय्र्यानुप्रवेषः कल्र्पायतुम्।

इसलिये ब्रह्मविद्या पुरूश के व्यापार के आश्रित नहीं हैं। अपितु वस्तु-आश्रित है जैसे प्रत्यक्षादि विशय होते है। इसलिये इस प्रकार के ब्रह्म या उसके ज्ञान का किसी युक्ति से भी कार्य के साथ सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता।

श्री षंकराचार्यजी ने विभिन्न युक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया है कि ब्रह्म का ”ब्रह्मज्ञान“ का कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं, और इससे वह धर्मानुश्ठान का खण्डन करते हैं। यह सब परिश्रम पूर्वमीमांसा के कर्मवाद के विरोध में है। परन्तु यह प्रतिपत्ति न तो वेदान्त के इन चार सूत्रों से सिद्ध होती हॅै न उपनिशद् वाक्यों से।

”ब्रह्म का कार्य से सम्बन्ध नहीं“ इसका क्या अर्थ? यदि कहो कि ब्रह्म कोई ऐसा कार्य नहीं करता कि जिससे उसे सुख दुःख हो तो ठीक है। परन्तु इसका प्रसंग नहीं। पुरूश क्रियाओं द्वारा ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। जितना धर्मानुश्ठान है वह जीव मे मल, विक्षेप और आवरणों को दूर करने के लिये हैं। इसलिये षंकराचार्यजी का प्रयत्न या तो निरर्थक है या प्रसंग-विरूद्ध।

श्री षंकराचार्य जी को ‘कार्य’ या ‘कर्म’ से कहाँ तक द्वेश है इसका उदाहरण नीचे के पदों से सुनियेः-

न च विदिक्रियाकर्मत्वेन काय्र्यानुप्रयवेषो ब्रह्मणः, ‘अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’।   (केन॰ 1।3)

इति विदिक्रियाकर्मत्वप्रतिशेधात्।      (1।1।4, पृश्ठ 16)

”ब्रह्म विदि क्रिया का कर्म नहीं हो सकता क्योंकि केन उपनिशद् में लिखा है कि ब्रह्म विदित और अविदित दोनों से अलग है।“ क्या अच्छी युक्ति है। यदि विदि क्रिया का कर्म न हुआ तो ‘ज्ञा’ क्रिया का हुआ। बात क्या हुई। स्वयं षंकराचार्य जी पहले सूत्र की व्याख्या में लिखते हैं।

”तच्च कर्मणि शश्ठी परिग्रहे सूत्रेणानुगतं भवति।“

जो समाधान ‘ज्ञा’ का दिया जा सकता है वही ‘विदि’ का भी हो सकता है। विदितात्’ ‘अविदितात्’ के स्थान में ‘ज्ञातात्’ और ‘अज्ञातातत्’ कह सकते है। उपनिशद् में तो ‘पूर्ण अज्ञान’ से तात्पर्य था। परन्तु श्री षंकराचार्यजी ने उसको खींच कर अपनी युद्ध-स्थली में ला डाला। क्योंकि वे पूर्वमीमांसा का विरोध करने पर तुले हुए है।

(12) तथोपास्तिक्रियाकमत्वप्रतिशेधोऽपि भवति। ‘यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते’ इत्यविशयत्वं ब्रह्मण उपन्यस्य ”तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते“ इति।     (केन॰ 1।4)

भविशयत्वे ब्रह्मणः षास्त्रयोनित्वानुपपत्तिरितिचेत्।

न। अविद्याकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्वाच्छास्त्रस्य।।

”इसी प्रकार उपासना-विधि का कर्मत्व भी ब्रह्म में नहीं, क्योंकि लिखा है कि वह वाणी का विशय नहीं। वाणी उससे कार्य करती है। इस प्रकार ब्रह्म को अविशय बता कर कहा गया है कि ‘उसी को तुम ब्रह्म जानो’ न कि उसको जिसकी जगत् उपासना करता है।“

इस पर आक्षेप उठाते है कि यदि ब्रह्म उपासना का भी विशय नही तो षास्त्र से उसकी प्राप्ति कैसी? इसका उत्तर देते है कि षास्त्र का काम तो यह है कि अविद्या के द्वारा हुए भेद-भाव को मिटा दे। वह प्रतिपत्ति भी न तो सूत्र से सिद्ध है न उपनिशद् के वचनों से। माना कि ब्रह्म के कल्पित स्वरूप का निराकरण ही षास्त्र का उद्देष्य हुआ, तो भी ब्रह्म की उपासना का खण्डन कहाँ हुआ?

(13) अब षंकराचार्यजी ‘मुक्ति की नित्यता’ को हेतु बना कर कर्म का विरोध करते हैंः-

अतऽविद्याकल्पितसंसारित्वनिवर्तनेन नित्यमुक्तात्मस्वरूप-समर्पणान्न मोक्षस्यानित्यत्वदोशः।

अर्थात् षास्त्र का उपदेष अविद्या-कल्पित संसार की निवृत्ति है। आत्मा नित्यमुक्त है ही। अतः मोक्ष भी नित्य ही हुआ। इसमें कोई दोश नहीं।

(14) यस्त तूत्पाद्यो मोक्षस्तस्य मानसं, वाचिकं, कायिकं वा कार्यमपेक्षत इति युक्तम्। तथा विकार्यत्वे च तयोः पक्षयोर्मोक्षस्य नित्यं दृश्टं लोके। नचाप्यत्वेनापि काय्र्यापेक्षा, स्वात्मस्वरूपत्वे सत्यनाप्यत्वात्। स्वरूपव्यतिरिक्तत्वेऽपि ब्रह्मणो नाप्यत्वं, सवगतत्येन निव्याप्तस्वरूपत्वात् सर्वेणब्रह्मणः, आकाषस्येव। नापि संस्कार्यो मोक्षः, येन व्यापारनयनेन वा। न तावद्गुणाधानेन संभवति, अनाधेयातिषयब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य। नापि दोशपनयनेन, नित्यषुद्धब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य।

(1।1।4, पृश्ठ 16-17)

यहाँ पाँच विकल्प उठाये गये।

(अ) यदि मोक्ष उत्पाद्य (पैदा की हुई) वस्तु है तो मानसिक, वाचिक या कायिक कार्य की आवष्यकता होगी। और मोक्ष अनित्य हो जायगा। जैसे घड़ा।

(आ) यदि विकार्य वस्तु है जैसे दही दूध का विकृत रूप है, तो भी मोक्ष अनित्य होगा।

(इ) यदि मोक्ष आप्य (प्राप्त होने वाली) वस्तु है तो भी कार्य की आवष्यकता नहीं क्योंकि ब्रह्म तो स्वात्मस्वरूप है। क्यों? स्वयं अपने ही को प्राप्त करने का क्या अर्थ?

(ई) यदि जीव-ब्रह्म में भेद भी हो तो भी कर्म की जरूरत नहीं क्योंकि जैसे आकाष सर्वत्र व्याप्त है और उसकी प्राप्ति का प्रष्न नहीं उठता। इसी प्रकार ब्रह्म भी सर्वत्र व्याप्त है। व्याप्त की ‘आप्यता’ का क्या प्रष्न?

(उ) यदि मोक्ष संस्कार्य है तब भी व्यापार की आवष्यकता नहीं क्योंकि संसार में या तो कोई गुण बढ़ाते हैं या कोई दोश दूर करते हैं। ब्रह्म के साथ यह दोनों नहीं हो सकते। ब्रह्म नित्य है। इसलिये मोक्ष भी नित्य है।

इन हेतुओं में कितनी भूल भुलैयाँ हैं! श्री षंकराचार्यजी को अभीश्ट है कर्म का विरोध। इसके लिये पहले तो यह मान लिया कि मोक्ष नित्य (अनादि और अनन्त) है। इसके लिये लिख दिया।

‘नित्यष्च मोक्षः सर्वैर्मोक्ष वादिभिरम्युपगम्यते’

अर्थात् सभी मोक्षवादी मोक्ष को नित्य मानते है। यह कल्पना भी गलत थी। मोक्ष को चाहे लोग अनन्त भले ही मानें, अनादि मानने वाले तो बहुत कम होंगे। नित्य वस्तु अनादि और अनन्त दोनों होती है। केवल अनन्त को नित्य नहीं कह सकते। मोक्ष को अनन्त मानना उत्पाद्य, विकार्य या संस्कार्य तीनों विकल्पों से नहीं टकराता। रही ‘आप्य’ की बात। सो जो ब्रह्म को जीव मानते हैं उनका विरोध ‘आप्य’ से भले ही होता हो, भेद मानने वालों के लिये ‘आप्य’ का क्या विरोध है? क्योेंकि आप्य न केवल देष या काल की अपेक्षा से होता है किन्तु ज्ञान की अपेक्षा से भी। यद्यपि देष और काल की अपेक्षा से आकाष सब को आप्य है परन्तु ज्ञान की अपेक्षा से नहीं। यदि जीव और ब्रह्म भिन्न हैं तो ब्रह्म ज्ञान की अपेक्षा से आप्य है। प्राप्ति के लिये कार्य की अपेक्षा स्पश्ट ही है। ज्ञान बिना कर्म के संभव नहीं, यदि षांकर भाश्य को अविद्या के निराकरण और ज्ञान की प्राप्ति का साधन मान लिया जाय तो षांकर भाश्य की प्राप्ति और पढ़ने तथा समझने की योग्यता पाने तक कितने व्यापारों की अपेक्षा होगी? फिर कर्म का तिरस्कार कैसा?

(15) स्वात्मधर्म एव संस्तिरोभूतो मोक्षः क्रिययात्मनि संस्क्रियमाणोऽमिव्यज्यते, यथाऽऽदर्षे निधर्शणाक्रियय संस्क्रियमाणो भास्वरत्वं धर्म इति चेत्। न, क्रियाश्रयत्वानुपपत्तेरात्मनः।

(1,1,4, पृश्ठ 17)

अब कार्य-वाद कार पोशक पूर्वपक्षी धर्म का दूसरा अर्थ करके कार्य के लिये स्थान तलाष करना चाहता है परन्तु षंकराचार्यजी उसको तिल भर स्थान देने को राजी नहीं। वह कहता है कि माना कि मोक्ष आत्मा का स्वात्मधर्म है जैसे दर्पण का सफाई धर्म है। परन्तु जैसे दर्पण पर मैल आ जाता है तो उसे कपड़े से रगड़ते है। इसी प्रकार आत्मा का मैल रगड़ने के लिये तो व्यापार की आवष्यकता है।

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यन्नित्यं कर्म वैदिकमग्रिहोत्रादि तत् तत् कार्यायैव भवति, ज्ञानस्य यत् कार्यं तदेवास्यापि कार्यमित्यर्थः।

(षां॰ भा॰ 4।1 16 पृश्ठ 475)

यहाँ अग्निहोत्रादि नित्यकार्म का वही फल माना है जो ज्ञान का। यह मुख्य प्रतिपत्ति के विरूद्ध है। इसी स्थल पर षंका उठाकर इसका समाधान करते हैंः-

षंका–ज्ञान कर्मणोर्विलक्षणकार्यत्वान् कार्यैकत्वानुपपत्तिः।

ज्ञान और कर्म के फलों में भेद हैं फिर दोनों का एक सा फल क्यों कहा?

समाधान-नैशदोश। ज्वरमरणकाय्र्ययोरपि दधिविशयो र्गुडमन्त्रसंयुक्तयोस्तृप्ति पृश्टि कार्य दर्षनात्, तद्वत् कर्मणोऽपि ज्ञान संयुक्तस्य मोक्ष कार्योपपत्तेः।

यह दोश नहीं। दही खाने से ज्वर हो जाता है और विशखाने से मृत्यु। परन्तु दही में गुड़ मिला दिया जाय तो तृप्ति हो जाती है। और

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(16) ननु देहाश्रयया स्नानाचमन यज्ञोपवीतादिकया क्रिययादेही संस्क्रियमाणो दृश्टाः। न। देहादि संहतस्यैवाविद्यागृहीतस्यात्मनः संस्क्रियमाणत्वात्। प्रत्यक्ष हि स्नानाचमनादेर्देह समवायित्वम्। तया देहाश्रवयया तत्संहत एव कष्चिदविद्ययात्मत्वेन परिगृहीतः संस्क्रियत इति युक्तिम्।

प्रष्न है कि स्नान आचमन, यज्ञोपवीत आदि क्रिया भी तो देही की षुद्धि के लिये होती हे। षंकरजी कहते है कि वह तो केवल देह की षुद्धि के लिये हैं और इनसे वही देही षुद्ध होता है जिसने अविद्या के कारण अपने को देह से संयुक्त समझ रक्खा है। औशध खाकर एक मनुश्य कहता है कि मैं अब अच्छा हो गया। यह अध्यास अविद्या के कारण है आगे का वाक्य और भी प्रबल हैः-

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विश को मन्त्र के साथ (विषेश विधि के साथ) खाया जाय तो पुश्टि होती है। इसी प्रकार कर्म और ज्ञान के संयोग से मुक्ति हो सकती है। यहाँ कर्म की उपयोगिता बताई है। परन्तु चतुःसूत्री के कर्म का खण्डन किया है। वहां तो केवल ज्ञान को ही मोक्ष का साधन माना है। यदि केवल गुड़ से ही तृप्ति हो जाय तो दही में गुड़ कौन मिलावे? यदि बिना अग्निहोत्रादि के केवल ज्ञान से ही मुक्ति हो जाय तो अग्निहोत्रादि की आवष्यकता नहीं। परन्तु ‘अग्निहोत्र’ तो व्यास सूत्र में दिया हुआ है। उसका निराकरण कैसे हो सकता था? यदि षंकर स्वामी आरम्भ से ही ज्ञान और कर्म का सहयोग मान लेते तो षारीरिक भाश्य तथा उपनिशद्-भाश्यों में कई स्थानों पर जो उन्होंने कर्म का खण्डन किया है वह न करते।

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(17) तस्माज्ज्ञानमेकं मुक्त्वा क्रियया गन्धे मात्रस्याप्यनु प्रवेष इह नोपपद्यते।

अर्थात् ज्ञान को छोड़ कर क्रिया की गन्ध मात्र भी इस विशय में प्रवेष नहीं पा सकती।

कैसा गजब का विरोध है। ‘गन्ध’ षब्द को नोट कीजिए।

(18) अब क्रिया का पक्षपाती कहता है।

ननु ज्ञानं नाम मानसी क्रिया  (1।1।4 पृश्ठ 18)

अरे ज्ञान भी तो क्रिया ही है। षरीर की न सही, मन की।

इसका उत्तर षंकर स्वामी देते है।

न, वैलक्षण्यात्। (1।1।4 पृश्ठ 18)

नहीं। बड़ा भेद है।

क्या भेद है? सुनिये।

(19) ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकर्तुमन्यथा वा कर्तु षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात्। ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् प्रमाणं च यथाभूतवस्तुविशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कर्तुमषक्यं केवलं वस्तुतन्त्रमेव तत्। न चोहनातन्त्रम्। नापि पुरूशतन्त्रम्। तस्मान्मानसत्वेऽपि ज्ञानस्य महद्वैलक्षण्यम्।    (पृश्ठ 18)

ध्यान और ज्ञान में भेद है। यद्यपि ध्यान मानसिक है परन्तु पुरूश के अधिकार में है करे, न करे। अन्यथा करे, ज्ञान प्रमाण जन्य है। ज्ञान वस्तु के आधीन है। उसमें पुरूश का करने, न करने अथवा अन्यथा करने का अधिकार नहीं। ज्ञान व्यापार के आधीन नहीं। न पुरूश के आधीन है। इसलिये मानसतव होने पर भी ज्ञान ध्यान से सर्वथा विलक्षण है।

ज्ञान और ध्यान के भेद का स्पश्टीकरण बड़ी सुन्दरता से किया गया है। परन्तु इसका प्रयोग जिस उद्देष्य से किया गया है वह ठीक नहीं, ज्ञान का क्रिया से इतना विरोध नहीं। क्योंकि विरोध नहीं। क्योंकि क्रिया ज्ञान का साधन है, और कर्म और ज्ञान सहयोगी है।

एक विचित्र बात है। यहाँ तो षंकर जी ”ज्ञानं तु प्रमाणजन्य“ बताते हैं। यह ‘चोदनातन्त्रम्’ है ‘न पुरूशतन्त्रम्’। परन्तु अध्यास की मीमांसा करते हुये प्रमाण को अविद्यावत् बताते हैंः-

” तमेतमविद्याख्यमात्मानात्मनोरितराध्यासं पुरस्कृत्य सर्वेप्रमाण प्रमेय व्यवहारा लौकिका वैदिकाष्च प्रवृत्तः। सर्वाणि च षास्त्राणि विधि प्रतिशेध मोक्षपराणि।  (1।1।1। पृश्ठ 2)

जब प्रमाणों को अविद्यावत् सिद्ध कर चुके तो वह ज्ञान के जनक कैसे होंगे? यह प्रष्न है।

(20) या तु प्रसिद्धेऽग्नावग्निबुद्धिर्न सा चोदहनातन्त्रा। नापि पुरूशतन्त्रा। किं तर्हि प्रत्यक्ष विशय वस्तुतन्त्रैवेति ज्ञानमेवैतन्न क्रिया। (पृश्ठ 18)

अग्नि में जो अग्नि बुद्धि है वह न तो क्रिया के आधीन है न पुरूश के किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण के।

यदि यह ठीक है तो ऊपर कहे अनुसार यह अध्यास और अविद्या का परिणाम होगा।

(21) अब प्रष्न होता है कि वेद में ‘लिङ्’ लकार का प्रयोग क्यों है जब विधि या निशेध का प्रष्न ही नहीं उठता।

इसका उत्तर विलक्षण हैः-

तद्विशये लिङादयः श्रूयमाणा अप्यनियोज्यविशयत्वात् कुण्ठी भवन्ति, उपलादिशु प्रयुक्तक्षुरतैक्षण्यादिवत्।     (पृश्ठ 19)

अर्थात् जैसे पत्थर पर चलाने से क्षुरे की धार कुंठित हो जाती है ऐसे ही लिङ् लकार आदि प्रयुक्त होकर भी ब्रह्म के विशय में कुण्ठिन हो जाते हैं।

उपमा कितनी अच्छी है। परन्तु यह लागू कैसे हो सकती है? क्षुरे की धार को कुण्ठित करने के लिये पत्थर पर चलाना मूर्खता ही तो है। क्या लिङ् लकार का प्रयोग उसको कुण्ठित करने के लिये किया गया है? क्या यह उपनिशत् कारों की प्रषंसा है। या बुराई?

(22) किमर्थानि तर्हि ‘आत्मा वाऽरे द्रश्टव्यः श्रोतव्यः’ इत्यादीनि विधिच्छायानि वचनानि।

स्वाभाविक प्रवृत्तिविशय विमुखी करणार्थानीति ब्रूमः।

(पृश्ठ 19 )

अच्छा विधि के तुल्य प्रतीत होने वाले उन विधि वाक्यों का क्या अर्थ होगा जिनमें कहा है कि आत्मा को ही देखना या सुनना चाहिये?

हमारा (शंकराचार्यजी का) उत्तर है कि विशयों में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है उसको विमुखी करने के लिये यह वाक्य कहे गये हैं?

पाठक थोड़ा सा विचार करें। इसी को तो द्राविड़ी प्राणायाम कहते हैं, नाक सीधी न पकड़ी सिर के पीछे हाथ करके पकड़ी, स्वाभाविक प्रवृत्ति से विमुख करना भी तो निशेध है। और निशेध चोदना तंत्र हुआ। और पुरूश तंत्र भी। फिर यह कहना कि श्रुति में क्रिया का गन्ध मात्रा भी नहीं; देखते हुये न देखने के समान है। दूसरे सर्व साधारण में तो यह उपदेष लोगों को अकर्मण्य ही बनाते हैं जैसा कि षांकर-वेदान्त ने भारतवर्श को बना दिया है।

(23) अब पूर्वमीमांसा का स्पश्ट खण्डन करते हैं।

यदपि केचिदाहुः प्रवृत्ति निवृत्ति विधि तच्छेशव्यतिरेकेण केवल वस्तुवादी वेदामार्गो नास्ति’ इति तन्न औपनिशदस्य पुरूशस्यानन्यषेशतवात्। (पृश्ठ 19)

जो कहते है कि वेद केवल वस्तु वादी नहीं है उसमें प्रवत्ति और निवृत्ति की विधि है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि उपनिशदों का पुरूश किसी विधि या निशेध का साधन नहीं।

यहाँ ‘केवल’ षब्द पर ध्यान दीजिये और क्रिया के गन्ध मात्र न होने पर ध्यान दीजिये।

आगे के प्रष्नोत्तर से स्पश्ट हो जायगा कि ऊपर जिस बात का खण्डन किया गया है उसी को माना है।

(24) पूर्व मीमांसा का सिद्धान्त है कि

”अ म्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्।“

अर्थात् वेद का मुख्य प्रयोजन है क्रिया। इसलिए जो श्रुति इस प्रयोजन को सिद्ध न करे वह निरर्थक होगी।

इस सूत्र का स्वाभाविक अर्थ यह है कि वेद-षास्त्र षासन का पुस्तक है। उसमें जो ज्ञान की बातें दी हुई हैं वह इसलिये कि मनुश्य कर्तव्य अकर्तव्य समझ सके। और उसी का अनुश्ठान करे। यजुर्वेद के 40 अध्याय के दूसरे मंत्र में भी कहा है किः-

कुवन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छत समाः।

अर्थात् मनुश्य को चाहिये कि सौ वर्श तक वैदिक कर्म करते हुये जीने की इच्छा करे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि किसी वस्तु का ज्ञान ही षास्त्र में नहीं है। ज्ञान है तो परन्तु है इसीलिये कि उसकी उपलब्धि से मनुश्य कर्तव्य का पालन और अकर्तव्य का त्याग करे।

परन्तु षंकराचार्य जी को षास्त्र की यह पोजीषन प्रिय नहीं। वह जैमिनि के इस सूत्र का खण्डन करते हैं।

(25) पहले तो उन्होंने कहाः-

एतदेकान्तनाभ्युपगच्छतां भूतोपदेषानर्थक्य प्रसंगः।    (1।1।3 पृश्ठ 20)

अर्थात् इस सूत्र का पूरा-पूरा षाब्दिक अर्थ लेने से तो वह भाग जिसमें वस्तुज्ञान (भूत-उपदेष) दिया है निरर्थक हो जायगा।

(26) परन्तु जब उनसे कहा गया कि महाराज!

प्रवृत्तिनिवृत्ति विधितच्छेशव्यतिरेकेण भूतं चेद् वस्तूपदिषति भव्यार्थत्वेन।    (1।1।4 पृश्ठ 20)

अर्थात् वस्तु का ज्ञान विधि और निशेध का साधक होगा। तो इस पर आक्षेप करते है।

कूटस्थनित्यं भूतं नोपदिषतीति को हेतुः।     (1।1।4 पृश्ठ 20)

परन्तु इतने से यह तो नहीं कहा जा सकता कि वस्तु उपदिश्ट नहीं हैं।

क्रियाथत्नवेऽपि क्रियातिवर्तन षक्ति मद् वस्तूपदिश्टमेव। क्रियाथत्वं तु प्रयोजनं तस्य। (त॰ 1।4 पृश्ठ 20)

चाहे वह क्रिया के उद्देष्य से ही कही गई हो। परन्तु वस्तु का उपदेष तो हो गया।

ठीक! मेरा कहना यह है कि यदि यह सिद्धान्त पहले से ही स्वीकार होता तो श्री षंकराचार्य जी को इसके खण्डन की क्या आवष्यकता थी। वह तो ‘क्रिया’ का गन्धमात्र भी सहन नहीं कर सकते थे। यह तो कोई नहीं कहता कि वेद में कूटस्थनित्य ब्रह्म का ज्ञान नहीं। मन्त्र के मन्त्र भरे पड़े हैं। जैमिनी सूत्र का अभिप्राय तो केवल इतना है कि षास्त्र कर्तव्य अकर्तव्य के पालन के लिये हैं। मेरी समझ में तो श्री षंकराचार्यजी ने व्यर्थ का वाद खड़ा कर दिया। क्रिया का गन्घ मात्र तो मानना ही पड़ा। जैमिनी की ‘धर्म जिज्ञासा’ और वादरायण की ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ एक दूसरे के विरूद्ध नहीं है। परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने अपनी युक्ति-संतति के द्वारा इसको ऐसा बना दिया है।

समस्त वाद वेदान्त सूत्रों से सर्वथा असंगत है।

(27) जैमिनी जी के उसी सूत्र के विरोध में और युक्तियाँ देखियेः-

अपिच ‘ब्रह्मणो न हन्तव्यः’ इति चैवमाद्या निवृत्तिरूपदिष्यते। न च सा क्रिया। नापि क्रिया साधनम्।। अक्रियार्थानामुपदेषोऽनर्थकष्चेत् ”ब्रह्मणो न हन्तव्यः“ इत्यादिनिवृत्युप देषानामानर्थक्यं प्राप्तिम्।     (पृश्ठ 21)

कहते हैं कि यदि क्रिया-षून्य श्रुतियाँ अनर्थक हों तो ब्राह्मण को न मारना चाहिये इत्यादि श्रुतियाँ भी निरर्थक हो जायेगी क्योंकि यहाँ ‘निवृत्युपदेष’ है। किसी काम का करना नहीं बताया गया किन्तु ”न करना“ बताया गया है। यह न तो क्रिया का साधन“

जैमिनी के पोशक कह सकते हैं कि ”स्वभावप्राप्तहन्तर्थानुरागेण न´ाः षक्यमप्राप्त क्रियार्थत्वम्।“ (1।4 पृश्ठ 21)

‘हन्तव्य’ इस क्रिया के साथ निशेधार्थक ‘न´ा्’ लगाने से ऐसी क्रिया का अर्थ आया जो अभी प्राप्त नहीं है। क्रिया का सम्बन्ध तो रहा ही। आनन्द गिरि ने इस युक्ति को इन षब्दों में प्रकाषित किया है।

”ननु ‘न हन्तव्यः’ इत्यत्र हननं न कुर्यादिति न वाक्यार्थः हि त्वहननं कुर्यादिति। ततो हननविरोधिनी संकल्पक्रिया हननं न कुर्यामित्येव रूपा कायतया विधीयते तेन निशेध वाक्यमपि नियोगनिश्ट मेव।“

अर्थात् जब कहते है कि ‘न मारना चाहिये’ तो केवल निशेध वाक्य नहीं है। नियोग-वाक्य भी है क्योंकि हत्या की विरोधिनी क्रिया का संकल्प करना होता है।

यह पूर्व पक्ष बड़ा प्रबल है। और जैमिनी के सूत्र की पुश्टि करता है परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने इसके खण्डन में जो युक्ति दी है वह स्पश्टतया खींचातानी प्रतीत होती है। वे कहते हैं।

”न´ाष्चैश स्वभावो यत् स्वसंबन्धिनोऽभावं बोधयतीति। अभाब बुद्धिष्चैदासीन्यकारणम्। सा च दग्धेन्धनाग्रि वत् स्वयमेवोपषाम्यति।“     (1।1।4 पृश्ठ 21)

‘न´ा्’ का यह स्वभाव है कि जिस क्रिया के साथ जुड़ता है उसके अभाव को बताता है। जैसे ‘न मारो’। यहाँ ‘न कार’ ”मारो“ क्रिया के साथ लग कर ‘मारो’ क्रिया के अभाव को बतातो है। अभाव बुद्धि का अर्थ है ‘उदासीनता।’ उदासीनता क्रिया नहीं है। किन्तु क्रिया की अन्तक है। जैसे अग्नि ईंधन को पहले क्रिया के प्रति अभाव बुद्धि स्थापित करके स्वयं भी नश्ट हो जाता है। यह युक्ति श्रृखला सुदृढ़ नहीं है। इसकी एक कड़ी बड़ी कमजोर है। वह है यह ”अभाव बुद्धिष्चदासीन्यकारणम्।“ ‘अभाव बुद्धि उदासीनता का कारण है।’ यह ठीक नहीं। यदि ऐसा हो तो पतंजलि के ‘अ$हिंसा’, ‘अ$स्तेय’, अ$परिग्रह’ आदि षब्द अनर्थक हो जायगे । यही नहीं, यदि नहीं, यदि वस्तुतः देखा जाय तो ‘ब्रह्मचर्य’ का उपदेष भी निशेधात्मक है। अर्थात् अपने वीर्य का नाष मत करो। इनसे उदासीनता प्रकट नहीं होती।

(28) अब यह प्रष्न है कि क्या हमारा षरीर हमारे पूर्व जन्मकृत धर्म अधर्म के अनुकूल हैं? कर्म-सिद्धान्त की यह एक प्रसिद्ध प्रतिपत्ति है। षंकराचार्य जी इसका भी खण्डन करते हैंः-

”तत्कृतधर्माधर्मनिमित्त सषरीरत्वभिति चेन्न, षरीरसंबन्धनस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृत्वा सिद्धेः। षरीरसंवन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत्कृतत्वस्य चेतरेतराश्रयत्वप्रसंगदन्ध्परम्परैशाऽनादित्व कल्पना।   (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि कहो कि सषरीरत्व आत्मकृत धर्म अधर्म के कारण है तो ठीक नहीं। क्योंकि जब षरीर का सम्बन्ध ही सिद्ध नही ंतो आत्मकृत धर्म और अधर्म कैसे सिद्ध होंगे? षरीर के सम्बन्ध और आत्मकृत धर्म-अधर्म के एक दूसरे के आश्रय होने से अन्ध-परम्परा चल कर अनादित्व की कल्पना हो जायेगी।

यह वही दलील है जो ईसाई और मुसलमान पुनर्जन्म के विरूद्ध दिया करते है कि कर्म पहले है या षरीर। परन्तु श्री षंकराचार्य जी तो पुनर्जन्म को मानते है। वे ईषोपनिशत् के तीसरे मन्त्र के भाश्य में लिखते हैः-,

”अन्धेनादर्षनात्मकेना ज्ञानेन तमसा ऽऽवृता आच्छादितास्तान् स्थावरान्तान् पे्रत्य त्यक्त्वेमंसेहहमभिगच्छन्ति यथाकम यथाकम यथाश्रुतम्।

अर्थात् ”कर्म और षास्त्र विधान के अनुकूल अन्धकार से आच्छादित स्थावर आदि योनियों को षरीर छोड़ने के पष्चात् प्राप्त होते है“ यहाँ स्थावर आदि योनि भी मानी और कर्म के अनुकूल मानी। जब कर्म के अनुकूल योनि मिलती है तो प्रष्न यह होता है कि किसके कर्म के अनुकूल? उत्तर स्पश्ट है ”जो करेगा वह पायेगा।“ यहाँ आत्मकृत धर्म-अधर्म का खण्डन तो नहीं होता। फिर दूसरे अध्याय के पहले पाद के 35वें सूत्र की व्याख्या में तो इसको स्पश्ट ही कर दिया। देखियेः-

सृश्टयुक्तकालं हि षरीरादिविभागापेक्षं कर्म, कर्मापेक्षष्च षरीरादिविभाग इतीतरेतराश्रयत्वं प्रसज्येत। अतो विभागादूध्र्वं कर्मापेक्ष ईष्वरः प्रवर्ततां नाम। प्राग्विभागद। वैचित्र्यनिमित्तस्य कर्मणोऽभावात् तुल्येैवाद्या सृश्टिः प्राप्नोतीति चेत्। नैश दोशः। अनादित्वात् संसारस्य। भवेदेश दोशो यद्यादिमान् संसारः स्यात्। अनादौतु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमभ्दावेनकर्मणः संगवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरूध्यते।ः

(षां॰ भा॰ 2।1।35 पृ॰ 218)

”प्रष्न करते हैं कि सृश्टि उत्पन्न होने के पष्चात् षरीर आदि। इसमें तो इतरेतराश्रय दोश आ गया। उत्तर देते है कि ”नहीं। यह दोश नहीं है। क्योंकि संसार अनादि है। यदि संसार आदिमान् होता तो यह दोश होता। संसार के अनादि होने पर बीज और अंकुर के तुल्य यह भी विरोध नहीं आता।“

क्या इसको परस्पर विरोध नहीं कहते? क्या यह अपने ही सिद्धान्त का खण्डन नहीं है? जिस ‘अनादित्व कल्पना’ को षंकर जी ने चतुः सूत्री में अन्ध परम्परा कहा उसी को दूसरे अध्याय में स्वयं माना। महद्वैचित्र्यम्।

(29) और चलियेः-

क्रिया समवायाच्चात्मः कर्तृत्वानुपपत्तेः।

आत्मा का कर्ता होना सिद्ध ही नहीं हो सकता। क्यों? क्रिया और आत्मा का समवाय-सम्बन्ध नहीं।

संनिधानमात्रेण राजप्रभृतीनां दृश्टं कर्तृत्वमिति चेन्न, धन-दानद्युपार्जित भृत्य संबधित्वात् तेशां कृर्तृत्वोपपत्तेः। न त्वान्मनो धनदानादिवच्छरीरादिभिः स्वस्वामिसंबन्धनिमित्तं किंचिच्छक्यं कल्पयितुम्।   (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि कहो कि जैसे राजे आदि भृत्यों से काम करा लेते हैं इसी प्रकार आत्मा का कर्तृव्य है सो भी ठीक नहीं क्योंकि राजे आदि तो धन देकर भृत्यों से काम ले लेते हैं। आत्मा और षरीर आदि का एकसा सम्बन्ध कल्पना में नहीं आता।

श्री षंकराचार्य जी का यह सब प्रयास क्रिया के विरोध में है। परन्तु अध्याय 2, पाद 1 से सूत्र 34 के भाश्य में क्या कहंेगे?

प्रष्न था कि ईष्वर ने किसी को सुखी किसी को दुःखी बना कर विशमता क्यों कि ओर इससे ईष्वर निर्दयी क्यों नही, इसका विस्तृत वर्णन करके उत्तर देते है।

एवं प्राप्ते ब्रूमः-वेशम्यनैर्घृण्ये नेष्वरस्य प्रसज्येते। कस्मात्? सापेक्षत्वात्। यदि हि निरीपेक्षः केवल ईष्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते। स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं नैर्घृण्यं च। नतु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीष्वरो विशयां सृश्टिं निर्मिमीते। किमपेक्षत इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षतः इति वदामः।   (पृश्ठ 217)

श्री षकंराचार्य जी कहते है कि हमारा उत्तर यह है कि ईष्वर मे विशमता या निर्दयता का दोश नहीं आता क्यों? अपेक्षा से। यदि ईष्वर निरपेक्ष भाव से सृश्टि बनाता तो ये दोनों दोश आते। परन्तु सृश्टि-उत्पत्ति निरपेक्ष तो नहीं है। अच्छा तो किसकी अपेक्षा है? धर्म और अधर्म की! अब कहिये। दोनों को मिला कर न्याय कीजिये। कौन ठीक है? वस्तुतः है तो यही ठीक। परन्तु दोश है उस प्रवृत्ति का जो चतुःसूत्री में ओतप्रोत है।

(30) अब प्रष्न करते है आत्मा और षरीर का सम्बन्ध गौण क्यों नही। मिथ्या क्यों है? यदि गौण मान लिया जाय तो क्रिया का खण्डन न हो। ”देहादावहं प्रत्ययो मिथ्यैव न गौणः“ परन्तु षरीर के मिथ्या होने के लिये कोई प्रबल हेतु नहीं दिया गया। यदि मान भी लिया जाय तो श्री षंकराचार्य जी के नीचे के वाक्य का क्या अर्थ होगा?

तस्मान्मिथ्यांप्रत्यय निमित्तत्वात् सषरीरत्वस्य सिद्धं जीवतोऽपि विदुशोऽषरीरत्वम्।    (पृश्ठ 22)

अर्थात् षरीर का भाव मिथ्या है। इसलिये जिसको ज्ञान हो गया (कि मैं ब्रह्म हूँ, षरीर मिथ्या है) उसका जीवन में भी अषरीरत्व सिद्ध है। ”जीवतोऽपि अषरीरत्वम्“ का क्या अर्थ है? षरीर या तो सत्य है या मिथ्या। यदि मिथ्या है तो मिथ्या ज्ञान के दूर होते ही जीवन का भी अन्त हो गया और षरीर का भी। यह नहीं हो सकता कि षरीर का अन्त हो और जीवन का न हो। यदि मैं मिथ्या मुकुट पहने हूँ अर्थात् मुकुट तो नहीं है परन्तु की प्रतीति होती है तो जिस समय वह मिथ्या ज्ञान दूर होगा मुकुट और राज-पन दोनों ही निवृत्त हो जायेंगे। यह कैसे होगा कि मुकुट न रहे और राजा बना रहूँ।

दूसरी बात यह है कि यदि षरीरादि मिथ्या हैं और जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है और मिथ्याज्ञान के निवारण का नाम ही मुक्ति है तो ज्योंही जीव को ज्ञान होगा वह मुक्त हो जायगा अर्थात् वह ब्रह्म हो जायगा। फिर मुक्त जीवों की मुक्त अवस्था का अलग वर्णन कैसा? परन्तु ”संकल्पादेव तु तच्छृ ªतेः“ (4-4-8) के भाश्य में श्री षंकराचार्य जी लिखते हैंः-

एवं प्राप्ते ब्रूमः संकल्पादेव तु केवलात् तु केवलात् पित्रादि समुत्थानमिति।

कुतः? तच्छु ªतेः ‘संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिश्ठन्ति“।

(छा॰ 8।2।1) (4।4।8, पृ॰ 507)

अर्थात् मुक्त जीवों के पितर संकल्प से ही उठ बैठते हैं। यदि मुक्ति मे भी जीव ब्रह्म नहीं हो जाता तो भेद स्पश्टतया सिद्ध है और श्री षंकर जी की कोई युक्ति इसका खण्डन नहीं कर सकती। चतुः सूत्री में वृहदारण्यक का जो उदाहरण दिया गया है उससे भी षरीर का मिथ्यात्व नहीं होता:-

”तद् यथाऽहिनिल्र्वयनी वल्मीके मृताप्रत्यस्ता षयीतैवमेवेदं षरीरं षेते।“            (बृह॰ 4।4।7, पृश्ठ 23)

जैसे बांबी में साँप की केंचुली निर्जीव और तिरस्कृत पड़ी रहती है वैसे ही मुक्त आत्मा का षरीर पड़ा रहता है। इस उद्धरण से षरीर का आत्मा से इतर होना तो सिद्ध है परन्तु मिथ्या होना नहीं।

(31) अब प्रष्न करने वाला कहता है कि उपनिशद् कहती है कि आत्मा श्रोतव्य है, मन्तव्य है और निदिध्यासितव्य है। इससे सिद्ध होता है कि पहले सुनो, फिर मनन और निदिध्यासितव्य है। इससे तो ब्रह्म के साथ विधिवाक्य की संगति मिलती है।

इस स्थापना का निशेध तो हो नहीं सकता, ठीक ही है। ब्रह्म के विशय में उपनिशद् कहती है सुनों, फिर विचार और ध्यान करो। परन्तु षंकराचार्य जी इस कथन को निजषैली के अनुसार वर्णन करके कुछ का कुछ कर देते हैं। वे बीच में ‘विधिषेशत्व’ डाल कर पूर्वपक्ष के इस प्रकार वर्णन करते हैंः

”विधिषैशत्वं ब्रह्मणो न स्वरूप पर्यवसायित्वमिति।“ (पृश्ठ 23)

”इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व तो सिद्ध होता है परन्तु ‘स्वरूपपर्यवसायित्व’ न सिद्ध हो सकेगा अर्थात् ब्रह्म विधि के आश्रित न होगा। स्वरूप से सिद्ध रहेगा। पूर्वपक्षी के मुख में एक ऐसा षब्द डाल देना जिससे उसका पक्ष हास्यजनक प्रतीत हो और फिर बलपूर्वक उसका निशेध करना तिनके का षत्रु बना कर फिर वीरता से उसका बध करने के समान है। कोई पूर्वमीमांसा का पक्षपाती यह न कहेगा कि इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व है स्वरूपपर्यावसायित्व नहीं, सुनने वाला, मनन करने वाला और ध्यान करने वाला तो जीव है। जीव सुनेगा ब्रह्म के विशय में और उसी का मनन या ध्यान करेगा। जीव द्वारा ‘मनव्य’ या ‘निदिध्यासितव्य’ होने के कारण ब्रह्म की स्वरूप सिद्धि में क्या बाधा हो सकती है। दुखती हुई आँख सूर्य को देखने का यत्न करे तो इससे सूर्य में तो कोई दोश नहीं आता। विधिषेशत्व का क्या अर्थ है? भामती में लिखा है:

विधयो हि धर्मप्रमाणम्, ते च साध्यसाधनेतिकर्तव्यता भेदाधिश्ठाना धर्मोत्पादिनष्च तदधिश्ठाना न ब्रह्मात्मैक्ये सति प्रभवन्ति, विरोधादित्यर्थः।

”धर्म में विधियाँ प्रमाण हैं। क्योंकि उनमें साध्य, साधन, इति कर्तव्यता भेद होते हैं। जब ब्रह्म और जीव एक हैं तो उसमें विधि का क्या प्रभाव? वहाँ तो विरोध है, फिर कहा है:

अद्वैते हि विशयविशयिभावो नास्ति। न च कर्तृत्वं, कार्याभावात्। न च करणत्वम् अतएव।

अर्थात् अद्वैत में विशय-विशय तो हैं नहीं न कार्य है। अतः कर्तृव्य है न करणत्व।

यदि ऐसा है तो ‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् ईष्वर जगत् का कत्र्ता है इसका क्या अर्थ होगा?

वेदान्त कल्पतरू में इसी सम्बन्ध में कहा हैः-

त्र्यंषा भावना हि धर्मः। तद्विशय विधयः साध्यादिभेदाघिश्ठानास्तद्विशयाः। अपि चैतेऽनुश्ठेयं धममुपदिषन्तस्तदुत्पादिनः पुरूशेण तमनुश्ठापयन्तीति साध्यधर्माधिश्ठानास्तत्प्रमाणानीति यावत्। अतो नित्यसिद्धद्वैतब्रह्मावगमे तेशांविरोध इति।

अर्थात् विधि का सम्बन्ध धर्म से है ब्रह्म से नहीं। धर्म की भावना में तीन अंष होते हैं साध्य, साधन, इति कर्तव्यता। नित्यसिद्ध अद्वैज ब्रह्म में साध्य, साधन का प्रष्न ही नहीं उठतरा। ब्रह्म तो सिद्ध है, नित्य सिद्ध है, कभी साध्य की कोटि में नहीं आता। अतः षास्त्र में विधि वाक्यों की गुंजायष नहीं।

इस प्रकार बाल की खाल निकाल कर जैमिनि की ‘मीमांसा’ और कर्म का विरोध किया गया है। यह ठीक है कि ब्रह्मज्ञान के पष्चात् जीव को कुछ षेश नहीं रहता। परन्तु अल्प जीव को ब्रह्म-ज्ञानी होने और मुक्ति प्राप्त करनेक तक तो कर्म का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अतः धर्मानुश्ठान और ज्ञान में सहयोग तो है परन्तु विरोध नहीं। श्री षंकराचार्य जी ने वेदान्त सूत्रों से पूर्व-मीमांसा की अनुपयोगिता दिखाई है यह ठीक नहीं हैं।

षंकर स्वामी ने वेदान्त 3, 2, 21 के भाश्य में बिना प्रसंग के ही इस प्रष्न को फिर छोड़ा है और बड़ी लम्बी चैड़ी व्याख्या करके बताया हैः-

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वेदान्त 3।3।33 सूत्र तथा उसके भाश्य से स्पश्ट है कि वादरायण जैमिनि के विरूद्ध न थे। उसमें पूर्वमीमां न थे। उसमें पूर्वमीमां 3।3।8 की ओर संकेत है।

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‘तस्मादवगतिनिश्ठान्येव ब्रह्म वाक्यानि न नियोगनिश्ठानि।’                               (पृश्ठ 363)

अर्थात् ब्रह्मवाक्य ज्ञान-निश्ठ नहीं।

”द्रश्टव्यादिषब्दा अपि परविद्याधिकारपठितास्तत्वाभिमुखी करण प्रधाना न तत्वावबोधविधि प्रधाना भवन्ति।’                (पृश्ठ 362)

अर्थात् यहाँ कहा कि आत्मा को देखना चाहिये इत्यादि। वहाँ तत्व के ज्ञान की विधि नहीं बताई गई तत्व की ओर ध्यान दिला दिया गया है।

यह दलील भी विचित्र ही है। ‘विधि’ से न जाने क्यों चिढ़ है? ”ध्यान दिलाया गया है। ज्ञान प्राप्ति की विधि नहीं बताई गई।“ यह बात क्या हुई?

(32) अब लिखा हैः-

तस्मान्न प्रतिपत्तिविधि विशयतया षास्त्र प्रमाणकत्वं ब्रह्मणः संभवतीत्यतः स्वतन्त्रमेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वतीत्सतः स्वतन्त्रेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वयादिति सिद्धम्। एवं च सति ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ इति तद्विशयः पृथक षास्त्ररम्भः उपपद्यते। प्रतिपत्तिविधिपरत्वे हि ‘अथातो धर्मजिज्ञासे त्येवारब्धत्वात्र पृथक् षास्त्रमारभ्येत। आरभ्यमाणं चैवमारभ्येत-‘अथातः परिषिश्ट धर्मजिज्ञासेति’ ‘अथातः क्रत्वर्थपुरूशार्थयोर्जिज्ञसा“ (जै॰ 4।1।1) इतिवत्।      (पृश्ठ  23)

यह तो ठीक है कि भिन्न-भिन्न विशयों का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु वे विशय एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। और न बादरायण का अभिप्राय जैमिनि-विरोध है। ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ लिखने से ‘धर्म-जिज्ञासा’ का विरोध नहीं, वस्तुतः ब्रह्म जिज्ञासा भी क्रत्वर्थ और पुरूशार्थ की जिज्ञासा ही है। क्योंकि जब अल्प जीव में ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। ब्रह्म-ज्ञान छू मन्तर से तो हो नहीं जाता। श्री षंकराचार्य जी ने स्वयं ‘अतः’ षब्द की व्याख्या करते हुये ब्रह्मजिज्ञासा के लिये चार साधनों को आवष्यक बताया है (1) नित्यानित्य साधन विवेकः (2) इहामुत्रार्थ भोग विरागः (3) षमदमादि साधन संपत् (4) मुमुक्षत्व। (पृश्ठ 5)

हम पूछते है कि ये चारों चीजें ब्रह्म-ज्ञान के लिये आवष्यक हैं या ब्रह्म-जिज्ञासा के लिये। यदि नित्य अनित्य का विवेक हो गया तो षेश क्या रहा? यदि इस लोक और परलोक के भोगों से वैराग्य हो गया तो आगे क्या रह गया? षमदम आदि साधन क्या ब्रह्म जिज्ञासा, उपासना आदि के बिना ही प्राप्त हो जायँगे? और क्या इनकी प्राप्ति में धर्मानुश्ठान यज्ञ आदि का कोई उपयोग नहीं? यदि इन साधन चतुश्टय के पष्चात् ही ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकार है तो वेदान्त के चार अध्यायों का क्या उपयोग होगा जिनमें क्रमानुसार समन्वय, विरोधपरिहार, साधन और फल की मीमांसा बताई गई है?

छान्दोग्य उपनिशद् में जो यह वाक्य है ”तद्यथेह कर्मचितोलोकः क्षीयते एवमेवामुत्रपुण्यचितो लोकः क्षीयते“ (छा॰, 8।16) इत्यादि इस वाक्य को षांकर मत में बहुत बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया है और इसके आधार पर कर्मानुश्ठान यज्ञ, इश्टियों, कर्मकाण्ड, उपासना आदि का बलपूर्वक खण्डन किया गया है। परन्तु है यह उपनिशद्-वाक्य का दुरूपयोग। उपनिशद् का यह वाक्य तो केवल इतना बताया है कि कर्म का फल नित्य या अनन्त नहीं है कभी न कभी क्षीण होगा। क्योंकि कर्म भी तो सान्त है। इसका अनन्त फल कैसे, परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म की अवहेलना की जाय। हम जीवन में जितने कर्म करते हैं वे सब सान्त हैं और उनके फल भी सान्त है। परन्तु इन सान्त कर्मो को छोड़ भी तो नहीं सकते। उन सब सान्त कर्माें का उपयोग है। अपनी जीवन यात्रा में मैं जो पग उठाता हूँ वह सान्त अवष्य है परन्तु सान्त होते हुए भी वह मुझे अपने निर्दिश्ट स्थान के निकटत्तर पहुँचाता है। यही इसका उपयोग है।

बादरायण के सूत्रों का षांकर-भाश्य अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है। षंकर स्वामी की विवरण षक्ति गजब की है। और उनकी मौलिकता भी उनके विरोध में लिखे गये उन सब पर उनकी छाप भीर वे उन्हीं का अनुकरण करते हैं। परन्तु षांकर-चतुःसूत्री में वेदान्ताध्ययन के आरम्भ में ही दो बड़ी हानिकारक मनोवृत्तियां उत्पन्न कर दी जाती है एक तो जगत् की वास्तविकता के विरोध में और दूसरी कर्म के विरोध में। ये दोनों मनोवृत्तियां बादरायण के सूत्रों की स्पिरिट के विरूद्ध हैं। चतुःसूत्री इन्हीं दो बातों से भरी है। यद्यपि वेदान्त के बहुत से सूत्रों की षंकर स्वामी ने इन मनोवृत्तियों क विरूद्ध व्याख्या की हैं क्यांेकि सब स्थानों पर इस विचित्र प्रतिपत्ति को निबाहना कठिन था। और कहीं व्यावहारिक और कहीं प्रातिभासिक व्याख्या करके किसी न किसी प्रकार छुटकारा पाने का यत्न किया है। तथापि जो विशैलास वातावरण उत्पन्न कर दिया गया है उसने समस्त आर्य जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है।

हम यह मानते हैं कि बौद्धों के वेद-विरोधी-वातावरण को हटा कर आचार्य षंकर जी ने वेदों की स्थापना की। परन्तु उपनिशदों को वेद से हटा कर एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया जिसमें वेदाध्ययन सर्वथा छूट गया। और संसार कार्य क्षेत्र को छोड़ कर लोग एक मनों-निर्मित कल्पित जगत् की तलाष में संलग्न रहे जिसकी काल्पनिक सत्ता कितनी ही रोचक क्यों न हो, वह वास्तविकता से बहुत दूर है।

षांकर भाश्य में कई आपत्तिजनक प्रतिपत्तयां हैं परन्तु उनका वर्णन चतुःसूत्री में नही है अतः उनका वर्णन मिलेगा।

Advairwaad Khanadan Series 2 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पर और अपर ब्रह्म

एतावानस्य महिमाता ज्यायाँष्च पूरूशः। पादोऽस्य विष्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

(यजुर्वेद 31।3)

अर्थः-इस ब्रह्म की इतनी महिमा हुई। ब्रह्म तो इससे भी बड़ा है। उसके एक पाद में सब भूत (जगत्) आ जाते हैं। और इसके अमृत रूपी तीन पाद द्यौ में अर्थात् इस लोक के परे हैं।

तात्पर्य यह है कि सृश्टि को देख कर ब्रह्म का पार नहीं पा सकते। यह सृश्टि तो ब्रह्म की छोटी सी कृति है। ब्रह्म का पूर्णस्वरूप तो इससे भी परे है। अपार है, अनन्त है, और अचिन्त्य भी।

यह उपचार की भाशा है गणित की नही। अर्थात् इसका यह तात्पर्य नहीं कि ईष्वर के चार पाद है एक पाद सृश्टि है और तीन पाद द्यौलोक। ईष्वर अखंड है। उसके पाद कैसे? वैदिक साहित्य की षैली है कि पूर्ण वस्तु को चतुश्पात् कह कर पुकारा जाय। मनुश्य जब ईष्वर की महिमा पर विचार करता है तो केवल थोड़े से ही अंष को देख सकता है। जैसे अपने घर के आँगन में खड़े होकर भी अनन्त क्षितिज की भावना हो जाती है। जिस क्षितिज को हम देखते हैं वह सान्त है। परन्तु उसकी सान्तता ही अनन्तता की द्योतक है। मुण्डक उपनिशद में इस सान्तता के भाव को अपरा विद्या और अनन्तता के भाव को परा विद्या कहा गया है।

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च। तत्रापरा ऋग्वेदों यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः षिक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्तं छन्दो ज्योतिशमिति। अथ परा यया तद्क्षरमधिगम्यते।

(मुण्डक उप॰ 1।1।5)

वेद-वेदांग अपराविद्या हैं क्योंकि इस लोक की बात बताते हैं। सान्त है। अनन्त नहीं। परन्तु इनकी सान्तता ईष्वर की अनन्तता की बोधक हे। यह नहीं कि वेदादि षास्त्र अविद्यावत् हों और उनसे ईष्वर के जानने में सहायता न मिले। केवल कहना इतना है कि ईष्वर को इतना ही मत समझो। वह उससे कहीं बड़ा है। उसकी जो कृतियाँ हमको दीखती हैं वह सान्त हैं अपर है। वह पर हैं। महान् है।

परन्तु याद रखना चाहिये कि विद्या या ज्ञान के दो भेद हुये एक पर और दूसरा अपर। ईष्वर के दो भेद नहीं। वह तो एक ही है। जितने षास्त्र हैं वे सब परिमित हैं और मनुश्य की बुद्धि की अपेक्षा से है। फूल में रंग भी है और आकार भी। रंग रसायन का विशय है और आकार गणित का। परन्तु फूल के दो भेद नहीं कर सकते एक रासायनिक फूल और दूसरा गणित-सम्बन्धी फूल। केवल रासायनिक फूल तो संसार में देखने में नहीं आता। न केवल गणित सम्बन्धी ही।

जब हम ‘विष्वाभूतानि’ अर्थात् ईष्वर रचित सृश्टि पर विचार करते हैं तो ईष्वर के अनेको गुणों का बोध होता है। परन्तु जब हमारी बुद्धि सान्तता को पार करके आगे बढ़ना चाहती है तो कहना पड़ता है ‘नेति नेति’। अर्थात् इतना ही नहीं। तब तो कालिदास के षब्दों में उपासक के मुहँ से अनायास निकल उठता हैः-

तितीर्शुर्दुस्तरं मोहा दुडुपेनास्मि सागरम्।

अरे मैं तो छोटी सी डोंगी से महान् समुद्र को तैरना चाहता हूँ। यह है रहस्य ईष्वर की सगुणता और निर्गुणता का। ईष्वर सगुण भी है और निर्गुण भी। जब गुणो का विचार किया तो सगुण विचार हुआ और जब अचिन्तनीयता का विचार किया तो ‘नेति नेति’ कहने से निर्गुण विचार हो गया।

परन्तु भूल से लोगों ने पर ज्ञान और अपर ज्ञान के स्थान में परब्रह्म और अपरब्रह्म दो भेद कर दिये। इसी प्रकार सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म। मानो ब्रह्म दो प्रकार का है। या दो ब्रह्म है। मेरी समझ में यह अन्याय था और इसने अनेकों भ्रान्तियाँ उत्पन्न कर दी। हमने न केवल धार्मिक क्षेत्र में किन्तु दार्षनिक क्षेत्र में भी दो सम्प्रदाय उत्पन्न कर दिये। और मनुश्य जीवन को अकारण ही अषान्त बना दिया।

यहाँ हम इसका प्रभाव केवल शांकर -भाश्य पर देखना चाहते हैं। शांकर -मत में ब्रह्म के दो भेद हैं। एक तो परब्रह्म जो सर्वथा निर्गुण है। यह सत्ता मात्र है। और दूसरा अपरब्रह्म जो माया की उपाधि के कारण बन जाता है। इसका नाम ईष्वर है। अर्थात् ईष्वर ब्रह्म का एक निचला स्वरूप है जो माया के कारण हो जाता है। यह माया ब्रह्म को किस प्रकार अपने उच्च स्थल से गिरा देती है यह एक अलग प्रष्न है। हम यहाँ केवल एक बात पर विचार करना चाहते है वह यह कि क्या परब्रह्म और अपरब्रह्म का भेद जो शांकर -भाश्य में सर्वत्र ओत-प्रोत है वादरायण के वेदान्त सूत्रों में भी है और क्या उपनिशद् भी उसकी पुश्टि करती हैं।

वेदान्त का आरम्भ ‘ब्रह्मजिज्ञासा’ से होता है अर्थात् वेदान्त-दर्षन सबका सब ब्रह्मजिज्ञासा का निरूपण करता है। यहाँ यह प्रष्न नहीं उठाया गया कि जिस ब्रह्म की जिज्ञासा है वह अपरब्रह्म है या परब्रह्म। दूसरे और तीसरे सूत्रों में ब्रह्म के लक्षण दिये है। जन्माद्यस्यतः अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे सृश्टि उत्पन्न स्थित और विलीन होती है। और ‘षास्त्रयोनित्वात्’ जो षास्त्र अर्थात् ज्ञान के स्त्रोत की योनि है। शांकर -भाश्य में तो यह अपर-ब्रह्म हुआ। परब्रह्म न तो सृश्टि को उत्पन्न करता न षास्त्र आदि के बखेड़े में पड़ता। समस्त वेदान्त सूत्रों में कोई एक भी ऐसा षब्द नहीं जिससे पता चल सके कि ब्रह्म दो प्रकार का है परब्रह्म और अपरब्रह्म। कहीं कहीं ‘पर’ षब्द तो आया है (परात् तु तच्छु ªतेः, 2।3।41) जिसका अर्थ ब्रह्म है। परन्तु उससे विभाग का द्योतन नहीं होता। यदि वादरायण दो प्रकार का ब्रह्म मानते होते तो आरम्भ में ही अपरब्रह्म का लक्षण न करते। या स्पश्ट कह देते।

यदि आप कहें कि अपरब्रह्म तो वास्तविक ब्रह्म नहीं। माया की उपाधि से अध्यस्त ब्रह्म है जैसे रज्जु का सर्प। तो दो प्रष्न उठते हैं। प्रथम तो ब्रह्म-जिज्ञासा को अध्यस्त ब्रह्म के बताने से क्या लाभ? और वादरायण ने यह क्यों किया? जल के प्यासे को मृगतृश्णिका की ओर संकेत कर देना या तो धोखा है या उपहास। दूसरे अतात्विक अध्यस्त ब्रह्म सृश्टि को उत्पन्न नहीं कर सकता। जैसे सीप की चाँदी का कोई कड़ा नहीं बनवा सकता, न मृगतृश्णिका के जल की बर्फ जमाई जा सकती है। पहले परिणाम होकर फिर विवर्त हो सकता है। जैसे सन की रस्सी बनाई, वह साँप प्रतीत होने लगी। या जल की बर्फ जमाई। वह दूर से रूई प्रतीत होने लगी। परन्तु पहले विवर्त हो और फिर गुण-परिणाम इसका तो कोई दृश्टान्त ही नहीं मिलता। यदि ऐसा हो तो उसे विवर्त न कहेंगे। रस्सी का साँप बच्चे उत्पन्न नहीं करता। न बिल खोदता है, न किसी को काटता है, न चूहों को खा सकता है।

केवल एक दृश्टान्त दिया जा सकता है। वह है स्वप्न का। स्वप्न में देखे हुये जल की स्वयं बर्फ भी बन सकती है। और उससे स्वप्न की प्यास भी बुझाई जा सकती है। परन्तु यह दृश्टान्त ठीक नहीं। स्वप्न में जागरित के देखे हुये जल, जागरित में देखे हुये जल से बर्फ बनना और जागरित अनुभूत प्यास का बुझना, इन सब की स्मृतियाँ ही तो रहती हैं। स्वप्न का देखा हुआ जल स्वप्न में लगी हुई प्यास को नहीं बुझाता। वस्तुतः वास्तविक प्यास को वास्तविक जल ने जागरित में बुझाया था उसकी स्मृति मात्र है।

दूसरे अध्याय के पहले पाद में छठे सूत्र के भाश्य में श्री शंकर स्वामी लिखतेः-

दृष्यते हि लोके चेतनत्वेन प्रसिद्धेभ्यः पुरूशादिभ्यो विलक्षणानां केषनखादीनामुत्पत्तिः। अचेतनत्वेन च प्रसिद्धेभ्यो ग्रोमयादिभ्यो वृष्चिकादीनाम्।

अर्थात् लोक के देखा जाता है कि पुरूश आदि चेतन से विलक्षण केष, नख आदि की उत्पत्ति होती है और अचेतन गोबर आदि से बिच्छू आदि की।

महाँष्चर्य पारिणामिकः स्वभावविप्रकर्शः पुरूशादीनां केषनखादीनां च स्वरूपादि भेदात्।

अर्थात् इतना बड़ा परिणाम हो जाता है कि पुरूश के षरीर से विचित्र-विचित्र रंग रूप वाले केष नख आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म से विचित्र सृश्टि उत्पन्न होती है।

यहाँ प्रष्न यह है कि क्या यह भाशा विवर्दवाद की है, या सांख्य के परिणामवाद की? पुनः यदि परब्रह्म सृश्टि का उपादान माना जाता तो यह कहना ठीक था कि चेतन ब्रह्म से अचेतन सृश्टि उत्पन्न हो गई। अपरब्रह्म के तो दो भाग हैं। एक चेतन ब्रह्म और दूसरी जड़ माया। अपर ब्रह्म के चेमनत्व से तो आप सृश्टि की रचना मानते नहीं। माया रूपी जड़त्व से मानते हैं। फिर तो आपकी युक्ति संगति नहीं खाली। हाँ यदि माया का अर्थ सांख्य का प्रधान मानों जैसा ष्वेताष्वतर उपनिशद में हैः-

मायां तु प्रकृति विद्यात्।

(4।10)

तो ठीक है। परन्तु उस दषा में परब्रह्म और अपरब्रह्म का प्रष्न उठ जायगा। इसी पाद के 9वें सूत्र में

अपीतिरेव हि न संभवेद् यदि कारणे कार्य स्वधर्मर्गावावतिश्ठेत्।

(षां॰ भा॰ 2।1।9 पृश्ठ 190)

अर्थात् प्रलय मे भी कार्य अपने धर्म से कारण में लय नहीं होता। यहाँ भी वही बात है अर्थात् यदि यहाँ परब्रह्म को माना जाय तो आपकी युक्ति का कुछ अर्थ है अन्यथा नहीं। इससे अपरब्रह्म अर्थात् निचले ईष्वर की कल्पना मान कर षं॰ स्वा॰ स्वयं अपनी बात को सूत्रों के आधार पर निबाह नहीं सकते।

‘क्षीरवद् हि’ और ‘देवादिवदपि’ लोके (वेदान्त 2।1।24-25) के भाश्य में भी शंकर स्वामी ने संसार को मिथ्या या आभासवत् नहीं माना। दूध से दही बनान विवर्त का दृश्टान्त तो है नहीं। इसी प्रकार

यथा लाके देवाः पितर ऋशय इत्येवमादयो महाप्रभावाष्चेतना अपि सन्तोऽनपेक्ष्यैव किंचिद्वाह्यं साघनमैष्वर्य विषेश योगादिभिध्यानमात्रेण स्वत एव बहूनि नानासंस्थानाननि षरीराणि प्रासादादीनि च रथादीनि च निर्मिमाणा उपलभ्यन्ते मंत्रार्थवादेतिहासपुराण प्रामाण्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।1।25 पृश्ठ 211)

देव ऋशि आदि बिना किसी की सहायता के मन्त्र के बल से राजभवन आदि बना देते हैं।

यहाँ क्या षं॰ स्वा॰ देवों के बनाये हुये राजभवनों को जादू के भवन समझते हैं? यदि नही तो यह दृश्टान्त व्यर्थ ही हुआ। यहाँ तो असत्य सृश्टि की ओर संकेत नहीं प्रतीत होता।

वेदान्त 1।4।26 (परिणामात्) से भी यही बात प्रकट होती है। तीसरे अध्यास के दूसरे पाद में कई सूत्रों के शांकर -भाश्य से यह

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नोट-यहाँ ‘लोके’ षब्द से स्पश्ट है कि देवों से ऋशि देवता आदि अभीश्ट नहीं है। क्योंकि यह तो लोक की बात नहीं। अलौकिक बात है। अग्नि, वायु आदि भौतिक देवों की तो हो भी सकती है। सांख्य के गुण परिणाम का यह अच्छा दृश्टान्त है।

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प्रतीत होता है कि परब्रह्म सर्वथा निर्गुण है। अर्थात् उसमे कोई गुण नहीं है। जैसेः-

(1) न स्थानतोऽपि परस्योळायलिंग सवत्र हि।

(वे॰ 3।2।11)

इसका छेद शांकर -मत मे इस प्रकार हैः-

स्थानोऽपि परस्य उभय लिंग न, सर्वत्र हि।

‘न तावत् स्वत एव परस्पर ब्रह्मण उभयलिंगत्वमुपपद्यते। न ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरीत चेत्यवधारयितु षक्यं विराधात्।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

परब्रह्म में स्वतः ही उभय लिंगत्व नहीं हो सकता। यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु ही स्वतः रूप आदि विषेशता वाली भी हो और इसके विपरीत भी हो।

अस्तु तर्हि स्थानतः पृथिव्यादि उपाधि योगदिति। तदपि नोपपद्यते। न ह्यृपाधियोगादप्यन्यादृषस्य वस्तुनोऽन्यादृषः स्वभावः संभवति। न हि स्वच्छत् सन् स्फटिकोऽलक्ताद्युपाधियोगादस्वच्छो संभवति भ्रममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य। उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात्। अतष्वन्यतरलिंगपरिग्रहेऽपि समस्तविषेशरहित निर्विकल्पकमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतं। सवत्र हि ब्रह्मस्वरूपप्रतिपादनपरेशुवाक्येशु। अषब्दमस्पषम रूपमव्ययम्’ (क॰ 3।15। मुक्तिको॰ 2।17) इत्येवमादिश्वपास्तसमस्तविषेशमेव ब्रह्मोपदिष्यते।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

यदि स्वतः उभयलिंग न हो तो क्या पृथिवी आदि की उपाधि के कारण होता है? नहीं। उपाधियाँ किसी के स्वभाव को नहीं बदल सकतीं। स्फटिक लाख की उपाधि से मैला नहीं हो जाता। मैलापन भ्रम मात्र है। उपाधियाँ तो अविद्या के द्वारा स्थापित होती हैं। इस लिये चाहे अन्यथा प्रतीति होगी तो भी ब्रह्म तो सब विषेशणों से रहित निर्विकल्प ही है। यही उपनिशदों ने माना है।

इससे सिद्ध है कि ब्रह्म न सगुण है न सगुण हो सकता है। परब्रह्म उपाधि भेद से भी अपरब्रह्म नहीं हो सकता।

श्री रामानुजाचार्य ने इस सूत्र का छेद भी अन्यथा किया हैः-

न स्थानतोऽपि परस्य, उभयलिंग सर्वत्र हि।

अर्थात् षं॰ स्वा॰ अर्द्धविराम लगाते हैं उभयलिंग के पष्चात। और उभयलिगत्व का प्रतिशेध करते है। रा॰ स्वा॰ लगाते है उभयलिंग से पहले। और उभयलिंगत्व को स्वीकार करते है। ‘उभयलिंग’ का अर्थ भी दोनों आचार्य भिन्न भिन्न ही करते है। शंकर स्वामी उभय लिंग का अर्थ लेते हैं ‘निरस्तनिखितदोशत्व कल्याणगुणाकरत्व लक्षणोपेतम्’ अर्थात् ब्रह्म में बुरे गुणों का अभाव और अच्छे गुणों का भाव है। जैसे ‘अपहतपाप्मा विजरो विमृत्यु विषोको विजिघत्सोपिपासः’ और ‘सत्यकामः सत्यसंकल्पः’। (छा॰ 8।1।5)

दोनों आचायों द्वारा उद्धृत उपनिशद् वचनों को मिलाने से शंकर स्वामी के अपरब्रह्म का तो लवलेष भी नहीं रहता। हाँ रामानुजाचार्य कथित उभयलिंगत्व सिद्ध हो जाता है क्योंकि ब्रह्म षुभ-गुण सहित (सगुण) और अषुभ-गुण रहित (निर्गुण) है। दो ब्रह्म (परब्रह्म और अपरब्रह्म) नहीं। स्वतः भी नहीं और उपाधि से भी नहीं। ब्रह्म एक ही है अर्थात् परब्रह्म। हाँ उसको दो प्रकार से सोच सकते हैं, उपस्थित-गुणों के सहित और अनुपस्थित अवगुणों से रहित।

(2) प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिशेधति ततो ब्रवीति च भूयः।

(वेदान्त 3।2।22)

इस सूत्र का षाब्दिक अर्थ तो इतना ही है कि ‘प्रसंग में केवल इतने का ही प्रतिशेध है।’

‘केवल इतने का’ (एतात्वं) का क्या अर्थ है?

उपनिशद में ‘नेति नेति’ आया है (वृह॰ 2।3।6) ‘नेति’ का अर्थ है ‘इतना नहीं’। इसके सम्बन्ध में प्रष्न है।

शंकर स्वामी कहते हैंः-

न तावदुहायप्रतिशेध उपपद्यते षून्यवादप्रसंगत्। किंचिद्धि परमार्थामालम्ब्यापरमार्थः प्रतिशिध्यते यथा रज्ज्वादिशु सर्पादयः।

(षां॰ भा॰ 3।2।22 पृश्ठ 364)

अर्थात् परब्रह्म और अपरब्रह्म दोनों का प्रतिशेध तो हो नहीं सकता। अन्यथा षून्यवाद सिद्ध हो जायगा। कुछ लोग ‘नेति नेति’ से यह समझते है कि उपनिशद् ब्रह्म के अस्तित्व को ही अस्वीकार करती है। यह बात नहीं। यहाँ परमार्थ को स्वीकार और अपरमार्थ का प्रतिशेध किया गया है।

श्री रामानुजाचार्य ने ‘नेति नेति’ का अर्थ लिखा है ‘इयत्ता नहीं’। अर्थात् कोई कहे कि ब्रह्म इतना ही है। यह नहीं। ब्रह्म तो अनन्त है।

ये ब्रह्मणो विषेशा प्रकृतास्तद्विषिश्टतया ब्रह्मणः प्रतीयमानेयत्ता नेति नेति (वृ॰ 2।3।6) इति प्रतिपिध्यते।

(रा॰ भा॰ 3।2।22)

यहाँ भी दोनों भाश्यों के अर्थाें में भेद होते हुये भी परब्रह्म और अपरब्रह्म दो ब्रह्म सिद्ध नहीं होते।

(3) मायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्।

(वे॰ 3।2।3)

यहाँ यह बताया गया है कि स्वप्न की सृश्टि माया मात्र है। वेदान्त दर्षन में ‘माया’ षब्द केवल इसी स्थान पर आया है। शांकर  भाश्य में तो प्रायः हर पृश्ठ पर मिलेगा। ‘माया’ के बिना तो षं॰ स्वा॰ ने माया का अर्थ परमार्थ षून्य किया हैः-

मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थगन्धोऽप्यस्ति।

यहाँ यह बताया गया है कि स्वप्न की सृश्टि माया मात्र है। वेदान्त दर्षन में ‘माया’ षब्द केवल इसी स्थान पर आया है। शांकर  भाश्य में तो प्रायः हर पृश्ठ पर मिलेगा। ‘माया’ के बिना तो षं॰ स्वा॰ की लेखनी भी नहीं उठती। यहाँ षं॰ स्वा॰ ने माया का अर्थ परमार्थ षून्य किया हैः-

मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थगन्धोऽप्यसि।

रामानुजाचार्य कहते हैं ‘मायाषब्दो ह्याष्चर्यवाची’।

अर्थात् स्वप्न की सृश्टि आष्र्चयमय है।

‘माया’ षब्द के संस्कृत साहित्य में दोनों अर्थ ही मिलते है। परन्तु यहाँ हमको षं॰ स्वा॰ का अर्थ ठीक जँचता है। क्योंकि स्वप्न की सृश्टि और जागरित की सृश्टि की तुलना की गई है। परन्तु इससे एक बात स्पश्ट हो जाती है। अर्थात् स्वप्न माया मात्र है न कि जागरित। यदि जागरित को मायामात्र न मानो तो अपरब्रह्म के लिये स्थान ही नहीं रहता। क्योंकि माया की उपाधि से ही तो ब्रह्म ईष्वर के पद तक उतारा जाता है। इस सूत्र की समस्त व्याख्या पढ़ जाइये और स्पश्ट हो जायगा। कि यह सृश्टि मात्र परमार्थतः सत्य है। स्वप्न ही माया है।

अब चैथे अध्याय के दूसरे, तीसरे तथा चैथे पाद को लीजिये। इनमें जीवनमुक्ति तथा मुक्ति का वर्णन है। अर्थात् मुक्त जीव का मुक्ति के पहले और उपरान्त क्या होता है।

यहाँ भी षं॰ स्वा॰ ने बिना सूत्रों के आधार के दो भाग कर दिये। एक वह आत्मा जो अपरब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुये। व्यास-सूत्रों से ऐसा गन्ध नहीं मिलता और न उपनिशदों के उद्धरणों मे ही ऐसा ज्ञात होता है। परब्रह्म का ज्ञान होना और अपरब्रह्म हो भी जाय परन्तु मुक्ति तो तभी होगी जब अविद्या हटेगी। अविद्या हटने पर अपरब्रह्म का ज्ञान होना और परब्रह्म का ज्ञान न होना क्या अर्थ रखता है।

दूसरे पाद के 12-14 सूत्रों में षं॰ स्वा॰ ने निरूपण किया है कि

न तदस्ति यदुक्तं  परब्रह्मविदोऽपि देहादस्त्युत्क्रान्तिरूत्क्रान्ति प्रतिशेधस्य देह्यपादानत्वात् इति।

(षां॰ भा॰ 4।2।13 पृश्ठ 484-485)

अर्थः-परब्रह्म को पहचानने वाले भी देह को छोड़ते है ऐसी बात नहीं। देही के साथ नहीं (षारीरात् न तु षरीरात्)। अतः देही से प्राणों की उत्क्रान्ति का निशेध है, (यतः षारीरादात्मन एश उत्क्रन्तिप्रतिशेधः प्राणानां षरीरात्-षां॰ भा॰ 4।2।12 पृश्ठ 484)

यह हुआ पूर्व पक्ष। इसका उत्तर देते हैंः-

देहापादानैव सा प्रतिशिद्धाभवति, देहादुत्क्रान्तिः प्राप्ता न देहिनः।

अर्थात् देह के साथ अपादान का भाव मान कर ही निशेध किया है।

न च ब्रह्मविदः सर्वगतब्रह्मात्मभूतस्य प्रक्षीणकामकर्मण उत्क्रान्तिर्गतिर्वोपपद्यते निमित्ताभावात्।

अर्थः-जो ब्रह्मज्ञानी हैं, जिनमें कामनायें नहीं रहतीं उनकी उत्क्रान्ति या गति का कोई कारण नहीं अतः उनकी उत्क्रान्ति नहीं होती।

यहाँ यह तो कहा जा सकता है कि ब्रह्मज्ञान इसी षरीर में हो सकता हे जिसको जीवन्मुक्ति कहते हैं, परन्तु यह कैसे हो सकता है कि षरीर से कभी वियोग न हो।

इसी प्रकार चैथे अध्याय के चैथे पाद के 7वें सूत्र में वादरायण का मत प्रदर्षित करते हुए श्री षं॰ स्वा॰ लिखते हैं।

एवमपि पारमार्थिकचैतन्यमात्रस्वरूपाभ्युपगमेऽपि व्यवहारपेक्षयापूर्व स्याप्युपन्यासादिभ्योऽवगतस्य ब्राह्मस्यैष्वर्यरूपस्या प्रत्याख्यानादविरोधं वादरायण आचार्यो मन्यते।

(षं॰ भा॰ 4।4।7 पृश्ठ 506)

यद्यपि यह मान लिया गया है कि आत्मा का स्वरूप पारमार्थिक रूप से चैतन्य मात्र है फिर भी व्यवहार की अपेक्षा से ब्रह्म सम्बन्धी ऐष्वर्य का भी खंडन नहीं किया। यह कोई विरोध नहीं हैं।

यहाँ ‘व्यवहारापेक्षा’ अपनी ओर से मिलानी पड़ी। न सूत्र मंें है न उपनिशद् के वाक्यों में।

परन्तु जब षं॰ स्वा॰ परब्रह्म और अपरब्रह्म मान चुके तो जहाँ कहीं उनके सिद्धान्तों से और सूत्रों या उपनिशद् के वाक्यों से मेल न खाता हो वहाँ एक ही उपाय है अर्थात् ‘व्यवहारापेक्षा’ ऐसा कह दिया जाय। उन सूत्रों के शांकर  भाश्य पर अन्य भाश्यकारों ने आपत्ति उठाई है। यद्यपि इस स्थान पर यह मीमांसा नहीं की जा सकती कि कौन भाश्यकार किस अंष तक ठीक है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि षं॰ स्वा॰ का परब्रह्म और अपरब्रह्म दो भेद करना सबको खटकता है।

Advaitwaad Khandan Series 1 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

स्वप्न की मीमांसा और उसका शांकर  मत में स्थान!

शास्त्रकारों ने जीव की पाँच अवस्थायें मानी हैं, जागृत, स्वप्न, सुशुप्ति, तुरीय और मोक्ष। इनके अतिरिक्त छठी अवस्था अभी तक कल्पना में नहीं आई। तुरीय या समाधि अवस्था केवल योगियों को प्राप्त है। मोक्ष संसारित्व से परे की चीज है। परन्तु षेश तीन अवस्थाओं से सभी प्राणी भली भांति परिचित हैं। जागना, स्वप्न देखना और गहरी नींद सोना।

विज्ञानवेत्ताओं के लिये जागृत अवस्था ही सब कुछ है। उनका विशय है ब्राह्य जगत्। ब्राह्य जगत् का सम्बन्ध है प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्षाश्रित प्रमाणों द्वारा सिद्ध हुये अनुभवों से। सांसारिक समस्त व्यवहार इन्हीं से चलते हें। भौतिकी, रसायन, जीव-षास्त्र, इतिहास, भूगोल, खगोल, गणित, समाजषास्त्र, प्रजननषास्त्र, अर्थषास्त्र, संगीत, कला, चित्रण सभी जागृत अवस्था के अनुभवों के आश्रित हैं। परन्तु मनोविज्ञान एक ऐसा षास्त्र है जिसका विशय-क्षेत्र जागृत अवस्था से चलकर स्वप्न और सुशुप्ति तक विस्तृत है। वैद्यक-षास्त्र का भी स्वप्न और सुशुप्ति से घनिश्ठ सबन्ध है। क्योंकि स्वस्थ मनुश्य को मीठी नींद आती है। बीमार को या तो नींद नहीं आती, या सोते ही वह स्वप्न देखने लगता है। औशध द्वारा सुशुप्ति से भी गहरी अचेतना उत्पन्न कर देते है। वह और सब बातों में सुशुप्ति ही है परन्तु सुशुप्त को साधारण आघात से जगा सकते हैं औशध द्वारा मुर्छित को नहीं।

परन्तु दार्षनिक जगत में ‘स्वप्न’ को बहुत ही उच्च स्थान प्राप्त है। उसके द्वारा मूल तत्व की खोज की जाती है। किसी किसी दार्षनिक सम्प्रदाय के लिये तो स्वप्न जागृत आदि समस्त अनुभवों की कुंजी है। या यों कहना चाहिये कि तत्त्व एक विषाल दुर्गम है। उसमें एक बड़ा ताला पड़ा है और स्वप्न उस ताले की ताली है। वह आरम्भ ही स्वप्न से करते हैं। केवल इतना वैचित्र्य है कि यह अनुभव जागृत अवस्था में संयोजित किये जाते, जागृत अवस्था में उनकी मीमांसा की जाती, जागृत अवस्था में उनको लिखा ओर प्रकाषित किया जाता, जागृत अवस्था में उनपर व्याख्यान दिये जात हैं। इसी वैचित्र्य के आक्षेप से बचने के लिये कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हम जागते नहीं, सोते हैं, यह संसार स्वप्नवत् है। उपमान उपमेय से बड़ा होता है। जिस तराजू में किसी वस्तु को तोलते हैं वह वस्तु तराजू से छोटी होती है। ”स्वप्नवत् संसार“ में संसार उपमेय है और स्वप्न उपमान। स्वप्न बड़ा हुआ। स्वप्न को आदर्ष मान कर हम जागृत की बात की जांच करते हैं।

क्या यह ठीक है? कौन कहे? कैसे कहे?

श्री गौडपादाचार्य जी लिखते हैं:-

स्वप्न जागरितस्थाने ह्ये कमाहुर्मनीशिणः।

भेदानां हि समत्वेन प्रसिद्धेनैव हेतुना।।

(कारिका 2।5)

बुद्धिमान लोग स्वप्न और जागृत अवस्थाओं को एक ही बताते हैं। भेदों के प्रसिद्ध समत्व (सदृष्य) के कारण।

सर राधाकृश्णन् लिखते हैं:-

ळंदकंचंक नतहमे जींज कतमंउ मगचमतपमदबमे ंतम वद ं चंत ूपजी जीम ूंापदह वदमेण् प् िजीम कतमंउ ेजंजमे कव दवज पिज पदजव जीम बवदजमगज व िजीम हमदमतंस मगचमतपमदबम व िवनत मिससवू उमद वत व िवनत दवतउंस मगचमतपमदबमए पज उनेज इम नदकमतेजववक जींज पज पे दवज इमबंनेम जीमल ंिसस ेीवतज व िंइेवसनजम तमंसपजलए इनज इमबंनेम जीमल कव दवज बवदवितउ जव वनत बवदअमदजपवदंस ेजंदकंतकेण् ज्ीमल बवदेजपजनजम ं ेमचंतंजम बसंेे व िमगचमतपमदबमे ंदकए ूपजीपद जीमपत वतकमतए जीमल ंतम बवीमतमदजण् ज्ीम ूंजमत पद जीम कतमंउ बंद ुनमदबी जीम तमंस जीपतेज पे पततमसमअंदजण् ज्व ेंल ेव पे जव ंेेनउम जींज ूंापदह मगचमतपमदबम पे तमंस पद पज ेमस िंदक पे जीम वदम तमंसण् ज्ीम जूव ूंापदह – कतमंउ ेजंजमे ंतम मुनंससल तमंस ूपजीपद जीमपत वूद वतकमते वत मुनंससल नदतमंस पद ंद ंइेवसनजम ेमदेमण् ळंदकंचंक तमबवहदप्रमे जींज जीम वइरमबजे व िूंापदह मगचमतपमदबम ंतम बवउउवद जव ने ंससए ूीपसम जीवेम व िकतमंउे ंतम जीम चतपअंजम चतवचमतजल व िजीम कतमंउमतण् ल्मे ीम ेंलेण् श्।े पद कतमंउए ेव पद ूंापदहए जीम वइरमबजे ेममद ंतम नदतमंसण्श्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ण् 454द्ध

गौड़पादाचार्य का आग्रह है कि स्वप्न-प्रत्यय जागृत-प्रत्ययों के तुल्य हैं। यदि स्वप्न के प्रत्यय हमारे साथियों के साधारण अनुभवों या हमारे सामान्य प्रत्ययों से मेल नहीं खाते तो यह नहीं समझना चाहिये कि स्वप्न-प्रत्ययों की तथ्यता में कोई त्रुटि है। बात यह है कि वे हमारे कल्पित मानों (पैमानों) से तोले नहीं जा सकते। इन प्रत्ययों की कोटि ही अलग है। और अपनी कक्षा में समन्वित हैं। स्वप्न में देखा हुआ जल स्वप्ननुभूत प्यास को बुझा सकता है। यह कहना प्रसंग के विरूद्ध है कि वह जागृत की असली प्यास को नहीं बुझा सकता। ऐसा कहने का अर्थ यह है कि हमने मान लिया है कि जागृत-प्रत्यय ही तात्विक हैं और इन के अतिरिक्त कोई अन्य प्रत्यय तात्विक नहीं। जागृत और स्वप्न अपनी अपनी कक्षाओं में एक से ही सत्य या एक से ही असत्य है ओर पारमार्थिक हम सब के समान हैं। परन्तु स्वप्न के प्रत्यय स्वप्न देखने वाले की निज की जायदाद हैं। उनका कहना है:-

यथातत्र तथा स्वप्नं संवृतत्वेन भिद्यते।          (कारिका 2।4)

‘जैसे जागृत में, वैसे स्वप्न में चीजें अतथ्य हैं।’

श्री राधाकृश्णन् जी ने दो पाष्चात्य विद्वानों के वचन इसी सम्बन्ध में टिप्पणी में दिये हैं:-

श्ॅीमद प् बवदेपकमत जीम उंजजमत बंतमनिससलए प् कव दवज पिदक ं ेपदहसम बींतंबजमतपेजपब इल उमंदे व िूीपबी प् बंद बमतजंपदसल कमजमतउपदम ूीमजीमत प् कतमंउण् ज्ीम अपेपवदे व िं कतमंउ – जीम मगचमतपमदबमे व िउल ूंापदह ेजंजमे ंतम ेव उनबी ंसपाम जींज प् ंउ बवउचसमजमसल चन्र्रसमक ंदक प् कव दवज तमंससल ादवू जींज प् ंउ दवज कतमंउपदह ंज जीपे उवउमदजण्श्

;क्मेबंतजमेरू डमकपजंजपवदे चण् 1द्ध

डिकार्टे कहता है कि

”जब मैं सावधानी से विचार करता हूँ तो मुझे कोई एक भी विषेशता ऐसी नहीं प्रतीत होती जिससे मै निष्चय-पूर्वक जान सकूँ कि मैं जागता हूँ या स्वप्न देख रहा हूँ। स्वप्न के दृष्य और जागृत अवस्था के प्रत्यय एक दूसरे के इतने समान हैं कि मैं सर्वथा असमजस्य में जड़ जाता हूँ। मैं सचमुच नहीं जानता कि मैं इस घड़ी स्वप्न नहीं देख रहा।“

श्च्ंेबंस पे तपहीज ूीमद ीम ंेेमतजे जींज प िजीम ेंउम कतमंउ बंउम जव ने मअमतल दपहीज ूम ेीवनसक इम रनेज ंे उनेज वबबनचपमक इल पज ंे इल जीम जपदहे ूीपबी ूम ेमम मअमतल कंलण् ज्व ुनवजम ीपे ूवतकेरू प् िंद ंतजपेंद ूमतम बमतजंपद जींज ीम ूवनसक कतमंउ मअमतल दपहीज वित निससल जूमसअम ीवनते जींज ीम ूंे ं ापदहए प् इमसपमअम जींज ीम ूवनसक ीम रनेज ंे ींचचल ंे ं ापदह ूीव कतमंउे मअमतल दपहीज वित जूमसअम ीवनते जींज ीम पे ंद ंतजपेंदण्श्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प् चण् 454 विवजदवजमद्ध

पास्कल का कथन है कि यदि प्रत्येक रात्रि को हमको एक से ही स्वप्न हुआ करें तो हम उनमें भी उतने ही संलग्न रहे जैसे उन चीजों में जिनको हम प्रतिदिन देखते हैं। पास्कल के षब्द ये हैं, ”यदि किसी मजदूर को यह निष्चय हो जाये कि मैं हर रात्रि को पूरा 12 घंटे यह स्वप्न देखूगाँ कि मैं राजा हूँ जो उसको उतनी ही प्रसन्नता होगी जितनी उस राजा को जो हर रात को बारह घंटे यह स्वप्न देखता है कि मैं मज़दूर हूँ।“

इन कथनों की परीक्षा करने से पूर्व सब से पहले हमको यह देखना है कि क्या स्वप्न-प्रत्यय बिना किसी परस्पर सम्बन्ध के एक दूसरे से स्वतंत्र है। अथवा उनमें किसी प्रकार का सम्बन्ध है।

सर्वथा असंबद्ध तो प्रतीत नहीं होते। क्योंकि प्रथम तो हमको स्वप्न की स्मृति जागृति में रहती है। हम कहते है ”रात हमने अमुक स्वप्न देखा।“ यदि जागृत और स्वप्न सर्वथा भिन्न और असम्बद्ध अवस्थायें होतीं तो जागृति में स्वप्न की स्मृति न होनी चाहिये थी। दूसरे यह कि हम उन्हीं चीजों का स्वप्न देखते हैं जिनका जागृति में अनुभव के आधार पर की हुई कल्पनाओं में सम्भव है। तीसरे स्वप्न के कतिपय भीशण प्रत्ययों का प्रभाव जागने पर षेश रहता है। जैसे स्वप्न में देखा कि हम किसी ऊँचे स्थान से गिर पड़े। उससे दिल धड़कने लगा। यह दिल की धड़कन जागने पर भी स्पश्ट प्रतीत होती है। एक पुरूश के लिये कहा जाता है कि उसने स्वप्न में देखा कि सीढ़ी से गिर कर उसकी हड्डी टूट गई। उस दिन से यद्यपि उसकी हड्डी ठीक है उसके पैर में दर्द हुआ करता है। इसीलिये यह कहना कि इन दोनों अवस्थाओं का क्षेत्र सर्वथा अलग हैं ठीक नहीं है। यह ठीक है कि स्वप्न-दृश्ट जल से स्वप्ननुभूत प्यास बुझ जाती हे। परन्तु इसका क्या कारण है कि स्वप्न की प्यास भी जागृत के समान हो और जागृत के समान जल से ही जागृत के समान उपाय द्वारा बुझती हो। जागृत और स्वप्न में यह समानता

;च्ंतंससमसपेउद्ध क्यों हैं?

इसका एकमात्र उत्तर यह है कि स्वप्न और जागृत का द्रश्टा तो एक ही है। जिसको आत्मा कहते हैं। इसी की यह दो अवस्थायें हैं। मूल वही है। यह उत्तर ही ठीक है। इससे आत्मा की सिद्धि होती है। इससे पाया जाता है कि क्षण क्षण पर बदलने वाले प्रत्ययों के मूल में एक सत्ता है जिसको यह भिन्न प्रत्यय हुआ करते है।

परन्तु इससे स्वप्न और जागृति के परस्पर सम्बन्ध पर प्रकाष नहीं पड़ता। यदि स्वप्न और जागृति के प्रत्यय सर्वथा स्वतन्त्र हैं जैसा कि डिकार्टे का कथन है और यदि वे समकक्ष है तो स्वभावतः यह प्रष्न उठेगा कि या तो यह दोनों सत्य हैं या दोनों असत्य। यहाँ प्रष्न करने में कुछ अनिष्चिता है। प्रष्न का स्वरूप समझ लेने पर ही उसक पर विचार किया जा सकता है। सत्यता और असत्यता का क्या अर्थ हैं। मैंने स्वप्न देखा कि एक मक्खी की टाँग पर एक हाथी बैठा हुआ है और मैं उस पर सवार हूँ। ऐसा स्वप्न देखना असम्भव नहीं है। अब प्रष्न यह है कि क्या स्वप्न मिथ्या है। मैंने देखा है। मुझे याद है। मैं झूठ नहीं बोलता। मेरी स्वप्न के विशय में रिपोर्ट ठीक हैं। मैंने अपनी ओर से बनावट नहीं की। अतः स्पश्ट है कि यह स्वप्न के रूप में सत्य है। यह उसी प्रकार सत्य है जैसे मेरा सूरज को देख कर उस अनुभव का कथन करना। मिथ्या बोलने वाले जागृति के प्रत्ययों को भी अन्यथा कह सकते हैं और स्वप्न के प्रत्ययों को भी। उनके कथन हमारी मीमांसा के प्रसंग से बाहर हैं। परन्तु जब हम प्रष्न करते हैं कि स्वप्न मिथ्या है या सत्य तो हमारे प्रष्न का तात्पर्य है या अन्यथा। मैंने स्वप्न में देखा कि मेरे द्वार पर दो पुरूश लड़ रहे हैं। मैं जाग पड़ा, द्वार पर कोई न पाया गया। ऐसी दषा में मैं कहूँगा कि मेरा स्वप्न असत्य था। जागृत अवस्था में मैंने सुना कि द्वार पर कोई आवाज दे रहा है। जाकर देखा तो एक मनुश्य को बुलाते हुये पाया। मैंने कहा मेरा जागृत-प्रत्यय ठीक है। यदि न पाया तो कहूँगा कि षायद सुनने में कोई भ्रान्ति हो गई है। ऐसी भ्रान्तियाँ जागृत में बहुधा हुआ करती हैं।

आचार्य गौड़पाद का कहना है कि यदि स्वप्न के प्रत्ययों और जागृति के प्रत्ययों को बाहरी चीजों की अपेक्षा से देखना छोड़ दो तो दोनों सत्य हैं परन्तु यदि उनकी सत्यता को बाह्य पदार्थाें की अपेक्षा से तोलना चाहते हो तो दोनों आसत्य है। स्वप्न में द्वार पर बुलाने वाले को यदि तुम स्वप्न में देखते तो उसे द्वार पर खड़ा पाते। तुमको क्या अधिकार है कि स्वप्न में बुलाने वाले को जागृत में देखो और जागृति की तराजू से तोल कर निर्णय करो कि स्वप्न झूठा है? वह एक पग और आगे जाते है। वह कहते हैंः-

”जैसे स्वप्न को तुम मिथ्या कहते हो उसी प्रकार जागृति के प्रत्ययों को भी मिथ्या कहना चाहिये। क्योंकि दोनों एक से हैं।“

यदि ऐसा कहे तो किसी बाह्य पदार्थ की सिद्धि नहीं होती। जिस सूर्य को हम जागृति में देखते हैं वह सूर्य है नही। भासता है। कैसे? जैसे स्वप्न का सूर्य था नहीं। केवल भासता था।

यहाँ दृश्टि-कोण में भेद हो गया। हमने स्वप्न के प्रत्ययों को जागृति की तराजू से तोला और आचार्य गौड़पाद ने जागृति के प्रत्ययों को स्वप्न की तराजू से। एक और भेद हुआ। उसको भूलना नहीं चाहिये। हम तो तोलने का काम जागृति में कर रहे थे अतः जागृति की तराजू हमारे पास थी। श्री गौड़पादाचार्य जी जागृत हुए स्वप्न की तराजू से तोल रहे है। प्रष्न यह है कि इनके पास स्वप्न की तराजू कहाँ से आ गई? अभी स्मृति का प्रष्न अलग है क्योंकि स्मृति की स्वयं परीक्षा होनी है।

इसलिये यह कहना कि

ज्ीमल कव दवज बवदवितउ जव वनत बवदअमदजपवदंस ेजंदकंतकेण्

”वे हमारे कल्पित मानों के अनुकूल नहीं है“ ग़लत है। हमारी तराजू को कल्पित बताना, अपनी को वास्तविक, सर्वथा अनुचित है।

डीकार्टे के समान प्रत्येक पुरूश कभी-कभी असमंजस में पड़ सकता है कि वह जाग रहा है या स्वप्न देख रहा है। अभी मैं भूखों चिल्ला रहा था। मेरे पास पाई तक न थी। थोड़ी देर में मेरे तकिये के नीचे से अचानक एक लाख का नोट निकला। ऐसी विभिन्नता को देखकर मुझे संदेह होगा कि मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा। परन्तु यह संदेह ही स्वप्न के स्वरूप को भी बताता हैं। अर्थात् संदेह वहीं होता हे जहाँ विलक्षण हो। इस विलक्षणता का पूरा पूरा ज्ञान हो जाय तो स्वप्न और जागृति की पहचान होने में कोई कठिनता नहीं होती। इस विलक्षणता को पकड़ लेना और उसको उचित षब्दों में प्रकट करना ही आगे की मीमांसा में सहायक हो सकता है। शंकराचार्य जी ने इसको इन षब्दों में व्यक्त किया है:-

वैधम्र्याच्च न स्वप्नादिवत्।।

(वेदान्त 2।2।29)

(1) यदुक्तं बाह्यार्थापलायिना स्वप्नादि-प्रत्ययवज् जागरित-गोचरा अपि स्तम्भादि प्रत्यया विनैब बाह्येनर्थेन भवेयुः प्रत्ययत्वा-विषेशादिति। तत् प्रतिवक्तव्यम्।           (पृ॰ 250)

बाह्य पदार्थो की सत्ता न मानने वाले कहते हें कि जैसे स्वप्न के प्रत्यय बिना बाहरी पदार्थों के होते हैं उसी प्रकार जागृति के प्रत्यय भी खंभे आदि बिना बाहरी पदार्थों के होंगे। क्योंकि इन प्रत्ययों में तो कोई विषेशता नहीं हैं। ;नोट-डिकोर्ट ने भी यही कहा था- ज्ीम अपेपवदे व िं कतमंउ – जीम मगचमतपमदबम व िउल ूंापदह ेजंजम ंतम ेव उनबी ंसपाम मजबण्द्ध शंकर  स्वामी कहते हैं कि इस सिद्धान्त का खण्डन करना है।

(2) अत्रोच्यते-न स्वप्नादि प्रत्ययवज् जागªत्प्रत्यया भवितु महन्ति।

जागृति के प्रत्यय स्वप्न के समान नहीं हो सकते।

(3) क मात्?

क्यों?

(4) वैधम्र्यात्। वैधम्र्यंहि भवति स्वप्जागरितयोः।

समानधर्मी न हाने से। स्वप्न और जागृति एक से नहीं हैं।

(5) किं पुनर्वैध्म्र्यम्?

वह भिन्नता क्या हैं?

(6) बाधाबाधाविहि ब्रूमः-

हमारा कहना है कि बाध और अबाध।

(7) बाध्यते हि स्वप्नापलब्धं वस्तु प्रतिबुद्धस्य मिथ्या मयोपलब्धो महाजन समागम इति, न ह्यस्ति मम महाजन समागमो निद्रालग्नं तु मे मनो बभूव तेनैशा भ्रान्तिरूद्बभूवेति।

स्वप्न में देखी हुई वस्तु जागने पर मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं। जैसे मैंने स्वप्न में देखा कि अमुक बड़े आदमी से भेंट हुई, जागा तो ज्ञात हुआ कि कोई बड़ा आदमी नहीं है। मेरा मन नींद में था। इसी से ऐसी भ्रान्ति हो गई।

(8) एवं मायादिश्वपि भवति यथायथं बाधः।

जादू में भी ऐसी बाध होता है।

(9) नैवं जागरितोपलब्धं वस्तु स्तम्भादिकं कस्यांचिदप्यवस्थायां बाध्यते।

जागने में जो खंभे आदि देखे जाते है। उनका बाध किसी अवस्था में नहीं होता।

(षंा॰ भा॰ 2।2।29 पृश्ठ 250)

यह है विलक्षणता। जिसका विचार श्री गौड़पादाचार्य तथा अन्य विचारकों ने छोड़ दिया है। यह बाध अबाध नोट करने की चीज है। इनको नहीं भूलना चाहिये।

पास्कल के कथन में षंका का समाधान भी छिपा हुआ है। अनायास ही उनकी कलमसे निकल गया कि ”यदि वही स्वप्न सदा एक सा रहे तो उस पर भी विष्वास करना होगा।“ इस ‘यदि’ में ही तो समस्त रहस्य छिपा हुआ है। ‘एक सा’ होता कैसे? यदि ‘एक सा’ होता तो

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स्वप्न प्रत्ययों बाधितो जाग्रत् प्रत्ययष्वबाधितः।         (भामती)

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बाध न होता। यदि बाध न होता तो स्वप्न न होता। दूसरे षब्दों में यह कहेंगे कि यदि स्वप्न-प्रत्यय होते तो उन पर उसी भांति विष्वास कर लेते। कोई कारीगर हर रात को बारह घंटे राजा होने का स्वप्न नहीं देखता और न कोई राजा कारीगर होने का। श्री शंकर  स्वामी स्पश्ट कहते हैं कि मन सदा तो निद्रालग्न नहीं रह सकता। न भ्रान्ति ही सदा रहती है। भ्रान्ति वही है जिसका बाध हो सके। मेरे हाथ में पाँच उगलियाँ है। यदि अचानक छठी उँगली की प्रतीति हो उठे। और सावधानी से गिनने में पाँच ही उँगलियाँ निकले तो कहेंगे कि छठी उँगली की प्रतीति भ्रान्ति मात्र थी। परन्तु यदि इस क्षण के पष्चात् छठी उँगली की प्रतीति न केवल मुझको ही हो अपितु सबको तो कहेंगे कि किसी कारण छठी उँगली उत्पन्न हो गई हैं।

श्री गौड़पादाचार्य लिखते हैंः-

चित्तकालादि चेऽन्तस्तु द्वयकालाष्वये बहिः।

कल्पिता एव ते सर्वे विषेशोनान्यहेतुकः।।

(कारिका 2।14)

नान्यष्वित्तकालव्यतिरेकेण परिच्छेदकः कालो येशां ते चित्तकालः। कल्पना काल एवोपलभ्यन्त इत्यर्थः। द्वयकालाष्व भेदकाला अन्योन्यपरिच्छेद्याः।

(षां॰ भा॰)

चित्त मे उठने वाले भाव कल्पना काल भावी है और बाहर के पूर्वापर कालभावी। ये दोनों कल्पित है। कोई विषेशता उनमें नहीं। ‘द्वय काल’ का अर्थ है बहुकाल। इसी को सर राधाकृश्णन् कहते हैंः-

श्ज्ीम वइरमबजे व िूंापदह मगचमतपमदबम ंतम बवउउवद जव ने ंससए ूीपसम जीवेम व िकतमंउे ंतम जीम चतपअंजम चतवचमतजल व िजीम कतमंउमतण्श्

मैं समझता हूँ कि स्वप्न की पराधीनता दिखाने के लिये इतना पर्याप्त है। यदि मुझे अपनी आँखों के सामने साँप उड़ते हुए दिखाई देते है और मैं काँप-काँप कर चिल्ला रहा हँू और यदि मेरे आस-पास किसी अन्य को ऐसा प्रतीत नहीं होता तो इसमें मेरे मस्तिश्क का ही दोश है सब के मस्तिश्क का नहीं। इसी का नाम भ्रांति है। क्योंकि इसका बाध होता है, यही बाध स्वप्न के प्रत्ययों को मिथ्या सिद्ध करता है और जाग्रतत्ययों को सत्य।

श्री गौडंपादाचार्य का कथन है:-

स्वप्रमाये यथादृश्टे गन्धर्वनगरं यथा।

तथा विश्वमिद दृश्टं वेदान्तेशु विचक्षणैः।।

(कारिका 2।31)

जैसे स्वप्न, जादू तथा इन्द्र जाल आदि मिथ्या होते है उसी प्रकार बुद्धिमान् वेदान्ती सब विष्व को मिथ्या समझते है।

इसी को सर राधाकृश्णन् ने इस प्रकार व्यक्त किया है।

ॅम ंबबमचज जीम ूंापदह ूवतसक ंे वइरमबजपअमए दवज इमबंनेम ूम मगचमतपमदबम वजीमत चमवचसमष्े उमदजंस ेजंजमेए इनज इमबंनेम ूम ंबबमचज जीमपत जमेजपउवदलण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील प्प् 454द्ध

हम जाग्रत्प्रत्यय द्वारा सूचित संसार को बाहर उपस्थित मान लेते हे। इसलिये नहीं कि हमको दूसरे पुरूशों के मनोभावों को अनुभव है किन्तु केवल इसलिये तात्पर्य यह है कि हमने कल्पना कर ली है कि दूसरों का देखा हुआ ठीक ही होगा। इसीलिये विलक्षण बात देख कर हम उसको अपने मस्तिश्क की भ्रान्ति मान बैठते है। या जाग्रतप्रत्ययों से बाधित पाकर हम स्वप्न के प्रत्ययों को अतथ्य समझने लगते है।

परन्तु यदि हम अपने मस्तिश्क की वृत्तियों पर विचार करें तो हम को ऊपर के कथन से मतभेद करना पड़ता है। श्री शंकर  स्वामी कहते हैं-

नाभाव उपलब्धेः।

(वे॰ 2।2।28)

न खल्वभावो बाह्यास्यार्थस्याध्यवसतु षक्यते। कस्मात्। उपलब्धः। उपलभ्यते हि प्रति-प्रत्ययं बाह्याष्र्वः स्तम्भःकुड्यं। घटः पट इति।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 248)

अर्थात् हर एक जाग्रतत्प्रत्यय में केवल प्रत्यय ही नहीं है अपितु पदार्थ के बाहर होने का भी भाव है। मैं मेज देख रहा हूँ। इसका केवल यही अर्थ नहीं कि मेरे मन में मेज का ज्ञान है अपितु साथ में यह भी ज्ञान है कि ”मेज एक पदार्थ है जो बाहर है।“ अर्थात् मैं मेज के बाहर होने को केवल दूसरों की साक्षी द्वारा नहीं मानता। सब से बड़ी साक्षी मेरे अपने ज्ञान की है। यह मेरे मन की कल्पना नहीं है। यदि मैं चाहूँ कि यह मेज एक तेज घोड़ा बन जाय तो मैं उस पर सवार नहीं हो सकूँगा।

पूर्वपक्षः-ननु नाहमेवं ब्रवीमि न कंचिदर्थमुपलभ इति किं तूपलब्धि व्यतिरिक्तं नोपलभ इति ब्रवीमि।

(तदेव-सइपक)

मैं यह नहीं कहता कि मुझे किसी अर्थ का ज्ञान नहीं होता। मैं कहता हूँ कि ज्ञान से अतिरिक्त किसी बाहरी पदार्थ का ज्ञान नहीं होता।

षं॰ स्वा॰-बाढमेवं ब्रवीशि निग्ङ्कुषत्वात्ते तुण्डस्य। न तु युक्तयुपेतं ब्रवीशि। यत उपलब्धि व्यतिरेकोऽपि बलादर्थस्याभ्युपगन्तव्य उपलब्धेरेव। न हि कष्चिदुपलब्धिमेव स्तम्भः कुड्यं चेत्युपलभन्ते उपलब्धि विशयेत्वेनैव तु स्तम्भ कुड्यादीन् सर्वे लौकिका उपलभन्तें। अतष्चैवमेव सर्वे लौकिका उपलभन्ते यत् प्रत्याचक्षाणा अपि बाह्यार्थमेव व्याचक्षते यदन्तज्र्ञेयरूपं तद्वहिर्वदवभासते इति।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 248)

तुम्हारे मुँह में लगाम नहीं। तुम जो चाहे कहो। युक्तियुक्त तो नहीं कहते ज्ञान के स्वरूप से ही बाह्य पदार्थों की सिद्धि होती है। कोई दीवार या खंभे को केवल ज्ञान मात्र नहीं मानता अपितु ज्ञान का विशय मानता है। जो बाहर के पदार्थों का अस्तित्व नही भी मानते वे भी एक प्रकार से मानते ही हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि ये ‘बहिर्वत्’ बाहर के समान प्रतीत होते हैं, ‘वत्’ षब्द के प्रयोग से ही पता चल गया कि बाहरी कोई पदार्थ हैं जिनकी समानता ‘वत्’ षब्द द्वारा बताई गई।

पूर्व पक्षः-बाह्यास्यार्थस्यासंभवाद् बहिर्वदवभासते।

बाहर का पदार्थ असम्भव है। इसलिये कहा कि उस असम्भव के समान प्रतीत होता है। अर्थात् है नहीं।

पूर्व पक्ष- (1) नायं साधुरध्यवसायोंधतः प्रमाण प्रवृत्त्यप्रवृत्तिपूर्वचै संभवासंभवाववर्धायाविति न पुनः संभवासंभपपूर्विके प्रमाण प्रवृत्त्यप्रवृत्ती। यद्धि प्रत्यक्षादीनामन्य-तमेनापि प्रमाणोनोपलभ्यते तत् संभवति। यत् तु न केनचिदपि प्रमाणोन पलभ्यते तन्न संभवति।

अरे भाई सम्भव तो वही है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो। जो प्रमाणों से सिद्ध न हो वह असंभव। किसी पदार्थ की संभवता या असंभवता तो प्रमाणों की प्रवृत्ति अप्रवृत्ति के अनुसार ही होगी। अन्यथा नहीं।

(2) बहिरूपलब्धेष्च विशयस्य।

(षां॰ भा॰ 2।2।28 पृश्ठ 289)

पदार्थ का ज्ञान तो बाहर होता है। अर्थात् हमारे ज्ञान का यह भी अंग है कि पदार्थ बाहर हैं।

यहाँ एक षंका हो सकती है। वह यह कि स्वप्न में भी तो जो ज्ञान होता है वह बाहर ही होता है। हम स्वप्न में षेर देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि षेर हमारे सामने बाहर खड़ा है। परन्तु होता नहीें। इसलिये जागृत में भी वैसा ही समझना चाहिये।

यह एक मुख्य प्रष्न है और इस पर सावधानी से विचार करना चाहिये। इसमें देखने के कारण पर विचार करना होगा अर्थात् स्वप्न क्यों होते हैं।

स्मृतिरेशा। यत् स्वप्नदर्षनम्। उप्लब्धिस्तु जागरित दर्षनम्। स्मृत्युपलब्धयोष्व प्रत्यक्षमन्तर स्वयमनुभूयतेऽर्थविप्रयोगसंप्रयोगात्मकमिश्टं पुत्रं स्मरामि। नोपलभ उपलब्धुमिच्छामीति। तत्रैवंसति न षक्यते वक्तु मिथ्या जागरितोपलब्धि रूपलब्धित्वात् स्वप्नोपलब्धिवत् इति उभयोरन्तरं स्वयमनुमवता।

(षां॰ भा॰ 2।2।29 पृश्ठ 250)

स्वप्न में तो मनुश्य स्मृत पदार्थों को ही देखता है। जागते में वास्तविक ज्ञान होता है। याद में और प्रत्यक्ष में तो स्पश्ट भेद है। प्रत्यक्ष में पदार्थ होता है। याद में नहीं होता। जब कहता हूँ कि पुत्र की याद आ रही है तो आषय यह है कि पुत्र है नहीं। उसको देखना चाहता हूँ। इसलिये स्वप्न की उपलब्धि के समान जागृत की उपलब्धि को मिथ्या कैसे कह सकते हो?

शंकर  स्वामी के षब्दों में स्वप्नवाद का यह अच्छा खंडन है। इसी को उन्होंने एक और स्थान पर दिया है। वेदान्त दर्षन के तीसरे अध्याय के दूसरे पाद का तीसरा सूत्र है:-

मायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्त स्वरूपत्वात्।

इस शंकर  स्वामी लिखते हैंः-

(1) मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थ-गन्धोऽप्यस्ति।

(पृ॰ 344)

स्वप्न की सृश्टि सर्वथा मिथ्या है। उसमें तथ्यता की गंध भी नहीं।

(2) कुतः-कात्स्न्र्येनानभिव्यक्त स्वरूपत्वात्। नहि कात्स्न्र्येन परमार्थवस्तु धर्मेणाभित्र्यक्त स्वरूपः स्वप्नः।

क्यों?-इसलिये कि स्वप्न में देखी हुई वस्तुओं में वास्तविक वस्तुओं के समान पूर्णता नहीं होती। अर्थात् कहीं न कहीं ऐसी त्रुटि होती है जिससे स्पश्ट पता लग जाता है कि यह भ्रान्ति है।

(3) किं पुनरत्र कात्स्न्यमभिप्रेत देषकांल निमित्त संपत्तिर बाद्यष्व। न हि परमार्थ वस्तु विशयाणि देषकाल निमित्तान्यबाधष्व स्वप्ने संभाव्यन्ते।

कात्स्न्र्य (पूर्णता) का क्या अर्थ है? देष, काल निमित्त और परिस्थिति का अबाध। (हम अबाध का अर्थ ऊपर दे चुके हैं) स्वप्न की चीजों में असली चीजों के समान देष, काल, निमित्त सम्बन्धी अबाध नहीं होता

अब यहाँ बाध अबाध के कुछ उदाहरण देते है।

(4) न तावत् स्वप्ने रथादीनामुमितो देषः संभवति।

स्वप्न में रथ आदि के लिये स्थान नहीं होता। जागते हुये रथ देखना चाहो तो स्थान चाहिये। स्वप्न में तंग कोठरी में चारपाई पर पड़े बड़े-बड़े रथो को देख सकते हो।

(2) नहि सुप्तस्य जन्तोः क्षणमात्रेण योजनषातान्तरितं देष पर्येतु विपर्येतु च ततः सामथ्र्य संभावते।

(पृ॰ 345)

सोने वाले का यह सामथ्र्य नहीं कि क्षण भर में सैकड़ों मील दौड़ जाय।

(3) क्वचिष्व प्रत्यागमनवर्जितं स्वप्ने श्रावयति।

कभी देखता हैं कि मैं कलकत्ते से दिल्ली पहुँच गया। और लौटा नहीं। इतने मे आँख खुल गई। परन्तु है पड़ा कलकत्ते में ही, इससे सिद्ध है कि स्वप्न की बात झूठ है।

(4) येन चायं देहेन देषान्तरमष्नुवानो मन्यते तमन्ये पाष्र्वास्थाः षयनदेष एव पष्यन्ति।

सब पास वाले देखते हैं कि देह कलकत्ते में पड़ीं है। स्वप्न वाला समझता है कि दिल्ली पहुँच गई।

(5) यथाभूतानि चायं देषान्तराणि स्वप्ने पष्यति न तानि तथा भूतान्येव भवन्ति।

स्वप्न में देखते हैं कि दिल्ली में अमुक तिथि को अमुक घटना हुई। जाँचने से पता चलता है कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई।

(6) रजन्यां सुप्तो वासरं भारतवर्शे मन्यते।

सोता रात में है और समझता है कि भारतवर्श में दिन है।

(7) मुहूर्तमात्र वर्तिनि स्वप्ने कदाचिद् बहुवशपूगानतिवाह यति।

धड़ी भर सोया और स्वप्न में देखता है कि बहुत वर्श हो गये।

(8) निमित्तान्यपि च स्वप्ने न बुद्धये कमणो वोचितानि विद्यन्ते। करणोपंसहाराद्धि नास्य रथादिगªहणाय चक्षुरादीनि सन्ति।

स्वप्न में ज्ञान या कर्म के लिये उपयुक्त साधन भी नहीं होते। न तो देखने के लिये आँख न पकड़ने के लिये हाथ। यह कैसे संभव है कि क्षण भर में उसको नये उपकरण मिल जावें। क्योंकि आँख, हाथ आदि ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ तो निश्क्रिय हो जाती है।

(9) बाध्यन्ते चैते रथादयत् स्वप्नदृश्टाः प्रबाधे।

जागने पर स्वप्न में देखे हुये रथ आदि का बाध हो जाता है।

(10) आद्यन्तयोव्यभिचारदषनात्। रथोऽयमिति हि कदाचित् स्वप्ने निर्धारितः क्षणोन मनुश्यः संपद्यते मनुश्योऽयामति निर्धारितः क्षणोन वृक्षः।

स्वप्न में देखी हुई चीज आदि में कुछ होती है अन्त में कुछ और आदि रथ था। वही थोड़ी देर में मनुश्य हो गया। जिस को समझा कि यह मनुश्य है वह वृक्ष हो गया।

(11) स्पश्टं चाभाव रथादीनां स्वप्ने श्रावयति षास्त्रम्-‘न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानों भवन्ति।’

(बृ॰ 4।3।10)

षास्त्र में भी स्वप्न में देखे हुये पदार्थों का अभाव बताया है। वृहदारण्यक उपनिशत् कहती है कि वहाँ न रथ होते हैं, न घोड़े, न मार्ग। परन्तु दिखाई देते है।

(षां॰ भा॰ 3-2-3–345)

(12) जगरित प्रभववासना निर्मितत्वात् तु स्वप्नस्य तत्-तुल्य निर्भासत्वाभिप्रायं तत्। तस्मादुपपन्नं स्वप्नस्य मात्रत्वम्।

(षां॰ भा॰ 3।2।6 पृश्ठ  348)

उपनिशद् के ऊपर के वाक्य का अभिप्राय यह है कि जागृत अवस्था में जो प्रत्यक्ष अनुभव होते हैं उनकी वासनाओं से स्वप्न की उत्पत्ति होती है। इसलिये स्वप्न जागृत के समान प्रतीत होते हे। ‘भासत्व’ का अर्थ है कि वे जागृत के तुल्य हैं नही। तुल्य प्रतीत होते है। इसलिये सिद्ध हुआ कि स्वप्न अतथ्य है।

इन सब युक्यिों से दो बातें सिद्ध होती है जिनके ऊपर अलग-अलग विचार होना चाहिये।

(1) स्वप्न प्रत्यय जाग्रत्प्रत्ययों की वासनाओं या स्मृति से बनते है। इसलिये वह अतथ्य हैं। अतथ्य का अर्थ याद रखना चाहिये। अतथ्य का यह अर्थ नहीं कि स्वप्न-रूप में नहीं। अतथ्य का अर्थ है कि उनके विशय अतथ्य है। रथ प्रतीत होता है, पर है नहीं।

(2) जागृत्प्रत्ययों की वासनाओं से उत्पन्न होने के कारण उनके सदृष प्रतीत होते हैं।

एक मोटा उदाहरण लीजिये। मैं हूेँ और मेरा चित्र है। चित्र एक अंष मैं तो तथ्य है। अर्थात् उसकी आकृति मेरी आकृति के सदृष है। अच्छा कलाकार ऐसा चित्र बना सकता है कि विषेश दूरी से विषेश प्रकार के प्रकाष में आप पहचान न सकें कि मैं हूँ अथवा मेरा चित्र। परन्तु आप चित्र को एक अंष में मिथ्या कह सकते हैं। उस का अधिक परीक्षा करने से बाध हो जाता है उसमें मेरे समान हड्डियाँ, षरीर, निमेष उन्मेश आदि नहीं हैं।

मेरे चित्र में और मुझ में साघम्र्य भी है और वैधम्र्य भी। यदि साधम्र्य न होता तो कौन कहता कि यह मेरा चित्र है; परन्तु यदि वैधम्र्य न होता तो मेरे चित्र को भी लोग ‘मैं हूँ’ ऐसा समझ लेते।

परन्तु इससे एक और बात का पता चलता है। वह यह कि मैं मुख्य हूँ और चित्र गौण। मुझ से मेरे चित्र को मिलाना चाहिये मेरे चित्र में मुझको नहीं मिलाना चाहिये। यदि चित्रकार ने मेरी नाक टेढ़ी बना दी तो मैं अपनी नाक को उसके अनुकूल नहीं करूँगा अपितु चित्रकार को ही चित्र में सुधार करना होगा।

इसी प्रकार जब जाग्रत-प्रत्ययों की वासना या स्मृति से ही स्वप्नों का निर्माण होता है तो जाग्रत-प्रत्यय मुख्य हुये स्वप्न-प्रत्यय गौण। जाग्रत-प्रत्ययों को देख कर स्वप्न-प्रत्ययों की परीक्षा करनी चाहिये। न कि स्वप्न-प्रत्ययों को देख कर जाग्रत्प्रत्ययों की। नागार्जुन आदि बौद्धों तथा गौड़पादाचार्य आदि वेदान्तियो ने सब से बड़ी भूल  यह की है उन्होंने स्वप्न को तराजू मान कर जाग्रत्प्रत्ययों को उसमें तोलने का यत्न किया है। इनकी युक्यिाँ इस प्रकार की है जैसे कोई कहने लगे कि मेरे चित्र में मांस,रक्त आदि नहीं हैं। मेरा चित्र मेरे षरीर के तुल्य है। अतः मेरे षरीर में भी मांस रक्त आदि नहीं हैं। वे कहते है कि जैसे स्वप्न में देखे हुये प्रत्ययों के भी बाहरी पदार्थों का अभाव होता है। उसी प्रकार जागृत में देखे हुये प्रत्ययों के भी बाहरी पदार्थाे का अभाव है। जितना साधम्र्य है उतना ही स्वीकार करना चाहिये। अधिक नहीं। श्री शंकर  स्वामी गौड़पादाचार्य के समान के समान इस लहर में बह नहीं गये। उन्होंने युक्ति के इस दोश को देखा। और बौद्धों के प्रकरण में प्रबल युक्तियों से इसका परिहार किया। परन्तु कारिका का भाश्य करते समय गुरूभक्ति के प्राबल्य में उन्होंने किसी न किसी प्रकार इन दोनों पर कलई कर दी। अभी हमने वेदान्त अध्याय 3, पाद 2, के 3रे सूत्र का शांकर  भाश्य दिया है। इससे आप कारिका 2-4 के भाश्य की तुलना कीजियेः-

जागªद् दृष्यानां भावानां वैतथ्यमिति प्रतिज्ञा। दृष्यत्वादिति हेतूः। स्वप्नदृष्यभाववदिति दृश्टान्तः। यथा तत्र स्वप्ने दृष्यानां भावानां वैतथ्यं तथा जागरितेऽपि दृष्यत्वमविषिश्टमिति हेतूपनयः। तस्माज्जागरितेऽपि वैतथ्यं स्मृतमिति निगमनम्।

प्रतिज्ञा-जाग्रत दृष्यों के भाव अतथ्य हैं।

हेतुः-क्योंकि दीखते हैं।

दृश्टान्तः-जैसे स्वप्न के दृष्य।

उपनयः-जैसे स्वप्न के दृष्यों के भाव अतथ्य हैं उसी प्रकार जागृत के।

निगमनः-इसलिये जागृत के दृष्यों के भाव भी अतथ्य हुये।

प्रतिज्ञाः-मेरे षरीर में मांस आदि नहीं हैं।

हेतुः-क्योंकि षरीर दीखता है।

दृश्टान्तः-जैसे मेरे चित्र में।

उपनयः-जैसे मेरा चित्र दीखता है परन्तु उसमें मांस आदि नहीं।

निगमनः-इसलिये सिद्ध हुआ कि मेरा षरीर मांस-षून्य है।

यहाँ शंकर  स्वामी यह कह सकते हैं कि कारिका में परमार्थ का उल्लेख है। और बौद्धों के खंडन करने में हमने व्यवहार का मंडन किया। परन्तु यह युक्ति असंगत है। व्यवहार दषा को तो बौद्ध लोग भी मानते है। वह सापेक्षिक सत्यता ;त्मसंजपअमज्तनजीद्ध का खंडन नहीं करते। पारमार्थिक सत्यता ;।इेवसनजमज्तनजीद्ध का खंडन करते है। षून्यवादी होते हुये भी नागार्जून खाना खाते थे। सदाचार का प्रचार करते थे। उन्होंने पुस्तके लिखी। वे समस्त व्यावहारिक व्यापार करते थे। मौलिक प्रष्न यह है कि व्यवहार और परमार्थ में क्या सम्बन्ध है। नागार्जून आदि माध्यमिक कहते है कि व्यवहार में सब कुछ सत्य है। परमार्थ में कुछ नहीं।

शंकर  स्वामी यह नहीं बताते कि परमार्थ और व्यवहार में यह परस्पर विरोध क्यों? मेरे चित्र और मेरे षरीर भेद इसलिये है कि चित्रकार केवल मेरी षरीर की ऊपरी आकृति को लेना चाहता है। मेरी षरीर के और अंषो से उसे संबन्ध नहीं। इसी प्रकार स्मृति या स्वप्न एक अंष को लेकर होते है। जैसे षरीर को चीर कर देख सकते है कि अमुक हड्डी कहाँ है। यंत्र के हृदय की गति का अनुमान लगा सकते हैं। इसी प्रकार चित्र को चीर कर नहीं देख सकते। यदि मुझे अपने किसी मित्र की स्मृति है या मैने उसको स्वप्न में देखा है तो मैं उस स्मृति-गत या स्वप्न-गत दृष्य से अपने मित्र की अन्य बातों का पता नहीं लगा सकता।

चित्र और पदार्थ, स्मृति और उनके विशय, अथवा स्वप्न और जागृत के भेद का तो स्पश्ट कारण ज्ञात होता है। परन्तु पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य के भेद का नहीं।

आचार्य शंकर  का मत है कि जैसे स्वप्न के अनुभव स्वप्न में सत्य प्रतीत होते हुये भी जागृत में बाधित हो जाते है इसलिये असत्य हैं इसी प्रकार जाग्रत्प्रत्यय भी ब्रह्मानुभव में बाधित हो जाते है अतः वे अतथ्य है। जागृत अवस्था व्यवहार है और ब्रह्मानुभव परमार्थ।

इतने मात्र से हमारे प्रष्न का समाधान नहीं होता। प्रथम तो स्वप्न अवस्था में हमने अपने अनुभवों को कभी जागृत के अनुभवों से तोल कर अतथ्य नहीं ठहराया। जागृत अवस्था में

(1) न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मणउभयलिङ्गत्व मुपपद्यते। न ह्येक वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरींत चेत्यवधारयितु षक्य विराधात्।

(2) अस्तु तहि स्थानगतः पृथिव्याद्युपाधियोगादिति। तदपिनोपपद्यते। नह्युपाधियोगादप्यन्यादृषस्य वस्तुनोऽन्यादृषः स्वभावः संभवति।

(3) न हि स्वच्छः धन स्फटिकोऽलक्तकाद्युपाधियोगादस्वच्छो भवति भ्रममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य। उपाधीनां चाविद्याअप्रत्युपस्थापितत्वात्।

(षां॰ भा॰ 3।2।11, 355-56)

(1) परब्रह्म स्वयं किसी प्रकार भी दो प्रकार के लिंग वाला नहीं हो सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि एक वस्तु स्वयं ही रूपवाली भी हो और उसके विपरीत भी।

(2) यदि यह कहा जाय कि स्थान के कारण (स्थानम् उपधिस्तद्योगात्) अर्थात् पृथिवी आदि की उपाधि के योग से। तो भी ठीक नहीं। क्योंकि उपाधि के कारण किसी वस्तु का स्वभाव अन्यथा नहीं हो सकता।

(3) स्वच्छ स्फटिक लाख की उपाधि से अस्वच्छ नहीं हो जाता। अस्वच्छता समझना अविद्या है।

ब्रह्म में तो केवल अविद्या के कारण उपाधियाँ है।

हमारी आलोचना-यदि केवल ब्रह्म ही सत्य है तो उपाधि का क्या कारण है? यदि स्फटिक ही होता और लाख न होती तो उपाधि का प्रष्न न उठता। और न कोई स्फटिक की स्वच्छता को अविद्यावष अस्वच्छता समझता। फिर इस सूत्र में तो जीव का ब्रह्म के साथ संपर्क बताया है, जब तक स्वच्छ ब्रह्म में अविद्यावष अस्वच्छता न आवे जीव बनेगा कैसे? आप कहेंगे कि ब्रह्म तो स्वच्छ ही है तुम इसको अस्वच्छ समझते हो। हमारा उत्तर यह है कि आपके मत में हम तो ब्रह्म ही हैं। अविद्यावष अपने को अस्वच्छ समझ लिया है, यह क्यों?

फिर आप अपने इस कथन को नीचे के कथन से मिलाइयेंः-

द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते, नामरूपविकार भेदोपाधिविषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधिविवर्जितम्।

(षां॰ भा॰ 1।1।62 पृ॰ 34)

ब्रह्म के दो रूप हैं एक तो नाम रूप विकार भेद की उपाधि वाला दूसरा इसके विपरीत सब प्रकार की उपाधियों से छूटा हुआ।

इन दोनों का समन्वय कैसे होगा? इससे तो द्वैतसिद्ध है।

इसका उत्तर षं॰ स्वा॰ ने यह दिया है:-

उपाधिनिमित्तस्य वस्तुधमत्वानुपपत्तेः। उनाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात्। सत्यांमेव च नैसर्गिकामविद्यायां लोकवेद व्यवहारावतार इति।

(षां॰ भा॰ 3।2।15 पृ॰ 358)

उपाधि के निमित्त से वस्तु में कोई धर्म नहीं आता। उपाधियाँ तो अविद्या के कारण होती हैं। अविद्या नैसर्गिकी है। इसी से लौकिक और वैदिक व्यवहार होते है।

यह कोई उत्तर नहीं है। नैसर्गिकी अविद्या के विशय में अन्यत्र आलोचना आ चुकी है।

स्वप्न के अनुभवों को जागृत-अनुभवों से तोल कर उनको बाधित कर दिया। स्वप्न में यह संभव ही न था कि जागृत के अनुभवों को सामने लाकर उनसे अपने स्वप्न-प्रत्ययों की तुलना कर सकते। अधेरे में दीपक को लाकर उससे अँधेरे को नहीं माप सकते। यहाँ आप उलटा जागृत अवस्था में हमसे कहते है कि तुम्हारे अनुभव ‘ब्रह्मानुभव’ से बाधित हो रहे हैं। दूसरी बात यह है कि जागृत के प्रत्ययों की स्मृति, वासना आदि से स्वप्न-प्रत्ययों की व्याख्या हो जाती है। यह शांकर  स्वामी ने भी माना है। और निद्र्रालग्नता आदि दोशों को इसका कारण माना है। परन्तु जागृत के अनुभवों का यदि वे अतथ्य है कुछ कारण बताना चाहिेये। और वह ‘ब्रह्मानुभव’ की अवस्था में बताना चाहिये। यदि ‘सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म’ अद्वैत है। बिना उसके कुछ नहीं, तो बताइये कि उस अवस्था में कौन सी निद्रा, कौन सी स्मृति, कौन सी वासना थी जिसने इस व्यवहार रूपी सत्य को जो वास्तव मे असत्य है उत्पन्न कर दिया?

यदि कहें कि जब तुमको ब्रह्मानुभव प्राप्त होगा तो अवष्य ही ज्ञात हो जायगा। तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि संसार में इतने ‘ब्रह्मनुभव’ की दुहाई देने वाले हैं। इनको जाँचा कैसे जाय? आप है। कपिल आदि महर्शि हैं, भिन्न-भिन्न उपनिशत्कार हैं। सभी तो आपके मत के नहीं हैं। यह हो सकता है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा कहने वाला कई कारणों से भ्रान्ति-युक्त हो। आप बहुधा यह कह देते हैं कि श्रुति में ऐसा लिखा है। परन्तु आपके विपक्षी द्वैतवाद को भी तो श्रुतियों से ही सिद्ध करते हैं, ‘श्रुति’ का होना ही द्वैत का साघक है। इसीलिये आप उसको भी अविद्यावत् कहते हैं (देखो चतुः सूत्री 1।1।1)

आपका कहना है कि सत्य वह है जो कभी बाधित न हो। स्वप्न-प्रत्यय बाधित होने से अतथ्य हैं। इस बात को तो सभी स्वीकार करेंगे। परन्तु प्रष्न यह है कि प्रत्यक्ष से लेकर षब्द पर्यन्त सब प्रकार से परीक्षित प्रत्ययों का बाध आप कैसे करते हैं? रज्जु की परीक्षा करके हमने उसमें सर्पत्व का बाध कर दिया। अब आप कहते हैं कि इसी प्रकार रज्जुत्व का भी बाध कर देंगे। कैसे दें? होता ही नही। यो तो बौद्ध लोग आपसे कहेंगे कि जैसे आपने जागृत्प्रत्ययों का बाध किया उसी प्रकार ‘ब्रह्मानुभव’ का भी बाध कर दीजिये। आप कहेंगे कि प्रकाष का बाध कैसे करें? हम भी कहते हैं कि प्रत्यक्ष का बाध कैसे करें? प्रत्यक्ष कि प्रमाणम्।

आप कहेंगे कि संसार की वस्तुओं को कभी एक रूप में नहीं देखते। यह सब कुछ परिवर्तनषील है। परन्तु हमारा कहना है कि परिवर्तन और बाधता में भेद है। आप स्वंय ऊपर बता चुके हैं। (देखो षां॰ भा॰ 3।2।3) कि देषकाल और निमित्त का स्वप्न में बाध होता है। और जागृत में इनका बाध नहीं होता। इन्हीं के आधार पर आपने जागृत को सत्य को माया मात्र ठहराया। आपने सम्यग्ज्ञान का ऐसे लक्षण किया है।

तच्च सम्यग्ज्ञानमेकरूपं वस्तु तन्त्रत्वात्। एकरूपेणह्यवस्थितो योऽर्थः स परमाथः। लोके तद्विशयं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमित्युच्यते यथाग्निरूश्ण इति।

(षां॰ भा॰ 2।1।11 पृ॰ 194)

जो ज्ञान एक रूप रहे वह सम्यक् है क्योंकि वह वस्तु के आश्रित है। परमार्थ वही है जो एक रूप में स्थित रहे। जैसे अग्नि की उश्णता।

परन्तु यदि परमार्थ, और सम्यक्ज्ञान का अर्थ सत्यता है तो आपको यह लक्षण ठीक नहीं। और यदि यह पारिभाशिक षब्द हैं तो इनसे कुछ बनता नहीं। क्योंकि अनित्य सत्य भी होता है यही अनित्यता अनेक रूपता है। अनेक रूपता सत्य भी होता है। और मिथ्या भी। यदि देष, काल और निमित्त के कारण जो परिवर्तन होना चाहिये वह दृश्टिगोचर न हो तो उसकी सत्यता में संदेह हो जाता है। जैसे यदि किसी माता का 1 वर्श का बच्चा खो जाय और बीस वर्श के पीछे उसी आकृति, उसी रूप रंग, उसी क़द का एक बच्चा उसे मिले तो वह स्पश्ट कह देगी कि यह मेरा बच्चा नहीं है। बीस वर्श में जो परिवर्वन उसमें होना चाहिये था वह नहीं है। यहाँ परिवर्तन का दृश्टिगत न होना असत्यता की पहचान है। उन्हीं के कारण तो स्वप्न को अतथ्य कहना पड़ा।

यदि आप कहें कि इसी देष, काल और निमित्त का तो हम बाघ करना चाहते है, देष काल और निमित्त से अपेक्षित सत्य नहीं। हम तो निरपेक्षित सत्य की खोज में हैं। तो हमारा कहना है कि आप कल्पित सत्य की खोज के फिरते रहिये। आप कभी सफल न होंगे। जिसको आप निरपेक्ष सत्य कहेंगे उसमें भी आपके ‘मान’ की अपेक्षा रहेगी। आपने कल्पना कर ली कि जो सापेक्षित है वह असत्य है। न्यायदर्षन में यह षंका उठाई है।

न स्वभावसिद्धिरापेक्षिकत्वात्।

(न्यायदर्षन 4।1।39)

अर्थात् सापेक्षित होने से कोई भाव भी ठीक नहीं।

इसका उत्तर देते हैंः-

व्याहतत्वादयुक्तम्।

(न्यायदर्षन 4।1।40)

व्याघात दोश होने से युक्ति ठीक नहीं, वात्स्यायन मुनि लिखते हैंः-

यदि ह्नस्वामिति गुह्यते। अथ दीर्घापेक्षाकृतं ह्नस्वं, दीर्घमनपेक्षिकम्।

यदि ह्नस्व की अपेक्षा से दीर्घ है तो किसकी अपेक्षा से ह्नस्व है तो दीर्घ अनपेक्षिक (बिना अपेक्षा के हुआ)

किमपेक्षासामथ्र्यमिति चेत् ? द्वयोग्र्रहणोऽतिषय ग्रहणोपपत्तिः। द्वे द्रव्ये पष्यन्नेकत्र विद्यमानमतिषयं गृहणाति तद्दीर्घमिति व्यवस्यति, यच्च हीनं गृह्णाति तद्धृस्वमिति व्यवस्यतीति। एतच्चापेक्षा सामथ्र्यमिति।

अपेक्षा है क्या? जब दो चीजें दिखाई दी और एक के अतिषय का ग्रहण किया। यह अपेक्षा है। विष्वनाथ की वृत्ति में इस पर एक टिप्पणी हैंः-

किं च सोपक्षत्वं सोपक्ष न वा। आद्ये तस्य तुच्छत्वान्न साधकत्वम्। अन्त्ये तस्यैव सत्यवात् कुतः सर्वषून्यत्वमिति भावः।

अर्थात् यदि कहा जाय कि जो भाव सापेक्षक है वह असत्य है तो प्रष्न होता है कि सापेक्षत्व सापेक्षक है तो असत्य हुआ। अतः आप जो युक्ति असत्यता के लिये देना चाहते थे वही कट गई। फिर आप असत्यता को किस प्रकार सिद्ध करेंगे। यदि कहो कि सापेक्षता निरपेक्षे है, तो सोपक्षता सत्य हो गई और उसके द्वारा सिद्ध हुये भाव भी सत्य हुये।

प्रायः यह कहा जाता है कि सापेक्षिक सत्यता सब असत्य है। ;त्मसंजपवदे चतवअम जीम मगपेजमदबम व िजीम जूव तंजीमत जींद जीम दवद.मगपेजमदबम व िमपजीमतण्द्ध

निरपेक्ष सत्यता ;।इेवसनजमज्तनजीद्ध  का कोई अर्थ नहीं। मनुश्य मात्र के मस्तिश्क में इसका कोई भाव नहीं। क्यों हो? ‘निरपेक्ष सत्य’ दो षब्द है जिनको कल्पना द्वारा संयुक्त कर लिया गया है। यह वाक्य ही निरर्थक है। आप कहेंगे कि अपेक्षा अविद्या के कारण है। हम पूछते हैं कि अविद्या का क्या अर्थ है? विद्या-षून्यता अथवा विद्या-विपरीतता। यदि विद्या-षून्यता का नाम अविद्या हो तो जिस ब्रह्म को आप ज्ञान-स्वरूप कहते है उसके होते हुये विद्याषून्य कहाँ से आ गई है? आपके मत में कोई जड़ पदार्थ (प्रधान आदि) तो है नहीं। सूर्य-मंडल में अँधेरा! यदि कहो कि विद्या की विपरीतता का नाम अविद्या है (तद्दुश्टं ज्ञानं-वैषेशिक 9।11) तो भी वही प्रष्न है कि ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म में दुश्ट ज्ञान कैसा? तीसरी और क्या चीज हो सकती है? इसलिये क्यों नहीं मान लेते कि एक ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म है एक जड़ प्रधान है और कुछ दुश्ट ज्ञान वाले जीव भी है। पूर्ण विद्या ब्रह्म का धर्म है। विद्याषून्यता प्रधान का और अल्पज्ञता जीवों का।

ब्रह्म को कभी भ्रान्ति नहीं होती क्योंकि वह ज्ञान-स्वरूप है। प्रघान को कभी भ्रान्ति नही होती क्योंकि वह जड़ है। जीव अल्पज्ञ होने से भ्रान्ति की सम्भावना रखते हैं। जीव की अल्पज्ञता समस्त प्रपंच की व्याख्या करने को समर्थ है। भ्रान्तियाँ अल्पज्ञता के कारण हैं। श्री राधाकृश्णन् शांकर -सिद्धान्त का वर्णन करते हुये कहते हैः-

श्व्नत चतंबजपबंस पदजमतमेजे कमजमतउपदम वनत ूीवसम जीवनहीज चतवबमकनतमण् ज्ीम पदजमतदंस वतहंद ीमसचे ने जव बवदबमदजतंजम बवदेबपवनेदमेे वद ं दंततवू तंदहमए सपाम ं इनससष्े दृमलम संदजमतद ूीपबी तमेजतपबजे जीम पससनउपदंजपवद जव ं चंतजपबनसंत ेचवजण् ॅम जंाम दवजम व िजीवेम मिंजनतमे व िजीम ष्ूींजष् व िजीपदहे ूीपबी ींअम ेपहदपपिबंदबम वित वनत चनतचवेमेण् म्अमद वनत हमदमतंस संूे ंतम मेजंइसपेीमक ूपजी ं अपमू जव वनत चसंदे – पदजमतमेजेण्श्

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अर्थात् ”हमारे विचारों पर हमारे उद्देष्यों का प्रभाव पड़ता है। अन्तत्करण से हमको यह सहायता मिलती है कि हम अपने लक्ष्य को एकाग्र कर सके जैसे टार्च का प्रकाष केवल एक ही स्थान पर पड़ता है। हम चीजों के केवल उसी अंष को देखते है जो हमारे प्रयोजन से सम्बन्ध रखता है। हमारे सामान्य नियम भी इसी दृश्टि से बनाये जाते है।“

यह ठीक है। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? हमारा बौद्धिक यन्त्र निर्वचन करता है। जितने अंष पर टार्च पड़ी उतने को देखता है षेश को नहीं। क्योकि हम अल्पज्ञ हैं। बिना टार्च के देख नहीं सकते और जितने अंष पर टार्च पड़ती है उससे अधिक को भी नहीं देख सकते। परन्तु जितने को देखते हैं। उससे अधिक को भी मानें? यही नहीं कि टार्च का प्रकाष कुछ अंष को प्रत्यक्ष कराता है, कुछ को धुधँला बताता है और कुछ का प्रकाष में देखे हुये अंष की सहायता से अनुमान कराता है। यदि आप अल्पज्ञता का नाम ”नैसर्गिक अविद्या“ रक्खें तो ठीक है क्योंकि जीव स्वभाव के अल्पज्ञ है परन्तु अल्पज्ञता का इतना ही अर्थ लेना होगा कि ज्ञान अल्प है। इस अल्प ज्ञान को बढ़ाने की सम्भावना है जैसे टार्च को इधर उधर फिरा कर कई स्थानों का ज्ञान हो सकता है। परन्तु यह मान बैठना कि टार्च जहाँ पड़ती है वहाँ मिथ्या ज्ञान कराती है। ठीक नहीं है। पूर्णज्ञता के अभाव को आप अल्पज्ञता कह सकते हैं। यदि आप विपरीत ज्ञान को जीव का स्वभाव मान लेगे तो कभी विद्या की प्राप्ति न हो सकेगी। क्योंकि स्वभाव का नाष कभी नहीं हो सकता। अग्नि को कभी ठंडा नहीं कर सकते। वायु को कभी गर्म कर सकते हैं, कभी कम गर्म, कभी ठंडा। कुछ चीजें हैं जिनको न आग गर्म कर सकती है, न जल ठंडा, जैसे आकाष। समझने के लिये यहाँ जीव को वायु की उपमा दे सकते है।

इस सम्बन्ध में ‘भ्रान्ति’ की भी मीमांसा करनी है। ऊपर टार्च का दृश्टान्त दे चुके हैं। उसी को फिर लीजिए। जो स्थान टार्च के क्षेत्र से बाहर है वहाँ धुँधला दिखाई पड़ता है। कल्पना कीजिये कि टार्च ठीक एक वृक्ष पर पड़ी। हमने देख लिया कि यह आम का वृक्ष है। निकट में प्रकाष क्षेत्र के बाहर कुछ ठूँठ सा दीख पड़ा उसके विशय में अटकल दौड़ाई कि कोई मनुश्य है या किसी गिरे हुये वृक्ष का ठूँठ है। यहीं भ्रान्ति उत्पन्न हो गई। इसी का नाम दुश्ट ज्ञान है। इसका कारण इन्द्रिय-दोश और संस्कार-दोश को बताया है (इन्द्रिय दोशात् संस्कारदोशाच्चाविद्या-वैषेशिक 9।10)

भ्रन्तियुक्त प्रतीति की व्याख्या कई दर्षनकारों ने ‘ख्यातियों’ द्वारा की है। जैसे रस्सी में यदि साँप की भ्रन्ति हो तो प्रष्न होता है कि इसको कौन सी ख्याति कहना ठीक होगा? छः ख्यातियाँ प्रसिद्ध हैं (1) सत् ख्याति (2) असत् ख्याति (3) आत्म ख्याति (4) अख्याति (5) अन्यथा ख्याति (6) अनिर्वचनीय ख्याति।

प्रत्येक ख्याति के साथ अलग-अलग दार्षनिक सम्प्रदायों का सम्बन्ध बताया जाता है जैसे सत् ख्याति या सदसत्् ख्याति सांख्यो की है। वे मानते हैं कि रस्सी में साँप की आकृति की कुँडलियाँ सी है। इसी सत् धर्म के कारण रस्सी में साँप की भ्रान्ति हो जाती हैं।

असत्ख्याति-षून्यवादी माध्यमिकों की है जो बौद्धों का एक दार्षनिक सम्प्रदाय है। उनका कथन है कि रस्सी में साँप का अभाव है। परन्तु प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि असत् की प्रतीति हुआ ही करती है। जो प्रतीत हो उसको सत् नहीं समझना चाहिये। इसका परिणाम षून्यवाद है। अर्थात् जो भाव हैं वे असत् हो गये तो षून्य ही रह गया।

आत्मख्याति-योगाचार बौद्धों की है। इनका कहना है कि आत्मा में जो भाव हैं उनके अनुकूल आत्मा से बाहर कोई पदार्थ नहीं। वाह्य पदार्थ ज्ञान से अतिरिक्त और कुछ नहीं। इनकी दृश्टि में आत्मा के बाहर किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं। पदार्थों का बाहरीपन मिथ्या है। इतना कहने में कोई हानि नहीं कि मेज की मुझे प्रतीति होती है। परन्तु यह मत कहो कि मेज मेरे ज्ञान से बाहर कोई पदार्थ है जिसका मुझको ज्ञान हो रहा है।

अख्याति-प्रभाकर आदि मीमांसकों की है। वे कहते हैं कि साँप के आकार की स्मृति और सामने पड़ी हुई रस्सी के बीच में जो भेद है उसकी प्रतीति होती। अतः रस्सी को साँप समझ लिया जाता है।

अन्यथा ख्याति-नैयायिकों और वैषेशिकों की हे। अर्थात् दोश-वष एक चीज अन्यथा प्रतीति होती है। थी रस्सी। हमको प्रतीत हुई साँप।

अनिर्वचनीय ख्याति-शांकर  मत की है। वे कहते हैं कि किसी में साँप का भाव भावरूप में तो सत्य ही था। अतः हम उसको असत् कैसे कहें? ओर सत् भी नहीं कह सकते क्योंकि रस्सी हैं साँप नहीं। अतः यह एक विलक्षण चीज है न सत् है न असत्। यह अनिर्वचनीय है।

ये सब ख्यातियाँ एकांगी है और भारतीय प्राचीन दार्षनिकों के सिद्धातों में इनका उल्लेख नहीं पाया जाता। इनको मूल मान कर किसी सिद्धान्त को निष्चय करना भूल है। और यही भूल प्रायः की गई है।

भ्रान्ति युक्त प्रतीति के तीन कारण होते है। (1) इन्द्रिय-दोश (2) संस्कार-दोश (3) परिस्थिति-दोश। जैसे आँख दुखने आ गई हो तो रस्सी को साँप समझ सकते हैं। मन में पहले साँप के विचार हो रहे हो ताकि जल्दी में साँप की भ्रान्ति हो सकती है। ओर यदि अँधेरा हो तो रस्सी साँप का सन्देह उत्पन्न कर सकती है। जब भ्रान्ति होती है तो उसमें कुछ न कुछ तीनों बातें सम्मिलित रहती हैं। यदि केवल आँख ही दुखने आवे ओर किसी ने कभी साँप ने देखा हो, न साँप की आकृति के संस्कार मन मे हो तो कभी कोई रस्सी को साँप न समझेगा ओर यदि साँप का भय मन में बैठा भी हो परन्तु प्रकाष भी हो और षुद्ध इन्द्रिय भी हो तो रस्सी रस्सी ही प्रतीत होगी। साँप नहीं।

इस बात को प्राबल्य देने की आवष्यकता है कि भ्रान्ति का उत्तर दातृत्व इन तीनों बातों पर व्यस्त और समस्त दोनों रूप में है। और विषेश कर समस्त रूप में यद्यपि प्रत्येक कितने अंष तक उत्तरदाता है यह और बात है। सब भ्रान्तियाँ समकक्ष नहीं होती। उनके भेद का कारण इन्हीं तीनों में से किसी की प्रधानता और किसी की गौणता होती है।

यदि ख्याति की दृश्टि से देखा जाय तो सभी ख्यातियाँ किसी एक भ्रान्ति में लागू हो सकती है। किसी गौ को देख कर कह सकते हैं कि यह घोड़ा नहीं है। अर्थात् गौ में घोड़पन का अभाव है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है। कि गौ गौ भी नहीं है। इसी प्रकार यदि गौ में गौपन का भाव है तो यह अर्थ नहीं कि उसमें घोड़ेपन का भी भाव है। यह ठीक है कि भ्रान्ति की दषा में रस्सी में साँप नहीं है प्रतीत होता है। इसे आप असत् ख्याति कहिये। साँप मन में है बाहर साँप नहीं, रस्सी है। इसे आत्म ख्याति कहिये। रस्सी को साँप समझ लिया अन्यथा ख्याति कहिये। रस्सी साँप का भेद ग्रहण में नहीं आया अख्याति कहिये। सन्देह होने से कुछ कहा नहीं जा सकता इसे अनिर्वचनीय ख्याति कहिये। आँख ने केवल कुँडलियाँ देखी । कुँडलियाँ रस्सी में भी होती हैं और साँप में भी। इसलिये सत् ख्याति कहिये। यह तो कहने का ढंग है। भूल है उन ख्यातियों के आधार पर अन्य सिद्धान्त निर्धारित करने में और भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय बना लेने में।

रस्सी में साँप का अभाव है। परन्तु रस्सी का तो भाव है। अतः साँप के अभाव से समस्त वस्तुओं का अभाव सिद्ध नहीं होता। भारतवर्श में लन्दन का अभाव है। और इंगलैण्ड में कलकत्ते का। इस हेतु से लन्दन और कलकत्ते दोनों का अभाव सिद्ध करना सर्वथा अयुक्त है। साँप मन में था रस्सी में न था। परन्तु साँप मन में आया कहाँ से? मन में साँप नहीं उत्पन्न होते। साँप की स्मृति किसी स्थान पर बाहर स्थित साँप को देख कर ही आई होगी। सन्देह भी तो तभी उत्पन्न होता है जब कभी दो चीजें प्रायः एक सी देखी गई हो। जिसने कभी चाँदी नहीं देखी उसको सीप में चाँदी की भ्रान्ति हो ही नहीं सकती।

सब से बड़ी भूल यह है कि कुछ थोड़ी सी भ्रान्तियों का दृश्टान्त बना कर उनके अन्य अभ्रान्तियों पर लागू किया जाता है। कछवे का काटा कठौती का डरता है। उसे यह विवके नहीं कि कठौती चैके में है। वहाँ कछवा समझ लेना तो क्षन्तव्य था। जीवन में हम सामान्यतया तो रस्सी को रस्सी ही देखते हैं, साँप को साँप ही, जल को जल ही और रेत को रेत ही। बहुत कम और कभी-कभी ही ऐसा होात है कि सीप में चाँदी का भ्रम हो जाय या रस्सी में साँप का या मृगवृश्णिका में जल का। यदि हम अपने अनुभवों का लेखा रक्खें तो ऐसे अवसर एक प्रतिषतक क्या, एक प्रतिलक्ष भी न निकलेगे। चाहिये तो हमको यह था कि अपवाद की व्याख्या उत्सर्ग की सहायता से करते। परन्तु किया हमने उलटा। उत्सर्ग का कारण अपवाद में खोजने लगे। एक मन दूध में यदि आप सेर जल मिल जाय तो समस्त दूध के साथ जलवत् व्यववहार करना और उसे स्नान या कपड़ा धोने के काम में लाना बुद्धिमता नहीं है। इसी प्रकार थोड़ी सी भ्रान्तियों के आधार पर समस्त जगत् को मिथ्या सिद्ध करना भूल है। श्री राधाकृश्णन् ने शांकर -मत को इस प्रकार लिखा हैः-

।सस जीवनहीज ेजतनहहसमे जव ादवू जीम तमंस जव ेममा जीम जतनजीए इनजए नदवितजनदंजमसलए पज बंद ंजजमउचज जव ादवू जीम तमंस वदसल इल तमसंजपदह जीम तमंस जव ेवउमजीपदह वजीमत जींद पजेमसण् िज्ीम तमंस पे दमपजीमत जतनम दवत ंिसेमण् प्ज ेपउचसल पेण् ठनज पद वनत ादवूसमकहम ूम तममित जीपदे वत जींज बींतंबजमतपेजपब जव पजण् ।सस ादवूसमकहम ूीमजीमत चमतबमचजनंस वत बवदबमचजनंसए ंजजमउचजे जव तमअमंस तमंसपजल वत जीम नसजपउंजम ेचपतपज (प्रत्यक्ष प्रमा चात्र चैतन्यमेव-वेदान्त परिभाशा 1) ूीपसम चमतबमचजपवद पे ंद मअमदज पद जपउमए दवद.मगपेजमदज इवजी इमवितम पज ींचचमदे ंदक ंजिमतए पज पे ेजपसस जीम उंदपमिेजंजपवद व िं तमंसपजल ूीपबी पे दवज पद जपउमए जीवनही पज ंिससे ेीवतज व िजीम तमंस ूीपबी पज ंजजमउचजे – उंदपमिेजेण् ैव ंित ंे पदंकमुनंबल जव जीम हतंेच व िजीम तमंस पे बवदबमतदमकए ंसस उमंदे व िादवूसमकहम ंतम वद जीम ेंउम समअमसण् ।सस रनकहउमदजे ंतम ंिसेम पद जीम ेमदेम जींज दव चतमकपबंजम ूीपबी ूम बंद ंजजतपइनजम जव जीम ेनइरमबज पे ंकमुनंजम जव पजण् ॅम ींअम मपजीमत जव ेंल त्मंसपजल पे त्मंसपजलए वत ेंल जींज त्मंसपजल पे ग्ए लर््ए ए ज्ीम वितउमत पे नेमसमेे वित जीवनहीज इनज जीम संजजमत पे ूींज जीवनहीज ंबजनंससल कवमेण् प्ज मुनंजमे जीम तमंस ूपजी ेवउमजीपदह मसेमए पण्मण् जीम दवद.तमंसण् ज्व ंजजतपइनजम जव जीम तमंस ूींज पे कपििमतमदज तिवउ पज पे ूींज ैींदांत बंससे ंकीलंेंए वत ंजजतपइनजपदह जव वदम जीपदह ूींज पे कपििमतमदज तिवउ पजण् (अध्यासो नाम अतस्मिँस्तद्बुद्धिः) ।कीलंें पे कमपिदमक ंे जीम ंचचमंतंदबम व िं जीपदह ूीमतम पज पे दवज  (परत्र परावभासः)

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ंहम 505द्ध

”सब मानसिक व्यापारों का यत्न है तत्व को जानना, सत्य की खोज करना, परन्तु दुर्भाग्य है कि तत्व के जानने का यत्न करने में उसे तत्व का सम्बन्ध किसी ऐसी वस्तु से करना पड़ता है जो तत्व नहीं है (अतत्व है)। तत्व न सत्य है न असत्य। यह केवल सत्ता मात्र है। परन्तु अपने ज्ञान में हम उसके साथ यह धर्म अथवा वह धर्म जोड़ देते हैं। समस्त ज्ञान चाहे वह ऐन्द्रिक हों अथवा बौद्धिक, तत्व अर्थात् मौलिक आत्मा को जानने का यत्न करता है। (प्रत्यक्ष प्रमा चात्र चैतन्यमेव-वेदान्त परिभाशा 1) ऐन्द्रिक ज्ञान एक कालिक घटना है। अर्थात् आरम्भ से पहले उसका अस्तित्व न था। पीछे न रहेगा। तो भी वह एक ऐसी सत्ता का बोध करता है जो कालातीत है। यद्यपि यह जिस तत्व का बोध कराना चाहता है उसको पूरा नही कर पाता। तत्व की उपलब्धि के कवचार से देखा जाय तो सभी प्रमाण अपूर्ण है। हमारे समस्त विचार इस अर्थ में मिथ्या है कि कोई धर्म ऐसा नहीं हैं जिसका हम तत्व से सम्बन्ध जोड़े और वह पूरा उतरे। या तो हम कहते हें कि तत्व तत्व है। या कहते हैं कि ‘तत्व क्ष, य या ज्ञ हैं।’ पहली बात विचार के लिये निश्प्रयोजन है (अर्थात् ”तत्व तत्व है।“ ऐसा कह देने के कुछ ज्ञान में वृद्धि नहीं होती)। परन्तु दूसरी बात तो विचार नित्य प्रति ही करता है। यह तत्व में कुछ ऐसे धर्म बताता जो तत्व से इतर हैं, अर्थात् अतत्व है। तत्व में वह बताना जो तत्व के नहीं हैं शांकर  परिभाशा में अध्यास का लक्षण है कि एक चीज वहाँ प्रतीत हो जहाँ वह नहीं है (परत्र परवभासः)।

(इण्डियन फिलासफो जिल्द 2, पृश्ठ 505)

शांकर  अध्यास को समझने का नवीन भाशा में उससे उत्तम रूप नहीं हो सकता। श्री राधाकृश्णन् ने अध्यास को ऐसे सरल रूप में हमारे सामने रक्खा हैं कि एक बार तो विपक्षी को भी इसकी सत्यता का निष्चय हो जाता है। परन्तु थोड़ी सी सावधानता से ही हेत्वाभास की रूपरेखा दिखाई पड़ने लगती है। खोज करनी थी तत्व की। यह बिना सिद्ध किये मान लिया गया कि ”तत्व केवल सत्ता मात्र है। उसमें कोई धर्म है ही नहीं।“ आप ऐसे कल्पित तत्व की खोज करने चले। कहीं प्राप्ति नहीं हुई। अतः आपने घोशणा कर दी कि संसार भर में तत्व नहीं। अर्थात् संसार अतत्व या मिथ्या है। इसको साध्यसम हेत्वाभास कहते हें। यह ठीक है कि हमारा ज्ञान तत्व की खोज करने मे तत्व के साथ किसी न किसी धर्म का सम्बन्ध जोड़ देता है। परन्तु इससे तो यह सिद्ध होता है कि तत्व में अनेक धर्म है। तभी तो आपकी बुद्धि तत्व का धर्म जानने के लिये लालायित रहती है। प्रमाण ज्ञान का साधन है। उनका तो आपने निराकरण कर दिया। अब आपके पास रह ही क्या गया जिससे आप तत्व की खोज करें? यदि कोई पुरूश किसी पुश्प का रंग जानने की खोज में चले और चलने से पहले आँखों में पट्टी बाँध ले तो ऐसे पुरूश को सफलता की क्या आषा हो सकती है?

 

आप तत्व के साथ उसका धर्म बताने को अतत्व कहते है। यह कैसे? यदि कहा जाय कि नीबू नीबू है तो यह कथन व्यर्थ है। क्योंकि उतना कहने से कुछ पता नहीं चलता। यदि कहा जाय कि ‘नीबू पीला है’ तो आप कहते हे कि नीबू से ऐसे धर्म का सम्बन्ध लग गया जो नीबू से इतर है। याद रखना चाहिय कि पीलापन नीबू का धर्म है। इसलिये धर्म बताना ‘अतस्मिस्तद्बुद्धिः’ नहीं है आप तत्व के खोजी है। आपने पहले से ही यह क्यों मान रक्खा है कि तत्व में कोई अन्य धर्म नहीं और तत्व एक ही है, अनेक नहीं। यदि आप यह मान बैठें कि आपने हाथ में केवल एक ही उँगली है तो इस कल्पना के आधार पर यही कहना पड़ेगा कि अन्य चार उँगलियों की प्रतीति मिथ्या है। अविद्या के कारण है। अध्यास है। यदि आप सच्चे तत्व के खोजी हैं तो अपना मस्तिश्क खुला रखिये। ओर गिनना आरम्भ कजिये। सिर एक है इसलिये उसको एक कहिये। आँखें दो हैं अतः उनको दो कहिये। दाँत बत्तीस हैॅं उनको बत्तीस कहिये। यदि गिनने से कम या अधिक निकलें तो उनको वैसा कहिये। आप कहते है कि तत्व को तत्व कहने ;त्मंसपजल पे त्मंसपजलद्ध से काम नहीं चलता। ओर तत्व को क्ष, य,ज्ञ, कहने ;त्मंसपजल पे ग्एलर््एद्ध से तत्व के साथ अतत्व जोड़ना पड़ता है क्योंकि क्ष, य, ज्ञ तत्व नहीं है। और ऐसा करने को ही अध्यास कहते हैं। हम आपके अध्यास के लक्षण को माने लेते है परन्तु युक्तियों को नहीं। क्योंकि इनमें समझ को फेर है। वाक्य के दो भाग होते है एक उद्देष्य ;ैनइरमबजद्ध दूसरा विधेय ;च्तमकपबंजमद्ध  यदि विधेय उद्देष्य से सर्वथा अन्य हो तो वाक्य ही नहीं बन सकता। ”बंध्या अपने पुत्र को खिला रही है।“ यहाँ ‘पुत्रवतीत्व’ बंध्यां का धर्म नहीं। परन्तु ‘बंध्या अपना मुँह धो रही है’ ठीक है क्योंकि मुँह रखना बंध्या का धर्म है। अतः जितने विधेय हैं वे सब उद्देष्य के धर्माे में से किसी धर्म को बताते हैं। कभी-कभी उद्देष्य और विधेय में अनन्यतव उद्देष्य भी होता है जैसे ”चार दो और दो के जोड़ के बाराबर है।“ यहाँ उद्देष्य ‘चार’ है और विधेय दो और दो का जोड़। परन्तु यदि गम्भीर विचार से देखा जाय तो चार का एक धर्म ही बताने का यत्न किया गया है। यह भी कह सकते थे कि ‘चार दस और एक के बराबर होते है।’ यदि विधेय उद्देष्य से सर्वथा इतर होता है तो उसको कोई नहीं मानता। जैसे कोई कहे कि ”चार दस और पाँच के योग के बराबर होते है।“ यह है अतस्मिँस्तद्बुद्धिः। अर्थात् चार में पन्द्रह के धर्मो की कल्पना कर ली गई।

 

आपका आक्षेप है कि हमारा बौद्धिक यंत्र विचार करने में तत्व के साथ किसी न किसी धर्म को सम्बन्ध कर देता है। यदि वही धर्म सम्बन्ध किये जायँ जो उसमें विद्यमान हैं, तो हानि क्या? हानि तो तब होगी जब अन्य धर्म तत्व के नही तो क्या यह अतत्व के धर्म हैं? फिर तो आपका अतत्व भी नाम का ही अतत्व रहा। वस्तुतः तत्व हो गया, अपितु तत्व से भी बढ़ कर। आपका तत्व तो षून्यत्व को प्राप्त हो गया और अतत्व सब कुछ हो गया। यदि आप कहें कि तत्व तो केवल सत्ता मात्र है। उसमें कोई धर्म नहीं। तो यह भी आपकी कल्पना ही है। यदि कहते ”ब्रह्म ब्रह्म एव“  (ब्रह्म ब्रह्म है) तो वाक्य निश्फल होता। यदि कह दिया कि ‘सत्यं ज्ञान अनन्तं ब्रह्म’ तो ब्रह्म में सत्यता, ज्ञान तथा अनन्तता आदि धर्म मानने पड़े, क्यो? इसलिये कि यह ब्रह्म के धर्म है। यह ‘अतस्मिंस्तद्बुद्धिः कैसी? यदि कहते कि ब्रह्म बड़ा मोटा है, दस गज लम्बा है इत्यादि तो यह अध्यास होता। यदि कोई कहे कि हम तो उनको भी काना कहेंगे जिनके दो आँखें हैं क्योंकि केवल दो ही आँखें तो है दस बीस नही। तो उसकी इच्छा। उसकी दृश्टि में समस्त संसार काना है क्योंकि उसने काने के लक्षण ऐसे कर रक्खे हैं और वह इसका अपना दुर्भाग्य बताता है कि संसार में उसे कोई ऐसा नहीं दृश्टिगोचर होता जो काना न हो।

यह ठीक है कि हम अल्पज्ञ है। हमारा बौद्धिक यंत्र भी टार्च के समान एक समय में एक अंष का ही बोध कराता है। सम्पूर्ण तत्च का नहीं। यदि हम सर्वज्ञ होते तो बौद्धिक यन्त्र की आवष्यकता न होती। परन्तु उस टार्च से मिथ्या रूप दीखता हो यह नहीं है। क्योंकि मिथ्यात्व के निर्माण के लिये भी तो सत्य का ज्ञान चाहिये। अन्यथा तुलना कैसे होगी? हमारा बौद्धिक यन्त्र ऐसी टार्च है जो कहीं तो प्रकाष ;च्मदनउइमतंद्ध ।प्रकाष क्षेत्र में पड़ी हुई चीज को हम ‘निष्चर्य’ या सम्यक् ज्ञान कहते है। ‘अर्द्ध’ प्रकाष में पड़ी हुई चीज को हम ‘निष्चय’ कहते हैं, और थोड़ा सा टार्च का कोण बदल देने से अर्द्ध प्रकाष को प्रकाष क्षेत्र में ला सकते है। सन्देह-निवारण का यही अर्थ है। प्रकाष, अर्द्ध प्रकाष, अंधकार (सत्, रज, तम) यह तीन अवस्थायें है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का यही अर्थ है। ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता जाता हैं सन्दिग्ध वस्तुयें ज्ञात कोटि में और अज्ञात वस्तुयें सन्दिग्ध र्कोिट में आती जाती है। यदि आप सभी को अध्यास कहेंगे तो अध्यास का लक्षण भी न कर सकेंगे। क्योंकि यदि गाय के सींग नहीं होते तो गधे के सिर पर उनका अध्यास भी नहीं हो सकता। (इसका कुछ वर्णन चतुःसूत्री की समालोचना मे आया है। वहाँ देखना चाहिये)ै।

Advaitwaad Khandan Series- By Gangaprasad Ji: भूमिका : शंकर भाष्य आलोचन

भूमिका : शंकर भाष्य आलोचन

श्रीयुक्त शंकराचार्यजी महाराज न केवल भारतवर्श के अपितु संसार के दार्षनिकों में एक उच्च स्थान रखते हैं। इस प्रकार के दार्षनिक जो अपने नवीन विचारों से जगत् को सम्पायमान कर दें और विद्वन्मण्डली तथा विद्या-षून्य सर्वसाधारण की विचारधारा को बदल दें जगतीतल पर कभी-कभी ही उत्पन्न होते हे। शंकर  स्वामी भारतवर्श में उस समय उत्पन्न हुये जब बौद्ध-दर्षन काल का प्राबल्य था और विषेश कर माध्यमिकों और योगाचारों का। इनका मूल सिद्धान्त था आत्म-नास्तिक्य और वेदों का अप्रमाणत्व किया और आत्मसत्ता तथा श्रुति के प्रामाण्य दोनों को पुनः स्थापित कर दिया।

इसके लिये शंकर  स्वामी के प्रयोग में सब से बड़ा अस्त्र जो आया वह वेदान्त दर्षन (वादरायण या व्यास के सूत्रों) का षरीरक भाश्य है। यह एक महान ग्रथ है। इसकी भाशा अत्यन्त विषद और कोमल है। और युक्तियों की षैली तो इतनी विलक्षण है कि जो मनुश्य दार्षनिक क्षेत्र में मास्तिश्किक भोजन चाहता है उसे अवष्य ही बड़े परिश्रम और सावधानी के साथ इसका अध्ययन करना चाहिये। प्रतिपक्ष का खण्डन तो शंकर  महाराज की आष्चर्य-जनक विषेशता है। राजा बालि के लिये प्रसिद्ध है कि जब वह प्रतिद्वन्द्वी के समक्ष आता था तो उसके प्रतिपक्षी का आधा बल उसमें आ जाता था। वह आधा बल दूसरे आधे को परास्त करने के लिये पर्याप्त हो जाता था अपने बल को प्रयोग में लाने की आवष्यकता नहीं होती थी। श्री स्वामी शंकराचार्य जी अपने दार्षनिक जगत् के राजा बालि है। प्रतिपक्षी कीह प्रतिज्ञाओं और लक्षणों का ऐसा अद्भुत विष्लेशण करते हैं और यथासंभव जितने विकल्प उठ सकते है उनको उठाकर परिषेश न्याय ;च्तवव िइल म्गींनेजपवदद्ध द्वारा उसका इस प्रकार खंडन करते हैं कि प्रतिपक्षी स्वयं डाँवाडोल हो जाता है और दर्षक तो शंकर  स्वामी के पक्ष में करतलध्वनि किये बिना रह ही नहीं सकते। यही कारण था कि शंकर  स्वामी इतनी थोड़ी आयु में ही दिग्विजय कर सके और चारों ओर से त्यागे हुये वैदिक धर्म को फिर से पुनर्जीवित करने में सफल हुये।

जिस प्रकार काव्य जगत् में ‘उपमा कालिदासस्य’ प्रसिद्ध है इसी प्रकार दर्षनिक जगत् में शंकर  स्वामी के दृश्टान्त भी विचित्र विषेशता रखते है। इनकी विजय श्री का मुख्य साधन इनके दृश्टान्त है। दृश्टान्तों की खोज और उनके प्रयोग की षैली दोनों ही अद्भुत है। योद्धा के लिये षस्त्र ही पर्याप्त नहीं है। उन षस्त्रों के प्रयोग का औचित्य भी अनिवार्य है। शंकर  स्वामी दोनों बातों में दक्ष है। उनके तरकष में दोनों प्रकार के तीर हैं। कठोर आघात के लिये कठोर और कोमल आघात के लियें कोमल। षत्रु की हड्डियाँ चूर करनी हों तो वर्ज उठा लेते हैं और यदि षत्रु पुश्पमुखी हो तो तुशार से काम चला लेते हें। यदि कोई उचित तथा उपयुक्त दृश्टान्त न भी मिलता हो तो किसी दृश्टान्त को उठाकर इस प्रकार प्रदर्षन कर देते हैं कि चित्रपट सौन्दर्यपूर्ण हो जाता है। इस अन्तिम बात के लिये एक उदाहरण दे देना अनुयुक्त न होगा। चतुःसूत्री में प्रष्न उठाया कि यदि ब्रह्म के विशय में विधि और निशेध का प्रष्न असंगत है तो षास्त्र में लिङ् लकार का प्रयोग क्यों है? यह एक ऐसा प्रष्न है जिसका समुचित समाधान संभव ही नहीं है। यदि षास्त्र को मानते हैं तो सिद्धान्तहानि होती है और यदि सिद्धान्त पर आग्रह करते है तो भी सिद्धान्तहानि होती है क्योंकि षास्त्र का प्रामाण्य भी तो सिद्धान्त का एक अंग है। यदि षास्त्र विपक्षी बनकर आता तो शंकर  स्वामी किसी न किसी वज्र से उसकी हड्डियाँ चूर-चूर कर देते। अपने ही षरीर के दो अंग यदि एक दूसरे से लड़ पड़े तो क्या किया जाय। साधारण महारथी तो षस्त्र रख कर पराजय स्वीकार कर लेता। परन्तु शंकर  स्वामी ने अत्यन्त सौन्दर्य के साथ एक अद्भुत दृश्टान्त उपस्थित कर दिया जिससे षंका का समाधान न होने पर भी सर्वसाधारण की दृश्टि में उसका प्राबल्य नश्टा हो जाता है वे कहते हैंः-

तद्विपये लिङादयः श्रूयतमाणा अप्यनियोज्य विशयत्वात् कुण्ठी भवन्ति, उपलादिपु प्रयुत्त क्षुरतैक्ष्ण्यादिवत्।   (पृश्ठ 19)

अर्थात् यद्यपि श्रुति में लिङ् आदि का प्रयोग है यथापि विशय नियोज्य नहीं है इसलिये जैसे पत्थर पर छुरा मारने से कुण्ठित हो जाता है इसी प्रकार लिङ् आदि का प्रयोग भी कुण्ठित हो जाता है।

ऐसे दृश्टान्त बहुत मिलेंगे जो दाश्र्टान्त के अनियोज्य होने के कारण पत्थर पर छुरे के तुल्य कुण्ठित हो गई हो छुरे की चमक-दमक तो वैसी ही बनी हुई है। अपितु शंकर  स्वामी के मायावी हाथों में आकर बढ़ गई है।

परन्तु इतनी प्रषंसनीय विषेशताओं के होते हुये भी शंकर  स्वामी का मायावाद सर्वसम्मत नहीं हो सका।

दूराद्धि पर्वता रम्याः।

शांकर  भाश्य के पष्चातु विषिश्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, षुद्धाद्वैत, तथा द्वैत सिद्धान्तों के पोशक अनेक भाश्य हुये। जिनमें अपने अपने ढंग से शांकर  मायावाद की कड़ी आलोचना की गई, और अब भी की जा रही है, शंकर  स्वामी की प्रषंसा सब करते हैं परन्तु शांकर  मायावाद के तद्वत् मानने वाले बहुत कम है। यद्यपि शंकर  स्वामी को षिश्य भी भाग्यवष ऐसे उत्तम मिले जिन्होने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य से अपने गुरू के सिद्धान्त रूपी हुई के टूटे फूटे अंषों की भली भांति लीपापोती कर दी, शांकर  भाश्य के भी कई भाश्य और उनपर टीकायें निकल चुकी हैं, जो साधारण विद्यार्थी को जीवन भर पढ़ने के लिये पर्याप्त हैं, फिर भी मायावाद है एक जर्जरित सिद्धान्त। कोई युक्ति, कोई षैली, कोई पाण्डित्य इसकी त्रुटियों को मिटा नहीं सकता।

प्रष्न इतने हैंः-

(1) क्या शंकर  मत युक्ति युक्त है?

(2) क्या वेदान्त सूत्र इसका प्रतिपादन करते है?

(3) क्या वेद और उपनिशदों द्वारा इसकी पुश्टि होती है?

पहली बात तो तर्क से सम्बन्ध रखती है। तर्क के अप्रतिश्ठान की अवस्था में दूसरी और तीसरी बातों का आश्रय लेना है। यदि यह दोनों ठीक हैं तो यह कहना पड़ेगा कि शांकर  भाश्य ही एक स्वीकार करने योग्य भाश्य हे अन्य सब त्याज्य है। परन्तु ऐसा कहना दुस्साहस मात्र है। उसके कारण स्पश्ट हैं। और भाश्य पर एक गहरी दृश्टि डालते ही अवगत हो जाते हें।

जितने भाश्य वेदान्त पर पाये जाते हैं उनकी तुलना करके षुद्धाषुद्ध का निर्णय कठिन है। शांकर  भाश्य से पुराना कोई भाश्य नहीं मिलता। बोधायन मुनि के भाश्य का नाममात्र ही षेश है। वह क्या था पता नहीं, शंकर  स्वामी ने भी कहींे इसका उल्लेख नहीं किया। एक दो स्थानों पर शंकर  स्वामी ने कुछ वेदान्तियों का उल्लेख किया है। जिनका मत उनके मत से भिन्न था। जैसे

‘केचित् पुनः पूर्वाणि पूवेपक्षसूत्रणि भवन्त्युत्तराणि सिद्धांत सूत्राणीत्येतां व्यवस्थामनुरूध्यमानाः परविशया एव गतिश्रुतीः प्रतिश्ठापयन्ति तदनुपपन्न गन्तव्यत्वानुपपत्तेब्र्रह्मणः।

अर्थ-कुछ लोग ऐसा मानते हें कि पहले सूत्र पूर्व पक्ष के हैं और पिछले सिद्धान्त पक्ष में। और इस प्रकार आत्मा की गति का विशय पराविद्या के अन्तर्गत है। परन्तु यह ठीक नहीं। ”ब्रह्म में गन्तव्यत्व कैसा?“

इसी प्रकार

अपरे तु वादिनः पारमार्थिकमेव जैवं रूपमिति मन्यन्तेऽस्म-दीयाष्व केचित्।

(षां॰ मा॰ 1।3।19। पृश्ठ 115)

अर्थ-कुछ लोग जीव का रूप पारमार्थिक मानते हैं। हममें से कुछ लोग भी।

यह ‘केचित्’ और ‘अपरे’ कौन है यह पता नहीं। परन्तु यह तो सिद्ध ही है कि शंकर  स्वामी से पहले भी कुछ ऐसे भाश्यकार या वृत्तिकार रहे होंगे जिनका शांकर  मत से मौलिक भेद था। क्योंकि ऊपर जो उदाहरण दिये वे मूल-सिद्धान्त से सम्बन्ध रखते हैं। गौण बातों से नहीं।

श्री रामानुजाचार्य जी ने अपने श्रीभाश्य में तथा अपने वेदार्थ संग्रह में बोधायन, तंक, द्रमिड़, गुहदेव, कपर्दिन, भारूचि का उल्लेख किया है और यत्र-तत्र कुछ उद्धरण भी किये हैं। परन्तु इनमें से कोई भाश्य प्राप्य नहीं है। और धारणा तो ऐसी है कि रामानुजाचार्य को भी देखने को नहीं मिले। इन्होंने अन्य पुस्तकों में ही संकेत पाया होगा।

यह परिस्थिति बड़ीं कठिन है। वेदान्त सूत्रों का ही स्वतन्त्र अध्ययन किया जाय और भाश्यों की सहायता सर्वथा छोड़ दी जाय। इससे भी काम नहीं चलता। क्योंकि बहुत से सूत्रों में केवल संकेत से कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं निकलते। ‘षब्दात्’ ‘आह’ श्रुतेः’ से यह पता चलना असंभव है कि किस वेद का कौन सा मंत्र अभीश्ट है या कौन सी उपनिशद् का कौन सा वाक्य। इस विशय में शंकर  स्वामी ने जो सीमेन्ट की पक्की सड़क बना दी है उसी पर अन्य भाश्यकार भी चल पड़े हैं चाहे उनका सिद्धान्त कितना ही विरूद्ध क्यों न हो। सूत्रों का प्रायः वही अधिकरण और उपनिशदों के प्रायः वही कथन। मुझे तो प्रतीत होता है कि शंकर  स्वामी की पूरी पूरी छाप सभी भाश्यों पर है। किसी न स्वतंत्र खोज नहीं की। केवल अपने निज सिद्धान्त की पुश्टि के लिये कहीं कहीं एक दो पग इधर उधर बढ़ाया हे परन्तु षीघ्र ही फिर उसी मार्ग पर आ गये हैं। एक विचित्र बात है वह है सोचने योग्य। ‘षास्त्रयोनित्वात्’ मे बादरायण वेद का प्रामाण्य मानते है, फिर क्या कारण है कि ‘षब्दाद्’ ‘श्रुत’ ‘आह’ इत्यादि से सम्पूर्ण उपनिशदों के ही उदाहरण लिये जाय न कि वेदों के? षांर भाश्य में वेदों के दो चार प्रमाणों से अधिक नहीं मिलते। एक तो ‘सूय्यौचन्द्रमसौघाता’ है और दूसरा ‘द्वासुपर्णा’। पिछला मन्त्र उपनिशत् में भी है। ऐसे ही बहुत खोज के पष्चात् दो चार षायद और मिलें। श्री रामानुजाचार्य ने श्रीभाश्य में स्मृति के अन्तर्गत विश्णु पुराण के उद्धरणों की भरमार कर दी है। श्री आनन्दतीर्थ के अणुभाश्य में अन्य पुराणों के भी उद्धरण हैं। वेद के प्रमाण क्यों नहीं है? यह एक टेढ़ा प्रष्न है। आजकल के आय्र्य समाजिक भाश्यकार दो है एक आर्यमुनि जिनका भाश्य हिन्दी में है और दूसरे स्वामी हरिप्रसाद ने वेदों के भी उद्धरण स्वतन्त्रतापूर्ण दिये हैं। परन्तु इन भाश्यों की ओर विद्वानों का ध्यान गया ही नहीं है। दूसरे इन भाश्यों में भी कितनी मौलिकता है यह एक प्रष्न है।

एक बात मुझे और खटकी। परन्तु इसका समाधान नहीं मिला। जैसे ‘द्यु भ्वाद्यायतनं स्वषब्दात्’ (वे॰ 1।3।1) में ‘स्व’ षब्द पड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि किसी ऐसी श्रुति की ओर संकेत है जिसमें ‘स्व’ षब्द हो। परन्तु मुण्डक उपनिशद् 2।2।5 की जो श्रुति दी जाती है उसमें ‘स्व’ षब्द नहीं इसके स्थान पर ‘आत्म’ षब्द है। यदि यही श्रुति सूत्रकार को अभीश्ट होती तो ‘आत्मषब्दात्’ ऐसा कहते है। पर्याय देने का क्या प्रयोजन था? जैसे ‘समि़़द्वती’ ऋचा वह है जिसमें ‘समिद्’ षब्द आया हो और ‘सवित्री’ वह है जिसमें ‘सविता’ षब्द आया हो। इसी प्रकार ‘स्थित्यदनाभ्याम् च’ (1।3।7) में ‘द्वासुपर्णा’ (मु॰ 3।1।1) की ओर संकेत बताया जाता है। इसमें भी न ‘स्थिति’ षब्द है न ‘अदन’। ऐसे ही अन्यत्र भी कई मिलेंगे। कहीं कही तो ठीक है जैसे ‘स्वाप्ययात्’ (1।1।9) का सम्बघ ‘यत्रैयतत् पुरूशः स्वपिति’ इत्यादि (छा॰ 6।8।1) से है। फिर भी यह वेदमन्त्र नहीं है। इस ओर अभी तक किसी विद्वान् का ध्यान नहीं गया।

फिर ‘अनुमान’ षब्द सांख्य के प्रधान या प्रकृति का वाचक कैसे और कब से बन गया ओर सांख्यमत के किस ग्रन्थ में यह षब्द इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है इसका पता नहीं चलता। श्री रामानुज आदि अन्य भाश्यकारों ने इसकी विवेचना की ओर इसलिये ध्यान नहीं दिया कि वे स्वयं सांख्य के विरोधी थे। इन्होंने तो केवल उसी स्थल की जाँच की है जहाँ उनके प्रयोजन का प्रष्न था। यह भी तो संभव है कि जहाँ हमारे सिद्धान्त की हानि न होती हो वहाँ भी युक्ति या उदाहरण समीचीन न हो।

एक और प्रष्न है। वर्तमान भाश्यकार यह मानकर चले है कि वैदिक शड् दर्षनों में केवल इतना ही समाजस्य है कि वे वेदों को किसी न किसी रूप में प्राणाण्य मानते हैं। अन्यथा उनमें परस्पर घोर विरोध है। अंग्रेजी भाशा वाले तो इनको  ैपग ैबीववसे व िच्ीपसवेवचील कहते हैं अर्थात् यह छः अलग अलग सम्प्रदाय हैं। मध्यकालीन भारतीय दार्षनिक सम्प्रदायों की परस्पर नोक-झोंक तो प्रसिद्ध ही हैं। वेदान्ती अपने को दर्षन रूप बन का केसरी मानते हें। और अन्य सम्प्रदायों को श्रृगाल मात्र। न्याय आदि वेदान्तियों को यह पदवी देना नहीं चाहते। उन्होंने भी इस कल्पित केसरी के दाँत और नख तोड़ डालने का भरसक प्रयत्न किया है।

यदि यह मान लिया जाय कि यह छहों दर्षन बोद्धा और जैन काल के पष्चात् बने और उनका खण्डन तथा वेद की स्थापना करने के लिये। तो इनमें परस्पर विरोध कैसे हो गया? आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाष में यह संकेत किया है कि यह छः दर्षन मौलिक सिद्धान्तों में विभिन्न नहीं हैं। केवल षैली का भेद है। परन्तु इस पर कोई अच्छी पुस्तक लिखी नहीं गई जिसमें विस्तार से इस बात की मीमांसा की गई हो। यदि यह बात ठीक है तो वेदान्त दर्षन के भाश्य में बहुत बड़ी उथल पुथल करनी पड़ेगी। परन्तु इसके लिये बहुत बड़ा संगठित उद्योग चाहिये।

वेदान्त दर्षन के शांकर  भाश्य के अध्ययन में हमको जो कुछ सूझ पड़ा उसको हम शांकर  भाश्यालोचन के रूप में जनता के समक्ष रखते है। शांकर -भाश्य का उद्धृत करते हुये हमने वेदान्त दर्षन के अध्याय, पाद, सूत्रों के वे अंग दिये हैं जिन पर शंकर  स्वामी का भाश्य है। और पाठकों की सुविधा के लिये निर्णयसागर बम्बई की प्रकाषित ”ब्रह्म-सूत्र शांकर -भाश्यम् सटिप्पनं मूल मात्रम्“ द्वितीय संस्करण षाके 1849 सन् 1927 के पृश्ठ दिये हैं।

गंगाप्रसाद उपाध्याय