आर्यसमाज की आवश्यकता: – उत्तमचन्द शरर

प्राय: जनसाधारण में यह कहने का फैशन सा बन गया है कि अब आर्यसमाज की कोई आवश्यकता नहीं, इसके सुधार सम्बन्धी सभी कार्य या तो पूरे हो चुके और समाज ने उन्हें स्वीकार कर लिया अथवा कुछ अन्य संस्थाओं ने उन्हें अपने हाथ में ले लिया है। स्त्री-शिक्षा का कार्य तो प्राय: सभी ने स्वीकार कर लिया है, दलितोद्धार के सम्बन्ध में सरकार ने कानून बना दिया, हरिजनों की उन्नति में सरकार स्वयं प्रयत्नशील है, नौकरी में उनके अधिकारों का आरक्षण हो रहा है, विभिन्न राजनैतिक पार्टियाँ मण्डल आयोग की होड़ में एक-दूसरे से आगे आने के प्रयत्न में हैं और इस सत्य से किसे इन्कार हो सकता है कि हरिजनों की उन्नति के लिये जो कुछ सरकार कर सकती है, आर्यसमाज का कार्य उसके सम्मुख कितना हो सकता है? जन्म की वर्ण-व्यवस्था भी अब नाम मात्र है, शुभकर्मों के महत्त्व को कौन नहीं मानता? ब्राह्मण नामधारी यदि विद्वान् नहीं तो उसे कौन पूछता है, इसी प्रकार मूर्तिपूजा भी अब दिखने को अधिक है, परन्तु मूर्ति को ईश्वर मानकर उसके भरोसे पर आज राष्ट्र के अस्तित्व को कोई दाँव पर लगाने को तैयार नहीं।

यह दृष्टिकोण कई स्थानों पर तो आर्यों में भी पाया जाता है। परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये, तो सारा कार्य अधूरा सा लगता है। नारी-जाति आज भी पददलित है, दहेज का दानव उसे निगल रहा है, आज भी जवान लडक़ी जीवित जला दी जाती है। हरिजन नाम ने पिछड़ी जातियों को सदैव पिछड़ा कहलाने पर विवश कर दिया है। उनके आरक्षण के प्रलोभन ने ब्राह्मण का कार्य करने वालों को भी अपनी जन्म की जाति चमार आदि लिखवाने पर मजबूर कर दिया है, यदि वे ऐसा न करें, तो असैम्बली की सीट नहीं मिलती है। मूर्तिपूजा का प्रचार तो सरकार तथा दूरदर्शन धमाके से कर रहे हैं। कभी गाँधी जी की समाधि पर फूल चढ़ाये जाते हैं तो कभी विवेकानन्द के चित्रों पर। राजनैतिक नेता प्राय: फलित ज्योतिष के चक्कर में हैं। कई नामधारी संन्यासी और तथाकथित ब्रह्मचारी राष्ट्र-नेताओं का पथ-प्रदर्शन तान्त्रिक विद्या से कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि आर्यसमाज का यह सुधार-सम्बन्धी कार्य तो पहले से भी जटिल हो गया है। परन्तु मैं तो एक और तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। वैदिक संस्कृति इस देश का मूलाधार है और स्वयं वेद के सम्बन्ध में आर्यसमाज के अतिरिक्त और किसी को सोचने का अवसर ही नहीं। आर्यसमाज अपनी शक्ति अनुसार इस बृहत् कार्य को लिये हुए है, वेद सम्बन्धी अनुसन्धानात्मक पुस्तकें, वेदों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद, वेद-प्रचार आदि यह केवल आर्यसमाज का ही कार्य है। राजनैतिक सभाएँ तो इस ‘सम्प्रदायवाद’ में उलझने से रहीं। जो लोग अपने वोटों के लिये स्वामी श्रद्धानन्द के राष्ट्रीय स्वरूप को प्रस्तुत करने से डरते हैं, दूरदर्शन पर उसकी चर्चा से भी भयभीत हैं, वे वेदों के सम्बन्ध में क्या करेंगे? वेदों से अधिक सम्प्रदायवाद से ऊँचा कोई ग्रन्थ नहीं, परन्तु स्वयं को सम्प्रदायवाद से दूर कहलाने वाले इस पवित्र ग्रन्थ की शिक्षाओं के प्रसार से जनता को वंचित कर रहे हैं, यह कैसी विडम्बना है? रहे सनातनधर्मी, वे बेचारे तुलसी रामायण से ही मुक्ति नहीं पा सके, दौड़ लगाएँगे तो गीता तक, वह भी केवल पूजा-अर्चना के लिये, अनुसन्धान की बात उनका क्षेत्र नहीं। इस्लाम तथा ईसाईमत, कुरान तथा बाइबल के पक्षधर हैं। उनमें से प्राय: लोग वेदों के दर्शन ही नहीं कर पाये। जो कुछ जानते हैं, वे मजहबी वातावरण में सत्य को सत्य कहने का स्वयं में साहस नहीं कर पाते। आखिर वेदों का तथा कुरान बाइबल का मुकाबला ही क्या?

ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज के अतिरिक्त को वेदानुद्धरिष्यति?

आज तथाकथित धार्मिक एवं राजनैतिक सभाएँ अंधविश्वास से जनता को लूट रही हैं। भाजपा के अध्यक्ष भी अपने राजनैतिक लाभ के लिए अपनी एकता यात्रा के आरम्भ में यज्ञ तथा भैंसे की बलि देने से नहीं घबराते। भाजपा में रहने वाले आर्य बन्धुओं की वह दशा है जो आज कम्युनिज्म के गढ़ रूप की समाप्ति पर भारत के कम्युनिस्टों की है, वे बेचारे जैसे-तैसे जोशी जी के कृत्य को उचित सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। एक भाजपा के आर्यसमाजी कार्यकर्ता ने उत्तर में कहा ‘‘यह सारा दोष भाजपा का नहीं, आर्यसमाज का है, उसने उस क्षेत्र में प्रचार क्यों नहीं किया? क्या विचित्र उत्तर है! जैसे उत्तर-दाता स्वयं आर्यसमाजी नहीं है? ऐसे तो प्रत्येक सम्प्रदाय अपने ऊलजलूल वेद-विरुद्ध कृत्यों का दोष आर्यसमाज पर मढ़ सकता है। वस्तुत: पाखण्ड के विनाश के लिये केवल एक संस्था है, जिसका नाम आर्यसमाज है और जिसे न तो हिन्दू या मुसलमान से वोट लेने का प्रलोभन है, न संस्कृतिविहीन पाखण्डों में फंसे हिन्दू के संगठन द्वारा दुकान चमकाने का शौक है। उसका तो लक्ष्य है- ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि।’ वह किसी एक वर्ग के पाखण्ड का मोहवश पक्षधर नहीं हो सकता। आर्यसमाज जानता है कि यदि अन्धविश्वास से ग्रस्त हिन्दू समाज के हाथ में राज्य कभी आ भी गया, तो कोई मुहम्मद बिन कासिम या महमूद गजनवी उसे परास्त कर सकता है।

आओ, हम आर्यसमाज के महत्व को समझें और अपने अहं को बलि देकर भी इसे सुदृढ़, सशक्त तथा संगठित बनावें, ऋषि के इन वचन को न भूलें ‘‘जो उन्नति चाहते हो, तो आर्यसमाज के साथ मिलकर कार्य करो, नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा।’’

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