हदीस : लियान (लानत भेजना)

लियान (लानत भेजना)

अगर कोई आदमी अपनी बीबी को व्यभिचाररत पाता है तो वह व्यभिचारी पुरुष की हत्या नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना मना है। न ही वह अपनी बीबी के खिलाफ आरोप लगा सकता है, क्योंकि जब तक चार गवाह न हों, औरत के सतीत्व पर झूठा लांछन लगाने पर उसे अस्सी कोड़े खाने पड़ेंगे। लेकिन अगर गवाह न मिल रहे हों, और ऐसे मामलों में अक्सर होता है, तो उसे क्या करना चाहिए ? मोमिनों को यह दुविधा मुश्किल में डाले हुए थी। एक अंगार (मदीना-निवासी) ने मुहम्मद के सामने यह मसला रखा-“अगर एक व्यक्ति अपनी बीवी को किसी मर्द के पास पाता है और वह उसके बारे में बोलता है, तो आप उसे कोड़े मारेंगे। और अगर वह मार डालता है तो आप उसे मार डालेंगे। और अगर वह चुप रह जाता है तो उसे गुस्सा पीना पड़ेगा।“ मुहम्मद ने अल्लाह से विनती की-“अल्लाह ! इस मसले को हल करो“ (3564)। और उन पर एक आयत (कुरान 246) उतरी जिसने लियान की प्रथा जारी की। इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है “कसम“ लेकिन पारिभाषिक अर्थ में यह शब्द क़सम के उस विशिष्ट रूप के लिए प्रयुक्त होता है जो चार क़समों और एक लानत के जरिये ख़ाविंद को बीवी से अलग कर देता है। अकेले खाविंद की गवाही तब स्वीकार की जा सकती है, जब वह अल्लाह की कसम के साथ चार बार यह गवाही दे कि वह पक्के तौर पर सच बोल रहा हो तो उस पर अल्लाह का रोष प्रकट हो। इसी प्रकार कोई बीवी अपने ऊपर गले अभियोग को चार बार क़सम खा कर अस्वीकार कर सकती है और फिर अपने ऊपर लानत ले सकती है कि उस पर अभियोग लगाने वाले ने अगर सच बोला है तो उसके (बीवी के) ऊपर अल्लाह का रोष प्रकट हो। दोनों में से एक ने जरूर झूठ बोला होगा। लेकिन मामला यहीं खत्म हो जाता है और इसके बाद वे दोनों मियां बीवी नहीं रह जाते (3553-3577)।

author : ram swarup

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

1903 ई0 की बात है प्रसिद्ध विद्वान् व लेखक श्री मुंशी इन्द्रमणिजी मुरादाबाद के एक अज़ीज़ भगवतसहाय भ्रष्ट बुद्धि होकर मुसलमान बन गये। वह मुंशी इन्द्रमणि, जिसकी लौह लेखनी से इस्लाम काँपता था, उसी की सन्तान में से एक मुसलमान बन जाए! मुसलमान तब वैसे ही इतरा रहे थे जैसे हीरालाल गाँधी के मुसलमान बनने पर। तब आर्यसमाज लाहौर में मुंशीजी के उस पौत्र को पुनः शुद्ध करके आर्यजाति का अङ्ग बनाया गया। मुंशी जगन्नाथदास के बहकावे

में आकर ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज के विरुद्ध निराधार बातें कहने व लिखनेवाले मुंशी इन्द्रमणि तब जीवित होते तो ऋषि के उपकारों का ध्यान कर मन-ही-मन में कितना पश्चाज़ाप करते! आज भी इस बात की आवश्यकता है कि आर्यसमाज शुद्धि के कार्य को सतर्क व सक्रिय होकर करे। इसके लिए जन्म की जाति-पांति की गली-सड़ी कड़ियाँ तोड़ने का हम सबको साहस

करना चाहिए।

ढोंगी बाबाओं की दौड़ में एक चेहरा ये भी मौलाना अग्निवेश

 

agnivesh 1

देश में बढ़ रहे बाबाओं के प्रकोप और उनकी उग्र भीड़ ने इस देश को यह सीख तो दे ही दी है की इस देश में पाखंड अपने चरम पर है

गुरुडम की परम्परा कितनी घातक है इस देश के लिए जिसका नमूना हरियाणा दो बार देख चूका है और थोड़ी सी आशा जगी है की देश की आने वाली पीढ़ी अब इस गुरुडम से दूर रहेगी

मेरा मन्तव्य यह नही की किसी को गुरु न समझे गुरु तो हर वह मनुष्य है जिससे आप कुछ न कुछ किसी न किसी प्रकार से सीखते है परन्तु वह गुरु घातक है जो “गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय” वाली पंक्तियों को अपने पर लागू करवाते है

अर्थात वह गुरु घातक है जो अपने आप को ईश्वर के समकक्ष और उससे ऊपर दिखाए

 

आज इस देश में यही तो सब कुछ हो रहा महत्वकांक्षाओं के दायरे को पूरा करने के लिए कुछ लोग अपने आप को बाबा सिद्ध कर अपने शासन करने के स्वप्न को पूरा करने के लिए हर हद पार कर रहे है

मेरा मानना है की विद्वान कोई भी हो स्कोलर कैसा भी हो जब आपको उसमें अहंकार एक सिमित मात्रा से अधिक दिखने लग जाए उसे दरकिनार करना ही उचित है क्यूंकि उस राम रूपी विद्वान (जिसमें अहंकार बढ़ता जा रहा है) को आपके अत्यधिक समर्थन से रावण बनते देर नहीं लगेगी

 

इसी गलती से आज इस देश को कुछ रावण मिले है

 

रामपाल

रामवृक्ष

राम-रहीम

आशाराम

 

इनके समर्थकों में एक बात जो एक जैसी है वह ही शिक्षा का स्तर इन सभी रावणों के समर्थक लगभग निरक्षर या अल्पबुद्धि वाले है परन्तु कुछ भेड़ चाल के आदि पढ़े लिखे लोग भी इन रावणों के समर्थक बने बैठे है मेरी पीड़ा उस वर्ग को लेकर अधिक है क्यूंकि बिन आँखों के व्यक्ति का ठोकर खाकर गिरना और कई जगहों पर गिरते रहना स्वाभाविक और उसमें उसकी गलती नही परन्तु आँखे होते हुए जो गढ़े में गिरे ऐसे लोगों के प्रति पीड़ा होना लाजमी है

मुझे आश्चर्य होता है की इस विकासशील देश में जो एक जगह तो चाँद पर पहुँच चूका है और एक जगह आज भी कुछ तथाकथित बाबाओं का अंधभक्त बना हुआ है ऐसा क्यों है

 

जवाब बहुत साधारण है

 

वैदिक शास्त्रों से दुरी, वेदों के प्रति अरुचि, अनभिज्ञता, और अवैदिक साहित्यों के प्रति अधिक रूचि |

 

आर्य समाज में भी इसी तरह का एक व्यक्ति घुसा हुआ है (जबरदस्ती एक सभा के पद पर काबिज है)

आर्य समाज ने तो इस व्यक्ति की खाल के निचे छुपे भेड़िये को पहचान लिया है अब हमारा कर्तव्य है इसके बारे में आपको जानकारी दे दी जाय सूचित किया जिससे आने वाले समय में यह भेड़िया इन रावणों की तरह देश को वह और उसके अंधभक्त नुक्सान न पहुंचा सके

और आर्य समाज निवेदन करता है की देश में फेले ऐसे सांपो को पहचान कर समय पर ही इनके फन काट दिए जाए अन्यथा देश पुनः कई घातक परिणाम भुगतेगा

आर्य समाज में एक तथाकथित, मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाला अग्निवेश जबरदस्ती घुसा बेठा है आर्य समाज ने तो उसे उसके पसंद के मजहब के लोगों का पसंदीदा तीन तलाक दे दिया है परन्तु यह व्यक्ति अब भी अपने वीडियों कार्यक्रमों में स्वामी दयानन्द सरस्वती की फोटो लगाकर लोगों को गुमराह कर रहा है और आर्य समाज के प्रति लोगों के हृदय में विष घोल रहा है

चिंता तो अब यही है की जिस प्रकार व्यक्ति पूजा में अंधे लोग जिस प्रकार इन बाबाओं के समर्थन में देश में आगजनी करते आये है उसी तरह यदि इस अग्निवेश पर शिकंजा नहीं कसा गया तो मुसलमान वैदिक धर्म के प्रति उग्र और हावी होने लगेंगे और इसके समर्थक जो एक शांतिप्रिय सम्प्रदाय से है वे समय आने पर अग्निवेश के लिए भी इस देश में आगजनी कर देंगे

अग्निवेश किसी प्रकार का समाज सेवी नहीं अपितु एक षड्यंत्र का हिस्सा है यह वामपंथी विचारधारा का व्यक्ति इस देश की अखंडता और सम्प्रभुता को नष्ट करने के लिए कार्यरत है

इसका जितना विरोध किया जा सकता है करना चाहिए

अंत में एक निवेदन

अपने वास्तविक पिता (ईश्वर जो निराकार है सर्वव्यापी है) को छोड़कर गल्ली कुचे में बैठे बाबाओं को अपना पिता मत बनाइए

उन्हें अपना पिता बनाने से आपका सर्वनाश ही है कल्याण नहीं

हदीस : मातम

मातम

जिस औरत का पति मर गया हो उसे इद्दा की अवधि में साज-सिंगार से परहेज करना चाहिए। लेकिन दूसरे रिश्तेदारों के लिए तीन दिन से ज्यादा का मातम नहीं करना चाहिए (3539-3552)। अबू सूफियां मर गये। वे मुहम्मद की बीवियों में से एक, उम्म हबीबी, के पिता थे। उसने कुछ इत्र मंगाया और अपने गालों पर मला और बोली-“क़सम अल्लह की ! मुझे इत्र नहीं चाहिए। लगाया सिर्फ़ इसलिए कि मैंने अल्लाह के पैग़म्बर को यह कहते सुना-अल्लाह और बहिश्त पर यक़ीन रखने वाली मोमिन औरत को इस बात की इज़ाज़त नहीं है कि वह मृतकों के लिए तीन दिन से ज्यादा का मातम करे, किंतु पति की मृत्यु के मामले में चार महीने और दस दिन तक मातम करने की इज़ाज़त है“ (3539)।

author : ram swarup

आर्यसमाजी बन गया तो ठीक किया

आर्यसमाजी बन गया तो ठीक किया

1903 ई0 में गुजराँवाला में एक चतुर मुसलमान शुद्ध होकर धर्मपाल बना। इसने गिरगिट की तरह कई रङ्ग बदले। इस शुद्धिसमारोह में कॉलेज के कई छात्र सज़्मिलित हुए। ऐसे एक युवक

को उसके पिता ने कहा-‘‘हरिद्वार जाकर प्रायश्चिज़ करो, नहीं तो हम पढ़ाई का व्यय न देंगे।’’ प्रसिद्ध आर्य मास्टर लाला गङ्गारामजी को इसका पता लगा। आपने उस युवक को बुलाकर कहा तुम पढ़ते रहो, मैं सारा खर्चा दूँगा। इस प्रकार कई मास व्यतीत हो गये तो लड़के के पिता वज़ीराबाद में लाला गङ्गारामजी से मिले और कहा-‘आप हमारे लड़के को कहें कि वह घर चले, वह आर्यसमाजी बन गया है तो अच्छा ही किया। हमें पता लग गया कि आर्यसमाजी बहुत अच्छे होते हैं।’ ऐसा था आर्यों का आचरण।

HADEES : PROPER PEADING FOR MUHAMMAD�S DESCENDANTS

PROPER PEADING FOR MUHAMMAD�S DESCENDANTS

We close the �Book of Marriage and Divorce� by quoting one of the very last ahAdIs.  It is on a different subject but interesting.  �AlI, the Prophet�s son-in-law, says: �He who thinks that we [the members of the Prophet�s family] read anything else besides the book, of Allah and the SahIfa [a small book or pamphlet that was tied to the scabbard of his sword] tells a lie.  This SahIfa contains problems pertaining to the ages of the camels and the recompense of injuries, and it also records the words of the prophet. . . . He who innovates or gives protection to an innovator, there is a curse of Allah and that of his angels and that of the whole humanity upon him� (3601).

author : ram swarup

हदीस : तलाक़शुदा के लिए गुज़ारा-भत्ता नहीं

तलाक़शुदा के लिए गुज़ारा-भत्ता नहीं

फ़ातिमा बिन्त क़ैस को उसके पति ने “जब वह घर से बाहर था“ तलाक़ दे दिया। वह बहुत नाराज हुई और मुहम्मद के पास पहुंची। उन्होंने उससे कहा कि ”अटल तलाक़ दे दिये जाने पर औरत को आवास और गुजारे के लिए कोई भत्ता नहीं दिया जाता।“ लेकिन पैग़म्बर ने कृपा करके उसके लिए दूसरा खाविंद खोजने में उसकी मदद की। उसके सामने दो दावेदार थे-अबू जहम और मुआविया। मुहम्मद ने दोनों के खि़लाफ राय दी। कारण, पहले वाले के ”कंधे से लाठी कभी नहीं उतरती थी“ (अर्थात् वह अपनी बीवियों को पीटता रहता था) और दूसरा ग़रीब था। उन दोनों की जगह उन्होंने अपने गुलाम और मुंह-बोले बेटे ज़ैद के लड़के उसाम बिन ज़ैद का नाम पेश किया (3512)।

 

बाद में एक अधिक उदार भावना उभरी। उमर ने व्यवस्था दी कि पतियों को अपनी तलाक़शुदा बीवियों के लिए इद्दा की अवधि में गुजारा-भत्ता देना चाहिए, क्योंकि फक़त एक औरत होने के कारण पैग़म्बर के लफ्जों का सच्चा मक़सद फातिमा ने गलत समझा। ”हम अल्लाह की किताब और अपने रसूल के सुन्ना को एक औरत के लफ्ज़ों की खातिर नहीं छोड़ सकते“ (3524)।

 

इद्दा इंतजार की वह अवधि है, जिसमें औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती। सामान्यतः वह चार महीने और दस दिन की होती है। लेकिन उस बीच औरत अगर बच्चे को जन्म दे दे तो वह अवधि तुरन्त खत्म हो जाती है। एक बार इद्दा खत्म हो जाने पर औरत दूसरी शादी कर सकती है (3536-3538)।

 

चार महीने के लिए भत्ता देना बहुत मुश्किल नहीं था। इस प्रकार पतियों को भविष्य में किसी बोझ का कोई डर न होने से वे अपनी बीवियों से आसानी के साथ छुटकारा पा जाते थे। फलस्वरूप तलाक़ का डर मुस्लिम औरतों के सिर पर बुरी तरह छाया रहता था।

author : ram swarup

जब तक आर्यसमाज का मन्दिर नहीं बनता

जब तक आर्यसमाज का मन्दिर नहीं बनता

यह घटना उज़रप्रदेश के प्रयाग नगर की है। पूज्य पण्डित गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय अपने स्वगृह दया-निवास [जिसमें कला प्रेस था] का निर्माण करवा रहे थे। घर पूर्णता की ओर बढ़ रहा था।

एक दिन उपाध्यायजी निर्माण-कार्य का निरीक्षण कर रहे थे। अनायास ही मन में यह विचार आया कि मेरा घर तो बन रहा है, मेरे आर्यसमाज का मन्दिर नहीं है। यह बड़े दुःख की बात है।

इस विचार के आते ही भवन-निर्माण का कार्य वहीं रुकवा दिया। जब आर्यसमाज के भवन-निर्माण के उपाय खोजने लगे तो ईश्वर की कृपा से उपाध्यायजी का पुरुषार्थ तथा धर्मभाव रंग

लाया। उपाध्याय जी ने अस्तिकवाद पर प्राप्त पुरस्कार समाज को दान कर दिया। मन्दिर का भवन भी बन गया। उसी मन्दिर में विशाल ‘कलादेवी हाल’ निर्मित हुआ।

मैं यह घटना अपनी स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ। घटना का मूल स्वरूप यही है। वर्णन में भेद हो सकता है। यह घटना अपने एक लेख में किसी प्रसङ्ग में स्वयं उपाध्यायजी ने उर्दू

साप्ताहिक रिफार्मर में दी थी। उपाध्यायजी के जीवन की ऐसी छोटी-छोटी, अत्यन्त प्रेरणाप्रद घटनाएँ उनके जीवन-चरित्र ‘व्यक्ति से व्यक्तित्व’ में हमने दी हैं, परन्तु आर्यसमाजी स्वाध्याय से अब कोसों दूर भागते हैं। स्वाध्याय धर्म का एक खज़्बा है। इसके बिना धार्मिक जीवन है ही ज़्या?