मुल्ला सतीशचंद गुप्ता के दूसरे लेख का उत्तर

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यह मुल्ला सतीशचंद गुप्ता के दूसरे लेख “अहिंसा परमो धर्मं ” के उत्तर में लिखा है |

सतीशचंद गुप्ता :- वैदिक ब्राह्मण यज्ञ को प्रथम और उत्तम वैदिक संस्कार समझते थे। यह आर्यों का मुख्य धार्मिक कृत्य था। पशु बलि यज्ञ का मुख्य अंग थी। पशु बलि को बहुत ही पुण्य का कर्तव्य समझा जाता था। गौतम बुद्ध ने जब देखा कि आर्य लोग यज्ञ में निरीह पशुओं की बलि चढ़ाते हैं, तो यह देखकर उनका हृदय विद्रोह से भर उठा। आर्य धर्म के विरूद्ध उठने वाली क्रांति का प्रमुख कारण वैदिक पुरोहितवाद और हिंसा पूर्ण कर्मकांड ही था।
ईसा से करीब 500 वर्ष पहले गौतम बुद्ध ने वैदिक धर्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया था वह यह था कि,

‘‘पशु बलि का पुण्य कार्य और पापों के प्रायश्चित से क्या संबंध ? पशु बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध है ?’’

यह एक विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध के करीब 2350 वर्ष बाद आर्य समाज के संस्थापक, वेदों के प्रकांड पंडित स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस्लाम पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया है वह यह है कि

‘‘यदि अल्लाह प्राणी मात्र के लिए दया रखता है तो पशु बलि का विधान क्यों कर धर्म-सम्मत हो सकता है ? पशु बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध है।’’

कैसी अजीब विडंबना है कि जो सवाल गौतम बुद्ध ने वैदिक ऋषियों से किया था, वही सवाल करीब 2350 वर्ष बाद एक वैदिक महर्षि मुसलमानों से करता है। जो आरोप गौतम बुद्ध ने आर्य धर्म पर लगाया था, वही आरोप कई ‘शताब्दियों बाद एक आर्य विद्वान इस्लाम पर लगाता है।

वैदिक मत : यज्ञ वैदिक धर्मं का एक अत्यावश्यक तत्व है इस में कोई संदेह नहीं | वेदों में यज्ञो का महत्व अनेक स्थलों पर अत्यंत स्पष्ट शब्दों में बताया गया है, यहाँ तक कि यज्ञो के द्वारा ही भगवान कि पूजा और मोक्ष प्राप्ति का विधान किया गया है |

यज्ञेन यज्ञमयजन्त…………………………………प्रथमान्यासन |

ते ह नाकं……………………………………………सन्ति देवा: || १०.९०.१६ |

अर्थात सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञो के द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर कि पूजा करते है | यज्ञो में सब श्रेष्ट धर्मो का समावेश होता है | वे यज्ञो के द्वारा भगवान कि पूजा करनेवाले महापुरुष दुःख रहित मोक्ष को प्राप्त करते है. जंहा सब ज्ञानी लोग निवास करते है इत्यादि मंत्र इस विषय में उल्लेखनीय है | यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है गुप्ता जी कि यज्ञ शब्द जिस यज धातु से बनता है उस के देव पूजा—संगती करण और दान ये तीन अर्थ धातु पाठ में वर्णित है जिन में हमारे सब कर्तव्यों का समावेश हो जाता है | पर इस सब से आपको क्या गुप्ता जी आप तो उसी अन्य और विपरीत अर्थ को लेंगे जो आपके हित का है और आपका दोष भी नहीं है एक तो आपको भाषा का भी ज्ञान नहीं है और दूसरा मुक्य बात आदरणीय गौतम बुद्ध को भी वैदिक भाषा का ज्ञान नहीं था | और अंतिम वैदिक भाषा यौगिक अर्थ को प्रस्तुत करती है एक शब्द के अनेक अर्थ है जो प्रकरण अनुसार ग्रहण करने होते है | जिसने इस सिद्धांत को तोडा और मनमाने अर्थ किये वह वेद के मंत्रो के ऐसे ही मनमाने अर्थ करेंगा जो उस काल के तथकथित ब्राह्मणों ने किया |

यह बड़े दुःख कि बात है जिस यज्ञ कि इतनी महिमा बी=वेदों में बताई गयी है और जिस को परमेश्वर कि पूजा और प्राप्ति का साधन बताया गया है, उस के विषय में इतने अशुद्ध विचार मध्य कालीन आचार्यो ने उसे बगेर स्वाध्याय किये ही समाज के समक्ष प्रस्तुत कर दिये |

वेद में ऐसा कही नहीं लिखा है की पशु हिंसा से मुक्ति को प्राप्त होंगे उल्टा इसके विपरीत यजुर्वेद ४.१४ में लिखा है “ जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरुप को साथ ही साथ जानता है वह ‘अविद्या’ अर्थात कर्मोपसना से मृत्यु को तरके ‘विद्या’ अर्थात यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है |

सब वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा कही कही विशेषण के रूप में अध्वर शब्दों का प्रयोग सैकडो स्थानों पर पाया जाता है जिस कि व्युत्पति करते हुए निरुक्तकार श्री यास्काचार्य ने लिखा है |

निरुक्त २.७ में आचार्य लिखते है “ अध्वर यह यज्ञ का नाम है जिस का अर्थ हिंसा रहित कर्म है | चारो बी=वेदों में अध्वर के प्रयोग के हजारो उदाहरण है जिस में से निम्नलिखित कुछ का निर्देश यहाँ पर्याप्त है |

  • अग्ने ये यज्ञमध्वरम………………………………..भूरसि |

स ……………गच्छति || ऋग्वेद १.१. ४ |

इस मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर | तू हिंसा रहित यज्ञो में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञो को सत्यनिष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते है |

ऋग्वेद १.१. ८ में मंत्र आता है –

इस मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर ! तू हिंसा रहित यज्ञो में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञो को सत्यनिष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते है |

मै सतीशजी ऐसे कई उदाहरण दे सकता हू जो आपके आरोप को सिरे से ख़ारिज कर दे देते है |

मध्य के काल में यज्ञो में पशु हिंसा हुई इससे कोई इंकार नहीं कर सकता पर इसका दोष हम वेदों पर नहीं दाल सकते | दृष्टिहीन को सूर्य नहीं दिखे तो इसमें सूर्य का क्या दोष ?

अब आप कहेंगे ऋषि दयानंद का भाष्य कैसे सत्य और अन्यों का कैसे गलत वैसे ये समझदार को बताना अनावश्यक है पर आप उस श्रृंखला  में नहीं आते इसलिए आप को कुछ विद्वानों द्वारा ऋषि के भाष्य पर कि हुई टिप्पणिय बता देते है |

यह सच्च में भारतीयो  के लिए एक युगांतरकारी तारीख थी जब एक ब्राह्मण ( स्वामी दयानंद सरस्वती ) ने न केवल स्वीकार किया की सभी मनुष्यों को वेदों को पढने का हक़ है ,जिसका अध्ययन पहले से रूढ़िवादी ब्राह्मण द्वारा निषिद्ध किया गया था |किन्तु  जोर देकर कहा कि इनका अध्ययन और प्रचार सभी आर्यों का कर्तव्य है  ( Life of Ram Krishna By Roman Rolland p. 59 )

 

  • “There is nothing fantastic in Dayanand’s idea that Veda contains truth of Science as well as truth of Religion. I will even add my own convictions that Veda contains the other truths of a science the modern world does not at all possess and in that case, Dayananda has rather understand than overstated the depth and range of the Vedic wisdom. ….It as Dayanand held on strong enough grounds, the Veda reveals to us God, reveals to us the relation of the soul to God and nature, what is it but a Revelation of divine Truth ? And if, as Dayananda held, it reveals them to us with a perfect truth, flawlessly, he might well hold it for an infallible Scripture……In the matter of Vedic interpretation; I am convinced that whatever may be the final complete interpretation, Dayananda will be honored as the first discoverer of the right clues. A midst the chaos and obscurity of old ignorance and age long misunderstanding. His was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that time had closed and rent asunder the seal of the imprisoned fountains.” (Dayanand and Veda from the article in the Vedic Magazine Lahore for Nov 1916 by Shri Arvinda.)

 

ये सिद्ध हो गया की पशु बलि ना पुण्य का कार्य है गोर पाप है और वेद विरुद्ध है | पापों के प्रायश्चित का इन दुष्कर्मो का कोई लेना देना नहीं है | निश्चित पशु बलि धर्मा चरण नहीं जघन्य पाप और अपराध है |

ऋषि दयानंद का इस्लाम से पशु बलि विषय से प्रश्न करना कोई विडंबना नहीं है क्यों की इस्लाम का कहना है की कुरान ईश्वरीय ज्ञान है | जब ईश्वरीय ज्ञान वेद पर प्रश्न हो सकते है तो कुरान पर क्यों नहीं |कुरहान से कुछ प्रमाण :-

1.

न उनके मांस अल्लाह को पहुँचते है और न उनके रक्त | किन्तु उसे तुम्हारा धर्म परायण पहुँचता है | इस प्रकार उसने उन्हें तुम्हारे लिए वशीभूत किया है , ताकि तुम अल्लाह की बढ़ाई ब्यान करो | इसपर की उसने तुम्हारा मार्गदर्शन किया और सुकर्मियो को शुभ  सुचना दे दो |( कुरान २२:३७ )

ये कितनी मूर्खता की बात है जब खुदा तक उनका गोश्त और खून पहुचेंगा ही नहीं सिर्फ खुदा की प्रशंसा मात्र करने के लिए कुर्बानी दो उस तथाकथित अल्लहा के नाम से जो दयालु है उचित प्रथित नहीं होता | इसलिए प्रश्न किया आप से क्या इसे कहते है ईश्वरीय ज्ञान और ईश्वर जो मात्र अपनी प्रशंसा के निर्दोष प्राणियों की हत्या करवाये गुप्ता जी |

  • 2. इसलिए तुम अपने रब के लिए नमाज पढो और क़ुरबानी करो  ( १०८.२ )

जब ईश्वरीय ज्ञान ही कहता है कुर्बानी दो तो यह कैसे दया और यह कैसा ईश्वर और कैसा ईश्वरीय ज्ञान | आप को गुप्ता जी कोई अधिकार नहीं किसी अन्य पर प्रश्न करे आप कोई एक भी मंत्र वेदों में से बता सखे जो ईश्वर को खुश करने के लिए हत्या की बात करता हो |

 

Qurbani is Fardh for :

Qurbani, like Zakat, is essential for one who has the financial means and savings that remain surplus to his own needs over the year. It is essential for one?s own self.

However, a slaughter of animal can also be offered for each member of one?s family. It may be offered, though it is not essential, for one?s deceased relations, too, in the hope of benediction and blessings for the departed souls.

What to Sacrifice

All the permissible (halal) domesticated or reared quadrupeds can be offered for Qurbani. Generally, slaughter of goats, sheep, rams, cows, and camels is offered. It is permissible for seven persons to share the sacrifice of a cow or a camel on the condition that no one?s share is less than one seventh and their intention is to offer Qurbani. Age of Sacrificial Animals Sacrifice of goat or sheep less than one year old (unless the sheep is so strong and fat that it looks to be a full one year old) is not in order. Cow should be at least two years old. Camels should not be less than five years old. (http://www.islamawareness.net/Eid/azha.html)

सतीशचंद गुप्ता :- कैसी अजीब विडंबना है कि जो सवाल गौतम बुद्ध ने वैदिक ऋषियों से किया था, वही सवाल करीब 2350 वर्ष बाद एक वैदिक महर्षि मुसलमानों से करता है। जो आरोप गौतम बुद्ध ने आर्य धर्म पर लगाया था, वही आरोप कई ‘शताब्दियों बाद एक आर्य विद्वान इस्लाम पर लगाता है।

वैदिक मत :- आप इस तरह से कुराहन के कुर्बानी विषय को भटका नहीं सकते  यह ऊप्पर सिद्ध हो चूका है की वैदिक मत यज्ञ में पशु हिंसा को स्थापित नहीं करता और ना ही ऐसा कोई मंत्र है जिसका अर्थ आपके आरोप को सिद्ध करता है | गौतम बुद्ध के जो आरोप थे वह अज्ञानता वश थे उसे वेदों पर थोपा नहीं जा सकता | यह दोष उस काल के अज्ञानी ब्राह्मण जिन्होंने वेदों के मनमाने अर्थ किये जिस वजह से गौतम बुद्ध वेदों से दूर हुए | हम आपको आवाहन करते है की आप वेदों में से जो आपने आरोप लगाये है सिद्ध कर के बताये | जो की हमने कुरहान से सिद्ध कर दिये है | इसलिये इस्लाम पर प्रश्न तो होंगे अपर इस्लाम के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है इसलिये आप इस विषय को परिवर्तित करने में लगे हुए है जो की हो नहीं सकता |

सतीशचंद गुप्ता :- धर्म का संपादन मनुष्य द्वारा नहीं होता। धर्म सृष्टिकर्ता का विधान होता है। धर्म का मूल स्रोत आदमी नहीं, यह अति प्राकृतिक सत्ता है। यह भी विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व का इंकार करके वैदिक धर्म को आरोपित किया था, मगर स्वामी दयानंद सरस्वती ने ईश्वर के अस्तित्व का इकरार करके इस्लाम को आरोपित किया है।

वैदिक मत :- ईश्वर के इकरार और इंकार का चर्चा के विषय से क्या लेना देना गुप्ता जी | ईश्वर का इकरार तो हज़रत मोहम्मद ने भी किया तो फिर उन्होंने भी बहोत गलत किया ? इसे कहते है मुह छुपाना और विषय को भटखाना सतीशचंद  गुप्ता जी यह चर्चा के नियम के विरुद्ध है |

सतीशचंद गुप्ता :- प्राचीन भारतीय समाज में पशु बलि के साथ-साथ नर बलि की भी एक सामान्य प्रक्रिया थी। यज्ञ-याग का समर्थन करने वाले वैदिक ग्रंथ इस बात के साक्षी हैं कि न केवल पशु बलि बल्कि नर बलि की प्रथा भी एक ठोस इतिहास का परिच्छेद है। यज्ञों में आदमियों, घोड़ों, बैलों, मेंढ़ों और बकरियों की बलि दी जाती थी। रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी मुख्य पुस्तक ‘‘संस्कृति के चार अध्याय’’ में लिखा है कि यज्ञ का सार पहले मनुष्य में था, फिर वह अश्व में चला गया, फिर गो में, फिर भेड़ में, फिर अजा में, इसके बाद यज्ञ में प्रतीकात्मक रूप में नारियल-चावल, जौ आदि का प्रयोग होने लगा। आज भी हिंदुओं के कुछ संप्रदाय पशु बलि में विश्वास रखते हैं।

वैदिक मत :-आप ने आरोप लगाया था वेदों पर कोई एक तो मंत्र दे दिया होता तो बड़ा आनंद आता | आप की विद्वता का ज्ञान होता पर गुप्ता जी आप तो हवाई घोड़े दौड़ा रहे है | वेद में ऐसे किसी बलि का कोई उल्लेख नहीं है | बात कर रहे है वेदों की और वेदों से प्रमाण तो नहीं दिया प्रमाण दे रहे है एक कवी के ग्रन्थ का वाह ! मान गये गुप्ता जी वेद स्वत: प्रमाण है वेद को किसी अन्य ग्रन्थ के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है | यह विशेषता होती है ईश्वरीय वाणी की जो कुरहान में नहीं है |

Dedication of the human sacrifice to the Moon God
“Then the man HYPERLINK “http://www.rferl.org/content/article/1055258.html”pulled out a long knife and cut offHYPERLINK “http://www.rferl.org/content/article/1055258.html” HYPERLINK “http://www.rferl.org/content/article/1055258.html”Bigley’sHYPERLINK “http://www.rferl.org/content/article/1055258.html” HYPERLINK “http://www.rferl.org/content/article/1055258.html”headHYPERLINK “http://www.rferl.org/content/article/1055258.html” with the help of a group of masked men who shouted, “God is great!” in Arabic. This is actually incorrect. They shouted ‘Allahu Akhbar!’ which means ‘Allah is the Greatest’.

However Allah cannot be the same as the Judeo-Christian God, because God forbade human sacrifice when Abraham tried to sacrifice Isaac. There are also warnings in the Old Testament about a moon-demon called Moloch who demands human sacrifice.

This dedication of the slaughtered kafirs to Allah occurs again and again in Islamic attacks. The Fort Hood shooter shouted ‘HYPERLINK “http://www.guardian.co.uk/world/2009/nov/06/fort-hood-shooter-alive”AllahuHYPERLINK “http://www.guardian.co.uk/world/2009/nov/06/fort-hood-shooter-alive” HYPERLINK “http://www.guardian.co.uk/world/2009/nov/06/fort-hood-shooter-alive”Akbar’ as he opened fire. [Again ‘Allah’ is mistranslated as ‘God’]

Note also in the following videos how the congregation shout ‘AllahuAkbar’ as the Kafir’s blood begins to flow. (/01/satanic-islam-allah-moloch-demands.html”http://crombouke.blogspot.in/HYPERLINK “http://crombouke.blogspot.in/2010/01/satanic-islam-allah-moloch-demands.html”2010/01/HYPERLINK “http://crombouke.blogspot.in/2010/01/satanic-islam-allah-moloch-demands.html”satanic-islam-allah-moloch-demands.html)

वेदों में तो नहीं है पर कुरान के अल्लाह के नाम पर आज भी इंसान की बलि दी जाती है | उस दयालु अल्लाह के नाम से बड़ा हास्यास्पद लगता है दयालु और इंसान की कुर्बानी |

सतीशचंद गुप्ता :- वेदों के बाद अगर हम रामायण काल की बात करें तो यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि श्री राम शिकार खेलते थे। जब रावण द्वारा सीता का हरण किया गया, उस समय श्री राम हिरन का शिकार खेलने गए हुए थे। उक्त तथ्य के साथ इस तथ्य में भी कोई विवाद नहीं है कि श्रीमद्भागवतगीता के उपदेशक श्री कृष्ण की मृत्यु शिकार खेलते हुए हुई थी। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि क्या उक्त दोनों महापुरुष हिंसा की परिभाषा नहीं जानते थे ? क्या उनकी धारणाओं में जीव हत्या जघन्य पाप व अपराध नहीं थी ? क्या शिकार खेलना उनका मन बहलावा मात्र था ?

वैदिक मत :- सतीश जी रामायण के उस श्लोक की बात करते है जिसमे हिरण के शिकार की बात कही गयी है और क्यों कही गयी है ( अरण्यकाण्ड सर्ग ३३ श्लोक १८  –  मृग को देख कर लक्ष्मण ने शंका करते हुए कहा की इस प्रकार रत्नों से विचित्र मृग नहीं होता है अर्थात यह कोई माया है | लक्ष्मण जी की बात को काटते हुए सीता जी कहती है हे आर्यपुत्र ! यह सुहावना मृग मेरे मन को हरता है हे महाबाहो इसे लाइए यह हमारी क्रीडा के लिए होगा | यदि यह मृग जीता हुआ आपके हाथ आये तो इसकी स्वर्ण खाल को बिछा कर उपासना करने योग्य होगा | तब रामचन्द्र जी लक्ष्मण को कहते है की हे लक्ष्मण तुम्हारे कहे अनुसार यह मृग माया वि है तो इसका वध करना जरुरी है )

अब गुप्ता जी यहाँ स्पष्ट है की सीता जी के द्वारा मृग पकड़ने को कहने का उद्देश्य उसके साथ क्रीडा करना था और रामचन्द्र जी का उद्देश्य उसको या तो क्रीडा के लिए पकड़ कर लाना या यदि वो मायावी हो तो उसका वध करना था |

अब रही श्री कृष्ण जी की मृत्यु की बात तो आपका यह दावा बिलकुल गलत है की उनकी मृत्यु शिकार खेलते हुई थी

महाभारत मौलवपर्व के अनुसार कृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद द्वारिका चले आए थे। यादवराजकुमारों ने अधर्म का आचरण शुरू कर दिया तथा मद्यमांस का सेवन भी करने लगे। परिणाम यह हुआ कि कृष्ण के सामने ही यादव वंशी राजकुमार आपस लड़ मरे। कृष्ण का पुत्र साम्ब भी उनमें से एक था। बलराम ने प्रभासतीर्थ में जाकर समाधि ली। कृष्ण भी दुखी होकर प्रभासतीर्थ चले गए, जहाँ उन्होंने मृत बलराम को देखा। वे एक पेड़ के सहारे योगनिद्रा में पड़े रहे। उसी समय जरा नाम के एक शिकारी ने हिरण के भ्रम में एक तीर चला दिया जो कृष्ण के तलवे में लगा और कुछ ही क्षणों में वे भी परलोक सिधार गए। उनके पिता वसुदेव ने भी दूसरे ही दिन प्राण त्याग दिए।

सच्चे धर्मं का स्त्रोत वेद ही है | इसलिये मनु जी महाराज ने कहा है “धर्मं को जानना चाहे, उनके लिए परम श्रुति अर्थात वेद ही है, यह माना है |”

यजुर्वेद १२.४० में कहा है इन ऊन रूपी बालो वाले भेड, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालो को मत मार |

अथर्ववेद .१६ में कहा है “यदि हमारे गौ,घोड़े पुरुष का हनन करेंगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हनन कर्ता रहे | अर्थात पशु, पक्षी आदि प्राणियों केवध करने वाले कसाई को वेद भगवान गोली से मारने की आज्ञा देते है |”

अब ऐसे में मर्यादा पुरषोतम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण कैसे किसी निर्दोष प्राणी की हत्या कर सकते है | वे तो वेदों के ज्ञाता थे |

सतीशचंद गुप्ता :-
अगर हम उक्त सवाल पर विचार करते हुए यह मान लें कि पशु बलि और मांस भक्षण का विधान धर्मसम्मत नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्‍वर अत्यंत दयालु और कृपालु है, तो फिर यहाँ यह सवाल भी पैदा हो जाता है कि जानवर, पशु, पक्षी आदि जीव हत्या और मांस भक्षण क्यों करते हैं। अगर अल्लाह की दयालुता का प्रमाण यही है कि वह जीव हत्या और मांस भक्षण की इजाजत कभी नहीं दे सकता तो फिर शेर, बगुला, चमगादड़, छिपकली, मकड़ी, चींटी आदि जीवहत्या कर मांस क्यों खाते हैं ? क्या शेर, चमगादड़ आदि ईश्वर की रचना नहीं है ?

वैदिक मत :- क्या गुप्ता जी प्राणियों  के साथ अपनी तुलना कर रहे है | पर चलिए ठीक ही किया ऐसा कर के | मनुष्य ईश्वर की उपासना करता है तो उसमे ईश्वर के दया और कृपा के गुण आना स्वाभाविक है पर आप में नहीं आये और मनुष्य में स्वाभाविक ज्ञान के अलावा वह नैमितिक ज्ञान को भी धारण करता है | ये दोनों ही गुण पशुओ में न होने के वजह से उनमे दया और कृपा नहीं होती फिर भी एक गुण उनमे मनुष्य से अतिरिक्त होता है और वह है परमात्मा ने जैसा उनका शरीर बनाया है वे वैसा ही भोजन ग्रहण करते है गुप्ता जी पर मनुष्य ज्ञानी होते हुए भी शारीरिक व्यवस्था के विपरीत भोजन ग्रहण करता है और जिम्मेदार ईश्वर को ठहरता है |

सतीशचंद गुप्ता :- विश्व के मांस संबंधी आंकड़ों पर अगर हम एक सरसरी नज़र डालें तो आंकड़े बताते हैं कि प्रतिदिन 8 करोड़ मुर्गियां, 22 लाख सुअर, 13 लाख भेड़-बकरियां, 7 लाख गाय, करोड़ों मछलियां और अन्य पशु-पक्षी मनुष्य का लुकमा बन जाते हैं। कई देश तो ऐसे हैं जो पूर्ण रूप से मांस पर ही निर्भर हैं। अब अगर मांस भक्षण को पाप व अपराध मान लिया जाए तो न केवल मनुष्य का जीवन बल्कि सृष्टि का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। जीव-हत्या को पाप मानकर तो हम खेती-बाड़ी का काम भी नहीं कर सकते, क्योंकि खेत जोतने और काटने में तो बहुत अधिक जीव-हत्या होती है।

वैदिक मत :- चलिए आप एक काम करिये रोटी,दाल,चावल, सब्जी कुछ भी ग्रहण मत कीजिये मात्र मांस खाइए और जी के बताइए आप जी नहीं सकते | ये बकवास है एक काल ऐसा भी था की सृष्टि पर जिव हत्या पर मृत्यु दंड की शिक्षा थी पर सृष्टि तो उस अवस्था में आज से भी अच्छी तरह से चली | ये मात्र आपकी सोच है कोई सिद्धांत नहीं है | खेती एक वैदिक कार्य या कर्म है जो समाज के लिए है अगर अनाज नहीं होंगा तो खायेंगे क्या ? पर मांसाहार निजी स्वार्थ है क्यों की कोई भी पशु मरना नहीं चाहता यही सिद्ध करता है यह ईश्वरीय व्यवस्था नहीं है | पर खेती ईश्वरीय नियम के अनुसार होती है न की व्यक्ति विशेष के नियम अनुसार |

सतीशचंद गुप्ता :- विज्ञान के अनुसार पशु-पक्षियों की भांति पेड़-पौधों में भी जीवन Life है। अब जो लोग मांस भक्षण को पाप समझते हैं, क्या उनको इतनी-सी बात समझ में नहीं आती कि जब पेड़-पौधों में भी जीवन है तो फिर उनका भक्षण जीव-हत्या क्यों नहीं है? फिर मांस खाने और वनस्पति खाने में अंतर ही क्या है ? यहाँ अगर जीवन Life ; और जीव Soul; में भेद न माना जाए तो फिर मनुष्य भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों की श्रेणी में आ जाता है। जीव केवल मनुष्य में है इसलिए ही वह अन्यों से भिन्न और उत्तम है।

वैदिक मत :- उसमे भले ही जिव है पर पशु की चेतना में और वृक्ष की चेतना में बहोत अंतर है | वृक्ष की चेतना आतंरिक है और पशु की चेतना बाह्य है | इसलिये जब हम किसी पेड पौधे का सेवन करते है तो उनको दुःख नहीं होता और पशु को अत्यंत दुःख सहना पड़ता है | पेडपौधों का सेवन मनुष्य के लिए ईश्वरीय व्यवस्था है जब की पशु की हत्या कर के खाना नहीं | फल हमेशा पक कर निच्चे गिर जायेंगा पर ऐसी कोई व्यवस्था पशुओ में नहीं |

सतीशचंद गुप्ता :- विज्ञान के अनुसार मनुष्य के एक बार के वीर्य Male generation fluid स्राव (Discharge) में 2 करोड़ ‘शुक्राणुओं (Sperm) की हत्या होती है। मनुष्य जीवन में एक बार नहीं, बल्कि सैकड़ों बार वीर्य स्राव करता है। फिर मनुष्य भी एक नहीं करोड़ों हैं। अब अगर यह मान लिया जाए कि प्रत्येक ‘शुक्राणु (Sperm) एक जीव है, तो इससे बड़ी तादाद में जीव हत्या और कहां हो सकती है ? करोड़ों-अरबों जीव-हत्या करके एक बच्चा पैदा होता है। अब क्या जीव-हत्या और ‘‘अहिंसा परमों धर्मः’’ की धारणा तार्किक और विज्ञान सम्मत हो सकती है

वैदिक मत :- यह ईश्वरीय व्यवस्था है गुप्ता जी करोडों शुक्रानोओ में से कोई एक शुक्राणु गर्भ में जाए और गर्भ स्थापित होंगा | यह नियम है और वैज्ञानिक है एक शुक्राणु गर्भ मे जायेंगा तो गर्भ स्थापना होना बहोत मुश्किल हो जायेंगा | और जब उन शुक्रनुओ ने शरीर ही धारण नहीं किया तो उनको दुःख कैसा और उनकी मृत्यु कैसी ? जिव हत्या तो तब हुई जब शरीर धारण किया | हत्या तो आप करते हो गुप्ता जी | जिव की कभी हत्या नहीं होती, शरीर का त्याग ही मृत्यु कहलाती है | अवश्य पशु हत्या की धारण तार्किक और विज्ञान सम्मत है क्यों की उस अवस्था में जीव ने शरीर धारण कर लिया |

सतीशचंद गुप्ता :-  जहाँ-जहाँ जीवन है वहाँ-वहाँ जीव (Soul) हो यह ज़रूरी नहीं। वृद्धि- ह्रास , विकास जीवन (Life) के लक्षण हैं जीव के नहीं। आत्मा वहीं है जहाँ कर्म भोग है और कर्म भोग वही हैं जहाँ विवेक (Wisdom) है। पशु आदि में विवेक नहीं है, अतः वहां आत्मा नहीं है। आत्मा नहीं है तो कर्म फल भोग भी नहीं है। आत्मा एक व्यक्तिगत अस्तित्व (Cosmic Existence) है जबकि जीवन एक विश्वगत अस्तित्व (Individual Existence) है। पशु और वनस्पतियों में कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं होता। अतः उसकी हत्या को जीव हत्या नहीं कहा जा सकता। जब पशु आदि में जीव (Soul) ही नहीं है, तो जीव-हत्या कैसी ? पशु आदि में सिर्फ और सिर्फ जीवन है, जीव नहीं। अतः पशु-पक्षी आदि के प्रयोजन हेतु उपयोग को हिंसा नहीं कहा जा सकता।

वैदिक मत :- क्यों जरुरी नहीं जीवन का ही दूसरा नाम चेतना है जो जीव के बगेर हो ही नहीं सकती |वृद्धि और विकास उसी शरीर में देखने को मिलेंगे जहा जीव है जहाँ जीव नहीं वह वृद्धि और विकास भी नहीं | किसी मृतक शरीर में यह सब लक्षण प्राप्त नहीं होंगे गुप्ता जी | कर्म और भोग तो एक दूजे के पूरक है | कर्म है तो भोग है और अगर कर्म नहीं तो भोग भी नहीं | जहाँ जड़ और चेतन का प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाए उसे विवेक कहते है और वह निरंतर पुरषार्थ करने से प्राप्त होता है नाकि मात्र साधारण कर्म और भोग  से | कर्म और भोग की व्यवस्था तो पशुओ में भी है पर उनमे विवेक नहीं है | जब बच्चे का जन्म होता है तो क्या उसमे विवेक होता है | कर्म-भोग होता है ? तो फिर क्या उसमे जीव नहीं है गुप्ता जी ? आप मात्र शब्दों का जाल बना रहे है सरल और सिद्धि बात है आत्मा है तो जीवन है ये भी एक  दूजे के साथी है | आत्मा नहीं रहेंगी तो जीवन भी नहीं रहेंगा और अगर जीवन रहेंगा तो आत्मा भी रहेंगी | पशुओ में साधारण कर्म की व्यवस्था है, पशुओ में भोग है, और पशुओ में जीवन है तो पशुओ में आत्मा कैसे नहीं ?

अगर पशुओ में आत्मा नहीं है तो जो स्वाभाविक ज्ञान हमे उनमे दीखता है वह किसका गुण है आत्मा का या शरीर का ? अगर आत्मा नहीं तो शरीर का है और अगर शरीर का है तो मृतक शरीर में फिर क्यों नहीं दीखता ? यह गुण आत्मा का है जो आत्मा के साथ आता है और आत्मा के साथ चला जाता है |अंत में तुमने ही मान लिया की पशुओ में जीवन है जीव नहीं यह जीवन शब्द जीव से ही बना है | जीव है इस लिए जीवन है और जीव नहीं तो मृत्यु है | अत: पशु पक्षी की स्व प्रयोजनार्थ हत्या करना घोर हिंसा है |

 

 

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