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“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 9″

“आठवे अध्याय का जवाब”

कोई भी जीव चाहे मनुष्य हो अथवा पशु व पक्षी मरते ही हैं और शरीर से आत्मा का वियोग होने पर वह शरीर रोगाणुओं और जीवाणुओ का घर बन जाता है जो सड़ता है, क्योंकि शरीर में मौजूद जो मिक्रोजियम्स हैं वह शरीर को अंदर से सडाना स्टार्ट करते हैं, अब देखने वाली बात है की जो मनुष्य जिंदगी भर जिया, उन्नत्ति की, इस प्रकृति से बहुत कुछ लिया, और अपनी पूरी जिंदगी प्रकृति के लिए यदि कुछ नहीं भी कर पाया तो, परिवार आदि के लिए बहुत कुछ किया, अथवा बहुत से कुछ नहीं भी कर पाते, तो सवाल उठता है, की अंतिम जो उसका क्रियाकर्म है वो किस प्रकार अच्छा हो सकता है, जो सुलभ हो, सस्ता हो, पर्यावरण हितकारी हो, तथा मनुष्यो के लिए भी लाभकारी हो।


मृत शरीर को ध्यान में रखते हुए अनेको मतों, सम्प्रदायों और पन्थो में अनेको परंपरा देखि जाती हैं, उनमे प्रमुख हैं :

1. शव दाह क्रिया।
2. मुर्दा गाड़ना।
3. मुर्दे को पानी में बहाना।
4. मुर्दे को पशु पक्षियों हेतु भोजन के लिए छोड़ देना।

अब इनमे से मुर्दे को बहाना और पशु पक्षियों हेतु भोजन के लिए छोड़ देना न तो युक्तिसंगत है न ही तर्कसंगत है, क्योंकि इससे पर्यावरण का बहुत विकार होता है। क्योंकि दोनों ही क्रियाओ से शव का अवशेष प्रकृति को दूषित करते हैं।

अब बात आती है, मुर्दा जलाये अथवा गाड़ा जाए ?

विज्ञानिक दृष्टिकोण से मृत शरीर का pH बैलेंस बिगड़ता है और अति दुर्गन्ध बदबू आनी स्टार्ट हो जाती है, जब यह मृत शरीर जमीन में गाड़ा जाता है तब pH बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और प्राकृतिक रूप शरीर के “गुड न्यूट्रिएंट्स” बाहर नहीं निकल पाते जिससे जमीन के अंदर ही विकार उत्पन्न होता है और अधिक बदबू आती है। आप किसी भी दफनाने वाली जगह का अवलोकन करे, वहां के वातावरण में अजीब सी दुर्गन्ध आती रहती है।

जोआन कैरोल क्रूज़ अपनी पुस्तक The Incorruptibles: A Study of the Incorruption of the Bodies of Various Catholic Saints and Beati जो की १९७७ में छपी थी, पृष्ठ संख्या ३६२ पर लिखते हैं

“The sheer stench from decomposing corpses, even when buried deeply, was over overpowering in areas adjacent to the urban cemetery”

गहराई से दफ़न करने के बावजूद भी शवो के सड़ने की महा भयंकर दुर्गन्ध शहरी कब्रिस्तानों के निकटवर्ती क्षेत्रो में जोरदार तरीके से फैली थी।

इसका एक दूसरा पहलु और भी है इस तरह के मृत शरीर को दफनाए जाने से जमीन में सोडियम की मात्रा २०० से २००० गुना अधिक तक बढ़ जाती है जिससे पेड़ पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण है की मृत शरीर को दफनाने पर जमीन में अनेक तरह के बेक्टेरिआ और जानलेवा टॉक्सिन्स का निर्माण होने लगता है, अधिकतर पशुओ को जमीन में दफनाने से एक खतरनाक टोक्सिन botulinum टोक्सिन उत्पन्न होता है जो धरती में मौजूद पानी को विषैला करता जाता है जिससे कैंसर और अनेक प्रकार की भयंकर बीमारिया उत्पन्न होती हैं।

“Decomposition of the human body releases significant pathogenic bacteria, fungi, protozoa, and viruses which can cause disease and illness, and many urban cemeteries were located without consideration for local groundwater. Modern burials in urban cemeteries also release toxic chemicals associated with embalming, such as arsenic, formaldehyde, and mercury. Coffins and burial equipment can also release significant amounts of toxic chemicals such as arsenic (used to preserve coffin wood) and formaldehyde (used in varnishes and as a sealant) and toxic metals such as copper, lead, and zinc (from coffin handles and flanges)”

“कब्र में मानव शरीर (शव) के सड़ने पर अनेको गंभीर और रोगजनक बेक्टेरिआ, फाँगि (कवक), प्रोटोजोआ और वाइरेसस आदि उत्पन्न होते हैं, जो अनेको प्रकार के गंभीर रोग और बीमारियां उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं, और अनेको शहरी कब्रिस्तान बिना स्थानीय भूजल की परवाह किये स्थापित किये गए हैं। यहाँ तक की शहरी कब्रिस्तानों में मौजूद आधुनिक कब्रो में लेप किये गए शवो से हानिकारक टॉक्सिक केमिकल्स जैसे आर्सेनिक, फॉरमॉल्डहाइड, और मर्करी आदि जानलेवा तत्व उत्सर्जित होते हैं। इसके अतिरिक्त शवो के साथ कफ़न और दफ़न सामग्री से भी आर्सेनिक, फॉरमॉल्डहाइड, और टॉक्सिक धातु जैसे कॉपर, लेड और जिंक आदि उत्सर्जित होते हैं।”

Taylor, Richard; Allen, Alistair (2006). “Waste Disposal and Landfill: Potential Hazards and Information Needs”. In Schmoll, Oliver; Howard, Guy; Chilton, John; Chorus, Ingrid. Protecting Groundwater for Health: Managing the Quality of Drinking-Water Sources. Cornwall, U.K.: World Health Organisation. ISBN 9781843390794

ये तो वैज्ञानिक निष्कर्षो के आधार पर है की मुर्दा गाड़ने से कितनी हानियां हो सकती हैं, अब आपको समझाते हैं की मुर्दा गाड़ना कितना खर्चीला हो सकता है, देखिये :

टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हैदराबाद संस्करण (५ मई २०१२) में छपी खबर के मुताबिक मुर्दा गाड़ने के लिए उपयुक्त १५ गज जमीन का खर्च १८ हजार रूपये से १ लाख रूपये तक का है। वहीँ यदि कहीं मुर्दे को उसकी इच्छानुसार मुर्शिद (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) के नजदीक गाड़ना हो तो खर्च का कोई पारावार ही नहीं, बहुत अधिक हो सकता है, वहीँ दूसरी और नामपल्ली में ही यूसुफेन दरगाह जो ३० हजार स्क्वेर यार्ड में फैली है वहां ६ फ़ीट बाय ढाई फ़ीट की कब्र के लिए आपको ३० हजार से ८० हजार तक का खर्च आता है (ध्यान रखे ये २०१२ के आंकड़े हैं)

इसके अतिरिक्त दिल्ली जैसे महानगर में किसी कब्रिस्तान में मुर्दा गाड़ने का खर्च ३ हजार रूपये है, वहीँ यदि किसी मस्जिद के निकट के कब्रिस्तान में मुर्दा गाड़ना हो तब इसका खर्च १५ हजार से शुरू होकर ५० हजार रूपये है, लेकिन यदि आपको लोक नायक अस्पताल के पीछे जो ऐतिहासिक मेहदियां कब्रिस्तान है वहा मुर्दा गाड़ना हो तो उसका खर्च ५० हजार से शुरू होता है और लाखो रूपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं।

मशकर रशीद जो दिल्ली गेट कब्रिस्तान के केयरटेकर हैं बताते हैं की “दिल्ली गेट कब्रिस्तान में कब्र का खर्च २८०० रूपये है, लेकिन शहर के अलग अलग कब्रिस्तान में अधिकतर ५००० रूपये शुरूआती खर्च है, लेकिन जगह की कमी के चलते, उनसे अधिक रूपये भी वसूले जा सकते हैं।
(डेक्केन हेराल्ड ४ नवम्बर २०१२)

इन खबरों में ये भी बताया गया की ईसाई समुदाय के लिए जो खर्च है कब्र का वो कम से कम ३००० रूपये से १०००० रूपये तक जाता है। (डोमिनिक जूलियस, सम्बंधित दिल्ली कब्रिस्तान कमेटी)

ध्यान रहे ये आंकड़े केवल २०१२ तक के हैं, अभी २०१५ चल रहा है, तो इसमें कितना इजावा हुआ होगा, कह नहीं सकते। कब्रिस्तान में मुर्दो को गाड़ना ही जब इतना महंगा है, तब इसके अतिरिक्त जो अन्य खर्च आता है, वो अलग ही होगा, तब एक मुर्दा गाड़ने पर कितना खर्च आ सकता है, आप अंदाजा लगा सकते हैं।

अब हम आपको कब्रिस्तान की जमीन और शहरो की वास्तविकता का बोध करवाते हैं, देखिये १९०१ में अकेले दिल्ली राज्य की जनसँख्या ४ लाख थी लेकिन २०१२ में दिल्ली की जनसँख्या लगभग २ करोड़ के आसपास पहुंच गयी है। ऐसे में दिल्ली में लगभग बड़े और छोटे १०० कब्रिस्तान मौजूद हैं जो मुस्लिम समाज के लिए उपलब्ध हैं, इसके अतरिक्त सरकार ने सीलमपुर और कुंडली इलाके के लिए कुछ साल पहले ही कब्रिस्तान की जगह मुहिया करवाई है, वहीँ ईसाई समुदाय के लिए दिल्ली में ११ कब्रिस्तान मौजूद हैं, जिसमे द्वारका और बुराड़ी को अभी हाल में ही सरकार ने मुहिया करवाया है, ये सब जगह इसलिए मुहिया करवाई गयी है, क्योंकि पिछले कब्रिस्तान में जगह नहीं बची।

अब जरा एक बार को सोचिये, इतनी जगह अकेले दिल्ली में ही मुर्दो के आश्रय स्थल हेतु आरक्षित है, और वो भी कम पड़ रही है, तो नयी जगह अलॉट की जा रही हैं, जबकि आबादी के हिसाब से मुस्लिम और इसाई आबादी भारत में तेजी से बढ़ रही है, और विश्व जनसँख्या के हिसाब से तो खुद मुस्लिम समुदाय स्वीकार करते हैं की वो तेजी से ग्रोथ कर रहे हैं, ऐसी स्थति में, कितनी जगह मुर्दो के आश्रय स्थली हेतु आरक्षण के लिए दी जायेगी ?

जबकि आज पूरी दुनिया खाद्यान्न और रहने की मूलभूत समस्याओ से ग्रस्त है, जो जिन्दा व्यक्ति हैं उनके पास रहने को जगह नहीं, किसान खेती की जमीन को तरस रहा है, वहीँ दूसरी और मुर्दो के लिए इतनी बड़ी तादाद में जमीन को आश्रय स्थल बनाना क्या युक्तियुक्त है ?

अब हम आते हैं, शमशान घाट की स्थति पर, शमशान घाट एक जगह बनता है, और उसको दूर दूर के लोग भी सुगमता से उपयोग करते हैं, क्योंकि शरीर के भस्मीभूत होने पर वो जगह खाली हो जाती है अतः उसी जगह अनेको शवो का शवदाह आराम से हो सकता है, रही बात खर्चे की तो सामान्य व्यक्ति के लिए नाममात्र खर्च होता है, लकड़ी के अमूमन १५०० रूपये और घी के अधिकतम ६०० रूपये बाकी अन्य सामान की लगत १००० तो कुल खर्च करीब ३१०० रूपये आता है, यदि आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद के ही सिद्धांतो को अपनाकर खर्च सिद्ध करना चाहता है तब भी ये खर्च अधिकतम 1-2 लाख रूपये तक जाता है। लेकिन यहाँ इस सिद्धांत में जो जमीन का खर्च है वो नगण्य है, वहीँ दूसरी और १ लाख रूपये तो कब्र के खर्चे पर भी आ रहा है, साथ ही करोडो रूपये की जमीन जो केवल मुर्दो की आश्रय स्थली बनी रह जायेगी वो अलग है। तब भी महर्षि दयानंद का सिद्धांत ही सिद्ध होता है, और वो सुलभ है, सस्ता है, मनुष्यो के लिए अतयंत लाभकारी है, क्योंकि इससे जमीन की बचत होती है।

वही “International Cremation Statistics 2008” के मुताबिक पूरी दुनिया में भारत में ८५%, चीन 45.6% २०१४ में, जापान 99.85% २००८ में, ताइवान 92.47% 2013 में शव दाह संस्कार कर चूका है, वहीँ दूसरी और यूरोपीय देशो में १९६० में ३५% दाह संस्कार हुए थे जो २००८ में बढ़ाकर दुगने 72.44% पहुंच गए इसके अतरिक्त फ्रांस पेरिस में ३२% से बढ़कर ४५% तक दाह संस्कार का आंकड़ा पहुंच चूका है। वहीँ अमेरिका की दाह संस्कार संस्था की मानना है की २०२५ तक दाह संस्कार का आंकड़ा ५०% को पार कर जाएगा, क्योंकि १९६० में ये आंकड़ा महज 3.5% था जो २०१० तक ४१% तक पहुंच गया।

पूरी दुनिया, में आज जमीन को लेकर बड़ी समस्या है, क्योंकि कोई भी विकासशील देश को विकसित होने हेतु जमीन चाहिए, किसान को खेती के लिए जमीन चाहिए, उद्योग के लिए जमीन चाहिए, यानी जमीन की इस कदर समस्या है की विकास के लिए जमीन चाहिए मगर यही जमीन यदि केवल मुर्दो की आश्रय स्थली बना दी जाए, तो क्या देश का विकास संभव है ?

यदि शव दाह क्रिया विज्ञानं सम्मत न होती तो आज जो भी विकसित राष्ट्र हैं वो क्यों इसे अपनाते ? जाहिर सी बात है, सही तरीके से किया गया शव दाह, कभी भी प्रदूषण नहीं फैलाता, उलटे वातावरण को प्रदुषण से बचाता है।

आक्षेपकर्ता को यदि अभी भी केवल आक्षेप ही करने हैं तो वो स्वतंत्र है, मगर यदि, वैज्ञानिक, और राष्ट्र को बढ़ाने के योगदान, तथा गरीबो की आर्थिक स्थति को देखते हुए अवलोकन करे, तो मुर्दा गाड़ने की बजाये शव को जलाना अधिक युक्तियुक्त, विज्ञानं समत्त और तार्किक है, साथ ही इससे देश, किसान और खाद्यान्न की समस्या का भी छुटकरा है।

आओ लौटो वेदो की और

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 10″

“नौवे अध्याय का जवाब पार्ट 1”

सन १९४३ ई० तक इन भाषाओं में सत्यार्थ प्रकाश के अनुवाद होने का पता चलता है : बंगाली, उर्दू (दो भिन्न भिन्न अनुवाद) अंग्रेजी (दो भिन्न भिन्न अनुवाद), पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, उड़िया, कनाडी, तामिल, तेलुगु, मलयालम, मरहठी, गुजराती, फ्रेंच, जर्मन, पश्तो, ब्रह्मी, और नेपाली। इनमे से कुछ भाषाओ के अनेक संस्करण निकल चुके हैं। अब यह ज्ञात हो की कुछ भाषाओ में अनुवादों के प्रथम प्रकाशित होने का समय इस प्रकार है :


उर्दू में अनुवाद (1) १८९७ ई०,
उर्दू में अनुवाद (2) १८९८ ई०
अंग्रेजी में अनुवाद (1) १९०६ ई०
अंग्रेजी में अनुवाद (2) १९०८ ई०
संस्कृत में अनुवाद १९२५ ई०

निदान सत्यार्थ प्रकाश के प्रेमी व समर्थको का अंदाजा इसी बात से बहुत कुछ हो सकता है की मूलग्रंथ व अनुवादों का प्रकाशन बहुत ज्यादा हुआ ; परन्तु साथ ही साथ इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की इसके विरोध में भी अब (सन १८४४ ई०) तक जितना कार्य हुआ है उसको यथोचित रूप से जतलाने के निमित्त यहाँ पर काफी स्थान नहीं।

सत्यार्थ प्रकाश का संशोधित संस्करण जो पहिले पहिले सन १८८४ ई० में प्रकाशित हुआ है और जिसका आर्य सामाजिक जगत में चलन है उसके विषय में अनेक विरोधी लोगो ने इस प्रकार भरम फैलाया है की यह संस्करण महर्षि दयानंद का लिखा हुआ नहीं है क्योंकि वह सन १८८३ ई० में शरीर त्याग कर गए हैं और उक्त संशोधित संस्करण उनकी मृत्यु के पश्चात सन १८८४ ई० में निकला है और असली सत्यार्थ प्रकाश वह है जो सं १८७५ ई० अर्थात उनके जीवन काल में निकला है।

ऐसी बात के विषय में यह जान लेना चाहिए की स्वामीजी ने संशोधित संस्करण की सामग्री सितमबर सन १८८२ ई० (भाद्र शुक्ल पक्ष सं० १९३९ वि०) में ही तैयार कर दी थी (सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका – लेखक) उस समय में वह उदयपुर में विराजमान थे और बाद को अंत समय तक राजपुताना में ही रहे जिस का लेखा इस प्रकार है की पहली मार्च सन १८८३ ई० में गुरुवार को प्रातः काल ही उन्होंने उदयपुर से प्रस्थान किया। सांयकाल के लगभग निंबाहेड़ा में पहुंचे और रात्रि में चित्तोड़ में विराजे। इसके पश्चात राजपुताना के अन्य स्थानो में आगमन व प्रस्थान का विवरण यह था :

१ मार्च १८८३ आगमन – चित्तोड़ – प्रस्थान ७ मार्च १८८३
८ मार्च १८८३ आगमन – रूपाहेली – प्रस्थान ८ मार्च १८८३
८ मार्च १८८३ आगमन – शाहपुरा – प्रस्थान २८ मई १८८३
२८ मई १८८३ आगमन – अजमेर – प्रस्थान २९ मई १८८३
२९ मई १८८३ आगमन – पाली – प्रस्थान ३० मई १८८३
३० मई १८८३ आगमन – रोहट – प्रस्थान ३१ मई १८८३
३१ मई १८८३ आगमन – जोधपुर – प्रस्थान १६ अक्तूबर १८८३
१७ अक्तूबर १८८३ आगमन – रोहट – प्रस्थान १८ अक्तूबर १८८३
१८ अक्तूबर १८८३ आगमन – पाली – प्रस्थान २० अक्तूबर १८८३
२१ अक्तूबर १८८३ आगमन – आबू – प्रस्थान २६ अक्तूबर १८८३
२७ अक्तूबर १८८३ आगमन – अजमेर – मृत्यु ३० अक्तूबर १८८३

सत्यार्थ प्रकाश का छपना प्रयाग में हुआ था। प्रेस में छपाई विषयक जो सुगमताये इस समय (सन १९४४) में हैं वह उस समय कदापि न थी। प्रेस का प्रबंध भी बहुत संतोषजनक न था। छपाई का काम बहुत था। कुछ अन्य लोगो का कार्य भी छपाई का होता था। (‘ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन’ प्रथम भाग श्री पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित – अक्तूबर सन १९७२ ई० प्रकाशित के पत्र संख्या ३, ८, १०, ४४, ४६, ४७, ४८, ५०, ५१ – लेखक)। हाँ ऋग्वेद और यजुर्वेद भाष्य के मासिक अंक भी प्रेस से ही निकलते थे।

उदयपुर से चित्तोड़ तक उस समय रेल न थी। शाहपुरा से सबसे अधिक नज़दीक वाला रेलवे स्टेशन १५ मील से कम दूर नहीं। पाली से जोधपुर तक रेलवे न थी। निदान डाक की सुगमताये अब जैसी उस समय न थी। सत्यार्थप्रकाश का सन १८८४ ई० का संस्करण रॉयल साइज़ कागज़ २० x २६ में १० इंच और ६।। इंच आकार में कुल ६०६ पृष्ठों का है। ५९२ पृष्ठों में मूल सामग्री है। १४ पृष्ठों में विषय सूचि व शुद्धि – अशुद्धि आदि के पन्ने हैं। दो नंबर ब्लेक फेस पैका (अर्थात पतले बारीक टाइप – लेखक) में अधिकांश ग्रन्थ है। बीच बीच में श्लोक आदि कुछ मोटे टाइप में हैं कुछ पृष्ठों को छोड़कर बाकी पृष्ठों में ३५ सतरे हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ २ हजार की संख्या में छपा था।

स्वामीजी को सन १८८३ ई० २९ सितमबर को जहर दिया गया था। इसी सन में ३० अक्तूबर को वह शरीर छोड़ गए थे। उनकी मृत्यु से समस्त आर्य जनता तथा प्रेस के प्रबंध पर विशेष रूप से अच्छा प्रभाव न पड़ा था। पहले बतलाया जा चूका है की सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका से स्पष्ट है की उसकी सामग्री सितमबर सन १८८२ ई० में ही तैयार कर दी गयी थी अतः उक्त प्रकार की आपत्तियों अथवा वर्तमान काल (सन १९४४ ई०) की सी सुगमताओ के न होने से सत्यार्थ प्रकाश ऐसा बड़ा ग्रन्थ स्वामीजी महाराज की देख रेख में उनके जीवन काल में पूरा पूरा न छप सका था। स्वामीजी महाराज के पत्र (‘ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन’ प्रथम भाग श्री पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित पत्र नं० ५१ – लिखित आश्विन बदी १३ संवत १९४० वि० अर्थात २९ सितम्बर सन १८८३ – लेखक) से स्पष्ट है की उनके जीवनकाल में ईसाइयो से सम्बन्ध रखने वाला तेरहवा समुल्लास छप रहा था। सत्यार्थ प्रकाश में कुल १४ समुल्लास हैं और चौदवे के पश्चात कुछ पृष्ठ “स्वमानतामंतव्य प्रकाश: के हैं। सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका वाले समय अर्थात सितमबर सन १८८२ ई० से सितम्बर सन १८८३ ई० तक में कुल बारे समुल्लास छप सके थे। निदान स्वामीजी की बीमारी व मृत्यु के पश्चात अधिक से अधिक चार मास अर्थात सं १८८४ ई० के प्रारंभिक भाग में प्रकाशित हो गया होगा।

(सत्यार्थ प्रकाश विषयक भ्रम, लेखक महेश प्रसाद, मौलवी आलिम फाजिल)

उक्त बाते श्रीमान लेखक ने बहुत ही सुंदरता और स्पष्टता के साथ बताई हैं जिनसे ज्ञात होता है की, सत्यार्थ प्रकाश के पूर्वरार्ध और उत्तरार्ध के समुल्लास महर्षि दयानंद जी की ही रचना थी, इन्हे बाद में किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं जोड़ा, हाँ क्योंकि राजा जी ने सत्यार्थ प्रकाश को छपवाने का जिम्मा लिया था और उस समय आज के जैसी सुगमता नहीं थी, क्योंकि जहाँ सत्यार्थ प्रकाश छप रहा था वो प्रयाग था, और वहां प्रबंध संतोषजनक भी न था, बहुत अधिक काम छपाई का प्रेस में होता था, और ऋग्वेद, यजुर्वेद भाष्य के अंक भी इसी प्रेस से छप रहे थे, इस कारण अपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ, लेकिन ऊपर ये भी बताया की स्वामी जी के पत्र से ज्ञात होता है की उनके जीवन काल में ही ईसाइयो से सम्बंधित १३वा समुल्लास छप रहा था और स्वामी जी की भूमिका से भी स्पष्ट है की इस ग्रन्थ के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के भाग मिलकर १४ समुल्लास और चौदवे समुल्लास पश्चात कुछ पृष्ठ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के हैं, अतः आक्षेपकर्ता का कथन की तेरहवा और चौदहवाँ समुल्लास, ऋषि दयानंद की कृति नहीं, यह खंडित हो जाता है। हाँ ऋषि की देख रेख में उनके जीवन काल में सत्यार्थ प्रकाश पूरा का पूरा न छप सका, ये बात ठीक विदित होती है।

अब हम आगे बढ़ते हैं, आक्षेपकर्ता का विचार है की ऋषि क़ुरान और मुहम्मद साहब पर आक्षेप करते हुए, क़ुरान को जाहिल, असभ्य, मुर्ख, अल्पज्ञ और जंगली का लिखा हुआ बताते हैं, ये गलत है।

यहाँ हम केवल वो बताएँगे जो ऋषि ने क़ुरान को देख, समझ कर अपने विचार व्यक्त करे, पाठकगण स्वयं अवलोकन करे :

९०-निश्चय परवरदिगार तुम्हारा अल्लाह है जिस ने पैदा किया आसमानों और पृथिवी को बीच छः दिन के। फिर करार पकड़ा ऊपर अर्श के, तदबीर करता है काम की।। -मं० ३। सि० ११। सू० १०। आ० ३।।

(समीक्षक) आसमान आकाश एक और बिना बना अनादि है। उस का बनाना लिखने से निश्चय हुआ कि वह कुरानकर्त्ता पदार्थविद्या को नहीं जानता था? क्या परमेश्वर के सामने छः दिन तक बनाना पड़ता है? तो जो ‘हो मेरे हुक्म से और हो गया’ जब कुरान में ऐसा लिखा है फिर छः दिन कभी नहीं लग सकते।। इससे छः दिन लगना झूठ है। जो वह व्यापक होता तो ऊपर अर्श के क्यों ठहरता? और जब काम की तदबीर करता है तो ठीक तुम्हारा खुदा मनुष्य के समान है क्योंकि जो सर्वज्ञ है वह बैठा-बैठा क्या तदबीर करेगा? इस से विदित होता है कि ईश्वर को न जानने वाले जंगली लोगों ने यह पुस्तक बनाया होगा।।९०।।

१०८-और वह जो लड़का, बस थे माँ बाप उस के ईमान वाले, बस डरे हम यह कि पकड़े उन को सरकशी में और कुफ्र में।। यहां तक कि पहुँचा जगह डूबने सूर्य्य की, पाया उसको डूबता था बीच चश्मे कीचड़ के ।। कहा उन ने ऐजुलकरनैन! निश्चय याजूज माजूज फिसाद करने वाले हैं बीच पृथिवी के।। -मं० ४। सि० १६। सू० १८। आ० ८०। ८६। ९४।।

(समीक्षक) भला! यह खुदा की कितनी बेसमझ है! शंका से डरा कि लड़के के माँ बाप कहीं मेरे मार्ग से बहका कर उलटे न कर दिये जावें। यह कभी ईश्वर की बात नहीं हो सकती। अब आगे की अविद्या की बात देखिये कि इस किताब का बनाने वाला सूर्य्य को एक झील में रात्रि को डूबा जानता है, फिर प्रातःकाल निकलता है। भला! सूर्य्य तो पृथिवी से बहुत बड़ा है। वह नदी वा झील वा समुद्र में कैसे डूब सकेगा? इस से यह विदित हुआ कि कुरान के बनाने वाले को भूगोल खगोल की विद्या नहीं थी। जो होती तो ऐसी विद्याविरुद्ध बात क्यों लिख देता । और इस पुस्तक को मानने वालों को भी विद्या नहीं है। जो होती तो ऐसी मिथ्या बातों से युक्त पुस्तक को क्यों मानते? अब देखिये खुदा का अन्याय! आप ही पृथिवी को बनाने वाला राजा न्यायाधीश है औार याजूज माजूज को पृथिवी में फसाद भी करने देता है। यह ईश्वरता की बात से विरुद्ध है। इस से ऐसी पुस्तक को जंगली लोग माना करते हैं; विद्वान् नहीं।।१०८।।

१२०-नहीं तू परन्तु आदमी मानिन्द हमारी बस ले आ कुछ निशानी जो है तू सच्चों से।। कहा यह ऊंटनी है वास्ते उस के पानी पीना है एक बार।। -मं० ५। सि० १९। सू० २६। आ० १५४। १५५।।

(समीक्षक) भला! इस बात को कोई मान सकता है कि पत्थर से ऊंटनी निकले! वे लोग जंगली थे कि जिन्होंने इस बात को मान लिया। और ऊंटनी की निशानी देनी केवल जंगली व्यवहार है; ईश्वरकृत नहीं। यदि यह किताब ईश्वरकृत होती तो ऐसी व्यर्थ बातें इस में न होतीं।।१२०।।

१२१-ऐ मूसा बात यह है कि निश्चय मैं अल्लाह हूँ गालिब।। और डाल दे असा अपना, बस जब कि देखा उस को हिलता था मानो कि वह सांप है—ऐ मूसा मत डर, निश्चय नहीं डरते समीप मेरे पैगम्बर।। अल्लाह नहीं कोई माबूद परन्तु वह मालिक अर्श बड़े का।। यह कि मत सरकशी करो ऊपर मेरे और चले आओ मेरे पास मुसलमान होकर।।

-मं० ५। सि० १९। सू० २७। आ० ९। १०। २६। ३१।।

(समीक्षक) और भी देखिये अपने मुख आप अल्लाह बड़ा जबरदस्त बनता है। अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना श्रेष्ठ पुरुष का भी काम नहीं; खुदा का क्योंकर हो सकता है? तभी तो इन्द्रजाल का लटका दिखला जंगली मनुष्यों को वश कर आप जंगलस्थ खुदा बन बैठा। ऐसी बात ईश्वर के पुस्तक में कभी नहीं हो सकती। यदि वह बड़े अर्श अर्थात् सातवें आसमान का मालिक है तो वह एकदेशी होने से ईश्वर ही नहीं हो सकता है। यदि सरकशी करना बुरा है तो खुदा और मुहम्मद साहेब ने अपनी स्तुति से पुस्तक क्यों भर दिये? मुहम्मद साहेब ने अनेकों को मारे इस से सरकशी हुई वा नहीं? यह कुरान पुनरुक्त और पूर्वापर विरुद्ध बातों से भरा हुआ है।।१२१।।

ऐसी ऐसी अनेक बाते क़ुरान में भरी पड़ी हैं, जिनपर ऋषि ने आक्षेप किये, अब पाठक स्वयं जाने की क्या आकाश कोई वस्तु है जो फट जावे ? क्या तारे झड़ सकते हैं ? क्या पहाड़ चल सकते हैं ? क्या सूरज और चाँद टकरा सकते हैं ? क्या चाँद के टुकड़े हो सकते हैं ? आदि अनेको बातो पर ऋषि ने आक्षेप करते हुए इन बातो को असभ्य, जंगली और मुर्ख व्यक्ति का ज्ञान बताया था।

अब ऋषि ने आक्षेप में क्या गलत लिखा, जबकि ऋषि तो क़ुरान की लिखी कुछेक अच्छी और सच्ची बात को मुक्तकंठ से सत्य बात कहते हैं देखिये :

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।।

३९-प्रश्न करते हैं तुझ से रजस्वला को कह वो अपवित्र हैं। पृथक् रहो ऋतु समय में उन के समीप मत जाओ जब तक कि वे पवित्र न हों। जब नहा लेवें उन के पास उस स्थान से जाओ खुदा ने आज्ञा दी।। तुम्हारी बीवियां तुम्हारे लिये खेतियां हैं बस जाओ जिस तरह चाहो अपने खेत में।। तुम को अल्लाह लगब (बेकार, व्यर्थ) शपथ में नहीं पकड़ता।।

-मं० १। सि० २। सू० २। आ० २२२। २२३। २२४।।

(समीक्षक) जो यह रजस्वला का स्पर्श संग न करना लिखा है वह अच्छी बात है। परन्तु जो यह स्त्रियों को खेती के तुल्य लिखा और जैसा जिस तरह से चाहो जाओ यह मनुष्यों को विषयी करने का कारण है। जो खुदा बेकार शपथ पर नहीं पकड़ता तो सब झूठ बोलेंगे शपथ तोडें़गे। इस से खुदा झूठ का प्रवर्त्तक होगा।।३९।।

१२४-और आज्ञा दी हम ने मनुष्य को साथ मा बाप के भलाई करना और जो झगड़ा करें तुझ से दोनों यह कि शरीक लावे तू साथ मेरे उस वस्तु को, कि नहीं वास्ते तेरे साथ उस के ज्ञान, बस मत कहा मान उन दोनों का, तर्फ मेरी है।। और अवश्य भेजा हम ने नूह को तर्फ कौम उस के कि बस रहा बीच उन के हजार वर्ष परन्तु पचास वर्ष कम।। -मं० ५। सि० २०। सू० २९। आ० ८। १४।।

(समीक्षक) माता-पिता की सेवा करना अच्छा ही है जो खुदा के साथ शरीक करने के लिये कहे तो उन का कहना न मानना यह भी ठीक है परन्तु यदि माता पिता मिथ्याभाषणादि करने की आज्ञा देवें तो क्या मान लेना चाहिये? इसलिये यह बात आवमी अच्छी और आधी बुरी है। क्या नूह आदि पैगम्बरों ही को खुदा संसार में भेजता है तो अन्य जीवों को कौन भेजता है? यदि सब को वही भेजता है तो सभी पैगम्बर क्यों नहीं? और जो प्रथम मनुष्यों की हजार वर्ष की आयु होती थी तो अब क्यों नहीं होती? इसलिये यह बात ठीक नहीं।।१२४।।

महर्षि दयानंद तो सत्य के मानने वाले थे, इसीलिए सदैव असत्य को त्यागने हेतु लोगो को समझाते रहते थे, सत्यार्थ प्रकाश में भी ऋषि ने लिखा है :

यद्यपि में आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बस्ता हु तथापि जैसे इस देश के मत-मतांतरों की झूठी बातो का पक्षपात न कर यथासत्य प्रकाश करता हु वैसे ही दूसरे देशस्थ व मतोन्नतिवालो के साथ भी बर्तता हु।

(सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका – दयानंद)

अब देखो, ऋषि ने जहाँ भी गलत और मिथ्या बात देखि उसका खंडन किया। अतः लेखक का ये आक्षेप की ऋषि ने बेवजह क़ुरान पर आरोप लगाये खंडित होता है।

इसी विषय पर अगले भाग में कुरान की मूल प्रति में छेड़ छाड़, व्याकरण की गड़बड़ी, क़ुरान का वैज्ञानिक स्तर और महर्षि दयानंद द्वारा वेद प्रतिपादित विज्ञानं पर विचार किया जाएगा।

““सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 11”

“नौवे अध्याय का जवाब पार्ट 2”

अब आक्षेपकर्ता कहते हैं की क़ुरान में पिछले १४०० साल से किसी अरबी विद्वान ने कोई गलती नहीं पकड़ी, भाषा संशोधन की आवश्यकता ही महसूस न हुई, इस दावे को भी जरा ध्यान से समझना चाहिए, देखिये, अरबी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए हैं, उनका नाम था “जलाल अल-दीन अल-सुयूती” इन्हे “इब्न अल-क़ुतुब” अर्थात “किताब का बेटा” नाम से भी जाना जाता है, आप मिस्र के धार्मिक विद्वान, कानूनी विशेषज्ञ और शिक्षक, तथा मध्य युग में इस्लामी धर्मशास्त्र विषयों पर विस्तृत तथा विविधतापूर्ण बेबाकी से लिखने वाले अरब लेखकों में से एक थे। आपको काहिरा में बेबार्स की मस्जिद में १४६२ में नियुक्त किया गया था। आपने जगप्रसिद्द रचना “द एतेक़ान” के दूसरे भाग में लगभग १०० पृष्ठों का निर्माण किया है, हम वहीँ से कुछ कुरान पर की गयी टिप्पण्यो से अवगत करवाते हैं, देखिये :


“द इत्तेकान” पुस्तक में “क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द” जो अत्यंत कठिन हैं, तथा शास्त्रीय अरबी भाषा की शब्दावली और इन अरबी शब्दों की अभिव्यक्ति भी अरब में मौजूद नहीं थी, क़ुरान में मौजूद भाषाओ की विविधता के चलते ही, विषय को समझाते हुए शफी लिखते हैं :

“No one can have a comprehensive knowledge of the language except a prophet” (Itqan II: p 106)

“भाषा का व्यापक ज्ञान नबी के अतिरिक्त और किसी को नहीं हो सकता”

अब यहाँ कुछ सवाल उतपन्न होते हैं, जब क़ुरान में ही अल्लाह मियां कहते हैं की ये क़ुरान सरल अरबी में दिया जाता है ताकि अरब वाले इससे शिक्षा प्राप्त कर सके (क़ुरान ४४:५९), तो जब क़ुरान में मौजूद विदेशी शब्द, या ऐसे शब्द जिनका ज्ञान खुद अरब वालो को नहीं, यहाँ तक कि मुहम्मद साहब के साथियो तथा रिश्तेदारो तक को नहीं पता था, तब ये क़ुरान कैसे सरलता से अरब के मुस्लिम बंधू समझ सकेंगे ? शफी खुद मान रहे की जो क़ुरान में विदेशी शब्द आये हैं, उनकी जानकारी मुहम्मद साहब के अतिरिक्त और किसी को नहीं, तब ऐसे में यदि अरब के जानकार मुस्लिम इस पुस्तक का ज्ञान न समझ पाये तो अरब से बाहर के लोग जो अरबी भाषा जानते तक नहीं, वो कैसे समझ पाएंगे ? क्या इससे सिद्ध नहीं होता की क़ुरान केवल अरब वालो के लिए ही थी ?

इस विषय पर “दी इत्तेकान” क्या कहते है, वह भी देखिये :

“It is utterly inadmissible for the Qur’an to be read in languages other than Arabic, whether the reader masters the language or not, during the prayer time or at other times, lest the inimitability of the Qur’an is lost.

यह पूरी तरसे से नकारने योग्य है की क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा या भाषाओ में पढ़ा जाए। चाहे पढ़ने वाला भले ही भाषाओ का विद्वान हो या न हो, चाहे प्रार्थना के समय पढ़ी जाए व किसी अन्य समय, यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाषा में पढ़ा जाए तो वो अनुकरणीय नहीं है, अर्थात अमान्य है।

यही कारण है की गैर-अरब व्यक्ति, क़ुरानी आयतो को केवल रटते हैं, वो भी बिना समझे क्योंकि ये अरबी में पढ़ना और बोलना ही मान्य है। इसी विषय पर बिलकुल यही विचार प्रकट करने वाले एक और इस्लामी विद्वान डॉ शालाबी अपनी पुस्तक “द हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ” पृष्ठ ९७ पर इसी बात को लिखते हुए कलम आगे चलाते हैं की :

“If the Qur’an is translated into a non-Arabic language, it will lose its eloquent inimitability. The inimitability is intended for itself. It is permissible to translate the meaning without being literal.”

यदि क़ुरान को अरबी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में भाषांतरित (भाष्य) किया जाए तो, क़ुरान अपनी मूल भाषाई सुंदरता, खो देगी, इसका अनुकरण केवल केवल अरबी भाषा ही है। ये भाष्य कुछ ऐसा ही होगा जैसे मूल शब्द के सटीक अर्थ रहित भाषांतर (भाष्य) की अनुमति होती है।

अब ऐसे में, आक्षेपकर्ता का कहना की महर्षि दयानंद को अरबी का ज्ञान नहीं था, इसलिए जो सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान पर आक्षेप किये वो गलत हैं, तो महर्षि पर दोषारोपण करने से पहले, कृपया उन भाष्यकारों पर आरोप खड़े करे, जिन्होंने क़ुरान का हिंदी में भाष्य किया, वैसे सभी जानते हैं की क़ुरान का लगभग दुनिया की सभी भाषाओ में अनुवाद किया जा रहा है, लेकिन इस्लामी विद्वानो की धारणा है की यदि क़ुरान को भाषांतर किया तो इसकी मूल भाषाई सुंदरता खत्म हो जायेगी, इसलिए इसका भाष्य नहीं किया जा सकता, वहीँ क़ुरान में मौजूद शब्द भी ऐसे हैं जिन्हे खुद अरब के लोग नहीं जानते, न ही वो शब्द अरबी व्याकरण में मिलते हैं, तब कैसे उनका अर्थ भाषांतर किया जाएगा ? इसका सीधा सीधा अर्थ तो यही है की क़ुरान का भाष्य नहीं किया जा सकता क्योंकि ये कुरान केवल अरब देश के लिए ही थी, लेकिन जो इसका भाषांतर कर रहे शायद वो क़ुरान की अन्तर्भावना और अल्लाह के ज्ञान से खिलवाड़ कर रहे हैं, फिर भी आक्षेपकर्ता महर्षि दयानंद को ही दोष देते हैं, क्या ये पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता नहीं ?

अब जो कहते हैं की क़ुरान में व्याकरण गलती और आज तक फेरबदल नहीं हुआ उसपर विचार करते हैं :

डॉ अहमद शालाबी, इस्लामी इतिहास और सभ्यता के विद्वान प्रोफेसर अपनी पुस्तक “दी हिस्ट्री ऑफ़ इस्लामिक लॉ” पृष्ठ ४३ पर क्या लिखते हैं उसे देखिये :

“The Qur’an was written in the Kufi script without diacritical points, vocalization or literary productions. No distinction was made between such words as ‘slaves’, ‘a slave’, and ‘at’ or ‘to have’, or between ‘to trick’ and ‘to deceive each other’, or between ‘to investigate’ or ‘to make sure’. Because of the Arab skill in Arabic language their reading was precise. Later when non-Arabs embraced Islam, errors began to appear in the reading of the Qur’an when those non-Arabs and other Arabs whose language was corrupted, read it. The incorrect reading changed the meaning sometimes.”

क़ुरान मूलतया कूफी लिपि में लिखा गया था जो स्वरों के विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ), स्वरोच्चारण तथा साहित्यिक प्रस्तुतियों से रहित था। “गुलामो”, “एक गुलाम”, …… आदि शब्दों में कोई भेद, अंतर नहीं रखा गया था। क्योंकि एक अरब व्यक्ति तो अरबी पढ़ने में कौशल प्राप्त था इसलिए सटीकता से पढ़ लेता था। लेकिन जब अरब के बाहर के लोगो ने इस्लाम स्वीकार किया, और वे अरब के लोग जिनकी अरबी ठीक न थी इन्होने मूल क़ुरान का पाठ किया तब क़ुरान में विसंगतियां उत्पन्न हुई। गलत तरीके से पढ़ने के कारण कभी कभी कुरान के मूल पाठ का अर्थ भी बदल जाता था।

बिलकुल यही वक्तव्य ताहा हुसैन, “ताहा हुसैन” पृष्ठ १४३ अनवर जमाल जुन्दी द्वारा में लिखित पाया जाता है।

इसी प्रसंग में डॉ अहमद उन व्यक्तियों के नाम बताते हैं जिन्होंने स्वरोच्चारण और विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) का आविष्कार किया और इन्हे मुहम्मद साहब की मृयुपरांत कई वर्षो बाद क़ुरानी लेख में प्रयुक्त किया जैसे की अबु अल-अस्वद अल दुआली, नस्र इब्न असीम और अल खलील इब्न अहमद। इसी पृष्ठ पर और विस्तार से समझाते हुए वह लिखते हैं की

“इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना, कोई भी व्यक्ति सूरह अत-तौबा की आयत ३ का अर्थ कुछ इस प्रकार समझता है “God is done with the idolaters and His apostle— free from obligation to the idolaters and His apostle” जबकि इसका सही अर्थ है “God and His apostle are done with the idolaters—free from further obligation to the idolaters”

अब यहाँ सवाल उठता है की यदि क़ुरान सरल अरबी और शुद्ध व्याकरण में उतरी तो इतनी विसंगतियां क्यों उत्पन्न हुई ? इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण देखते हैं, अरबी भाषा में “ब” लिखने हेतु विशिष्ट चिन्ह (बिंदु) होते हैं यदि हम इन विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को ऊपर, नीचे करते हुए बदल दे तो हमें तीन अलग अलग शब्द मिलेंगे “त” “ब” और “थ”, अब सोचिये यदि कोई अरबी विद्यार्थी बिना विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को प्रयोग किये अरबी का पेपर दे दे, तो शिक्षक उसके लिखे को पढ़ और समझ पायेगा ? कितने नंबर दे पायेगा वो शिक्षक उस विद्यार्थी को ?

अब पाठकगण स्वयं विचार की जब अरबी भाषा विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के पढ़ी और समझी ही नहीं जा सकती, और मूल क़ुरान जो थी वो विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) के बिना ही लिखी गयी थी, ये सभी मुस्लिम आलिम इस बात को भली भाँती जानते हैं, ये एक ऐतिहासिक सच्चाई है जो बिना किसी अपवाद के स्वीकार की जाती है, तो वे लोग जिन्होंने विशिष्ट चिन्ह (बिन्दुओ) को क़ुरान में प्रयुक्त किया जिसके जरिये ही आज क़ुरान समझा जा सकता है, तब ये कार्य करने को क्या अल्लाह मियां ने आदेश दिया था ? यदि नहीं तो ये क़ुरान की मूल लेख से खिलवाड़ है, और इसे मिलावट ही क्यों नहीं कहा जाएगा ?

यहाँ एक शंका और भी उतपन्न होती है की जो क़ुरान लिखा गया जो आज मौजूद है, क्या वो सच में वही क़ुरान का ज्ञान है जिसे अल्लाह मियां ने पैगम्बर मुहम्मद साहब पर जिब्रील नामी फरिशते द्वारा अवतरित किया था ? ये शंका इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि सही बुखारी में क़ुरान को दुबारा लिखवाने का आदेश अबु बकर साहब द्वारा ४ लोगो को दिया गया था जिनमे से एक ज़ैद बिन थबित अल अंसारी थे जिन्होंने बुखारी में जो फ़रमाया है, वो हमारे कथन की पुष्टि करता है, देखिये :

ज़ैद बिन थबित अल अंसारी ये उनमे से एक थे जिन्हे अबु बकर द्वारा पवित्र इल्हाम (क़ुरान) को लिखने का दायित्व सौंपा गया था, इन्होने बताया की यममा जंग में लड़ाकों की भारी क्षति हुई थी, अधिकांशतः वो लड़ाके “कुर्रा” भी मृत्यु को प्राप्त हुए जो ह्रदय से क़ुरान को जानते थे। उन्होंने ये भी बताया की इसी लड़ाई के दौरान कुरान का अधिकांश हिस्सा खो गया था।

सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस २०१

पाठकगण, यदि लिखते जाए, तो अनेको प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन इतने से भी पाठकगण आराम से समझ सकते हैं की मूल क़ुरान का व्याकरण कितना कमजोर था, जिसे अनेको पुर्शार्थी मनुष्यो ने ठीक किया, क़ुरान में मौजूद अनेको विदेशी भाषाए इस बात का पुख्ता सबूत है की क़ुरान में भी मिलावट हुई है, क्योंकि अल्लाह मियां क़ुरान में स्पष्ट कहते हैं की क़ुरान को विशुद्ध सरल अरबी भाषा में दिया है ताकि अरब के लोग समझे, लेकिन वहीँ इस क़ुरान में अनेको विदेशी भाषाओ के शब्द स्पष्ट रूप से मौजूद हैं, तब यदि ये मिलावट नहीं तो क्या अल्लाह मियां क़ुरान में झूठ बोले ? अल्लाह मियां क्यों झूठ बोलेंगे, ये मिलावट अवश्य ही शैतानो के बन्दों ने की करवाई है। हम चाहेंगे की ऋषि पर आक्षेप करने की अपेक्षा आक्षेपकर्ता गुप्ता जी, स्वयं संज्ञान लेते हुए, इस विषय पर भी मुस्लिम बंधुओ को आगाह करे।

आक्षेपकर्ता का कहना है की क़ुरान में इतने उच्च और उत्तम मूल्य प्रतिपादित किये हैं जो कोई छलि, कपटी और स्वार्थी व्यक्ति अपनी जंगली, अल्पज्ञ और मतलब सिद्धि के लिए नहीं कर सकता, उसके लिए वे कुछ उदहारण भी देते हैं जैसे :

बेहयाई के करीब तक न जाओ चाहे वह जाहिर हो या पोशीदा (कुरान ६:१५२)

अब पाठकगण स्वयं देखे क़ुरान कितने उच्तम मूल्य स्थापित करती है :

और (पहले से) विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ। अल्लाह का यह आदेश तुम्हारे लिए अनिवार्य (फर्ज) है और जो इन (ऊपर बताई गयी स्त्रियों) के अतिरिक्त हो, वे (निकाह के बाद) तुम्हारे लिए हलाल (वैध) हैं।

(क़ुरान ४:२५)

अब देखिये कितना मानवो के लिए स्त्रियों का कितना उच्च मूल्य स्थापित किया गया है। सभी महिला जो शादीशुदा हो वो हराम हैं मगर वो जो गुलाम (लौंडी) यानी मुशरिक, काफ़िर, आदि व्यक्तियों पर किये गए हमलो, युद्धों के बाद जो उन काफिरो, मुशरिकों की शादीशुदा महिलाये हैं, वो वैध यानी हलाल हैं। सीधा सीधा गणित समझिए, जो मुस्लिम महिला शादीशुदा हो केवल वही हराम है, बाकी काफ़िर, मुशरिक आदि की शादी शुदा महिला भी हलाल (वैध) हैं, तो बाकी दुनिया में और कौन महिला बची जो शादीशुदा हराम हो ?

ये आयत क्यों उतरी, इस पर भी थोड़ा विचार करे, देखिये :

Abu Sa’id al−Khudri (Allah her pleased with him) reported that at the Battle of Hanain Allah’s Messenger (may peace be upon him) sent an army to Autas and encountered the enemy and fought with them. Having overcome them and taken them captives, the Companions of Allah’s Messenger (may peace te upon him) seemed to refrain from having intercourse with captive women because of their husbands being polytheists. Then Allah, Most High, sent down regarding that:” And women already married, except those whom your right hands possess (iv. 24)” (i. e. they were lawful for them when their ‘Idda period came to an end). [Sahih Muslim, Book 8, Hadith 3432]

अबु सईद अल खुदरी ने बताया की हनेन की जंग में रसूलल्लाह ने औतास में फ़ौज भेजी, जो दुश्मन का सामना करने के लिए जंग लड़े। यहाँ तक की वो दुश्मन पर भारी पड़े और उन्हें बंदी बना लिया, रसूल्ललाह के साथी, बंदी औरतो के साथ सम्भोग करने से परहेज कर रहे थे क्योंकि वो औरते बहुदेववादी पुरषो की पत्निया थी। तब अल्लाह जो सर्वोच्च है, इस विषय पर आयत नाज़िल की :

विवाहित स्त्रियां भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) सिवाय उन स्त्रियों के जो (लौंडी के रूप में कैद हो कर) तुम्हारे अधिकार में आ जाएँ।

सही मुस्लिम – किताब 8 हदीस 3432

अब स्वयं सोचिये, क्या बहुदेववादी लोगो को स्वतंत्रता नहीं की वो अपनी संस्कृति और सभ्यता अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर सके ? क्या बहुदेववादियों से जंग केवल इसीलिए नहीं की गयी की वो अल्लाह और रसूल को नहीं मान कर अपनी संस्कृति का पालन कर रहे थे ? क्या इस्लाम के अनुसार कोई अपनी संस्कृति का पालन करे तो वो गुनाह है ? क्या केवल इसलिए एक महिला की अस्मत आबरू बर्बाद करना जायज़ है की वो अपनी संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा कर रही है ? क्या ये मानवीय संस्कृति और सभ्यता, तथा पूजा उपासना की स्वतंत्रता को नेस्तनाबूद करने का गुनाह नहीं ? क्या ये कम बेहयाई है जिसको अल्लाह मियां ने करने को आयत नाजिल की, जबकि मुहम्मद साहब के साथ ये सब नहीं करना चाहते थे ?

महर्षि दयानंद ने क्या ही गलत आक्षेप लगाया की ये जंगली सभ्यता और मूर्खो की बनाई पुस्तक है, क्या मुहम्मद साहब अल्लाह से ऐसी आयात नाजिल करवा सकते हैं, जिसमे खुलेआम और बेहयाई और बलात्कार की शिक्षा का स्पष्ट उदहारण हो ? शायद इसीलिए महर्षि दयानंद ने इस किताब को जंगली और असभ्य लोगो की कृति बताया जो अपनी कामवासना को शांत करने हेतु अपने मतलब और स्वार्थ की पूर्ति के लिए रची गयी, इसमें मुहम्मद साहब का नाम लेकर, ऐसी बात गढ़ी गयी है, ये मुहम्मद साहब की ओरिजिनल रचना नहीं, ऐसा प्रतीत होता है।

अब आपक्षेपकर्ता ने जो क़ुरान से विज्ञानं की आयत दिखाई जरा उसे भी नकद हाथ लेते हैं :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

देखिये आक्षेपकर्ता का कहना की क़ुरान में विज्ञानं है, यहाँ बताया की सूर्य अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है, जबकि हम जानते हैं की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, ये तो धरती घूमती है इसलिए ऐसा प्रतीत होता है, बाकी सूर्य सभी ग्रहो को अपने आकर्षण से बांधे रखता है और स्वयं भी घूमता है, तथा अनेको ग्रहो को भी अपनी धुरी पर घुमाता है, इसके साथ साथ अपनी अपनी कक्षा में सभी ग्रह घूमते हैं, पहले भी बताया की सूर्य अपनी धुरी पर तो घूमता ही है साथ अपनी कक्षा में भी घूमता है, जो सूर्य अपनी कक्षा में न घूमे तो एक राशि से दूसरे राशि में नहीं जा सकता, और इसी प्रकार ग्रह भी अपनी धुरी पर घूमते हुए, सूर्य की परिक्रमा करते हैं, परन्तु सौरमंडल के केंद्र में सूर्य है अतः वो किसी अन्य ग्रह की परिक्रमा नहीं लगाता, हाँ सम्पूर्ण सौरमंडल, आकाशगंगा का गांगेय वर्ष पूर्ण करने हेतु परिक्रमा करता है, इसी को आक्षेपकर्ता न समझकर, सूर्य को अन्य ग्रहो का परिक्रमा करने वाला बताते हैं, जो अत्यंत हास्यास्पद है, ठीक वैसे ही जैसे क़ुरान में सूर्य का अपने ठिकाने की और जाना, आइये दिखाते हैं सूर्य अपने नियत ठिकाने की और कहाँ जा रहा है, देखिये :

अबु धार ने बताया कि : पैगम्बर साहब ने मुझसे पूछा “क्या तुम जानते हो सूर्यास्त के समय सूरज कहाँ को जाता है ? मैंने कहा अल्लाह और रसूल ही बेहतर जानते हैं। तब पैगमबर साहब बोले ये (सूर्य) अल्लाह के सिंघासन के नीचे तक जाकर यात्रा करता है, और दंडवत प्रणाम करता है, और सूर्योदय पर निकलने की अनुमति मांगता है, अनुमति मिलने पर सूर्योदय में सूर्य दिखाई देता है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब सूर्य दंडवत प्रणाम करेगा (क्षमा याचना करेगा) लेकिन उसका प्रणाम स्वीकार न किया जाएगा, सूर्य अपने नियत ठिकाने पर जाने की अनुमति मांगेगा, पर उसे अनुमति न मिलेगी, और उसे (सूर्य) को आदेश दिया जाएगा की जहाँ तू छुपता है (पश्चिम में) वहां से उगेगा (सूर्योदय) यानी पश्चिम से सूर्योदय होगा। और यही अल्लाह की उस आयत की व्याख्या है :

और सूर्य वह अपने ठिकाने की तरफ चला जा रहा है (क़ुरान ३६:३८)

[सही बुखारी जिल्द 4, किताब 54, हदीस 421]

अब देखिये, क्या विज्ञानं और वैज्ञानिकीकरण क़ुरान में प्रस्तुत है, जिसको पूर्ण विज्ञानं आक्षेपकर्ता बता रहे, ये तो सिद्ध है की सूर्य कहीं आता जाता नहीं, फिर भी क़ुरान में ऐसा बताया गया की सूर्य अल्लाह मियां के सिंघासन के नीचे छुप जाता है, और दुबारा निकलने के लिए क्षमा याचना और दंडवत प्रणाम करता है, क्या सूर्य कोई सजीव वस्तु है जो दंडवत प्रणाम करेगा ? और सूरज पश्चिम से निकलेगा, ये भी असंभव है क्योंकि सूरज तो अपनी कक्षा में ही घूर्णन कर रहा ऐसे ही पृथ्वी करती है, पता नहीं ये आयत कैसे क़ुरान में दर्ज की गयी, ये खुदाई आयत तो नहीं, अवश्य ही कोई जंगली और असभ्य पुरुषो द्वारा क़ुरान में मिलावट की गयी है, ऋषि का ये दावा बिलकुल सत्य है, अब क़ुरान की कुछ और विज्ञनिक आयतो का दर्शन करते हैं, देखिये :

“क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है (क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया। (सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है। (सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है। (सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है (सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।”

इसके अतिरिक्त पूरी कुरान में कहीं भी नहीं लिखा की सूर्य, चन्द्र पृथ्वी आदि ग्रह, अपनी धुरी पर घूमते हैं, अपनी अपनी कक्षा में सौरमंडल की परिक्रमा करते हैं, न ही कही भी यह बताया की सौरमंडल क्या है, आकाशगंगा क्या है, ब्रह्माण्ड क्या है, कहीं भी ऐसा कोई जिक्र नहीं, क़ुरान में केवल धरती, सूर्य और चन्द्रमा का ही विवरण है, न ही आकाशगंगा, न अनेको ग्रहो का कोई वर्णन है, अतः यह सिद्ध है की क़ुरान का बनाने वाला खगोलविद्या को नहीं जानता था, इसीलिए महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान की खगोल विद्या पर आक्षेप प्रकट किये। वहीँ ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में ही वेदो से प्रमाण बतलाये हैं की पृथ्वी सूर्य की प्रक्रिमा करती है, सूर्य अपने आकर्षण से सभी ग्रहो को बांधे रखता है, सभी ग्रह सूर्य की प्रक्रिमा करते हैं, और सूर्य भी अपनी कक्षा का चक्कर लगाता है, किन्तु किसी ग्रह (लोक) का चककर नहीं लगाता, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है, और सबसे बड़ा होने से ये सम्भव भी नहीं, लेकिन फिर भी आक्षेपकर्ता का बौद्धिक दिवालियापन इस सत्यता को स्वीकार नहीं करता, हम पुनः दिखाते हैं, देखिये :

स दाधार पृथिवीमुत द्याम् ।। यह यजुर्वेद का वचन है।

जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोकालोकान्तर पदार्थ तथा सूर्य्यादि प्रकाशसहित लोक और पदार्थों का रचन धारण परमात्मा करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है, वही सब जगत् का कर्त्ता और धारण करने वाला है।

(प्रश्न) पृथिव्यादि लोक घूमते हैं वा स्थिर?

(उत्तर) घूमते हैं।

(प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाय?

(उत्तर) ये दोनों आधे झूठे हैं क्योंकि वेद में लिखा है कि-

आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः।।

-यजुः० अ० ३। मं० ६।।

अर्थात् यह भूगोल जल के सहित सूर्य्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिये भूमि घूमा करती है।

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

-यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता। और जो जैनी कहते हैं कि पृथिवी घूमती नहीं किन्तु नीचे-नीचे चली जाती है और दो सूर्य और दो चन्द्र केवल जम्बूद्वीप में बतलाते हैं वे तो गहरी भांग के नशे में निमग्न हैं। क्यों? जो नीचे-नीचे चली जाती तो चारों ओर वायु के चक्र न बनने से पृथिवी छिन्न भिन्न होती और निम्न स्थलों में रहने वालों को वायु का स्पर्श न होता। नीचे वालों को अधिक होता और एक सी वायु की गति होती। दो सूर्य चन्द्र होते तो रात और कृष्णपक्ष का होना ही नष्ट भ्रष्ट होता है। इसलिये एक भूमि के पास एक चन्द्र, और अनेक चन्द्र, अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।

(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास)

यहाँ विज्ञानं का कितना सुंदर प्रस्तुतिकरण महर्षि दयानंद ने किया की आज तक ये सब बाते सत्य निकलती हैं, लेकिन जो पूर्वाग्रही मानसिकता से ग्रसित हैं, उनको सत्य नकारने की आदत बनी रहती है, चाहे कितना ही सच्चाई समझाते रहो।

इसके आगे, पुनः पुनराक्तिदोष आक्षेपकर्ता ने प्रकट किये हैं, जिनका निराकरण पूर्व के लेख में हो गया और आगे के लेख में और हो जाएगा।

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12

“दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा पुस्तक के इस अध्याय में आक्षेपकर्ता, महर्षि दयानंद पर पुनः एक कुतर्क सहित आरोप लगाने की झूठी कोशिश करते हैं की सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद क़ुरान की शिक्षा जो शांति, भाईचारे और सहिष्णुता की समर्थक है, ऐसी आयतो पर सत्यार्थ प्रकाश में काफिरो को हिन्दुओ से जोड़कर दर्शाया गया है, जिससे कुरान की आयते हिन्दू समाज के प्रति आक्रामक और अपमानजनक सिद्ध होती हैं ऐसा बताया गया है। इसके लिए आक्षेपकर्ता ने पुस्तक में इतिहास से जुड़े कुछ स्वघोषित उल्लेख भी प्रस्तुत किये हैं, ताकि इस्लाम और इस्लाम की शांतिपूर्ण शिक्षा का प्रस्तुतिकरण किया जा सके।

मगर खेद की आक्षेपकर्ता, इस अध्याय में भी पूरा सच नहीं बता पाये, क्योंकि जो पूरा सच बता देवे तो क़ुरान का शांति और भाईचारे का सिद्धांत ही खंडित हो जाएगा, क्योंकि इस्लाम की जो नींव रखी गयी, वो नींव स्वयं में दूसरे धर्मो, जातियों और सम्प्रदायों की धार्मिक भावनाओ, और मान्यताओ को कुचलकर, दबाकर, खून करकर, बलात्कार करते हुए रखी गयी, ऐसा हम नहीं स्वयं इतिहास बताता है, आइये एक एक कर सभी बातो पर विचार रखते हैं, देखते हैं आक्षेपकर्ता की सच्चाई और इस्लाम तथा मुहम्मद साहब की शांतिपूर्ण शिक्षा का वास्तविक आधार क्या है ?

सबसे पहले काफ़िर शब्द और इसका अर्थ समझते हैं जो आक्षेपकर्ता अपनी पुस्तक में चाहते हुए भी न समझा पाये या कहे की इस अर्थ को गोल गोल घुमा गए, देखिये काफ़िर का अर्थ :

काफ़िर एक संज्ञा है, इसका बहुवचन कुफ्र है, सरल शब्दों में इसका अर्थ नास्तिक है, लेकिन यदि विस्तार से समझा जाए तो इसका अर्थ है इंकार करने वाला, श्रद्धा न रखने वाला, विश्वास न करने वाला आदि, लेकिन यहाँ किसका इंकार, अश्रद्धा और विश्वास नहीं किया जा रहा वो समझना नितांत ही आवश्यक है। काफ़िर एक ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो एक अल्लाह नामी खुदा को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उस अल्लाह का आखरी रसूल, पैगम्बर न माने, वो काफ़िर है।

यहाँ कुछ समझने की बात है, वो ये है की ईश्वर है, उसको पूरी दुनिया में अनेको नामो से पुकारा जाता है, क्योंकि ईश्वर के अनेको नाम हैं, अनेक सभ्यताएँ, संकृतिया उस ईश्वर को अनेको नामो से पुकारती हैं, यानी वो सभी सभ्यताए ईश्वर को मानती हैं, लेकिन आपको आश्चर्य होगा की ये सभी संस्कृतिया और सभ्यताए इस्लामिक दृष्टिकोण से नास्तिक हैं, जाहिल हैं, मुर्ख हैं, पाखंडी हैं, अपवित्र हैं, क्योंकि वो अल्लाह को ईश्वर और मुहम्मद साहब को उसका आखरी पैगम्बर नहीं मानती।

आइये आपको प्रमाण दिखाते हैं :

और तू अल्लाह के सिवा किसी को भी न पुकार जो तुझे न तो कोई लाभ पंहुचा सकता है और न ही कोई हानि ही। यदि तू ने ऐसा किया (अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा) तो फिर निश्चय ही तेरी गणना अत्याचारियो में होगी।

(क़ुरान १०:१०७)

पूरी दुनिया के सभी मनुष्य, जब भी विपदा में हो, परेशान हो, निराश हो अथवा हताश हो, तो उस ईश्वर को से ही सहायता मांगते हैं, भले ही हम किसी भी नाम से ईश्वर को पुकारे मगर यहाँ क़ुरान में खुद अल्लाह मियां ने ही साफ़ साफ़ बता दिया है, की जो भी अल्लाह के अतिरिक्त किसी को पुकारा तो वो अत्याचारियो में होगा, क्योंकि अल्लाह के सिवा कोई नहीं जो सहायता कर सके। क्या ये अल्लाह के कथन किसी ईश्वरीय ग्रन्थ में उल्लेखित हो सकते हैं ? आगे देखिये :

और जब एक ही अल्लाह का वर्णन किया जाता है तो जिन लोगो का क़यामत पर ईमान नहीं होता उन के दिल (ऐसे उपदेश से) घृणा करने लग जाते हैं तथा जब उन (मूर्तियों) का वर्णन किया जाता है जो अल्लाह के मुकाबिले में बिलकुल तुच्छ हैं, तो वे अचानक प्रसन्न होने लगते हैं।

(क़ुरान ३९:४६)

अनेको सभ्यताओ में मूर्तियों द्वारा ईश्वर को पाने की सीढ़ी लगायी जाती है, ये प्रत्येक सभ्यता संस्कृति की अपनी सोच है, लेकिन किसी की आस्था (मूर्ति) को तुच्छ कहना, किसी की आस्था का मजाक बनाना, क्या ये क़ुरान में अल्लाह का कलाम हो सकता है ? क्या ये सभ्य शैली है ?

क्योंकि उन्होंने अल्लाह की उतारी हुई वाणी को पसंद नहीं किया है। अतः अल्लाह ने भी उनके कर्मो को अकारथ कर दिया।

(क़ुरान ४७:१०)

अब देखिये, यदि आप अल्लाह की वाणी यानी क़ुरान के अनुसार, मूर्ति पूजा करते हैं, तो आपके सारे कर्म अकारथ कर दिए हैं, क्योंकि आप क़ुरान की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे, क्या ये कहीं से भी ईश्वरीय आज्ञा लगती है ? ये तो किसी दुराग्रही के वचन लगते हैं की यदि क़ुरान की आज्ञा न मानी तो तेरे सारे कर्म निष्क्रिय होंगे, क्या अल्लाह मियां ऐसा करके ही मुस्लिम और हिन्दू समाज में विद्रोह उतपन्न करना चाहेंगे ? मुझे तो किसी शातिर व्यक्ति की चाल लगती है जो अल्लाह और मुहम्मद साहब के नाम पर क़ुरान में ये आयत जोड़ी गयी।

उपरोक्त आयतो को आपने ध्यान से पढ़ा होगा तो समझे होंगे की क़ुरान में स्वयं अल्लाह मियां ही काफ़िर और मोमिन (मुस्लिम) में भेद प्रकट करता है, अब हम आपको दिखाते हैं, की मोमिन कौन है, यहाँ इस बात को समझाना नितांत आवश्यक है, क्योंकि बिना मुस्लिम का अर्थ समझे आप काफ़िर को नहीं समझ सकते है, देखिये :

जो कुछ भी इस रसूल पर उसके रब की और से उतारा गया है उस पर वह स्वयं भी और दूसरे मोमिन भी ईमान रखते हैं। ये सब के सब अल्लाह और उसके फरिश्तो, एवं उसकी किताबो तथा उसके रसूलो पर ईमान रखते हैं (और कहते हैं की) हम उस के रसूलो में से किसी में भी कोई अंतर नहीं करते तथा यह भी कहते हैं की हम ने (अल्लाह का आदेश) सुन लिया है और हम (दिल से) उसके आज्ञाकारी बन चुके हैं। (ये लोग प्रार्थना करते हैं की) हे हमारे रब ! हम तुझ से क्षमा मांगते हैं और हमे तेरी ओर ही लौटना है।

(क़ुरान २:२८६)

अब यहाँ ध्यान से समझिए की मुस्लमान आखिर कौन हैं :

1. जो केवल एक अल्लाह पर विश्वास करता हो।

2. जो मुहम्मद साहब को आखरी पैगम्बर मानता हो।

3. जो क़ुरान को अंतिम ईश्वरीय वाणी मानता हो।

4. जो अनेको फरिश्तो (जिब्रील, मिखाइल आदि) पर ईमान रखता हो।

5. जो आख़िरत (क़यामत) के दिन दुबारा जिन्दा होना मानता हो।

6. जो जन्नत और जहन्नम पर विश्वास रखता हो।

7. जो मूर्ति भंजक (मूर्ति तोड़ने वाला) हो नाकि मूर्ति पूजक।

यहाँ यदि ध्यान से समझा जाए तो आप पाएंगे, मुस्लमान होने के लिए ये आवश्यक शर्ते (नियम) मानने यानी उपरोक्त पर विश्वास करना नितांत आवश्यक है, तभी आप मुस्लमान हैं, अब आप स्वयं सोचिये, जो भी व्यक्ति मुस्लमान नहीं यानी जो उपरोक्त पर विश्वास नहीं करता वो क्या है ?

हम आपको समझाने का प्रयास करते हैं, इस्लाम, क़ुरान और मुहम्मद साहब द्वारा इंसानो में जो बंटवारा किया गया है, वो देखिये :

क़ुरान में ईसाई समाज को नसारा और यहूदियों को यहूद कहा गया है, यहाँ तक की अल्लाह इनसे इतनी घृणा करता है की इन्हे अत्याचारी कहता है और मुसलमानो को इनसे सहायता न लेने तक का स्पष्ट वर्णन क़ुरान में अंकित करता है, देखिये :

हे ईमान लाने वालो ! यहूदियों और ईसाइयो को अपना सहायक न बनाओ (क्योंकि) उनमे से कुछ लोग कुछ दुसरो के सहायक हैं और तुम में से जो भी उन्हें अपना सहायक बनाएगा निस्संदेह वह उन्ही में से होगा। अल्लाह अत्याचारियो को कदापि (सफलता का) मार्ग नहीं दिखाता।

(क़ुरान ५:८२)

अब देखिये, यहाँ क़ुरान में स्वयं अल्लाह मिया कितनी शांति और भाईचारे की बात सिखा रहे हैं, क्या ये अल्लाह का कलाम है ? जब अल्लाह मियां स्वयं मनुष्यो में ही घृणा और पक्षपात करते हैं तब उनके ईमान वाले ऐसी बातो का इंकार कैसे करे ? क्या ऐसी शिक्षा से भाईचारा जागता है ? अब यहाँ विचारणीय बात ये भी है की ईसाई और यहूदियों के लिए “काफ़िर” शब्द प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि ईसाई और यहूदी भी “अहले अल किताब” की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि अल्लाह ने इस समाज को भी पवित्र किताब प्रदान की थी, इसलिए ये काफ़िर तो नहीं, मगर फिर भी अल्लाह की नजर में इनसे दोस्ती करना मुस्लमान और उसके ईमान के लिए सजा बराबर है।

अब दिखाते हैं, मुशरिक किसे कहते हैं, देखिये :

मुशरिक शब्द क़ुरान की ४५ आयतो में ५४ बार आया है (मोहसिन खान भाष्य अनुसार), मुशरिक की परिभाषा :

एक ऐसा व्यक्ति, जो अनेको देवी देवताओ पर विश्वास रखता है, भले ही वो एक सर्वोच्च ईश्वर को भी मानता हो, या न मानता हो, लेकिन अनेको देवी देवताओ की पूजा करता हो, उसे अरबी भाषा में मुशरिक कहते हैं, और ऐसे लोगो के प्रति अल्लाह मियां क़ुरान में क्या बयां करते हैं वो देखिये :

हे मोमिनो (मुसलमानो) ! वास्तव में मुशरिक गंदे (और अपवित्र) हैं। (क़ुरान ९:२८)

क्या अपनी सभ्यता और संस्कृति अनुसार अपने देवी देवताओ की पूजा करना अपवित्र कार्य है ? क्या कोई व्यक्ति अपनी संस्कृति के अनुसार पूजा उपासना नहीं कर सकता ? क्या यही इस्लामी स्वतंत्रता है ? क्या केवल अपनी संस्कृति अनुसार देवी देवताओ की पूजा करने से मनुष्य गन्दा, नापाक और अपवित्र हो सकता है ? क्या ये आयत हिन्दुओ की सभ्यता और संस्कृति पर प्रतिघात नहीं करती ? क्या ऐसी आयतो से वैमनस्य नहीं फैलता ? क्या हिन्दू समाज देवी देवताओ की पूजा उपासना नहीं करता ? क्या ये आयत मुस्लिम समाज द्वारा हिन्दुओ को अपवित्र और नापाक नहीं कहलवाती ?

अब आपको बताते हैं, शिर्क करने वाले काफ़िर के बारे में, देखिये :

मूर्ति पूजा करना, या देवी देवताओ की पूजा करना, अथवा अल्लाह के साथ कोई अन्य उपास्य बनाना, या अल्लाह के अतिरिक्त किसी और नाम से ईश्वर को पुकारना शिर्क है, शिर्क के अनेको प्रकार हो सकते हैं, लेकिन जो सबसे भयंकर और जिसको माफ़ नहीं किया जा सकता वो शिर्क है, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और ईश्वर को पुकारना अथवा अल्लाह के साथ अन्य किसी देवी देवता को पूजना, ये सबसे बड़ा शिर्क है, और इसे कभी माफ़ नहीं किया जाएगा, देखिये :

निसंदेह अल्लाह (यह बात) कदापि क्षमा नहीं करेगा की किसी को उसका साझी बनाया जाए, परन्तु जो पाप इससे से छोटा होगा उसे जिस के लिए चाहेगा क्षमा कर देगा और जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया तो समझो की उसने बहुत बड़ी बुराई की बात बनाई

(क़ुरान ४:४९)

अब देखिये, खुदा की खुदाई, की यदि अल्लाह को नहीं माना, या अल्लाह के साथ किसी और को साझी बनाया तो ये सबसे बड़ा गुनाह है, यानी अल्लाह मियां को गुस्सा, घृणा, द्वेष आदि गुण भी हैं, और क्रोध भी आता है, क्या ये अल्लाह मियां का लिखा हो सकता है ? जो अल्लाह मियां परम दयालु अपने आप को क़ुरान में बताते वो ऐसी आयत क्यों देंगे ? निश्चय ही किसी का शरारत है, और ये आयत क्या अल्लाह मियां की हिन्दुओ से घृणा और द्वेष को सिद्ध नहीं करती ? क्योंकि हिन्दू समाज ईश्वर के साथ साथ अनेको देवे देवताओ की पूजा उपासना करता है, तो क्या मुस्लिम समाज ऐसी आयतो को पढ़कर हिन्दुओ से प्यार करेगा ?

क्या चोरी, डकैती, लूटमार, बलात्कार, हिंसा और हत्या आदि अनेको पापकर्म, छोटे हैं जिन्हे माफ़ कर दिया जाएगा ? और केवल एक अल्लाह को नहीं मानना ऐसा बुरा कर्म की वो माफ़ नहीं किया जाएगा ? क्या ये आयत अल्लाह की हो सकती है ?

इस्लाम के अनुसार मूर्तियों का तोडना जायज़ है, और यही सच्चाई है, दीन है, और यही अल्लाह की नजर में धर्म है, देखिये :

मक्का में पैगम्बर दाखिल हुए। काबा में तीन सौ साठ मुर्तिया मौजूद थी। उन्होंने (पैगम्बर) ने उन मूर्तियों पर अपने हाथ में मौजूद डंडे से जोरदार प्रहार करते हुए कहा “सत्य आ गया है तथा असत्य भाग गया है और असत्य तो है ही भाग जाने वाला”

(सही मुस्लिम, किताब १९, हदीस ४३९७)

और काबा के पास उन की नमाज केवल सीटियां और तालियां बजाने के सिवा कुछ कुछ नहीं। सो हे अधर्मियों ! अपने इंकार के कारण अज़ाब का स्वाद चखो

(क़ुरान ८:३६)

कदापि नहीं, यदि वह बाज़ न आया तो हम छोटी पकड़कर घसीटेंगे (१५)

झूठी ख़ताकार चोटी (१६)

(क़ुरान सूरह ९६)

काबा में हिन्दू विधि विधान से ही कभी मूर्ति पूजा आदि होती थी, लेकिन मुहम्मद साहब ने काबा में मौजूद ३६० मूर्तियों को तोड़ डाला, और वहां (काबा) को मंदिर से मस्जिद में तब्दील कर डाला, उपरोक्त क़ुरानी आयतो को पढ़कर निष्कर्ष निकाला जा सकता है की कभी किसी समय पर अरब के पगनो द्वारा आज के ही हिन्दुओ सामान मंदिरो में मूर्ति पूजा तथा पूजा पद्धति होती थी, और वहां पंडितो पुजारियों का चोटी रखना भी सिद्ध करता है, अतः क़ुरान की इस आयत से निष्कर्ष निकलता है की :

और हमने यह भी निर्णय किया था की मस्जिदे सदैव अल्लाह ही का स्वामित्व ठहराई जाए। अतः हे लोगो ! तुम उनमे उसके सिवा किसी को मत पुकारो।

(क़ुरान ७२:१९)

हिन्दुओ को मंदिरो से अथवा अन्य इबादतगाहों से केवल अल्लाह को ही पुकारना चाहिए, और यही इस्लामी नजरिये से जायज़ है, नहीं तो हिन्दू समाज काफ़िर, मुशरिक तो है ही।

उपरोक्त वर्णित क़ुरानी आयतो तथा इस्लामी हदीसो से स्पष्ट ज्ञात होता है की जो अल्लाह को नहीं मानता, या जो अल्लाह के साथ अनेको देवी देवताओ को भी पूजता है, अथवा जो मूर्ति पूजा करता है, वे सभी लोग पापी हैं, अपवित्र हैं, नापाक हैं, और वो धर्म पर नहीं हैं क्योंकि मूर्तिपूजक शैतान की पूजा करते हैं।

अतः ये सिद्ध है की क़ुरानी आयतो में ये वर्णन इतिहास सूचक नहीं है, बल्कि जब तक इस दुनिया में इस्लाम के मुताबिक कुफ्र है, शिर्क है, नापाक और अपवित्र मूर्तिपूजक हैं तब तक इस्लाम का जिहाद चलते रहना चाहिए। यही बात क़ुरान में अल्लाह मियां भी फरमाते हैं :

“उन्हें मार डालो जहाँ पाओ और उन्हें निकाल दो जहां से उन्होंने तुम्हे निकाला |”

(क़ुरान २:१९१)

“कुछ मुसलमान मित्र यहाँ कहेंगे की अल्लाह ने उन लोगो को मारने को कहा है जिन्होंने खुद लड़ाई की और ईमान वालो को घर से निकाला | लेकिन अगली आयत से सत्य का पता चलता है कि उन्हें मारने का उद्देश्य क्या है |

तुम उन से लड़ो की कुफ्र न रहे और दीन अल्लाह का हो जाए अगर वह बाज आ जाए तो उस पर जयादती न करो |”

(क़ुरान २:१९३)

आज भी इस्लामिक नजरिये से कुफ्र और शिर्क दुनिया में फैला हुआ है, इसीलिए दारुल हर्ब (काफिरो द्वारा अधिकृत देश) को दारुल इस्लाम (इस्लामी शरिया द्वारा अधिकृत देश) में बदलने की पुरजोर कोशिश जिहाद द्वारा की जा रही है, इसी कोशिश में आईएसआईएस, अल-कायदा, लश्कर आदि संगठन पुरे विश्व में आतंक फैलाये जा रहे हैं, कुछ मुस्लिम इस बात का खंडन करते हैं की ये इस्लामी विचारधारा नहीं है, लेकिन यदि क़ुरान की शिक्षा शांतिपूर्ण ही हैं तो इन कट्टरपंथियों की सोच का जिम्मेदार कौन है ? क्या ये कट्टरपंथी कोई और क़ुरान पढ़ रहे हैं, यदि हाँ, तो क्या ये मुस्लिम समुदाय की ही जिम्मेदारी नहीं की उन्हें क़ुरान और इस्लाम की सच्ची शिक्षा से अवगत करवाये ?

अब कुछ अन्य इस्लामी और क़ुरानी शिक्षा जो शांति, सौहार्द और भाईचारे की प्रेरणा देती है क्योंकि अल्लाह की नजरो में धर्म केवल और केवल इस्लाम है। इसलिए वे लोग जो गंगा जमुनी तहजीब की वकालत करते हैं, उन्हें क़ुरान की इन आयतो पर भी अपने विचार रखने चाहिए :

और जो मनुष्य इस्लाम के सिवा किसी दूसरे धर्म को अपनाना चाहे तो (वह याद रखे कि) वह धर्म उससे कदापि स्वीकार न किया जाएगा और वह परलोक में हानि उठाने वालो में से होगा।

(क़ुरान ३:८६)

वे अल्लाह को छोड़कर निर्जीव चीज़ो के सिवा किसी को नहीं पुकारते बल्कि वे उद्दंडी शैतान के सिवा और किसी को नहीं पुकारते

(क़ुरान ४:११८)

अब कुछ लोग सवाल करेंगे की आर्य समाज भी तो मूर्ति पूजा विरोधी है, तो इस्लाम की द्वारा जो किया गया वो सही है, यहाँ उन्हें ध्यान रखना चाहिए और सोचना चाहिए की आर्य समाज ने कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्रकार की मूर्ति को तोडना, फोड़ना जायज़ नहीं बताया, न ही मंदिरो को तोड़कर उन पर मस्जिद बनाने का समर्थन ही किया, उलटे महर्षि दयानंद ने कहा था, की वो मूर्तियों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन लोगो की जो जड़ बुद्धि है, उसको तोड़कर चेतन सोच करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो केवल वेद ज्ञान द्वारा संभव है। लेकिन मुहम्मद साहब की क़ुरानी शिक्षाओ के कारण, जो मूर्तियां तोड़ी गयी, और जो मुहम्मद साहब ने पैगम्बर अब्राहिम का अनुसार करते हुए मूर्तियों को तोडा, वो ही चित्रण कुछ महीनो पहले सीरिया में आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा, सीरिया में देखा गया, जहाँ अनेको प्राचीन संस्कृति के बुतो को अकारण ही तोड़ दिया गया। क्या अब भी मुस्लिम समाज यही कहेगा की आईएसआईएस के जिहादियो द्वारा किये गए कार्य इस्लामी शिक्षा से प्रेरित नहीं ?

ये केवल कुछ ही बताया है, अब पाठकगण स्वयं विचार करे की महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में क्या गलत लिखा ? क़ुरान के अनुसार ही जो काफ़िर और मुस्लिम, तथा हिन्दू समाज की स्थति क़ुरान के नजरिये से ही महर्षि दयानंद ने प्रकट की थी, फिर भी आक्षेपकर्ता सच्चाई की जगह दुराग्रह व पूर्वाग्रह से ग्रसित हो नकारते चले गए। अब अगले लेख में नास्तिक और आस्तिक के बारे में विचार करेंगे।

आओ लौटो वेदो की और

सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब Part 13

दस्यु स्थानवाचक मनुष्य नहीं, पापी, अधम और दुष्ट लोगो को कहते हैं, दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 2
अब आक्षेपकर्ता के वैदिक ग्रंथो पर लगाए मनमाने आरोपों पर कुछ विचार करते हैं, आक्षेपकर्ता कहता है, काफ़िर मुशरिक आदि जो क़ुरान में शब्द हैं वो गुण वाचक हैं, लेकिन पिछली पोस्ट से आपको काफ़िर और मुशरिक के गुण वाचक होने का ज्ञान हो गया होगा, अब हम बात करते हैं, नास्तिक, दस्यु आदि शब्दों पर, क्योंकि आक्षेपकर्ता का कहना है की वेदो में भी दस्यु शब्द मिलते हैं जो काफ़िर मुशरिक आदि शब्दों का ही परिचायक है, इसलिए काफ़िर मुशरिक तो फिर भी गुण वाचक होने से सही हैं पर दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक हैं, जो मनुष्य को मनुष्य से वैर करना सिखाते हैं।
अब आक्षेपकर्ता न जाने कहाँ से मनगढंत विचार उठाकर ले आते हैं, और काफ़िर मुशरिक शब्द जो अत्यंत घृणास्पद हैं मुस्लिम समाज और खासकर अल्लाह मियां के लिए, उनसे तो प्रेमभाव जागता है, और जो दस्यु आदि शब्द हैं वो मनुष्यता के खिलाफ हैं, आइये विचार करते हैं :
सर्वप्रथम नास्तिक शब्द को देखते हैं :
यदि विचार करके देखा जाए तो इस पूरी सृष्टि में नास्तिक कोई नहीं है, कुछ लोगो ने मिथ्य प्रपंच रच रखा है – क्योंकि नास्तिक उसे कभी नहीं कहते जो ईश्वर को नहीं मानता – और आज सर्वसाधारण ये प्रपंच – मिथ्या जाल फैला रखा है की जो ईश्वर को नहीं मानता वो नास्तिक।
बल्कि ये स्वयं से धोखा है – देखिये नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद की निंदा करे। ईश्वर को मानने न मानने से नास्तिक आस्तिक का कोई लेना देना नहीं है।
वेद निंदकों नास्तिक
ये बहुत ही गूढ़ बात है – क्योंकि ईश्वर – से तात्पर्य एक ऐसी सत्ता से है जो सबसे बड़ी है – सबको नियंत्रित करती है। न्यायकारी है, और पूर्ण है – अपूर्ण नहीं।
अब देखते हैं कुछ तर्क :
हिन्दू : प्राय आस्तिक की श्रेणी में – जो अनेक ईश्वर और देवी देवताओ पर विश्वास रखते हैं।
मुस्लिम : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही शुमार किये जाते हैं – क्योंकि ये एक अल्लाह, उसके अनेक रसूलो, फरिश्तो, क़यामत, जन्नत जहन्नम और हूरो गिल्मो आदि पर विश्वास रखते हैं।
ईसाई : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही गिने जाते हैं। इनमे एक यहोवा, पुत्र ईसा, और पवित्र आत्मा, बपतिस्मा, फ़रिश्ते, बाइबिल, भेड़ बकरी, चरवाहा और ना जाने क्या अनगिनत तमाम बाते।
आदि अनेक मत सम्प्रदाय भी आस्तिक गिने जाते हैं। पर ध्यान देने वाली बात है –
हिन्दू पुराण पढ़ कर मुस्लिमो, ईसाइयो को मलेच्छ आदि बोलकर इनका नाश अपने ईश्वर से करवा कर खुद को धार्मिक और सबसे बड़े आस्तिक कहते हैं।
मुस्लिम कुरआन को पढ़कर – पूरी दुनिया को काफ़िर बताकर उसका गाला काटने को – उसकी बीवी बेटी को हरम में रखने को – उस काफ़िर के माल असबाब को लूटने को – पक्का मजहब और दीन की उम्दा तालीम बताकर जन्नत में हूरो के ख्वाब देखता है क्योंकि यही अल्लाह का बताया सही रास्ता है।
ईसाई – दुनिया के सबसे बड़े तथाकथित और स्वघोषित आस्तिक हैं। इनकी सबसे बड़ी समस्या है की अपने ईसाई बहुल देशो में अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति, मशीन, दवाई सब अपनाएंगे, मगर जब अपनी आस्तिकता को दूसरे देशो में बेचने जाएंगे तब दुनिया की तमाम बीमारियो का इलाज केवल ईसा की प्रार्थना और बपतिस्मा से होना जाता देंगे। खैर ये भी अपने को आस्तिक बताते हैं और अन्य मजहबी लोगो का धर्मान्तरण – मुस्लिमो की तरह करवाना इनका भी मजहबी अधिकार है।
अब समस्या ये है की सबसे बड़ा आस्तिक कौन ? इस चक्कर में सभी तरह के – हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आस्तिक मिलकर लड़ाई, दंगे नफरती शिक्षा आदि करते हैं और तमाम मनुष्यो को तकलीफ होती है, पूरी मानवता शर्मसार होती है, इस बात में कोई संशय नहीं की आज ये मजहबी उन्माद सबसे ज्यादा इस्लामी अनुयायियों में है। तो इस लिहाज से तो ये इस्लामी सबसे बड़े आस्तिक हुए ?
अब बात करे – जो ईश्वर को नहीं मानते – चाहे वो चार्वाक, बौद्धि, जैनी, कोई भी हो – हाँ ये सही है की ये ईश्वर को नहीं मानते मगर क्या ये सच है ?
बौद्धि – ये बुद्ध को ईश्वर या सबसे बड़ी शक्ति अथवा समाधी या मोक्ष प्राप्त करने वाली आत्मा को बुद्ध या ईश्वर मान लेते हैं। यानी यहाँ भी कोई एक बड़ी शक्ति पर विश्वास है।
जैनी : जितने भी तीर्थंकर हुए या द्वित्य श्रेणी व तृतीय श्रेणी के जितने जिन्न होते हैं – उन सबको ईश्वर मान लिया जाता है। क्योंकि जो मरने के बाद निर्वाण प्राप्त कर लेता है वो ईश्वर बन जाता है। यानी यहाँ भी किसी एक अथवा अनेक बड़ी शक्तियों पर विश्वास है।
अब अंत में बात करते हैं चार्वाक की :
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नही है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
चार्वाक भी सुख को सबसे बड़ा मानते हैं, मोक्ष के बराबर – इसलिए ये भी एक बड़ी सत्ता जिसे सुख कहते हैं पर विश्वास करते हैं। क्योंकि सुख को ये चार्वाकी मोक्ष कहते हैं भले ही इसे प्राप्त करने के लिए अनेको मनुष्यो को दुःख प्राप्त हो। ये तथाकथित आस्तिकों के भी आस्तिक हैं। नास्तिक किस बात के ?
वेद निंदकों नास्तिक क्यों कहा जाता है ?
वेद – क़ुरान – बाइबिल – जिंद अवेस्ता भारतवर्षीय इतिहास के सम्बन्ध में इस विषय का महत्व – ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने में युक्तियाँ – आर्य्यावर्त के प्राचीन ऋषि मुनि तथा वर्तमान समय के करोड़ो पौराणिक भी “वेद” को ईश्वरीय ज्ञान मानते आये और मानते हैं, पारसी लोग “जिंद अवेस्ता” को मानते हैं, ईसाइयो का मत है की “बाइबिल” ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक है, मुसलमानो का यह सिद्धांत है की “कुरान” ईश्वरीय ज्ञान है। इन सब के कथन तो ठीक हो नहीं सकते अतः कुछ ऐसी परीक्षाये नियत करनी चाहिए जिन से उक्त कथनो के सत्यासत्य का निर्णय हो सके। अतः ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता सिद्ध हो गयी। अब विवेचनीय है की ईश्वरीय ज्ञान है कौन सा ?
परीक्षाये –
ईश्वरीय ज्ञान का पहला लक्षण यह है की वह अपने आप को ईश्वरीय ज्ञान कहे अर्थात उस के नाम से यह टपके की वह ज्ञान है न की पुस्तक। परमात्मा साकार तो है ही नहीं की वह बैठ कर पुस्तक लिखेगा, वह तो केवल हृदयो में ज्ञान का प्रकाश करता है।
“जिंद अवेस्ता” का अर्थ है “पवित्र लेख” अतः इस शब्दार्थ से सिद्ध होता है कि किसी धर्मात्मा पुरुष ने इसे लिखा है।
“बाइबिल” शब्द यूनानी धातु बिबलिया से निकला है जिस का अर्थ बहुत सी पुस्तके है। बाइबिल के दो भागो के नाम ऑलडटेस्टमेंट और नियुटेस्टामेंट है जो लातिनी धातु “टेस्टर” से निकलता है जिसका अर्थ साक्षी होना है। अतः इन धात्वर्थो से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं की बहुत सी पुस्तको को जमा करके बाइबिल बनाई गयी थी और उस में जिन जिन घटनाओ का वर्णन है उस के लिए साक्षी भी एकत्रित की गयी थी। अस्तु इस के नाम से तो यही सिद्ध होता है की यह मनुष्य की बनाई हुई है, ईश्वर की नहीं। ईश्वर निराकार सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है अतः ईश्वर के विषय में यह नहीं कहा जा सकता की उस ने बहुत सी पुस्तके एकत्रित की अथवा साक्षी ढूंढने गया।
अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक “अल” जिसका अर्थ है “विशेष” दूसरा “कुरान” जो “किरतैअन” धातु से निकला है जिसका अर्थ “पढ़ना” है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का।
“वेद” “विद्” ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है “ज्ञान”। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।
अतः ये सिद्ध है कि वेद किसी पुस्तक का नाम नहीं है, प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो का कल्याणार्थ प्रकाशित किया, इसलिए कहने का तात्पर्य यही है की अनेक लोग जो अनेक प्रकार से ईश्वर को मानते हैं, विश्वास करते हैं, मगर उस ईश्वर के विषय में जानते कभी नहीं, न ही जानना चाहते हैं, क्योंकि वो केवल मान्यता पर विश्वास करते हैं जिससे लड़ाई, झगड़ा, वैमनस्य और मानव समाज में दया के बदले, हिंसा का बोलबाला हो जाता है, यदि यही बात ईश्वर को जानकार, तब मानना लागू हो जाए तो कहीं भी अशांति नहीं दिखेगी चहु और शांति और दया भाव नजर आएगा। इसलिए पहले ईश्वर को जानो, तब मानो, क्योंकि बिना जाने ही मान लेना अन्धविश्वास है, और धर्म में अन्धविश्वास नहीं होना चाहिए, इसीलिए वेद निंदकों नास्तिक कहा जाता है। और ईश्वर का सच्चा स्वरुप वेद ज्ञान के माध्यम से ही जाना जाता है, क़ुरान बाइबिल आदि मजहबी ग्रंथो में केवल इतिहास की बाते हैं, जिससे ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता, अपितु इतिहास का ही अवलोकन हो सकता है वो भी क्षेत्रीय वा प्रांतीय इतिहास, परन्तु वेद आदि मानवी सृष्टि में प्रकाशित होता है, इससे वेद में इतिहास का ज्ञान नहीं अपितु, मानव मात्र के कल्याण का ज्ञान है।
अब दस्यु शब्द को देखते हैं :
आक्षेपकर्ता कहता है, दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक लोगो के लिए प्रयुक्त हैं, जो आर्यावर्त की सीमा से बाहर रहते हैं, उन्हें दस्यु कहा जाता है, और ये गलत है। साथ ही दयानंदीय आस्था को जोड़कर हिन्दू समाज और आर्यो पर वेद का ज्ञान न होने का मनगढंत आरोप भी जड़ दिया, शायद आक्षेपकर्ता का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है क्योंकि जो आर्य समाज का सिद्धांत है, और जो ऋषि ने १० नियम बनाए हैं वे वेद और ऋषि प्रणीत ग्रन्थ आधारित हैं, जिनमे वेद का पढ़ना और पढ़ाना आर्यो का परम धर्म कहा गया है। लेकिन पूर्वाग्रही मानसिकता का बोध करवाते हुए, आक्षेपकर्ता केवल ऋषि दयानंद पर झूठे आरोप ही करते चले गए, शायद उन्हें आर्य समाज की कार्य पद्धति का समुचित अवलोकन नहीं किया तब बिना जाने ही आर्यो पर पुस्तक लिखना और ऋषि पर आक्षेप करना मानसिक दिवालियापन नहीं तो क्या है ?
आर्य दस्यु पृथक जातियों के न थे, दस्यु आर्यो में से थे जो धर्म कर्म न करने से, आचार भ्रष्ट होने से, बहिष्कृत और पतित समझे गए थे। दोनों शब्दों की व्युत्पत्तिये इसी की पुष्टि करती हैं, वेद और उत्तरकालीन वैदिक और संस्कृत साहित्य इसी बात को पुष्ट करता है, पारसियों की जिंदावस्था की भी इसमें साक्षी है। देखिये :
आर्य और दस्यु शब्द का अर्थ निरुक्त और सायण के अनुसार –
आर्य ईश्वर पुत्रः [निरुक्त 6.26) Arya Is The Son of Lord
आर्य ईश्वर पुत्र हैं
दस्युः दस्यतेः क्ष्यर्थादुपदस्पन्त्यस्मिन्नसा, उपदासयति कर्माणि।। [नि० 7.23]
दस्यु क्षयार्थक दस धातु से बनता है, दस्यु में रस रूप जाते हैं [अतः मेघ दस्यु है] और वह वैदिक कर्मो का नाश करता है
He destryos religious ceremonies
यानी धर्म द्वारा स्थापित मर्यादाओ का उल्लंघन करने वाला, नाश करने वाला, दस्यु है। यही बात आक्षेपकर्ता स्वयं भी अपनी पुस्तक में दस्यु शब्द के बाद (दुष्ट) लिखकर मानता है। अतः दुष्ट वो व्यक्ति है जो मर्यादाओ का उल्लंघन करे, दुष्ट को धर्म से जोड़ना ही मूर्खता है, क्योंकि मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
अतः जो इनका नाश करता है, इन मर्यादाओ का उल्लंघन करता है, वह दुष्ट है, इसमें आचार्य सायण का प्रमाण भी है, देखिये :
आर्यम = अरणीयं सर्वेर्गन्तव्य्म। ऋ० 1.130.4
आर्यान विदुषोनुष्टातन।। ऋ० 1.51.8
उत्तमं वर्णे त्रैवर्णिकम्।। 3.34.9
आर्याय यज्ञादि कर्म कृते यजमानाय।। 6.25.2
आर्यार्याणि कर्मानुष्ठातृत्वेन श्रेष्ठानी।। 6.33.3
दस्यु :
दस्यु चोरं वृत्रं वा।। ऋ० 1.33.4
दस्यवः अनुष्ठातृणामुपक्षयितारः शत्रवः।। ऋ० 1.51.8
दासीः कर्मणामुपक्षयित्री र्विश्वः सर्वा विशः प्रजाः 6.25.2
दासाः कर्म हीनाः शत्रवः।। 6.60.6
दस्यवः अव्रताः।। 1.51.8
“दासं वर्ण शूद्रादिकम्” । “दस्यु मव्रतम्”
दासः कर्म करः शूद्रः, आर्यस्त्रै वर्णिकः।। 10.38.3
यास्क और सायण के किये अर्थो में आर्य और दस्यु के जातीयभेद होने की गंध भी नहीं। सभी जगह यज्ञादि कर्म करने वाले त्रैवर्णिक को आर्य्य कहा है और यज्ञादि कर्म न करने वाले, विघ्न डालने वाले, अव्रत व शूद्रादि को दस्यु और दास नाम दिए हैं।
कहने का अर्थ है जो लोकोपकार और जगत के लाभ के लिए किये जाने वाले कर्मो को नहीं करता, विघ्न डालता है, वो दुष्ट यानी दस्यु कहा जाता है।
भारतीय संविधान में भी चोर, ठग आदि शब्द वर्णित हैं, तो क्या प्रत्येक भारतीय चोर, ठग आदि सिद्ध होता है ? नहीं, क्योंकि किसी नागरिक को चोर, लुटेरा, ठग आदि तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कोई नागरिक ऐसा कोई कुकर्म न करे, ठीक ऐसे ही दस्यु उन्हें कहा गया जो अवैदिक कृत्य करते थे।
वैदिक साहित्य तथा संस्कृत साहित्य से तो यह बात और भी पुष्ट हो जाती है की दस्यु आर्यो की संतान थे, जो वैदिक कर्म न करने से पतित और बहिष्कृत समझे गए थे, पाश्चात्य विद्वान भी इसको मानते हैं, दस्यु जातियों में से बहुतसी क्षत्रिय जातीय थी। ऐतरेय, मनु, रामायण और महाभारत इसमें साक्षी हैं :
तस्य ह विश्वामित्र ………………………….. विश्वामित्रा दस्यूनां भूयिष्ठाः (ऐ० ब्रा० 7.18)
(सायण) विश्वामित्र ऋषि के एक सौ पुत्र थे, मधुच्छन्दस, प्रभृति पचास बड़े और पचास छोटे। जो बड़े थे उन्होंने कहना नहीं माना। विश्वामित्र ने उनको कहा की तुम्हारी संतान चाण्डलादी नीच जातियों की हो जाए। वही अंधृ, पुण्ड्र, शबर, पुलिंद, मुतिव आदि जातीय हैं, दस्यु जातियों में से बहुत सी विश्वामित्र की संतान हैं।
अतः सिद्ध है की दस्यु कर्म से हीन होकर, अमर्यादित जातियां हुई, जो भारत से बाहर जाकर बसी, इन्हे ही दस्यु कहा गया।
द्विज लोग दस्यु कैसे बन गए, इस विषय में मनु महाराज कहते हैं :
शनकै स्तुक्रियालोपादिमाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्मणादर्शनेन च ।। मनु १०:४३
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः । । १०.४४ । ।
मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः । । १०.४५ । ।
पौण्ड्र आदि १२ क्षत्रिय जातीय वैदिक क्रियाए भुला देने से, और ब्राह्मण लोगो से सम्बन्ध टूट जाने से शनै शनै शूद्र हो गयी और यही जातीय दस्यु हैं चाहे म्लेच्छ (विदेशी) भाषा बोले चाहे आर्यो की भाषा।
महाभारत 12.136.1 “दस्युनां निष्क्रियानां च क्षत्रियो हर्तु मर्हति।।
तस्मादपयद्देहाददान मश्रद्दधान भयजमा नमाहु रासुरोबत इति (छा० उ० अ० ८ ख. 8.5)
महाभारत शान्तिपर्व अध्याय १९८ में भीष्म कहते हैं।
हे राजन मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हु जो उत्तर दिशा में मलेच्छों में हुई। मध्य देश का कोई ब्राह्मण किसी ब्राह्मण और वेदज्ञों से रहित पर समृद्ध ग्राम में भिक्षा लेने के लिए घुस गया। वहां एक धनी, धर्मात्मा, सच्चा, दानी वर्णव्यवस्था जानने वाला दस्यु रहता था। उसके घर पर जाकर ब्राह्मण ने भिक्षा मांगी। वह गौतम नामक ब्राह्मण मलेच्छ में रहते रहते उनके सन्निकर्ष से उन जैसा बन गया। उसी ग्राम में एक और ब्राह्मण आ निकला, और पहले ब्राह्मण को देख कर कहने लगा की तू तो मध्य देश का कुलीन ब्राह्मण था पर उससे दस्यु कैसे बन गया।
इस कथा से स्पष्ट हो जाता है की दस्यु कोई पृथक नस्ल के न थे आर्यो में से ही पतित लोग, या धार्मिक लोग भी जो पतितो के संग से पतित हो जाते थे, दस्यु कहानी लगते थे।
अब एक और दृष्टान्त लीजिये, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा की किस प्रकार ब्राह्मण माता पिता की संतान भ्रष्टाचारी होने से राक्षस यातुधान कहाने लगती है। पुलस्त्य ब्रह्मषि थे, द्विज थे (पुलस्त्यो नाम ब्रह्मषि ; पुलस्त्यो यत्र स द्विजः) उनका पुत्र विश्रवा भी उन जैसा योग्य था। पर विश्रवा के पुत्रो में से रावण, कुम्भकर्ण, भ्रष्टाचारी, अधार्मिक होने से राक्षस, दस्यु, अनार्य, यातुधान कहाने लगे, पर छोटा पुत्र विभीषण धर्मात्मा होने से आर्य ही रहा। ये तो रामायण की कथा से ही सिद्ध हो जाता है, की आर्यावर्त की सीमा से बाहर भी जो दस्यु, कर्म से द्विज और वेद धर्म के पालनहारी हो, वे भी आर्य ही कहाते थे, और आज भी ऐसा ही है, क्योंकि पाप, भ्रष्टाचार और अवैदिक कर्म से ही दस्यु कहाते हैं।
अतः आक्षेपकर्ता का आरोप की वेद में दस्यु, नास्तिक मलेच्छ आदि आर्यावर्त की सीमा से बाहर के लोगो को कहते हैं, ये खंडित होता है, मगर जो काफ़िर, मुशरिक आदि शब्द अल्लाह मियां द्वारा मनुष्य में मनुष्य की लड़ाई और झगड़ा, वैमनस्य फैलाते हैं, उनपर आक्षेपकर्ता का मौन या दृढ समर्थन, इंसानियत के लिए ठीक प्रतीत नहीं होता, अतः आक्षेपकर्ता को ऐसी विकृत मानसिकता और मनुष्य की मनुष्य में वैमनस्य फैलानी वाली घृणित सोच से बचना चाहिए।
आओ लौटो वेदो की ओर
नमस्ते

ईसा (यीशु) एक झूठा मसीहा है – पार्ट 1

सभी आर्य व ईसाई मित्रो को नमस्ते।

प्रिय मित्रो, जैसे की हम सब जानते हैं – हमारे ईसाई मित्र – ईसा मसीह को परम उद्धारक और पापो का नाशक मानते हैं – इसी आधार पर वो अपने पापो के नाश के लिए ईसा को मसीह – यानी उद्धारक – खुदा का बेटा – मनुष्य का पुत्र – स्वर्ग का दाता – शांति दूत – अमन का राजकुमार – आदि आदि अनेक नामो से पुकारते हैं –

इसी आधार ईसा को पापो से मुक्त करने वाला और – स्वर्ग देने हारा – समझकर – अनेक हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करवाकर – उन्हें स्वर्ग की भेड़े बनने पर विवश करते हैं – ईसा का पिछलग्गू बना देते हैं – नतीजा – हिन्दू समाज धर्म को त्याग कर – मात्र स्वर्ग के झूठे लालच में ईसा के पीछे भटकता रहता है –

सोचने वाली बात है – ईसाई जो ऐसा षड्यंत्र रच रहे की ईसा से पाप मुक्ति होगी और ईसा को मानने वाला स्वर्ग में प्रवेश करेगा – क्या ये वास्तव में होगा ? क्या ये षड्यंत्र है अथवा सत्य ? क्या कभी धर्म को त्याग कर मनुष्य केवल एक भेड़ बन जाने से स्वर्ग पा सकता है ?

क्या कहती है बाइबिल ?

बाइबिल के अनुसार – सच्चे मसीह को पहिचानने के लिए बाइबिल में कुछ भविष्यवाणियां की गयी थी – जो उन भविष्यवाणियों पर खरा उतरेगा वो ही मसीह कहलायेगा – और जो भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरेगा वो झूठा मसीह होगा – ऐसे मसीह अनेक आएंगे – जो खुद को ईसा और पाप का नाशक कहेंगे – मगर लोगो को सावधान रहकर – सच्चे मसीह पर विश्वास करना होगा – जो झूठे मसीह पर विश्वास करेगा – वो पापी ही कहलायेगा – वो कभी स्वर्ग नहीं जा सकता – ये बाइबिल का कहना है।

आइये एक नजर डाले – जिस ईसा पर विश्वास करके हमारे ईसाई भाई – हिन्दुओ को बहका कर उनका धर्म परिवर्तन कर रहे – वो ईसा क्या सचमुच बाइबिल के आधार पर – मुक्तिदाता है ? क्या वाकई ये ईसा – कोई मसीह है ? क्या वाकई ईसा पर विश्वास करने से मनुष्य स्वर्ग जाएगा ? कहीं ये कोई ढकोसला, अन्धविश्वास या षड्यंत्र तो नहीं ?

आइये एक नजर इसपर भी की क्या ये ईसा वही मसीह है जो खुदा का बेटा है – ये वही मसीह है जो मनुष्यो को पाप मुक्त करके स्वर्ग और सुख शांति देगा ?

मुख्यरूप से तीन भविष्यवाणियां हैं – जिनके द्वारा सच्चे मसीह को पहिचाना जा सकता है – लेकिन “ईसा” इन मुख्य तीन भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरता – आइये देखे –

पहली भविष्यवाणी –

23 कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “ परमेश्वर हमारे साथ”। (मत्ती अध्याय १)

इस भविष्यवाणी में कहा गया की एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी – उसका नाम “इम्मानुएल” रखा जाएगा – लेकिन सच्चाई ये है की “ईसा” को पूरी बाइबिल में – कहीं भी – किसी ने भी – यहाँ तक की ईसा के माता पिता ने भी ईसा को “इम्मानुएल” नाम से नहीं पुकारा – न ही इस बच्चे का नाम “इम्मानुएल” रखा – देखिये –

25 और जब तक वह पुत्र न जनी तब तक वह उसके पास न गया: और उस ने उसका नाम यीशु रखा॥

जब भविष्यवाणी ही “इम्मानुएल” नाम की हुई तो क्यों “ईसा” नाम रखा गया ?

दूसरी भविष्यवाणी –

3 अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह के विषय में प्रतिज्ञा की थी, जो शरीर के भाव से तो दाउद के वंश से उत्पन्न हुआ। (रोमियो अध्याय १)

29 हे भाइयो, मैं उस कुलपति दाऊद के विषय में तुम से साहस के साथ कह सकता हूं कि वह तो मर गया और गाड़ा भी गया और उस की कब्र आज तक हमारे यहां वर्तमान है।
30 सो भविष्यद्वक्ता होकर और यह जानकर कि परमेश्वर ने मुझ से शपथ खाई है, कि मैं तेरे वंश में से एक व्यक्ति को तेरे सिंहासन पर बैठाऊंगा। (प्रेरितों के काम, अध्याय २)

यहाँ से साफ़ है – भविष्यवाणी हुई थी की दाऊद के वंश से – खासकर “शारीरिक वंशज” – यानी दाऊद के वंश में संतानोत्पत्ति (सेक्स) करके उत्पन्न होगा – वो मसीह होगा – लेकिन हमारे ईसाई मित्र तो कहते हैं की – मरियम – कुंवारी ही गर्भवती हुई ?

इसका मतलब – मरियम के साथ – सेक्स नहीं हुआ – फिर दाऊद का वंशज जो सिंघासन पर बैठना था – वो ईसा कैसे ?

तीसरी भविष्यवाणी –

16 क्योंकि उस से पहिले कि वह लड़का बुरे को त्यागना और भले को ग्रहण करना जाने, वह देश जिसके दोनों राजाओं से तू घबरा रहा है निर्जन हो जाएगा। (यशायाह, अध्याय 7)

यहाँ भविष्यवाणी में बताया जा रहा है – जब वो मसीह परिपक्वता, सिद्धि – प्राप्त कर लेगा – उससे पहली ही यहूदियों के दोनों देश तबाह और बर्बाद हो जाएंगे – बाइबिल के नए नियम में – इस भविष्यवाणी के बारे में कोई खबर नहीं है – यानी ईसा को जब सिद्धि हुई – तब यहूदियों के दोनों देश बर्बाद हुए – इस बारे में – नया नियम खामोश है –

इन सभी मुख्य तीन भविष्यवाणियों से सिद्ध होता है – की ईसाई समाज जिस ईसा को – खुदा का बेटा – पाप नाशक – और स्वर्ग का दाता – कहते और मानते हैं – वो ईसा तो बाइबिल के आधार पर ही – मसीह सिद्ध नहीं होता – फिर क्यों – हिन्दुओ को मुर्ख बनाकर – उनको धर्मभ्रष्ट कर के – स्वर्ग का लालच देते हैं ?

मेरे ईसाई मित्रो – ये इस कड़ी का पहला भाग है – इसका दूसरा भाग जल्दी ही मिलेगा – जिसमे – खंडन होगा ईसाइयो के उस षड्यंत्र का जिसमे जबरदस्ती ईसा को मसीह सिद्ध करने की चाल ईसाई मिशनरी – चल रही – और मनुष्य को ईश्वर की जगह शैतान की राह पर चलाने का षड्यंत्र कर रही हैं।

अभी भी समय है – मनुष्य जीवन का लाभ उठाओ – धर्म की और आओ – हिन्दुओ भेड़ बनने से अच्छा है – मनुष्य ही बने रहो – वेद की और लौटो – अपने आप ही ये धरती स्वर्ग बन जायेगी –

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते