Category Archives: शंका समाधान

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

आर्यावर्त क्या है ? ✍🏻 प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

      जब कभी भ्रान्त विचार चल पड़ते हैं तो उनके अवश्यम्भावी अनिष्टकारी परिणामों से बचना दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार का एक अशुद्ध भ्रान्त विचार यह है कि आर्यावर्त की सीमा उत्तर भारत तक ही है और आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित तथाकथित विन्ध्य पर्वत तक है।

      इस भ्रान्त धारणा ने एक महा अनिष्टकारी कुफल की सृष्टि कर दी कि विन्ध्य के उत्तर अर्थात् उत्तरी भारत में आर्य बसते हैं और दक्षिणी भारत में द्रविड़ बसते हैं। फलस्वरूप राजनीतिक समस्याएँ उठती रहती हैं। आज जो उत्तर और दक्षिण भारत में आर्य और द्रविड़ समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, उनके मूल में भी यही भ्रान्त विचार है कि आर्यावर्त उत्तर भारत को ही कहते हैं। 

      आर्य समाज से बाहर इस प्रकार के विचार रखने वाले बहुत से लोग हैं। इनकी प्रेरणा स्थली यथासम्भव पश्चिम की विद्वत्मण्ड़ली है। जो आर्य विचार विद्वेषिणी है। भारतवर्ष में इस विचारधारा के प्रवक्ता के रूप में श्री रामधारी सिंहजी ‘दिनकर’ का नाम लिया जा सकता है। अपने महान् ग्रन्थ ‘संस्कृत के चार अध्याय’ में श्री दिनकर जी स्वामी दयानन्दजी पर खूब बरसते हैं और उत्तर दक्षिण के आर्य-द्रविड़ विवाद का दायित्व स्वामी दयानन्द सरस्वती पर थोपने का असफल प्रयास करते हैं। 

श्री दिनकरजी ने लिखा है – 

      “स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात् आर्यों की रचना है।”

      “हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बसते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिन्दुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगदान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्राविड़ भाषाओं में सन्निहित हिन्दुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है।”

      “इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे हैं।” 

      श्री दिनकरजी यदि सत्यार्थ प्रकाश के तत्सम्बन्धी स्थल देख जाते तो इतना भ्रामक विचार देने में चिन्ता करते। ऐसी उद्धत शब्दावली और ऐसा उपहसनीय आक्षेप सचमुच दिनकरजी को शोभा नहीं देता।

      इधर आर्यसमाज के विद्धानों में भी एकाध की धारणा है कि आर्यावर्त उत्तरी भारत को ही कहते हैं। प्रो॰ सत्यव्रत सिद्धान्तालङ्कार गुरुकुल कांगड़ी के मान्य विद्वान हैं, संसद सदस्य हैं। आपने एक लेख लिखा है ‘‘इस देश के भिन्न-भिन्न नाम।” यह लेख कई जगह छपा है। इस लेख से जहां महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का विरोध है वहीं उस अनिष्टकारी विचारधारा की पुष्टि भी होती है कि उत्तर भारत के लोग आर्य हैं और दक्षिण भारत के लोग आर्य नहीं हैं।

      श्री सिद्धान्तलङ्कारजी ने कई प्रमाण देकर एक निष्कर्ष निकाला है, “इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम इस देश (उत्तर भारत) का नाम ‘आर्यावर्त’ या ‘आर्य देश’ था। इस देश से भिन्न-भिन्न देशों को यहाँ के निवासी ‘म्लेच्छ देश’ या ‘दस्यु देश’ कहते थे। वे लोग अपने देश को ‘आर्य देश’ इसलिए कहते थे क्योंकि वे अपने को ‘आर्य’ या श्रेष्ठ कहते थे, ठीक ऐसे जैसे आज के युग में पाकिस्तान वाले अपने को पाक या पवित्र कहने लगे हैं।”

      यह धारणा चिन्त्य है, ये विचार भ्रान्त हैं। इस पर विचार अवश्य होना चाहिये। 

      गुरुकुल कांगड़ी आर्यसमाज का दुर्ग है। वहाँ से ऋषि की मान्यता को बल दिया जाता है। वहाँ के विद्वानों, अनुसन्धानकर्ताओं पर आर्यजगत् गर्व करता है। ‘वैदिक एज’ जैसे भारतीय विचारधारा विरोधी ग्रन्थ का उत्तर ‘गुरुकुल कांगड़ी, के सुयोग्य विद्वान् श्री धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड ने लिखकर अपनी यशोवृद्धि तो की है, गुरुकुल की भी यशश्चन्द्रिका को अधिक चारु कर दिया। स्वयं सिद्धान्तालङ्कार जी भी ऋषि दयानन्द के भक्त और आर्यसमाज के मान्य विद्वान हैं। पर जाने, अनजाने उनसे ऋषि दयानन्द का और भारतीय परम्परा का विरोध हो गया। फिर श्री दिनकरजी का क्या दोष? उनको उपालम्भ किस बात का? 

      श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने यह सिद्ध करने के लिए कि आर्यावर्त केवल उत्तर भारत को कहते हैं, निम्न प्रमाण दिये हैं – 

      ▪️(१) 🔥आसमुद्रात्तुवै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

      तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बधाः॥ मनु॰ २।२२ 

      अर्थात्, पूर्व के समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से लेकर पश्चिम के समुद्र (अरब सागर) तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक का प्रदेश ‘आर्यावर्त’ है । 

      ▪️(२) 🔥कः पुनरार्यावर्तः। प्रागादर्शात् प्रत्यक् कालक 

      वनात् दक्षिणेन हिमवन्तं उत्तरेण पारियात्रम्। – महाभाष्य 

      (हिमालय के दक्षिण और विन्ध्याचल के उत्तर आर्यावर्त है ।) 

      ▪️(३) 🔥आर्यावर्तः प्रागादर्शात प्रत्यक् कालकवनाद् 

      उदक् पारियात्रात् दक्षिणेन हिमवतः उत्तरेण च विन्ध्यस्य। -वसिष्ठ धर्मसूत्र 

      ये सारे प्रमाण उन ग्रन्थों के हैं जो प्रत्येक भारतीय को मान्य हैं। इनमें से कुछ को तो स्वामी दयानन्दजी ने भी प्रसङ्गानुपात से उद्धृत किया है। यदि ये प्रमाण मान्य हैं तो इनमें तो सुस्पष्ट लिखा है कि आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर विन्ध्य पर्वत है। पर यह विन्ध्य पर्वत कहाँ है? क्या उत्तर और दक्षिण भारत को पृथक करने वाले विन्ध्याचल को ही प्राचीन ग्रन्थकार विन्ध्य के नाम से अभिहित कर रहे हैं या किसी अन्य पर्वत का विन्ध्य नाम है।

      एक क्षण के लिए स्वीकार कर लेते हैं कि नर्मदा नदी के उत्तर उत्तर प्रदेश के दक्षिण विन्ध्य है। अब मनुस्मृति के श्लोक की सङ्गति लगाइये। यह आज का तथाकथित विन्ध्य कर्क रेखा के निकट है। यदि इसे ही दक्षिणी सीमा मान लें तो पूर्व में ब्रह्म देश पड़ेगा, समुद्र नहीं, और पश्चिम में भी समुद्र अत्यल्प नाम मात्र को पड़ेगा और ९९ प्रतिशत सीमा स्थल की बनेगी जो पश्चिम के अफगानिस्तान इत्यादि देश होंगे । 

      फिर मनु का वाक्य, 🔥“आसमुद्रात्तुवैपूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्’’ सङ्गत नहीं हुआ। 

      वस्तुतः आज के तथा कथित विन्ध्य का भारत के प्राचीन भूगोल में विन्ध्य नाम नहीं था और मनुस्मृति में या अन्य ग्रंथों में जो विन्ध्य पर्वत का वर्णन है वह समुद्र तटवर्ती पर्वत है जिसे हम पूर्वीघाट पश्चिमी घाट पर्वतमाला का नाम देते हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का वक्तव्य बिलकुल सुस्पष्ट है। वे लिखते हैं- ‘‘हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्य जनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।”

      सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लासे यहाँ ऋषि दयानन्दजी ने उत्तर और दक्षिण दोनों भारत को आर्यावर्त माना है और दोनों जगह के निवासियों को आर्य माना है। इससे श्री दिनकरजी का आक्षेप तो निर्मूल हो ही जाता है, साथ ही यह भी सुस्पष्ट है कि श्री दिनकरजी ने शीघ्रता का परिचय दिया है न कि धैर्यपूर्वक मनन का। 

      अस्तु, एक प्रश्न यह रह जाता है कि स्वामी दयानन्दजी ने विन्ध्याचल को रामेश्वर के पास कैसे कह दिया। वैसे सत्यार्थप्रकाश के उस स्थल के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विन्ध्य की व्याख्या करने की आवश्यकता तो समझते हैं पर उसे विवादास्पद नहीं समझते। अन्यथा उसके भी प्रभूत प्रमाण वे दे ही देते।

      किन्तु आज तो यह विवादास्पद हो गया है। श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने इसे उत्तर और दक्षिण का भेदक पर्वत ही माना है। वस्तुतः प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इसे दक्षिण समुद्र तटवर्ती पर्वत कहा गया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में वर्णन आता है। वहाँ कई श्लोकों में विन्ध्य पर्वत का प्रसंग उठा हुआ है।

      सन्दर्भ यह है कि रावण सीता को चुराकर ले जा चुका है। जटायु मारा जा चुका है। बालि को मारकर राम ने सुग्रीव को राजा बना दिया है और हनुमान आदि सीता की खोज में निकले हैं। वहाँ समुद्र के किनारे एक पर्वत पर सम्पाति से अङ्गद हनुमान आदि मिले हैं और उनका वार्तालाप होता है। कई श्लोक हमारे सहायक सिद्ध होते हैं – 

      सुग्रीव बालि के भय से दक्षिण दिशा को भागा था उसका वर्णन है- 

      ▪️(१) 🔥दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिण दिशम्।

      विन्ध्यपादपसंकीर्णा चन्दनद्रुम शोभिनाम्॥ – ४६।१

      अर्थ-उस दिशा को छोड़ कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विन्ध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। 

      यदि विन्ध्य के पास चन्दन के वृक्ष हैं तो यह कर्क रेखा पार कर विन्ध्य नहीं, रामेश्वर का विन्ध्य है। 

      तीन दिशाओं से सुग्रीव के सैनिक लौट आये, सीता का पता न चला। किन्तु दक्षिण दिशा के सैनिक वीर हनुमान – 

      ▪️(२) 🔥“ततो विचित्य विन्ध्यस्य गुहाश्चगहनानि च” ४८।२

      आगे स्वयं प्रभा तापसी ने हनुमान से कहा – 

      ▪️(३) 🔥एष विन्थ्यो गिरिः श्रीमान् नाना द्रुमलता युतः।

      एष प्रस्रवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः॥ ५२।३९।३२

      यहाँ विन्ध्यपर्वत, प्रस्रवण गिरि और सागर महोदधि तीनों पास ही हैं। 

      और देखिये – 

      ▪️(४) 🔥विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे सम्प्रपुष्पितपादपे। 

      उपविश्य महात्मानश्चिन्तामापेदिरे तदा॥ ५३।३ 

      सीता को न पाकर हनुमान आदि विन्ध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिन्ता करने लगे। पुनरपि सम्पाति विन्ध्य की कन्दरा से निकल कर हनुमान आदि से बोला – 

      ▪️(५) 🔥कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः 

      उपविष्टान् हरीन् दृष्टिवा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत्॥ ५६।३

      सम्पाति कहता है । 

      ▪️(६) 🔥निर्दग्धपत्रः पतितो विन्ध्येऽहं वानारर्षभाः॥

      यों तो और भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे सुस्पष्ट है कि विन्ध्ये पर्वत दक्षिण समुद्र तट पर है न कि नर्मदा नदी के उत्तर। 

      एक प्रमाण और देखिए – 

      ▪️(७) 🔥दक्षिणस्योदधेः तीरे विन्ध्योऽयमिति निश्चितः॥

      इन सारे प्रमाणों से सिद्ध होता है कि विन्ध्य पर्वत रामेश्वर के पास है, उत्तर दक्षिण भारत को विभक्त करने वाला नहीं। 

      एक बार जब यह निश्चय हो गया कि विन्ध्याचल पर्यन्त आर्यावर्त की सीमा का अर्थ है कन्या कुमारी पर्यन्त सम्पूर्ण भारत न कि केवल उत्तर भारत। अब इस सन्दर्भ में मनु के ‘‘आसमुद्रातु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात” की भी सङ्गति बैठती है। जब सम्पूर्ण भारत ही आर्यावर्त है तब जैसा श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने लिखा है कि पूर्व में बङ्गाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है यह ठीक है। अन्यथा नहीं। 

      अब ऐसी धारणा बना लेना कि उत्तर भारत वाले अपने को पवित्र और दक्षिण भारत वालों को हीन समझते थे यह केवल कल्पनामात्र है और है अत्यन्त अनिष्टकारी कल्पना । 

      आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इतिहास को ठीक रूप में देखें। सम्पूर्ण देश एक है, एक संस्कृति है, एक इतिहास है। 

      पाश्चात्य विद्वान हम में फूट डालने के लिये उत्तर भारत को आर्यावर्त कहकर दक्षिण भारत को उत्तर भारत से फोड़ना चाहते थे। किन्तु हमें तो अपनी स्थिति सुस्पष्ट करनी चाहिये। यह क्षेत्र है जिसमें कार्य करने की आवश्यकता है। हमें प्रचार करना चाहिये कि सारा भारत आर्यावर्त हैं। यहाँ के सभी निवासी आर्य हैं। द्रविड़ या आदिवासी और बनवासी इत्यादि समस्याएँ तो अंग्रेजों की भेदनीति के फल हैं हमें अपनी जनता को बचा लेना चाहिये। 

      यहाँ जो कुछ लिखा गया है केवल एक ही दृष्टिकोण से – 

      *सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिये।*

      यदि आर्य, द्रविड़, आदिवासी, बनवासी, इत्यादि की कल्पित भेद भित्तियाँ ध्वस्त की जा सकें तो भारतीय जनता का अति कल्याण हो। (आर्य संसार १९६६ से संङ्कलित)

✍🏻 लेखक –  प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

गौतम-अहिल्या और इन्द्र-वृत्रासुर की सत्यकथा । ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्दिष्ट ‘गौतम-अहल्या और इन्द्र-वृत्रासुर’ की आलंकारिक कथा का वास्तविक स्वरूप न समझ कर पुराणों में इसका अत्यन्त बीभत्स रूप में वर्णन किया है। 

      ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार इन्द्र नाम सूर्य का है और गौतम चन्द्रमा का, तथा अहल्या नाम रात्रि का है। अहल्या-रूपी रात्रि और गोतम-रूपी चन्द्रमा का आलङ्कारिक पति-पत्नी भाव का कथन है। इन्द्र=सूर्य को अहल्या का जार इसलिये कहते हैं कि सूर्य के उदय होने पर रात्रि नष्ट हो जाती है। इस कथा का यही तात्पर्य निरुक्त में भी दर्शाया है –

      🔥”आदित्योऽत्र जार उच्यते रात्रेर्जरयिता। ३।५” 

      🔥”रात्रिरादित्यस्योदयेऽन्तर्धीयते। १२।११” 

      इन्द्र-वृत्रासुर कथा में भी इन्द्र नाम सूर्य का है। उसे त्वष्टा भी कहते हैं। वृत्र नाम निघण्टु में मेघ-नामों में पढ़ा है। जब वृत्र-मेघ बढ़ कर आकाश मण्डल को ढांप लेता है तब इन्द्र (त्वष्टा) इस पर अपनी वजरूपी किरणों से आघात करता है। वृत्र मर कर=बादल बरस कर पानी के रूप में भूमि पर गिर पड़ता है। निरुक्त २।१६-१७ तथा शत॰ १।१।३।४-५ में इस कथा का यही आलंकारिक रूप वर्णित है। 

      इन दोनों कथानों का वास्तविक स्वरूप ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्य प्रकरण में भी दर्शाया है। ऋषि ने मार्गशीर्ष शुदि १५ सं० १६३३ के दिन वेदभाष्य के विषय में जो विज्ञापन छपवाया था, उसमें भी इसका शुद्ध स्वरूप दर्शाया है। देखो ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भाग १, पूर्ण[१] ७४॥

[📎पाद टिप्पणी १. पुस्तक में ‘पूर्ण’ के स्थान पर ‘पृष्ठ’ अंकित था, जो की मुद्रण दोष प्रतीत होता। हमने इसे ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन से मिलान करके सही कर दिया है – 🌺 ‘अवत्सार’]

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

(📖 साभार ग्रन्थ – ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास)

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यम-यमी सूक्त । पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ऋग्वेद मण्डल १० का १०वाँ सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार वैवस्वत यमयमी के संवादपरक है। यम और यमी भाई बहन हैं। यमी यम से शारीरिक सम्बन्ध की कामना करती है, यम उसे इस सम्बन्ध के लिये मना करता है। ऐसा सभी भाष्यकारों ने व्याख्यान किया है। निरुक्त ११।३४ में यास्क ने भी आख्यानपक्ष में ऐसा ही व्याख्यान दर्शाया है। [🔥यमी यमं चकमे। तां प्रत्याचचक्ष इत्याख्यानम्।] 

      प्रकरणश एव तु मन्त्रा निर्वक्तव्याः नियम के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस तथाकथित यमयमी संवादसूक्त का विषय अपनी चतुर्वेद विषयसूची के अन्तर्गत ऋग्वेदविषयसूची में जलादिपदार्थ विद्या विषय का निरूपण किया है।[द्र०-दयानन्दीय लघुग्रन्थसंग्रह, पृष्ठ १३२] इस तथाकथित संवाद सूक्त से पूर्व (ऋ० १०।९) का सूक्त का देवता आपः है । अतः इस सूक्त में पठित यमयमी का संबन्ध भी आप: के साथ होना युक्त है। ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार इस सूक्त का ऋषि यम और ऋषिका यमी विवस्वान् के पुत्र और पुत्री हैं। 

      विवस्वान् आदित्य है। आदित्य की किरणों से पृथिवीस्थ जल तपकर दो भागों में बँट कर ऊपर जाता है।[🔥’कृष्णं नियान हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति’। ऋ० १।१६४।४७] ये दो भाग ही यम यमी हैं। एक योनि आप: से उत्पन्न होने के कारण भाई बहन हैं। इन्हें ही अन्यत्र मित्र और वरुण कहा है।[उर्वशी = विद्यत् के संयोग से मित्र और वरुण का मिलन हुआ तो उससे द्रवरूप गिरा हुआ बिन्दु वसिष्ठ = जल उत्पन्न हुआ । 🔥’उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठो वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधिजात:’ ऋ० ७।३३।११] आधुनिक वैज्ञानिक नामावली में ये हाईड्रोजन और आक्सीजन गैसें हैं। हाईड्रोजन आक्सीजन की अपेक्षा हल्की होती है। अत: यम (हाईड्रोजन) अन्तरिक्ष स्थान से अतिक्रमण करता हुआ धुलोक तक पहुंचता है। अत: यम को निघण्टु (५।४,६) में अन्तरिक्ष एवं द्य दोनों स्थानों में पढ़ा है। यमी (आक्सीजन) भारी होने से अन्तरिक्ष स्थान तक ही गति करती है। स्त्री प्रत्यय महत्त्व अर्थ में भी होता है।[🔥हिमारण्ययोमहत्त्वे॥ महाभाष्य ४।१।४६॥ महद् हिमं हिमानी,महदरण्यम् अरण्यानी। महत्त्वं = घनत्वम्।]  जब यम सूर्य की किरणों के साथ वापस लौटता है[🔥’त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादि घृतेन पृथिवी व्युद्यते’ ॥ ऋ० १।१६।४७], तब अन्तरिक्ष में यमी के साथ विद्युत् के योग से यम का मेल होता है और उससे दोनों के मेल से पुष्कर (अन्तरिक्ष) से द्रव रूप वसिष्ठ ( =अतिशय वासयिता =जल) की उत्पत्ति होती है।[द्र० -पूर्व पृष्ठ टि. ४ में उद्धृत मन्त्र का उत्तरार्ध- 🔥’द्रप्स स्कन्न दैव्येन ब्रह्मणा विश्वे देवा: पुष्करे त्वाददन्त’ ॥ऋ० ७।३३।११] इसे ही 🔥आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृण्वन्नजामि (ऋ० १०।१०।१०) से सूचित किया है। 

      यमयमी सूक्त से पूर्व सूक्त में ही केवल आप: का वर्णन नहीं है, अपितु उत्तर के ११-१२-१३-१४ सूक्तों में भी प्रकारान्तर से यम द्रप्स घृतस्नू द्यावाभूमी का सम्बन्ध उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह दशवाँ सूक्त संदश (सडासी के दोनों छोर) के मध्य में पठित होने से जलविद्या विषयक ही है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद विषयसूची में जलादिपदार्थविद्या विषय का जो उल्लेख किया है, वह सर्वथा युक्त है। इसमें यमयमी के संवाद पक्ष में जो घृणित पक्ष उपस्थित किया जाता है, वह भी नहीं है । आवश्यकता है, स्वामी दयानन्द सरस्वती की दिव्य दृष्टि के अनुसार पूरे सूक्त की व्याख्या की।

      स्वामी दयानन्द सरस्वती संकलित चतुर्वेद विषयसूची के आधार पर यमयमी सूक्त के संबन्ध में जो विचार प्रस्तुत किया गया है, उससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं 

◼️(क) वेदभाष्य रचने के उपक्रम से पूर्व स्वामी दयानन्द सरस्वती ने चारों वेदों की जो विषयसूची संकलित की थी, उसके लिये उन्होंने बड़ी गम्भीरता से पूर्वापर के सम्बन्ध को ध्यान में रखा था। 

◼️(ख) इस चतुर्वेदविषयसूची के आधार पर ऋग्वेद के शेष भाग, सामवेद तथा अथर्ववेद, जिनका वे अपने जीवन में भाष्य नहीं कर पाये, के सम्बन्ध में उनके मूलभूत मन्त्र-विषय का परिज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह चतुर्वेद विषयसूची उनकी दृष्टि को समझने में विशेष सहायक है।

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार (लोयोला कॉलेज कांड)

हिन्दू देवी देवताओं का अश्लीलता पूर्वक अपमान 

वीथी विरुधु विजाह नाम का एक लोक उत्सव चेन्नई के लोयोला कोलेज में मनाया गया और उसमें अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार कर दिया गया

जी हाँ !! बलात्कार ! बलात्कार की परिभाषा यही तो है की किसी भी चीज का भोग उसकी सीमा से अधिक जाकर करना, उसकी इच्छा उसकी हद से अधिक जबरदस्ती करना

चन्नई में वामपंथ और ईसाई मिशनरी बहुत हावी है यह बात जानकारों से तो नहीं छुप्पी हुई है परन्तु देखकर, जानकर भी शुतुरमुर्ग बने हुए लोगों की खोपड़ियों को धरती से निकालकर उन्हें समझाने का समय आ गया है

एम् ऍफ़ हुसैन का नाम तो सुना ही होगा आपने, उसने जो सीमा अभिव्यक्ति की आजादी की पार की थी आज उसी तरह का कुकृत्य वीथी विरुधु विजाह उत्सव के दौरान लोयोला कोलेज में हुआ है

सहिष्णु कौम हिन्दुओं के देवी देवताओं पर अश्लील पेंटिंग बनाकर इस कोलेज में प्रस्तुत की गई है पेंटिंग इस तरह की निचले स्तर की है लिखते हुए भी शर्म आती है

एक पेंटिंग में हिन्दुओं के साहस के प्रतीक त्रिशूल को लड़की की योनी में घुसाया हुआ है

एक पेंटिंग में त्रिशूल को कोंडम पहना रखा है
एक पेंटिंग में भारत माता के प्रतीकात्मक चित्र पर वीर्य गिरते दिखाया है (चित्र में स्पर्म के मुहं की जगह टेलीकोम कम्पनियों के लोगो है )

बाकि पेंटिंग में त्रिशूल और हिन्दुओं को हत्यारा सिद्ध किया गया है

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बाकि कुछ राजनीती से प्रेरित है

आश्चर्य का विषय यह है की इस पर बीजेपी के आलावा किसी भी राजनैतिक सन्गठन ने आपति नही जताई बल्कि सीपीएम जैसी पार्टियों के पदाधिकरियों ने इसे कला बताते हुए इसका पक्ष ले लिया है

क्या यही है अभिव्यक्ति की आजादी, क्या इस आजादी का पैमाना यह है की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हुए आप किसी भी मत मजहब की भावनाओं का अनादर ही नही बलात्कार तक कर डालों ?

चार्ली हेब्दों की पेंटिंग पर आप यहाँ तक उतेजित हो जाते हो की यह तथाकथित शांतिप्रिय सम्प्रदाय उस चार्ली हेब्दों के जीवन में पूर्णकालिक शांति कर देता है, तब आप शांतिप्रिय के कार्य को उचित ठहराते हुए चार्ली हेब्दों की अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रश्न उठाते हो, परन्तु जब यही कार्य हिन्दुओं के देवी देवताओं पर किया जाता है तो आप इसे अभिव्यक्ति की आजादी कहते हो

यह दोगलापन कहाँ से आ जाता है ?
क्या अभिव्यक्ति की प्रस्तुती करते हुए किसी भी हद तक चले जाओगे ? इसका हक आपको कौनसा संविधान देता है ? यदि इस कृत्य को अभिव्यक्ति की आजादी करार दिया गया तो विश्वास कीजिये कई चार्ली हेब्दो पैदा होंगे जो बिन बाप के पैदा हुए संतानों को भी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत नंगा कर देंगे

वामपंथ इस देश में हद से अधिक हावी हो चूका है यदि अब समय रहते इसे इसी की भाषा में जवाब नही दिया गया तो विश्वास कीजिये यह आपके घरों में घुसकर आपको ही बाहर निकाल देगा

जयंती, जन्मतिथि मनाये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण :- डॉ वेदपाल

शङ्का समाधान 

 डॉ. वेदपाल, मेरठ

शङ्का- आजकल व्यक्ति, महापुरुषों, संस्था के जन्मदिन, जयन्ती, विवाह दिन, मृत्यु दिन, प्रतिवर्ष तीज त्यौहार मनाते हैं। प्राचीनकाल में ऐसा देखने को नहीं मिलता आदि-आदि। क्या इस विषय में ऐतिहासिक व महर्षि अभिमत प्रमाण हैं?

वृद्धिचन्द्र गुप्त, जयपुर

समाधान- आपके विस्तृत शङ्कात्मक लेख का सार शङ्का के रूप में यहाँ उद्धृत कर दिया गया है। व्यक्ति के द्वारा क्रियमाण कर्मों को नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य इस रूप में विभक्त कर समझना सुगम रहेगा। नित्यकर्म वह कर्म हैं, जो व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन किए जाने चाहिए। इन कर्मों का ऐहिक प्रयोजन स्वल्प है, किन्तु आमुष्यिक प्रयोजन अतिमहत्त्वपूर्ण है। यथा-सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि। ये वैयक्तिक तथा लौकिक प्रयोजन के स्वल्प होने पर भी पारमार्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

नैमित्तिक कर्म-  किसी निमित्त को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म नैमित्तिक हैं, क्योंकि निमित्त के न रहने पर इन कर्मों का आयोजन नहीं होता है। एतद्विषयक परिभाषा है-‘‘निमित्तापाये नैमित्तिकस्यापाय:’’। संस्कार तथा संस्कारों के अवसर पर होने वाले यज्ञ आदि भी नित्य न होकर नैमित्तिक ही कहलाते हैं।

काम्य कर्म- व्यक्ति द्वारा किन्हीं विशिष्ट कामनाओं (जैसे पुत्र की कामना से पुत्र्येष्टि, वर्षा की कामना से वर्षेष्टि आदि यज्ञ विशेष) को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के लौकिक कर्म-आयोजन के साथ कामना पूत्र्यर्थ किए जाने वाले यज्ञ आदि भी परिगणित किए जा सकते हैं। इस प्रकार यदि आप देखें, तब तीनों अवसरों (नित्य, निमित्त [नैमित्तिक], कामना) पर होने वाले यज्ञ भी पृथक्-पृथक् हैं।

जन्मदिन आदि मनाने का ऐतिहासिक व महर्षि प्रतिपादित प्रमाण विषयक आपका प्रश्न इस रूप में देखा जाना चाहिए कि उसका शास्त्र अथवा महर्षि मन्तव्यों से विरोध अथवा अविरोध किस रूप में है? जन्मदिन, किसी संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती, व्यक्ति की वैवाहिक वर्षगांठ तथा मरण दिवस-बलिदान दिवस जिसे कभी शहीदी दिवस कहा जाता है को मनाए जाने का प्रयोजन क्या है?

सामान्यत: जन्मदिन, संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती का अवसर-इनके मनाने का प्रयोजन यदि एक क्षण के लिए ठहरकर यह अवलोकन करना है कि जीवन अथवा संस्था के उद्देश्य पूर्ति की दशा में किए जाने वाले प्रयत्न क्या ठीक प्रकार किए जा रहे हैं अथवा न्यूनता है? इत्यादि के विचारपूर्वक किए जाने वाले आयोजन का निश्चय ही शास्त्र से अविरोध है, भले ही शास्त्रकारों ने इसका विधान न किया हो। इसी प्रकार किसी बलिदान (गुरु तेगबहादुर, बन्दा बैरागी, महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम आदि-आदि) को स्मरण करना उसी विशिष्ट तिथि को सम्भव है। यदि कोई कुल, समाज अथवा राष्ट्र ऐसे अवसर पर किन्हीं प्रेरक घटनाओं का स्मरण कर उन महापुरुषों के द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने का संकल्प ले और विगत वर्ष का अवलोकन कर प्रेरणा ग्रहण करता है, तब इसे भी शास्त्राविरोधी मानना चाहिए, किन्तु किसी मरणदिन के अवसर पर उस मृतात्मा के नाम पर श्राद्धादि कर्म निश्चय ही शास्त्र-विरोधी होंगे।

आपकी अन्तिम शङ्का तीज-त्यौहार के सन्दर्भ में यह विवेच्य है कि शास्त्र पर्व का विधान करते हैं। पर्व के स्थान पर ही त्यौहार शब्द का प्रयोग है। तीज शब्द तृतीया तिथि का वाचक है। हिन्दुओं के (पौराणिक जगत् के) पर्व संवत्सर प्रारम्भ के बाद हरयाली तीज-श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से प्रारम्भ होते हैं। अत: त्यौहार से पूर्व तीज शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ होगा, किन्तु इस तृतीया (तीज) का पर्व शास्त्रविहित नहीं है। हाँ, वैदिक संस्कृति में विहित पर्व (पर्व अभिप्राय है जोड़, सन्धि इसलिए शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के सन्धि-पर्व दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा हैं।) अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा के दिन मनाने का विधान है। दर्शपौर्णमासेष्टि के साथ चातुर्मास्येष्टि सभी पर्व इन दिनों में ही सम्पन्न होते हैं। आजकल रक्षाबन्धन के नाम से प्रसिद्ध श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा के दिन ही होता है। इन पर्व-दिन में शास्त्र इष्टि (यज्ञ) का विधान करते हैं।

श्रौत सूत्रों के पश्चवर्ती काल (गृह्यसूत्रों) में अष्टका भी विहित हैं। महर्षि दयानन्द श्रावणी आदि चातुर्मास्येष्टि के साथ दर्शपौर्णमास के समर्थक हैं। राम-कृष्ण के जन्म की तिथियां उल्लिखित हैं, किन्तु याज्ञवल्क्य, मनु आदि की अज्ञात हैं। इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक परिस्थितियां भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। गुरुवर विरजानन्द दण्डी के जीवन संघर्ष पर विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनकी जन्मतिथि आदि स्मरण करने वाला कौन था?

प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल

शंङ्का – समाधान 

– डॉ. वेदपाल

शङ्का-    शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।

अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।

– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल

समाधान-   सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।

शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-

१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।

यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-

तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।

अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।

वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-

‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२

२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१

उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’

३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-

‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’

आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।

४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।

(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।

इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।

५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’

उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’

६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’

७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।

उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।

यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा १- आचार्य सोमदेव जी की सेवा में सादर नमस्ते।

आर्यसमाजी दुनिया के किसी कोने में क्यों न हो। वे भगवान् के लिए हवन ही करते हैं। वेद की आज्ञा के आधार पर हमारे टापू में भी आर्यसमाज की तीन संस्थाएँ हैं, जो यज्ञ हवन बराबर करते आ रहे हैं।

हवन करते समय कहीं-कहीं पहले आचमन करते हैं, अंगस्पर्श और शेष कर्मकाण्ड। कहीं पर देखते हैं कि बिना आचमन किये ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना, शान्तिकरण और अन्य मन्त्र पढऩे के बाद आचमन करते हैं, अग्न्याधान करते हैं और शेष पश्चात्। उसमें सही कौन है? पहले आचमन, अंगस्पर्श या मन्त्रों को पढक़र आचमन, अंग स्पर्श बाद में। यह मनमानी तो नहीं है या ऋषि दयानन्द की आज्ञा के आधार पर करते हैं, यह आपकी वाणी के आशीर्वाद से स्पष्टीकरण हो जायेगा, प्रतीक्षा रहेगी। अग्रिम धन्यवाद।

– सोनालाल नेमधारी, मॉरिशस


जिज्ञासा २- माननीय आचार्य जी, सादर नमस्ते।

विनती विशेष, मैं परोपकारी का नियमित पाठक हूँ। ‘शंका समाधान’ स्तम्भ के माध्यम से बहुत सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है, किन्तु अभी तक निम्न शंकाओं का समाधान नहीं मिला है, कृपा कर समाधान करें।

क- ब्रह्म पारायण यज्ञ क्या है तथा उसकी विधि किस प्रकार की है?

ख- यज्ञोपवीत धारण करते समय जिन मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उसका दूसरा मन्त्र आधा ही क्यों लिखा तथा पढ़ा जाता है।

ग- आघारावाज्याभागाहुति जब-जब भी यज्ञ में जिस स्थान पर दी जायेगी, तब-तब उसी प्रकार निश्चित दिशाओं में दी जायेगी अथवा केवल यज्ञ के आरम्भ में ही? कृपया स्पष्ट करें।

घ- यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् कहीं ‘इदं न मम’ बोला जाता है, कहीं नहीं। इसका प्राचीन गृह्य सूत्रादि ग्रन्थों के अनुसार क्या नियम है?

– आर्य प्रकाशवीर भीमसेन, उदगीर, महा.



समाधान १- यज्ञ करने की विधि के अनेक अंग है, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, आचमन, अंगस्पर्श, जल सिञ्चन आदि। यज्ञ की विधि के अंगों का क्रम क्या हो, यह विधि विधान हमें एकरूप से देखने को नहीं मिलता। मुख्य रूप से आचमन व अंगस्पर्श के विषय में यह अधिक देखने को मिलता है। कहीं कोई आचमन, अंग-स्पर्श, स्तुति-प्रार्थना उपासना आदि मन्त्रों के पहले करता है, तो कहीं कोई बाद में। आर्यसमाज में यज्ञ की विधि में एकरूपता देखने को नहीं मिलती।

यदि एकरूपता स्थापित हो जाये तो सर्वोत्तम है, चाहे वह एकरूपता पहले आचमन, अंग-स्पर्श करने में हो, चाहे बाद में। पूरे विश्व में जहाँ भी आर्यसमाज का पुरोहित व्यक्ति यज्ञ करे-करवावे, तो उसी एकरूपता वाली पद्धति से करे-करवावे। ऐसा करने से हमारे संगठन में भी दृढ़ता आयेगी।

यदि आर्य-विद्वान्, आर्य-संस्थाएँ एकत्र होकर यज्ञ विषयक पद्धति को सुनिश्चित कर उसके अनुसार यज्ञ करें तो अधिक शोभनीय होगा।

हमारी दृष्टि से तो जो क्रम महर्षि दयानन्द ने संस्कार-विधि में दिया है, उसी क्रम से यज्ञ-विधि का सम्पादन करना चाहिए। महर्षि ने संस्कार-विधि में आचमन, अंगस्पर्श स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि मन्त्रों के बाद करने को लिखा, सो उनके लिखे अनुसार सभी आर्यजन अनुकरण करें। जहाँ कहीं हमें महर्षि का स्पष्ट लेख उपलब्ध नहीं होता, वहाँ आर्य-विद्वान् इक_ा हो, वेदानुकूल पद्धति का निर्माण कर लेवें और उसको स्थापित कर दें और आर्यजनों का कत्र्तव्य है कि उसका सब पालन करें। अस्तु।

समाधान २- (क) यज्ञ करने को ऋषियों ने हमारे जीवन से जोड़ा। जोडऩे के लिए इसको धार्मिक कृत्य के रूप में रखा। आज वर्तमान में धार्मिक कृत्य के नाम पर स्वार्थी लोग पाखण्ड करते दिखाई देते मिल जायेंगे, ऐसा करके वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यज्ञ भी धार्मिक कृत्य है, इसमें भी स्वार्थी लोग अपना पाखण्ड जोड़ देते हैं। जैसे यज्ञों के विशेष-विशेष नाम रखना, सर्वमनोकामनापूर्ण यज्ञ, सर्वरोगहरण यज्ञ, अमुक-अमुक बचाओ यज्ञ, वशीकरण यज्ञ, शत्रुविनाशक यज्ञ आदि-आदि। जैसे ये आकर्षक नाम हंै, ऐसा ही ब्रह्मपारायण यज्ञ भी एक है। शास्त्र में ब्रह्मपारायण यज्ञ का वर्णन कहीं पढऩे-देखने को हमें मिला नहीं, किसी महानुभाव को मिला हो तो हमें भी अवगत कराने की कृपा करें। जब इसका वर्णन ही नहीं मिला तो इसकी विधि भी कैसे बता सकते हैं!

(ख) यज्ञोपवीत धारण करते समय जो दूसरे मन्त्र का पाठ किया जाता है, वह मन्त्र का आधा भाग है। आपका कथन है कि आधा भाग पूरा क्यों नहीं? इसमें हमारा कहना है कि अनेकत्र महर्षि की प्रवृत्ति देखी जाती है कि जितने भाग से प्रयोजन की सिद्धि हो रही है, उतने भाग को महर्षि ले लेते हैं, शेष को छोड़ देते हैं। यहाँ भी ऐसा ही है, इसलिए आधा भाग दिया है।

यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।

अर्थात् तू यज्ञोपवीत है, तुझे यज्ञ कार्य के लिए यज्ञोपवीत के रूप में ग्रहण करता हूँ। यहाँ यज्ञोपवीत ग्रहण करना था इसलिए ‘उपनह्यामि’ तक का भाग ले लिया।

ग्रह्यसूत्र में ‘उपनह्यामि’ के बाद जो मन्त्र का भाग है वह यज्ञोपवीत विषयक नहीं है, उससे आगे प्रकरण बदल जाता है। वस्त्र, दण्ड आदि ग्रहण करने का प्रकरण प्रारम्भ हो जाता है, इसलिए मन्त्र का जितना भाग आवश्यक था, महर्षि उतने भाग का विनियोग कर लिया, शेष का नहीं।

(ग) ‘आघारावाज्याभागाहुति’ जब-जब देनी हो, तब-तब सुनिश्चित भाग में ही देनी चाहिए, यही उचित है।

(घ) यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् ‘इदं न मम’ वाक्य कहाँ-कहाँ बोला जाता है और कहाँ नहीं, इसका ज्ञान हमें नहीं है, कहीं पढऩे को भी नहीं मिला, इसलिए इस विषय में कुछ कह नहीं सकते। हाँ, जैसा महर्षि ने निर्देश किया है, वैसा करते रहें, जब अधिक जानकारी प्राप्त हो जाये तो अधिक किया जा सकता है। अलम्।

 

ये प्रश्र कोई नये नहीं हैं:- राजेन्द्र जिज्ञासु

दो प्रश्र किन्हीं लोगों ने हमारे आर्य युवकों से पूछे हैं। हर वस्तु को बनाने वाला,जगत् को बनाने वाला और हमें बनाने वाला जब परमात्मा है तो फिर परमात्मा को बनाने वाला कौन है? यह प्रश्र इस्लाम, ईसाई मत से तो पूछा जा सकता है। हम वैदिकधर्मी तो ईश्वर, जीव व प्रकृति को अनादि मानते हैं। यह ऊपर बताया जा चुका है। श्री लाला हरदयालजी ने भी यह प्रश्र उठाया है। बनी हुई वस्तु (मिश्रित) का तो कोई बनाने वाला होता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति (अपने मूल स्वरूप में) अमिश्रित हैं। इनको बनाने का प्रश्र ही नहीं उठता। पूरे विश्व में सारे वैज्ञानिक अब एक स्वर में यह घोषणा कर रहे हैं कि प्रकृति को न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही इसका नाश होता है। इस युग में यह ऋषि की बहुत बड़ी वैचारिक विजय है। यह हमारी एक मूल मान्यता है।

दूसरा प्रश्र भी बड़ा विचित्र है। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, जैसे कि परमात्मा, तो फिर परमात्मा उनसे बड़ा कैसे? प्रभु इनको नियन्त्रण में कैसे करता है? प्रश्र तो अच्छा है, परन्तु पढ़े-लिखे प्रश्रकत्र्ता यह भूल जाते हैं कि नियन्त्रण करने का आयु से कोई सम्बन्ध ही नहीं। मौलवी लोग चाँदापुर शास्त्रार्थ के समय से यह कहते आ रहे हैं कि जब जीवों को प्रभु ने पैदा ही नहीं किया तो फिर वह हमारा मालिक (स्वामी) कैसे हो सकता है।

अध्यापक ने विद्यार्थियों को पैदा नहीं किया। शासक प्रशासक आयु में भले ही छोटे हों, बड़ी आयु की प्रजा पर उन्हीं का नियन्त्रण होता है। संसार में गुणों से, योग्यता से, बल से दूसरों को वश में रखा जाता है। अपने खेतों को, मकान को, सामान को क्या हमने पैदा किया है? हम उसके स्वामी कहलाते हैं। पूज्य देहलवी जी ने पानीपत के एक शास्त्रार्थ में अपने प्रतिपक्षी मौलवी के इसी प्रश्र के उत्तर में कहा था, क्या तुम्हारी बीवी को तुमने पैदा किया है? वह आपके वश में है। आप उसके मालिक कहलाते हो। ठाकुर अमरसिंह जी ने मौलवी सनाउल्ला को घेरते हुए कहा कि आप जॉर्ज छठे से आयु में बड़े हैं, परन्तु सम्राट् की प्रजा के नाते उसके नियन्त्रण में हैं। घोड़ा आयु में बड़ा होता है फिर भी छोटी आयु का सवार उससे काम लेता है। इन बातों पर विचार करने से शंका का समाधान हो जाता है।

जिज्ञासा समाधान :- आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १- ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में लिखा है कि सृष्टि के प्रारम्भ में हजारों-लाखों मनुष्य परमात्मा ने अमैथुन से पैदा किये थे। यही सत्यार्थ प्रकाश में भी माना है। उन लाखों मनुष्यों में चार ऋषि भी पैदा हुये जो अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा थे। उनको परमात्मा ने एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। उस काल में स्त्रियाँ भी पैदा हुई होंगी, परन्तु परमात्मा ने एक या दो स्त्रियों को भी वेद का ज्ञान क्यों नहीं दिया? क्या परमात्मा के घर से भी स्त्रियों के साथ पक्षपात हुआ? इसका समाधान करें।

समाधान-(क) वेद परमात्मा का पवित्र ज्ञान है। यह वेदरूपी पवित्र ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए है। वेद मनुष्य मात्र का धर्मग्रन्थ है। सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने सभी मनुष्यों के लिए यह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान परमात्मा ने ऋषियों के हृदयों में दिया। चार वेद चार ऋषियों के हृदय में प्रेरणा कर के दिये। ऋग्वेद अग्रि ऋषि को, यजुर्वेद वायु नामक ऋषि को, सामवेद आदित्य ऋषि को और अथर्ववेद अंगिरा ऋषि को प्रदान किया। आपकी जिज्ञासा है कि वेद का ज्ञान ऋषियों (पुरुषों) को ही क्यों दिया, एक-दो स्त्री को क्यों नहीं दिया? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द ने जो लिखा वह यहँा लिखते हैं-‘‘प्र.- ईश्वर न्यायकारी है वा पक्षपाती? उत्तर- न्यायकारी। प्र.- जब परमेश्वर न्यायकारी है, तो सब के हृदयों में वेदों का प्रकाश क्यों नहीं किया? क्योंकि चारों के हृदय में प्रकाश करने से ईश्वर में पक्षपात आता है।

उत्तर- इससे ईश्वर में पक्षपात का लेश (भी) कदापि नहीं आता, किन्तु उस न्यायकारी परमात्मा का साक्षात् न्याय ही प्रकाशित होता है, क्योंकि ‘न्याय’ उसको कहते हैं कि जो जैसा कर्म करे, उसको वैसा ही फल दिया जाये। अब जानना चाहिए कि उन्हीं चार पुरुषों का ऐसा पूर्व पुण्य था कि उनके हृदय में वेदों का प्रकाश किया गया।’’ -ऋ.भा.भू.

‘‘प्रश्न-उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया, अन्य में नहीं, इससे ईश्वर पक्षपाती होता है।

उत्तर-वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे। अन्य उनके सदृश नहीं थे, इसलिए पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया।’’ – स.प्र. ७

महर्षि के वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि परमात्मा पक्षपाती नहीं, अपितु इन चारों को वेद का ज्ञान देने से परमेश्वर का न्याय ही द्योतित हो रहा है। यदि इन चार ऋषियों जैसी पुण्य-पवित्रता किसी स्त्री में होती तो परमात्मा स्त्री को भी वेद का ज्ञान दे देता। परमात्मा तो योग्यता के अनुसार ही फल देता है। पक्षपात कभी नहीं करता। जिस आत्मा के पुरुष शरीर प्राप्त करने के कर्म हैं, उसको पुरुष और जिसके स्त्री बनने के कर्म हैं उसको स्त्री का शरीर देता है।

वेदों का ज्ञान ऋषियों को दिया, स्त्रियों को नहीं-इससे यह बात भी ज्ञात हो रही है कि स्त्री का शरीर पुरुष शरीर की अपेक्षा कुछ कम पुण्यों का फल है। अर्थात् अधिक पुण्यों का फल पुरुष शरीर और उससे कुछ हीन पुण्यों का फल स्त्री शरीर। परमेश्वर की दृष्टि में सब आत्मा एक जैसी हैं, आत्मा-आत्मा मेें परमेश्वर कोई भेद नहीं करता, किन्तु कर्मों के आधार पर तो भेद दृष्टि रखता है।

स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं, बराबर का अधिकार होना चाहिए। यह इस रूप में उचित है कि दोनों अपनी उन्नति करने में स्वतन्त्र हैं, मुक्ति के अधिकारी दोनों बराबर है, ज्ञान प्राप्त करने में दोनों समान रूप से अधिकारी हैं, दोनों काम करने में स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर ने यह सब दोनों को समान रूप से दे रखा है, किन्तु शरीर की दृष्टि से तो भेद है ही। संसार में भी पुरुष के शरीर में अधिक सामथ्र्य देखने को मिलता है, स्त्री शरीर में कम (किसी अपवाद को छोडक़र)। पुरुष को अधिक स्वतन्त्रता है, स्त्री को कम स्वतन्त्रता है। मनुष्य समाज ने अन्यायपूर्वक स्त्रियों पर जो बन्धन लगा रखे हैं, उस परतन्त्रता को यहाँ हम नहीं कह रहे। जो परतन्त्रता प्रकृति प्रदत्त है, वह स्त्रियों में अधिक है पुरुष में कम। यह प्रकृति प्रदत्त स्वतन्त्रता-परतन्त्रता हमारे कर्मों का ही फल है, पुण्यों का फल है। जिसके जितने अधिक पुण्य होते हैं, परमात्मा उसको ज्ञान, बल, सामथ्र्य, साधन सम्पन्नता अधिक देता है और जिसके पुण्य न्यून होते हैं, उसको ये सब भी कम होते चले जायेंगे।

ज्ञान का मिलना भी हमारे पुण्यों का फल है, इसलिए वेदरूपी पवित्र ज्ञान पक्षपात रहित न्यायकारी परमात्मा ने आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए सबसे पुण्यात्मा पवित्र चार ऋषियों को ही दिया अन्यों को नहीं।